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जिस समय प्रिया प्रियतम पारस्परिक परिरम्भण-जन्य रस में निमग्न होते हैं, उसी काल में तीव्रातितीव्र वियोग-जन्य ताप का भी अनुभव करते हैं । सारस-पत्नी लक्ष्मणा केवल सम्प्रयोग-जन्य रस का ही अनुभव करती है और चक्रवाकी विप्रयोग-जन्य तीव्र ताप के अनन्तर सहृदय-हृदय-वेद्य सम्प्रयोग-जम्य अनुपम रस का आस्वादन करती है, परन्तु वह भी विप्रयोग-काल में सम्प्रयोग-जन्य रसास्वादन से वश्चित रहती है। किन्तु नित्य-निकुञ्ज में श्री निकुञ्जेश्वरी को अपने प्रियतम परमप्रेमास्पद श्री व्रजराजकिशोर के साथ सारस पत्नी लक्ष्मणा की अपेक्षा शतकोटि-गुणित दिव्य सम्प्रयोग-जन्य रस की अनुभूति होती है, और साथ ही चक्रवाकी की अपेक्षा शतकोटि-गुणित अधिक विप्रयोग-जन्य तीव्र ताप के अनुभव अनंतर पुनः दिव्य रस की भी अनुभूति होती है । ऐसे ही विषय में भावुकों ने कहा है"मिलेइ रहें मानों कबहुँ मिले ना ।" जैसे भावुकों के भावना-राज्यवाले शून्य निकुञ्ज में ही प्रियतम संकेतित समय में पधारते हैं, किसी अन्य के सान्निध्य में नहीं, वैसे ही वेदान्तियों के यहाँ भी भगवान् से व्यतिरिक्त जो सब दृश्यपदार्थ हैं उनके संसर्ग से शून्य निर्वृत्तिक और निर्मल अन्तःकरण में ही 'तत्पदार्थ' का प्राकट्य होता है । जैसे सर्व-व्यापारों से रहित होकर पूर्ण प्रतीक्षा ही प्रियतम के सङ्गम का असाधारण हेतु है, वैसे ही वेदान्तियों के यहाँ भी पूर्ण प्रतीक्षा अर्थात् कायिकी, मानसी आदि सर्व चेष्टाओं के निरोध होने पर ही 'त्वं पदार्थ' को 'तत्पदार्थ' का सङ्गम प्राप्त होता है। सर्व दृश्य-संसर्गशून्य निर्वृत्तिक निर्मल अन्तःकरणरूप निकुञ्ज में पूर्ण प्रतीक्षा-परायण व्रजाङ्गना-भावापन्न 'त्वं पदार्थ' श्रीकृष्णस्वरूप 'तत्पदार्थ' के साथ यथेष्ट तादात्म्य सम्बन्ध प्राप्त करता है । यही संक्षेप में ब्रजधामतत्त्व तथा उसका रहस्य है । "यच्छक्तयो वदतां वादिनां वै, कुर्वन्ति चैषां विवादसंवादभुवो भवन्ति । मुहुरात्ममोहं, तस्मै नमोऽनन्तगुणाय भूम्ने ॥" यह बात विदितवेदितव्य महानुभावों से तिरोहित नहीं है कि अनन्तकोटिब्रह्माण्डगत विविधवैचित्र्योपेत भोग्यभोक्तृकर्तृकरणादिनिर्माणपटीयसी, अचिन्त्याsनिर्वाच्य कार्य्यानुमेयस्वानुरूप रूपा, श्रुतिसमधिगम्य-याथातथ्यभावा, अवान्तराऽनन्तशक्तिकेन्द्रभूता महाशक्ति जिन प्रत्यस्तमिताऽशेषविशेषमनोवचनातीत प्रज्ञानानन्दघन स्वमहिमप्रतिष्ठ भगवान् के आश्रित होकर उन्हींकी महिमा से सत्ता स्फूर्ति प्राप्त करके सावधानी से जगन्नाटयनियन्त्री होती हुई भी प्रभु की भ्रुकुटिविलासानुविधायिनी होती है, उन सकल अकल्याणगुणगणप्रत्यनीक-निखिल-कल्याण-गुण-गण-निलय, अचिन्त्यानन्तसौन्दर्यमाधुर्यसुधासिन्धु नटनागर में समस्त परस्पर विरुद्ध धर्मों का सामञ्जस्य होते हुए भी स्वमति प्रभव तर्क एवं स्वाभिगत-शास्त्र तदर्थ विवेचनादि द्वारा नाना प्रकार (का) विकल्प कुछ काल से ही नहीं वरन् अनादिकाल से करते हुए परीक्षक दार्शनिक - वृन्द श्रवणया दृष्टिगोचर होते आगे हैं । उन दार्शनिकों का, पारस्परिक अनेक प्रभेद होते हुए भी, भारतीय भाषा में वैदिक तथा अवैदिक शब्द से निर्देश किया जाता है । वेद-तन्मूलशास्त्रानपेक्षव्यक्तिविशेष निर्मित शास्त्र एवं स्वमतिप्रभव तर्कादि द्वारा तत्त्वों को निर्धारण करनेवाले अवैदिक कहलाते हैं । तद्विपरीत भ्रमप्रमाद-विप्रलिप्सा- करणापाटवादि पुरुष स्वभाव सुलभदोपरांरागरहित अपौरुषेय वेद सन्मूलशास्त्र तथा तत्संस्कार संस्कृत प्रज्ञातन्त्र तत्त्वनिर्धारण एवं तत्प्राप्त्यर्थ प्रयत्न करनेवाले वेदिक कहलाते हैं। यद्यपि "भूतं भव्यञ्च यत् किश्चित् सर्वं वेदात् प्रसिद्धचति" इस अभियुक्तांक्ति से तथा सूत्ररूप से अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमयाद्यात्मवाद, शून्यवाद इत्यादि वेदों में पाये जाते हैं तथापि न तो वे वाद सर्वथा सिद्धान्तरूप से वेदों में माने ही गये हैं और न तत्तद्वादाभिमानी अपने वादों के वैदिकत्व में आग्रह करते या गौरव ही मानते हैं । अतः उनके वैदिकत्वाऽवैदिकत्व में कोई विवाद नहीं । वैदिक सिद्धान्तियों का भी जब कि अंशभेद में प्राधान्याशावान्य-भाव से वैमत्य ही नहीं प्रत्युत बाह्यों से भी अधिक पारस्परिक संघर्प है, तब एक शृङ्खलासम्बन्धशून्य परस्पर स्वतन्त्र विचारपद्धति को समाश्रयण करनेवालों में गतभेद्र तथा संघर्ष होना स्वाभाविक ही है । परन्तु इतना होने पर भी क्या सभी सिद्धान्त सर्वांश में नितान्त भ्रममूलक तथा अनिष्टप्रद हैं, अथवा सर्वांश में सभी प्रमामूलक एवं पुरुषार्थप्रद हैं, यह बात कोई भी बतलाने का साहस नहीं करता । यह सत्य है कि स्वसिद्धान्तातिरिक्त सभी प्रायः भ्रममूलक एवं परमपुरुषार्थ से च्युति के हेतु हैं । ऐसे स्वगोष्ठा सिद्धसिद्धान्ताभिमानी आज भी कम नहीं हैं। एकवस्तु-विषयक प्रमाज्ञान एक ही होता है, नानाज्ञान अयथार्थं होते हैं । एक-वस्तु. विषयक अनेक प्रतिपत्तियां अवश्य ही प्राणियों को भ्रम में छोड़ती हैं । चार्वाकों का कहना है कि जब तक जीये सुख-पूर्वक जीये । देह के भस्म हो जाने पर कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहता। इनके मत में नोति और काम शास्त्र के अनुसार अर्थ और काम ये दो ही पुरुषार्थ हैं । अन्य कोई पारलौकिक धर्म या मोक्ष नाम का कोई पुरुषार्थ नहीं है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु ये चार ही भूत हैं । ये ही जब देह के आकार में परिणत होते हैं, तब उनसे चैतन्य शक्ति उसी तरह उत्पन्न हो जाती है, जैसे अन्न-कण आदि से मादक शक्ति उत्पन्न होती है, किंवा हरिद्रा और चूना से एक तीसरा लाल रङ्ग पैदा हो जाता है । अतएव, देह के नाश से उस चैतन्य का नाश हो जाता है । इसलिये चैतन्यविशिष्ट देह ही आत्मा है । प्रत्यक्ष प्रमाण से अतिरिक्त अनुमान, आगम आदि प्रमाणों की इस मत में मान्यता नहीं है । इसीलिये देह से भिन्न आत्मा होने में कोई भी प्रमाण नहीं है । कामिनी-परिरम्भणजन्य सुख ही स्वर्ग है, कण्टकादि व्यथा-जन्य दुःख ही नरक है । लोकसिद्ध राजा ही परमेश्वर है, देह का नाश हो मुक्ति है । 'मैं स्थूल हूँ, कृश हूँ' इस अनुभव से स्पष्ट है कि देह ही आत्मा है । 'मेरा देह है' यह अनुभव 'राहोः शिरः' के समान औपचारिक है। इसपर बौद्धों का कहना है कि बिना अनुमान प्रमाण को स्वीकार किये काम नहीं चल सकता । पशु की भी प्रवृत्ति-निवृत्ति बिना अनुमान की नहीं होती। हाथ में हरी घास लिये पुरुष को देखकर पशु को उस ओर प्रवृत्ति और दण्डोद्यतकर पुरुष को देखकर उस ओर से निवृत्ति होती है। यह सब इष्ट- अनिष्ट का हेतु समझे बिना नहीं हो सकता। इसके सिवा अनुमान प्रमाण नहीं है । यह वचनप्रयोग भी वहीं सार्थक है, जहाँ अनुमान प्रमाण है, ऐसा अज्ञान सन्देह या भ्रम हो, कारण, इन्हींकी निवृत्ति के लिये वाक्यप्रयोग की आवश्यकता होती है। परन्तु दूसरे के अज्ञान, सन्देह, भ्रम आदि का निश्चय दूसरे को प्रत्यक्ष नहीं, अतः आकृति आदि से उनका अनुमान या वचन प्रमाण से निर्णय करना होगा । यह सब बिना किये यदि जिस किसी के प्रति अनुमान प्रमाण नहीं है, ऐसा कहने लग जायँ तो एक तरह का उन्माद ही समझा जायगा । अनुमान से स्पष्ट ही विदित होता है कि अचेतन देह से भिन्न आत्मा है । इन बौद्धों में चार भेद हैं - माध्यमिक, योगाचार, गोत्रान्तिक और वैभाषिक । उनका कहना है कि जां सन् है वह क्षणिक है, जैसे दीपशिखा या वादलों का समूह । सर्वसिद्धान्त - समन्वय अर्थक्रियाकारिता ही पदार्थों का सत्त्व है, वह सबमें है । अतः क्षणिकत्व भी सबमें है । उनके मत में बुद्ध ही देव हैं और समस्त विश्व क्षणभंगुर है। वैभाषिक के मत में बाह्य शब्दादि अर्थ और आन्तर ज्ञान दोनों ही प्रत्यक्ष ग्राह्य हैं । परन्तु सौत्रान्तिक आन्तर अर्थात् ज्ञान को ही प्रत्यक्ष और बाह्य अर्थ को अनुमेय मानता है। उसका कहना है कि एकाकार ज्ञान में शब्द-ज्ञान, स्पर्श - ज्ञान, रूप-ज्ञान इस तरह जो अनेक विलक्षणताओं की प्रतीति होती है, वह बिना बाह्य अर्थ के नहीं बन सकती । अतः ज्ञान की विलक्षणता के उपपादक रूप से बाह्य अर्थों का अस्तित्व अनुमानगम्य है । योगाचार सविकल्प - बुद्धि को ही तत्त्व मानता है । वह वाह्य अर्थ का अस्तित्व नहीं स्त्रोकार करता । माध्यमिक सर्वशून्य हो मानता है। कहा जाता है कि बुद्धदेव का परम तात्पर्यं सर्वशून्यता में हो था । विज्ञानवादी प्रवृतिविज्ञान (नोलादिज्ञान ) को मिटाकर आलयविज्ञानधारा 'अहं अहं' इत्याकारक को ही मुक्ति मानता है। इस पर जैनों का कहना है कि बिना किसी स्थायी आत्मा को स्वीकार किये ऐहलौकिकपारलौकिक फल साधनों का सम्पादन व्यर्थ है । यदि आत्मा दाणिक ही है तो कर्मकाल में आत्मा अन्य और भोगकाल में अन्य ही हुआ । परन्तु यह कथमपि सङ्गत नहीं, क्योंकि जो कर्ता है, वही फलभोक्ता भी होता है । अबाधित प्रत्यभिज्ञा से भी एक स्थायो आत्मा की सिद्धि होती है । "जो मैंने चक्षु से घट देखा था, वहीं मैं हाथ से स्पर्श कर रहा हूँ । मैं, जिसने स्वप्न में हस्ती देखा था, वही मैं जाग रहा हूँ ।" अतः स्पष्ट है कि स्वप्न, जागर आदि में एक ही आत्मा है । जो यह कहा जाता है कि क्षणिक विज्ञान सन्तान में ही पूर्व विज्ञानकर्ता होगा, उत्तरविज्ञान -भोक्ता हागा, ऐसी परिस्थिति में भी दूसरे के कर्म का दूसरा भोक्ता नहीं होगा। क्योंकि इसमें कार्य्यं कारण भाव हो नियामक होगा। अर्थात् एक विज्ञानवारा में तो काव्यं कारण भाव है, परन्तु दूसरी विज्ञानधारा के साथ दूसरी विज्ञानवाग़ का कार्यकारण भाव नहीं है । जैसे मधुर रस से भावित कर्पित भूमि में बोये हुए आग्र बीजों को मधुरिगा अंकुर, काण्ड, स्कन्ध, शाखा, पल्लवादि द्वारा फल में भी पहुँचती है, जैसे लाक्षारस से सींचे हुए कार्पास-बाजा की रक्तता अंकुरादि परम्परा से कपास में पहुँचती है, वैसे ही जिस विज्ञान-सन्तान में कर्ग और कर्मवासना आहित होती है उसी में फल भी होता है । यह भी ठोक नहीं है । कारण, दोनों ही दृष्टान्तों में बीजो का निरन्वय नाश नहीं होता है, किन्तु बीज के हो सूक्ष्म अवयव भिन्न-भिन्न भावना से भावित होकर फलादि रूप में पूर्ण विकसित होते हैं। परन्तु दक्षणिकवादी के मत से तो विज्ञान का निरन्वय नाश होता है। इसके सिवा जैसे पिपीलिकाओं से भिन्न होकर उनकी पक्ति नाम की कोई वस्तु नहीं है, ठीक वैसे ही सर्वत्र सन्तानी से भिन्न हाकर सन्तान कोई वस्तु नहीं है । ज्ञान-ज्ञेय दोनों भिन्न काल में हो तो भी ग्राह्य-ग्राहक भाव नहीं बनेगा और यदि सव्येतर विषाण के समान समकाल में हो तो भी ग्राह्य-ग्राहक भाव नहीं बनेगा अतः स्थायित्व स्वीकार करना ही चाहिये । अतः 'अकृताभ्यागमकृतविप्रणाश' आदि दोषवारणार्थ स्थायी आत्मा का मानना अनिवार्य है । इनके मत में अनादि एक परमेश्वर कोई नहीं है किन्तु तप आदि से आवरण के प्रक्षीण हो जाने पर जिस आत्मा को अशेष विज्ञान हो गया वही सर्वज्ञ है। वह क्रमेण अनेक होते हैं । उन सर्वज्ञों से निर्मित आगम ही शास्त्र हैं, देह्- परिमाणपरिमित आत्मा है । बन्ध दशा में जीव जल में लोष्टबद्ध तुम्बिका के समान डूबता उतराता है। मोक्ष दशा में उसकी लघु तूल के समान सतत ऊर्ध्वं गति होती है । नैयायिकों का कहना है कि आत्मा देहादि से मिन्न व्यापक एवं ज्ञानादि गुणों युक्त और नाना है । विश्वकर्ता एक परमेश्वर को स्त्रोकार किये बिना जगन्निर्माण, कर्मफल-व्यवस्था आदि कुछ भी न बनेगी। प्रत्यक्ष अनुमान और एक सर्वज्ञ पर मेश्वर - निर्मित वेद एवं तदविरुद्ध आर्ष आगम एवं उपमान प्रमाण हैं । तत्त्वज्ञान द्वारा सर्वदुःखोच्छेद ही मुक्ति है । सांख्यवादी कहता है कि आत्मा व्यापक, असङ्ग, अनन्त चेतनरूप है । वह ज्ञानादि गुण एवं कर्तृत्वादि दोषों से रहित है। प्रकृति ही पुरुष के भोग अपवर्ग सम्पादन के लिये महदादि प्रपञ्चाकार में परिणत होती है । प्रकृतिप्राकृत तत्त्वों और उनके धर्मों के साथ विवेक न होने से ही आत्मा में कर्तृत्वादि धर्म का भान होता है। वस्तुतः वे नित्यशुद्धबुद्धमुक्त असङ्ग हैं । अतः सांख्य - विवेक से स्वरूपावस्थान ही मोक्ष है। योगियों का आत्मा और प्रकृति आदि सांख्या के समान ही है । अष्टाङ्ग योग द्वारा चित्त-वृत्ति-निरोध सत्त्वपुरुषान्यता ख्यातिपूर्वक द्रष्टा का स्वरूपावस्थान ही उनका मोक्ष है । प्रकृति का नियमन एवं योगादि पुरुषों को अभीष्टसिद्धि का मूल एक परमेश्वर भी उनके मत में मान्य है । वह क्लेश कर्म-विपाक एवं आशय से अपरामृष्ट है। पूर्व मीमांसकों का कहना है कि जैसे खद्योत (जुगनू ) प्रकाशअप्रकाश उभयरूप होता है वैसे ही आत्मा चेतन अचेतन उभयात्मक है। वेद-विहित कर्मों के द्वारा वह शुभ सुखज्ञान रूप से परिणामी होता है । वेदप्रतिषिद्ध कर्मों द्वारा दुःखादिज्ञानाकार से परिणत होता है। उनके मत में वेद अनादि, अपीरुपेय अतएव स्वतःप्रमाण हैं । अर्थापत्ति अनुपलब्धि प्रमाण द्वारा सी पदार्थों का निर्णय किया जाता है । उत्तर-मीमांसकों में तो बहुत मतभेद है, क्योंकि प्रायः भारतीयों का अधिक तत्त्वान्वेषी समाज उसमें आदर रखता है । इसीसे शाक्तागम, शैवागम, वैष्णवागमादि पथानुयायियों की दृष्टि में अपने आगमों का प्राधान्य होते हुए भी बादरायण महर्षि प्रणीत वैदिक- तात्पय्यं निर्णायक चतुलंदाणी उत्तरमीमांसा से अनुमत स्वसिद्धान्त होने से गौरव मानना उनके लिये अनिवार्य हो गया ! इसीलिये अनेक महानुभावों ने उसे अपनाया और उसपर स्वाभिमत भाष्य टीका-टिप्पणियाँ कीं। एक ही शास्त्र में नहीं, एक ही सूत्र में, सहस्रों भावपूर्ण गम्भीर व्याख्यान हों ! क्या उस शास्त्र-सूत्र-निर्माता या तदाधारभूत वेद भगवान् की महत्ता साधारण बुद्धि के बाह्य का विषय नहीं है ? अस्तु, उत्तरमीमांसा-भाष्यकारों का अतिसंक्षिप्त प्रधान विषय दिखलाते हैं - द्वैतवादी प्रकृति, पुरुष तथा परमेश्वर इत्यादि श्रुति-सूत्र- प्रतिपाद्य विषय मानते हैं। अद्वैतप्रतिपादक श्रुति-सूत्र प्रथम तो हैं ही नहीं, यदि हैं तो भी वे गौणार्थक हैं । अर्थात् उनका स्वार्थ में कुछ तात्पर्य्य नहीं है । ध्यान में रखना चाहिये कि पूर्वमीमांसक से लेकर उत्तरोत्तर सभी सिद्धान्तिय का "प्रमाणं परमं श्रुतिः" ऐसा उद्घोष है । विशिष्टाद्वैतवादियों का कहना है कि अद्वैत नहीं है, यह कहना केवल धृष्टता है । जब कि अद्वैतवादिनी श्रुति विद्यमान हैं, तब उनका तात्पर्य अद्वैत में नहीं है यह भी कैसे कहा जा सकता है ? अतः चित् अचित् उभयविशेषण-विशिष्ट परमतत्त्व अद्वितीय है और वही जगत् का निमित्त तथा उपादान दोनों ही कारण है, केवल निमित्त ही नहीं । "नीलमुत्पलम्" तथा शरीर-शरीरी के समान विशेषण- विशेष्य का पारस्परिक भेद होते हुए भी अभेद या अद्वैत सूपपन्न है । इस पक्ष में भेदवादिनो तथा अभेदवादिनी दोनों ही प्रकार की श्रुतियों का सामञ्जस्य हो जायगा । इस सिद्धान्त के अनन्तर द्वैताद्वैतवादी कहते हैं कि विशिष्टाद्वैत भो ठीक नहीं है, क्योंकि इस पक्ष में विशेषण- विशेष्य का वस्तुतः भेद ही मानते हो तब अद्वैत कैसे हो सकता है ? विशिष्टाद्वैत केवल प्रयोग चातुर्य्य है । अतः इस पक्ष में भी अद्वैतवादिनी श्रुति निरालम्बन ही रह जाती हैं। इस वास्ते चिदचिद्भिन्नाऽभिन्न परमतत्त्व जगत् का उपादान तथा निमित्त कारण है और वहीं श्रुति सूत्र के तात्पर्य का विषय है । जैसे "सुबर्णं कुण्डलं" ऐसे प्रयोग तथा विचार से भी सुवर्ण स्वरूप ही कुण्डल है । इस वास्ते सुवर्ण कुण्डल का अभेद, एवं सुवर्ण जानने पर भी "किमिदम्" ऐसी कुण्डलविषयिणी जिज्ञासा होती है, इसीलिये दोनों का भेद भी है । पयोव्रती दधि नहीं भक्षण करता, दविव्रतो पय से बचता है; गोरसव्रतो दोनों ही का भक्षण करता है । इस तरह व्यवहारपार्थक्य से भेद होता है । 'तदधीनस्थितिप्रवृत्तिमत्वेन' अर्थात् सुवर्णादि कारण के अधीन ही कार्य की स्थिति एवं प्रवृत्ति होती है । अतः अभेद भी है । ठीक ऐसे ही चित् भोक्तृवर्ग, अचित् भोग्यवर्ग परमतत्त्व के अधीन ही स्थिति प्रवृत्तिवाले हैं । अतः परमतत्त्व से अभिन्न हैं; व्यवहार में विरुद्ध धर्म देखने में आता है अतः भिन्न भी है। इस वास्ते चिदचिद्भिनाऽभिन्न परमतत्त्व ही में शास्त्र का अभिप्राय है । शुद्धाद्वेतवा दो इतने पर भी सन्तुष्ट नहीं होते ! उनका कहना है कि परमतत्त्व से पृथक् चित् अचित् किसी तरह से हैं, तभी आप 'तदधीनस्थिति प्रवृत्तिमत्वेन' इस उपाधि से अभेद मानते हैं । वस्तुतः विशिष्टाऽद्वैतवादियों के समान आपके यहाँ भी अद्वैतवादिनी श्रुति सम्यक् स्वार्थपर्यवसायिनी नहीं होती। परमात्मा से व्यतिरिक्त तत्त्व मानने से तत्त्व में परिच्छेद होने से "निरतिशय पूर्णता" भी बाधित होगी। इस वास्ते विशिष्टत्व- भिन्नत्वादि-शून्य शुद्धसच्चिदानन्द परमात्मा ही श्रुति - सर्वस्व है । इस पक्ष में भेदवादिनी तथा अभेदवादिनी दोनों प्रकार की श्रुतियाँ अबाधित रहेंगी । भेदाभेद का परस्पर विरोध होने से एकत्र सामञ्जस्य होना भी असम्भव है । इस पक्ष में "एकोऽहं बहु स्याम्" इत्यादि श्रुतिशतसिद्ध एकतत्त्व ही का बहुभवन अघटिक-घटना-पटीयान् आत्मयोग को महिमा से सम्यक् सूपपन्न हो जायगा । परमेश्वर समस्त विरुद्ध धर्मों का आश्रय है । अतः अणोरणीयस्त्व, महतोमहीयस्त्व, सर्वधारकत्व, सर्वसंसर्गराहित्य, स्वाभिन्न सुख-दुःख मोहात्मक प्रपञ्च निर्मातृत्व, अवि कृतपरिणामित्व भी होने में कोई आपत्ति नहीं । विचित्रस्वरूपाभिन्नआत्मवंभव हो सर्वसमाधान में पर्याप्त है; सदंशाश्रित मायाशक्ति, चिदंशाश्रित संविच्छक्ति, आनन्दाश्रित आह्लादिनी शक्ति के सम्बन्ध से सदादि अंशों का ही प्रकृति प्राकृत तथा पक्षत्रयाऽनुमोदित अणुपरिमाणचित्कणस्वरूप भोवतृवर्ग एवं ज्ञान आनन्द के प्राधान्याऽप्राधान्य से अन्तर्यामी श्रीकृष्ण आदि रूप में अविकृत परिणाम निर्दुष्ट होने से सर्वव्यवहार भी समञ्जस है । इस पक्ष में कारणांश को लेकर अद्वैतवादिनी, सप्रपञ्च को लेकर द्वैतवादिनी श्रुतियाँ भी ठीक लग जायँगी । इसी तरह शैवों तथा पाशुपतों ने भी उत्तरमीमांसा पर भाष्य किया है । द्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि अंशों में वेष्णव भाष्यकारों और शैव भाष्यकारों में भेद नहीं है । प्रत्युत सबका यह दावा है कि यह वाद मुख्य रूप से हमारे हो हैं, दूसरों ने इन्हें चुराया है । वैष्णवमतानुयायियों का कहना है कि शैव भाग्यकार ने वैष्णव विशिष्टाद्वैत को चुराकर अपना रूप-रङ्ग देकर व्यक्त किया है । शैव मतानुयायियों का कहना है कि वैष्णव विशिष्टाद्वैतियों ने ही शैवविशिष्टाद्वैतियों के मत को चुराया है। वैष्णव "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा " इस सूत्र के ब्रह्म पद का विष्णु अर्थ करते हैं, शैव शिव अर्थ करते हैं। वैष्णवों में भी परस्पर विवाद है । कोई ब्रह्म शब्द में श्रीमन्नारायण, कोई रामवन्द्र, कोई श्रीकृष्ण, कुछ लोग श्रीकृष्ण के भो द्वारकास्थ, मथुरास्थ, व्रजस्थ, वृन्दावनस्थ, निकुञ्जस्थ स्वरूपों में मतभेद उठाते हैं । शाक्ताद्वैतवादी अनन्त, अखण्ड, प्रकाशात्मक शिव और उसकी स्वभावभूता, उससे अत्यन्त अभिन्न विभाशक्ति को शक्ति कहते हैं । वही शक्ति बाह्योन्मुख होकर प्रपञ्चव्यञ्जिका होती है । अन्तर्मुख होकर जल शिवस्वरूपा ही होती है । इसके बाद अद्वैतवादियों का कहना है कि आपका भी कहना ठीक है, परन्तु पूर्वोक्त सिद्धान्तियों का भी कहना निर्मूल नहीं । "वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्या", "सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति" इत्यादि श्रुतियों से वेदों का परम तात्पर्य एकमेवाडद्वितीयम्" इत्यादि श्रुतिसहस्रसिद्ध सजातीय-विजातोय-स्वगतभेद-शून्य, पूर्णप्रज्ञानानन्दघन परमात्मा में ही है । अवान्तर तात्पर्थ्य पारमार्थिक सत्ता से कुछ न्यून सत्तावाले अर्थात् अपरि च्छिन्न पूर्ण परमतत्त्व की परमार्थ सत्यता से न्यून सत्तावाले अघटित घटना-पटीयसी अचिन्त्यानिर्वाच्य भगवदीय शक्ति एवं तदीयविकासविविधवैचित्र्योपेत, विश्वजनीनाऽनुभवनिवेदित विश्वव्यवहारोपयुक्त सर्वंतन्त्र सिद्धान्तसिद्ध पदार्थों में भी है । अघटितघटनापटीयान् आत्मवैभव हम भी मानते हैं पर उसे अनिर्वाच्य स्वभाव और मानना चाहिये ? क्योंकि यदि उसे परमात्मतत्त्व से व्यतिरिक्त परमार्थ सत्य मानें तो अद्वैतप्रतिपादक श्रुतियाँ विरुद्ध होती हैं । असत् खपुष्पादिवत् मानें तो प्रपञ्च निर्माणपटीयस्त्व नहीं बनता । परमार्थसत् परन्तु परमतत्त्व से अत्यन्त अभिन्न मानें तो तद्वत् ही अविकारी कूटस्थ होने से उसमें सुख-दुःख-मोहात्मक प्रपञ्च की हेतुता नहीं बनती। भेदाऽभेद सत्त्वासत्त्व विकृतत्वाविकृतत्व समान सत्ता से एक जगह हो नहीं सकते । अन्यथा विरोधमात्र हो दत्ताञ्जलि हो जायगा । यदि श्रुतिप्रामाण्यातु ऐसा मानें सो भी नहीं; क्योंकि शास्त्र अज्ञात-ज्ञापक होते हैं; न कि अकृतकर्तृ । अर्थात् जो वस्तु जैसी है, शास्त्र उसके स्वरूप को वैसा ही बतलाते हैं । वस्तु-स्वभाव को अन्यथा नहीं करते । इस वास्ते जैसे पट अन्वय-व्यतिरेकादि युक्ति तथा वाचारम्भणादि श्रुतियों के विचार से तन्तु व्यतिरिक्त नहीं होता, किन्तु आतानवितानात्मक तन्तु हो पट है तथापि अङ्गप्रावरण, शोतापनयनादि कार्य्यं तन्तुओं से नहीं होता किन्तु पट हो से होता है । अतः विलक्षण अर्थ-क्रिया-निर्वाहक होने से सर्वथा अभिन्न भी नहीं कह सकते । ठीक वैसे ही "अघटित घटनापटीयान्" आत्मयोग भी परमतत्त्वापेक्षया न्यून-सत्ताक अनिर्वाच्य मानना चाहिये । ऐसा मानने में विषम सत्ता होने से द्वैताद्वैत का विरोध भी नहीं होगा । क्योंकि समान सत्तावाले भावाभावों का ही परस्पर विरोध होता है; न कि विषम सत्तावालों का भी । व्यावहारिक सत्ता के रूप्याभाववान् शुचितत्त्व में प्रातिभासिक सत्ता से रूप्यभाव होने में कोई आपत्ति नहीं । तद्वत् परमार्थ सत्ता से अद्वैत तदपेक्षया न्यून अर्थात् व्यावहारिक सत्ता से द्वैत होने में कोई विरोध नहीं । इस पक्ष में व्यावहारिक अर्थात् व्यवहारकाल में आकाशादिवत् अबाध्य क्रियादिनिर्वाहक सत्यतासम्पन्न द्वैत को लेकर समस्त लौकिक - वैदिक व्यवहार तथा अद्वैतवादिनी श्रुतियों का अवान्तर तात्पर्य के विषयभूत द्वत में सामन्जस्य भी पूर्वोक्त सिद्धान्तियों के अनुसार सम्पन्न होगा; तथा त्रिकालाबाध्य व्यवहारातीत परमार्थ सत्य स्वप्रका शात्मक परमतत्त्व के अभिप्राय से अद्वैतवादिनी श्रुति ही नहीं, अपितु समस्त श्रुतियाँ भी अपने महातात्पर्य के विषयभूत अनन्तानन्दात्मक तत्त्व में पर्यवसित हो जायँगी । इन सिद्धान्तों के सिवा स्वाभाविक भेदाभेद, सोपाधिक भेदाभेद, चिदचिदविभक्ताद्वैत आदि अनेक सिद्धान्त हैं । परन्तु प्रायः उक्त मतों से मिलते-जुलते या गतार्थं हो जाते हैं। इनमें वैसे तो प्रायः परस्पर सभी अन्योन्य का खण्डन तथा स्वमतमण्डन करते हैं, परन्तु कुछ तो सिद्धान्तमात्र में विवाद करते हुए भी स्वाभिमत तत्त्व प्राप्त्यर्थं ही प्रयत्न करते हैं; इस वास्ते उनके यहाँ अधिक संघर्ष नहीं प्रवेश करने पाता । परन्तु कुछ लोगों की तो सिद्धान्त या स्वाभिमत तत्त्व प्राप्त्यर्थं प्रयत्न करने से तत्परता छूटकर परमत खण्डन या परकीय इष्टदेव तथा आचार्यों के दोष प्रकट करने में ही प्रवृत्ति होती है । जेसे 'शैव' या 'वैष्णव' लोगों की कट्टरता प्रसिद्ध है; सुना जाता है कि शिवकाञ्ची, विष्णुकाञ्ची आदि परमपुण्य स्थलों में प्रथम ऐसी दशा थी कि एक दूसरों के देवता के उत्सव या रथयात्रा आदि काल में 'अभद्र' अर्थात् शोक के चिह्न एवं अवहेलना का भाव प्रदर्शित किया करते थे। विष्णुभक्त शिव की निन्दा और शिवभक्त विष्णु को निन्दा करते थे । भस्म, रुद्राक्ष, ऊर्ध्वपुण्ड्र, तप्तमुद्रा, कण्ठी आदि विषयों पर ही अतिगहंणीय कलह करते थे । प्रज्ञा का तत्त्व पक्षपात होना स्वभाव है । जरा ध्यान देकर विचारिये कि क्या उक्त समस्त सिद्धान्त सोपानारोहक्रम से किसी सिद्धान्तभूत परमार्थ सत्य परमतत्त्व में पर्यवसित होते हैं; अथवा परस्पर विरुद्ध होने से सुन्दोपसुन्दन्याय से निर्मूल हो जाते हैं ? द्वितीय पक्ष तो ठीक नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि भला थोड़ी देर के लिये बाह्यों को छोड़ भी दें, तो भी तत्तद्वादाभिमानियों से अभिमत तत्तद्देवताओं के अवतारभूत तत्तदाचार्य मात्सर्यादि दोपशून्य "प्रमाणं परमं श्रुतिः" का उद्घोष करते हुए "सर्वभूतानुकम्पया" प्रवृत्त होकर अतात्त्विक निष्प्रयोजन सिद्धान्त स्थापन क्यों करेंगे ? इस वास्ते प्रथम पक्ष ही में कुछ सार प्रतीत होता है। अब प्रश्न यह होता है कि फिर उक्त सिद्धान्तों में कौन सा सिद्धान्त ऐसा है कि जिसमें साक्षात् या परम्परया सभी सिद्धान्तों का सामञ्जस्य हो ? क्योंकि द्वत-अद्वैत अत्यन्त विरोधी सिद्धान्तों का परस्पर सामञ्जस्य होना मानों तेज-तिमिर या दहन-तुहिन का ऐक्य सम्पादन है। इस विषय में समन्वय साम्राज्य पथानुसारी शास्त्र-तात्पर्य - परिशोलन संस्कृतप्रेक्षावानों का कहना है कि "वेदकसमधिगम्य" तत्त्व में आस्था रखनेवाले सिद्धान्तों का सामन्जस्य तो सिद्ध ही है । विशेष विचार से तो अदृष्ट कुछ न मानकर एकमात्र दृष्ट पदार्थ को माननेवाले बाह्य चार्वाक का भी दृष्ट को परमार्थसत्तया कुछ न मानकर केतल अदृश्य, अव्यक्त,
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उपनिषदों में परम सत्व ब्रह्म पूर्ण माना गया है और कहते है कि आत्मा परमात्मा का ही अंश है। यदि परमात्मा पूर्ण स्वरूप है तो पूर्ण का अंश आत्मा भी पूर्ण ही मानी जा सकती है। और अगर आत्मा पूर्ण है तो ...पूर्ण को तृप्ति क्या अतृप्ति क्या...... ? पच्चीसवीं मंजिल की ऊँचाई से समुद्र का नज़ारा काफी साफ और खूबसूरत हुआ करता है। जहाँ तक नजर जाती वहाँ तक फैला हुआ सीमारहित जल प्रपंच ... ऊपर खुले साफ आकाश में ढलता लाल सूरज.... दूर क्षितिज में दोनों का मिलन...आकाश और समुद्र जैसे एक दूसरे से मिल गए हो ... समर्पण और पूर्णता का आभास। तभी शायद सीमाएं अवरोध लगने लगती है ... दृश्य जगत में भी और विचारों में भी ...एक दायरा सा या बंदिश सी। और ...दायरे ..दायरे तो घुटन पैदा करते हैं ....। इसीलिए कहते है कि सागर के पास मन... विचार. सब शांत हो जाते है...सब उथल -पुथल समाप्त हो जाती है.. मन समाधिस्थ हो जाता है। ... शांत... निस्पृह...! 'दीदी... कॉफी.'। प्रतिमा की तंद्रा टूटी। भाप नथुनों को लगते ही अजीब सी ताजगी आ गई। कांता बाई ने गरम कॉफी का प्याला थमाया .. अपने लिए स्टूल खींच लिया। 'क्या सोच रही हो दीदी... पता है आपको बिल्डिंग नम्बर दो की बात। बहुत अन्याय है दीदी। घोर कलजुग'। 'क्यों क्या हुआ'? 'तुम्हें तो कुछ खबर नहीं रहती दीदी। तुम कहीं आती-जाती तो हो नहीं न इसलिए। है तो बात एक साल पुरानी, पर लगता है कि कल की ही घटना हो। पार्क के सामने की बिल्डिंग के बीसवें माले पर तीसरे घर में 'वो' अवन्ती रानी है न , उसकी कहानी। मेरी ननद है न बिमला, वहीं उनके घर काम करती थी। बहुत भली थी अवन्ती रानी ... बहुत भली ... उसका पति महेश्वर बीमा कम्पनी का एजेंट था और एक ही बेटा...सिरजन ....हाँ शायद सिरजन नाम था ...पता है दीदी क्या हुआ '। और फिर शुरु हो गया कांता का अनथक वृतांत। न तो उसकी कहानी थकती थी और न कांता बाई। जब से इस घर में आई थी, पूरा घर संभाले हुई थी। बातूनी पर ईमानदार। उसके द्वारा दी गई मोहल्ले की जानकारी लगभग प्रामाणिक ही होती थी। हाँ कभी कभी अपनी ओर से थोड़ा तड़का अवश्य लगा लेती थी कांता बाई रोचकता के लिए। 'मोक्ष धाम' कई गगनचुम्बी इमारतों की गेटेड़कम्यूनिटी ...शहर का सबसे नामी आलीशान समुदाय ... हर इमारत में कम से कम पच्चीस मंजिले थी। काफी भीड़ -भाड़ की जगह थी। और यही कारण था कि कहानियों की कमी नहीं थी कांता बाई के पास। भरपूर मनोरंजन का पिटारा थी वो क्योंकि उसका पूरा परिवार ही यहीं इन्हीं इमारतों में किसी न किसी के घर पर काम में लगा हुआ था। तो हर बिल्डिंग की खोज खबर उसके पास होना जायज था। प्रतिमा ने सर कुर्सी पर टिका लिया और आंखें बंद कर ली। कांता की कहानी निर्बाध चलती रही। 'क्या दीदी आप तो सो गईं और देखो मेरी कहानी पूरी भी हो गई। आपने कुछ सुना भी कि मैं योंही बोलती रही दीदी'? 'सब सुना। जा. तू लाइट जला दे। अंधेरा होने को आया है'। कांता बाई उठी, बालकनी की बत्ती जलाई और स्टूल को एक ओर सरका कर नीचे जमीन पर ही टांगे फैलाकर आराम से पसर गई। बत्ती के जलते ही पूरी बालकनी रोशनी ने नहा गई। 'देखो तो दीदी, सामने की सड़क कितनी सूनी लग रही है। दिन ढ़लते ही यह सड़क कैसी सूनी हो जाती है...। लोग घूमने पार्क में जाते है. यहाँ नहीं आते। पता नहीं क्यों'। कांता क्षण भर को रुकी ... , 'दीदी...सुनो...मेरा मन तो ड़रता है इस सड़क को देखकर...कितनी सूनी है ...आप भी न ...देर रात यहाँ नहीं जाया करो'। सचमुच वीरान लग रही थी वह सड़क। यह सड़क इसी समुदाय का ही हिस्सा थी ... उसके पिछवाड़े की परिसीमा .. ठीक इस के पार समुद्र का बैकवॉटरस था .. नहरनुमा जल प्रवाह जहाँ सवेरे तो कई सफेद दूधिया सारस पानी पर अपना भोजन ढूँढते दिख जाते थे .. काफी सुंदर होता था सुबह का नजारा ....हाँ शाम को यह जगह सूनी हो जाती थी। इस समुदाय और समुद्र के बीच मुश्किल से दो किलोमीटर का फासला था।बीच में कोई अवरोध भी नहीं था इसीलिए चौबीसों घंटे तेज समुद्री हवासांय-सांय करती बहती रहती थी। इतनी तेज जैसे अपने साथ सब कुछ उड़ा ले जाएगी। सुबह लोग इस सड़क पर टहलने आते थे अपने कुत्तों के साथ पर अंधेरा पड़ते यह जगह सुनसान हो जाती थी.. एक दम वीरान और डरावनी। कोई इक्का-दुक्का आदमी ही दिखता था इस तरफ क्योंकि कम्यूनिटी में तो कई पार्क थे ... कुछ महिलाओं के लिए...कुछ विशेष खेलने के लिए ... कुछ बच्चों के लिए खास ..कुछ जगह तो बड़े -बूढ़ों ने अपने लिए जैसे आरक्षित ही कर ली थी। शाम होते ही अड्डा जम जाता था। हाँ ! पर इस सड़क पर चहल-पहल बिल्कुल नहीं होती थी इसीलिए प्रतिमा को यह सड़क विशेष भाती थी। अकेले घूमना ही उसकी आदत बन गया था।। एकांत शांत वातावरण में वह रात को निकलती और देर समय तक चलती रहती थी। सड़क के एक छोर पर गोरखा तैनात रहता था। एक घंटा चलती तो काफी थक जाती थी और थकने के बाद नींद भी अच्छी आ जाती थी। 'क्यों? क्या खराबी है इस सड़क में'? प्रतिमा कान्ता बाई की अनावश्यक दखलंदाजी से चिड़ गई। आजकल वह उसे हर बात में उसे टोक देती थी। 'न दीदी। देर रात अकेले सुनसान जगहों पर घूमा नहीं करते। आज तो बिल्कुल मत जाना। आज पूनम है ...पता नहीं कब कोई छाया पीछे पड़ जाए'। 'कान्ता बाई ... तुम भी कैसी बातें करती हो? कोई छाया वाया नहीं होती। डर तो जिंदों से लगता है, छाया से क्या ड़रना? और पूनम का चांद ! आज तो मैं अवश्य जाऊँगी। मुझे नहीं विश्वास तुम्हारी इन बेसिरपैर की बातों का। मत टोका करो मुझे। मत ड़राया करो'। प्रतिमा आजकल बहुत जल्दी गुस्सा जाती थी। स्वभाव बहुत चिड़चिड़ा हो गया था। बड़ी जिद्दी हो गई थी। वही करती थी जिसके लिए उसे टोका जाए। 'अब जाओ भी यहाँ से। ...और सुनो रात को अपने लिए कुछ बना लेना। मुझे भूख नहीं। अभी दोपहर का ही भारी लग रहा है। मुझे कुछ नहीं खाना है'। इस वक्त कांता बाई का उपदेश सुनना उसे बहुत बुरा लगा था। 'ठीक है दीदी। अभी ऐसा ही लगेगा ... फिर भूख लगेगी रात को ... हल्का सा बना देती हूँ ... मन करें तो खा लेना। कान्ता बाई उठी और बर्तन लेकर रसोई में चली गई। राजेश अग्रवाल एक बड़ी गार्मेंट्स कम्पनी का मालिक था। राजेश से विवाह करके प्रतिमा खुश थी। विवाह से पहले वह साहित्य की प्रवक्ता थी। उसे अपनी नौकरी से बेहद लगाव था। साहित्य ...उस का मनपसंद विषय। विवाह के दो साल हुए थे। वह अभी बच्चा नहीं चाहती थी लेकिन राजेश के परिवार को पोता चाहिए था और राजेश ने भी उस पर अप्रत्यक्षरूप से दबाव डालना शुरु कर दिया था। उसकी खुशी के लिए प्रतिमा को झुकना पड़ा। अवि गर्भ में आ गया था। महीने बीतते गए और प्रसव के बाद प्रतिमा को अपनी नौकरी छोड़नी ही पड़ी। इस का उसे बहुत दुख था लेकिन अवि की प्यारी सी नन्ही सी मुस्कुराहटों ने उस दर्द को भुला दिया। वह सब भूलकर केवल माँ बन गई। उस समय राजेश का व्यवसाय संघर्ष के दौर से गुजर रहा था तो अवि की सारी जिम्मेवारी भी प्रतिमा पर ही आ गई थी। उसका सारा ध्यान अब अवि में सिमट कर रह गया था। अब वह ही उसकी पूरी दुनिया बन चुका था। फिर धीरे-धीरे अवि बड़ा होने लगा।राजेश को समय लगा अपना व्यवसाय जमाने में...। फिर जब जडें जमनी शुरु हुई तो शाखाएं भी बढ़ने लगी ... समृद्धि आने लगी ..। राजेश की इच्छा थी कि अवि को विदेश भेजकर पढ़ाया जाए। लेकिन प्रतिमा अपने बेटे से दूर नहीं रह सकती थी। घर में इस विषय को लेकर काफी झगड़ा हुआ था। 'वैसे यहाँ क्या कमी है राजेश? फिर मैं अवि के बिना कैसे रह पाऊँगी'। प्रतिमा दिन-रात उससे मिन्नतें करती... मनाने का प्रयत्न करती रही लेकिन ... लेकिन उसकी एक न चली बाप बेटे के सामने। अवि भी मचल रहा था विदेश में पढ़ने के लिए सो उसे फिर झुकना पड़ा। वह मन मसोस कर रह गई। और एक दिन ...एक दिन अवि विदेश चला गया। प्रतिमा बहुत रोई थी। अवि के बिना जीना मुश्किल हो गया था। समय लगा था उसे सामान्य होने में ...उसने बड़ी मुश्किल से अपने को संभाला था। वह फिर से काम करना चाहती थी लेकिन अब तो राजेश का व्यवसाय काफ़ी फैल गया था और वह नहीं चाहता था कि उसकी पत्नी नौकरी करें। जब भी उससे वह अपने दोबारा काम करने की बात कहती वह झट से मना कर देता और उलटे उसे ही समझाने लगता ,'प्रतिमा क्या कमी है तुम्हें बताओ... ? बंगला नौकर गाड़ियाँ...फिर तुम नौकरी करोगी? लेकिन क्यों ? घर बैठो और आराम करो"। 'नहीं राजेश मैं घर में बोर हो जाती हूँ। प्लीज मुझे मत रोको। अब कौन है यहाँ? अवि वहाँ चला गया है और तुम...तुम तो हमेशा कभी इस छोर तो कभी उस छोर ...घूमते रहते हो। मेरा भी सोचो न'। प्रतिमा कहती रही लेकिन वह मानने को तैयार नहीं हुआ। आखिर प्रतिमा हार गई। एक ओर अवि का बिछोह और दूसरी ओर अकेलापन। उसने अपना मन मार लिया। सब से अपने आपको अलग कर लिया। अब वह घंटों कमरे में बंद रहने लगी। साहित्य से नाता टूट गया था। अब तो वह न पढ़ना चाहती थी और न काम करना। सजना संवरना भी लगभग छूट ही गया था। अब उसने शिकायत करना भी छोड़ दिया। वह मानसिक रूप से बीमार हो रही थी।अपने चारों ओर उसने एक दायरा बना लिया था जिसमें वह कैद हो गई थी। उन दायरों में वह किसी को प्रवेश नहीं करने देती थी और स्वयं भी नहीं निकलना चाहती थी। पागलपन हदें पार कर रहा था।। उसे मतिभ्रम होने लगा था। सच सहने की ताकत नहीं रही थी। वह कल्पना में जीने लगी थी। जब कभी पागलपन के दौरे पड़ते तब वह दीवारों से बातें करने लगती। राजेश बहुत चिंतित रहने लगा था। उसने उपचार करवाने का प्रयत्न भी किया था लेकिन प्रतिमा इस विषय में बात करते ही उत्तेजित हो जाती थी चिल्ला चिल्लाकर घर सर पर उठा लेती थी। उसकी हर कोशिश नाकाम हो रही थी। राजेश अपने आप को प्रतिमा का दोषी मानने लगा था इसी लिए उसने इस कम्यूनिटी में अपार्टमेन्ट खरीदा था यह सोचकर कि प्रतिमा यहाँ रहेगी तो लोगों से मिलेगी ... नए मित्र बनाएगी ... घूमेगी फिरेगी तो सामान्य हो जाएगी। लेकिन वह हुआ नहीं था जो सोचा था। प्रतिमा तो और भी कट गई थी। बस इस पिछवाड़े की सड़क पर अकेले घूमना ही उसे पसंद था ... 'वो' भी शाम ढले या रात को जब कोई नहीं होता था तब ...सबसे अलग... सबसे दूर ... एकांत... निर्जन यह सड़क उसके जीवन की ही तरह ..सूनी ..सांय-सांय करती हुई ..उसकी प्रिय जगह बन गई थी। राजेश अब उस पर किसी प्रकार की पाबंदी नहीं लगाना चाहता था क्योंकि परिणाम वह भुगत रहा था।उसे भली-भांति अंदाजा था कि जिस तरह प्रतिमा अपने आप को प्रताड़ित कर रही है ,इसका परिणाम घातक हो सकता है। वह अपने को अनकिए अपराध की सजा दे रही थी। रात के आठ बज चुके थे। चांद निकल आया था। प्रतिमा गुमसुम सी बैठी बड़ी देर तक चांद को निहारती रही। समय हो रहा था ...टहलने जाना था। कपड़े बदलने वह अलमारी की ओर गई। फिर कुछ सोचकर रुक गई। लगा... क्या खराबी है इन कपड़ों में जो पहने हुए हैं ... ठीक ही तो हैं।अनमने ढंग से वह मुड़ी। उलझे बाल गूंथे .चोटी बनाई और चप्पल पहन कर निकल पड़ी। ठंडी हवा के झोंका ने चेहरे को छुआ और सुकून दे गया। देखा ...दूर कोई इक्का दुक्का आदमी उसी की तरह टहल रहा था। वह अभी कुछ ही दूर चली थी कि पाया सड़क तो पूरी तरह सुनसान हो चुकी थी। खंबों से रोशनी झाग की तरह सड़क पर फैली हुई थी। गोरखा कुर्सी पर पाँव ऊपर किए सिकुड़ा हुआ सा ऊँघ रहा था। वह हर रोज की तरह पत्थर की बेंच पर बैठ गई। उसने देखा... दूर अंधेरे में कोई आकृति चल रही है। उसे आश्चर्य हुआ। इतनी रात गए कौन हो सकता है'? 'वो' आकृति धीरे-धीरे चल रही थी। उसका दिल धड़कने लगा। तसल्ली करने का मन हुआ। वह उठी और उसी ओर को चलने लगी। धीरे-धीरे। कुछ ही पलों में दोनों आमने-सामने आ गईं थी। 'वो' एक सुंदर महिला थी ...नजरें मिली... हल्की सी औपचारिक मुस्कान के साथ। फिर ...दोनों एक दूसरे को पार कर गईं। प्रतिमा की जान में जान आयी। वैसे वह इन बातों में विश्वास तो नहीं करती थी लेकिन कांता बाई ने डर का बीज बो दिया था। वह अब थोड़ी आश्वस्त हो गई थी सो सहज होकर चलने लगी। वापस आते वक्त देखा 'वो' एक बेंच पर बैठी हुईं थीं। चालीस तक की उम्र रही होगी ... सफेद सादी सी सूती सलवार कमीज ... चेहरा गोल आंखें कुछ सूजी हुई चौड़ा माथा ... उस ने इस बार एक ही नजर में पूरा मुआयना कर लिया। वह भी उसके सामने वाली बेंच पर बैठ गई। अचानक नया चेहरा देख मन में उत्सुकता जग गई थी। 'आपको पहले तो कभी नहीं देखा? प्रतिमा उसके चेहरे की चमक को ही देख रही थी। बड़ा प्यारा लग रहा था। कोमल .. सौम्य। हवा के कारण उसके बाल उड़ कर गालों को छू रहे थे। 'हाँ। बिल्डिंग नंबर दो के सामने का पार्क है न ... वहीं जाती हूँ टहलने को। आजकल वहाँ बहुत शोर होने लगा है। आए दिन कोई न कोई कार्यक्रम का शोर ... तो अब वहाँ नहीं जाती। इसीलिए देखा ... यहाँ तो काफ़ी शांति है और कोई नहीं रहता ...तो अच्छा लगा ... सो यहाँ चली आई। वैसे मैंने भी आपको कभी नहीं देखा वहाँ उस पार्क में। इतनी रात गए ... आप अभी भी घूम रही है'? उसकी आवाज बहुत मीठी थी ... होंठों पर मुस्कान ...बड़ी प्यारी सी .. अपनापन ओढ़े हुए। 'हाँ! आज देर हो गई। वैसे घर जल्दी जाकर करना भी क्या है? कौन है घर में जो मेरा इंतजार कर रहा है ? आज शनिवार थोड़े ही न है जो अवि का फोन आयेगा ? और राजेश भी तो नहीं है यहाँ ..फिर मैं किसके लिए जाऊँ'? प्रतिमा ने बड़े ही रूखे लहजे में कहा लेकिन फिर तुरंत चुप हो गई। लगा जैसे कुछ गलत कह दिया हो। उसे अजनबी के सामने ऐसा नहीं कहना चाहिए था। क्या जरूरत थी ऐसे बोलने की। वह तो उसे जानती तक नहीं। फिर इतना व्यक्तिगत होने की क्या आवश्यकता थी? वह झेंप सी गई और मुंह दूसरी ओर फेर लिया। दोनों के बीच खामोशी पसर गई। कुछ क्षण पश्चात 'वो' उठी और चुपचाप चलने लगी। 'वो' अभी भी बेंच पर बैठी हुई थी और उस को हड़बड़ी में जाते देख रही थी। प्रतिमा को पहले उसे बिना बताए इस तरह चले आना अच्छा नहीं लगा ... अपने शुष्क व्यवहार पर उसे क्रोध भी आया लेकिन... लेकिन फिर सोचा...'क्या जान पहचान है हमारी? अभी तो मिले थे फिर क्या औपचारिकता को निभाना ? क्या जरूरत है? पता नहीं कल आए भी या नहीं'। वह मन ही मन कुछ अस्थिर सी हो रही थी ...फिर भी न जाने क्योंरुकी... मुड़कर देखा ... हल्के से हाथ हिलाया और अपनी बिल्डिंग की ओर निकल गई। अगली सुबह बालकनी से सड़क का नजारा कुछ और ही लग रहा था। रात का सन्नाटा अब नहीं था। लोग टहल रहे थे .. बच्चे खेल रहे थे , काफी चहल-पहल थी। निर्जन और डरावनी तो वह रात को होती थी। कांता बाई कॉफी लेकर उपस्थित हो गई थी एक नई कहानी के साथ। 'दीदी सुना बिल्डिंग नम्बर चार की बात ... पता है कल क्या हुआ'... कांता का बिल्डिंगोपाख्यान शुरु हो गया। आज प्रतिमा को उसकी बातों में कोई मजा नहीं आ रहा था। वह तो कुछ और ही सोच रही थी। आज वह 'उसी' को याद कर रही थी. मन वहीं उसकी ओर खिंचा चला जा रहा था। न भूल पा रही थी वह चेहरा। कितना प्यारा था ..हंसमुख और खुशमिजाज। शायद ईश्वर की विशेष कृपा रही होगी उसपर। तभी तो इतना नूर बरस रहा था उस चेहरे पर। वह अपने विचारों में खोई रही .उसकी हर बात यत्न पूर्वक याद करती रही। .पता ही नहीं चला कब कान्ता ने कहानी खत्म की और कब रसोई में चली गई।। रसोई से बर्तनों की खनखनाने की आवाजें आ रही थी और हर दिन की ही तरह आज भी प्रतिमा वहीं बैठी इंतजार करने लगी ... दिन ढलने का ..शाम होने का ...और शाम से रात होने का .....। रात के आठ बज चुके थे। बहुत दिनों के बाद उसने अपने लिए हल्का गुलाबी रंग का सूट निकाला ...बालों पर क्लिप लगाकर जूड़ा बनाया , चेहरे को आईने में संवारा...एक दो बार देखकर तसल्ली की और फिर कैनवस पहन कर निकल पड़ी। सड़क सुनसान तो थी लेकिन खंबों की रोशनी से सरोबार। उस ने सड़क पर आकर देखा, आज 'वो' वहीं उसी बेंच पर बैठी हुई थी। मन में एक हिलोर सी उठी ..शायद कल के व्यवहार का अपराध बोध था।। वह सीधी उसके पास चल पड़ी। 'हेलो... कितनी देर हुई आपको आकर? टहल चुकी क्या? प्रतिमा धीमे से बोली और ठीक सामने वाली बेंच पर बैठ गई। 'नहीं अभी आई हूँ। आपका ही इंतजार कर रही थी। कल तो आप अचानक चली गईं थीं? उसने मुस्कुराकर जवाब दिया। 'हाँ। कल मन खराब हो गया था उन आवारा कुत्तों के कारण। मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है उनका रोना। बहुत गुस्सा आता है। आज नहीं दिखाई दे रहे है "वो"। खैर छोड़िए ... हाँ कल...कल आपका नाम भी नहीं पूछा था...। मैं प्रतिमा अग्रवाल हूँ, अग्रवाल टेक्सटाइल का नाम तो सुना होगा ... राजेश अग्रवाल मेरे पति है। एक बेटा है अविनाश ... विदेश में रहता है.... सामने वाली बिल्डिंग देख रही है न , मैं वहीं रहती हूँ .. पच्चीसवां फ्लोर ...मैं साहित्य पढ़ाती थी कॉलेज में... अवि के पैदा होने के बाद मैंने छोड़ दिया ... ये नहीं चाहते न इसलिए ... और आप'? प्रतिमा एक ही सांस में बोल गई। 'उसके' चेहरे पर मुस्कान थिरकने लगी। 'मैं अवन्ती द्विवेदी। बिल्डिंग नम्बर दो में। यहाँ कोचिंग सेंटर में गणित की अध्यापिका थी। मैंने भी छोड़ दिया है अब पढ़ाना ...आपकी तरह ...लेकिन वजह कुछ और थी ...एक बेटा है. सृजन द्विवेदी .. बारह साल का... बोर्डिंग स्कूल में पढ़ता है। जब से मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती है न तभी से बोर्डिंग स्कूल भेज दिया है'। 'और आपके पति'? प्रतिमा की आंखें उसके मनोभावों को पढ़ रही थी। 'वैसे क्या हुआ था आपको'? 'गंभीर कुछ नहीं। ब्रेन में छोटा सा टयूमर हो गया था। जिसके कारण कुछ दिन अस्वस्थ थी लेकिन अब सब शांत हो गया है। मेरे पति बीमा कम्पनी में एजेंट है। महेश्वर द्विवेदी। पार्क के सामने बिल्डिंग नंबर दो की बीसवीं मंजिल पर तीसरा अपार्टमेंट...मेरे जीवन का मोल'। 'वो' कुछ कहते कहते रुक गई। प्रतिमा को उसका वाक्य अजीब सा लगा। 'आपके जीवन का मोल ? यानी ? कुछ समझ नहीं आया'। 'अरे कुछ नहीं। ये बीमा कम्पनी में काम करते है न तो बीमारी का बीमा लिया था जिससे पैसा मिला और घर खरीदा। इनकी यहाँ घर लेने की बड़ी मंशा थी। मेरी पूंजी समझिए, जब मिली तब सब आसान हो गया था'।उसने बड़ी सफाई से बात गोल कर दी। कुछ क्षण चुप रही और फिर उसने अचानक कहा, 'महेश्वर ...मेरे पति महेश्वर ... संहारक शक्ति'! 'संहारक शक्ति? मैं समझी नहीं। संहारक शक्ति? यानी'? 'अरे प्रतिमा जी ... त्रिदेव होते हैं न हमारे पुराणों में ...ब्रह्मा ...विष्णु...महेश्वर ... ब्रह्मा सर्जक शक्ति... विष्णु पालक शक्ति तो महेश्वर...बोलिए और क्या होगा ...संहारक शक्ति ...'। उसने शरारत भरी मुस्कान से कहा। दोनों कुछ क्षण एक दूसरे को देखती रही .. फिर ठहाका मार कर जोर से हंस पड़ी। उनकी हंसी सुनसान सड़क में दूर तक गूँज उठी। वातावरण हल्का हो गया था। 'कितना समय हो गया है अवन्ती जी इस तरह खुलकर हंसते हुए। आज आपने हंसा दिया। सच। मैं सच कह रही हूँ। संहारक शक्ति'। प्रतिमा अब भी हंस रही थी। 'हाँ प्रतिमा जी! अच्छा लग रहा है आपको इस तरह हंसते देखकर ...दिल हल्का हो जाता है'। दोनों धीरे-धीरे खुल रही थी और अब सब सामान्य लग रहा था। प्रतिमा भी अब सहज हो गई थी और सभी शक सुबह सभी दूर हो चुके थे। 'आप ने फिर से नौकरी नहीं ढूँढी? अवन्ती ने जान बूझकर उसे कुरेदा। 'हाँ। करना तो बहुत चाहती थी अवन्ती जी, पर इन्होंने करने नहीं दिया फिर अब तो मन भी उचट गया है। पता है मेरे छात्र मुझे बहुत चाहते थे। कहते थे, मैडम आप पढ़ाती हैं तो पूरा दिमाग में छप जाता है। और मैं भी कितनी तल्लीनता से उन्हें पढ़ाती थी। फिर अवि पैदा हुआ और नौकरी छूट गई तो बहुत बुरा लगा'। प्रतिमा बिना रुके बोले जा रही थी। आज बहुत दिनों के बाद किसी से बात करना अच्छा लग रहा था उसे। 'पर प्यारा सा बेटा भी तो मिला था न आपको ... बताइए कैसे करती आप नौकरी? कौन ध्यान रखता उसका आप से बढ़ कर? अवन्ती की बातें मरहम का काम कर रही थी। उसकी आवाज में बहुत आत्मीयता थी जो प्रतिमा पर प्रभाव कर रही थी। 'हाँ। हाँ। अवि! बचपन में कितना गोल -मटोल था जानती है आप? दो कदम चलता और फिर धड़ाम से गिर जाता था। ममी ममी कहकर लिपट जाता और रोने लगता था। किसी के पास भी नहीं जाता था ..अपने पिता के पास भी नहीं ...केवल मैं ही चाहिए थी उसे ...केवल मैं।। पता है बाद में जिम जाकर वजन कम किया था उसने'। प्रतिमा पेट पकड़कर हंसने लगी थी। लेकिन अगले ही पल अकारण बुझ सी गई। 'लेकिन अवन्ती जी, अब मेरे जीवन का कोई प्रयोजन नहीं है। बेकार जी रही हूँ ... किसी को मेरी आवश्यकता नहीं है और जब किसी को आपकी जरूरत नहीं होती तो जीना दूभर हो जाता है। ऐसे जीवन को खत्म हो जाना चाहिए ... हाँ खत्म'। प्रतिमा की आवाज रुंध गई। आंखें नम हो आईं। अवन्ती कुछ क्षण चुपचाप उसे देखती रही। फिर पलटकर उसने ने एक बिल्डिंग की ओर इशारा करते हुए कहा , 'देखिए न वहाँ। कितनी रंग बिरंगी लाइटें लगा रखी है उस आदमी ने अपनी बालकनी में। पूरा बरामदा कभी लाल कभी नारंगी कभी पीला। कैसा लग रहा है आपको रंगो का खेल' ? 'घटिया। वाहियात। रंग आँखों में चुभ रहे है। बिल्कुल बकवास। यह भी कोई पसंद है? बिल्कुल बेकार'। प्रतिमा का मुंह बिगड़ गया। 'अरे! क्या हुआ ? आप तो बिगड़ गई। यही बात मुस्कुराकर भी कही जा सकती है प्रतिमा जी ... इतना गुस्सा क्यों'? 'इसमें मुस्कुराने की क्या बात है? मुझे ऐसी बदलती फितरत वाले लोग पसंद नहीं। जो रंगो में स्थिरता नहीं देखना चाहते वे दिमाग में भी अस्थिर ही होंगे। मुझे ऐसे लोग बिल्कुल पसंद नहीं'। प्रतिमा का हर वाक्य अपने को सही साबित करने के यत्न में ही निकल रहा था। 'ओफ्फो आप नाराज हो गईं. आप सही है प्रतिमा जी ...बिल्कुल सच कहा आपने। मुस्कुराइए प्रतिमा जी मुस्कुराइए। और फिर वह आपका घर नहीं है। है न'। 'क्या आप मानती है कि मैं ठीक बोल रही हूँ.. मैं सही हूँ न ?...हर कोई समझता है कि मैं ही गलत हूँ'। ? प्रतिमा ने उसके चेहरे पर नजरे टिका दींउत्तर की प्रतीक्षा में। 'हाँ! बिल्कुल सही। आप सही है'। 'क्या आप बिन बात हमेशा यूँ ही मुस्कुराती रहती है? 'हाँ बिल्कुल। खुश रहना मेरी आदत है और फिर परेशान यहाँ कौन नहीं'? अवन्ती उठकर चलने लगी। प्रतिमा भी उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगी। 'मुझे लगता है कोई मुझे समझता ही नहीं। मैं आपकी तरह बिन बात मुस्करा भी नहीं सकती। जब मन उदास हो तो मुस्कुराहट कैसे आ सकती है'? 'सच मानिए प्रतिमा जी मुस्कुराना ही तो जीवन है। वरना लोग तो सुख सुविधाओं के रहते भी रोनी सूरत बनाए जीते रहते है। जीवन रुकता नहीं है। हम रोएं या मुस्कुराएं, रात होती है, दिन होता है। समय नहीं रुकता। तो फिर क्यों न मुसकुरा कर ही इसे बिताएं। और फिर मुस्कुराने की वजह क्या आवश्यक है? उन नाचती हुई रोशनियों को देखिए बस ... हंसी आ जाएगी। इतना विश्लेषण ही क्यों। इतना मत सोचा करिए। दिमाग पर बोझ मत लीजिए। बस सहज हो जाइए। सब आसान बन जाएगा न जाने फिर यह क्षण हो न हो? जीवन रहे या न रहे किसे मालूम'? उसका चेहरा अभी भी खिल रहा था। "आप को समझना कठिन है। आप आशावादी है या निराशावादी? कभी कहती हैं .. मुस्कुराइए और कभी जीवन समाप्त होने की बात करती है'। उसे उसकी बातों में रस आ रहा था। वह उसे सुनना चाह रही थी। लग रहा था कि वो बोलती रहे और प्रतिमा सुनती रहे। 'हाँ प्रतिमा जी ... पता है कहते है कि जीवन हमारे कर्मों का फल है, कर्म भोगने के लिए ही हम यहाँ जन्म लेते है और मेरे हिसाब से जो जिंदा है वह भाग्यवान है। आप जो कह रही है वह एकदम सच है ...लेकिन बस एक जगह आपसे चूक हो गई ... जानतीं हैं ...हर जीवन का प्रयोजन होता है और जब प्रयोजन समाप्त हो जाता है तो जीवन खत्म हो जाता है लेकिन जब तक जीवन है जीना चाहिए। हम किसी को दोष ही क्यों दे अपने कर्मों के लिए? हम हमेशा अपनी खुशी के लिए दूसरों पर क्यों आश्रित बने रहते है। जो चीज बाहर ढूंढ रहे है, वह तो अंदर ही तो है और सोचिए जीवन खत्म करने का अधिकार हमें किसने दिया? यह ईश्वर का क्षेत्र है। आप तो अध्यापिका है ... किसी दूसरे के क्षेत्र में अनधिकार प्रवेश तो अपराध होता है ... आप तो इसे अच्छी तरह जानती है...है न' ? 'यानी'? प्रतिमा उसके बहाव में बहती जा रही थी। दिल को सुकून मिल रहा था। तनाव धीरे-धीरे खत्म हो रहा था। 'यानी जीवन भाग्यशालियों को ही मिलता है। देखिए न इस छोटे से पौधे को'। अवन्ती एक जगह पर चलते चलते रुक गई।... सड़क पर बिखरी रेत में पत्थर पर उगी एक छोटी सी कोंपल को देखकर उसने कहा, 'कितनी प्रतिकूलता में भी यह जी आया है देखिए ... पता नहीं कल रहे या उखड़ जाए लेकिन जब तक है, हरहरा रहा है। झूम रहा है। है न। तो जब यह नन्ही सी जान मुस्कुराकर जी सकती है तो हम क्यों नहीं मुस्कुराते हुए जीए ? बताइए न। जीना एक कला है और मुस्कुराते जीना वरदान'। 'हाँ! आप ठीक कहती है। मैं ने हार मान ली। वैसे आप की बातें बहुत मीठी है ... दिल को सहलाने वाली ..। मुझे आपसे हारना स्वीकार है'। प्रतिमा ने हथियार डाल दिए। 'मैं तो थक गई। आज चार चक्कर पूरे हो गए पता ही नहीं चला। आप नहीं थकी'? 'तो वादा कीजिए हमारे अगली बार मिलने तक ही सही, उलटे सीधे सवालों से आप खुद को परेशान न करेगी और इसी तरह मुस्कुराने का अभ्यास करती रहेंगी ...धीरे-धीरे यह आपकी आदत बन जाएगी और सभी प्रश्नों का हल मिल जाएगा। वैसे जिंदगी इतनी भी मुश्किल नहीं है प्रतिमा जी, बस जीकर देखिए। आप भाग्यशाली हैं'। प्रतिमा चुप सी उसे देखे जा रही थी। मन शांत हो गया था। विचार रुक गए थे। उसने स्वीकृति में हल्के से सिर हिलाया। 'नौ बज गए। मेरे पति तो शहर से बाहर है और घर भी सामने है। इसीलिए देर भी हो तो कुछ नहीं। जल्दी नींद नहीं आती इसीलिए घूम लेती हूँ। अभी निकल जाऊँगी। लेकिन आप के घर में कोई कुछ नहीं कहता ? आप देर रात घूम रही है? 'नहीं। मेरे पति भी अपनी ही दुनिया में व्यस्त रहते है और कभी तो बहुत रात भी हो जाती है। बेटा भी यहाँ नहीं है सो कुछ फर्क नहीं पड़ता'। 'फिर भी। क्या आपको डर नहीं लगता'? प्रतिमा ने सुनसान सड़क को देख कर कहा। 'किससे? यहाँ तो कोई नहीं है तो डर कैसा ? 'भूत-प्रेतों से। 'हाँ...हाँ ... आप मानती हो? विश्वास करती हैं? नहीं ...बिल्कुल नहीं। इसीलिए इतनी रात गए भी यहाँ हूँ'। प्रतिमा ने जोर देकर कहा। उसकी आवाज स्थिर थी। 'तो फ़िर कल क्यों चली गई थी'? 'बताया था न कुत्तों की रोने की आवाज... बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। मन बेचैन हो जाता है। बस'। कुछ क्षण दोनों चुप हो गई थी। निःशब्द। खामोशी। दोनों विचारमग्न। प्रतिमा धीरे से उठी। 'आप और ठहरेंगी'? 'हाँ कुछ देर... बस फिर निकलती हूँ। शुभ रात्रि'। 'जल्दी निकल जाइएगा। और देर नहीं। देर रात सुनसान जगहों पर घूमना ठीक नहीं ...मैं मानती तो नहीं...लेकिन फिर भी ...क्या पता कोई छाया आ जाए। शुभ रात्रि'। प्रतिमा कुछ पल उसके होंठों पर थिरकती प्यारी सी मुस्कान देखती रही। फिर हल्के से हाथ हिलाया और चल दी। अगले कुछ दिनों में आती जाती बारिश की झड़ी लग गई थी। आज कई दिनों बाद धूप निखर कर आई थी। प्रतिमा घर पर ही थी। बहुत दिनों बाद वह अपनी कैद से बाहर निकली थी। सुबह से उसने अपने आप को व्यस्त कर लिया था। अलमारी के सभी कपड़ों को ठीक किया गया था। सभी पुस्तकें करीने से सजाईं गई। अवि की सब चीजें धूल झाड़ कर अलमारी में संभाल कर रखीं गईं। राजेश के कोट भी निकाल कर धूप खाने रख दिए। और फिर कब से छूटा हुआ अपना एमब्रोइड्री का काम पूरा करने बैठ गई। कांता बाई बीच बीच में रसोई से झांक झांक कर उसे इस तरह से काम करते देख रही थी। हमेशा चुपचाप गुमसुम उदास सी बैठने वाली मालकिन आज अकारण चहक रही थी। धीरे- धीरे उसके व्यवहार में बहुत कुछ बदल रहा था। वह सामान्य हो रही थी। अब किसी बात पर उसे गुस्सा नहीं आता था। और कभी आदत वश गुस्सा आता ...तो अवन्ती की बात याद आ जाती और न चाहते हुए भी होंठों पर मुस्कुराहट तैर आती। मन अकारण प्रफुल्लित रहने लगा था। उसने ही तो मंत्र दिया था मुस्कुराने का ..आसान बनने का .. सहज बनने का ... और यह मुस्कुराना आदत बन जाने का भरोसा भी दिया था। शायद यही मंत्र काम कर गया था। अवन्ती ने तो एक दो दिनों में ही जादू कर दिया था प्रतिमा पर। प्रतिमा उसके प्रभाव में तैरती जा रही थी। हमेशा सोचती ... 'एक दो मुलाकातों में ही कभी रिश्ते कितने गहरे बन जाते है! सच ! रिश्ता समय की दीर्घता की मांग कभी नहीं करता। कभी कभी उम्र भर साथ रहकर भी हम अजनबी बने रहते है और कभी कुछ पलों में ही मन के तार जुड़ जाते है। अवन्ती भी उसके जीवन में छा गई थी। उसका मुसकुराता चेहरा कितना भला लगता था, ऊर्जा और शक्ति देता हुआ। प्रतिमा अपने आपको भी वैसा बनाने की कोशिश कर रही थी।। उसकी ऊब खीज उदासी अवसाद घुटन सब धीर-धीरे कम हो रहे थे।कभी कभी तो वह कमरे का दरवाजा बंद कर लेती और घंटों आईने के सामने खड़े होकर सोच में डूबी अपना मुसकुराता हुआ चेहरा देखती रहती। मन ही मन विचार चलते 'कितनी पागल थी मैं...न जाने क्यों मैं ने तो जीना ही छोड़ दिया था। बदला तो अब भी कुछ नहीं ...बस...मन बदल लिया तो सब कुछ बदल गया'। अपना मुसकुराता चेहरा कितना सुंदर लगने लगा था। न जाने क्या खिंचाव था अवन्ती में ... प्रतिमा खिंचती जा रही थी। अबकी बार वह उसके सामने अपना बदला रूप लेकर जाना चाहती थी। अगले कुछ दिन व्यस्तता में गुजरे। आज दस दिन हो गए थे। अवन्ती नहीं दिखीं थी। प्रतिमा रोज जाती , केवल उससे मिलने के लिए ..उसकी बातें सुनने के लिए ...उसकी प्यारी सी मुस्कान देखने के लिए। लेकिन अवन्ती नहीं आई। प्रतिमा घूम लेती .. चक्कर पूरे हो जाते और कदम उसी पौधे के रुक जाते ... उसे कुछ पल देखती रहती ..पास बैठती..सहलाती और खुश होती। वह हरा भरा बड़ा हो रहा था। उखड़ा नहीं था ... जड़े मजबूत हो रही थी.. अब तो एक कली भी आ गई थी। प्रतिमा को उसका जीवन अब अनमोल लगने लगा था। अगले दिन प्रतिमा ने निश्चय किया कर लिया कि वह जाकर उससे मिल आयेगी। दस दिन हो गए। मन में विचार हलचल मचाने लगे थे। .'क्या हुआ होगा? शायद कहीं घूमने गए होंगे। इतनी आत्मीयता दिखा रही थी तो आकर बता तो सकती थी ... घर का पता दिया था न ... हाँ फोन नंबर न लिया था और न दिया था। ... रोज मिलते जो थे ... फिर जरूरत ही नहीं लगी। लेकिन फिर मन न माना ... 'क्या सोचेगी? बिन बुलाए मेहमान की तरह धमक जाऊँ तो क्या अच्छा लगेगा। कुछ दिन और इंतजार कर लेते है। फिर चलूंगी'। प्रतिमा ने आज फिर मन को रोक लिया। पूरे एक सप्ताह बाद राजेश घर आये थे। प्रतिमा काफी खुश थी। राजेश भी बदली हुई प्रतिमा को देख रहा था। न गुस्सा , खीज। हमेशा रूठी और उदास सी दिखने वाली प्रतिमा बड़ी शांत और बड़े प्यार से पेश आ रही थी। राजेश को बहुत अच्छा लग रहा था। वह कुछ चकित तो हुआ था ... कारण भी जानने की कोशिश की थी लेकिन प्रतिमा सफाई से टाल गई थी। उसने कांता बाई से भी जानने की कोशिश की कि प्रतिमा कैसे अचानक बदल गई पर वह भी निरुत्तर थी। जो भी कुछ हुआ था ,अच्छा ही हुआ था। वह तो खुद भी यही चाहता था कि प्रतिमा अपने आप को संभाले। मन लगाए और खुश रहे। अब तक प्रतिमा ने राजेश को अवन्ती के बारे में कुछ नहीं बताया था। वह चाहती थी कि एक दिन उसे घर पर बुलाएगी और सबको बड़ा सरप्राइज़ देगी। आज पंद्रह दिन हो गए थे। हर दिन प्रतिमा जाने का प्रोग्राम बनाती और फिर ठहर जाती। हिम्मत नहीं हो रही थी। अंत में हार कर मन ने निर्णय लिया.. 'चलो चलकर देखा जाए ..हुआ क्या है'?। ठान लिया कि अब वह और कुछ नहीं सोचेगी... मिल ही आएगी। उसका मन घबरा रहा था ... क्या पता तबीयत ही ठीक न हो। और भला उसका घर जाकर मिलना अवन्ती को क्यों खराब लगेगा बल्कि वह तो खुश होगी उसे देखकर। मिल कर आ जाऊँगी। क्या पता तबीयत अचानक बिगड़ गई हो। और उस तक खबर पहुँचे तो भी कैसे ? उसके घरवाले तो उसे जानते ही नहीं है अभी। अगर ऐसा ही हुआ हो तो कुछ दिन बाद जब भी मिलेगी तो अवश्य शिकायत करेगी....'कि प्रतिमा जी मेरी तबीयत ठीक नहीं थी, मैं नहीं आई , पर आप तो एक बार आ सकती थी? एक बार भी मिलने नहीं आई'? फिर मैं क्या मुंह दिखाऊँगी? कितना बुरा लगेगा ? इसी उधेड़बुन में प्रतिमा कब उनकी बिल्डिंग तक पहुँच गई पता ही नहीं चला। शाम के पांच बज रहे थे। धूप अभी भी थी। पार्क के सामने ही बिल्डिंग थी. बिल्डिंग नंबर दो। लिफ्ट में घुसकर उसने बीस नंबर का बटन दबाया। दरवाजा खुलते ही लंबी कोरीडोर में उसकी नजरे तीन नंबर अपार्टमेंट के दरवाजे को ढूँढने लगी। घर के बाहर दीवाल पर नेमप्लेट लगी हुई थी ,'अवन्ती निवास'। उसके होंठों पर मुस्कान तैर गई। उसने उंगलियों से नेमप्लेट को छुआ। सोचा दरवाजा खोलते ही कितना आश्चर्य होगा अवन्ती जी को। मैं भी.. लेकिन ..मुंह बनाऊँगी गुस्से से। उन्हें नापसंद है न मेरा गुस्सा तो उन्हें पता तो चले कि मैं कितनी बेचैन थी उनसे मिलने को'। प्रतिमा ने अपने आप को सहज किया और बेल दबाई। आज दरवाजा खुलने की देरी भी असहनीय लग रही थी। दरवाजा खुला लेकिन एक अजनबी चेहरा सामने आया। 'जी किससे मिलना है आपको? प्रतिमा सकपका गई , फिर से नेमप्लेट पढ़ा कि कही गलत पते पर तो नहीं आ गई। 'देखिए यह अवन्ती जी का घर ही है न...? 'आइए. आइए। आप बिल्कुल सही जगह पर आईं है। वैसे मैंने आपको पहले कभी नहीं देखा'। उसने प्रतिमा को सोफे पर बैठने का इशारा किया। प्रतिमा को तसल्ली हुई कि सब कुछ ठीक ही है और अवन्ती शायद अंदर होंगी ...अभी उसकी आवाज सुन दौड़ी चली आएंगी।। 'दरअसल मैं कई दिनों से आना चाह रही थी लेकिन...'। 'आपने अच्छा किया', उसने बीच में ही टोक कर कहा', 'आप आती तो घर पर ताला मिलता। पन्द्रह दिन हम घर पर नहीं थे ...काशी गए हुए थे। मेरा मायका है वहाँ और अवन्ती दीदी की बरसी भी थी न इसी लिए'। प्रतिमा को जोर का धक्का लगा। कानों पर विश्वास नहीं आया। नहीं नहीं ...क्या कहा इसने .... क्या सुना ? यह औरत क्या बोल रही है...पागल तो नहीं हो गई है यह ? होश में तो है? या नाम सुनने में मुझसे गलती तो नहीं हुई ? लेकिन इतने में उसकी निगाहें सामने दीवार पर टंगी अवन्ती की बड़ी सी तस्वीर पर जा टिकी जिस पर ताजा फूलों की माला चढ़ी हुई थी। प्रतिमा हड़बड़ाकर सोफे से उठ गई। उसे आंखों पर विश्वास नहीं आया। वह कुछ समझ पाने की स्थिति में नहीं थी। सब कुछ नाटक लग रहा था। यह कैसे हो सकता था ? उसे लगा जैसे वह कोई बुरा सपना देख रही है। अभी आंख खुल जाएगी और सब सामान्य हो जाएगा। पांव कांप रहे थे। दिल की धड़कन तेज हो गई थी। बदन पसीने से तर-बतर हो रहा था। तभी कानों पर आवाज पड़ी.. 'पिछले साल जब दीदी की मृत्यु हुई थी न , तब ये विधिपूर्वक संस्कार नहीं कर पाए थे। और फिर घर भी नया खरीदा था। पंडित ने साफ कह दिया था कि नये घर में केवल शुभ कार्य ही करना चाहिए। फिर क्या करते। फिर एक महीने के अंदर तो मैं भी आ गई थी। मेरे आने के बाद जानती है लोगों ने बाते बनाना भी शुरु कर दिया था कि महेश्वर जी दुल्हन ले आए पर बड़ी का क्रिया-कर्म भी नहीं किया। अब लोगों का मुंह भी बंद करना था तो इस साल हम काशी गए। अनुष्ठान किया, ब्राह्मणों को भोज दिया तब जाकर इन्हें शांति मिली। और देखिए न कहते है कि मरे का संस्कार ठीक तरह से न करें तो आत्मा तृप्त नहीं होती। सब निपटाकर हम दो दिन पहले ही वापस आए है। आप बैठिए न ... वहां ही खड़ी है.... आइए न ... मैं आपके लिए चाय बनाती हूँ। वैसे क्या नाम बताया आपने ?मैं राशि द्विवेदी हूँ ... महेश्वर जी की दूसरी पत्नी'। प्रतिमा की आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था। उसका मानसिक सन्तुलन बुरी तरह बिगड़ चुका था। जो दिख रहा था उसका अस्तित्व संदेहात्मक था और जो सुनाई दे रहा था मन उस पर विश्वास नहीं कर रहा था। बुद्धि और शरीर दोनों साथ नहीं दे रहे थे। 'प्रातिमा...प्रतिमा अग्रवाल... मैं... मैं चाय नहीं पीऊंगी। मुझे घर जाना है ... घर ...'।प्रतिमा कांपते कदमों से दरवाजे की ओर मुड़ी। 'अरे प्रतिमा जी रुकिए ...क्या हुआ? आप इतनी परेशान क्यों हो गई ? आपकी तबीयत तो ठीक है? क्या हुआ ? ...चलिए.. कोई बात नहीं ...कुछ देर आराम कर ले तो अच्छा होगा'। 'नहीं मैं चली जाऊँगी'। प्रतिमा की आवाज लड़खड़ा रही थी। .यह मिठाई तो लेकर जाइए। दीदी का प्रसाद है शायद आप के लिए ही एक डिब्बा रह गया था। दीदी तृप्त हो जाएगी'। राशि जल्दी से उठी टेबुल पर रखा मिठाई का डिब्बा प्रतिमा की हथेली पर धर दिया। प्रतिमा चेतना शून्य बाहर की ओर चल दी। अंदर लावा फट रहा था। सर घूम रहा था। कदम ठीक नहीं पड़ रहे थे। इसी घबराहट में दरवाजे पर वह महेश्वर जी से टकरा गई जो तभी अंदर आ रहे थे। गिरते-गिरते बची। उसने अपने आप को संभाला और तेजी से लिफ्ट की ओर चली। लिफ्ट बंद थी। वह बटन दबाना भी भूल गई थी। वहीं बुत सी खड़ी रह गई। तभी महेश्वर जी की आवाज सुनाई दी,' कौन थी 'वो' ? 'प्रतिमा नाम बताया था कह रही थी दीदी की दोस्त है...'। लिफ्ट का दरवाजा खुला। कोई उतरा था , प्रतिमा तेजी से अंदर चली गई। पसीने से हाथ में डिब्बे का ऊपरी कागज भीग चुका था। सांस इतनी तेज चल रही थी कि दिल हलक से निकल कर बाहर आ जाए। लिफ्ट रुकी और वह बाहर तो आ गई लेकिन अब वह अपने घर का रास्ता भी भूल गई थी। समझ नहीं आ रहा था कि उसकी बिल्डिंग किस ओर है। दिमाग पूरी तरह से सुन्न हो चुका था। हड़बड़ाहट में वह उलटी दिशा में पार्क की ओर ही चलने लगी। 'दीदी ...यहाँ कहाँ जा रही हो? और यहाँ क्या करने आई थी ? किससे मिलने?' अचानक किसी की जानी पहचान आवाज सुन प्रतिमा मुड़ी। कांता बाई थी... अपनी ननद के साथ खड़ी हुई। 'कांता... कांता ... प्लीज. मुझे घर ले चल...प्लीज.. मुझे घर जाना है'। प्रतिमा दहाड़ मार कर रो पड़ी। 'हाँ दीदी हाँ। चुप हो जाओ दीदी चुप हो जाओ। ले जाऊँगी। पर दीदी तुम यहाँ आई कैसे और क्यों"। कांता प्रतिमा की हालत देख कर डर गई थी। 'वो...वो... बीस मंजिल... अवन्ती जी ... महेश्वर जी ...बीमा एजेंट'। प्रतिमा कुछ ठीक से बोल भी न पा रही थी। 'क्या... क्या कह रही हो दीदी'? कांता का मुंह खुला का खुला रह गया। 'उस दिन मैंने तुम्हें सब बताया तो था और तुमने सुना भी था तो फिर कैसे तुम उससे मिलने चली आई'? कांता की ननद ठुड्डी पर हाथ रखकर प्रतिमा को ऐसे देख रही थी जैसे उसने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो। 'उस पापी से, उस से तुम्हारा क्या काम? दुष्ट कहीं का ...पत्नी को खा गया... उससे मिलने तुम क्यों आई भौजी? मैं तो उसी के घर काम करती थी ... सिर में फोड़ा हुआ .. डॉक्टर बोला ...आपरेशन करने को ... लेकिन यह दुष्ट बीमा लिया था न पत्नी पर ...रोज इंतजार करता था कब मरे तो पैसा मिले और घर खरीदे... दवा दारू भी बंद कर दी नीच ने ... बड़ी तड़प तड़प कर जान निकली बेचारी की ...बड़ी भली थी ...मेरी कितनी मदद करती थी ... किसी को दुखी न देख सकती थी ...बड़ी देवी आत्मा थी ...क्रिया कर्म भी नहीं किया दुष्ट ने ...एक महीने के अंदर शादी कर ली ..दुल्हन ले आया ... कमीना ...अब बड़ा धार्मिक बनता है ... मुझे भी बुलाकर मिठाई दी ... मैंने तो उसके मुंह पर फेंक दी ... सजा देगा ... भगवान जरूर सजा देगा ... देखना ... यह भी तड़पेगा उसी की तरह ... देखना हाँ ...आप भी मत खाना भौजी ...मिठाई फेंक दे भौजी '। कांता की ननद सिसकती हुई वह बार-बार आंखें पोंछ रही थी। प्रतिमा के कानों में सीटीयाँ बजने लगी। चक्कर आ रहे थे। धरती घूम रही थी। अब और कुछ सुनने की हिम्मत ही नहीं रही। कई सवाल पागल किए जा रहे थे ... 'वो कौन थी.... कौन थी वो? अगर वो अवन्ती नहीं थी तो क्या यह सब मेरी कल्पना था ...? ऐसा कैसे हो सकता है। नहीं ..नहीं ...। वो अवन्ती ही थी'। वह पागलों की तरह इधर -उधर देखने लगी। हाथ का डिब्बा कब का नीचे गिर चुका था और गली के कुत्ते दुम हिलाते हुए मिठाई खा रहे थे। वह बुत बनी देख रही थी। अचानक कानों में जोर -जोर के ठहाके सुनाई देने लगे ...'महेश्वर ...संहारक शक्ति...पापी...कातिल ...खूनी ...। चली जाओ प्रतिमा ...चली जाओ ...फिर यहाँ कभी मत आना'। प्रतिमा बुरी तरह से हांफने लगी ...सांस उखड़ रही थी ... उसने दोनों हथेलियों से अपने कान बंद कर लिए ... बस वह वहाँ से निकल जाना चाहती थी ... चली जाना चाहती थी अपने राजेश के पास .... लेकिन मन था जो चीख-चीख कर कह रहा था , 'अगर अवन्ती थी ही नहीं तो 'वो' कौन सी शक्ति थी था जिसने तुम्हें पुनः जीवित कर दिया ... कल्पना...मतिभ्रम ... ? और अगर 'वो' अवन्ती की आत्मा ही थी तो क्या अब वह तृप्त हो गई है ? हाँ ? ...तो कैसे ? उस पापी महेश्वर के अनुष्ठान से या मेरे पुनर्जन्म से .....'?
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"चाक डोले, चकबन्ना डोले, हमारे गांव के बाहर जो वाम्हनपार का सिवान है, वहीं एक दुबला-पतला पुराना पीपल हुआ करता था। पता नहीं अब वह पेड़ है या नहीं। बचपन में जब हम गाय-भैंसें चराने सिवान की ओर जाते थे तब उसी पेड़ के नीचे चिकई, कबड्डी या कभी-कभार ओल्हापाती खेला करते थे। गांव में लोग ऐसा मानते थे कि हमारे सिवान का यह पीपल ही खैरा पीपल है। मां ने ही शायद कभी बताया था कि प्रलय के दिनों में जब सारी धरती डूब गयी थी, तब डरे हुए देवताओं और सप्तर्षिगण ने इसी पीपल पर शरण ली थी। हमारे गांव को तीन ओर से घेरने वाला गोधनी नाला उसकी जड़ों को छूकर ही आगे बहता था। हमें विश्वास था कि पूरे दुनिया के लोग इस पीपल को आदर और श्रद्धा के साथ, इसकी अनन्त अखंडता, इसकी पवित्र पुरातनता को प्रणाम करते हैं। कुछ अलौकिक किस्म के कौतूहल और रहस्य के रोमांच से अभिभूत हम उस खैरा पीपल को निहारा करते थे। बाद में, मिडिल की पढ़ाई के लिए मैंने कस्बे के स्कूल में दाखिला लिया। सातवीं में हमारे साथ पढ़ने वाला मनोहर, जो किसी दूसरे गांव का था, उसने अपने गांव के पोखर के बारे में बताया कि श्रवण कुमार अपने अन्धे मां-बाप को पीने के लिए उसी पोखर से पानी ले रहे थे, तथा दशरथ ने उन्हें शब्दवेधी वाण से मार डाला था। जब मैंने अपने गांव का महत्व बताने के लिए उसे खैरा पीपल और प्रलय की बात बतायी तो, मुझे यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि वह खैरा पीपल के बारे में कुछ नहीं जानता। जबकि मां ने बताया था कि सारी दुनिया के लोग खैरा पीपल को जानते हैं। असहमति! लेकिन, इस अर्थतन्त्र में, शेयर बाजार की गन्दगी बटोर कर जिन्होंने अपने ड्राइंग रूम को सजा रखा है, जिनकी दिनचर्या बीवी के साथ शुरू होकर टी.वी. के साथ बीत जाती है, भद्र नागरिकता का लबादा ओढ़े जिन्होंने जीवन का व्याकरण कुलीनता के 'फ्रेम' में मढ़ लिया है, उन संवेदनहीन घोघा बसन्तों का तो जिक्र भी मैं नहीं करना चाहता। उनकी नियति है कि वे लोग जार्ज पंचम से लेकर जार्ज बुश के लिए तोरण पताकाएं और बन्दनवार सजाएं, अमरबेल की इन हरी-भरी लताओं ने हर आती-जाती बयार का गीत गाया है। इनके पास भाषा का छद्म है। भीतर गन्दगी और गजालत है। ऊपर ओढ़े हुए कुलीन संस्कार हैं। इन्हीं की प्रतिक्रिया में 'काशी का अस्सी' रचा गया है। अपनी पहली पंक्ति से लेकर आखिरी पंक्ति तक यह उपन्यास इसी मध्यवर्गीय भद्रलोक की ऐसी-तैसी करता हुआ भाषा के कुलीन छद्म को तहस-नहस करता है। जो लोग बेटे का 'बर्थ डे' और गृह प्रवेश का संयुक्त उत्सव करते हैं, जिनके जीवन में हनुमान चालीसा से ज्यादा साहित्य की गुंजाइश नहीं है, होली की गुझिया भर है जिनका सामाजिक सरोकार, उन सारे भद्रजनों को कोट के बटन में गुलाब टांके नेहरू के दरबार में श्रद्धांजलि देकर हम चलते हैं 'काशी का अस्सी'। नब्बे के दशक में जहां भारतीय समाज का समुद्र मंथन चल रहा है। मन्दराचल को लपेटे वासुकि के एक छोर पर देवतागण हैं और दूसरी ओर राक्षस। कमंडल और मंडल। क्या खूब है! जिनके पुरखों ने आदमी को जातियों में बांटा था आज उन्हीं के वंशज दूसरों को जातिवादी बता रहे हैं। बहरहाल...'काशी का अस्सी' में अस्सी चौराहा एक जिन्दादिल चरित्र की तरह हर जगह मौजूद है। कभी तो देश-दुनिया, कभी नगर और कभी मुहल्ले में घटने वाली घटनाएं इस अस्सी के हाथ, पैर, मुंह, नाक-नक्श हैं जिसके बीच से इसकी आकृति उभरती और फैलती रहती है, यह अस्सी 'टिपिकल' नहीं, 'टाइप' है। जैसी बेफिक्र, मौजू और मस्त अस्सी की शाम, वैसी ही काशीनाथ सिंह की खिलंदड़ी भाषा। नामवर सिंह के अलावा इस त्रिलोक में ऐसा कोई नहीं है जो इस भाषा के प्रहार से, मुहावरों की नुकीली धार से, बचकर निकल सके। जैसे कोई नटखट शरारती बच्चा अपने क्लास-टीचर के सामने बिल्कुल आज्ञाकारी भाव से सिर्फ कान को सजग रखे रहता है, वैसे ही बड़े भइया के सामने काशीनाथ सिंह की खिलंदड़ी भाषा। तितली के पंख की तरह विमोहित, विहूल और स्निग्ध। छुट्टी का घंटा बचते ही रास्ते में सबसे पहले मिल गए-'दन्त कथाओं में त्रिलोचन' और फिर 'काशी का अस्सी' तक आते-आते अपने समूचे उछाह, जोश और तरन्नुम के साथ भाषा ने अपने सतरंगी पंखों को खोल दिया। जब 'हंस' में इस उपन्यास की पहली किस्त छपी तो लोगों ने आरोप लगाया कि इसमें अश्लीलता है। गो कि, यह आरोप हिन्दी की कई महत्वपूर्ण रचनाओं पर पहले भी लग चुका था। काशीनाथ सिंह ने सफाई दी-अस्सी की यही भाषा है।-मैंने पहले ही कह दिया है कि इस उपन्यास का मुख्य और एकमात्र चरित्र अस्सी ही है।-'टिपिकल' अस्सी नहीं। 'टाइप' अस्सी। कुछ लोग नमक या हल्दी को ही दाल मान लेते हैं वही लोग अपने को इस उपन्यास का नायक मान बैठे हैं। अस्सी की यह जबान गया सिंह, तन्नी गुरू या रामजी राय के ही भरोसे नहीं है। शिवजी! शंकर बाबा की जबान का नमूना-"बे धरमनाथ! कहां है बे! गधे, सुअर, उल्लू के पट्ठे! निकल बे कोठरी से...चूतिए, मैंने बहुत बर्दाश्त किया रे। जहां मुझे रखा है, वह मन्दिर है कि माचिस?" -"पांडे़ कौन कुमति तोहें लागी' में यह जबान गालियों के 'माइक टायसन' रामजी राय की नहीं है। इसीलिए मैंने नामवर सिंह को छोड़कर पूरे त्रिलोक की बात कही थी। "हैूहें सिला सब चन्द्रमुखी। परसे पद मंजुल कंज तिहारे।। कीन्ही भली रघुनायक जू। ये रामजी राय से भी ऊंचे सुरों में 'हनुमान चालीसा' का पाठ करने लगते। सचमुच इस उपन्यास ने अस्सी की भाषा को भी बदल दिया। भाषा का भाजपाई छद्म त्राहि-त्राहि कर उठा। प्रवीण तोगड़िया की संस्कृतिनिष्ठ तुकबन्दियों का जवाब देते हुए सोमनाथ चटर्जी या सोनिया गांधी के तर्क बाल भी बांका नहीं कर पाते। जबकि लालू यादव के ठेठ गंवई मुहावरे उनकी सही जगह, किसी कबाड़ी के कबाड़ में फेंक आते हैं। दुनिया का सबसे पुराना और जीवित शहर बनारस है। जो लोग बनारस को जानते हैं वे लोग अस्सी को भी जानते हैं, तुलसीघाट, रीवां कोठी, मुमुक्ष भवन, मारवाड़ी सेवा संघ, लोलार्क कुण्ड आदि-आदि के साथ बर्फी की दुकान वाले सीताराम जादो, केदार और पप्पू की चाय की दुकानें अस्सी के आजू-बाजू को घेरे हुए हैं। 'सुख' कहानी के भोला बाबू डूबते सूरज के जिस सौन्दर्य पर अभिभूत हो गए थे, वह अस्सी की ही सांझ में है। जिन लोगों ने बनारस को चैक की तंग गलियों से गुजरते हुए पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर खड़े होकर देखा, बरबस ही उनके मुख से फूट पड़ा-सुबहे-बनारस! और जिन्होंने चना-चबेना, गंगाजल, भांग और धतूरे में छनी पप्पू की चाय से जिन्दगी गुजारते हुए वहां सड़क पर लगने वाली संसद में शिरकत की है, वह उसकी सांझ के दीवाने होकर रह गए। सुभाष राय, कामता यादव और श्रीकान्त पांडेय की तरह वे लोग देश-विदेश जाने कहां-कहां गए और कहीं जी नहीं लगा तो आखिर में अस्सी लौट आये। वहीं दम तोड़ा। गया सिंह, रामजी राय, तन्नी गुरू आदि-आदि के लिए तो अस्सी ब्याहता है। जनम-जनम के इस बन्धन में ऊब, उमस और एकरसता चाहे जितनी हो, दूसरा ठिकाना ही इनके लिए कहां है? मुहल्ले में, नगर में, देश-विदेश में कहीं कोई बड़ी घटना घटती है, उसे लेकर अस्सी पर हर सांझ बहसें होती हैं। यहां की संसद में ओसामा बिन लादेन और बुश के बराबर-बराबर वोट हैं। ज्योतिष, सेक्स, साहित्य और राजनीति की बहसों से गन्धाता अस्सी। आग चाहे कहीं लगे अस्सी के आकाश पर उसका धुआं फैल जाता। धूल और धुएं के गुबार में अलसाया अस्सी। शादी चाहे जिसकी हो, उसके साथ पहला हनीमून अस्सी ही मनाता है। यही है-'काशी का अस्सी'। शब्द चित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज की कई मिलीजुली शैली में लिखा गया हिन्दी का नया और अनोखा उपन्यास। "टूटे सींगों वाले सांड़ों का, यह अजीब सा टक्कर था। उधर दुधारु गाय खड़ी थी, राजनारायण इसी बनारसी शैली के राजनेता थे। लालू यादव चाहे जहां पैदा हुए हों, उनका जनेऊ अस्सी पर हुआ है। उनका गंवई अन्दाज, ह्यूमर, विट और सब पर छा जाने की कला यह बनारसी शैली की खूबी है, जैसे संगीत में घराना चलता है उसी तरह राजनीति का भी घराना है। यह बात दीगर है कि अस्सी पर लालू के समर्थक सबसे कम पाये जाते हैं। आज जहां पप्पू की चाय की दुकान है, हो सकता है दो-चार या दस साल के भीतर वहां कोई मल्टी स्टोरी, शॉपिंग काम्प्लेक्स बन जाय। सम्भव है, मारवाड़ी सेवा संघ किसी पांच सितारा होटल में तब्दील हो जाय। लेकिन तब भी अस्सी कहीं न कहीं मौजूद रहेगा। नाम और जगह बदलकर। यही अस्सी का महत्व है। क्योंकि आपाधापी की जिन्दगी में कुछ न कुछ ऐसे लोग बचे रहेंगे जिन्हें अपने लड़के को इंजीनियर बनाने के लिए रात-दिन हाय-हाय करते हुए अपने सुख-चैन, इत्मीनान और हंसी-ठिठोली को किसी साहूकार के यहां गिरवी रखना मुनासिब न लगे। वह लोग जरूर इस तरह भी सोच सकते हैं कि नालायक बेटा बाप का कमाया धन खाता है और डी.एम., एस.पी. जिले भर की विकास परियोजनाओं-अंधे, अपाहिजों के कल्याण का फण्ड, कोढ़ियों के इलाज का पैसा, मलेरिया उन्मूलन, साक्षरता प्रसार, बाढ़, अकाल, भूकम्प, महामारी इन सबके नाम पर करोड़ों-अरबों की रकम डकार जाते हैं। अब बताओ, लायक किसे कहोगे? 'देख तमाशा लकड़ी का' शीर्षक से 'काशी का अस्सी' उपन्यास की पहली किस्त जब 'हंस' में छपी तो उसमें हरिद्वार पांडेय (भाषण कला के बैजू बावरा) छाये हुए थे। आज पांडे जी का नामो-निशान भी अस्सी पर नहीं है। गया सिंह, रामजी राय, दीनबन्धु तिवारी वगैरह-वगैरह दूसरे-तीसरे परिच्छेदों से जुड़ते चले गए। यह लोग भी कल रहें, न रहें, अस्सी पर राई-रत्ती फर्क पड़ने वाला नहीं है। इसलिए कि अस्सी देश के किसी भी शहर में, किसी नुक्कड़ के कोने-अंतड़े में, अपनी जगह खुद-ब-खुद बना लेता है। अस्सी किसी एक की वजह से नहीं है। रामजी राय, गया सिंह, तन्नी गुरू सबको अस्सी ने रचा है। चूंकि यह उपन्यास परम्परागत उपन्यासों से भिन्न जीवित और वास्तविक व्यक्ति चित्रों के ताने-बाने, हास-परिहास से ही बुना गया है, इसलिए हमें यह भी जानना चाहिए कि अस्सी वाले गया सिंह लहरतारा वाले कबीर की तरह नहीं हैं, जो घर फूंक तमाशा देखें। इनकी जड़ें बाबा कीनाराम के मठ, एक डिग्री कॉलेज में रीडर और सुदूर पहाड़ी इलाके के महाविद्यालय में बतौर प्रबन्धक, गहरे पैठी हुई हैं। अस्सी के जनतन्त्र में उनकी निरन्तर शिरकत एक बड़े जुगाड़ तन्त्र की देन है। कहां साबरमती का आश्रम और कहां हरियाणा का भोड़सी। खल्वाट खोपड़ी, बकौल काशीनाथ सिंह, जिसमें सिर्फ भूसा और गोबर भरा हुआ है। जुगाड़ तन्त्र में चौबीस घंटे 'होलटाइमर' है। घर वह लोग फूंकें जिन्हें नौकरी की उम्मीद में डिग्रियां खरीदनी हैं। गया सिंह सिर्फ तमाशा देखेंगे। इस उत्तर आधुनिक युग में धडल्ले से शिक्षा का व्यापार चल रहा है। हर शहर में कोई न कोई शिक्षा माफिया मिल जायेगा। अपनी-अपनी हैसियत और औकात! कोई माफिया और कोई छुटभैया! यह है ऊपर से दिखने वाली मस्ती, फक्कड़पन और भांग की गोलियों का आन्तरिक रहस्य। जुगाड़ तन्त्र। अगर यही लोकतंत्र है तो लोकतंत्र का बहुरुपिया कैसा होगा? इस तरह तो अजीत सिंह भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत कहे जाएंगे। ऐसे ही तर्कों से धरमनाथ शास्त्री ने अपनी पड़ाइन को बहलाया-फुसलाया और अंग्रेजिन को 'पेइंग गेस्ट' बनाकर शंकर बाबा को देश निकाला दिया था। अपने बेटों के हर गुनाह मानवीय लगते हैं। यही किया है काशीनाथ सिंह ने अपने गदरहों के लिए। अस्सी के प्रति अन्धी मोहासक्ति इन्हें इस हद तक जकड़ लेती है कि हू-ब-हू अपने पात्रों की तरह सोचने भी लगते हैं। यह घोर प्रतिक्रिया है। ड्राइंग रूम की बन्द दीवारों के भीतर निरन्तर जोड़-घटाना लगाने वाले मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के दोगलेपन और उनके भाषाई छद्म से। या सम्भव है, घर के तनावों से आकुल-व्याकुल मन को यह सुकून देता हो! छायावादी कवियों के क्षितिज जैसा ही कुछ-कुछ प्रतीत होता है यह अस्सी। लेकिन इन ढेर सारी इधर-उधर की फुटकल बातों के बावजूद, चाहे कोई रहे, न रहे, अस्सी रहेगा। बावजूद गया सिंह के अस्सी बचा रहेगा। भारत के हर शहर में कहीं किसी चाय की दुकान के आसपास जहां चार-छह लोगों के बैठने-बतियाने की जगह बची रहेगी, वहीं खानाबदोश जातियों की तरह अपना डेरा-डंडा डालकर अस्सी बस जायेगा। जो जीवन की ऊंचाइयां पाने के लिए प्रवासी हो गये हैं, उनके जेहन में लड़कपन की तरह अस्सी याद आयेगा। जो असफल रह गये, एक-एक कर जीवन के सारे मुकदमे हार चुके, लोगों को सुकून देने के लिए अस्सी बचा रहेगा। डी.एम., एस.पी. या कोतवाल, अस्सी को उपद्रव की तरह देखेंगे। तानाशाह के हुक्म से बार-बार तबाह किया जायेगा अस्सी। 'इंक्रोचमेन्ट' के नाम पर हल्लागाड़ी आयेगी और अस्सी को उजाड़कर शहर का व्याकरण दुरुस्त करेगी। फिर दूसरी सांझ किसी न किसी जगह अपनी मस्ती, अपनी बे-परवाही, अपनी हंसी की छटा बिखेरता, जिन्दगी के गीत गाता अस्सी दिख जायेगा। दीवाली और होली की तरह व्यापक है काशी का यह अस्सी। मां कहती थी-प्रलय के दिनों में जब सब कुछ डूब गया था तब भी खैरा पीपल बचा रह गया था। वही खैरा पीपल जहां हम लोग ओल्हापाती खेला करते थे। आज गांवों में अलाव नहीं जलते। पता नहीं खैरा पीपल अब है या नहीं। पच्चीस-तीस साल होने को हैं। मैं इतनी देर के लिए गांव कभी नहीं गया कि जाकर खैरा पीपल का हालचाल ले सकूं। लेकिन गांव के बाहर दूर-दूर तक फैले ऊसर के टीले, जहां से 'रेह' ले जाकर हम अपने कपड़े फींचते थे, अब नहीं रह गये हैं। नागफनी के जंगल, महुवे के बाग और इन सबके बीच दूर-दूर तक फैले चरागाह, जहां हम गाय-भैंसें चराया करते थे, उनके नामो-निशान भी गांवों में नहीं रह गये हैं, अब उनकी यादें भी असम्भव हो गयी हैं। हरित क्रान्ति ने गांवों की शक्ल-सूरत बदल दी। व्यवसाय का पुश्तैनी और परम्परागत ढांचा बदल दिया। अर्थशास्त्र जानने वाले कहते हैं कि गांव की तरक्की हो गयी है। समाजशास्त्र के विद्वान कहते हैं कि रिश्तों में दरार आ गयी है। गांव के लोग कहते हैं कि अब वह बात नहीं रही। बहुत उदास-उदास लगता है। यहां रहने का मन नहीं होता। लब्बो-लुबाब यह कि इतनी उदास, मनहूस और कर्ज में डूबी तरक्की। बैंकों की मदद से हमारे गांव में तीन लोगों ने ट्रैक्टर खरीदे और तीनों के आधे खेत बिक गये। टैªक्टर औने-पौने दाम मंें बेंचने पड़े। पता नहीं कर्ज चुकता हुआ कि नहीं? पंचायती राज में लोकतंत्र को गांवों तक ले जाने का कार्यक्रम बना। फिर तो, अपहरण, हत्याएं और मुकदमेबाजी। सारे के सारे गांव थानों और कचहरियों में जाकर कानून की धाराएं रटने लगे। गांधीजी का अन्तिम आदमी, जो आजादी की लड़ाई का नैतिक तर्क और सम्बल था। आज उसके हाथों में एक तिरंगा है और वह भाग रहा है। ग्रामीण विकास बैंकों के दलदल में उसके पैर धंस गये हैं। सांस धौंकनी की तरह चल रही है। भारी-भरकम सिर पेट की अंतड़ियों में फंसकर फड़फड़ा रहा है। वकील, जज, अर्थशास्त्र के विद्वान प्रोफेसर, नेता, पुलिस अधिकारी सब उसे चारों तरफ से घेर रखे हैं। सबके हाथों में एक-एक फंदा है। सब उसे ही पुचकार रहे हैं-आजादी की आधी शताब्दी का महोत्सव जारी है। अपराध के अंधेरे में चारों ओर संशय और अविश्वास की फुसफुसाहटें फैल रही हैं। अपनी ही सांसों का बोझ ढोते गांवों की तरक्की की यही दास्तान है। कितना भयावह और डरावना है अंधेरे का यह एकाकी सफर। यह सब इसलिए कि आज इन गांवों के आसपास पंडित धरमनाथ शास्त्री के सपने की तरह कोई न कोई कस्बा समृद्ध हो रहा है। इन कस्बों में भी किसी न किसी दुकान पर एक अस्सी बस गया है। यहां भी लोग गप्पें हांकते हैं। गया सिंह, रामजी राय या तन्नी गुरू की ही तरह यहां भी लोगों के कोई सरोकार नहीं हैं। समय काटने के लिए अड्डे हैं ये। पूर्वांचल के ये कस्बे अन्तर्राष्ट्रीय आपराधिक तन्त्र की नर्सरी हैं। मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी हों या फिल्म इंडस्ट्री के गुलशन कुमार इन सबके खून के धब्बे इन गुमनाम कस्बों में बिखरे पड़े हैं। हवाला, दाउद, इब्राहिम, सउदी अरब, छोटा राजन, दुबई यहां की बातचीत के विषय हैं। यह भी अस्सी का ही दूसरा चेहरा है। गया सिंह, रामजी राय और तन्नी गुरू आदि-आदि से गुजारिश है कि अपने आपको इस उपन्यास का नायक न समझें। जो स्थान अस्सी का है उसे अस्सी के हिस्से रहने दें। जहां हर कोई नायक बनने लगता है उस देश की शक्ल विदूषकों जैसी दिखती है। इतिहास के अलग-अलग कालखण्ड हैं, और जिन्दगी के अलग-अलग मंसूबे। कभी गांव में चौपालों और अलाव के इर्द-गिर्द बैठकर भी लोग बतकही किया करते थे। अब वह सब नहीं रहा। उस समय भी वहां एक प्रजाति पायी जाती थी, जिसके बारे में लोग कहा करते-"गंजेड़ी यार किसके? दम लगाये खिसके।" सुना है अब वह प्रजाति अस्सी पर बस गयी है। शहर में आकर थोड़ा-बहुत सभी बदल जाते हैं। गंजेड़ी और भंगेड़ी में अन्तर ही कितना होता है। कभी गोदोलिया के 'दी रेस्टोरेन्ट' और पास में ही किसी माखन दा की दुकान हुआ करती थी। लोग वहीं घंटों बहसें किया करते थे। साहित्य और राजनीति की गम्भीर बहसें। इस परिवेश ने बनारस में चन्द्रबली सिंह और नामवर सिंह जैसी शख्सियत को पैदा किया। और आज रामजी राय या गया सिंह अन्त्याक्षरी। छिछले चुटकुले। जब सरोकार खत्म हो जाते हैं तो यही बचा रहता है। मस्ती और फक्कड़पन की शक्ल में बहुरुपिये मसखरे पैदा होते हैं। दूसरों का मजाक उड़ाने से ज्यादा क्रूर और अमानवीय कुछ नहीं होता। 'काशी का अस्सी' में जो सामाजिक पतनशीलता और व्यक्तित्व के विघटन के चिह्न मात्र हैं वही अपने आपको नायक होने का मुगालता पाल बैठे हैं। इनकी तुकबन्दियां, इनके तर्क, इनकी भाषा किसी चीज पर इन्हें खुद का भरोसा नहीं और चाहते हैं दुनिया इन्हें ही मसीहा मान ले। अगर गया सिंह एक जीवित चरित्र नहीं होते और उनका वजूद सिर्फ 'काशी का अस्सी' उपन्यास में ही होता तो इतनी पड़ताल की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन संस्मरण से रिपोर्ताज और फिर उपन्यास तक का सफर पूरा करने वाली इस कृति की समीक्षा में इस गैर-साहित्यिक पद्धति का सहारा लेना पड़ रहा है। काशीनाथ सिंह की दिक्कत यह है कि वे रहजनों से ही ठिकाने तक पहुंचने का रास्ता बूझ रहे हैं। इस उपन्यास में काशीनाथ सिंह उस भावुक भक्त की तरह हैं जो जीवन के तनावों से ऊबकर भगवान को खोजते-खोजते किसी मन्दिर या मठ के पाखंडी पुजारी के आप्त वचनों से गद्गद होकर उसे ही जीवन का सन्देश मान लें। यह अजीब इत्तिफाक है कि डॉ. गया सिंह सिर्फ एक डिग्री कॉलेज में लेक्चरर और एक महाविद्यालय, जहां उनका छोटा भाई प्रिंसिपल है, के प्रबन्धक ही नहीं हैं, उनके जुगाड़ तन्त्र की आभा से कीनाराम मठ की भव्य दीवालें भी जगमगा रही हैं। किसी सिद्धान्त का सबसे बड़ा तर्क होता-जीवन जीने का वैसा ही मिलता जुलता ढंग वर्ना एक फ्राड पैदा होने की गुंजाइश बनी रहती है। मध्यवर्गीय तनावों को लेकर काशीनाथ सिंह ने एक से एक बेहतरीन कहानियां लिखी हैं। 'आखिरी रात', 'कविता की नयी तारीख', 'अपना रास्ता लो बाबा' आदि-आदि। काशीनाथ सिंह का जीवन, जिसे उन्होंने भोगा और जिया है और जिसे करीब से देखने का अवसर किसी न किसी तरह मुझे भी मिला है-इन कहानियों में ज्यादा वास्तविक होकर झांकता रहता है-बनिस्बत अस्सी पर लिखे इस संस्मरणात्मक उपन्यास के। 'सुख' कहानी के भोला बाबू एक सांझ डूबते हुए सूरज के वृत्त की आभा देखकर इस कदर अभिभूत और चमत्कृत होते हैं कि हास्यास्पद लगने लगते हैं। जोड़-घटाने में रत्ती-रत्ती टूट और बिखर चुकी जिन्दगी को प्रकृति का एक अति परिचित मामूली दृश्य अलौकिक आभा से सम्मोहित कर लेता है। स्थितियों और पात्रों के मामूली हेर-फेर के साथ हर अच्छी कहानी किसी आत्मकथा का अंश प्रतीत होती है। "मुझे जल्दी ही अहसास हो गया कि मोया-मोह के जंजाल में फंसा मैं-अस्सी का प्रवासी-इस दर्शन के काबिल नहीं।" असमर्थता है। लेकिन आकांक्षा बनी हुई है। काशीनाथ सिंह और भोला बाबू के दुःख और तनाव एक जैसे हैं। भोला बाबू के लिए एक सांझ का सौन्दर्य अलौकिक प्रतीत होता है और काशीनाथ सिंह को पप्पू की चाय की दुकान। भोला बाबू नौकरी से रिटायर हो चुके हैं। काशीनाथ सिंह रिटायर होने के करीब हैं। अपनी जिन्दगी में सामर्थ्य भर नक्सलवादी आन्दोलन से भी जुड़े रहे। एक सपना था-शायद भारतीय समाज की मुक्ति और इस तरह अपनी भी मुक्ति का यह रास्ता हो सकता है। यह भी हो सकता है कि लेखकीय अनुभव में खतरों से खेलने के रोमांच की जरूरत महसूस हुई हो। इसी दौरान उन्होंने 'सुधीर घोषाल' कहानी भी लिखी। 'अपना मोर्चा' उपन्यास का 'ज्वान' उन दिनों के काशीनाथ सिंह और धूमिल का मिलाजुला रूप है। लेकिन युग तेजी से बदलता जाता है। कीर्ति व्यवसायियों के हमले से एक-एक कर सबकी कलई खुलती जाती है। 'लाल किले के बाज' और 'वे तीन घर' कहानियां प्रकाशित होती हैं। आस्थाएं एक-एक कर भहरा रही हैं। काशीनाथ सिंह चुपचाप सबको देख रहे हैं, कमी विचारधारा में नहीं, उसकी व्याख्या करने वाले संगठनों में है-वह सोचते हैं। 'ग्लास्नोस्त', 'पेरेस्त्रोइका'! गोर्बाचेव का नोबेल प्राइज पर बिक जाना। बुद्धिजीवियों, कलाकारों की आस्था और विश्वास पर बीसवीं सदी का सबसे बड़ा हमला-समाजवादी सोवियत संघ का पतन। गले की हड्डी क्यूबा और वियतनाम के अपमान का धब्बा अपनी समूची बर्बर विरासत के साथ इराक पर टूट पड़ता है। खुली खिड़कियों से औपनिवेशिक बाजारवाद का प्रदूषण भीतर तक भरने लगता है। विचारधारा के क्षेत्र में उत्तर आधुनिक विमर्श का वर्चस्व। उधर शब्द अर्थ की गुलामी से मुक्त होते हैं और इधर लेखक संगठन विचारधारा के नाम पर कुछ संगठन कर्ताओं के ज्ञान दम्भ और ठगी से। जो यथार्थ हमारे आसपास वर्षों से हमें दिन-रात घेरे हुए थे, जिन्हें हम चोर निगाहों से निरन्तर देख और महसूस कर रहे थे। लेकिन प्रतिक्रियावादी होने के डर से लिख नहीं पा रहे थे, बाद के नये लेखकों ने उन्हें शिद्दत के साथ जद्दोजहद से अपनाया। हिन्दी कथा साहित्य का नया परिदृश्य जीवन की विविध छटाओं से भर गया। गुजरे जमाने के इसराइल, विजेन्द्र अनिल और सुरेश कांटक ने लिखना बन्द कर दिया। दूधनाथ सिंह ने धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे, नमोअन्धकारम और निष्कासन जैसी महत्वपूर्ण कहानियां या उपन्यास लिखे। काशीनाथ सिंह ने 'अस्सी को एक चरित्र की तरह 'ट्रीट' किया और 'रागदरबारी' की तरह पठनीय, रोचकता से भरपूर अपना महत्वपूर्ण उपन्यास 'काशी का अस्सी' लिखा। -कहिए किस पार्टी में हैं आजकल? -वे हंसे मेरी मूर्खता पर। नजरिया बदल जाता है। तीस-पैंतीस साल पहले इसी तरह के किसी रामजी राय पर काशीनाथ सिंह ने 'आदमी का आदमी' और ऐसी ही बहसों पर 'चाय घर में मृत्यु' कहानी लिखी थी। आजादी के बाद नेहरू युग के सम्मोहन में नयी कविता और नयी कहानी के भीतर रोमानी तत्व उभर रहे थे। नामवर सिंह ने कहीं लिखा है, शायद मुक्तिबोध के सन्दर्भ में लिखा है कि उस युग का महत्वपूर्ण और सार्थक लेखन नेहरू युग के जादू से मुक्त होकर लिखा गया। सम्मोहन का खतरा अस्सी से भी है। लेकिन यह सम्मोहन ही तो इस उपन्यास की जान है। अगर यह नहीं होता तो न ही इस उपन्यास में भाषा का ऐसा उछाह होता और न ही अस्सी की इस मस्ती और फक्कड़पन का ऐसा मोहक संगीत होता, जो मिठाई लाल के कंठ से फूटकर देर तक और दूर तक हमारी आत्मा में बजता रहता है। आज विश्वग्राम की अवधारणा है। हम चौराहे पर खडे़ हैं। भौचक्क और पथराये से हम। हमारे भीतर मुक्तिबोध का एक सवाल बार-बार गूंज रहा है-"कहां जायें? दिल्ली या उज्जैन।" एक सौदागरों की नगरी है और दूसरी कालिदास की। हम तय नहीं कर पाते और थक-हारकर टी.वी. के सामने बैठ जाते हैं। सूचनाएं! अतिसूचनाएं! और अतिशय सूचनाएं!! सूचनाओं का अम्बार लगा है। हम भौचक और भकुवाये हुए हैं। "कौन ठगवा नगरिया लूटल हो।" 'काशी का अस्सी' इसी आशय का आख्यान है। कभी भविष्य में इतिहासकारों, विशेषकर 'सबाल्टन' इतिहासकारों को अगर बीसवीं सदी के आखिरी दशक का अध्ययन करना पड़ा तो 'काशी का अस्सी' सबसे भरोसे का उपन्यास लगेगा। क्योंकि डायरी के पन्नों की तरह यहां सब कुछ ज्यों का त्यों क्रमवार दर्ज है। नेहरू युग की सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं में आई पतनशीलता को आधार बनाकर जिस तरह 'रागदरबारी' लिखा गया था कुछ वैसे ही कथा विन्यास के लिए, वैसे ही रोचकता और पठनीयता से सन्तुलन साधकर लिखा गया यह उपन्यास अपने युग का प्रामाणिक दस्तावेज और आख्यान है। आज काशीनाथ सिंह के पास हिन्दी की समृद्ध और लोकरंजक भाषा है। जो न सिर्फ भाषा के परम्परागत और शास्त्रीय ढांचे को तोड़कर विकसित हुई है, बल्कि समाज में जो भी कुलीन प्रभामंडल का छद्म फैला हुआ है उस पर वज्रपात करके पली-बढ़ी है। भाषा का ऐसा स्फुरण और ऐसी गतिमयता कि उसके संस्पर्श से, हजारी प्रसाद द्विवेदी या त्रिलोचन को छोड़ भी दंे तो कमला प्रसाद पांडेय जैसा व्याकरण निबद्ध भाषा और कठोर अनुशासन से निर्मित जीवन चरित भी कसमसाकर शुष्क सिद्धान्तों की मर्यादा रेखा लांघने को बेताब बन्द दरवाजों की सांखल खटखटाने लगता है।
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ये किताब मैं मेरी मां स्वर्गीय श्रीमती अनिमा भट्टाचार्या को समर्पित करती हुं। राजू दसवीं में पढ़ता था और सबका बहुत ही दुलारा था।राजू को किसी तरह की कोई कमी नहीं थी। उसके घर में दो काम करने वाले थे एक था दिनेश काका दूसरी कृष्णा वाई। कृष्णा वाई की एक बेटी थी आनंदी जैसा नाम वैसा काम। बहुत ही खूबसूरत, खुश मिजाज वाली लड़की थी आनंदी। राजू आनंदी को अपनी छोटी बहन जैसा मानता था। राजू में ये खास बात थी कि काम करने वाले को कभी नौकरानी नहीं मानता था। कृष्णा वाई आनंदी को काम पर लाती थी क्योंकि राजू का बंगला काफी बड़ा था। आनंदी को पढ़ने लिखने का बड़ा शौक था पर ग़रीब होने की वजह से वह अपनी पढ़ाई पूरी ना कर सकी । आनंदी सातवीं कक्षा तक पढ़ी थी और हर विषय में अव्वल दर्जे का नम्बर आया था। रोज सुबह सबसे पहले कृष्णा वाई राजू के घर जाती थी। राजू के घर पहुंच कर ही कृष्णा अपने काम में लग जाती थी और आनंदी भी अपनी मां के साथ काम करती थी कृष्णा वाई ने कहा राजू बाबा आपका जूस देती हुं। राजू ने कहा हां हां ठीक है। राजू ने कहा अरे आनंदी आज पहाड़ा सुनायेगी ना। आनंदी ने हंस कर कहा हां दादा । तभी कृष्णा वाई ने कहा आज नहीं बहुत काम है और बड़ी दीदी आने वाली है। राजू बोला अरे दीदी को आने में देर है। तभी राजू के सर आ गए और वो पढ़ने अपने कमरे में चला गया। तभी घर की मालकिन सैर से आ गई और फिर बोली कृष्णा जल्दी जल्दी नाश्ता बना दे और फिर सामान भी लाना है। कृष्णा वाई ने कहा हां अनु मैम। अनु ने कहा अरे आनंदी राजू के कपड़े इस्त्री किया क्या? आनंदी ने कहा हां मैम। अनु ने कहा जा फिर सर को नाश्ता दे आ । और हां वहां जाकर बैठ मत जाना। आनंदी धीरे बोली नहीं मैम, आज दीदी आ रही है तो बहुत सारा काम है । फिर आनंदी ने जाकर सर को नाश्ता दिया। राजू बोला अरे आनंदी आज नहीं पढ़ना -सर से! आनंदी ने कहा नहीं दादा ,मैम बुला रही है। फिर आनंदी बेमन से चली गई। राजू समझ गया था कि मां ने मना किया होगा। सर बोले राजू आनंदी को मौका मिल सकता है मैं कुछ करता हूं। राजू ने कहा जी सर। फिर कृष्णा और आनंदी धीरे धीरे घर का सारा काम करते रहे। दोपहर हो गई। अनु ने कहा अब हाथ जल्दी चलाओ तुम लोग। कृष्णा मेनू देखकर सब बनाया ना। कृष्णा वाई ने कहा हां मैम। कृष्णा ने कहा आनंदी आज तू किरन मैम के घर चली जा। आनंदी ने कहा ठीक है मां। अनु ने कहा आनंदी तूने रीतू का रूम ठीक किया। आनंदी ने कहा हां मैम। कृष्णा वाई ने कहा मैम मैं सामान लेकर आती हुं। अनु ने कहा हां जल्दी जा। आज दिनेश भी आधा छुट्टी लेकर गया। फिर आनंदी और कृष्णा दोनों निकल गए। आनंदी बाहर निकल कर बोली मां आज कितना कुछ बना था पर हमें नहीं मिला। कृष्णा वाई बोली हां मैं जानती हूं तुम्हें भुख लगी है। कृष्णा ने जल्दी से दस रुपए आनंदी को दिए और कहा समोसा खा लेना ।ये बोल कर कृष्णा सामान लेने गई। आनंदी भी किरन मैम के घर काम करने गई। एक घंटे बाद आनंदी राजू के घर पहुंच गई। कुछ देर बाद कृष्णा वाई भी सामान लेकर घर आ गई और उसने अनु को सारा हिसाब दे दिया। अनु ने कहा अरे दस रुपए तो कम है। कृष्णा बोली हां मैम मेरे पगार से काट लें ना। अनु बोली आज कल ज़बान चले रहे हैं तेरे। अनु के पति अमर बोले अनु अब जाने दो। फिर कृष्णा वाई रसोईघर में आ गई। तभी आनंदी बोली मां किरन मैम ने कहा कि तू मत आया कर तेरी मां को बोल आकर मिले। कृष्णा वाई ने कहा जरूर तूने कुछ गलती किया होगा। आनंदी ने कहा नहीं मां मैने तो सारा काम अच्छे से किया था। अनु रसोई में आकर बोली कृष्णा पुरी और आलू पालक ले जा और एकदम पांच बजे तक आ जाना। कृष्णा वाई बोली हां जी मैम। और फिर आनंदी और कृष्णा वाई कुछ पुरी व आलू पालक अपने टिफिन बॉक्स में भर लियाऔर अपने घर चले गए । कृष्णा वाई को राजू के घर से दो वक़्त का खाना मिल जाता था । कृष्णा का सबसे पुराना काम भी था । राजू के घर करीब सात साल से कम कर रही थी । फिर कृष्णा और आनंदी अपने घर में आ गए। आनंदी बोली मां मैम का स्वभाव कितना अजीब है ? कृष्णा बोली जाने दो आनंदी वो उम्र में बड़ी है तुमसे ।वो कुछ भी बोल सकती है।चलो अब खाना खा कर सो जाते हैं। कृष्णा ने पुरी और आलू पालक की सब्जी परोसा और दोनों खाकर सो गए। आनंदी थोड़ी देर बाद उठकर अपनी किताब कापी लेकर गणित के सवाल निकलने लगी उसका सबसे प्रिय विषय गणित है। फिर कब पांच बज गया पता नहीं चला। फिर जल्दी जल्दी दोनों घर से निकल गए और सीधे राजू के घर पहुंच गए। अनु तेजी से बोली अभी मैं फोन करने वाली थी।सुन पहले चाय बना और शाम के नाश्ते में चुरा मटर बना दे। कृष्णा बोली हां अभी करती हुं। अनु ने कहा आनंदी जाकर पौधों को पानी दे दे। आज माली नहीं आया। आनंदी ने कहा ठीक है मैम। तभी राजू बोला अरे आनंदी वह सवाल हल कर लिया। आनंदी ने कहा हां दादा। राजू ने कहा शाबाश बहन।। कृष्णा ने जल्दी से चाय चढ़ा दिया और फ्रिज से मटर निकाला जो कि सुबह कृष्णा ने छिल कर रखें थे। और फिर जल्दी से चुरा मटर तैयार करने लगी। उधर आनंदी बड़े ही प्यार से पौधों को पानी दे दिया। अनु नीचे आ गई और रसोई में आकर बोली कृष्णा अब केक बनाना है सारा सामान निकाल कर अच्छे से बना लें ना, और उसके बाद रात के खाने में क्या बनेगा याद है ? कृष्णा बोली हां मैम सब याद है। अनु ने हंस कर कहा गुड।। फिर अनु अपने सहेलियों से फोन पर बात करने लगी और बोली अमर तो एयरपोर्ट गए हैं अपने बेटी को लेने। तभी राजू आकर बोला अरे मां पापा कब से फोन कर रहे हैं आप को। अनु बोली अच्छा क्या बोले। राजू बोला बस अभी रीतू दीदी को लेकर निकल गए। अनु बोली अच्छा एक घंटे तक पहुंच जाएंगे। राजू बोला हां। अनु बोली अरे आनंदी साफ सफाई कर दे जल्दी ,तू यहां पढ़ने नहीं आती है हां।। आनंदी ने कहा हां मैम कर दिया सब। अनु फिर बोली चल जूते पोलिश कर दे। राजू ये सुनकर बोला क्या मां ये सब आनंदी क्यों करेगी? अनु गुस्से से लाल हो गई और बोली राजू तू अपने कमरे में जा। अब शाम हो चुकी थी और अमर रीतू को लेकर घर पहुंच गए। रीतू बहुत ही खूबसूरत , खुश मिजाज जिन्दा दिल लड़की है लंदन में ही अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वही नौकरी करती थी। रीतू आकर ही बोली अरे मम्मी क्या बात है क्या खाने की खुशबू आ रही है ये तो कृष्णा वाई के हाथ का बना है। ये सुनकर कृष्णा रसोई घर से बाहर निकल कर बोली हां बेबी कैसी हो।? रीतू बोली अच्छी हुं अरे मेरी होनहार छात्रा कहां है? आनंदी ने कहा नमस्ते दीदी । रीतू बोली अरे आनंदी इस बार तो मैं तुझे ले जाऊंगी।। अनु बोली अच्छा बाकी बातें बाद में करना अब अपने कमरे में जाकर कर तैयार हो जा।सब साथ में नाश्ता करेंगे। कृष्णा वाई ने कहा हम अब चलते हैं। अनु बोली सब कुछ ठीक से कर दिया कोई भी काम छूट तो नहीं गया। कृष्णा बोली हां मैंने केक भी सजा दिया और खाना भी टेबल पर लगा दिया है। अनु बोली रात का खाना लेकर जाना। कृष्णा बोली हां ले लिया है। फिर आनंदी और कृष्णा चली गई। रीतू बोली मम्मी मैं रात को दिखाती हुं लंदन से क्या क्या लाई हुं। अनु बोली अच्छा ठीक है अब नाश्ता कर लो । रीतू बोली नाश्ता में क्या है ? अनु बोली चुरा मटर । रीतू बोली अरे वाह जल्दी दो ना। फिर सब ने मिलकर कर नाश्ता किया और फिर टी वी देखने लगे। उधर कृष्णा घर पहुंच कर थोड़ा बहुत काम समेट कर आनंदी को बोली चल खाना खा ले। आनंदी ने कहा हां मां,चलो पर एक बात बताओ रीतू दीदी क्या सचमुच मुझे ले जाएंगी? । कृष्णा ने समझाया और कहा ना बाबा इतना सपना मत देख जो पुरा ना हो। आनंदी ने कहा मुझे भरोसा है खुद पर और रीतू दीदी पर। अगर मैं गई तो तुम रह लोगी ना। कृष्णा बोली हां बाबा मेरी गुड़िया । उधर राजू के घर में सब एक साथ खाने बैठे हैं। रीतू बोली मम्मी आज तो मेरा मनपसंद डिश बना है जो कि मैंने पहले ही देख लिया। अनु ने कहा हां बेटा । इतने दिनों बाद सुकुन से खा ले। राजू बोला दीदी आप आनंदी के लिए कुछ सोच रही है। रीतू बोली अरे सोचना क्या वो तो जाएगी मेरे साथ। मैंने वहां के सबसे अच्छे स्कूल में बात भी कर लिया और उसे तो सब सोच को स्कलर सिप मिल जाएंगा। अगर एक छोटी सी कोशिश से किसी का भला हो सकता है तो फिर क्या बात। अनु बोली अरे बेटा उसकी जिम्मेदारी तू क्यों लेगी भला कहीं कुछ हो गया तो। रीतू बोली अरे मम्मी आज मैं कुछ बन पाई हुं तो सिर्फ कृष्णा वाई की वजह से आपको तो याद होगा ना किस तरह कृष्णा वाई इस परिवार को सम्हाल कर रखी थी।आप तो उन दिनों कितने टूर में जाती थी और मेरे परिक्षा के वक्त राजू छोटा था आनंदी को साथ लेकर कर कृष्णा वाई ने किसी तरह मुझे पढ़ने के लिए उत्साहित किया करती थी और समय से खिलाना सुलाना सब करती थी । मुझे पढ़ाई के समय कोई भी शोर पसंद नहीं था तो कृष्णा वाई ने राजू को आनंदी को लेकर घर का सारा काम किया करती थी। और आज जब मुझे मौका मिला है गुड़िया के लिए कुछ करने का तो मैं पीछे नहीं हट सकती हुं। अनु बोली अच्छा ठीक है तुझे जो सही लगे वहीं कर। फिर सब खाने के बाद रीतू के लाये हुए तोहफा देखने लगे। अनु बोली थैंक्स बेटा बैग बहुत अच्छा है। राजू ने कहा थैंक यू दी मोबाइल के लिए। फिर सब गुड नाईट बोल कर सोने चले गए। दूसरे दिन रीतू रोज की तरह योगा और सैर से हो कर आई। तभी कृष्णा और आनंदी आ गए। रीतू बोली कृष्णा वाई आपके लिए एक बैग और एक घड़ी लाई हुं। आईये आपको दिखाती हुं। कृष्णा बहुत खुश हुई। रीतू बोली गुड़िया के लिए एक काम की चीज लाई हुं। आनंदी ने कहा क्या दीदी ? तभी रीतू ने अलमारी से एक बैग, घड़ी और लैपटॉप निकाल कर कृष्णा वाई को बैग, घड़ी दिया और लैपटॉप आनंदी को दिया। आनंदी देख कर रोने लगी। कृष्णा वाई ने कहा अरे बेबी ये बहुत महंगा सामान दिया है। रीतू हंस कर कहा हां पर आनंदी से ज्यादा महंगी नहीं है कृष्णा वाई। कृष्णा ये सुनकर रोने लगी। रीतू तुरन्त बोली अरे आप रोरिये मत। जल्दी से एक चाय पिलाओ। कृष्णा बोली हां अभी बनाती हुं। ये देख राजू खुश हो गया और बोला आनंदी अब खिटपिट करेंगी। आनंदी ने कहा दादा आप भी। अनु ने कहा अब बहुत हुआ बातचीत आनंदी राजू को जूस दे दो । आनंदी ने कहा हां मैम ,बस अभी लाती हूं। और फिर कृष्णा वाई और आनंदी का काम शुरू हो गया। अनु बोली जल्दी जल्दी नाश्ता बना दे हम लोगों को बहार निकलना है। कृष्णा वाई ने कहा हां मैम आलू का पराठा बना दिया और साथ में दाल तरका । अनु बोली आज दोपहर का खाना मत बना। आज सारा साफ सफाई कर दे। कृष्णा वाई ने कहा हां मैम कर देती हुं । फिर सब खाने की टेबल पर गर्म गर्म आलू का पराठा खाने लगे और फिर अमर बोले मेरा हो गया मैं तो निकलता हूं। अनु बोली अच्छा ठीक है पर जल्दी डाईबर को भेज देना। अमर बोले हां। फिर कुछ देर बाद राजू का भी स्कूल बस आ गया और वो भी चला गया। रीतू बोली आनंदी आ तुझे लैपटॉप सिखा दु। आनंदी ने कहा हां दीदी जरूर। इधर कृष्णा ने सारे बंगले की सफाई कर दिया और वो किरन मैम के घर चली गई। किरन के घर पहुंच कर चार बातें सुनकर कृष्णा ने मन बना लिया कि अब ये काम छोड़कर राजू के घर पुरे समय के लिए काम करेगी। फिर सारा काम करने के बाद कृष्णा ने कहा किरन मैम मैं अब काम नहीं कर पाऊंगी।। किरन ने कहा अरे अब क्या हुआ। कृष्णा वाई ने कहा जो एक इन्सान को इन्सान नहीं समझते है वहां काम नहीं करना है।बोल कर कृष्णा निकल गई। फिर वापस राजु के घर पहुंच कर बोली मैम क्या कुछ और काम है।? अनु बोली नहीं और तो कुछ काम नहीं है बस तू शाम को जल्दी से आना । कृष्णा ने तभी आनंदी को आवाज लगाई। और फिर आनंदी आ कर बोली हां मां क्या हुआ? कृष्णा बोली कि चल फिर घर चलते हैं।कह कर दोनों घर के लिए निकल गए। घर पहुंच कर ही कृष्णा वाई रीतू का दिया हुआ तोहफा देखने लगी और बोली रीतू बेबी ने कितना अच्छा तोहफा दिया है। आनंदी ने कहा हां मां दीदी तो दुर्गा है। पता है मां- मुझे तो दीदी ने लैपटॉप से ही लंदन के एक स्कूल में दाखिला लेने के लिए फार्म भरना सिखाया। कृष्णा वाई ने कहा अच्छा -बहुत ही भाग्यशाली हैं तू जो रीतू दीदी इतना कर रही है तेरे लिए, वरना आजकल कहा कोई अपना भी नहीं कर पाता है। भगवान उसका भला करे। कृष्णा बोली अच्छा चल आलू का पराठा खा ले। फिर दोनों रोज की तरह खा कर सो गए। फिर शाम हो चुकी थी और दोनों फिर राजू के घर पहुंच गए।तो देखा कि अनु मैम की सहेलियां आई थी। कृष्णा वाई बोली मैम चाय बना लूं। अनु बोली हां, साथ में पकौड़े कटलेट स्वीट कार्न सब तल लें। कृष्णा वाई बोली हां अभी करती हुं। और फिर जल्दी से नाश्ता तैयार करने लगी कटलेट के लिए आलू को उबालने गैस पर रख दिया और प्याज के पकौड़े तलने लगी और सबको चाय और नाश्ता दे दिया । अनु की सहेलियां सब बड़े चाव से खाने लगे और तारीफ भी कर दिया। रीतू बोली अरे गुड़िया तू चल मेरे रूम में। आनंदी ने कहा हां-हां दीदी। फिर रीतू ने आनंदी का लैपटॉप निकाला और आनंदी को कहा कि तू चालू कर लैपटॉप। आनंदी ने झट से चालू कर दिया और फिर रीतू ने जैसे -जैसे अंग्रेजी में टाइप करने को कहा ,वैसे ही आनंदी भी टाइप करती जा रही थी और फिर आनंदी का दाखिला फार्म सबमिट हो गया और वो भी लंदन में। आनंदी को खुशी का ठिकाना न रहा।वो रीतू के पैर छूकर आशीर्वाद लिया। रीतू बोली तेरा हर सपना पूरा हो। आनंदी ने कहा हां दीदी। फिर आनंदी ने रीतू का रूम अच्छी तरह से ठीक कर दिया । और फिर आनंदी नीचे आ कर रसोई में चली गई और बोली मां कुछ काम करना है। कृष्णा ने कहा नहीं रे सब हो गया अब हमलोगो को चलना चाहिए। कृष्णा बोली मैम सब टेबल पर रख दिया। अब चलती हुं। अनु बोली अच्छा ठीक है, खाना ले लिया। कृष्णा बोली हां मैम,ले लिया है।ये कह कर कृष्णा और आनंदी बहार निकल गए। घर जाते समय आनंदी ने सारी बात बताई । कृष्णा बोली अच्छा तो सब ठीक हो।आनंदी ने कहा हां मां अब वहां से ज़बाब आ गया तो मैं तो उड़ गई समझो। कृष्णा बोली हां मैम बन जा तू। फिर दोनों हंसने लगे और घर पहुंच गए। कृष्णा बोली आनंदी तू परदेश जाकर मां को भुल गई तो। आनंदी ने कहा अरे मां मैं तुमको भी वहां ले जाऊंगी। कृष्णा बोली अच्छा चल अब जल्दी से खाना खा ले। आनंदी ने कहा हां मां चलो। फिर दोनों खाना खाने बैठे। आनंदी को छोले भटूरे बहुत पसंद थे और जैसे ही थाली में भटूरे देख कर बोली अरे वाह !मां क्या मस्त छोले भटूरे बना है। फिर खाना खाने के बाद कृष्णा घर का सारा काम कर के सोने गई तो देखा आनंदी पढ़ रही है। कुछ देर बाद दोनों सो गए। फिर सुबह हो गई और फिर आनंदी ने कहा मां आज लेट हो गया चलों जल्दी। कृष्णा वाई ने कहा हां चलो । फिर दोनों राजू के घर पहुंच गई और कृष्णा रसोई घर में जाकर चाय बनाने लगी। अनु बोली आज तो सात बजा दिया।अब जल्दी जल्दी से नाश्ता में कचौड़ी और इमली की चटनी बना दे। कृष्णा वाई ने कहा हां मैम आज आंख नहीं खुली ,तो इसलिए लेट हो गया। आप टेंशन मत किजिए मैं सब जल्दी से कर देती हूं। अनु बोली अच्छा आनंदी तू छत से कपड़े लेकर इस्त्री कर और सबके अलमारी में लगा दे। रीतू बोली अरे !मम्मी क्या तुम आनंदी से सब मत करवाओ ।वो इस्त्री वाला तो है चौराहे पर। अनु बोली अरे बाबा वो दुकान नहीं लगाया है। रीतू बोली जो आज जरूरत के कपड़े है मैं इस्री कर दुंगी। कृष्णा वाई जल्दी जल्दी नाश्ता बना रही थी। फिर सबको चाय भी पिलाई। रीतू बोली वाह क्या चाय बना है। और फिर आनंदी ने कहा कि दीदी वहां से कुछ ज़बाब आया क्या ? रीतू ने कहा नहीं अभी तक नहीं पर तुमको सिलेब्स बता देंती हुं।रूक अभी कचौड़ी खाकर चलते हैं। आनंदी ने कहा हां दीदी ठीक है। रीतू बड़े मन से कचौड़ी खा कर ऊपर अपने कमरे में आनंदी को लेकर आ गई और रीतू ने लैपटॉप निकाल कर आनंदी को सारा विवरण नोट करवाया और फिर समझाया कि कैसे ज़बाब देना होगा। इधर कृष्णा वाई ने सब खाना बना कर टेबल में लगा दिया और आनंदी को आवाज लगाई घर चलने के लिए कहा ,क्योंकि तीन बज रहे थे। आनंदी भी मां की आवाज़ से नीचे आ गई और बोली हां मां चलो। कृष्णा ने मन में बोला अनु मैम फोन पर ही बात कर रही है इसलिेए कृष्णा ने रीतू ने कहा बेबी हम जा रहे हैं। रीतू बोली कृष्णा वाई खाना लिया न?कृष्णा वाई बोली हां ले लिया है और आप लोगों का भी टेबल पर लगा दिया। फिर दोनों अपने घर पहुंच गए। कृष्णा ने कहा आज बहुत थकावट हो गई। आनंदी ने कहा हां, मां तुम आराम करो मैं खाना परोसती हुं। और फिर आनंदी ने खाना परोसा और दोनों खाकर कर सो गए। फिर शाम को कृष्णा वाई और आनंदी समय से पहले राजू के घर पहुंच गए। देखा तो घर में राजू के दादाजी , चाचा-चाची सब आए है। आनंदी ने कहा कि सब लोग आए हैं क्योंकि कहा कल दादा का जन्मदिन है। कृष्णा वाई ने कहा अरे हां,याद नहीं रहा। अनु बोली अच्छा हुआ जल्दी आ गई । पहले सबके लिए चाय बना और फिर रात के खाने में पुरी , आलू मटर की रससेदार सब्जी बना दे। कृष्णा वाई ने कहा हां मैम अभी सब करती हुं । आनंदी बोली अरे दादा कल तो आप का विशेष दिन है। राजू बोला हां मेरी गुड़िया। रीतू बोली अरे आनंदी तू मेरे कमरे में चल तो कुछ काम है। आनंदी रीतू के साथ उसके कमरे में गई। अनु फोन पर ही सबको कल रात की पार्टी में आने के लिए कहा रही थी। क्योंकि आज कल सबकुछ फोन पर ही हो जाता है। दादाजी और चाचा-चाची सब बैठ कर बातचीत कर रहे थे। कृष्णा ने सबको चाय, नाश्ता कराया। फिर कृष्णा का सब काम हो गया और वह आनंदी को लेकर चली गई। घर पहुंच कर आनंदी ने कहा मां आज दीदी ने मुझे अंग्रेजी में बात करना सिखाया। कृष्णा बोली अच्छा ठीक है चल जल्दी खा कर सो जाते हैं कल जल्दी जाना होगा। आनंदी ने कहा हां मां चलो । फिर दोनों का खाना खा कर सो जाते हैं। फिर सुबह उठकर कर तैयार हो कर दोनों राजू के घर पहुंच जाते हैं। गेट से ही सजावट गाना बजाना सब शुरू हो गया था। आनंदी ये देख खुश हो गई और बोली मां देख कितना अच्छा सज गया दादा का बंगला।। फिर अन्दर पहुंच कर ही कृष्णा राजू को बोली जन्मदिन पर बधाई बाबा। राजू ने कहा कृष्णा वाई धन्यवाद आपका। आनंदी बोली दादा तुम जियो हजारों साल।। राजू बोला हां मेरी गुड़िया । अनु बोली अच्छा चल ,अब जल्दी से नाश्ता तैयार कर दो।महेमान आने वाले हैं। कृष्णा वाई बोली हां मैम बस अभी करती हुं। राजू बोला कृष्णा वाई के हाथ की बनी खीर सबसे पहले खाऊंगा। कृष्णा ने कहा हां राजू बाबा याद है सबसे पहले दूध ही खौलाने जा रही हुं। अनु बोली हां किचन में मैंने दोपहर के लंच का मेनू कार्ड रख दिया ।देख लेना।कृष्णा ने कहा हां मैम, मैं अभी देखती हूं। फिर कृष्णा ने चाय बना कर टेबल पर रख दिया और फिर नाश्ते में मेनू कार्ड देखकर वाटी चोखा की तैयारी करने लगी। और साथ ही खीर भी तैयार करने लगी। फिर कृष्णा ने सबको बड़े मन से गरम - गरम वाटी चोखा खिला दिया। सब वाह! वाह कर रहे थे। राजू बोला हां कृष्णा वाई के हाथ में जादू है। लंच भी तैयार हो गया था फिर कृष्णा ने एक, एक करके सारा खाना बना कर टेबल पर लगा दिया और बोली कि आज राजू बाबा का जन्मदिन है इसलिए मैं सबको खाना परोसा देती हुं। अमर बोले हां कृष्णा तुम तो हमेशा से करती हो। राजू नये पोशाक में आ कर बैठ गए। और कृष्णा ने सबसे पहले राजू के लिए एक चांदी की कटोरी में खीर और फिर पुरा थाली सजाकर गरमा -गरम खाना परोसा और फिर बाकी के महेमानो को भी भोजन परोस दिया। सब बड़े मन से खाना खाने लगे और कृष्णा रसोई का बाकी सारा काम कर दिया। अनु बोली अरे सुन कृष्णा रात को पार्टी है तो तुम लोगों की छुट्टी। ये सुन कर सब अनु को देखने लगे। राजू बोला क्या मां आज भी ऐसा बोलेगी। कृष्णा वाई और आनंदी को पूरा हक है पार्टी में शामिल होने का। अमर बोले हां ठीक कहा। आज सबके साथ खुशियां मनानी चाहिए। अनु बोली, अच्छा चल ठीक है कुछ ढंग के कपड़े पहन लेना । आनंदी को बहुत बुरा लगा और वो कुछ बोलने जा रही थी । तभी रीतू बोली आनंदी आ मेरे साथ। रीतू आनंदी को ऊपर ले गई और उसने अलमारी से दो पैकेट निकाल कर आनंदी को दिया और कहा ले शाम की पार्टी के लिए गुड़िया तेरा और कृष्णा बाई के कपड़े मैं लाई हुं ।आनंदी ने कहा धन्यवाद आपका। फिर आनंदी वह पैकेट ले कर नीचे रसोई में आकर कर मां को दिया और बोली ये दीदी ने दिया। कृष्णा वाई ने पैकेट ले कर अपने बैग में रख दिया। उधर पुरे घर को रंग-बिरंगी रोशनी वाली लाइट से सजाया जा रहा था। फिर कृष्णा वाई ने कहा मैम हम चलते हैं। अनु बोली अच्छा ठीक है खाना लिया है। कृष्णा बोली हां मैम ले लिया । और फिर कृष्णा और आनंदी चली गई। अनु बोली अरे अमर वो छत पर सब सजावट हो रहा है ना और डी जे भी चेक कर लेना हां। अमर बोले हां मैं सब कुछ देख रहा हु।तुम परेशान मत हो। राजू को उसके दादाजी ने एक किताब दिया राजू ने खोल कर देखा और कहा दादाजी थैंक यू।फिर चाचा चाची ने एक मोबाइल फोन दिया। राजू मोबाइल फोन देख कर बोला अरे वाह! फिर रीतू ने राजू को एक सफारी सूट दिया। राजू सारा तोहफा लेकर अपने कमरे में चला गया। और अलमारी में रख दिया। उधर कृष्णा वाई और आनंदी रास्ते में ये सोच रहे थे कि राजू को क्या उपहार दे।आनंदी बोली मां मुझे दादा के लिए कुछ तोफा लेना है। कृष्णा बोली हां ,मैं घर जाती हुं तू कुछ ले कर आ। आनंदी ने कुछ पैसे लिए और अजय गिफ्ट शाप में गई। आनंदी को एक फोटो फ्रेम पसंद आया और उसने पैक करने को कहा। फिर पैक करवा कर पैसे देकर घर पहुंच गई।घर आकर बोली मां खाना दे दो भुख लगी है फिर कृष्णा और आनंदी खाने लगे। आनंदी बोली मां कितना कुछ बनाई थी बताओ तो। कृष्णा हंस कर बोली हां ज़रूर कह कर बताने लगी। कबाब, पुलाव, आलू दम, कचौड़ी,मटर पकौड़ी,दाल मखानी, कलोंजी, खीर ।बस यही सब बना था। आनंदी बोली मां सुनकर ही पेट भर गया बहुत।कृष्णा बोली हां ठीक है मन से खा ले। फिर दोनों का खाना खा कर सो गए। उधर राजू का बंगला बहुत ही अच्छा सज गया था। फुलों की लड़ियां और रंग-बिरंगी लाइट की मालाओं से सजा था। सब अपने अपने कमरे में तैयार हो रहे थे। अनु तो तैयार होने पार्लर गई थी। रीतू तो तैयार हो गई और उधर राजू भी तैयार था। राजू के दादाजी व चाचा-चाची सब तैयार हो कर नीचे आ गए। फिर एक एक करके राजू के दोस्त आने लगे।सारे तोहफा लाकर राजू को दे रहे थे और जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं दे रहे थे। कुछ देर में अनु भी सज संवर कर आ गई और अपने सहेलियों का इन्तजार करने लगी। तभी अनु की सहेलियां भी आने लगी। सब एक -एक करके राजू को तोहफा दे रही थी। कृष्णा और आनंदी भी जल्दी से तैयार हो गई रीतू ने जो साड़ी और सूट दिया था। दोनो वहीं पहने थे। आनंदी खुशी से झूम उठी और फिर बोली मां देख रीतू दीदी ने कितना अच्छा तोहफा दिया है। गुलाबी रंग का सूट, दीदी को सब पता है कि मुझे गुलाबी रंग पसन्द है। कृष्णा बोली हां बचपन से ही बेबी तुझे बहुत प्यार करती थी। तुमको वो कभी भी एक नौकरानी की बेटी नहीं समझा। अच्छा चल राजू के घर चलते हैं।फिर आनंदी ने राजू के लिए जो तोहफा खरीदा था वो लेकर राजू के घर पहुंच गई। आनंदी मन में मुस्कुरा कर बोली राजू दादा का बंगला कितना अच्छा लग रहा है। कृष्णा अन्दर जाकर राजू को बोली जन्मदिन की बधाई बाबा। राजू ने कहा कृष्णा वाई धन्यवाद आपका। आनंदी ने तोहफा देते हुए कहा दादा तुम जियो हजारों साल। राजू बोला धन्यवाद आनंदी। खाने पीने की व्यवस्था पार्क पर किया गया था और सारी सजावट बहुत अच्छा लग रहा था। फिर राजू के लिए बहुत बड़ा सा केक आ गया। और राजू ने केक काट और सबको खिलाया। राजू ने आनंदी को भी केक खिलाया । आनंदी ने कहा दादा धन्यवाद। फिर अनु ने कृष्णा से कहा कि केक सबको दे दो। फिर कृष्णा ने एक बड़े ट्रे में केक लेकर सब के पास जाकर केक दे दिया। राजू के दोस्त लोग नाचने लगे सब बहुत मज़े कर रहे थे। फिर अनु ने सबको डिनर के लिए कहा। राजू के दोस्तों ने जाकर खाना शुरू किया। अमर ने और मेहमानों को भी खाना के लिए कहा फिर धीरे धीरे सब खा कर जाने लगे। राजू के दोस्त खाना खा कर सब चले गए। रीतू की कुछ सहेलियां आई थी वो सब खाना खा कर जाने लगी। क्योंकि रात भी काफी हो गया था। सबके खाने के बाद कृष्णा और आनंदी खाने के लिए गए। रीतू बोली अरे आनंदी इतने देर बाद खाने जा रही हो कहा थी तुम? आनंदी ने कहा यही तो थी। अनु बोली अरे मैंने ही कहा था तुम लोगों बाद में खाना खाने जाना जब सारे मेहमान खा कर चले जाएं। रीतू बोली अरे मम्मी आज तो ये नियम नहीं लागू कर सकती थी आज तो राजू का जन्मदिन था। और आज सब मेहमान ही है। अनु बोली हां ठीक है कृष्णा अब जाकर आराम से खाना खा ले।कृष्णा बोली हां मैम। आनंदी और कृष्णा जाकर खाना खाने लगे। वहां पर सिर्फ वो लोग थे जिन्होंने ये सजावट करवाया था।वो लोग भी खाना खा रहे थे। राजू ये सब देख कर बहुत ही मायूस हुआ और अपने कमरे में चला गया। फिर अनु ने आनंदी को कहा सुन ये सारे तोहफा राजू के कमरे में रख दें। आनंदी ने कहा हां मैम मैं सब रख देती हूं। फिर आनंदी और रीतू मिल कर सारा तोहफा राजू के कमरे में रख दिया और फिर आनंदी और कृष्णा अपने घर चले गए। रात को राजू ने एक- एक करके सारा तोहफा खोला तो किसी ने गेम दिया तो किसी ने सजावट का सामान दिया तो कोई पेन डायरी दिया। राजू को सारे तोहफ़ों में आनंदी का दिया फोटो फ्रेम बहुत पसन्द आया। और उसने सोचा कि कोई अच्छी फोटो लगा कर अपने कमरे में सजायेगा। दूसरे दिन सुबह कृष्णा वाई जल्दी से तैयार हो कर राजू के घर पहुंच गई। कृष्णा ने आनंदी की तबीयत ठीक ना होने की वजह से उसको घर पर रहने की सलाह दी । कृष्णा वाई राजू के घर पहुंच कर जल्दी से साफ सफाई करने लगी।अनु बोली अरे आनंदी नहीं आई। कृष्णा बोली नहीं मैम उसकी तबियत ठीक नहीं है।अनु हंस कर बोली जरूर कल ज्यादा ही खा लिया था। कृष्णा कुछ नहीं बोली और काम करने लगी। तभी रीतू नीचे आ कर बोली कृष्णा वाई ओह आनंदी नहीं आई? उसको एक अच्छी खबर देनी थी। कृष्णा बोली अच्छा क्या बात है? रीतू बोली अरे कृष्णा वाई आनंदी को लंदन के स्कूल में दाखिला मिल जायेगा। उसका रेजल्ट इतना अच्छा है। उसे अब मेरे साथ लंदन जाना होगा।कृष्णा सुनकर रोने लगी। रीतू बोली अरे आप रो रही है। कृष्णा वाई बोली हां ये खुशी के आंसु है। राजू भी बहुत खुश हो गया। अनु बोली अच्छा अब नाश्ता बना दे। नाश्ता कुछ हल्का सा बना दो।कृष्णा बोली हां मैम जो आप बोले। अनु ने कहा कि सूजी का हलवा और मठरी बना दे। कृष्णा ने कहा हां मैम बना देती हूं। फिर सब काम करने के बाद कृष्णा अपने घर के लिए निकल गई। घर पहुंच कर देखा कि आनंदी पढ़ रही है। आनंदी ने कहा मां आ गई। कृष्णा वाई बोली हां आनंदी तेरे लिए एक खुशखबरी लाई हुं। आनंदी बोली अरे मां क्या हुआ? कृष्णा बोली तेरा लंदन जाने का सपना पूरा होने वाला है। आनंदी ने कहा अच्छा। कृष्णा ने कहा हां रीतू बेबी ने कहा। आनंदी ने कहा हां दीदी ने सब कर दिया मां। कृष्णा ने कहा हां बेटा वो तो जब पिछले साल आई थी तभी तो तुम्हारा आधार कार्ड ले गई थी और देखो इस साल तुमको ले जाएंगी। दोस्तों इस कहानी को आगे पढ़ने के लिए इसका दूसरा भाग पढ़ना होगा। आज बस यही तक।।
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अनासक्ति हो पूर्ण आत्मत्याग है साथ वे तदाकार होकर स्पंदित हो सकें, कभी कभी सैकड़ों वर्ष तक लग सकते हैं । अतएव यह नितान्त सम्भव है कि हमारा यह वायुमण्डल अच्छी और वुरी, दोनों प्रकार की विचार-तरंगों से व्याप्त हो । प्रत्येक मस्तिष्क से निकला हुआ प्रत्येक विचार योग्य आधार प्राप्त हो जाने तक मानो इसी प्रकार भ्रमण करता रहता है । और जो मन इस प्रकार के आवेगों को ग्रहण करने के लिए अपने को उन्मुक्त किये हुए है, वह तुरन्त ही उन्हें अपना लेगा । अतएव जब कोई मनुष्य कोई दुष्कर्म करता है, तो वह अपने मन को किसी एक विशिष्ट सुर में ले आता है; और उसी सुर की जितनी भी तरंगें पहले से ही आकाश में अवस्थित हैं, वे सब उसके मन में घुस जाने की चेष्टा करती हैं। यही कारण है कि एक दुष्कर्मी साधारणतः अधिकाधिक दुष्कर्म करता जाता है। उसके कर्म क्रमशः प्रवलतर होते जाते हैं। यही वात सत्कर्म करनेवाले के लिए भी घटती है; वह अपने को वातावरण की समस्त शुभतरंगों को ग्रहण करने के लिए मानो खोल देता है और इस प्रकार उसके सत्कर्म अधिकाधिक शक्तिसम्पन्न होते जाते हैं। अतएव हम देखते हैं कि दुष्कर्म करने में हमें दो प्रकार का भय है। पहला तो यह कि हम अपने को चारों ओर की अशुभतरंगों के लिए खोल देते हैं; और दूसरा यह कि हम स्वयं ऐसी अशुभ-तरंग का निर्माण कर देते हैं, जिसका प्रभाव दूसरों पर पड़ता है, फिर चाहे वह सैकड़ों वर्ष वाद ही क्यों न हो। दुष्कर्म द्वारा हम केवल अपना ही नहीं, वरन दूसरों का भी अहित करते हैं, और सत्कर्म द्वारा हम अपना तथा दूसरों का भी भला करते हैं। मनुष्य की अन्य शक्तियों के समान ये शुभ और अशुभ शक्तियाँ भी वाहर से वल संचित करती हैं । कर्मयोग के अनुसार, विना फल उत्पन्न किये कोई भी कर्म नष्ट नहीं हो सकता । प्रकृति की कोई भी शक्ति उसे फल उत्पन्न करने से रोक नहीं सकती। यदि में कोई चुरा कर्म करूँ, तो उसका फल मुझे भोगना ही पड़ेगा; विश्व में ऐसी कोई शक्ति नहीं, जो इसे रोक सके । इसी प्रकार, यदि मैं कोई सत्कार्य करूँ, तो विश्व में ऐसी कोई शक्ति नहीं, जो उसके शुभ फल को रोक सके । कारण से कार्य होता ही है; इसे कोई भी रोक नहीं सकता। अब हमारे सामने कर्मयोग के सम्बन्ध में एक सूक्ष्म एवं गम्भीर प्रश्न उपस्थित होता है। हमारे सत् और असत् कर्म आपस में घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं; इन दोनों के बीच हम निश्चित रूप से एक रेखा खींचकर यह नहीं बता सकते कि अमुक कार्य नितान्त शुभ है और अमुक अशुभ । ऐसा कोई भी कर्म नहीं है, जो एक ही समय शुभ और अशुभ, दोनों फल न उत्पन्न करे । यही देखो, में तुम लोगों से बात कर रहा हूँ; सम्भवतः तुममें से कुछ लोग सोचते होंगे कि मैं एक भला कार्य कर रहा हूँ । परन्तु साथ ही साथ गायद में हवा में रहनेवाले असंख्य छोटे छोटे कीटाणुओं को भी नष्ट करता जा रहा हूँ । और इस प्रकार एक दृष्टि से मैं बुरा भी कर रहा हूँ । हमारे निकट के लोगों पर, जिन्हें हम जानते हैं, यदि किसी कार्य का प्रभाव शुभ पड़ता है, तो हम उसे शुभ कार्य कहते हैं। उदाहरणार्य, तुम लोग मेरे इस व्याख्यान को अच्छा कहोगे, परन्तु वे कीटाणु ऐसा कभी न कहेंगे। कीटाणुओं को तुम नहीं देख रहे हो, पर अपने आपको देख रहे हो । मेरी वक्तृता का जो प्रभाव तुम पर पड़ता है, वह तुम स्पष्ट देख सकते हो, किन्तु उसका प्रभाव उन कीटाणुओं पर कैसा पड़ता है, यह तुम नहीं जानते। इसी प्रकार यदि हम अपने असत् कर्मों का भी विश्लेषण करें, तो हमें ज्ञात होगा कि सम्भवतः उनसे भी कहीं न कहीं किसी न किसी प्रकार का शुभ फल हुआ है। जो शुभ कर्मों में भी कुछ न कुछ अशुभ तथा अशुभ कर्मों में भी कुछ न कुछ शुभ देखता है, वास्तव में उसीने कर्म का रहस्य समझा है । इससे क्या निष्कर्ष निकलता है ? - यही कि हम चाहे जितना भी प्रयत्न क्यों न करें, ऐसा कोई कर्म नहीं हो सकता, जो सम्पूर्णतः पवित्र हो अथवा सम्पूर्णतः अपवित्र, यदि 'पवित्रता' या 'अपवित्रता' से हमारा तात्पर्य है, अहिंसा या हिंसा विना दूसरों को हानि पहुँचाये हम साँस तक नहीं ले सकते। अपने भोजन का प्रत्येक ग्रास हम किसी दूसरे के मुँह से छीनकर खाते हैं। यहाँ तक कि हमारा अस्तित्व भी दूसरे प्राणियों के जीवन को विनष्ट करके संभव होता है। चाहे मनुष्य हो, पशु हो अथवा कीटाणु, किसी न किसीको हटाकर ही हम अपना अस्तित्व स्थिर रखते हैं । ऐसी दशा में यह स्वाभाविक ही है कि कर्म द्वारा पूर्णता कभी नहीं प्राप्त हो सकती। हम भले ही अनन्त काल तक कर्म करते रहें, परन्तु इस जटिल संसार-व्यूह से कभी छुटकारा नहीं पा सकते। हम चाहे निरन्तर कार्य करते रहें, परन्तु कर्मफलों में इस शुभ और अशुभ के अपरिहार्य साहचर्य का अंत नहीं होगा। दूसरी विचारणीय बात है --- कर्म का क्या उद्देश्य है ? हम देखते हैं कि प्रत्येक देश के अधिकांश व्यक्तियों की यह धारणा है कि एक समय ऐसा आयेगा, जब यह संसार पूर्णता को प्राप्त हो जायगा; तब यहाँ न तो किसी प्रकार का रंग रहेगा, न शोक, न दुष्टता, न मृत्यु । वैसे तो यह एक बड़ा सुन्दर विचार है और एक अज्ञानी को उदात्त बनाने और प्रोत्साहन देने के लिए बहुत ही अच्छी प्रेरक शक्ति है; परन्तु यदि हम क्षण भर भी ध्यानपूर्वक सोचें, तो हमें सहज ही ज्ञात हो जायगा कि ऐसा कभी नहीं हो सकता। और यह हो भी कैसे सकता है, जब हम जानते हैं कि शुभ और अशुभ एक ही सिक्के के चित और पढ़ हैं ? ऐसा भी कहीं हो सकता है कि शुभ हो और उसके साथ अशुभ न हो ? तब फिर पूर्णता का अर्थ क्या है ? सच पूछा जाय, तो 'पूर्ण जीवन' शब्द ही स्वविरोधात्मक है। जीवन तो हमारे एवं प्रत्येक बाह्य वस्तु के बीच एक प्रकार का निरन्तर संघर्ष है। प्रतिक्षण हम बाह्य प्रकृति से संघर्ष करते रहते हैं, और यदि उसमें हमारी हार हो जाय, तो हमारा जीवन-दीप ही बुझ जाता है। आहार और हवा के लिए निरन्तर चेष्टा का नाम ही है जीवन । यदि हमें भोजन या हवा न मिले, तो हमारी मृत्यु हो जाती है। जीवन कोई आसानी से चलनेवाली सरल चीज़ नहीं है - यह तो एक प्रकार का सम्मिश्रित व्यापार है । वहिर्जगत् और अन्तर्जगत् का घोर संघर्ष ही जीवन कहलाता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जब यह संघर्ष समाप्त हो जायगा, तो जीवन का भी अन्त हो जायगा । आदर्श सुख का अर्थ है - इस संघर्ष का अन्त हो जाना । परन्तु तब तो जीवन का भी अन्त हो जायगा; क्योंकि संघर्ष का अन्त तभी हो सकता है, जब स्वयं जीवन का ही अंत हो जाय । हम यह देख ही चुके हैं कि संसार का उपकार करना अपना. ही उपकार करना है। दूसरों के लिए किये गये कार्य का मुख्य फल है - आत्मशुद्धि। दूसरों के प्रति निरन्तर शुभ करते रहने से हम स्वयं को भूलने का प्रयत्न करते रहते हैं। और यह आत्मविस्मृति ही एक बहुत बड़ी शिक्षा है, जो हमें जीवन में सीखनी है। मनुष्य मूर्खतावश सोचता है कि वह अपने को सुखी बना सकता है, परन्तु वर्षों के घोर संघर्ष के बाद उसकी आँखें खुलती हैं और वह यह अनुभव करता " है कि वास्तविक सुख तो स्वार्थपरता को नष्ट कर देने में है, और सिवा अपने उसे और कोई सुखी नहीं बना सकता । परोपकार का प्रत्येक कार्य, सहानुभूति का प्रत्येक विचार, दूसरों की सहायतार्थ किया गया प्रत्येक कर्म, प्रत्येक शुभ कार्य हमारे क्षुद्र अहंभाव को प्रतिक्षण घटाता रहता है और हममें यह भावना उत्पन्न करता है कि हम न्यूनतम और तुच्छतम हैं; और इसीलिए ये सब कार्य श्रेष्ठ हैं । ज्ञान, भक्ति और कर्म, तीनों इस बिंदु पर मिलते हैं। सर्वोच्च आदर्श है - चिरंतन और सम्पूर्ण आत्मत्याग, जिसमें किसी प्रकार का 'मैं' नहीं, केवल 'तू' ही 'तू' है । हमारे जाने या बिना जाने, कर्मयोग हमें इसी लक्ष्य की ओर ले जाता है। सम्भव है, एक धर्मप्रचारक निर्गुण ईश्वर की बात सुनकर दहल उठे। उसका शायद यही दृढ़ मत हो कि ईश्वर सगुण है, और वह अपने निजत्व, अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व कोइस व्यक्तित्व के बारे में उसकी धारणा चाहे जैसी भी हो - क़ायम रखने का इच्छुक हो; परन्तु यदि उसके नीतिविषयक विचार वास्तव में शुद्ध हैं, तो उनका आधार सर्वोच्च आत्मत्याग के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। यह सम्पूर्ण आत्मत्याग ही सारी नैतिकता की नींव है। मनुष्य, पशु, देवता सबके लिए यही एक मूल भाव है, जो समस्त नैतिक विधानों में व्याप्त है । इस संसार में हमें कई प्रकार के मनुष्य मिलेंगे। प्रथम तो देव-मानव, जो पूर्ण आत्मत्यागी होते हैं, अपने जीवन की भी वाज़ी लगाकर दूसरों का भला करते हैं । ये सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं। यदि किसी देश में ऐसे सौ मनुष्य भी हों, तो उस देश को फिर किसी बात की चिन्ता नहीं । परन्तु खेद है, ऐसे लोग बहुत-बहुत कम हैं ! दूसरे वे सावु- प्रकृति मनुष्य हैं, जो दूसरों की भलाई तब तक करते हैं, जब तक उनकी स्वयं की कोई हानि न हो; और तीसरे वे आसुरी प्रकृति के लोग हैं, जो अपनी भलाई के लिए दूसरों की हानि तक करने में नहीं हिचकते। एक संस्कृत कवि ने चौथी श्रेणी भी वतायी है, जिसको हम कोई नाम नहीं दे सकते । ये लोग ऐसे होते हैं कि अकारण ही दूसरों का अनिष्ट केवल अनिष्ट करने के लिए ही करते रहते हैं। जिस प्रकार सर्वोच्च स्तर पर साधु-महात्मागण भला करने के लिए ही दूसरों का भला करते रहते हैं, उसी प्रकार सबसे निम्न स्तर पर ऐसे लोग भी हैं, जो केवल बुरा करने के लिए ही दूसरों का बुरा करते रहते हैं। ऐसा करने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता - यह तो उनकी प्रकृति ही है। संस्कृत में दो शब्द हैं - प्रवृत्ति और निवृत्ति । प्रवृत्ति का अर्थ है - किसी वस्तु की ओर प्रवर्तन या गमन, और निवृत्ति का अर्थ है - किसी वस्तु से निवर्तन हैया प्रत्यागमन । 'किसी वस्तु की ओर प्रवर्तन का ही अर्थ है, हमारा यह संसारयह 'मैं' और 'मेरा' । इस 'मैं' को धन-सम्पत्ति, प्रभुत्व, नाम-यश द्वारा सर्वदा बढ़ाने का यत्न करना, जो कुछ मिले, उसीको पकड़ रखना, सारे समय सभी वस्तुओं को इस "मैं'-रूपी केन्द्र में ही संगृहीत करना - इसीका नाम है 'प्रवृत्ति' । यह प्रवृत्ति ही मनुष्य मात्र का स्वाभाविक भाव है, - चहुँ ओर से जो कुछ मिले, उसे लेना और सबको एक केन्द्र में एकत्र करते जाना। और वह केन्द्र है, उसका अपना मवुर 'अहं' । जव यह वृत्ति घटने लगती है, जब निवृत्ति का उदय होता है, तभी नैतिकता और धर्म का आरम्भ होता है । 'प्रवृत्ति' और 'निवृत्ति', दोनों ही कर्मस्वरूप हैं । एक असत् कर्म है और दूसरा सत् । निवृत्ति ही सारी नैतिकता एवं सारे धर्म की -नींव है; और इसकी पूर्णता ही सम्पूर्ण 'आत्मत्याग' है, जिसके प्राप्त हो जाने पर मनुष्य दूसरों के लिए अपना शरीर, मन, यहाँ तक कि अपना सर्वस्व निछावर कर देता है। तभी मनुष्य को कर्मयोग में सिद्धि प्राप्त होती है । सत्कार्यों का यही सर्वोच्च फल है। किसी मनुष्य ने चाहे एक भी दर्शनशास्त्र न पढ़ा हो, किसी प्रकार के ईश्वर में विश्वास न किया हो और न करता हो, चाहे उसने अपने जीवन भर में एक बार भी प्रार्थना न की हो, परन्तु केवल सत्कार्यो की शक्ति द्वारा उस अवस्था में पहुँच गया है, जहाँ वह दूसरों के लिए अपना जीवन और सब कुछ उत्सर्ग करने को तैयार रहता है, तो हमें समझना चाहिए कि वह उसी लक्ष्य को पहुँच गया है, जहां भक्त अपनी उपासना द्वारा तथा दार्शनिक अपने ज्ञान द्वारा पहुँचता है। इस प्रकार तुम देखते हो कि ज्ञानी, कर्मी और भक्त, तीनों एक ही स्थान पर पहुँचते हैं; और वह स्थान है - आत्मत्याग । लोगों के दर्शन और धर्म में कितना ही भेद क्यों न हो, जो व्यक्ति अपना जीवन दूसरों के लिए अर्पित करने को उद्यत रहता है, उसके प्रति समग्र मानवता श्रद्धा और भक्ति से नत हो जाती है। यहाँ किसी प्रकार के मत या संप्रदाय का प्रश्न नहीं, यहाँ तक कि वे लोग भी, जो धर्म सम्बन्धी समस्त विचारों के विरुद्ध हैं, जब इस प्रकार का सम्पूर्ण आत्मत्यागपूर्ण कोई कार्य देखते हैं, तो उसके प्रति श्रद्धानत हुए बिना नहीं रह सकते । क्या तुमने यह नहीं देखा, एक कट्टर मतान्ध ईसाई भी जब एडविन आर्नल्ड के 'एशिया की ज्योति' (Light of Asia) नामक ग्रंथ को पढ़ता है, तो वह भी उस बुद्ध के प्रति किस प्रकार श्रद्धानत हो जाता है, जिन्होंने किसी ईश्वर का उपदेश नहीं किया, आत्मत्याग के अतिरिक्त जिन्होंने अन्य किसी भी बात का प्रचार नहीं किया ? इसका कारण केवल यह है कि मतान्ध व्यक्ति यह नहीं जानता कि उसका स्वयं का जीवन-लक्ष्य और उन लोगों का जीवन-लक्ष्य, जिन्हें वह अपना विरोधी समझता है, विल्कुल एक ही है। एक उपासक अपने हृदय में निरन्तर ईश्वरी भाव एवं साधु भाव रखते हुए अन्त में उसी एक स्थान पर पहुँचता है और कहता है, "प्रभो, तेरी इच्छा पूर्ण हो ।" वह अपने निमित्त कुछ भी बचा नहीं रखता । यही आत्मत्याग है । एक ज्ञानी भी अपने ज्ञान द्वारा देखता है कि उसका यह तथाकथित भासमान 'अहं' केवल एक भ्रम है; और इस तरह वह उसे बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता है। यह भी आत्मत्याग के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । अतएव हम देखते हैं कि कर्म, भक्ति और ज्ञान, तीनों यहाँ पर आकर मिल जाते हैं। प्राचीन काल के बड़े बड़े धर्मप्रचारकों ने जब हमें यह सिखाया था कि 'ईश्वर जगत् से भिन्न है, जगत् से परे है, तो असल में उसका मर्म यही था । जगत् एक चीज़ है और ईश्वर दूसरी; और यह भेद बिल्कुल सत्य है । जगत् से उनका तात्पर्य है स्वार्थपरता । स्वार्थशून्यता ही ईश्वर है । एक मनुष्य चाहे रत्नखचित सिंहासन पर आसीन हो, सोने के महल में रहता हो, परन्तु यदि वह पूर्ण रूप से स्वार्थरहित है, तो वह ब्रह्म में ही स्थित है। परन्तु एक दूसरा मनुष्य चाहे झोपड़ी में ही क्यों न रहता हो चिथड़े क्यों न पहनता हो, सर्वथा दीन-हीन ही क्यों न हो, पर यदि वह स्वार्थी है, तो हम कहेंगे कि वह संसार में घोर रूप से डूवा हुआ है। हाँ, तो हम यह कह रहे थे कि बिना कुछ बुरा किये हम न तो भला कर सकते हैं और न बिना कुछ भला किये बुरा ही । तो अब प्रश्न यह है कि यह जानते हुए हम किस प्रकार कर्म करें ? अतः इस संसार में अनेक ऐसे भी सम्प्रदाय हुए हैं, जिन्होंने अद्भुत अनर्गलतापूर्वक यह शिक्षा दी कि धीरे धीरे आत्महत्या कर लेना ही इस संसार से निस्तार पाने का एकमात्र उपाय है, क्योंकि, मनुष्य यदि जीवित रहता है, तो अनेक छोटे छोटे जन्तुओं और पौधों का नाश करके, अथवा अन्य किसी न किसीका कुछ न कुछ अनिष्ट करके ही । इसीलिए उनके मतानुसार इस संसार- चक्र से छूटने का एकमात्र उपाय है मृत्यु ! जैनियों ने अपने सर्वोच्च आदर्श के रूप में इसीका प्रचार किया है। यह शिक्षा बड़ी तर्कसंगत प्रतीत होती है। परन्तु इसका यथार्थ समाधान गीता में मिलता है। और वह है अनासक्ति-अपने जीवन के समस्त कार्य करते हुए भी किसीमें आसक्त न होना । यह जान लो कि संसार में होते हुए भी तुम संसार से नितान्त पृथक् हो और यहाँ तुम जो भी कर रहे हो, वह अपने लिए नहीं है। यदि कोई कार्य तुम अपने लिए करोगे, तो उसका फल तुम्हें ही भोगना पड़ेगा। यदि वह सत्कार्य है, तो तुम्हें उसका अच्छा फल मिलेगा और यदि बुरा है, तो बुरा । परन्तु कोई भी कार्य हो, यदि तुम वह अपने लिए नहीं करते, तो उसका प्रभाव तुम पर नहीं पड़ेगा। इस भाव को स्पष्ट करने के लिए हमारे शास्त्रों में बड़े सुन्दर ढंग से कहा है, 'यदि किसीमें यह बोध रहे कि मैं इसे अपने लिए विल्कुल नहीं कर रहा हूँ, तो फिर वह चाहे समस्त संसार की हत्या ही क्यों न कर डाले (अथवा स्वयं ही क्यों न ह्त हो जाय), वास्तव में वह न तो हत्या करता है और न हत ही होता है। इसीलिए कर्मयोग हमें शिक्षा देता है, 'संसार को मत छोड़ो, संसार में ही रहो; जितना चाहो, सांसारिक भाव ग्रहण करो। परन्तु यदि यह अपने ही भोग के निमित्त हो, तो फिर तुम्हारा कर्म करना व्यर्थ है।' तुम्हारा लक्ष्य भोग नहीं होना चाहिए। पहले अहंभाव को नष्ट कर डालो, और फिर समस्त संसार को आत्मस्वरूप देखो, जैसा प्राचीन ईसाई कहा करते थे उस बूढ़े आदमी को मरना ही चाहिए।' इस वूढ़े आदमी का अर्थ है, यह स्वार्थपर भाव कि यह संसार हमारे ही भोग के लिए बना है। अज्ञ माता-पिता अपने बच्चे को यह प्रार्थना करने की शिक्षा देते हैं, "हे प्रभो, तूने यह सूर्य और चन्द्रमा मेरे लिए हो बनाये हैं," मानो उस ईश्वर को सिवाय इसके कि वह इन बच्चों के लिए यह सव पैदा करता रहे और कोई काम ही न था ! अपने बच्चों को ऐसी मूर्खतापूर्ण शिक्षा मत दो। फिर एक दूसरे प्रकार के भी मूर्ख लोग हैं, जो हमें सिखाते हैं कि ये सब जानवर हमारे मारने खाने के लिए ही बनाये गये हैं और यह सारा संसार मनुष्य के भोग के लिए है। यह सब निरो मूर्खता है । एक शेर भी कह सकता है कि मनुष्य की उत्पत्ति मेरे हो लिए हुई है और ईश्वर से प्रार्थना कर सकता है, "है प्रभो, मनुष्य कितना दुष्ट है कि वह अपने को मेरे सामने उपस्थित नहीं कर देता, जिससे में उसे खा जाऊँ । देखिए, मनुष्य आपका नियम भंग कर रहा है।" यदि संसार की उत्पत्ति हमारे लिए हुई है, तो हम भी संसार के लिए ही पैदा किये गये हैं । यह वड़ी कुत्सित धारणा है कि यह संसार हमारे भोग के लिए ही बनाया गया है और इसी भयानक धारणा से हम वद्ध रहते हैं। वास्तव में यह संसार हमारे लिए नहीं है। प्रतिवर्ष लाखों लोग इसमें से बाहर चले जाते हैं, परन्तु उधर संसार की कोई नज़र तक नहीं। लाखों फिर आ जाते हैं। संसार जैसे हमारे लिए है, वैसे ही हम भी संसार के लिए हैं । अतएव ठीक ढंग से कर्म करने के लिए यह आवश्यक है कि पहले हम आसक्ति का भाव त्याग दें। दूसरी बात यह है कि हमें स्वयं झंझट में उलझ नहीं जाना चाहिए । अपने को एक साक्षी के समान रखो और अपना काम करते रहो । मेरे गुरुदेव कहा करते थे, "अपने बच्चों के प्रति वही भावना रखो, जो एक धाय की होती है।' वह तुम्हारे बच्चे को गोद में लेती है, उसे खिलाती है और उसको इस प्रकार प्यार करती है, मानो वह उसीका बच्चा हो । पर ज्यों ही तुम उसे काम से अलग कर देते हो, त्यों ही वह अपना बोरा - विस्तर समेट तुरन्त घर छोड़ने को तैयार हो जाती है । उन बच्चों के प्रति उसका जो इतना प्रेम था, उसे वह बिल्कुल भूल जाती है। एक साधारण घाय को तुम्हारे बच्चों को छोड़कर दूसरे के बच्चों को लेने में तनिक भी दुःख न होगा । तुम भी अपने बच्चों के प्रति यही भाव धारण करो । तुम्हीं उनकी धाय हो, - और यदि तुम्हारा ईश्वर में विश्वास है, तो विश्वास करो कि ये सब चीजें, जिन्हें तुम अपनी समझते हो, वास्तव में ईश्वर की हैं । अत्यन्त दुर्बलता कभी कभी बड़ी साधुता और सवलता का रूप धारण कर लेती है। यह सोचना कि मेरे ऊपर कोई निर्भर है तथा मैं किसीका भला कर सकता हूँ, अत्यन्त दुर्बलता का चिह्न है । यह अहंकार ही समस्त आसक्ति की जड़ है, और इस आसक्ति से ही समस्त दुःखों की उत्पत्ति होती है। हमें अपने मन को यह भली भाँति समझा देना चाहिए कि इस संसार में हमारे ऊपर कोई भी निर्भर नहीं है । एक भिखारी भी हमारे दान पर निर्भर नहीं । किसी भी जीव को हमारी दया की आवश्यकता नहीं, संसार का कोई भी प्राणी हमारी सहायता का भूखा नहीं। सबकी सहायता प्रकृति से होती है। यदि हममें से लाखों लोग न भी रहें, तो भी उन्हें सहायता मिलती रहेगी। तुम्हारे-हमारे न रहने से प्रकृति के द्वार वन्द न हो जायेंगे। दूसरों की सहायता करके हम जो स्वयं शिक्षा लाभ कर सक रहे हैं, यही तो हमारे तुम्हारे लिए परम सौभाग्य की बात है । 'जीवन में सीखने योग्य यही सबसे बड़ी बात है । जब हम पूर्ण रूप से इसे सीख लेंगे, तो हम फिर कभी दुःखी न होंगे; तव हम समाज में कहीं भी जाकर उठ बैठ सकते हैं, इससे हमारी कोई हानि न होगी । तुम्हारे चाहे पति हों, चाहे पत्नियाँ हों, तुम्हारे दल के दल नौकर हों, बड़ा भारी राज्य हो, न गिरे।" बालक शुक ने दूध का प्याला ले लिया और संगीत की ध्वनि एवं अनेक सुन्दरियों के बीच प्रदक्षिणा करने को उठे । राजा की आज्ञानुसार वे सात बार चक्कर लगा आये, परन्तु दूध की एक बूंद भी न गिरी । बालक शुक का अपने मन पर ऐसा संयम था कि बिना उनकी इच्छा के संसार की कोई भी वस्तु उन्हें आकृष्ट नहीं कर सकती थी । प्रदक्षिणा कर चुकने के बाद जब वे दूध का प्याला लेकर राजा के सम्मुख उपस्थित हुए, तो उन्होंने कहा, "वत्स, जो कुछ तुम्हारे पिता ने तुम्हें सिखाया है तथा जो कुछ तुमने स्वयं सीखा है, उसकी पुनरावृत्ति मात्र मैं कर सकता हूँ। तुमने 'सत्य' को जान लिया है, अपने घर वापस जाओ ।' अतएव हमने देखा कि जिस मनुष्य ने स्वयं पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, उसके ऊपर बाहर की कोई भी चीज़ अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, उसके लिए किसी प्रकार की दासता शेष नहीं रह जाती । उसका मन स्वतंत्र हो जाता है । और केवल ऐसा ही पुरुष संसार में रहने योग्य है । वहुधा हम देखते हैं कि लोगों की संसार के सम्बन्ध में दो प्रकार की धारणाएँ होती हैं। कुछ लोग निराशावादी होते हैं। वे कहते हैं, "संसार कैसा भयानक है, कैसा दुष्ट है !" दूसरे लोग आशावादी होते हैं और कहते हैं, "अहा ! संसार कितना सुन्दर है, कितना अद्भुत है ! जिन लोगों ने अपने मन पर विजय नहीं प्राप्त की है, उनके लिए यह संसार या तो बुराइयों से भरा है, या अधिक से अधिक, अच्छाइयों और बुराइयों का एक मिश्रण है। परन्तु यदि हम अपने मन पर विजय प्राप्त कर लें, तो यही संसार सुखमय हो जाता है। फिर हमारे ऊपर किसी भी वात के अच्छे या बुरे भाव का असर न होगाहमें सब कुछ यथास्थान और सामंजस्यपूर्ण दिखलायी पड़ेगा। देखा जाता है, जो लोग आरम्भ में संसार को नरककुण्ड समझते हैं, वे ही यदि आत्मसंयम की साधना में सफल हो जाते हैं, तो इस संसार को ही स्वर्ग समझने लगते हैं। यदि हम सच्चे कर्मयोगी हैं और इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए अपने को प्रशिक्षित करना चाहते हैं, तो हम चाहे जिस अवस्था से आरम्भ करें, यह निश्चित है कि हमें अन्त में पूर्ण आत्मत्याग का लाभ होगा ही। और ज्यों ही इस कल्पित 'अहं' का नाश हो जायगा, त्यों ही वही संसार, जो हमें पहले अमंगल से भरा प्रतीत होता था, अव स्वर्गस्वरूप और परमानन्द से पूर्ण प्रतीत होने लगेगा । यहाँ की हवा तक बदलकर मधुमय हो जायगी और प्रत्येक व्यक्ति भला प्रतीत होने लगेगा । यही है कर्मयोग की चरम गति, और यही है उसकी पूर्णता या सिद्धि । हमारे भिन्न भिन्न योग आपस में विरोधी नहीं हैं। प्रत्येक अन्त में हमें एक ही स्थान में ले जाता है और पूर्णत्व की प्राप्ति करा देता है। पर प्रत्येक का दृढ़ अभ्यास आवश्यक है। सारा रहत्य अभ्यास में ही है। पहले श्रवण करो, फिर मनन करो और फिर अभ्यास करो। यह वात प्रत्येक योग के सम्बन्ध में सत्य है । पहले तुम इसके बारे में सुनो और समझो कि इसका मर्म क्या है । यदि कुछ बातें आरम्भ में स्पष्ट न हों, तो निरन्तर श्रवण एवं मनन से वे स्पष्ट हो जाती है । सब बातों को एकदम समझ लेना बड़ा कठिन है। फिर भी, उनकी व्याख्या आखिर तुम्हीं में तो है। वास्तव में कभी कोई व्यक्ति किसी दूसरे को नहीं सिखाता, हममें से प्रत्येक को अपने आपको सिखाना होगा। बाहर के गुरु तो केवल उद्दीपक मात्र हैं, जो हमारे अन्तःस्थ गुरु को सब विषयों का मर्म समझने के लिए उद्बोधित कर देते हैं । तब बहुत सी बातें हमारी स्वयं की विचार शक्ति से स्पष्ट हो जाती हैं और उनका अनुभव हम अपनी ही आत्मा में करने लगते हैं; और यह अनुभूति ही हमारी प्रबल इच्छा शक्ति में परिणत हो जाती है। पहले वह भावना होती है, फिर इच्छा, और इस इच्छा-शक्ति से कर्म करने की वह प्रचंड शक्ति पैदा होती है, जो तुम्हारी प्रत्येक नस, प्रत्येक शिरा और प्रत्येक पेशी में प्रवाहित होकर तुम्हारे संपूर्ण शरीर को इस निष्काम कर्मयोग का एक यंत्र बना देती है और इसके फलस्वरूप हमें अपना वांछित पूर्ण आत्मत्याग एवं परम निःस्वार्थता प्राप्त हो जाती है। यह उपलब्धि किसी प्रकार के मत, सिद्धान्त या विश्वास पर निर्भर नहीं है । चाहे ईसाई हो, यहूदी अथवा जेन्टाइल - इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । प्रश्न तो यह है कि क्या तुम निःस्वार्थ हो ? यदि तुम हो, तो चाहे तुमने एक भी धार्मिक ग्रन्थ का अध्ययन न किया हो, चाहे तुम किसी भी गिरजा या मन्दिर में न गये हो, फिर भी तुम पूर्णता को प्राप्त कर लोगे । हमारा प्रत्येक योग बिना किसी दूसरे योग की सहायता के भी मनुष्य को पूर्ण बना देने में समर्थ है, क्योंकि उन सबका लक्ष्य एक ही है। कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग - सभी मोक्ष-लाभ के लिए सीधे और स्वतंत्र उपाय हो सकते हैं। सांख्ययोगौ पृथक् बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः । - 'केवल अज्ञ ही कहते है कि कर्म और ज्ञान भिन्न भिन्न हैं, ज्ञानी नहीं।" ज्ञानी यह जानता है कि यद्यपि ऊपर से योग एक दूसरे से विभिन्न प्रतीत होते हैं, अन्त में वे मानवीय पूर्णता के एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं । हम पहले कह चुके हैं कि 'कर्म' शब्द 'कार्य' के अतिरिक्त कार्य-कारणवाद को भी सूचित करता है। कोई कार्य, कोई विचार, जो फल उत्पन्न करता है, 'कर्म' कहलाता है । इसलिए कर्म के नियम का अर्थ है, कार्य-कारण- सम्बन्ध का नियम, कारण और कार्य का ध्रुव अनुक्रम । यदि कारण रहे, तो उसका फल भी अवश्य होगा, इसका व्यतिक्रम कभी हो नहीं सकता। भारतीय दर्शन के अनुसार यह 'कर्म-विधान' समस्त जगत् पर लागू है। हम जो कुछ देखते हैं, अनुभव करते हैं अथवा जो कुछ कर्म करते हैं, वह एक ओर तो पूर्व कर्म का फल है और दूसरी ओर वही कारण होकर अपना फल उत्पन्न करता है। इसके साथ ही साथ हमें यह भी समझ लेना आवश्यक है कि 'नियम' शब्द का अर्थ क्या है । इसका अर्थ है - घटनाशृंखलाओं की पुनरावर्तन की प्रवृत्ति । जब हम देखते हैं कि एक घटना के बाद कोई दूसरी घटना होती है अथवा दो घटनाएँ साथ ही साथ होती हैं, तब हम इस अनुक्रम या सह-अस्तित्व के पुनः घटित होने की अपेक्षा करते हैं। हमारे देश के प्राचीन नैयायिक इसे 'व्याप्ति' कहते हैं। उनके मतानुसार नियम सम्वन्धी हमारी समस्त धारणाएँ साहचर्य के आधार पर होती हैं। एक घटना शृंखला अपरिवर्तनीय क्रम से हमारे मन में कुछ वस्तुएं गूंथ जाती है, जिससे हम जब कभी किसी विषय का प्रत्यक्ष करते हैं, तो वह तुरन्त मन के अन्तर्गत कुछ अन्य तथ्यों से सम्बद्ध हो जाता है। कोई एक भाव अयवा, हमारे मनोविज्ञान के अनुसार, चित्त में उत्पन्न कोई एक तरंग सदैव उसी प्रकार की अनेक तरंगों को उत्पन्न कर देती है। यही मनोविज्ञान की साहचर्य की धारणा है और कारणता इसी 'व्याप्ति' नामक योगविधान का एक पहलू मात्र है । अन्तर्जगत् तथा बाह्य जगत् दोनों में 'नियम-तत्त्व ' अथवा नियम की कल्पना एक ही है, और वह है - यह अपेक्षा करना कि एक घटना के बाद एक दूसरी विशिष्ट घटना होगी और इस अनुक्रम की पुनरावृत्ति होती रहेगी। यदि ऐसा हो, तो फिर वास्तव में प्रकृति में नियम का अस्तित्व ही नहीं है । वस्तुतः यह कहना भूल होगी कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण है अथवा पृथ्वी के किसी स्यान में कोई वस्तुगत नियम विद्यमान है। हमारा मन जिस प्रणाली अथवा विधि से कुछ घटना-श्रृंखला की धारणा करता है, उसीको हम नियम कहते हैं, और यह हमारे मन में ही स्थित है। एक दूसरे के बाद जयवा एक ही साथ घटित होने
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अगर तुम ईमानदारी से जीवन का रूपांतरण चाहते हो तो उनके पास जाना जो तसल्ली बंधाते न हों; जो तुम्हारे जीवन का निदान सीधा कर के रख देते हों सामने--चाहे चोट भी लगती हो; चाहे तुम्हारा घाव भी छू जाता हो और तुम्हारी मलहम-पट्टी उखड़ जाती हो; चाहे तुम्हारे नासूर से मवाद निकल आती हो। लेकिन उनके पास जाना जो तसल्ली बंधाने के आदी नहीं हैं; जो तुम्हारे जीवन के सत्य को वैसा का वैसा रख देते हैं जैसा है। पीड़ा होती है। लेकिन जीवन-रूपांतरण में पीड़ा छुपी है। और अगर तुमने उनकी बात सुनी और समझने की कोशिश की और जीवन में वैसा आचरण और व्यवहार किया तो तुम बदल जाओगे। तसल्ली उन्होंने नहीं बंधाई, लेकिन तुम्हारे जीवन को क्रांति दे देंगे वे। लेकिन तुम मुफ्त तसल्ली में घूमते हो। फिर एक साधु चुक जाता है, क्योंकि कई दफे तसल्ली बंधा चुका, अब तुम्हें उसमें भरोसा नहीं रहा, फिर तुम दूसरा साधु खोज लेते हो। साधुओं की कोई कमी नहीं है। जिंदगी बड़ी छोटी है, साधु बहुत हैं । तसल्ली, तसल्ली, तसल्ली । तुम घूमते फिरते हो। बंद करो! जीवन के सत्य को पकड़ो! जीवन का सत्य सुगम नहीं है, सांत्वना नहीं है। जीवन का सत्य कठोर है। कांटा चुभा है तुम्हारी छाती में, उसे निकालने में पीड़ा होगी। तुम चीखोगे, चिल्लाओगे। लेकिन वह चीख-चिल्लाहट जरूरी है। और तुम्हें जो उस पीड़ा से गुजारने में साथी हो सके, उसे मित्र मानना। सदगुरु तसल्ली नहीं देता। सदगुरु सत्य देता है, फिर चाहे कितना ही कड़वा हो । आखिर वैद्य अगर यह सोचने लगे कि मीठी ही दवा देनी है, तो चिकित्सा न होगी, मरीज चाहे प्रसन्न हो जाये क्षणभर को। शरबत पिला दे मरीज को, लेकिन इससे बीमारी ठीक न होगी; मरीज प्रसन्न होकर घर लौट जायेगा, लेकिन बीमारी और बढ़ जायेगी। नहीं, कड़वी दवा भी देनी पड़ती है, जहर जैसी दवा भी देनी पड़ती है। मरीज नाराज भी होता है, तो भी देनी पड़ती है। आशा ने सारे संसार को भटकाया हुआ है । और आशाएं मत खोजो। जहां आशा टूटती हो, जहां तसल्ली उखड़ती हो, जहां तुम्हारे सांत्वना के सब जाल बिखरते हों, जहां तुम्हारा सारा व्यक्तित्व जो अब तक झूठ पर खड़ा था तहस-नहस होकर खंडहर हो जाता हो--वहां जाना। दुर्धर्ष है मार्ग। लोग कहते हैं मौत से बदतर है इंतजार मेरी तमाम उम्र कटी इंतजार में सभी की कटती है। तुम कर क्या रहे हो सिवाय इंतजार के? सैमुअल बैकेट का एक छोटा नाटक है-- वेटिंग फार गोडोड, गोडोड की प्रतीक्षा । यह गोडोड कौन है? किसी ने सैमुअल बैकेट को पूछा कि आखिर यह गोडोड कौन है! क्योंकि पूरा नाटक पढ़ जाओ, पता ही नहीं चलता कि गोडोड कौन है। सैमुअल बैकेट ने कहा कि अगर मुझे ही पता होता तो मैंने नाटक लिख दिया होता। मुझे भी पता नहीं, गोडोड कौन है। लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं। ठीक से पूछो, किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? उनको भी पता नहीं है। गोडोड यानी वह, जिसका पता नहीं, लेकिन प्रतीक्षा कर रहे हैं। सभी लोग उत्सुकता से बैठे हैं दरवाजे खोले हुए- कोई आनेवाला है। यह गोडोड की कहानी बड़ी प्यारी है। दो आदमी बैठे हैं। ऐसे नाटक शुरू होता है। और वे एक-दूसरे से पूछते हैं कि क्यों भई, क्या हाल है? वह कहता है, "सब ठीक है। आज आयेगा, ऐसा मालूम पड़ता है।" कौन आयेगा, इसकी तो कोई बात ही नहीं- "आज आयेगा, ऐसा मालूम पड़ता है।" दूसरा कहता है, "सोचता तो मैं भी हूं। आना चाहिए। कब से हम राह देख रहे हैं! और भरोसा बंधवाया था। और आदमी ऐसा गैर-भरोसे का नहीं है। देखें शायद आज आए । " ऐसी बात चलती है। वे दोनों देखते रहते हैं रास्ते की तरफ, रास्ते के किनारे बैठे। कोई आता नहीं। दोपहर हो जाती है। सांझ हो जाती है। वे कहते हैं, "फिर नहीं आया। हद्द हो गयी बेईमानी की! आदमी ऐसा तो न था, कुछ अड़चन आ गई होगी, कोई बीमार हो गया!" बाकी कौन है इसकी कोई बात नहीं चलती । कई दफे वे परेशान हो जाते हैं। वे कहते हैं, "अब बहुत हो गया, बंद करो जी इंतजार!" मगर दोनों बैठे हैं। कभी-कभी कहते हैं "अब मैं चला। तुम ही करो।" एक कहता है कि बहुत हो गया, एक सीमा होती है। मगर जाता-करता कोई नहीं, क्योंकि जाएं भी कहां! कहीं और जाओगे, वहां भी इंतजार करना पड़ेगा। रहते वहीं हैं। बैठे वहीं हैं। बात भी करते रहते हैं, कभी यह भी नहीं एक-दूसरे से पूछते कि किसका इंतजार कर रहे हो? मान लिया है कि किसी का इंतजार कर रहे हैं। यह जो गोडोड है, यह सब को पकड़े हुए है। तुमने कभी पूछा है, किसकी राह देख रहे हो? कौन आनेवाला है? किसके लिए द्वार खोले हैं? और किसके लिए घर सजाए बैठे हो ? नहीं, तुम कहोगे यह तो हमें पक्का पता नहीं है, कौन आनेवाला है; लेकिन कोई आनेवाला है, ऐसा लगता है। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम क्या खोज रहे हैं, हमें पता ही नहीं; मगर खोज रहे हैं। अब खोजोगे कैसे अगर यह ही पता नहीं कि क्या खोज रहे हो? लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, कुछ पूछना है; लेकिन हमें मालूम नहीं कि क्या पूछना है। और वे गलत नहीं कहते, बड़े ईमानदार लोग हैं। यही स्थिति है। लोग पूछना चाहते हैं, कुछ पूछना जरूर है। ऐसा आभास मालूम होता है। कहीं प्राणों में ऐसी घुमड़ मालूम होती है, कुछ पूछना है-- लेकिन क्या? कुछ पकड़ में नहीं आता। कुछ रूप नहीं बनता। कुछ आकार नहीं बैठता । खोजना है-- लेकिन क्या? यह गोडोड कौन है? किसी को मालूम नहीं । इस इंतजार से जागो! यह प्रतीक्षा बहुत हो चुकी। न कभी कोई आया है, न कभी कोई आयेगा। बंद करो दरवाजे। अब तो उसको खोजो जो तुम हो । कभी धन में प्रतीक्षा की, कभी पद में प्रतीक्षा की; कभी लोगों की आंखों में सम्मान चाहा, कभी प्रार्थना की, आकाश की तरफ देखा, किसी परमात्मा को खोजा--लेकिन सब गोडोड! तुम्हें साफ नहीं, तुम क्या खोज रहे हो, तुम क्या मांग रहे हो! अब तो उचित है कि अपने में डूबो। उसे देखें जो हम हैं। किसी और की प्रतीक्षा करनी उचित नहीं है। अगर तुमने हिंसा का बोधपूर्वक त्याग नहीं किया है तो हिंसा जारी रहेगी। महावीर और सूक्ष्म तल पर ले जाते हैं। वे कहते हैं, दूसरे को मारने का, दूसरे को दुख देने का भाव तो हिंसा है ही; लेकिन अगर तुमने बोधपूर्वक दूसरे को दुख देने की समस्त संभावना का त्याग नहीं किया है, अगर तुमने अहिंसा को बोधपूर्वक अपनी जीवनचर्या नहीं बनाया है, तो भी हिंसा है। हिंसा में विरत न होना, जागकर होशपूर्वक, निर्णयपूर्वक अपने सामने यह साफ न कर लेना कि मैं हिंसा से विरत हुआ, तो खतरा है। जिससे तुम विरत नहीं हुए हो, वह पैदा हो सकता है। किसी घड़ी, किसी असमय में, किसी परिस्थिति में, जिससे तुम विरत नहीं हुए हो, उसके पैदा होने की संभावना है। माना कि तुमने सोचा भी नहीं कि किसी को मारना है; लेकिन कोई छुरी लेकर सामने आ गया तो तुम भूल जाओगे। तुम्हारे पास अहिंसा की कोई शैली नहीं है। तुम हिंसा की शैली को पकड़ लोगे, क्योंकि वह पुरानी आदत है। तो महावीर यह कह रहे हैं कि हिंसा की शैली तो जन्मों-जन्मों की आदत है। अहिंसा की शैली को बोधपूर्वक स्वीकार करना पड़ेगा। उसे जीवन की साधना बनाना होगा। नहीं तो जब कोई हिंसा करने को तैयार हो जाएगा, तुम अचानक भूल जाओगे। तुमने सोचा भी न था हिंसा करने के लिए, लेकिन हिंसा होगी। पुरानी आदत है, पुराने संस्कार हैं। पुराने संस्करों को गिराने के लिए बोधपूर्वक निर्णय चाहिए। हिंसा से विरत होने का निर्णय चाहिए। संभावना भी बचा लेना हिंसा है। "इसलिए जहां प्रमाद है, वहां नित्य हिंसा है...।" यह गहरी से गहरी पकड़ है, जो हो सकती है। "जहां प्रमाद है वहां नित्य हिंसा है... । " प्रमाद यानी मूर्च्छा। जहां सोया-सोयापन है; जहां चले जा रहे हैं नींद में, आंखें खुली हैं, लेकिन मन सोया, बेहोश है; जहां हम मूर्च्छा में चल रहे हैं वहां हिंसा है। क्योंकि मूर्च्छित व्यक्ति क्या करेगा? हजार परिस्थितियां रोज आती हैं हिंसा की, मूर्च्छित व्यक्ति क्या करेगा? होश तो है नहीं कि कुछ नया जीवनउदबोध, कुछ नयी जीवन-उमंग, कोई नई किरण फूट सके। बेहोश है तो पुरानी आदत से चलेगा, बेहोश आदमी आदत से चलता है। होशवाला आदमी प्रतिपल होश से चलता है, आदत से नहीं। किसी ने गाली दी, तुम्हें याद भी न रहेगा कि तुम्हारा चेहरा तमतमा गया। यह तमतमा जाएगा, तब पता चलेगा कि अरे, फिर हो गया! यह एक क्षण में हो जाता है, क्षण के खंड में हो जाता है। एक सुंदर स्त्री पास से गुजरी, कोई चीज हिल गई भीतर। अभी खाली बैठे थे तो कुछ बात न थी। स्त्री का ख्याल ही न था। अभी बैठे वृक्षों की हरियाली देखते थे; खिले फूलों को, आकाश के तारों को देखते थे--कुछ पता भी न था, लेकिन परिणाम तो भीतर पड़ा है। आदत तो पुरानी भीतर पड़ी है। एक स्त्री पास से गुजर गई, क्षणभर में बिजली कौंध गई। भीतर कुछ हिल गया। भीतर कोई तूफान उठ आया । भीतर कोई वासना सजग हो गई। बीज तो पड़े ही हैं, जब भी वर्षा हो जायेगी, अंकुर हो जायेंगे। तो महावीर कहते हैं, "वस्तुतः मूर्च्छा ही हिंसा है और अमूर्च्छा अहिंसा है। आत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा है। जब आत्मा मूर्च्छित है तो हिंसा; जब आत्मा जाग्रत है तो अहिंसा। यह सिद्धांत का निश्चय अत्ता चेव अहिंसा--आत्मा ही अहिंसा, आत्मा ही हिंसा । यह सिद्धांत का निश्चय है। "जो अप्रमत्त है वह अहिंसक है । " जो जागा हुआ है, जो होशपूर्वक जीता है, अवेयरनेस, सम्यक बोध, एक-एक कदम बोधपूर्वक रखता है, विवेकपूर्वक रखता है - वह अहिंसक है। "जो प्रमत्त है, वह हिंसक है।" जो नशे में जी रहा है, जिसे ठीक पता भी नहीं है --कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं--चला जा रहा है! तुम अपने को पकड़ो। अपने को हिलाओ, डुलाओ, जगाओ! झटका दो! सूफियों में एक प्रक्रिया है-झटका देने की । सूफियों का एक वर्ग साधकों को कहता है कि जब भी तुम्हें लगे कि तंद्रा आ रही है, जोर से एक झटका शरीर को दो। जैसे कोई वृक्ष तूफान में हिल जाता है, आंधी में कंप जाता है, धूल-धंवास गिर जाती है, ऐसा कभी अपने को झटका दो। तुम कभी कोशिश करके देखना। क्षणभर को तुम पाओगे एक ताजगी, एक होश, अपनी याद, मैं कौन हूं! चैतन्य थोड़ी देर को प्रखर होगा, झलकेगा; फिर खो जायेगा। ऐसे झटके अपने को देते रहना। कभी-कभी छोटी चीजें काम की हो जाती हैं। बहुत छोटी चीजें काम की हो जाती हैं। तो जब भी कोई गाली दे, एक झटका अपने को देना। इसको धीरे-धीरे अपने जीवन की व्यवस्था बना लेना। कोई गाली देगा, तुम अपने को झटका दोगे। झटका देकर तुम पाओगे कि आदत से संबंध छूट गया। यही तो "इलेक्ट्रो शाक... मनोविज्ञान इसी को कहता है। आदमी पागल हो जाता है, कोई उपाय नहीं सूझता, कैसे ठीक करें, तो उसके मस्तिष्क में बिजली दौड़ा देते हैं । होता क्या है? जब बिजली तेजी से दौड़ती है तो उसके मस्तिष्क में एक झंझावात आता है। एक झटका लगता है। उस झटके के कारण, वह जो पागलपन उस पर सवार था, उससे उसका संबंध क्षणभर को टूट जाता है। क्षणभर को वह भूल जाता है कि मैं पागल हूं। सातत्य टूट जाता है, कंटीन्यूटी टूट जाती है। फिर उसे याद नहीं रहती। फिर जब वापिस लौटता है झटके के बाद, तो उसे याद नहीं रहती कि वह अभी थोड़ी देर पहले पागल था, अब उसको पागल रहना है। आदत से संबंध छूट गया। तो अकसर लाभ हो जाता है। अकसर पागल ठीक हो जाता है। लेकिन यह तुम खुद अपने लिए कर सकते हो। और हम सब पागल हैं। और हमारा सारा व्यवहार सोया हुआ है। जिस भांति बन सके, जगाने की चेष्टा अपने को करनी है। कई तरह से झटके दिये जा सकते हैं। कोई भी छोटा स्मरण भी सहयोगी हो सकता है। तुम्हें मैंने माला दी है। इसको ही एक नयी स्मरण की आदत बना लो कि जब कोई कामवासना उठने लगे, तत्क्षण माला को हाथ में पकड़ लेना। किसी को पता भी न चलेगा। लेकिन उस माला को पकड़ना तुम्हें याद दिला देगा कि अरे! फिर गिरे, फिर गिरने को तैयार हुए ! तुम्हें मैंने गैरिक वस्त्र दिये हैं, वे याददाश्त के लिए हैं; अन्यथा गैरिक वस्त्रों से क्या होता जाता है ! एक आदमी शराबी है, वह संन्यास लेने आ गया था। वह कहने लगा कि मैं शराबी हूं, अब आपसे कैसे छिपाऊं! संन्यास भी लेना है। घबड़ाहट यही है कि गैरिक वस्त्रों में फिर शराब-घर कैसे जाऊंगा! "वह तेरी फिक्र है। वह हमारी क्या फिक्र है? तू चिंता करना। हमने अपना काम कर दिया, तुझे संन्यास दे दिया। अब इसमें हम क्या फिक्र करें, कहां तू जायेगा कहां नहीं । तेरे पीछे हम कोई चौबीस घंटे घूमेंगे नहीं। अब तू ही निपट लेना।" उसने कहा कि झंझट में डाल रहे हो आप। झंझट तो है। क्योंकि सोए-सोए जीते थे, जागना एक झंझट है। पर वह हिम्मतवर आदमी है। साफ-सुथरा आदमी है। अन्यथा कहने की कोई जरूरत ही नहीं थी, छिपा जाता । शराब पीते हैं, कौन कहता है! लेकिन कुछ दिन बाद आया और उसने कहा कि मुश्किल हो गई। अब पैर रुकते हैं। ऐसा नहीं कि शराब पीने का मन अब नहीं होता; होता है, लेकिन अब ये गैरिक वस्त्र झंझट का कारण हैं। वहां पहुंच जाता हूं तो लोग चौंककर देखते हैं जैसे कि कोई अजूबा जानवर हूं । सिनेमा घर में खड़ा था कतार में, तो चारों तरफ लोग देखने लगे। दो आदमियों ने आकर पैर लिये तो मैं भागा कि अब यहां... जहां लोग पैर छू रहे हैं, अब यहां सिनेमा में जाना योग्य नहीं है। तुमने कहानी सुनी है पुरानी? एक चोर भागा। उसके पीछे लोग लगे थे। उसे कोई भागने का, बचने का उपाय नहीं दिखाई पड़ा। वह एक नदी के किनारे पहुंचा। वहां कुछ राख का ढेर पड़ा था। उसने जल्दी से कपड़े उतारकर तो फेंके नदी में, नग्न हो गया, डुबकी मारी, राख ऊपर से डाल ली और झाड़ के नीचे आंख बंदकर के बैठ गया। पद्मासन लगा लिया। पकड़नेवाले आ गये, कोई वहां दिखाई नहीं पड़ता-- एक साधु महाराज। उन्होंने सबने पैर छुए। चोर ने कहा, "अरे हद्द हो गई! मैं झूठा साधु हूं और मेरे लोग पैर छू रहे हैं!" लेकिन एक झटका लगा कि काश! मैं सच्चा होता तो क्या न हो जाता ! लेकिन उस झटके में क्रांति हो गई। लोग तो चले गए पैर छूकर, लेकिन वह सदा के लिए साधु हो गया। उसने कहा, जब झूठे तक को, जब झूठी साधुता तक को ऐसा सम्मान मिल गया, जब झूठे में ऐसा रस, तो सच्चे की तो कहना क्या! स्मरण के साधन हैं। गैरिक वस्त्र है तुम्हारा, किसी को मारने के लिए हाथ उठने लगेगा तो अपना गैरिक वस्त्र भी दिखाई पड़ जायेगा। बस उतना ही काफी होगा। हाथ को नीचे छोड़ देना। शराब का प्याला हाथ में उठा लो, पास लाने लगो, तो गैरिक वस्त्र दिखाई पड़ जायेगा। फिर हाथ को वहीं वापिस लौटा देना। धीरे-धीरे तुम पाओगे, एक नए बोध की दशा तुम्हारे भीतर सघन होने लगी, जो पुरानी आदतों को काट देगी। "जैसे जगत में मेरू पर्वत से ऊंचा और आकाश से विशाल कुछ भी नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।" इसलिए महावीर ने अहिंसा को परम धर्म कहा है। आकाश से विशाल, मेरुओं से भी ऊंचा! "अहिंसा" शब्द सोचने जैसा है। महावीर ने प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया, यद्यपि ज्यादा उचित होता कि वे प्रेम शब्द का उपयोग करते। लेकिन उन्होंने किया नहीं। उनके न करने के पीछे कारण हैं। क्योंकि प्रेम शब्द से तुम कुछ समझे बैठे हो जो कि बिल्कुल गलत है। उसी शब्द का उपयोग करने से कहीं ऐसा न हो, महावीर को डर रहा, कि तुम अपना ही प्रेम समझ लो कि तुम्हारे ही प्रेम की बात हो रही है। तो महावीर को एक नकारात्मक शब्द उपयोग करना पड़ाः अहिंसा; हिंसा नहीं। लेकिन महावीर का मतलब प्रेम से है। सूफी जिसको "इश्क" कहते हैं, जीसस ने जिसको प्रेम कहा है वही महावीर की अहिंसा है। लेकिन महावीर एक-एक शब्द को बहुत सोचकर बोले हैं, तुम्हारी तरफ देखकर बोले हैं। क्योंकि प्रेम के साथ तुम्हारा पुराना एसोसिएशन है, पुराना संबंध है। तुमने प्रेम से अब तक जो मतलब समझे हैं वे राग के हैं, काम के हैं। तुम्हारे लिए प्रेम का एक ही मतलब होता हैः वासना । तुमने प्रेम का दूसरा गहनतम अर्थ नहीं जाना। प्रेम का वास्तविक अर्थ होता हैः इतने स्वस्थ हो जाना कि तुम न किसी को दुख पहुंचाना चाहते हो, न स्वयं को दुख पहुंचाना चाहते हो। तुम अपने को भी प्रेम करते हो, दूसरे को भी प्रेम करते हो। और यह प्रेम अब कोई संबंध नहीं है, तुम्हारी दशा है। कोई न भी हो तो भी तुम्हारे चारों तरफ प्रेम फैलता रहता है। जैसे अकेले में खिले विजन में फूल, तो भी तो सुगंध बिखरती रहती है। दीया जले अकेले अंधकार में, अमावस की रात में, तो भी तो प्रकाश फैलता रहता है। दीया यह थोड़े ही सोचता है कि कोई यहां है ही नहीं, तो फायदा क्या! फूल यह थोड़े ही सोचता है, इस रास्ते से कोई गुजरता ही नहीं, कोई नासापुट आएंगे ही नहीं यहां, तो किसके लिए गंध बिखेरूं! छोड़ो, क्या सार है! ऐसे ही प्रेम को जो उपलब्ध है, वह यह थोड़े ही सोचता है कि कोई लेगा तब दूं, या किसी खास को दूं। प्रेम उसका स्वभाव है। लेकिन महावीर ने अहिंसा शब्द का उपयोग किया। उस शब्द के कारण उन्होंने पुरानी एक भ्रांति से बचाना चाहा आदमी को, ताकि लोग उनके ही प्रेम को न समझ लें कि महावीर उन्हीं के प्रेम का समर्थन कर रहे हैं। लेकिन एक दूसरी भ्रांति शुरू हो गयी। आदमी इतना उलझा हुआ है कि तुम उसे बचा नहीं सकते। तब अहिंसा शब्द के साथ एक नयी भ्रांति शुरू हो गयी। अब जैन मुनि हैं, उनके जीवन में प्रेम दिखाई ही नहीं पड़ेगा। उनने अहिंसा का ठीक-ठीक मतलब ले लिया, हिंसा नहीं करनी; तो नकारात्मक, विधायक कुछ भी नहीं, पाजिटिव कुछ भी नहीं। चींटी नहीं मारनी, मगर चींटी के प्रति कोई प्रेम नहीं है। चींटी नहीं मारनी, क्योंकि मारने से नर्क जाना पड़ता है। यह तो लोभ ही हुआ। किसी को नहीं मारना, किसी को गाली नहीं देना, क्योंकि गाली देने से मोक्ष खोता है। यह तो लोभ ही हुआ, प्रेम नहीं। इस फर्क को समझना। तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि अहिंसा का महावीर का अर्थ हैः प्रेम । तुम्हारा प्रेम नहीं; क्योंकि एक और प्रेम है। लेकिन जैन मुनियों की अहिंसा भी नहीं, क्योंकि वह बिल्कुल मुर्दा है। वह मर गयी। नकार में कहीं कोई जी सकता है? सिर्फ नकार-नकार में कोई जी सकता है? नकार में कोई घर बना सकता है? कुछ विधायक चाहिए। विधायक का अर्थ हैः कुछ ऊर्जा तुम्हारे भीतर जगनी चाहिए। सिकुड़ने से ही थोड़े ही काम चलेगा! किसी को मारो मत, बिल्कुल ठीक; लेकिन क्यों न मारो किसी को? क्योंकि तुम्हें प्रेम है, इसलिए। इसलिए नहीं कि मारोगे तो नर्क जाना पड़ेगा। यह कोई प्रेम हुआ? यह तो अपना ही लोभ हुआ। लोगों को मत मारो, क्योंकि तुम्हारा प्रेम तुम्हें बताएगा कि दूसरे को मारना, दूसरे को दुख देना... तो तुम कैसे आशा बांधते हो कि तुम्हारे जीवन में प्रेम का फैलाव हो सकेगा? प्रेम फैलता है, बढ़ता है। महावीर कहते हैं, "आकाश जैसा! सुमेरू पर्वत से भी ऊंचा, आकाश से भी विशाल!" तो यह कुछ विधायक घड़ी हो तो ही बढ़ सकती है। कुछ हो तो बढ़ सकता है। अहिंसा का तो अर्थ हैः हिंसा का न होना। यह तो ऐसे ही हुआ जैसे कि चिकित्सा शास्त्र में अगर पूछा जाये कि स्वास्थ्य क्या है, तो वे कहते हैं बीमारी का न होना। लेकिन मुर्दा भी बीमार नहीं होता, लेकिन उसको तुम स्वस्थ न कह सकोगे। वह स्वास्थ्य की परिभाषा पूरी करता है, क्योंकि बीमार नहीं है। जिंदा ही बीमार होता है, मुर्दा कैसे बीमार होगा? बीमार होने के लिए जिंदा होना जरूरी है। तो यह स्वास्थ्य की परिभाषा पर्याप्त नहीं है कि बीमार न होना। यह तो नकारात्मक हुई। हां, स्वस्थ आदमी बीमार नहीं होता, यह बात जरूर सच है। लेकिन स्वास्थ्य कुछ और भी है। बीमारी न होने से ज्यादा कुछ है, कुछ विधायक है। जब तुम स्वस्थ रहे हो, क्या तुमने अनुभव नहीं किया, क्या तुम इतना ही जानते हो कि न टी. बी., न कैंसर, न और रोग? क्या जब तुम स्वस्थ होते हो, तब तुमको इनकी याद आती है कि देखो, कितना मजा आ रहा है, न टी. बी. है, न कैंसर है? ऐसा होता है? जब तुम स्वस्थ होते हो, न तो टी. बी. की याद आती है, न कैंसर की, न नकार की। स्वास्थ्य का अपना ही रस है। स्वास्थ्य का अपना ही अहोभाव है। स्वास्थ्य की अपनी ही प्रफुल्लता है। स्वास्थ्य का झरना फूटता है। यह कोई बीमारी की बात नहीं है। ऐसा समझो कि एक झरना है, उसके मार्ग पर पत्थर रखे हैं। तो हम कहते हैं, पत्थर हटा लो, तो झरना फूट जाये। लेकिन पत्थर का हटा लेना ही झरना नहीं है। क्योंकि कई जगह और जगह भी पत्थर पड़े हैं, वहां हटा लेना, तो झरना नहीं फूटेगा; तुम बैठे रहना कि पत्थर तो हटा लिये, बस झरना हो गया। पत्थर का हटाना झरने के लिए जरूरी हो सकता है, लेकिन पत्थर के हटने में ही झरना नहीं है। झरना तो कुछ विधायक बात है। हो तो पत्थर के हटने पर प्रगट हो जायेगा; न हो तो तुम पत्थर हटाए बैठे रहना जैसे जैन मुनि बैठे हुए हैं। यह नहीं करते, वह नहीं करते सब नहीं करने पर है। चोरी नहीं करते, लेकिन अचोर नहीं हैं। लोभ नहीं करते, लेकिन अलोभी नहीं हैं। हिंसा नहीं करते, लेकिन अहिंसक नहीं हैं। क्योंकि विधायक चूक रहा है। जिंदगी जिंगारे-आईना है, आईना है इश्क संग है मामूरए-कौनेन और शोला है इश्क । इल्म बरबत है, अमल मिजराब है, नग्मा है इश्क । जर्रा-जर्रा कारवां है, इश्क खिज्रे-कारवां । प्रेम स्वच्छ दर्पण है। और प्रेम के सिवाय जीवन में जो कुछ है, वह दर्पण पर मैल है, धूल है। सांसारिक वस्तुएं तो पत्थर हैं। प्रेम प्रकाश है। ज्ञान वाद्य है। आचरण मिजराब है। प्रेम संगीत है। जीवन का कण-कण यात्री है। प्रेम यात्री-दल का पथ-प्रदर्शक है। महावीर ने जिसे अहिंसा कहा है, वह सूफियों का इश्क है। इस बात को अब दोहरा देने की जरूरत पड़ी है। क्योंकि जैसी मुश्किल महावीर को मालूम पड़ी थी प्रेम के साथ, वैसी ही मुश्किल मुझे मालूम पड़ती है अहिंसा के साथ। महावीर प्रेम शब्द का उपयोग न कर सके, क्योंकि गलत धारणा लोगों के मन में प्रेम की थी। आज मुझे अहिंसा शब्द का उपयोग करने में अड़चन होती है, क्योंकि बड़ी गलत धारणा लोगों के मन में है। हमारे सभी शब्द हमारे कारण खराब हो जाते हैं, गंदे हो जाते हैं; क्योंकि हमारे शब्दों में भी हमारी प्रतिध्वनि होती है। जब कामी प्रेम की बात करता है तो उसका प्रेम भी काम से भर जाता है। जब निषेधात्मक वृत्तियों का व्यक्ति अहिंसा की बात करता है तो उसकी अहिंसा निषेधात्मक हो जाती है। अहिंसा यानी प्रेम, परम प्रेम। .जरा मौत दामन बचा कर चले -- जिंदगी अब प्रेम के साथ है, प्रेम की छाया में है। . जरा मौत दामन बचा कर चले। --अब जरा मौत होशियारी से चले, क्योंकि जो प्रेम के साये में आ गया उसकी कोई मौत नहीं। वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है। और प्रेम फूल जैसा है। मौत अंगार जैसी है। लेकिन इस जीवन की, अस्तित्व की यही महत्वपूर्ण राजभरी बात है कि अंततः फूल जीतते हैं, अंगार हार जाते हैं। अंततः कोमल जीतता है, कठोर हार जाता है। गिरता है पहाड़ से जल, कोमल जल, क्षीणदेह जलधार, बड़ी-बड़ी चट्टानें मार्ग में पड़ी होती हैं--कौन सोचेगा कि ये चट्टानें कभी कट जायेंगी! लेकिन एक दिन धीरे-धीरे धीरे-धीरे चट्टानें कटती जाती हैं और रेत होती जाती हैं। धार बड़ी कोमल है। चट्टानें बड़ी कठोर हैं। लेकिन कोमल सदा जीत जाता है। अंतिम विजय कोमल की है। और जिन्होंने अपने को फूलों से बचाया, कोमलता से बचाया, उनकी जिंदगी में अंगारे ही अंगारे रहे, जलन ही जलन रही। तुम फूल को कमजोर मत समझना। तुम फूल को महाशक्तिशाली समझना। पत्थर कमजोर हैं; यद्यपि दिखाई यही पड़ता है कि पत्थर बड़े मजबूत, बड़े शक्तिशाली हैं। लेकिन पत्थर मुर्दा हैं, शक्तिशाली हो कैसे सकते हैं? फूल जीवंत है। उसके खिलने में जीवन है। उसकी सुगंध में जीवन है। उसकी कोमलता में जीवन है। अकसर हम हिंसा के लिए राजी हो जाते हैं, क्योंकि हिंसा लगती है ज्यादा मजबूत, शक्तिशाली! अहिंसा, प्रेम लगता है कमजोर। हम जल्दी भरोसा कर लेते हैं हिंसा पर; अहिंसा पर भरोसा नहीं कर पाते, क्योंकि फूलों पर हमारा भरोसा उठ गया है। कोमल की शक्ति को हम भूल ही गये हैं। विनम्र की शक्ति को हम भूल गए हैं। प्रेम बलवान है, यह हमें याद भी न रहा है। हम तो सोचते हैं, क्रोध बलवान है। बस यही धार्मिक और अधार्मिक आदमी का अंतर है। अगर तुम मुझ से पूछो तो धार्मिक आदमी वह है जो यह जान गया कि कोमल अंततः जीतता है; जिसका भरोसा फूल पर आ गया और पत्थर से जिसकी श्रद्धा उठ गई। और अधार्मिक आदमी वह है, जो भला फूल की प्रशंसा करता हो, लेकिन जब समय आता है तो पत्थर पर भरोसा करता है। महावीर की अहिंसा अनुयायियों के हाथ में पड़कर विकृत हो गयी, निषेध हो गयी है। वह बड़ा विधायक जीवन-स्रोत था। लेकिन हमारी अड़चन है। जो भी हम सुनते हैं, उसका हम अर्थ अपने हिसाब से लगाते हैं। अगर कोई मर गया--किसी का प्रेमी मर गया, किसी की प्रेयसी मर गई--तो हम अपने हिसाब से अर्थ लगाते हैं। जिसकी प्रेयसी मर गई है या प्रेमी मर गया है, उसे अगर हम रोता नहीं देखते, आंख में आंसू नहीं देखते, तो हम सोचते हैं, "अरे! तो कुछ दर्द नहीं हुआ, दुख नहीं हुआ ? रोई भी नहीं? तो कोई लगाव न रहा होगा। तो कोई चाहत न रही होगी। तो कोई प्रेम न रहा होगा।" लेकिन तुम्हें पता है, अगर सच में ही गहरी पीड़ा हो तो आंसू आते नहीं! आंसू भी रुक जाते हैं। और आंसू बहुत गहरी पीड़ा के सबूत नहीं हैं--पीड़ा के सबूत हैं - - बहुत गहरी पीड़ा के सबूत नहीं हैं। अब बड़ी कठिनाई है। आंसू तब भी नहीं आते, जब पीड़ा नहीं होती; और आंसू तब भी नहीं आते जब महान पीड़ा होती है। तो भूलचूक की संभावना है। कभी यह भी हो सकता है कि रूखी आंखों को देखकर तुम सोचो कि कोई पीड़ा नहीं हुई; और कभी यह भी हो सकता है, क्योंकि मैं कहता हूं रूखी आंखों में बड़ी गहरी पीड़ा है कि आंसू भी नहीं बह रहे, तो फिर उसको भी तुम समझ लो कि बड़ी गहरी पीड़ा हो रही है जिसको कोई पीड़ा नहीं हुई। जिंदगी में शब्द सीमित हो जाते हैं। अस्तित्व में शब्दों की कोई सीमा नहीं है। वहां तो हमें प्रत्येक घटना को उसके निजी व्यक्तित्व में देखना चाहिए। कोई पुरानी परिभाषा से नहीं चलना चाहिए। शक न कर मेरी खुश्क आंखों पर यूं भी आंसू बहाए जाते हैं। --यह भी एक ढंग है। तुम जल्दी से निर्णय मत लेना। महावीर ने प्रेम की ही बात कही, लेकिन प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया। प्रेम शब्द का उपयोग न करने के कारण अतीत की भूल तो बचा ली, लेकिन भविष्य की भूल हो गयी। तो पीछे जो आये, उन्होंने अहिंसा को सिर्फ निषेध बना लिया। शब्द में निषेध है। सारे शब्द निषेधात्मक हैं। अचौर्य, अपरिग्रह, अहिंसा, अकाम, अप्रमाद -- सारे शब्द निषेधात्मक हैं। तो ऐसा लगा उनको कि महावीर कहते हैं : नहीं, नहीं, नहीं। हां की कोई जगह नहीं है। इसी कारण हिंदुओं ने तो महावीर को नास्तिक ही कह दिया; क्योंकि परमात्मा नहीं और फिर सारा शास्त्र "नहीं" से भरा है। नहीं, लेकिन उस "नहीं" के भीतर बड़ी गहरी "हां" छिपी है। "नहीं" का उपयोग करना पड़ा, क्योंकि लोगों ने "हां" वाले शब्दों का दुरुपयोग कर लिया था। लेकिन भूल फिर हो गयी। महावीर का कोई कसूर नहीं है। शब्द का उपयोग करना ही पड़ेगा। और आदमी कुछ ऐसा है, तुम जो भी शब्द उसे दो वह उसका ही दुरुपयोग कर लेगा। क्योंकि सुनते तुम वही हो जो तुम सुन सकते हो। तो महावीर के पीछे निषेधात्मक लोगों की कतार लग गई। इसलिए तो महावीर का धर्म फैल नहीं सका। कहीं निषेध के आधार पर कोई चीज फैलती है? महावीर का धर्म सिकुड़कर रह गया। "नहींनहीं" पर कोई जिंदगी बनती है ? "नहीं-नहीं" से कोई जिंदगी के गीत बनते हैं? तो सिकुड़ गया। लेकिन कुछ रुग्ण लोग, जो नकारात्मक थे, उनके पीछे इकट्ठे हो गये। उनकी कतार लगी है। उनका सारा हिसाब इतना है कि बस "नहीं" कहते जाओ। जो भी चीज हो उसे इनकार करते जाओ। इनकार कर-कर के वे कटते जाते हैं, मरते जाते हैं। तो उनकी प्रक्रिया करीब-करीब आत्मघात जैसी हो गयी। इसलिए जैन मुनियों के पास जीवन का उत्सव न मिलेगा, जीवन का अहोभाव न मिलेगा। इसलिए जैन मुनियों के पास तुम्हें जीवन की सुरभि न मिलेगी। तुम्हें जैन मुनियों के पास कोई गीत और नृत्य न मिलेगा। यह भी क्या धर्म हुआ, जिससे नृत्य पैदा न हो सके! यह भी क्या धर्म हुआ जिससे गीत का जन्म न हो सके, जिसमें फूल न खिलें! यह सिकुड़ा हुआ धर्म हुआ। यह बीमारों को उत्सुक करेगा। निषेधात्मक और नकारात्मक लोगों को बुला लेगा। यह एक तरह का अस्पताल होगा, मंदिर नहीं। इसलिए मैं तुमसे कह देना चाहता हूं कि महावीर की अहिंसा का ठीक-ठीक अर्थ प्रेम है। सूफी जिसे इश्क कहते हैं, उसी को महावीर अहिंसा कहते हैं। जीसस ने कहा है, प्रेम परमात्मा है। उसी को महावीर ने कहा हैः तुगं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि। जह तह जयंमि जाणसु, धम्महिंसासमं नत्थि।। "जैसे जगत में मेरू पर्वत से ऊंचा कोई और पर्वत नहीं, और आकाश से विशाल कोई और आकाश नहीं, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।" चौदहवां प्रवचन प्रेम से मुझे प्रेम है पहला प्रश्नः परंपरा-भंजक महावीर ने स्वयं को प्राचीनतम जिन-परंपरा का चौबीसवां तीर्थंकर क्योंकर स्वीकार किया होगा? कृपया समझाएं! परंपरा की तो परंपरा है ही, परंपरा-भंजन की भी परंपरा है। परंपरा तो प्राचीन है ही, क्रांति भी कुछ नवीन नहीं। क्रांति उतनी ही प्राचीन है जितनी परंपरा । इस पृथ्वी पर सब कुछ इतनी बार हो चुका है कि नया हो कैसे सकेगा? जिसको तुम नया कहते हो, वह भी बड़ा पुराना है; जिसे पुराना कहते हो, वह तो है ही। जब से परंपरावादी रहा है, तभी से क्रांतिवादी भी रहा है। जब से रूढ़िवादी रहा है, तभी से रूढ़ि को तोड़नेवाला भी रहा है। जब प्रतिमाएं बनानेवाले लोग पैदा हुए, तभी से प्रतिमाओं को तोड़नेवाले लोग भी पैदा हो गये। वे साथ-साथ हैं। वे अलग-अलग हो भी न सकेंगे। वे दिन और रात की तरह साथ-साथ हैं। क्रांति और परंपरा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। न परंपरा जी सकती है बिना क्रांति के, न क्रांति जी सकती है बिना परंपरा के। जिस दिन परंपरा मर जायेगी, उसी दिन क्रांति भी मर जायेगी। इसे थोड़ा समझना; क्योंकि साधारणतः हम जीवन में जहां भी विरोध देखते हैं--सोचते हैं, दोनों दुश्मन हैं। ऐसा देखना अधूरा है। जहां-जहां विरोध है, वहां गौर से खोजोगे तो गहराई में पाओगे, दोनों परिपूरक हैं। विरोध भी एक भांति कि मैत्री है और शत्रुता भी एक ढंग का प्रेम है। पुरुष हैं, स्त्रियां हैं उनमें प्रेम भी है, विरोध भी है। विरोध के कारण ही प्रेम है। क्योंकि विरोध से भिन्नता पैदा होती है। विरोध से दूसरे को खोजने की आकांक्षा पैदा होती है। स्त्री-पुरुष लड़ते रहते हैं और प्रेम करते रहते हैं। लड़ाई और प्रेम कुछ इतने विपरीत नहीं हैं। जिस पति-पत्नी में लड़ाई बंद हो चुकी हो, समझना कि प्रेम भी मर चुका। जब तक प्रेम की चिंगार रहेगी, तब तक थोड़ा-बहुत झगड़ा, थोड़ी-बहुत कलह भी रहेगी। लड़ने से प्रेम नहीं मरता है। लड़ना प्रेम का ही अनिवार्य हिस्सा है। जैनों की परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितनी हिंदुओं की। जैनों के पहले तीर्थंकर ऋषभ का नाम वेदों में उपलब्ध है--बड़े सम्मान से उपलब्ध है। उस जमाने के लोग बड़े हिम्मतवर रहे होंगे। अपने विरोधी को भी सम्मान से याद किया है। जिस दिन दुनिया समझदार होती है, उस दिन ऐसा ही होगा। तुम अपने विरोधी को भी सम्मान से याद करोगे, क्योंकि विरोधी के बिना तुम भी नहीं हो सकते हो। विरोधी तुम्हें परिभाषित करता है। उसकी मौजूदगी तुम्हें त्वरा देती है, तीव्रता देती है, गति देती है। उसका विरोध तुम्हें चुनौती देता है। उसके विरोध के ही आधार पर तुम अपने को निखारते हो, सम्हालते हो, मजबूत करते हो। अडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा हैः जिस राष्ट्र को शक्तिशाली रहना हो, उसे शक्तिशाली दुश्मन खोज लेने चाहिए। अगर दुश्मन कमजोर होगा, तुम कमजोर हो जाओगे। जिससे लड़ोगे, वैसे ही हो जाओगे। अगर दुश्मन शक्तिशाली होगा तो उससे लड़ने में तुम शक्तिशाली होने लगोगे। मित्र तो कैसे भी चुन लेना, लेकिन शत्रु जरा सोच-समझकर चुनना। क्योंकि मित्र अंततः उतने निर्णायक नहीं हैं, जितना शत्रु निर्णायक है। वह तुम्हें परिभाषा देता है। वह तुम्हें जीवन की व्याख्या देता है। वह तुम्हें चुनौती देता है। वह तुम्हें बुलावा देता है, प्रतिस्पर्धा का अवसर देता है। तो ऋग्वेद ने ऋषभ को बड़े सम्मान से याद किया है। ऋषभ जैनों के पहले तीर्थंकर हैं। जैनों का विरोध, जैनों की क्रांति उतनी ही पुरानी है, जितनी हिंदुओं की परंपरा । जैन वेद-विरोधी हैं। लेकिन वेद ने बड़ा सम्मान दिया है। जैन मूर्ति-विरोधी हैं, यज्ञ-विरोधी हैं, परमात्मा को भी स्वीकार नहीं करते, भक्ति का कोई उपाय नहीं मानते--मूलतः व्यक्तिवादी हैं, अराजक हैं। समूह में उनका भरोसा नहीं है, व्यक्ति में भरोसा है। और एक-एक व्यक्ति अलग और अनूठा है। और एक-एक व्यक्ति को अपना ही मार्ग खोजना है। कृष्णमूर्ति जो कह रहे हैं, वह जैनों की प्राचीनतम परंपरा है, वह कुछ नई बात नहीं है। यद्यपि जैन भी उनसे राजी न होंगे, क्योंकि अब तो जैन भी भूल गए हैं कि उनके प्राणों में कभी क्रांति का तत्व था; वह आग बुझ गई है, राख रह गई है। अब तो वे भी परंपरावादी हैं। लेकिन जैनों को समझना हो तो उनकी क्रांति के रुख को समझना जरूरी होगा। इससे बड़ी क्या क्रांति हो सकती है कि परमात्मा नहीं है, प्रार्थना नहीं है, पूजा-पूजागृह, सब व्यर्थ हैं! तुम किसी की अनुकंपा के आसरे मत बैठे रहना; तुम्हें स्वयं ही उठना है। तुम्हें कोई ले जा न सकेगा! महावीर यह भी नहीं कहते कि मैं तुम्हें कहीं ले जा सकता हूं; ज्यादा से ज्यादा इशारा करता हूं, जाना तुम्हीं को पड़ेगा--अपने ही पैरों से। महावीर तो आदेश भी नहीं देते कि जाओ। वे कहते हैं, आदेश में भी हिंसा हो जायेगी। मैं कौन हूं जो तुमसे कहूं कि उठो और जाओ? मैं उपदेश दे सकता हूं, आदेश नहीं। इसलिए तीर्थंकर उपदेश देते हैं, आदेश नहीं। उपदेश का मतलब हैः मात्र सलाह। मानो न मानो, तुम्हारी मर्जी। न मानो तो तुम कोई पाप कर रहे हो, ऐसी घोषणा न की जायेगी। मान लो, तो तुमने कोई महापुण्य किया, ऐसा भी कुछ सवाल नहीं है। मान लिया तो समझदारी, न मानी तो तुम्हारी नासमझी। लेकिन इसमें कुछ पाप-पुण्य नहीं है । तीर्थंकर आदेश भी नहीं देते। वे कहते हैं कि आदेश देने का अर्थ हुआ कि तुम दूसरे के मालिक हो गए। तुमने कहा, ऐसा करो; अब अगर न करेगा दूसरा व्यक्ति तो उसके मन में अपराध का भाव पैदा होगा, उसकी जिम्मेवारी तुम्हारी हो गई। अगर करेगा तो गुलामी अनुभव करेगा; तुम्हारी आज्ञा से चला। जैन कहते हैं, अगर आज्ञा मानकर किसी की तुम स्वर्ग भी पहुंच गए तो वह स्वर्ग भी नर्क ही सिद्ध होगा; क्योंकि दूसरे के द्वारा जबर्दस्ती पहुंचाए गए। सुख में कभी कोई जबर्दस्ती पहुंचाया जा सकता है? सुख तो स्वेच्छा से निर्मित होता है। अगर नर्क भी तुम स्वयं चुनोगे तो सुख मिलेगा; और स्वर्ग भी अगर धक्का देकर पहुंचा दिया, पीछे कोई बंदूक लेकर पड़ गया और दौड़ाकर तुम्हें स्वर्ग में पहुंचा दिया, तो वहां भी तुम्हें सुख न मिलेगा। निज की स्वतंत्रता में स्वर्ग है। परतंत्रता में नर्क है। इसलिए महावीर तो आदेश भी नहीं देते। क्रांति उनकी बड़ी प्रगाढ़ है। और वे कहते हैं, तुम स्वयं जिम्मेवार हो, कोई और नहीं। बड़ा बोझ रख देते हैं व्यक्ति के ऊपर। बड़ा भारी बोझ है! राहत का कोई उपाय नहीं। महावीर के पास कोई सांत्वना नहीं है। वे सीधा-सीधा तुम्हारा निदान कर देते हैं कि यह तुम्हारी बीमारी है; अब तुम्हें सांत्वना खोजनी हो तो कहीं और जाओ। तो महावीर उस मूर्ति-भंजक परंपरा के अंग हैं, जो उतनी ही प्राचीन है जितनी परंपरा। इसलिए स्वभावतः उस परंपरा-विरोधी परंपरा ने उन्हें अपना चौबीसवां तीर्थंकर घोषित किया । वस्तुतः उनके पहले के तेईस तीर्थंकरों में कोई भी उनकी महिमा का व्यक्ति नहीं था। वे बड़े महिमाशाली व्यक्ति थे, लेकिन महावीर की प्रगाढ़ता बड़ी गहरी है। इसलिए धीरे-धीरे ऐसी हालत हो गई कि तेईस तीर्थंकरों को तो लोग भूल ही गए। पश्चिम से जब पहली दफे लोग जैन धर्म का अध्ययन करने पूरब आये तो उन्होंने यही समझा कि ये महावीर ही इस धर्म के जन्मदाता हैं। तो पुरानी सभी अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच की किताबों में महावीर को जैन-धर्म का स्थापक कहा गया है। वे स्थापक नहीं हैं। वे तो अंतिम हैं, प्रथम तो हैं ही नहीं। लेकिन बाकी तेईस खो गए। महावीर की प्रतिभा ऐसी थी, ऐसी जाज्वल्यमान थी कि ऐसा लगने लगा, उन्हीं से जन्म हुआ है इस धर्म का । तेईस तो करीब-करीब पुराण-कथा हो गए; उनका कोई उल्लेख भी नहीं रहा। वे तो धूमिल कथा-कहानी के हिस्से हो गए, पुराण हो गए, इतिहास न रहे। ऐसा कभी-कभी होता है, जब बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति पैदा होता है तो वह चाहे बीच में पैदा हो, चाहे पहले हो, चाहे अंत में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता--सभी चीजें उसके आसपास वर्तुलाकार चक्कर काटने लगती हैं। आज तुम जिस जैन-धर्म को जानते हो, पक्का नहीं है कि ऋषभ का वही रहा हो, पार्श्वनाथ का वही रहा हो, नेमीनाथ का वही रहा हो, जरूरी नहीं है । आज तो तुम जिस जैन धर्म को जानते हो, उसकी सारी रूप-रेखा महावीर ने दी है। वह रूप-रेखा इतनी गहन हो गई कि अब तुम उसी बात को ऋषभ में भी पढ़ लोगे, क्योंकि महावीर को तुमने समझ लिया है। समझो कि जो मैं तुमसे कह रहा हूं महावीर के संबंध में जरूरी नहीं कि महावीर उससे राजी हों। लेकिन अगर तुमने मुझे ठीक से समझा, तो फिर मैं तुम्हारा पीछा न छोड़ सकूंगा; फिर तुम जब भी महावीर को पढ़ोगे, तुम मुझे ही पढ़ोगे। जो मैं कह रहा हूं, वह तुम्हें सुनाई पड़ने लगेगा। अर्थ तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो जाये, तो बाहर के शब्दों में वही अर्थ दिखाई पड़ने लगता है। महावीर इस क्रांतिकारी परंपरा में सबसे ज्यादा महिमावान, सबसे बड़े मेधावी व्यक्ति हुए। इसलिए उनके शब्द समझने जैसे हैं, विचार करने जैसे हैं, क्रांतिकारी तो अनूठे रहे होंगे; क्योंकि जैनों के दो संप्रदाय हैं-दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर तो मानते हैं, महावीर का कोई भी वचन बचा नहीं, कोई शास्त्र बचा नहीं। यह भी क्रांति का हिस्सा है। वे कहते हैं, कोई शास्त्र महावीर का वचन नहीं। ये जो वचन हैं, यह श्वेतांबरों के संग्रह से लिये गये हैं। दिगंबरों के पास कोई संग्रह नहीं है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि दिगंबरों ने बचाया क्यों नहीं! यह भी उसी गहरी क्रांति का हिस्सा है। क्योंकि अगर बचाओ शब्दों को, तो आज नहीं कल वे शास्त्र बन जाएंगे। बचाओ तो शास्त्र आज नहीं कल वेद बन जाएंगे। इसलिए दिगंबरों ने तो महावीर के वचन बचाए ही नहीं। यह शास्त्र के प्रति बगावत की बड़ी अनूठी कहानी है। मानते हैं महवीर को, लेकिन कुछ शास्त्र नहीं बचाया है। व्यक्तिगत, गुरु से शिष्य को कहकर जो बातें आयी हैं, बस वही; उनको लिखा नहीं है । और इसलिए कोई भी शास्त्र महावीर के संबंध में दिगंबरों के हिसाब से प्रामाणिक नहीं है। न शास्त्र बचाया कि कहीं उसके साथ परिग्रह न हो जाए, न इस तरह के कोई आश्वासन दिये कि महावीर को पूजोगे तो मोक्ष मिल जायेगा। स्वयं को जानोगे तो मोक्ष मिलेगा, महावीर की पूजा से नहीं। स्वयं को जगाओगे तो मोक्ष मिलेगा, महावीर की अनुकंपा से नहीं। कोई गुरुप्रसाद की जगह जैनों के पास नहीं है। क्योंकि वे कहते हैं, सत्य अगर किसी के प्रसाद से मिल जाये तो सस्ता हो गया। फिर तो सत्य भी वस्तु की तरह हो गया; किसी ने दे दिया; उधार हो गया। अपने जीवन को गलाओ। अपने जीवन को गला-गलाकर ही सत्य ढाला जायेगा। यह सत्य कहीं बाहर नहीं है कि कोई दे दे। इसलिए यह समझ लेना जरूरी है कि महावीर को जब स्वीकार किया गया चौबीसवें तीर्थंकर की तरह, तो इसीलिए स्वीकार किया गया कि उनसे ज्यादा बगावती आदमी उस समय में कोई भी न था। और भी लोग थे। और भी दावेदार थे। क्योंकि क्रांति किसी की बपौती थोड़े ही है। जब महावीर जिंदा थे तो बड़े तूफान के दिन थे भारत में; बड़ी बौद्धिक जागृति का काल था; बड़े शिखर पर लोग, आकाश में परिभ्रमण कर रहे थे। जैसे आज अगर विज्ञान समझना हो तो कहीं पश्चिम में शरण लेनी पड़ेगी; उस दिन अगर धर्म का कोई भी रूप समझना था, तो भारत में शरण लेनी पड़ती। भारत के पास सभी धर्म की परंपराओं के बड़े जाग्रत पुरुष थे। और उन सभी के शिष्यों की आकांक्षा थी कि वे चौबीसवें तीर्थंकर की तरह घोषित हो जायें। प्रबुद्ध कात्यायन था, मक्खली गोशाल था, संजय विलेट्ठीपुत्त था, और भी लोग थे। अजित केशकंबली था। ये सभी बड़े महिमाशाली पुरुष थे। लेकिन इन सबके बीच से वह जो सर्वाधिक क्रांतिकारी था, महावीर, वह श्रमणों की परंपरा में चौबीसवां तीर्थंकर बना। बुद्ध भी थे। बुद्ध की तो अलग ही परंपरा बन गई; अलग ही धर्म का जन्म हुआ। लेकिन यह सोचने जैसा है कि बुद्ध की मौजूदगी में भी क्रांतिकारियों की धारा ने महावीर को चुना था। महावीर की क्रांति बुद्ध से ज्यादा गहरी है। बहुत जगह बुद्ध थोड़ा समझौता करते मालूम पड़ते हैं; ज्यादा व्यवहारिक हैं। महावीर बिल्कुल अव्यवहारिक हैं। क्रांतिकारी सदा अव्यवहारिक रहा है। उसके पैर जमीन पर नहीं होते, आकाश में होते हैं। वह आकाश में उड़ता कुछ उदाहरण के लिए समझना जरूरी है। बुद्ध के पास स्त्रियां आयीं, दीक्षा के लिए, तो बुद्ध ने इनकार कर दिया। यह समझौता था। यह थोड़ा भय था। यह इस बात का भय था कि ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि स्त्री और पुरुष साथ-साथ संन्यासी हों और साथ-साथ रहें। बुद्ध को भय लगा, इससे तो कहीं ऐसा न हो जाये कि धर्म नष्ट हो जाये! कहीं स्त्री-पुरुषों का साथ रहना कामवासना के ज्वार के पैदा होने का कारण न बन जाये! कहीं स्त्रियां पुरुषों को भ्रष्ट न कर दें। तो वह जो स्त्रियों के प्रति पुरुषों का पुराना भय है, कहीं न कहीं बुद्ध के मन में उसकी छाया थी। उन्होंने इनकार किया। वे वर्षों तक इनकार करते रहे कि स्त्री को मैं संन्यास न दूंगा; क्योंकि स्त्री को संन्यास देने से खतरा है। महावीर के सामने भी सवाल उठा। वे तत्क्षण संन्यास दे दिये। उन्होंने एक बार भी यह सवाल न उठाया कि स्त्री को संन्यास देने से कोई खतरा तो न होगा! क्रांतिकारी खतरे को मानता ही नहीं, बल्कि जहां खतरा हो वहां जानकर जाता है। उन्होंने यह खतरा स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा, जो होगा ठीक है। फिर बुद्ध ने मजबूरी में, बहुत दवाब डाले जाने पर, वर्षों के बाद जब स्त्रियों को दीक्षा भी दी तो उन्होंने तत्क्षण कहा कि अब मेरा धर्म पांच सौ वर्ष से ज्यादा न जीयेगा; यह मैंने अपने हाथ से ही बीज बो दिया अपने धर्म के नष्ट होने का । और बुद्ध का धर्म पांच सौ वर्ष के बीच नष्ट भी हो गया भारत से। और कारण वही सिद्ध हुआ जो बुद्ध ने माना था; जो भय था वह सही साबित हुआ। क्योंकि जब स्त्री-पुरुष पास-पास रहे तो विराग तो दूर हो गया, वैराग्य तो दूर हो गया, राग-रंग शुरू हुआ। राग-रंग ने नये रास्ते खोज लिये, नयी तर्क की व्यवस्थाएं खोज लीं। तंत्र का जन्म हुआ। बुद्ध धर्म समाप्त हो गया। लेकिन महावीर का धर्म अब भी जीता है, अब भी जीता-जागता है। स्त्रियों को समाविष्ट कर लिया, धर्म नष्ट न हुआ। बड़ा क्रांतिकारी भाव रहा होगा । महावीर नग्न खड़े हो गए। कोई जैनों में भी परंपरा न थी नग्न होने की। आज तो तुम जाकर देखोगे दिगंबर जैन मंदिरों में तो चौबीस ही जैनों की प्रतिमाएं नग्न हैं। वह महावीर ने परिभाषा दे दी। वे तेईस नग्न थे नहीं, महावीर ही नग्न हुए थे। बाकी तेईस तो वस्त्रधारी ही थे। इसलिए अगर श्वेतांबरों और दिगंबरों के विवाद में निर्णय करना हो तो बहुमत श्वेतांबरों के पक्ष में होगा, क्योंकि चौबीस तीर्थंकरों में तेईस वस्त्रधारी थे, और एक ही निर्वस्त्र था। तो अगर निर्णय ही करना हो तो तेईस की तरफ ध्यान करके करना चाहिए, सीधा लोकतांत्रिक हिसाब है। लेकिन महावीर का प्रभाव इतना महिमाशाली हुआ कि जिनके वस्त्र थे उनकी प्रतिमाओं से भी वस्त्र उतर गए। क्योंकि फिर ऐसा लगने लगा, अगर महावीर नग्न हैं और पार्श्वनाथ वस्त्र पहने हुए हैं तो पार्श्वनाथ ओछे मालूम पड़ेंगे, छोटे मालूम पड़ेंगेः इतना भी त्याग न कर पाये! नग्नता कसौटी हो गई। ऐसा सदा हुआ है। जो सर्वाधिक महिमाशाली है वह कसौटी बन जाता है। फिर उसके पीछे इतिहास भी बदल जाता है। अतीत भी बदल जाता है; क्योंकि अतीत के संबंध में हमारे दृष्टिकोण बदल जाते हैं। नग्न खड़े हो जाना बड़ा क्रांतिकारी मामला था, क्योंकि नग्नता सिर्फ नग्नता नहीं है। इसका तुम अर्थ समझो। नग्न होने का अर्थ हैः समाज का परिपूर्ण अस्वीकार; समाज की धारणाओं की परिपूर्ण उपेक्षा । तुम अगर चौरस्ते पर नग्न खड़े हो जाओ तो उसका अर्थ यह होता है कि तुम दो कौड़ी कीमत नहीं देते कि लोग क्या सोचते हैं, कि लोग अच्छा सोचते हैं कि बुरा सोचते हैं, कि लोग तुम्हारे संबंध में क्या कहेंगे! हमारे पास शब्द है भाषा में--किसी को गाली देनी हो तो हम कहते हैं "नंगा-लुच्चा"--वह महावीर से पैदा हुआ। नग्न वे थे और बाल लोंचते थे, इसलिए लुच्चा। पहली दफा महावीर को ही लोगों ने नंगा-लुच्चा कहा; क्योंकि वे नग्न खड़े होते थे और बाल भी काटते न थे। जब बाल बढ़ जाते थे तो हाथ से उनका लोंच करते थे। तुमने कभी सोचा न होगा कि आखिर नंगे को लुच्चा क्यों कहते हैं! लुच्चे का क्या संबंध है? फिर तो धीरेधीरे लुच्चा शब्द अलग भी उपयोग होता है। अब तुम कहते हो, फलां आदमी बड़ा लुच्चा है। लेकिन तुम यह नहीं पूछते कि उसने लोंचा क्या है! महावीर के साथ पैदा हुआ शब्द है-गाली की तरह पैदा हुआ, निश्चित ही समाज बहुत नाराज हुआ होगा, बहुत क्रुद्ध हुआ होगा। इस आदमी ने सारे हिसाब तोड़ दिये। वस्त्र सिर्फ वस्त्र थोड़े ही हैं, समाज की सारी धारणा है। वस्त्रों में छिपे हुए समाज का सारा संस्कार, उपचार, शिष्टाचार, सभ्यता, सब है। नग्न को हम असभ्य कहते हैं। आदिवासी हैं, नग्न रहते हैं, उनको हम असभ्य कहते हैं, आदिम कहते हैं। क्यों? क्यों असभ्य? क्योंकि अभी उन्हें इतनी भी समझ नहीं कि अपने शरीर को ढांकें, छिपाएं; जानवरों की तरह हैं; पशुओं की तरह हैं। आदमी और जानवर में जो बड़े-बड़े फर्क हैं, उनमें एक फर्क यह भी है कि आदमी कपड़े पहनता है। आदमी अकेला पशु है जो कपड़े पहनता है। बाकी सभी पशु नग्न हैं। तो महावीर जब नग्न हुए उन्होंने कहा कि संस्कृति नहीं, प्रकृति को चुनता हूं; सभ्यता को नहीं, आदिमस्वभाव को चुनता हूं। और जो भी दांव पर लगती हो इज्जत, पद-प्रतिष्ठा, वह सब दांव पर लगा देता हूं। आज से पच्चीस सौ साल पहले वैसी हिम्मत बड़ी कठिन थी; आज भी कठिन है। आज भी नग्न खड़े होने पर अड़चनें खड़ी हो जायेंगी, तत्क्षण पुलिस ले जायेगी, अदालत में मुकदमा चलेगा। दिगंबर जैन मुनि को किसी गांव से गुजरना हो तो पुलिस को खबर करनी पड़ती है। और जब दिगंबर जैन मुनि, नग्न मुनि गुजरता है, तो उसके शिष्यों को उसके चारों तरफ घेरा बनाकर चलना पड़ता है ताकि उसकी नग्नता कुछ तो ढंकी रहे।
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लड़की गहरी साँवली थी। एक दिन अपने साँवलेपन से आजिज आकर वह तीन हफ्ते में गोरेपन का दावा करने वाली एक फेयरनेस क्रीम बाजार से ले आयी। हालाँकि वह तीस हफ्ते तक इंतजार कर सकने के धैर्य से उसे लेकर आयी थी, पर हुआ ये कि पहले हफ्ते के आखिर में ही उसकी त्वचा कुछ निखर गयी। बात यहीं से शुरू होती है। उसे लगने लगा कि जिंदगी को अब वह उसके पूरे चटक के साथ जी सकती है। उसकी झूठ की रफ्तार में दुगुनी उछाल आ गयी। पहले जहाँ उसकी दस में से चार बातें झूठ हुआ करती थीं, अब मात्र एक या दो सही हुआ करतीं। मसलन अगले दिन फिजिक्स का एक्जाम होता तो वह इजा को और अपने ऊँचे कंधे वाले ट्यूटर को बताती कि परीक्षा अंग्रेजी की है। वह पढ़ कर भी अंग्रेजी ही जाती अपने ट्यूटर से और हिसाब चुकता करने के लिए अंग्रेजी वाले दिन फिजिक्स पढ़ लेती। नंबर जाहिर है राम भरोसे आते और वह ट्यूटर और इजा के सामने अगली दफे खूब मेहनत करने के अनकहे वादे वाला गंभीर चेहरा बनाती, जिसका कि असर एक उसके सिवा बाकी सब पर होता। इवा कार्णिक की त्वचा तैलीय थी। सब जगह। खाली होंठों के ऊपर और नीचे के हिस्से को छोड़ कर। गैर तैलीय हिस्सा हवा के जरा सा ससरने भर से अकड़ जाता था। तो ऐसे में इवा कार्णिक को दौड़ दौड़ कर आईना देखना पड़ता इस शुबहा से भर कर कि मूँछें तो नहीं उग आयीं। एक बार फिर। मूँछें अलग से उगती तो नहीं थीं पर होंठ के ऊपर के नीले नीले बाल, जो अमूमन अपनी महीनता में अदृश्य रहते, उन दिनों अपने को अकड़ा कर और एक दूसरे से चिपक कर एक पतली नीली लकीर खींच देते होंठों के ठीक ऊपर। और आगे ये कि होंठ हिलाना, बोलना, मुस्कुराना, ठहाके मारना सब छनछनाहट भरा। चिपचिपा घरेलू लेप प्रलेप ताबड़तोड़ लगा कर उस जगह को वापस से मुलायम बनाने में दो तीन दिन का वक्त लग जाता और इवा कार्णिक फिर से लड़की बन जाती। इसी लड़की छाप दिनों की खाली शाम कही जा सकने वाली शाम। इवा कार्णिक, कक्षा दस, जिसकी कि दायीं चोटी थोड़ी ज्यादा नीचे तक झूलती रहती थी, जल्दी जल्दी पेन्सिल की नोंक को महीन करने में जुटी थी, जबकि ऊँचे कंधे वाला आदमी कमरे में घुसा। इवा कार्णिक को रटे रटाये स्वर में उठ कर खड़े हो जाना था और फिर दूसरे पल बिना किसी की इजाजत लिए वापस बैठ भी जाना था। वह उसका ट्यूटर था। मास्टर वगैरह शब्द प्रचलन में नहीं तो सीधे सर, जो प्रतिमाह दो हजार रुपये, लिफाफे में डाले हुए, पाया करता था, बतौर पारिश्रमिक। और इवा कार्णिक इस लिफाफा सुपुर्दगी के संभावित वक्त अपने को कमरे से अनुपस्थित कर लिया करती थी। वह एक सख्त ट्यूटर था। कुछ चीजें उसे हद तक नापसंद थीं, जो इवा कार्णिक को मुँहजबानी याद थीं। उन दो घंटों में उसे अकड़ी हुई गरदन को उठा कर अकड़ भगाने तक की सहूलियत नहीं मिलती। जिन सवालों के जवाब उसे पक्का मालूम होते, उन्हें वह फुसफुसा कर बोलती। जिन जगहों का ठिकाना पक्का पता होता उन पर बस पेन्सिल टिका कर काम चला लेती। यानी कि गैर तैलीय त्वचा पर अगर हल्की मूँछों का मौसम हो तो, एक बार भी छनछनाहट नहीं होती। क्योंकि न हिलाना न बोलना न मुस्कुराना ठहाके मारने का तो सवाल ही क्या! आखिर के पंद्रह मिनट संरक्षित थे उसके हिस्से के। उसके सवाल पूछने का वक्त। उस दिन के पढ़ाये पाठ से। इवा कार्णिक के लिए यह दिन के सबसे मुश्किल पंद्रह मिनट होते। उसकी हालत एक ऐसे आदमी की हो जाती, जिसके कि हाथों में स्टेज की कठपुतलियों की सारी डोरियाँ थमा दी गयी हों अचानक से कुछ देर के लिए और उतनी ही देर में उसे अपनी योग्यता साबित भी करनी हो, जबकि अंदर की बात कि कौन सी डोर के खिंच जाने से कौन सी चीज कितनी लचक जायेगी, उसे ये तक न पता हो। दिमाग का पिछला हिस्सा इसी समय चमत्कार कर जाता और उसे तीन चार दिन पहले का पढ़ाया कुछ याद आ जाता। यही वजह कि भूगोल पढ़ा चुकने के बाद के मुकर्रर वक्त में वह अक्सर रसायन का कोई उलझा सा सवाल पूछती। यह उलझी चीज एक बात तो एकदम साफ कर देती कि पढ़ाये जाने वक्त भले उसे ऐसा लगता हो कि वह कुछ भी नहीं सुन पा रही, पर वह सुन सब लेती थी। वरना क्या संभव कि तीन चार दिन देर से ही सही बिना सुन रखा कुछ इतनी शिद्दत के साथ उपस्थित हो जाये प्रश्नवाचक चिह्न को अपने पीछे टाँगे टाँगे! सब कुछ ऐसा रटा रटाया सा कि बिना हैरत भाव, भूगोल की कक्षा के बाद उसे रसायन का खोया हुआ जवाब बदले में मिल भी जाता था बगल वाले से। जवाब को सुनते हुए वह अपने पूछे गये सवाल को समझने की कोशिश करती होती कि एक सुखद समाचार की तरह घड़ी की सबसे पतली सूई हाँफती हुई उसे अपने पंद्रह चक्कर लगा चुकने की सूचना दे देती और वह उठ खड़ी होती। यह वक्त होता जब उसके बगल का सख्त आदमी ड्राइंगरूम में ही पार्टिशन के उस पार सोफे वाले इलाके की ओर चला जाता और वह पलट कर भीतर सुरंग की तरफ चली आती। इजा कहलाने वाली स्त्री सफेद रंग के शिकंजे में पूरी तरह से कैद कही जा सकती थी। उसकी उम्र, उसके बाल, उसके कपड़े, उसकी हरकतें। वह बगैर इस्तरी और कलफ की साड़ियों को हाथ तक नहीं लगाती थी। उसका ज्यादा वक्त सोफा कवर को पीछे की तरफ खींचने, टीवी कवर की चेन बंद करने, फूलदान की पीली पत्तियों को कतरने और किसी हड़बड़िया पाँव के धक्के से मुड़ गयी कालीन को वापस फैलाने में बीतता था। उसके घर की बाइयों में टिकाऊपने का अभाव रहता। हफ्ता दो दिन के आगे कोई भी चल नहीं पाती। फर्श के कोने कोने से धब्बों को बीन बीन कर रगड़वाना, लोहे के बरतनों को अपनी निगरानी में चमकवाना, इसके मूल में था। खैर फिक्र क्या! एक बाई के विदा लेने और दूसरे के आने के बीच के दिनों में भी घर को कमी महसूस नहीं होने पाती कुछ भी, क्योंकि हर प्रकार के काम की मुस्तैद कमान वह अपने हाथ में सँभाल लेती। हालाँकि उसने दुनिया देखने की शुरुआत अपने पति की देखरेख में एक ग्लोब पर भारत के नक्शे के ऊपर उँगली टिका देने से की थी, पर अब वह इस दुनियादेखी में इतना आगे निकल चुकी थी कि सामने वाले, बगल वाले और पीछे वाले शामिलद्ध को चुटकी भर में परख कर दूध से पानी को अलगा देती। पाँच रुपये के पत्तर वाली काली हेयर पिन और चार रुपये के गुच्छे वाला सेफ्टीपिन उसके सबसे खास औजार थे। नहाने धुलने के बाद से साड़ी का पल्लू तहा कर जो सेफ्टीपिन के तार खाँचे में फिट होते, फिर अगले दिन नहाने के पहले ही अलग हो पाते। यही स्वामिभक्ति हेयरपिन की भी। यहाँ तक कि रात को उसके सो चुकने पर भी वे दोनों अपनी ड्यूटी निभाते जाते। उसकी आँखों का रंग भूरा था और उसी से मेल खाता गार्नियर के चार नंबर का ब्राउन शेड अपने बालों पर लगा कर वह सफेदी के ऊपर सुनहरे भूरे रंग का जिल्द चढ़ाये रखती थी। उसकी चौकसी को देख कर कहा जा सकता था कि उसे किसी महत्वपूर्ण चीज के होने का इंतजार था और उसे अहसास था कि किसी भी पल उसके अपने दरवाजे पर दस्तक हो सकती थी। पर चूँकि उसने नियति की दस्तक सुनी नहीं थी, वह केवल कल्पना कर सकती थी उसके वैसा होने की, जैसी कि वह सच में होती। आँखें मूँद कर आरामकुर्सी पर बैठे रहने पर भी बाकी की दस्तक को सुन कर वह पहचान कर सकती थी कि किस बार दरवाजा खोलने पर सामने कौन दिखेगा! कौन सी थाप दूधवाले की, कौन अखबारवाले की, कौन नाई की, कौन इवा कार्णिक की, कौन ऊँचे कंधे वाले आदमी की। और यह, सच कहें तो उसका दिलचस्प मनबहलाब भी था। हर बार हाथ की थाप पर पहचान करना और दरवाजा खोल कर अपने को सही साबित होते देखना और फिर से दूसरी थाप का इंतजार करना। वजह यही कि आज तक उसके घर के दरवाजे के बायें या दायें कहीं भी कॉलबेल को जगह नहीं मिल पायी थी। ऊँचे कंधे वाले आदमी का दुनियावी नाम विक्रम आहूजा था। उस घर में आते जाते उसका माथा घर के दरवाजे के ऊपरी हिस्से से छू जाता था। एक, दरवाजों की ऊँचाई कम थी और दूसरे हर दरवाजे के नीचे टखनों की ऊँचाई के चौखट बने थे। और इन सबसे ऊपर उसका आसमानी कद। वह हमेशा दौड़ने के वक्त पहने जाने वाले सफेद जूते पहनता। उसके चलने, बोलने ओर साँस लेने में एक खास किस्म की जिद थी। उसके अतीत पर दो प्रेमिकाओं की छाप थी। पहला प्रेम शुरुआती गुनगुनाहट जितना था। गौरी करमाकर। एक कॉलेज, एक क्लास, एक विषय, एक रास्ता घर का - वाले किस्म का। उसमें एक दूसरे प्रायद्वीप पर उतरने का रोमांच था। वह मटर की फलियों को विलगाने जैसा था - बहुत मीठे श्रम की अपेक्षा वाला। वाक्या पंखुड़ी के खिलने जैसा था, जिसका खिलना कोई देख न पाये। ठीक वैसे ही उसका मुरझाना भी फूल के मुरझाने जैसा, जिसके मुरझाने का कोई हवाला नहीं दिया जा सके, बस एकबारगी दुनिया को खबर मिले कि फूल मुरझा चुका, या कि खबर न भी मिले। दूसरा कुछ बरस की करवटों के बाद। एक दिन गहरे शाम के वक्त, जब दफ्तर लगभग खाली हो चुका था, एक बेतरह उजली चमड़ी की लड़की लाल लाल सी हुई उसके पास आयी। उसके कंप्यूटर की सारी सूचनाएँ करप्ट हो चुकी थीं और बैकअप भी मौजूद नहीं था। दफ्तर में किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में दो लड़कियाँ आयी थीं। एक की चमड़ी देशी थी, दूसरी ये - विदेशी मूल वाली। विक्रम आहूजा के साथ किस्मत थी उस शाम। पच्चीस मिनट तक की अंधाधुंध माथापच्ची के बाद उसने वह कर दिखाया जिसकी उम्मीद उसे भी नहीं थी। लड़की की चमड़ी वापस खूब उजली हो चुकी और लाल रंग छँट गया था। उस शाम के बाद से उनकी पहली दो मुलाकातें विशुद्धतः लड़की की पहल पर हुईं। एक उसके ठीक अगले दिन जब वह इत्मीनान से उसका शुक्रिया अदा करने आयी और दूसरी काम पूरा करके लौटने की पूर्व संध्या पर जब वह अपना काम दिखाने और औपचारिक इजाजत लेने आयी। उसके बाद की मुलाकातों में कुछ राज खुले। लड़की आयरिश थी और होंठों को घुमा घुमा कर हिंदी बोलती थी। जब वह बेलौस बोलती तो शब्द छितरा कर निकलते और जब सचेत होकर बोलती तो शब्द एक दूसरे के ऊपर चढ़ने लगते। उसे अपने समाज की जर्जर रहस्यमयी लोककथाएँ याद थीं। हालाँकि उसके वाक्दोष पर ध्यान दिया जाये तो कथाओं में रहस्य की जगह हास्य झाँकता मिलता पर उसकी हल्के रंग की पलकों वाली आँखों की गोलाई को ही दुनिया का आखिरी सच मान कर चले कोई तो रहस्य और रोमांस बस। बाकी सब झूठ। चर्च में जलती कैंडिल को आधार पर टिकाते हुए वह अपनी भाषा में सरपट बुदबुदाती कुछ, बाद में जिसका मतलब पूछे जाने पर वह गालों में गड्ढ़े धँसा कर मुस्कुरा देती बस। जिंदगी को बिना छुए हुए ही वह हलचल मचाने का ढब जानती थी। उछल कर मंदिर की घंटिया बजाते हुए, पानीपूरी के तीखेपन के बीच लाल गाल से सिसकारियाँ लेते हुए, बरसात में सड़क किनारे जमा हुए पानी में जान बूझ कर सैंडिल छपकाते हुए तरंग पैदा करने की उसकी क्षमता को महसूसा जा सकता था। वह सुनते हुए कभी ऊबती नहीं थी। उसे दूसरों को माफ करने का भयानक चस्का था। वह हर काम मुस्कुरा कर करती थी चाहे वह पहली शाम मदद माँगने की बात हो या कि आखिरी शाम अपना प्रोजेक्ट पूरी तरह खत्म हो चुकने पर अपने देश वापस लौटने की बात हो। जवाब में विक्रम आहूजा भी मुस्कुराया। उसे लगा कि बादल के एक गुच्छे को कुछ समय के लिए ही सही, उसने छू लिया था। इवा कार्णिक को अपने बालों से बड़ी शिकायत थी। कंधे तक सीधे चल कर वे नीचे छल्लों में उलझ गये थे। शायद इसकी वजह ये कि स्कूल में उसे गूँथ गूँथ कर दो चोटियाँ बनानी होतीं जो स्कूल जाने की हड़बड़ी में अक्सर टेढ़ी मेढ़ी बनतीं। घर लौटते ही सबसे पहले वह उन्हें खोल देती और आजाद बालों के साथ शाम के वक्त पढ़ने जाती। पर होता यह कि जैसे ही वह किताब पर आगे की तरफ झुक कर समझने का खेल शुरू करती, बाल धड़धड़ा कर आगे झूल जाते। वह उन्हें समेट समेट कर कान पर टिकाती पर उसके हाथ अभी वापसी के रास्ते में ही होते कि बाल ढुलक जाते दुबारा से। बालों की सबसे लंबी लट लड़खड़ाते हुए किताब के उस छोर दूर वाले दूसरे पन्ने पर लहराने लगती। ऊँचे कंधे वाला आदमी अपनी गरदन उठाता उसकी तरफ और इवा कार्णिक का इधर उधर डोलता दिल उछल कर अपनी जगह पर आ जाता, एक पुरजोर डाँट की आशंका में। विक्रम आहूजा होंठ अलगाने के तुरंत बाद अपना निर्णय बदल लेता और लड़की को बिना डाँट खाये रह जाना पड़ता। ट्यूटर समझता था कि उसके बगल की लड़की खाली ढोंग करती है समझने का और जबकि उसे उसके इस ढोंग से भयानक विरक्ति होती थी, वह समझ नहीं पाता कि वह क्यों नहीं डाँट पाता उसे। वह अगर बीच से कोई सवाल कर देता तो लडकी भौंहें तिरछी करके अं अं करके कुछ याद करने की कोशिश करने लगती। वह पढ़ाते वक्त रोज तय करता कि आज पार्टिशन के उस तरफ जाने के बाद वह वसुंधरा कार्णिक से लड़की की शिकायत कर देगा और अगले दिन से न आ पाने की माफी माँग लेगा। वह भूमिका भी डालता इस बात की पर चुस्त दुरुस्त वसुंधरा कार्णिक बतौर दादी इतनी असुरक्षित थी कि शिकायत तो वह शायद कर भी देता पर आगे न आने की बात नहीं कह पाता। और जब न आने की बात ही नहीं हो पाती तो शिकायत का फायदा क्या! उसे शक था कि लड़की उसके इस द्वंद्व को समझती थी। इसी वजह उसने अपने आप को भरपूर इतराने की छूट दे रखी थी। पढ़ाते पढ़ाते अचानक से ऊँचे कंधे वाले आदमी का ध्यान बगल वाली की तरफ जाता तो वह उस वक्त उसे ध्यान से सुन रही दिखती पर लड़की के हाथों पर नजर जाते ही भ्रम की झिल्ली गिर जाती और उसका एक छोटे कागज को चिंदी चिंदी फाड़ने में ध्यानरत होना प्रकाश में आ जाता। ट्यूटर की नजर पड़ते ही वह फाड़ रहे अपने हाथों को जहाँ का तहाँ रोक देती। आधे फटे हुए पूरे फटे हुए कागज के छोटे छोटे टुकड़े सोफे पर अपनी बगल में रखे जाते समान भाव से। उसका मन तेज तेज दौड़ रहा होता पर बाकी के अपने पूरे शरीर पर उसका कड़ा नियंत्रण था और वे मन के विपरीत अपने को स्थिर रख पाते थे। चूँकि दाहिना तलवा इस 'पूरे शरीर' की सीमा में नहीं आता था, इसीलिए पूरा शरीर अपने को किताब के पन्ने पर केंद्रित कर देता और दाहिना तलवा मन की गति से हिलता जाता था थरथराने की लय में। बीच बीच में अर्धविराम की हैसियत से सोफे पर इवा कार्णिक के बगल की एक चिंदी उड़ने लगती हवा के झोंके में और तब अपने पूरे शरीर से लड़की का नियंत्रण हट जाता और वह चिंदी के उड़ियाने से लेकर एक कोने में जा दुबकने का पूरा खेल पलकें फड़फड़ा कर देख लेती। विक्रम आहूजा सोचता था कि अगर वह लड़की दो तीन साल और छोटी होती तो वह उसे पाँच भरपूर उँगलियों वाला एक तमाचा मार सकता था, इस फ्रस्टेशन के बाद। स्कूल में प्रीबोर्ड के नतीजों के बाद की गार्जियन मीट। लड़की का अभिभावक बन कर उसे उपस्थित होना था, ये बात एक शाम पहले उद्घाटित की गयी थी। वसुंधरा कार्णिक ने एक प्रस्ताव रखा था, जो उत्तरार्ध में याचना की तरलता से फैल गया। वह हाँ या ना कुछ भी करने में अपने को असमर्थ पा रहा था। उसके पास एक ही घिसी पिटी दलील थी - अभिभावकों के समूह में उसकी क्या जगह! वसुंधरा कार्णिक जैसी कि एक चुस्त दुरुस्त महिला थी, विद्यालय से पहले ही अपनी अस्वस्थता के कारण अपनी जगह उसे भेजने की इजाजत ले चुकी थी। उससे अब और बैठा नहीं गया। वह अनुमति लेकर घर के दरवाजे पर झुका जूते पहन रहा था कि धरती पर गिरे बूँद की तेजी से इवा कार्णिक हाजिर हो गयी। हाँफने के अंदाज में। अगले दिन उसे पहुँचने के समय की सूचना देती हुई। उसने जूते के फीते बाँधते हुए सिर झुकाये सुना। उठते ही उसकी आँखों के ठीक सामने उसकी आँखों के आकार की एक जोड़ी आँखें आ गयीं। इवा कार्णिक ने फुसफुसा कर कहा - 'ब्लू शर्ट और ब्लैक जींस पहन कर आइयेगा' - बगैर पलक झपकाये। ऊँचे कंधे वाले आदमी की पलकें झपकी थीं। लड़की जा चुकी थी। स्कूल के फाटक के भीतर घुसना पहली नजर में अपने अतीत में दाखिल होने सरीखा था। कतार में लगी साइकिलें, एक कंधे पर बेपरवाही से टंगे बैग्स, चेक के ग्रे स्कर्ट्स और ग्रे फुलपैंटों में बँटी दुनिया। हर हरकत का घंटियों का मुहताज होकर रह जाना, वही परीक्षाओं की तलवार, वही पनिश्मेंट्स की बहार। एक पीढ़ी बदल गयी और स्कूल के फाटक के भीतर कलकल बहते जीवन के बीच भी वक्त वहीं रुका रह गया कहीं। उसका मन हुआ कि वह एक हाथ बढ़ा कर छू ले किसी बस्ते का कोर ही या किसी ग्रे फुलपैंट की दाहिनी जेब में उँगलियाँ ही सरका दे। पर एक गुनगुनाहट भर दूरी थी। उनकी हँसी की खनखनाहट में एक कोड वर्ड छिपा था। उनकी बोली के हिज्जे में किसी को अपने घेरे के भीतर न घुसने देने की जिद छिपी थी। उनकी उँगली नचा नचा कर बोलने की अदा दरअसल एक निशान खींच दे रही थी, अपने को दूसरों से अलगाने के लिए। विक्रम आहूजा को बहुत तेज अहसास हुआ कि वक्त रुका भले रह गया हो पर उसकी शक्ल बदल चुकी थी। अंदर तीन टुकड़ों में बँटी कुर्सियाँ थीं। सामने की सबसे विरल, अध्यापकों के लिए थीं। सामने का दो घेरा। एक में बच्चे। एक पेरेंट्स का कुनबा, जो सबसे घना था। कमरे में उजाले का बँटवारा ऐसा था कि एक खास जगह के हिस्से में तेज रोशनी का घेरा आया था, जिसके कि दायरे में एक एक कर हर बच्चे को अपनी बारी आने पर खड़ा होना था। सामने का विरल घेरा उसके हासिल किये गये अंकों और पढ़ायी लिखायी के उसके प्रदर्शन पर टिप्पणी आरंभ कर देता और घने कुनबे के तीन चार सदस्यों से, जो बच्चे के माता पिता या भाई बहन कुछ भी हो सकते थे, मुखातिब हो जाता। इवा कार्णिक अपनी बारी आने पर कुर्सी से उठी और अलसाये चूहे की रफ्तार से घेरे तक पहुँची। घेरे के बीचोंबीच पहुँच कर पहली हरकत जो उसके मन में हुई, वह दरअसल शुबहा थी। अंदेशा। बल्कि उसे ऐसा पक्का लगा कि उसका दाहिना मोजा सरक चुका था नीचे की तरफ। जूते के बिल्कुल पास सिमटा हुआ। यह एक निहायत ही ट्रैजिक कल्पना थी। रोशनी से चुंधियाने वाले की न सिर्फ दोनों चोटियाँ टेढ़ी मेढ़ी थीं, बल्कि एक मोजा भी एकदम नीचे तक सरका हुआ था। उसकी पनियाई सी मुट्ठी खुली। कमरा बहुत ठंडा था। इतना कि जिस घुटने का मोजा नीचे सरक चुका था, उसके मोजे के भीतर से तुरंत तुरंत उघड़े दायें पैर के रोयें खड़े हो गये। उसकी आँखों के आगे से उजाला धुल गया। उसकी पुतलियों ने एक बार सारी ताकत बटोर कर नीले रंग को तलाशने की चेष्टा की पर उजाले की अनुपस्थिति में नीला रंग काले रंग में घुल कर दम तोड़ चुका था। गोरेपन की क्रीम लगाते हुए ये तीसरा हफ्ता चढ़ा था। या कि उसका या घेरे का कमाल लड़की बहुत सफेद दिख रही थी। हालाँकि उसमें भय की मात्रा नहीं थी। उसने जो हासिल किया था, उसका अंकों में अनुवाद किया जाय तो अर्जित बहुत कम बचता था। अलग अलग विषयों के अंक उछल कर एक दूसरे के खाने में चले गये थे। गणित का अंक समाजशास्त्र में, केमेस्ट्री के नंबर इकॉनामिक्स में। पर सबका जमा ये कि एक दूसरे के खाने में पड़े भले, पर अंक सारे कमजोर थे। टीचरों की सुनें तो उन्हें पूरा यकीन था कि थोड़ी सी तत्परता अगर वह दिखाये तो वह अच्छा कर सकती है। यह एक ऐसा अटूट विश्वास था जोकि पिछले कई वर्षों से टीचर्स उस पर दिखाती आयी थीं एकतरफा और जिसमें कि खुद लड़की की कोई भागीदारी नहीं थी। उसके शरीर में कोई हरकत नहीं हुई सिवाय साँसों की दो एक लंबी आवाजों के, जो चार उँगली की दूरी पर फिट किये हुए माइक से, जिससे कि बच्चों को मैं पूरी कोशिश करूँगी/करूँगा कि अपने टीचरों की उम्मीद पर खड़ा उतर सकूँ या कि मैं अपनी कमियों को दूर करने का प्रयास करूँगा/करूँगी बोलना था, रिस कर आयी थीं। उसने बेआवाज गरदन में हल्की सी तरंग पैदा कर अपनी पारी के बोले जाने की रस्म निभा दी। अब बोलने की बारी ऊँचे कंधे वाले आदमी की थी, जिसे रीति के मुताबिक बोलने की आड़ में सिर्फ देना था - सफाई विश्वास आदि। पर उसने रीति को तोड़ कर बात को एक विराम दिया। उसके पास बोलने के लिए था ही क्या! क्योंकि चोटियों में कस कर जकड़ी इस लड़की से उसकी पहचान ही क्या! वह उस जंगली उड़ान भरते बालों वाली लड़की की अंटशंट आदतों के खिलाफ या कि उसकी बड़ी बड़ी कमियों के पक्ष में बोल सकता था, पर सामने जो लड़की खड़ी थी, उसकी सफेदी के बारे में कोई बयान कैसे दिया जा सकता था! उसने दो घड़ी पहले अपनी पूरी क्षमता से नाच कर शांत पड़ चुकी पुतलियों के सम्मान में बात को विराम दिया। उस विराम का इवा कार्णिक पर ऐसा असर हुआ कि अपनी बारी के इस तरह खत्म हो चुकने के बाद भी वह उस जगह से हिली नहीं। जब दूसरे का नाम पुकारा गया और जब नाम पुकारा जाने वाला आ चुका तब भी वह सूत बराबर तक नहीं टसकी। उस दूसरे बच्चे को उसे छूकर संज्ञान की अवस्था तक पहुँचाना पड़ा, जहाँ से उसके वापस जाने का रास्ता शुरू होता था। लौटने के लिए मुड़ते वक्त ही उसे मैरून शर्ट दिख गयी, जिसकी शक्ल कुछ कुछ नीले रंग से मिलती जुलती थी। और शाम उसके घर के कमरे की रोशनी में वह यकीनन नीला ही दिखता। इवा कार्णिक ने स्कूल से लौटने के बाद की दुपहरिया में आईने में अपना चेहरा देखा और उसे लगा कि उसे जितने गोरेपन की जरूरत थी, उसे वह पा चुकी है और अब क्रीम की जरूरत उसके चेहरे को नहीं रह गयी थी। उसने अपने हाथ और गरदन पर क्रीम को लपेस लिया और जाकर इजा के बगल में लेट गयी। उसने इजा को बतलाया कि उसे इस बार बहुत कम नंबर मिले। वसुंधरा कार्णिक, जोकि पालने से उसके झूठ बोलने के अंदाज से वाकिफ थी, हर वक्त खाली मजाक करती है लड़की वाली अदा से हंस दी। ऐसे वक्त ही इवा कार्णिक की आस्था झूठ बोलने में और पुख्ता हो जाती और उसकी यह मान्यता एक बार फिर सही साबित होती कि झूठ और सच केवल बातें होती हैं और ये कि बोलने वाले की काबिलियत और सुनने वाले की परख किसी बात को सच या झूठ का जामा पहनाते हैं। उसने, उफ ऐसा सच जैसा दिखने वाला झूठ बोला फिर भी इजा ने पकड़ लिया - वाली लज्जा से कहा - 'इतिहास की टीचर बड़ी तारीफ कर रही थीं।' वसुंधरा कार्णिक गदगद हो गयी। उसने अपने तलवे से उसके पाँव को सहलाते हुए पूछा - 'अरे तेरे अपने ट्यूटर ने क्या कहा!' 'ओ ये! अब कहते क्या विनम्रता से पलकें झुकाये रहे।' दोनों अपने अपने कौशल से सच और झूठ को उनका जामा पहना कर खामोश पड़ गयीं। शाम के एक खास वक्त, जबकि वसुंधरा कार्णिक को एक अलग थाप पर यह पहचानते हुए उठ कर दरवाजा खोल देना था कि ऊँचे कंधे वाला आदमी आ चुका है, दरवाजे पर दस्तक पड़ी। वह अपने बँधे बँधाये विश्वास के साथ दरवाजा खोल कर वापस मुड़ गयी, पर उसे हलका सा आभास हुआ कि दरवाजे पर कोई नहीं था। उसने पलट कर परखा। वाकई कोई नहीं। उसे वापस आकर बैठे दो मिनट भी नहीं गुजरा था कि फिर से वही दस्तक। बैठ चुकने के बाद तुरंत उठने में उसे तकलीफ होती थी। घुटने। दरवाजा फिर खाली था एक बार। इस बार अपनी कुर्सी तक वापस लौट कर वह तत्काल नहीं बैठी। खड़ी रह गयी। तिबारे की थाप की आस में। बाद में हालाँकि उसे बैठना पड़ा इस सोच के साथ कि कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके कान निश्चित समय पर एक खास दस्तक सुन लेते हों रोज जबकि दस्तक कोई दरअसल होती नहीं हो और जब वह दरवाजा खोलती हो तो ऊँचे कंधे वाले आदमी की वहाँ उपस्थिति एक संयोग हो और आज ऐसा होने पर दरवाजे पर उसकी अनुपस्थिति ही सचाई की सबसे करीबी चीज हो! शाम तेजी से गहरा रही थी और इवा कार्णिक बालों को खोल कर लगातार दरवाजा तकते तकते ऊब चुकी थी। किसी का न आना तय था ये जानते हुए भी। वह दरवाजे के बीचोंबीच कुर्सी लगा कर आगे पीछे हिलते हुए इंतजार कर सकती थी। यह तीसरा दिन था। और लगभग उसी वक्त जब शाम की पाली की दस्तक हुआ करती थी, फोन पुरानी धुन में खड़खड़ाया। इस तरफ से वसुंधरा कार्णिक थी, उस पार ऊँचे कंधे वाला आदमी। इस पार से उसके दो दिन से न आने और कोई खबर तक न देने और आगे कब आने की बातें थीं, उस पार से पहले एक चुप्पी, फिर दूसरी चुप्पी, फिर तीसरी चुप्पी के पहले - आगे से न आ पाने की सूचना थी। आगे इस तरफ से तीसरी खामोशी को चीरती बदहवासी थी। क्यों, क्या मतलब क्यों नहीं आ पाआगे जैसी। उस तरफ से 'बस मैं' ये दो शब्द थे अलग अलग हटे हुए। फिर इस तरफ से 'ऐसे कैसे'। बदले में उधर से 'मैं अच्छा पढ़ा नहीं सका!' इस तरफ से फिर 'ऐसा कैसे'। उस तरफ से पहले मौन फिर रिसीवर के रखे जाने की शांति। उस घर तक पहुँचने के लिए पैंसठ मुड़ी मुड़ी सीढ़ियाँ चढ़नी होती थीं। फिर दो पल सुस्ताने के बाद कॉलबेल बजाना होता था। कुछ पल दरवाजे के और बंद रहने पर दुबारे से बेल बजाना होता था। फिर भी न खुलने पर झुँझला कर एक बार दस्तक देनी होती थी। फिर झाँकताँक कर दरवाजे पर किसी सुराख की तलाश करनी होती थी, जिससे कि उस पार से देर होने की वजह की शिनाख्त की जा सके। फिर एक बार दरवाजा पीट कर हाथ को वापस अपनी जगह आने के क्रम में ही एक ताले से टकराना होता था, जोकि उस दरवाजे पर लगा हो। फिर चौंक कर ये समझना होता था कि घर अभी बंद था बाहर से, भले वह खुला हुआ हो भीतर से। फिर ताले को छूकर वापस पैंसठ सीढ़ियाँ उतरनी होती थीं। वह तीसरे दिन के बाद का दूसरा दिन था। अभी साढ़े पाँच बजे थे। जिसका मतलब कि उसे अगले दिन इजा से एक और एक्स्ट्रा क्लास का बहाना बना कर वापस से पैंसठ सीढ़ियाँ चढ़नी थीं ये मनाते हुए कि छह बजे के पहले तक घर के ताले में चाभी घुसा कर उसे उल्टी दिशा में उमेठ कर साँकल खोल दी गयी हो! एक ही बार में झटके से सब हो गया होता तो बात आयी गयी हो चुकी होती पर एक असफल साढ़े पाँच बजने के बाद से दूसरे छह बजने तक की प्रतीक्षा भारी थी। इस प्रतीक्षा में असमंजस का भी घालमेल था। कहीं उसके जाने से किसी के लौट कर आने की रही सही संभावना भी चली गयी तो! आज के साढ़े पाँच बजे के असफल होने के पीछे कहीं ऊपर वाले का यही इशारा तो नहीं! पर जैसा कि जीभ के एक बार जल चुकने के बाद भी गरम चीजों को मुँह लगाना छोड़ देने की बात लड़की बचपन से सीख नहीं पायी थी, वह अगली शाम भी टपाटप सीढ़ियाँ चढ़ गयी। दरवाजा दो फाँक खुला हुआ था। कॉलबेल बजा कर दरवाजे के खुलने का इंतजार करने के बीच के वक्त में अपने आप को संतुलित कर लेने की जो सहूलियत होती है, उसका यहाँ अभाव था। उजास हल्की जो बाहर से जा रही थी, उतनी भर। घर के पास अपनी कोई रोशनी नहीं थी। किसी खुले हुए दरवाजे को फिर से खुलवाने के लिए क्या करना चाहिए, लड़की में उस शऊर की कमी थी। वह ठिठक ठिठक कर भीतर उस रेखा तक पहुँच गयी जहाँ बाहर के उजाले की आखिरी सरहद खिंची थी। वहाँ तक पहुँच कर उसे कुछ पुकारना था, जिसके लिए कंठ तैयार नहीं था क्योंकि उसे पता था कि 'सर' जैसी कोई आवाज वहाँ से बहुत भद्दी और बेसुरी निकलती। उसे यह भी लगा कि पता नहीं जिस घर में वह घुस चुकी है, वह सही घर है भी या नहीं! हालाँकि ये उसे बहुत थोड़ा थोड़ा लगा था। ज्यादा ज्यादा क्या कह कर पुकारा जाये यह असमंजस ही था, जो उसे वापस घर के दरवाजे तक लौटा लाया। वहाँ पहुँच कर उसने कॉलबेल टीप दिया। घुटने तक लंबे शॉट्स और टी शर्ट पहने अंदर से जो आदमी तौलिये में हाथ पोंछता बाहर तक आ गया, वह दरवाजे के मेहमान को देख कर उसे वहीं से फुटा देने को कृतसंकल्प हो गया। मेहमान ने जवाब में भौंहे उचका कर वही सवाल दोहरा दिया। 'यहाँ कहाँ?' 'आपके यहाँ।' मेजबान की एक धारणा फिर से पुख्ता हो गयी कि लड़की गजब की मूर्ख थी। वह उसके पीछे कौन है कोई है यह झाँकने लगा। वह भी गरदन मोड़ कर अपने पीछे क्या कोई है! ऐसा झाँकने लगी। फिर वह मुड़ी और उसने कहा - 'इजा नहीं है।' 'इतनी देर तक स्कूल में क्या कर रही थी?' उसने ऊपर से नीचे लड़की के स्कूलिया मेकअप को परखा। 'इधर उधर थी। कल साढ़े पाँच बजे आप नहीं मिले तो छह बजा रही थी।' 'भीतर आओ।' 'एक बार आयी थी।' 'ओफ! क्या था?' 'अँधेरा था।' 'काम क्या था?' 'घर के अंदर रोशनी नहीं किया!' 'नहीं। काम क्या था?' 'इजा ने कहा है आने को। उनका मन नहीं लगता।' 'मन लगाने जाना है?' 'पढ़ाने के लिए।' 'किसे!' वह चौंका, ऐसा लड़की को लगा। 'ओ! तुम्हें! पर तुम्हें तो सब आता है।' 'मैं बहुत मन लगा कर पढ़ूँगी।' 'अभी तक क्यों नहीं पढ़ रही थी मन लगा कर?' 'आप रोज आ रहे थे इसीलिए।' 'अच्छा! तो मेरा रोज रोज आना छुड़वाने के लिए तुमने मन लगा कर पढ़ना छोड़ दिया!' 'छोड़ा कहाँ?' 'ओ हाँ हाँ छोड़ा कहाँ! मतलब शुरू से ही नहीं पढ़ा न!' 'इजा से कहना दूसरा ट्यूटर खोजें।' वह अभी अभी तो अच्छा भला था, अचानक से कठोर हो गया, ऐसा लड़की को लगा। 'मैं दूसरे ट्यूटर से कैसे पढ़ पाऊँगी!' 'इजा ने नहीं मैंने कहा है आने को। मतलब इजा ने भी कहा है। कहा नहीं है पर कहती। मैं बहुत मन लगा कर...' आगे आवाज दरक गयी। 'घर में भी झूठ बोल कर आयी होगी। घर जाओ।' 'आप कल आयेंगे न!' 'तुम जाओ।' 'आप झूठ नहीं बोलते। आइयेगा न। अभी ही चलिए न। मुझे बहुत सारा होमवर्क भी मिला है।' ऊँचे कंधे वाले आदमी के सारे शब्द पुराने पड़ गये। 'आप अपने घर में रोशनी जला कर और अच्छे कपड़े पहन कर आइये थोड़ी देर में।' उसने जाने के लिए सामान उठाना शुरू किया तब ऊँचे कंधे वाला आदमी देख सका कि स्कूल बैग, लंच, पानी की बॉटल सब फर्श पर टिका कर वह खड़ी थी तभी से। विक्रम आहूजा ने उसे आवाज देकर पीछे पलटा दिया। 'इजा से कहना तुम्हारे लिए नये मोजे खरीदे।' इवा कार्णिक ने बस्ता, पानी, लंच सबको वापस जमीन पर रख कर बायें मोजे को दायें मोजे जितना खींचा, ऊपर और फिर पलट कर चली गयीं। किताब भौतिकी की थी। उसकी बाइंडिग ढीली हो गयी थी और हवा की हल्की ससर पन्ने पलट दे रही थी। कमरे में एकदम शांति थी। इवा कार्णिक को एक न्यूमेरिकल हल करने को मिला था। दोनों जानते थे कि उससे नहीं हो पायेगा पर दिखावे में कोई इसे मानने के लिए तैयार नहीं था। दरअसल इवा कार्णिक जिंदगी में पहली बार इतनी गंभीरता से प्रयासरत थी। सच की गंभीरता से। ऊँचे कंधे वाले आदमी के दिमाग में उसकी इस गंभीरता के बरअक्स एक हल्का खयाल जागा। तय रहा कि वह आम इमली, जो भी बना कर दिखलायेगी, विक्रम आहूजा उसके सही होने की घोषणा कर देगा। इवा कार्णिक ने जो आगे बढ़ाया, वह तीन लाइन के बाद फार्मूले से विचलित हो गया था। उस तीसरे लाइन के आगे ही विक्रम आहूजा ने पेंसिल से निशान लगा दिया, सही का। लड़की के चेहरे से सिकुड़न चली गयी और उसका हर एक अंग अपने अधिकतम फैलाव में खुल गया। उसने उसके हाथों से कॉपी छीन ली और जल्दी जल्दी पन्ना देख कर कहा - 'सही है!' 'बनाया गलत था क्या!' उसने सिर को तेज दायें बायें डुला कर कॉपी को वापस अपने ट्यूटर की ओर बढ़ा दिया। 'दुबारे से देखूँगा तो हो सके ये गलत निकल जाय!' लड़की ने बहुत गति से अपने हाथ वापस खींचे और कॉपी को कलेजे में घुसेड़ लिया। उसकी हँसी की तुतलाहट में ऊँचे कंधे वाले आदमी के आलिंद और निलय में खून ले जाने ले आने वाली शिराएँ और धमनियाँ अचानक से अपना काम भूल गयीं। उसका चेहरा जर्द हो गया और उसे अपने धोखे से डर लगा। इवा कार्णिक को ऐसा लगा कि उसकी कॉपी को छुपा लेने की हरकत ने सामने वाले के चेहरे पर ठीक उस काम के विपरीत कोई असर किया है, जो उसके खुद के चेहरे पर फेयरनेस क्रीम ने किया था। उसने अपने हाथ बढ़ा दिये। कॉपी सहित। विक्रम आहूजा को इतना लग गया कि अब आगे वह उससे आँखें नहीं मिला सकेगा। इस खयाल ने उसके भीतर इतनी बेचैनी ठूँस दी आधे पल में कि उसने आखिरी झलक कैद कर लेने के होश में पलकें उठायीं, वहाँ, जहाँ अपने सही साबित हो चुकने की पुलक में तैरती पुतलियाँ थीं। विक्रम आहूजा वहाँ से अपने लिए नमक भर सुकून चुरा कर भाग सकता था, पर उसके लौटने के सारे रास्ते किसी ने बंद कर दिये थे। लिहाजा उसे वहीं रुक कर लड़की की आँखों में देखना पड़ा, जहाँ कॉपी पर तीसरी पंक्ति के बाद फिसल गया फार्मूला दुबका था, जो पहेली को उसकी मंजिल तक पहुँचाने का दमखम रखता था। लड़की सब कुछ उसी रोज पढ़ लेने के उत्साह में थी। उसने तीन सवाल पूछ डाले, जिन सबका ताल्लुक भौतिकी से ही था, कहीं न कहीं और सबके सब जवाब की पात्रता भी रखते थे। विक्रम आहूजा के माथे पर पसीना छलक आया जवाब की जगह घेर कर। उसने आवाज पर पूरा नियंत्रण साध कर जवाब देना शुरू किया पर आवाज धागा निकल चुकी सूई की तरह टुकुड़ टुकुड़ ताकती रही। उस दिन के कोटे की पढ़ाई के खत्म हो चुकने पर विक्रम आहूजा उठ कर खड़ा हो गया और अगले ही पल वह बैठ भी गया। उसने मेज पर उस दिन के खाते का अपना रोल निभा कर औंधे मुँह पड़ी नोटबुक को उठाया। बिना किसी पूर्व सूचना या पूर्व अभ्यास के हुई इस कार्यवाही के प्रतिउत्तर में नोटबुक हड़बड़ा कर उठी और इस क्रम में उसके पन्ने अपने आप को तेजी से पलटने लगे और वो पन्ना तक खुल गया, जिसे वाकई में ऊँचे कंधे वाला आदमी खोलना चाह रहा था। विक्रम आहूजा ने बगैर लड़की के अचकचायेपन को देखे, उस न्यूमेरिकल के आगे क्रॉस का निशान लगा दिया और तीसरे लाइन के आगे से बहक गये फॉर्मूले को जहाँ का तहाँ पकड़ कर मंजिल तक पहुँचा दिया। इवा कार्णिक के गलत जवाब के समानांतर एक सही हल लिखा जा चुका था। इवा कार्णिक को जिंदगी में पहली बार गंभीर दुख हुआ और उसकी आँखों की कोर में एक बिना दाँत वाला आँसू आकर ठिठक गया था। आईने के आगे बात मलिन थी। क्रीम का इस्तेमाल स्थगित करते ही त्वचा का साँवला स्वभाव उग्र हो गया था। इवा कार्णिक के आँसू अब चूँकि एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बहने लगे थे, इसलिए आईने में दिखलाई पड़ती हुई साँवली तस्वीर को देख कर इवा कार्णिक चाहे तो कल्पना कर सकती थी कि वह शाम के धुँधलके में नदी में अपनी हिलती डुलती परछाईं देख रही है। उसके आँसू क्यों थे! उसके जवाब का सही प्रमाणित होकर भी गलत साबित हो जाना इसकी वजह क्या! या कि कारण कोई दूसरा, जो आईने के सामने और गहरा गया था! यह अपने पिछड़ जाने का अहसास था। कितनी मुश्किल बात थी कि एक ऐसी दौड़ जिसमें अकेली वही दौड़ रही थी, और वही पिछड़ भी रही थी। इस आईने वाली अतिरिक्त समस्या के लिए, जो आग में घी की हैसियत से मौजूद हो गयी थी, उसके पास एक बढ़िया विकल्प यह भी था कि वह इजा की रसोई में आलू का छिल्का उतारने वाला औजार ले आये और उसकी सहायता से चेहरे की ऊपरी परत हटा दे। पर चूँकि मारे हताशा के उसका एक कदम भी चलने का मन नहीं हो रहा था, उसने वहीं खड़े खड़े कर सकने वाले काम को चुना और अधपिचकी ट्यूब से तीन दिन के कोटे की क्रीम निकाल कर चेहरे पर लपेस लिया। ऊँचे कंधे वाला आदमी अपने फ्लैट की घुमावदार सीढ़ियाँ न चढ़ कर नीचे के चबूतरे पर बैठ गया, जिस पर गर्मी की शाम और जाड़े की दोपहर में फ्लैट भर की औरतें बैठा करती थीं। उसने अपनी मुट्ठी खोली, जो भीतर से गीली थी और जिसके भीतरी गीलेपन में वह किसी के आँसू चुरा लाया था। उसने चुराने का मन बना ही लिया था तो वह इवा कार्णिक की उस हँसी को चुरा सकता था, जो उसके खेल के बाद लड़की के चेहरे पर उभरी थी, क्योंकि थी तो वह भी विरल ही। पर उसने अपने साथ लाने के लिए उस आखिरी आँसू को चुना जो अब तक के उसके अनुभव से इवा कार्णिक जैसी लड़की की आँखों के लिए नहीं बना था। उसे लग गया था कि पिछली हँसी को लड़की भले सँभाल ले, पर इस आँसू को सँभालना उसके बूते का नहीं था, इसीलिए उसकी पसीजी हथेली गीली चीज को अपने साथ ले आयी। वह दिन में चार की औसत से उन सीढ़ियों पर से चढ़ता उतरता था, पर पहली बार उसके भीतर उन्हें गिनने की इच्छा जगी। उसे ठीक ठीक मालूम था कि चाभी के गुच्छे में से कौन सी चाभी उसके घर का ताला खोला करती थी, पर उसे बारी बारी से हर चाभी को घुसा कर ताला खोलने की असफल कोशिश करने का मन हुआ। अँधेरे घर के अंदर प्रवेश करने के बाद बत्ती जलायी जाती है, इस विकल्प का आविष्कार हुआ ही न हो जैसे, ऐसा। उसने सोफे पर बैठ कर अपना जूता अलगाया और मोजे को बजाय नीचे की तरफ खींचने के उसके हाथों ने उसे घुटने की ओर कस कर खींचा। उसे लगा जैसे भीतर के कमरे से किसी के लगातार कुछ रटने की आवाजें आ रही हों! उसके हाथों से पैर फिसल गया। दोनों के अपने अपने विस्मय थे। वजह कि किसी ने भी इवा कार्णिक को किसी भी चीज को कभी मुँह से रटते नहीं सुना था। वह आँखों से ही रटती आयी थी आज तक। वह उठ कर खड़ा हो गया। कानों का धोखा या कानों को ही धोखा हुआ था। घर शांत था। पर चीजें घर की लगातार कुछ रटे जा रही थीं। सिंक का नल खोलने पर पानी की रटी रटायी धार। स्विच ऑन करने पर पंखे के डैनों का वही रटा रटाया घेरा। उसने गौर किया कि हर रटने रटाने में शोर था। सिवाय आँखों से रटते जाने के। वसुंधरा कार्णिक दरवाजे के पीछे से अँधेरे में अपने आप को घुलाती हुई घंटों झाँकते रहने का अभ्यास साध रही थी। वह संदेह को फूँक फूँक कर उड़ा रही थी दूर दूर। वह जानती थी कि पंद्रहवाँ सोलहवाँ सत्रहवाँ साल निकल जाय चैन से तो फिर पहरेदारी की जरूरत नहीं होती उम्र भर। उसके अपने माँ बाप ने उसकी उमर के खतरे के निशान को छूने के पहले ही उसे अगले ठौर के हवाले कर दिया था। लक्ष्मणरेखा सिंदूर की थी तो क्या, सातों महासागरों के पानी को मिला कर पीने का नशा इन्हीं तीन सीढ़ियों पर तो चखा था उसने। सत्रहवें साल की आखिरी हिचकी तक वह माँ बन गयी थी। उसके आगे की स्क्रिप्ट में जो कुछ भी लिखा था, जैसा भी लिखा था, उसे बिना सवाल किये वही दृश्य वही संवाद अपनाने पड़े। पहले एक बच्चा बिछड़ा, फिर पति, फिर दूसरा बच्चा। अब जबकि उसके चेहरे से मंच के बीचोंबीच की रोशनी का गोला सरक चुका था, उसने नेपथ्य से डोरियों को खींचने, ढील देने का काम सँभाल लिया था मुस्तैदी से और यह भाँप चुकने पर कि इवा कार्णिक फिसलने के जुनून में है, उसकी डोर को खींचे रखना उसका सबसे खास दायित्व। इस पूरे प्रकरण में ऊँचे कंधे वाले आदमी पर अविश्वास की कोई सूरत नहीं बनती थी। बस संदेह का पत्ता वहीं खड़खड़ाता था, जहाँ एक बार ट्यूशन छोड़ चुकने का फैसला ले लेने के बाद ट्यूटर दुबारा चला आने लगा था पहले की तरह। अगर कि इवा कार्णिक सच में उसे मनाने गयी थी तो भी पढ़ने लिखने में तीन कौड़ी की एक लड़की की बात को मान ही लेने की उसकी क्या मजबूरी थी! इस बेहद अफसोसजनक वाकये की नींव पर ही उसने ताँकझाँक की पूरी बुनियाद खड़ी की थी। ये बात और कि उन दोनों को एकांत में मिला पाने का व्यूह भी अक्सर उसके ही हाथों रचा जाता। कह सकते हैं कि वह जाल बिछा कर और उस तक इवा कार्णिक को ले जाकर यह परखना चाहती थी कि वह फँस पाती है कि नहीं! उसका चश्मा ढीला था और नाक के रास्ते फिसलने लगता था। इस फिसलन के आगे बाधा साबित होते हुए वसुंधरा कार्णिक को लगातार नजर रखनी थी उनके हावभाव पर। और अगर कि वे हावभाव वाकई किसी लफड़े के अंश थे तो वसुंधरा कार्णिक यह स्वीकार करने में मिनट भर भी नहीं खरचती कि उसका जाल पुरानी किस्म का था जरूर पर दम था उसमें। खम भी। यह सब ताकाझाँकी तब तक चलती जब तक घड़ी की सूइयाँ साढ़े आठ की मुद्रा में आकर बैठ न जातीं और ऊँचे कंधे वाला आदमी उठ न खड़ा होता सरपट। और यहीं उस दिन के कोटे के खत्म होने का परदा वसुंधरा कार्णिक को खींचना होता। परदा सटते ही वह डोर को फेंक फाँक कर उसमें उलझते अपने पैरों की परवाह छोड़ गिरते पड़ते ड्राइंग रूम के पार्टिशन के उस तरफ पहुँचना चाहती, जहाँ उसे रास्ता छेंक कर खड़े हो जाना था दरवाजे के बीचोंबीच ताकि विक्रम आहूजा बाहर कदम न धर सके। वह रुक जाता। वसुंधरा कार्णिक बात को जिधर भी मोड़ती, वह बिल्कुल छोटा सा जवाब देता। उसकी उपस्थिति पूरे वार्तालाप में उतनी ही थी, जितनी लंबे लंबे वाक्यों में 'है' या 'था' की हुआ करती है। छह रोज पहले सुना चुके एक वाकये को दुहराते दुहराते आँख की कोर से उसे पार्टिशन के पास एक जिंदा सी परछाईं डोलती सी दिखती। तो क्या इवा कार्णिक परदे के उस तरफ थी! वह तुरंत तेज लगाम खींच कर कह उठती - 'मैंने तुम्हें आज भी बड़ी देर करा दी न! बातों की सुध में मुझे वक्त का ख्याल ही न रहा। अच्छा?' 'अच्छा' शब्द के खत्म होते होते वह उठ खड़ा होता और हाथ जोड़ कर बाहर निकल जाता। उनकी दुनिया से। वसुंधरा कार्णिक पलट कर घर के भीतर की ओर बढ़ने लगती। वह चौखट दर चौखट फाँदती जाती पर कोई दिखता नहीं। इवा कार्णिक अपने बिस्तर पर इतनी सारी किताबों से दबी मिलती कि कोई नहीं मानेगा कि वह इतनी सारी किताबों के बीच से अपने को निकाल कर परदे की ओट तक गयी और वापस वहाँ से लौट कर अपने को उन्हीं किताबों से दबा लिया ऐसी सफाई और फुर्ती से। तो क्या वाकई पार्टिशन के पीछे वह नहीं थी! वसुंधरा कार्णिक का माथा गरम था। उसकी पलकें झुरमुट झुरमुट खुलती थीं। फिर बंद हो जाती थीं। इवा कार्णिक ने कढ़ाई में तेल के कड़क चुकने पर मुट्ठी मुट्ठी दो मुट्ठी भिंडियाँ कटी कटी डाल दीं उसमें। तेल कुछ तेज ही कड़क गया था। वजह यही कि भिंडी का एक बीज उछल कर उसकी नाक के सबसे नुकीले सिरे से टकराया। भिंडी को ढक कर भूनना था कि खुली कढ़ाही में! तेज आँच पर कि सिम चूल्हे पर! और सबसे बड़ा सवाल था कि थोड़ी भुन चुकी भिंडी में वापस फोरन कैसे डाला जाय! मिर्च का। जम चुकी दही में वापस जोरन कैसे डाला जाय! ओहो हो! ऊँचे कंधे वाले आदमी के आया होने पर दरवाजा खोलने वह छुलनी हाथ में लिए गयी, जिसके सिरे पर हल्दी से गली भिंडी चिपकी थी। 'इजा को बुखार है। कल आइएगा पढ़ाने।' उसने आधा दरवाजा छेंक कर कहा। 'आज देखने तो आ सकता हूँ!' 'ज्यादा बीमार नहीं हैं।' उसने एक पल अपने ट्यूटर की आँखों में देखा और हट कर रास्ता दे दिया। पूरा। वसुंधरा कार्णिक ने चंचल बीमार की भूमिका में आते हुए अपने बीमार धड़ को उठा कर पूछा - 'कैसे हो?' ऊँचे कंधे वाले आदमी ने - 'आप लेटी रहें' की तरह हाथ बढ़ा कर कहा - 'अच्छा हूँ।' वसुंधरा कार्णिक ने अभिनयाधिक्य से कहा - 'चाय पीओगे?' 'कौन बनायेगा?' 'आप पीयेंगी?' 'नहीं तो।' इवा कार्णिक मेजपोश ठीक करने के बहाने उनकी बातचीत में सेंध मारने आयी थी। पर उनके बीच के टॉपिक को आधा अधूरा सूँघ कर वह पिछले पाँव खिसक गयी। वह कुछ भी कर सकती थी पर चाय बनाने का विकल्प उसे खौलाता था आतंक से। उसने सतर्क नजरों से कड़ाही में भिंडियों को फैला दिया और चुटकी से एक एक के ऊपर नमक छींट कर दम साध कर भिंडियों को उलटने पुलटने लगी। उसकी सतर्क नजरों के घेरे में एक ऊँचा आदमी आ गया। वह हड़बड़ा कर पलटी और उसने कहा - 'मुझे चाय बनाना नहीं आता।' 'सामने जो है वह भी जल रहा है।' उसने गैस का नॉब बंद करके पूछा - 'चाय सचमुच बनानी होगी क्या!' 'तुम्हारी इजा बता रही थी तुम्हें रोटियाँ बनानी नहीं आतीं। आज का तुम्हारा ट्यूशन यही।' 'मैं बेल सकती हूँ सेंक भी सकती हूँ।' 'तो फिर क्या नहीं कर सकती?' 'उसे खा नहीं सकती।' विक्रम आहूजा पहली बार सिर्फ उसके लिए मुस्कुराया। हालाँकि वह जान नहीं सकी क्यों मुस्कुराया, पर लड़की को इस बात का अहसास हुआ कि दरवाजे से ही उसे लौटा देकर वह कितनी बड़ी भूल करते करते रह गयी थी। उसने पलट कर आटे के डिब्बे का ढक्कन खोल दिया और दूसरे पल दरवाजे से जरा सी बची रह गयी जगह से अपनी देह को निकालते हुए इजा के कमरे तक भाग आकर उनके पैर दबाने लगी। उसकी तलहथी में तेज पसीना था, ये बात इजा के पैर को छूकर ही पता चली। इजा ने अपने पैर ऊपर सरका लिए - 'किचन में जा!' किचन में जाने का रास्ता बहुत आसान था। नाक की सीध में सोलह सत्रह कदम चल कर दाहिने मुड़ कर सात कदम बस। पर उसने अपने मार्ग में विचलन लाते हुए अपने को विपरीत दिशा में मोड़ लिया। भाग भाग कर वह अपने कमरे तक गयी, आईने में देख देख कर चेहरे पर क्रीम लपेसा और किचन के दरवाजे पर खड़े खड़े भीतर देखने लगी। ऊँचे कंधे वाले आदमी ने आटे के बीच एक गड्ढा बनाया और उसे पानी से भर दिया। फिर उस पानी को अगल बगल के आटे से भर दिया। उसने बायें हाथ से पानी डाल डाल कर आटा गूँथ लिया और लोइयाँ बनानी शुरू कर दीं। उसने बगैर पलटे, पीछे खड़ी परछाईं से पूछा - 'कितनी रोटियाँ खाओगी तुम?' लड़की सकपका गयी। उसने शब्दों को आधे आधे हिस्सों में बाँट कर कहा - 'दो।' 'और इजा?' 'और मैं?' 'आपके हिस्से की भिंडी तो मैंने नहीं बनायी।' वह बेलन समेत पलटा। 'आपको कैसे पता चला कि मैं पीछे खड़ी हूँ?' 'पाउडर या क्रीम की खुशबू कमरे में फैली उससे...' तुमने कैसे जाना कि मुझे भिंडी नहीं पसंद!' इवा कार्णिक के होंठ अलग गये। हलकी सी रोशनी में वह आगे बढ़ा। इवा कार्णिक पीछे बढ़ सकती थी, पर वह हिली नहीं बिंदु भर भी। अधिक से अधिक वह जितने करीब आ सकता था, उतने करीब वह आ चुका था। सीने पर हाथ रख कर जिस जगह पर वह ठीक ठीक दिल के होने की पड़ताल कर सकती थी, उसके ठीक नीचे से एक बवंडर उठा जो, उसकी मानें तो उसके शरीर को ढक्कन की मानिंद उड़ा सकता था फक्क की आवाज के साथ। उसे लगा कि उसके कानों से कुछ रिसने लगा था एकदम तरल और शर्तिया गीला। नहाते वक्त दाहिने कान में घुस गया पानी शायद, जिसे उसने स्कूल में भी दाहिनी बगल झुकते हुए कूद कूद कर निकालने की कोशिश की थी। पर जो निकला था नहीं खाली ढब ढब बजा भर था भीतर। और जो अब रिस रहा था सुसुम सुसुम। वह स्कूल में नजर मिलाने वाले खेल में हमेशा सबसे जल्दी आउट होने वालों में थी, पर यहाँ सामने वाले के आगे अकड़ेपन की स्थिति में भी उसकी एक पलक तक विद्रोह नहीं कर रही थी पल भर झपकने के लिए। ऊँचे कंधे वाले आदमी का चेहरा उसके ठीक ऊपर झुक गया था और इवा कार्णिक को भान हो चुका था कि अगली साँस जो वह छोड़ेगी, वह सामने वाले से टकरा कर ही आगे बढ़ेगी। इस आशंका से कि साँसों का टकराना कमरे की खामोशी को चिनगा न जाये उसने अपनी साँसें अंदर ही रोक लीं। ऊँचे कंधे वाले आदमी की आँखें जरा सिकुड़ीं और उसने कहा - 'तुमने जो लगाया है सफेद सफेद, वह माथे पर ठीक से पसरा नहीं है।' वह बेलन समेत पलटा। इवा कार्णिक भी बिना वक्त गवाँये पलटी। उसने अपने ललाट पर तीन बार रगड़ रगड़ कर हाथ ससराया और किवाड़ की आड़ में छिप कर खड़ी हो गयी। आईना रोशनी समेत उसकी तलाश में घर भर में पैदल पैदल घूम रहा था और उसे किसी भी कीमत पर अपने आप को उसकी नजरों से बचा ही लेना था। गरम माथे वाली स्त्री के पलंग से अब तक के शुबहा के यकीन में बदल जाने के बाद की भारी साँसों वाली हुंकारी निकली। पलंग जोर मोर से चड़मड़ाया और उसने लेटे लेटे ही अपने जाल को खींच कर समेट लेने की कोशिश की क्योंकि शिकार बगैर जाल की मदद के भी, फँस जाने को अपने आप उत्सुक दिखता था या ऐसा ही कुछ भी। लंच ब्रेक में अब इवा कार्णिक अपने दोस्तों के साथ नहीं दिखती थी। वह प्ले ग्राउंड को घुटने तक घेरने वाली बाउंडरी वॉल पर एक किसी पेड़ के नीचे उसकी गिरती पत्तियों को गिनती हुई बैठी रहती। वह सन्नाटे को छूने के लिए शरारत से दूर भागने लगी। वह टीचर के लेक्चर को घूँट घूँट सुन लेने के इरादे से हर क्लास की शुरुआत करती ताकि शाम में किसी को अपने किताबी ज्ञान से चौंकाया जा सके, पर होता ये कि बात जैसे ही तीन चौथाई आगे बढ़ती उसका शरीर झपकने लगता। वह जाँघ की चमड़ी को स्कर्ट समेत चुटकियों में दबा कर अपने शरीर को जगाने का जुगाड़ करने लगती और इसी खींचातानी में 'सुन लेने का इरादा' पीछे ढकेला जाता। उसे तीखी धूप से अब डर नहीं लगता न सामने वाले के उजले रंग से, जिनकी उपस्थिति उसके रंग को और गहराने का खतरा उत्पन्न करती थी। वह खिड़कियों से देख कर शाम के होने का और दरवाजे की झिर्रियों से देख कर गहरे शाम के होने का, जबकि ट्यूटर के आने का वक्त होता, इंतजार कर सकती थी, पर जैसे ही वसुंधरा कार्णिक ऊँचे कंधे वाले आदमी के नाम का दरवाजा खोल देती और वह घर के भीतर दाखिल हो जाता, उसका दिल उलट जाता और वह अँधेरे कमरे में अकेले अकेले सुलगने लगती - उन्हें कोई काम धाम नहीं है क्या रोज रोज चले आते हैं बिला नागा किस्म का। वह दो तीन बार औरताना घिसी आवाज में इजा के ड्रांइग रूम से अपना नाम पुकारे जाने के बाद कुछ रटती हुई सी कमरे में दाखिल होती और ट्यूशन का पूरा वक्त कुछ बिदबिदाते हुए ही गुजार देती। इवा कार्णिक अँधेरे कमरे में सूखे पत्ते सी खड़खड़ाती थी। वह मनाती थी कि सूरज रात भर भटक भटक कर ऐसा लटपटाये कि सुबह दुबारा निकलने का रास्ता ही न खोज पाये वह। उसका शरीर अपने उठान की पर्याप्त संभावना तक विकसित हो चुका था। पलकों के लिए भी जितना बढ़ना मुकर्रर था, उस सीमा को छू चुकी थीं वे। वह अगर हथेली में अपना चेहरा ढाँपती तो पलकें उँगलियों के बिचले पोर पर सहरती थीं। वह क्या चाहती थी, यह सवाल अस्तित्व में आया नहीं था। वह क्या नहीं चाहती थी - यह जवाब जगमगा रहा था उजाले में। जो भी सामने हो रहा था उसके, वह चाहती थी कि वही न हो। हर होती हुई चीज को नकार कर मुँह फेर लेने जैसा चित्त। जब उसके साथ के पढ़ने वाले लड़के अपने सिर को टोपियों से ढके, दरके बाँस जैसी आवाज में प्रचलित अनुनासिक ध्वनि वाले आलाप आजमा रहे होते, लड़कियाँ स्कर्ट की हद के पार, घुटने से नीचे के उघड़े पैर के रोओं को सफाई से उड़ाने की तरकीबों में मशगूल होतीं, इवा कार्णिक दिन भर शाम के होने का इंतजार करती और शाम भर हर घटना के आगे न न लिख देने के मौके का इंतजार। जिंदगी को खोल दे तो वह कोरे कागज जैसी। वह मोड़ कर उसका जहाज बना सकती थी और एक सुर में पानी का इंतजार कर सकती थी, उसे तैराने के लिए। अगर कि पानी बाल्टी भर कर सामने आ जाता तो वह तुनक कर खयाल बदल लेती और जहाज को वापस खोल कर कागज और कागज को एक बार फिर वापस मोड़ कर पंखा बना लेती और ताबड़तोड़ उसे झेलने लगती पसीने के इंतजार में। अगर पसीना बूँद भर उग भी जाता होंठों के ऊपर तो वह धिक्कार भाव से पंखे की लहरों को भहरा कर तुड़मुड़े कागज का नकमदान बनाने लग जाती। जब नमकदान में भरे जाने के लिए बारीक नमक खुद हाजिर हो जाता तो वह झुँझला कर कागज को मोड़ तरोड़ कर कूड़ेदान तलाशने लगती। पर ऐन वक्त पर कूड़ेदान अपने को छिपा कर जिंदगी को गर्क होने से साफ साफ बचा लेता। खाने की मेज पर इवा कार्णिक बिल्कुल सामान्य। लाल नाक को छुड़ा कर सब कुछ बिल्कुल सामान्य। इजा की रसोई में लेमन राइस था, जो बहुत लाड़ से इवा कार्णिक की ओर बढ़ कर आया। 'कैसा बना?' इवा कार्णिक ने उसमें से सरसों के दो काले दाने चुने और उनके कड़वापन को दाँतों की धार पर मसल कर कहा - 'अच्छा। दिखता अच्छा है।' इजा ने सिर से पाँव तक लड़की को देखा। उसकी परछाईं को भी। दोनों में से किसी के भी ऊपर अपराधबोध का एक कतरा तक नहीं था। 'आपको बाबा की आवाज याद है?' 'पहचान लूँगी लगता है।' 'अगली बार भी क्या आप वैसा ही साथी चाहेंगी अपने लिए?' 'कौन जाने।' ऐसा जवाब इवा कार्णिक ने सुना। जबकि इजा चुप बैठी थी। अपने मुँह का कौर निगल चुकने के बाद उसने कहा - 'इन सवालों पर अपना कोई अख्तियार नहीं होता। सब तय होता है ऊपर से।' इवा कार्णिक की नजरें तीखी थीं, जबकि सरसों का दाना इस बार वसुंधरा कार्णिक के दाँतों तले दबा था। वसुंधरा कार्णिक का चेहरा पानी बन गया। कंकड़ मारने से थरथराता हुआ पानी। 'आप मेरे जितनी थीं तो कितनी चोटियाँ बनाती थीं?' 'शायद दो।' 'आप उस वक्त भी ऐसी ही गोरी थीं?' 'रही होऊँगी।' 'वो आपकी जिंदगी के सबसे अच्छे पल थे न?' 'अगर हम अपने अतीत के अनिश्चय के साथ इतनी सहजता से रह सकते हैं तो भविष्य का अनिश्चय हमें इतना परेशान क्यों करता है!' इजा के संबोधन से पुकारी जाने वाली स्त्री चिहुँक गयी। अरे यह झूठ है तो सच क्या था! और अगर यह सच था तो झूठ क्या था! क्या वाकई वसुंधरा कार्णिक जिस मूर्ख लड़की के साथ अब तक रह रही थी, वह एक पहुँची हुई खिलाड़ी थी! ऐसी ऐसी दाँवपेंच की बातें बनाने वाली! रात के रंग में मिलावट थी। हल्का साँवला रंग। वसुंधरा कार्णिक ने अपनी साँसें ऊपर की ओर खींच लीं और कदम बढ़ाना शुरू किया। लड़की के कमरे तक पहुँच कर उसने परदे की ओट में एक आँख को छिपा लिया। एक उघड़ी आँख, जो अँधेरे में बेहतर देखने में महारत रखती थी, ने हल्की साँवली रात के बीच से गहरी साँवली लड़की को साफ साफ अलगा कर देख लिया। इवा कार्णिक तभी खिड़की से लग कर खड़ी थी और बहुत संभव है उसकी भी एक आँख परदे की ओट में छिपी हो और दूसरी से वह बाहर की दुनिया को देख रही हो। लड़की का इतनी रात तक जगे होना और वह भी चलते देखते जगे होना एक घटना थी। पर वसुंधरा कार्णिक ने उसे बगैर चौंके हुए ऐसे स्वीकार किया मानों गयी रात बरसों से वह लड़की को बिस्तर से दूर खड़ी देखती आयी हो। ठीक इसी वक्त एक अफसोस उसे अपने आप पर हुआ कि उसे पता तक नहीं चला कब लड़की ने पालने से उठ कर खिड़की से लग कर खड़ी होने तक का सफर पार कर लिया। उसके मन में उसे खिड़की के पास से अपनी गोद में उठा कर वापस बिस्तर पर सुला कर थपकाने की चाह जागी ताकि लड़की एक ढाँढ़स भरी नींद सो सके। उसकी चाह जागने के साथ ही अपने तीखेपन में उजागर हो गयी और बिना पल गँवाये वसुंधरा कार्णिक ने अपनी दूसरी आँख को भी परदे की ओट से बाहर निकाला और उसके कदम लगभग कमरे में प्रवेश करने के लिए उठे कि उन्हें रुकना पड़ा। उस कमरे में कैशोर्य और जवानी की चौखट पर ठिठकी एक लड़की की अंतरंग दुनिया थी, जिसमें बिना दरवाजे पर दस्तक दिये प्रवेश करने में वसुंधरा कार्णिक के कदम काँप गये। बल्कि उस कमरे का वैभव ऐसा प्रचंड था कि अपने तुड़ेमुड़े गेटअप में उसमें दाखिल होने का साहस ही नहीं हुआ उसे। उसकी आँखें, होंठ, आत्मा तमाम चीजें खुली की खुली रह गयीं क्योंकि चौसठ साल गुजर जाने के बाद भी कभी ऐसा कोई वैभवशाली कमरा आया ही नहीं उसके अपने जीवन में। एक मोटरी की तरह उसे उठा कर किसी की बगल में रख कर अग्नि के इर्दगिर्द सारा मामला तमाम कर दिया गया और घूँघट पलटने के बाद वह उसी पलटने वाले से रटा रटाया प्यार करती चली गयी। एक आदमी ने दुनिया के गोल नक्शे पर जिस जगह के जो नाम उसे बताये, वसुंधरा कार्णिक ने उस जगह को उसी नाम से अपना लिया बिना किसी देख परख के। किसी ने कहा कि वह लाल चीज आग है उसे मत छुओ! जल जाओगी! और वह यह मान कर दूर बैठ गयी कि लाल रंग में बहुत लहक होती है। ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि वह सुने, पास जाय, छुए, जले, हाथ वापस खींचे, दर्द से बिलबिलाये और दर्द के थोड़ा शांत पड़ने पर 'फिर से एक बार और छू लूँ क्या' की उत्कंठा से एक बार फिर से छू ले उसे और फिर से जल जाय एक बार! उसने जलने की पीड़ा से बचे रह गये अपने शरीर को पीछे खींच लिया। उसी समय उस अप्राप्य जलन के समानांतर एक डाह उसके सीने में उठी - क्यों जो उस लड़की को मिल रहा है उसे नहीं मिला कभी! क्यों नियति ने उसे कभी चुनने की स्वतंत्रता नहीं दी। गलत सही जो भी। क्यों जिंदगी ने उसे उस चुने हुए को दुनिया की नजरों से छिपा कर रखने का ढब नहीं दिया! क्यों कोई छीन लेगा उससे उसके चुने हुए को ऐसे फिक्रमंद लम्हे नहीं दिये! क्यों कैसे बचा कर रखा जाय उस चुने हुए को अपने पास साबुत, ऐसी उधेड़बुन में डूबी बेनींदी रातें नहीं दीं! वह पीछे नहीं मुड़ी बल्कि उसने कदम बढ़ाने शुरू कर दिये पीछे की तरफ। बिस्तर तक पहुँच कर उसने अपनी आँखें बंद कर लीं। क्या उसके कुँवारे अतीत में कोई था, पति के सिवाय! वह उस आदमी की शक्ल अपने सामने उकेरे जाने के बिंदु तक अपने अतीत में वापस गयी। पर किसी की तलाश पूरी होनी तो दूर, शुरू तक नहीं हो पा रही थी। कारण कि अतीत का वह हिस्सा एक काले डॉट में सिमट कर बैठा था, जिसमें से किसी भी कम साँवले, साँवले या गोरे को बीनना मुश्किल था। असंभव की हद तक। उसके अतीत के सबसे पिछले पन्ने पर उसे विदा करते माता पिता और फिर पति नया घर आदि आदि ही अंकित था। उसके पीछे का पन्ना था ही नहीं कुछ भी। अगर जिंदगी ने उसे भी चयन का मौका थमाया होता तो क्या वह अपने पति को ही चुनती! उसकी साँसें तेज तेज आने जाने लगीं। एक साधारण साँस की जगह में ठुँसी हुई पाँच छह साँसें। आतीं। जातीं। एक दूसरे पर चढ़ी चढ़ी। बझी बझी। इस आवाज को सुनते हुए वसुंधरा कार्णिक के बालों की जड़ों का पसीना पिघलने लगा और वह झटके में चालीस पचास न जाने कितने साल पीछे चली गयी। कमरा यही रहा होगा या जो भी रहा हो फर्क क्या! वह बैठी थी तब भी ऐसे ही आँखें मूँदे या पता नहीं कैसे भी। घूँघट माथे तक था या ठुड्ढी के अंगुल भर नीचे जैसा भी। बल्कि सब कुछ था - नहीं था के बीच का, पर आवाज यही थी। चढ़ी चढ़ी। बझी बझी। जबकि किसी ताजा दुल्हन की साँसों की आवाज ऐसी निर्ल्लज नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसकी साँसों की तो आवाज ही नहीं होनी चाहिए। एक पति जैसे किसी ने दुल्हन की चौकी को पकड़ा। लाल रंग के घूँघट वाली औरत के हाथ साड़ी के भीतरी रास्तों से अपनी जाँघ पर या कि पैरों पर कहीं भी गये और उसने उस जगह को दाब कर अपनी साँसों के बहाने कुँवारपन के विराटतम भय पर काबू पाने की कोशिश की। वह सफल या असफल होती इस प्रयास में कि इससे पहले उसका घूँघट उलट दिया गया। अच्छा हुआ। उसके भय की उम्र बिना किसी भूमिका के घट गयी। जो भी होना था, जल्दी हो जाय जैसा कुछ। दुल्हन की आँखें, जो घूँघट के उठ जाने के पहले खुली थीं, बंद हो गयीं। फिर खुलीं। मायके की सुहागिनें हड़बड़ी में बताना भूल गयी थीं कि आँखों का क्या करना था उस वक्त। बहरहाल बता भी देतीं तो क्या! उसके धौंकते सीने के आगे आँखों की भूमिका गौण थी। जो पति था, उसने संयमी पति की परम्परा पर चलते हुए दुल्हन के हाथों को अपने हाथों में उठा लिया। वहाँ, उस कमरे में तभी जो कुछ भी हो रहा था, उसकी टेक दुल्हन की साँसें ही थीं। चाहे वह पति का पास खिसकना हो, हाथ उठाना हो या कि उसके पास खिसकने में चौकी का चरमराना हो! या कमरे के एक कोने में धान के ऊपर धरे कलश के अगल बगल चूहों का दौड़ना हो! कुछ भी सब कुछ। पति ने दूसरे डेग में उसके हाथों को अपने होंठों से दबाया। तीसरे डेग में दुल्हन की ठोढ़ी को पकड़ कर उठा दिया और उसके गालों को हल्के से छुआ। फिर चौथे डेग में वह अभी बुदबुदा कर कुछ बोलना ही चाहता था कि दुल्हन ने जोर से आँखें खोल दीं और भय की लाल मुंडेर से पीछे की तरफ छलाँग लगाते हुए साँसों की आखिरी टेक पर घिघियायी - जल्दी जल्दी कीजिये! वसुंधरा कार्णिक धड़ाम से बिस्तर पर गिरी। उसकी जिंदगी में वाकई सब जल्दी जल्दी ही तो हो गया। उसने तकिये को इतनी जोर से दबाया कि दाँतों के कोर में कपास का स्वाद तिर गया। इतनी जल्दी जल्दी कि अब वक्त बीते रुक कर किसी को खोजना असंभव। उसने तकिये पर घिस घिस कर सेंध मार चुके कपास को मुँह से बाहर निकाला। सुबह की रोशनी तिनके की तरह आकर उसकी आँखों में पड़ी। वह आँखें मलते हुए सरपट बैठ गयी। तो पिछली रात आखिरकार सो पायी वह! वसुंधरा कार्णिक की पूरी दिनचर्या दिन का पूरा गणित आरंभ से ही गड़बड़ा गया था। वह हड़बड़ी में एक ही चप्पल पहन कर पूरे घर भर में बदहवास घूम आयी। घर एकदम स्थिर था। इवा कार्णिक के कमरे में आने पर एक उप दरवाजे के पीछे से पानी के गिरने की आवाज आती थी। वसुंधरा कार्णिक बाथरूम के दरवाजे के बाहर से अहकान कर पीछे लौटने को मुड़ी कि उसके रास्ते में उसका अक्स पड़ गया। ड्रेसिंग टेबुल के दराज खुले थे। उसकी नजर आईने में अपने चेहरे पर पहले, ड्रॉवर से झाँकते फेयरनेस क्रीम की ट्यूब पर बाद में पड़ी। उसकी आईने वाली तस्वीर तो पर्याप्त गोरी थी, उसे क्रीम की कोई जरूरत नहीं थी। फिर भी। उसने क्रीम को ड्रॉवर से उठा लिया और अपनी साड़ी के पल्लू में दुबका कर कमरे तक ले आयी। ट्यूब को छिपाने की एक महफूज जगह उसे पलंग के मैट्रेस के नीचे पायताने हासिल हुई, जहाँ से कितनी भी उकट पुकट विकट तलाश के बाद भी इवा कार्णिक उसे बरामद न कर सके। दिन। बारह बजे की तरफ से ढलकती घड़ी की छोटी सूई। पिउन की मार्फत विक्रम आहूजा तक सूचना आयी कि कोई उससे मिलने आया है। स्टाफ रूम की ओर संदेशवाहक की उँगली। वह दरवाजे की ओर वाली दीवार से पीठ सटाये बैठी थी। 'यहाँ?' ऊँचे कंधे वाले आदमी के चेहरे पर खीझ उग आयी और उसने दबे स्वर में बात को रफा दफा करने के इरादे से एक बार फिर फुसफुसा कर कहा - 'यहाँ कहाँ?' 'जहाँ भी आप चाहें।' 'क्या मतलब है? यहाँ कहाँ?' उसने कोई सुने तो सुने वाली बेपरवाह चीख में कहा। वह सकपका गयी भीतर से। 'आपको बना रही थी। डिज्नीलैंड घुमा देंगे?' 'स्कूल?' उसने शक्की पुतलियों से पूछा। 'मैनेज कर लिया है।' 'सोयी होंगी।' 'ये सब इतना क्राइम तुम्हारे दिमाग में आता कहाँ से है?' 'कल रात में ही सोच लिया था।' 'बस्ता उठाओ और लौटो स्कूल।' उसके एक किसी आज्ञाकारी हाथ ने सकपका कर अगले ही पल बस्ता उठा लिया। 'टिफिन यहीं छोड़ जाना।' उसके उसी हाथ ने बस्ते को वापस सोफे पर छोड़ दिया, सामने वाला मुलायम पड़ चुका था ये सूँघ कर। 'एह! गो!' वह फिर सख्त हो गया। वह बैठ गयी। उसने गोद में बैग रख कर लंचबॉक्स निकाला और उसे बगल की कुर्सी पर रख कर वह उठ गयी। जाने के लिए। वह मुड़ गयी। वाकई जाने के लिए। उसने कदम बढ़ा लिए। जा चुकने के लिए। 'तुम्हें बना रहा था। लेती जाओ लंचबॉक्स!' वह मुड़ी। उसने टिफिन को उठा कर बस्ते में ठूँस लिया। 'बैठो यहीं। चलता हूँ।' डिज्नीलैंड में हर चीज के दाम उसने पूछे। बताये गये दाम की तिहाई भर कीमत में उस चीज को खरीद लेने को वह अकड़ गयी। खींचतान में दाम तिहाई के आसपास ही कहीं तुड़वा कर उसने अचानक मन पलट लिया और अगली दुकान की ओर बढ़ गयी। स्कर्ट, कान के बुंदे, कोल्हापुरी चप्पलें, कपड़े की बैग्ज, अचार, पाचक, कील ठोकने का स्टैंड तक। सारे झूलों पर भी चढ़ी वह। अकेले अकेले। तमाम तरह के ओल झोल स्टॉल पर के मौज, पाचक के स्टॉल पर हर तरह के पाचक को चुटकी चुटकी चख कर एक को भी न खरीदने की बेपरवाही - सब में वह अकेली थी। पर हर मोलभाव में अपनी जीत हो चुकने के बाद बगल वाले की आँखों में देखने के उल्लास में, किसी भीड़ भरे स्टॉल में धक्के के आवेग में अपने पैर को उठा कर बगल वाले के पैर को कुचल देने की धींगामुश्ती में, झूले से उतरती भीड़ के बीच वह ऊँचे कंधे को खोज सके उस सहूलियत के लिए ऊँचे कंधे वाले आदमी के खुद ही उसके सामने खड़े हो जाने की तत्परता में वह अकेली नहीं थी। 'मैं आइसक्रीम ले आऊँ एक अपने लिए एक आपके लिए?' - सवाल के समानांतर ही उसका एक हाथ आगे बढ़ गया। इस हाथ पर विक्रम आहूजा को पैसे रख देने थे आइसक्रीम के। यह तय नहीं था पहले से, पर हाथ उसके, जेब में घुस गये। वह पैसे बटोर कर चली गयी। वह अकेला था अब। क्यों था वह! इस मेले में! टिकट की लाइन में, धक्का खाते स्टॉलों पर, झुमके बालियों के काउंटरों पर भले ही पीछे की तरफ खड़ा, और अभी आइसक्रीम के इंतजार में पिघलता हुआ सा। उसकी धड़कनें एकाएक नुकीली होकर सन्नाटे को चुभने लगीं। घास पर कानी उँगली भर का हरा कीड़ा रेंग रहा था। ऐसा कीड़ा किस सब्जी से निकलता था अमूमन उसने याद करने की कोशिश की, पर धुँधलाया सा भी कुछ स्पष्ट नहीं हुआ। कोई जानी पहचानी हवा पसीने के ठीक ऊपर से होकर गुजरी, पर वैसे झोंके किस मौसम की निशानी सहेजे चलते हैं अपने साथ, वह ठीक पहचान नहीं कर पाया। उसके कंठ के आसपास हर तरफ खूब सूखा पड़ा था। पर उस प्यास की प्रजाति कौन सी है, वह समझ नहीं पाया। वह उठ कर खड़ा हो गया। उसने आसपास देखा। एक दौड़ता चक्कर नजरों का। लड़की नहीं थी कहीं। वह भाग सकता था वहाँ से खूब तेज तेज। आइसक्रीम एकदम सख्त थी। कहीं उमस का एक रत्ती तक नहीं पड़ा हो जिस पर। उसकी ठीक बगल वाली आइसक्रीम पर लड़की के निचले दाँतों के दो निशान पड़ चुके थे, पर वह हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था उस सख्ती पर जीभ तक फिराने की। आइसक्रीम से भाप उठ रही थी और लड़की उसे फूँक फूँक कर खा रही थी दत्तचित्त। भागने को वह अभी भी भाग सकता था आइसक्रीम फेंक फाँक कर। लड़की लकड़ी के दुबले पतले स्टिक को उलट पुलट कर चाट रही थी। दूध चीनी और चॉकलेट का फ्लेवर पुँछ गया था उसके ऊपर से और लकड़ी का अपना फीका स्वाद भीतरी खोलों से उभर कर बाहर झाँकने लगा था। लड़की ने ऊब कर कहा - 'वहाँ कॉरनेटो भी मिलता था पर मेरे हाथ में उतने पैसे नहीं थे, इसलिए इसे लेना पड़ा।' ऊँचे कंधे वाला आदमी, जिसकी स्टिक पर अभी आइसक्रीम की एक मोटी दरकती परत चढ़ी हुई थी, हिला नहीं उसकी बात से रत्ती भर भी। 'अगर मेरे पास ज्यादा पैसे होते तो मैं उसे ही लेती।' ऊँचे कंधे वाले आदमी ने तत्परता से टूट कर गिरते हुए आइसक्रीम के एक मोटे टुकड़े को बीच राह ही मुँह में लपक कर गिरने से बचा लिया। 'ज्यादातर मैं कॉरनेटो ही खाती हूँ।' ऊँचे कंधे वाला आदमी जेब से रुमाल निकाल रहा था। उसे शक था कि उसकी नाक के उभरे सिरे पर कोई हिस्सा दूध की सफेदी का या चॉकलेट के भूरेपन का लगा जरूर था। 'वहाँ बहुत भीड़ है। मैं जब तक लाऊँगी आपकी ये आइसक्रीम खत्म हो जायेगी तब तक। लाइये न फिर से पैसे।' दुबारे से - वह अकेला था अब। उसने अपने स्टिक से उस कीड़े को उठाया घास के बीच से बीन कर। कीड़ा पहले अगला हिस्सा आगे बढ़ाता था, फिर देखा देखी पीछे पीछे और पीछे का हिस्सा भी दुलक दुलक कर बढ़ता था और वह एक कदम आगे रेंग जाता था। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं था। वह दौड़ कर भागना न चाहे न सही, रेंग रेंग कर भी भागता तो तय था कि लड़की के लौटने तक उसका नाम निशान कुछ भी नहीं होता उस जगह। उसके हाथ काँप गये और कीड़ा स्टिक से फिसल कर नीचे गिर गया। वह झुक कर उसे खोजने लगा। वहाँ से न भाग पाने का बहाना उसे मिल चुका था! इवा कार्णिक इस हुनर को साध चुकी थी जिसमें कि कलियों की लंबी कतार के ऊपर से दौड़ कर गुजरना था इस करतब से कि एक कली तक मसलने न पाय। बिना चखे, सही चीनी की चाय वह बना सकती थी। बिना कहे वह प्यास लगने के पहले इजा को ग्लास भर पानी दे सकती थी। बिना नागा वह मुहल्ले के सारे कुत्तों को रोटी खिला सकती थी। बिना वजह वह अपनी सारी कॉपियों पर सुंदर सुंदर जिल्द चढ़ा सकती थी। उसका मन हर दो दो दिन पर एकदम विपरीत दिशा में पलट जा रहा था। उसके लिए कभी घर की पूरी दीवार ही दरअसल झिर्री थी, जिससे कि झाँक कर गहरे शाम के होने का इंतजार किया जा सके या कभी उसका मन एक हाथ में ब्रश और दूसरे हाथ में पेंट लेकर पूरी दुनिया पर न न न न लिखता चला जा रहा होता। कभी ऐसा अहसास कि क्रीम वक्त के पहले ही उसे तेज तेज गोरा बनाती जा रही है, कभी ऐसा कि दिन दिन बढ़ते साँवलेपन को आलू छीलने वाले औजार से त्वचा की परत छील कर ही विलगाया जा सकता है अपने आप से आदि। इस तमाम उलटन पुलटन के बाद मन इस बिंदु पर आकर स्थिर हो गया था कि अब अपनी चीजों पर उसका अख्तियार नहीं रहा कोई। वह एक ऊँचे कंधे वाले आदमी के पास अपने बाकी के सपने गिरवी रख कर आयी थी। विक्रम आहूजा बहुत धीमे धीमे खरचना चाहता था रात को। उसके शरीर पर पसीना था और कंठ के निचले हिस्से में बहुत सी प्यास जमा थी। वह आँखें मूँदता था तो पुतलियाँ चुभती थीं। वह आँखें खोलता था तो पलकें अपने को एक दूसरे के पीछे छिपाने लगती थीं। वह जब साँसें लेता था तो फेफड़े की माँसपेशियाँ विद्रोह कर देती थीं और जब वह साँसें छोड़ता था तो उसके आसपास की हवा उस छोड़ी हुई साँस को अपने में शामिल करने से इनकार कर दे रही थी। वह करवट बदलता था तो नीचे की जमीन अपने पैर तेजी से पीछे की ओर खींचने लगती थी और जब चित्त लेटता था तो असामान उसके सीने पर अपने दोनों पंजे धँसा कर झुक जाता था पूरी ताकत से। फिर भी वह रात को सँभाल सँभाल कर खरचना चाहता था। अँधेरे में जिस चीज को उसकी उँगलियाँ छू आयी थीं, क्या वह वही थी जिसे पहले भी कभी छू चुका था वह! दुनियादारी के उजाले में बात को सामने से बुहार बुहार कर हटाया जा सकता था पर अँधेरे की चकाचौंध में उमरदराज से उमरदराज सच अपने को नंगा कर देने को बेताब हो जाता है। फिर उसके सच की तो उमर हिचकी जितनी थी या एक बार की साँस को छोड़ चुकने के बाद अगले दान में ली जाने वाली साँसों की तलाश जितनी। उन्हें अपने ऊपर का चोंगा फेंकने में वक्त ही कितना लगता! हैरानी की बात थी कि कपड़े पहने हुए सच से भागता हुआ एक इंसान नंगे सच के सामने होने पर भी अँधेरा ही चाह रहा था। वजह यही कि इस सच की बेपरदगी में एक कोमलता थी और सुबह बिस्तर पर पहली रोशनी पड़ने के साथ जैसे ही वह सच कपड़े पहन लेता, उसमें दुनियादारी भर मिलावट घुस जाती और वह दुनिया, दुनिया जैसी लगने लगती। वसुंधरा कार्णिक के लिए यह एक दुर्लभ मौका था। दस्तक की आवाज पर दरवाजे के उस पार वाले को पहचान लेने की अपनी क्षमता को परखने का, क्योंकि दिन के कुबेरे में विक्रम आहूजा की आमद अप्रत्याशित थी। पर बदकिस्मती कि दरवाजा खुला हुआ था। दृश्य यह था कि दरवाजे के उस पार सब्जीवाली अपना बाजार समेट रही थी और वसुंधरा कार्णिक घर के भीतर चेंज टटोल रही थी। लिहाजा ऊँचे कंधे वाले आदमी का स्वागत दस्तक पहचान कार्यक्रम की जगह सब्जी वाली द्वारा अपनी दौरी दरवाजे के एक तरफ समेट कर उसके प्रवेश के लिए रास्ता बनाने के उद्यम से हुआ। वसुंधरा कार्णिक ने उसे ड्राइंग रूम के बीचोंबीच देखा तो उसका अंकगणित बिसुर गया और वह दो रुपये के चार और एक रुपये के दो सिक्के मिल जाने के बाद भी साबुत सात रुपये खोज लेने में असफल रही और उसने सब्जी वाली को दस रुपये थमा कर घटी बढ़ी अगले दिन पर छोड़ दिया। सब्जी की टोकरी उठ गयी। सब्जीवाली के पीछे पलटते ही वसुंधरा कार्णिक का कंठ सूख गया। उसने एक कोई हाथ तो बढ़ाया पर आवाज ही नहीं निकली जो लौटा सके सब्जीवाली को। 'कल की दोपहर मैं इवा के साथ था। हम डिज्नीलैंड गये थे।' 'हाँ मैंने अखबार में विज्ञापन देखा था। हफ्ते भर और चले शायद।' 'जाने के पहले आप से पूछ लेना चाहिए था।' 'मैं कहाँ जा पाती अब मेले में।' 'उसे ले जाने के पहले।' 'तुमने कुछ सोच कर ही नहीं पूछा होगा।' वसुंधरा कार्णिक के चेहरे पर अजीब सी धूप निकली उसकी नाक और दाहिने गाल के ठीक बीच में से। 'मैंने सोचा ही तो नहीं।' विक्रम आहूजा की आँखें चुंधिया गयीं। 'तुम तो जाना भी नहीं चाह रहे होगे। ये लड़की ही बड़ी जिद्दी है।' 'मैं चाहता तो जाने को आसानी से रोका जा सकता था।' 'अगर इसके माँ बाप होते तो मैं इतना नहीं सोचती इसके बारे में।' 'आप कहें तो मैं आज से ना।' 'नहीं।' वसुंधरा कार्णिक का 'नहीं' सामने वाले के ना पर चढ़ गया। 'तुम्हें क्या लगता है पढ़ने में कैसा करेगी ये?' 'पढ़ ही जायेगी।' 'तुम कभी कभी बगैर इत्तला किये उसका इम्तिहान ले लिया करो। किसी भी विषय का।' 'कभी क्या बल्कि आज शाम से ही शुरुआत कर दो।' 'शुरुआत न हो सोशल सांइस से कर दो। पिछली दफा सबसे कम अंक उसी में मिले थे। तो तय रहा आज सोशल साइंस की परीक्षा।' 'क्या वो तुम्हें पसंद करने लगी है?' 'मैं उसे रोक दूँगा।' 'और वो रुक जायेगी!' 'मान जायेगी।' 'तब तो और भी खतरनाक।' बहुत तेजी से वसुंधरा कार्णिक की कनपटी से उठी बादल की किसी लपट ने धूप को डुबो दिया। 'देखिए।' विक्रम आहूजा ने गला खखार कर फुसफुसाहट को स्पष्ट किया - 'अगर वह कुछ ऐसा सोचती भी होगी तो वह मिनट भर का खिंचाव होगा, जिसे तोड़ना आसान है।' 'क्या तुमने पहले कभी उसे रोकने के बारे में सोचा था?' 'उसने मेरी आँखों के आगे कभी कदम नहीं बढ़ाया कि रोका जा सके उन्हें।' 'देखना उसका मन बहुत कोमल है।' 'मैं देखूँगा।' विक्रम आहूजा का मन उलट गया। वह बार बार भूल जा रहा था कि वह अपनी पहल पर आया था। वह यह इंतजार करने लग जा रहा था कि कब वसुंधरा कार्णिक की बात खत्म हो और कब वह उसे जाने को कहे पर इसके पहले कि एक बार फिर वह भूल जाय, मन उलट जाने के बिंदु पर ही उसने अपने को उठा लिया उस घर से। वसुंधरा कार्णिक का मन हल्का था कि उसका संशय बँट गया किसी के साथ। साथ ही मन के भीतर एक गोल सी जगह घेर कर बैठी ग्लानि भी थी। वह जानती थी कि इवा कार्णिक के पाँव उठाते ही उसके कदमों को रोक देने की बात तय हो चुकी थी। और इस तयशुदगी में उसकी आधेआध की हिस्सेदारी थी। एक बड़ी चोट खाने के पहले इवा कार्णिक के इर्दगिर्द वह इतनी सारी छोटी छोटी खुशियाँ ला धरना चाहती थी कि लड़की को ठेस का अहसास हुए बगैर जख्म मिल जाय। मतलब! जख्म का मिलना तय था! वसुंधरा कार्णिक वहाँ से सीधे उठ कर लड़की के कमरे में गयी। पहला संयोग कि लड़की सोशल सांइस की किताब को अपने साथ स्कूल न ले गयी हो और दूसरा कि बेतरतीब बुक रैक में कम से कम श्रम से उसे ढूँढ़ लिया जा सके! पर किस्मत! उसने पहली किताब जो उठायी वह समाजशास्त्र की ही थी! वसुंधरा कार्णिक का काम ठीक तरह बुक रैक के आगे बैठने के पहले ही खत्म हो गया। वह बिना ठीक तरह से बैठे ही उठ सकती थी वापस। किताब उठा कर वह लपट की तरह उठी और मुड़ी ही थी कि उसकी चोरी पकड़ी गयी। लड़की खुली आँखों से उसे देख रही थी। उसके दोनों होंठों के बीच थोड़ा सा फाँक था, जिससे हँसी, अपनी देह समेट कर आसानी से आ जा सकती थी। उसकी बायीं बगल की लट ठुड्डी की लंबाई तक लटक गयी थी। लड़की पलकें झपकाये बगैर ताक रही थी और ऐसे ही ताकती रहने वाली थी बरसों तक। वसुंधरा कार्णिक का कंठ सूख गया और उसने किताब को आँचल में छिपा लिया। उसने साफ साफ देखा कि बुकशेल्फ के ऊपर रखे फोटो फ्रेम के पीछे से लड़की की मुस्कान सूत भर और फैली। इजा कहलाने वाली स्त्री आँचल में हाथ छिपाये छिपाये अपने कमरे में भाग गयी कपड़े की आलमारी तक। यह जख्म देने के लिए औजार को पैना करने की शुरुआत थी। बहरहाल लड़की के लिए खुशी जुगाड़ना किचन से कोई ललचाऊ खुशबू उठाने जितना आसान था या कि चौक के डिपार्टमेंटल स्टोर से कुरकुरे लाने जितना या कि उसकी नयी ड्रेस से मेल खाता क्लिप या हेयरबैंड लाने जितना। दूसरे मोर्चे पर इवा कार्णिक भी एक दिन पहले की दोपहर में तपे हुए एक धारदार छल की भरपाई में अपने आप को विनम्र और विनम्र बना कर पेश कर रही थी। उसके फैले होंठों की हँसी मन की उदारता को सँभाल नहीं पा रही थी और जहाँ कहीं उदारता छलक जा रही थी। खाना खा चुकने के बाद जब वसुंधरा कार्णिक उसके रूखे बालों पर हाथ फिरा कर जड़ों में तेल लगा देने को उद्यत हुई तो उसने अपने रोम रोम को सतर्क कर दिया। वह तत्क्षण इस प्रस्ताव के आगे न बोलना चाहती थी। पर उसके चाहने के पहले ही जुबान ने अपने अभ्यास के मुताबिक 'ठीक' कह दिया। इवा कार्णिक की मुड़ी मुड़ी लटों की जड़ में इजा की उँगलियाँ सहरने लगीं। इवा कार्णिक ने इजा के घुटनों में अपना चित्त माथा फँसा दिया। खून बेतहाशा माथे में इधर उधर दौड़ने लगा और उसकी आँखें मुँदने लगीं। वसुंधरा कार्णिक ने मुँदती मुँदती पलकों को कोई बाधा न पहुँचे इस आस में उँगलियों की छुअन को और धीमा कर दिया। उसे लग गया था कि जख्म दिये जाने के पहले सुख के सामान लड़की के लिए अपने हाथों से जुटा चुकी थी वह। उसकी आत्मा से बोझ छँट चुका था। उसकी खुद की भी पलकें मुँदने लगीं लड़की की पलकों की जुगलबंदी में। लड़की ने धीमे से कहा - 'मैं कल दोपहर सर के साथ घूमने गयी थी डिज्नीलैंड।' वसुंधरा कार्णिक के दो हाथ लड़की के बालों में सहर रहे थे, अलावा इसके दो हाथ और भी, जो आकस्मिक पलों के लिए छिपे थे, जिन्हें कि बढ़ा कर वसुंधरा कार्णिक ने लड़की के उघड़े हुए को ढक लेना चाहा। इवा कार्णिक ने दोहराया - 'सर के साथ।' इजा के संबोधन से पुकारी जाने वाली स्त्री ने कहा - 'चल हो गयी मालिश सिर की। बगैर झूठ बोले तेरा एक भी दिन चैन से गुजरता नहीं?' 'सोलह आने इजा।' 'हाँ सोलह आने! चल मैंने यकीन कर लिया।' 'सच में इजा।' 'मुझे उठने तो दे! सुन लिया।' इवा कार्णिक ने अपने होठों से उसके हाथों को छुआया एक पल के लिए और कहा - 'एह! शाम का पहला झूठ! मालिश करके मुझे नींद में ऐसा ठेल दिया था कि ठीक से निभा नहीं पायी।' बहुत महीन सा आँसू उसकी आँखों में सूख गया। पर उसकी परछाईं तेजी से नजरें बचाते बचाते भी इजा की आँखों में दिख गयी उसे। वसुंधरा कार्णिक ने अपने को दूसरी तरफ पलट कर लड़खड़ाते हुए जोड़ा - 'नींद! भूल जा नींद को! सुबह तेरे सर घर आये थे। पढ़ाई में तेरी लापरवाही से बहुत परेशान दिखते थे। और आज वे तेरी सरप्राइज टेस्ट लेने वाले हैं।' लड़की की तरफ मुड़ चुकी वसुंधरा कार्णिक की संयत गोल गोल पुतलियों में अब आँसू की छाया की जगह भेद भरी खुसफुसाहट दिखायी पड़ रही थी - 'उसके आने में अभी घंटे दो घंटे बचे हैं। जा तैयारी कर ले!' 'किस चीज की?' जवाब में आयी लड़की की फुसफसाहट जगह जगह से उघड़ी हुई थी। 'सोशल साइंस की।' वसुंधरा कार्णिक ने होंठों की बिदबिदाहट को देख कर पढ़ी जा सकने वाली फुसफुसाहट में सस्पेंस से परदा उठा दिया। लड़की दौड़ कर अपने कमरे में भागी। वसुंधरा कार्णिक ने गौर किया कि उसके हाथ खुद ब खुद जाकर आँचल के पीछे छिप गये थे। वह चौंकी किताब को क्या अभी तक आँचल के पीछे ही छिपाये बैठी थी वह! जवाब की तसल्ली में हाथ खाली खाली आँचल से बाहर आये सही, पर उनके पसीने पर किताब के निशान अभी भी मौजूद थे। दूसरे कमरे में तेज उकट पुकट मची थी। वसुंधरा कार्णिक चुप रह सकती थी। दबा सकती थी सरप्राइज टेस्ट की बात अपने तक। फिर भी उससे ऐसा हो गया। लड़की अपने कमरे में तबाही मचा कर उस तक आयी - 'आप झूठ तो नहीं बोल रहीं! मजाक?' 'नहीं! क्या हुआ?' 'बुक मिल नहीं रही सोशल साइंस की।' 'खोजो! वरना तुम पढ़ कैसे पाओगी!' उसने कहा था। कहा था या कहना चाहा था! शायद उसने कहा था, तभी लड़की ने कहा - 'क्या खोजूँ?' लड़की वापस अपने कमरे में भाग गयी। वसुंधरा कार्णिक आकर ड्राइंग रूम में बैठ गयी। उसकी एड़ियाँ काँप रही थीं। उसने एड़ियों को उठा कर गोद में डाल लिया। वह अपने धड़ को सोफे पर पूरी तरह उठंगा कर बैठी थी। उसके भीतर लड़की से रत्ती भर भी कम उथल पुथल नहीं मची थी। दूर दूर तक कोई खुशी नहीं थी न कोई रोमांच ही। वह अपने आप को पूरी सज धज से नीचे गिरता हुआ देख रही थी। बावजूद इसके उसने अपने को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया। वह अपने पैरों के कंपन को गिनती हुई बैठी रही। कुछ घड़ी बाद उसे ऐसा लगा मानों अलावा पैरों के कोई और आवाज आ नहीं रही। बगल के कमरे से आती आवाज थम चुकी थी! वह सरपट उठी और बगल के कमरे तक पहुँची। झाँक कर देखा उसने। लड़की सो रही थी या ऐसा मान सकते हैं कि अपने बिस्तर पर लेटी थी। बहुत शांत सी। चित्त। साँवली। आँखों को साँवले हाथों से ही ढाँप कर। लड़की का जन्म सातवें महीने में हो गया था। वह एकदम लिकलिक कमजोर सी थी। उसे रूई के फाहे में सहेज कर पाला गया इस तल्लीनता से कि वह गोरी है कि साँवली किसी के ध्यान में आया ही नहीं। इस सवाल से सामना सबसे पहले लड़की का हुआ और उसकी पहल पर वसुंधरा कार्णिक को इस सच का भान हुआ। वसुंधरा कार्णिक पस्त चाल लौट आयी। उसने अपनी आलमारी से किताब निकाला और उसे ले जाकर लड़की के बुकशेल्फ में रख आयी। वह सुनियोजित ढंग से जमीन को देखते हुए गयी थी और जमीन को देखते हुए ही लौटने की बात भी तय थी इसीलिए ऐन उसके मुड़ते वक्त बुकशेल्फ पर रखी तस्वीर ने ही अपने आप को गिरा लिया जमीन पर। इजा कहलाने वाली स्त्री की आँखें छन्न से उस पर पड़ीं। लड़की टूट कर भी मुस्कुरा रही थी। वसुंधरा कार्णिक यह भूल गयी कि उसे काँच चुनने की बजाये आवाज को चिनगा कर चिल्लाना था - यहीं बुकशेल्फ में तो रखी है किताब ठीक से ढूँढ़ तक नहीं सकती! उफ! या ऐसा ही कुछ भी! इवा कार्णिक को सत्रह सवाल मिले थे, जिनके जवाब छोटे छोटे होने थे। एक से दो डेग वाले। जवाब की कंजूसी ही वजह कि वह लंबे जवाब लिखने के बहाने देर तक कलम चलाते रहने का भ्रम भी नहीं रच पा रही थी। ऐसे में ज्यादा से ज्यादा वह कलम की नोंक को कागज पर टिका कर सोचने का दिखावा भर कर सकती थी, जो उसने किया। ऊँचे कंधे वाला आदमी अखबार पर झुका था। इजा सोफे पर बैठी थी चुपचाप से छत को ताकती - इवा कार्णिक ने पुतली और पलकों के बीच वाली जगह से महसूस कर लगा लिया यह हिसाब। कलम की बजाये उसके हाथों में अगर पेन्सिल होती तो उसकी नोंक को सुरीली करने के बहाने से वह वक्त को कुछ आगे खींच कर ले जा सकती थी। लेकिन किसके लिए? वक्त को काट लेना उसकी जरूरत थी कि जवाब को कटने से बचा लेना! ऐसे वक्त में उसकी आँखों में आँसू आने चाहिए थे बेबसी के स्वाद वाले, पर आँसू आये नहीं। उसने आँखें बंद करके दोहराना शुरू किया एक किसी सवाल को मन ही मन इस उम्मीद से कि जवाब न सूझने की बेबसी में आँसुओं को आँखों तक का रास्ता दिखाया जा सके। पर हुआ क्या! अभी सवाल अपने को तीन चार बार ही दोहरा पाया था और आँसू ने आँखों तक की अपनी यात्रा शुरू भी नहीं की थी कि चार अक्षर का जवाब भयानक आभा के साथ कौंध गया। इवा कार्णिक ने आँखें खोलीं और कॉपी पर पहला जवाब लिखा और आँखें वापस मूँद कर दूसरे सवाल को मन मन दोहराना शुरू किया लेकिन इस बार सवाल को तीन चार बार दोहराने की नौबत नहीं आयी। उसके काफी पहले ही सही जवाब की जगह एक आँसू पलकों के पीछे जाकर चिपक गया। इवा कार्णिक को इतनी जल्दी प्रतिक्रिया की उम्मीद न थी। पलकें हड़बड़ा कर खुल गयीं और उसने उस बूँद भर आँसू को अपने हिस्से के जवाब की राह देख रहे सवाल के बगल में लाकर धर दिया। इवा कार्णिक को ऐसा लगा मानों उसकी साँसें सीने में समा कर रह नहीं पायेंगी अब आगे। उसने अकबका कर बिना वक्त गँवाये बाकी के बचे रह गये पंद्रह सवालों के बगल में भी आँसुओं को धर दिया और कॉपी परीक्षक की ओर बढ़ा दी। परीक्षक ने चार अक्षर के एक जवाब के आगे सही का निशान लगाया और बाकी की खाली जगहों को एक सरसरी निगाह से खँगाल कर कॉपी बंद कर दी। उसे तेज आवाज में लड़की की ओर देख कर चिल्लाना था, पर वह कंठ से भीतर की ओर जाने वाली आवाज में वसुंधरा कार्णिक की ओर देख कर घिसघिसाया - 'पुअर स्कोर!' वसुंधरा कार्णिक जो छत की ओर देख रही थी, छत की ओर देखते देखते ही समझ गयी कि बात उससे कही गयी थी और जवाब में विक्रम आहूजा से बोल पड़ी - 'तुमने सुना! सुबह सब्जी वाली बता रही थी कि ट्रक मालिकों की हड़ताल के कारण अगले छह सात दिन भी सब्जियों के भाव चढ़े रहेंगे!' ऊँचे कंधे वाले आदमी ने कॉपी खोल कर उसके आगे बढ़ा दी - 'शी हैज स्कोर्ड ओनली।' वसुंधरा कार्णिक बिच्छू का डंक खाकर उसकी बात को अधूरेपन में काटती हुई उठी - 'तुम पढ़ायी जारी रखो। मैं देखती हूँ कि खाने में क्या बनाना है।' वसुंधरा कार्णिक किचन का रास्ता भटक कर लड़की के कमरे में जा पहुँची। वहाँ थरथर काँपने के अलावा एक दूसरा काम जो उसने किया वह था बुकरैक से सोशल सांइस की किताब को निकाल कर तसदीक कर लेना कि वाकई उसने जीते जागते ऐसा छल किया या सोते सपने में ऐसा कुछ देखा भर उसने! किताब के कवर ने उँगलियों की कोर को छूकर बता दिया कि छल वाकई उससे ही हुआ था। उसने अपने होठों को बायीं हथेली से ढक लिया इस मुस्तैदी से मानों उसके जबड़े अचानक दाँतों पर से अपनी गिरफ्त ढीली करने पर आमादा हो गये हों और वह उन्हें हर हाल में गिरने से बचा लेना चाह रही हो। उसके इस प्रयास से बिखरते दाँतों को तो फिर भी सँभाला जा सकता था पर एक तेज हूक को सँभालना उस जतन के बूते का भी न था। उँगलियों के पोरों से रिस कर आवाज कहीं कहीं बेपर्दा हो गयी थी, जिसे दूसरी हथेली से दबा कर कमरे की जद तक ही रोक लेने में कामयाब हो गयी थी वह। दूसरे कमरे में सोफे पर बैठी इवा कार्णिक इस तरह बेपर्दा होती चीजों को दमसा कर रखने का ढब नहीं जानती थी। वह ढुलढ़ुल आँसुओं के झोंके में सुबकने लगी। ऊँचे कंधे वाला आदमी सिर झुकाये लगातार उसी कॉपी के खुले पन्ने को देखता था। लड़की की हिचकी की ताल पर उसकी पलकें फड़फड़ाती थीं। वह परख रहा था कि कहीं उसने जरूरत से ज्यादा कठिन सवाल तो नहीं रख दिये लड़की के सामने! कहीं मन ही मन वह चाह तो नहीं रहा था कि लड़की के अंक कम आयें और उसे शर्मिंदा होना पड़े। उसने दुबारा से पढ़ा तो सवाल सारे उसे आसान ही लगे। अगर वह वाकई वैसा नहीं चाहता था तो चुप तो करा ही सकता था लड़की को। इवा कार्णिक ने अपने आप चुप हो जाने के प्रयास में जोरदार सुबकी ली। ऊँचे कंधे वाले आदमी ने अपनी तरफ से कोई प्रतिक्रिया न दिखाने के प्रयास में उस इकलौते सवाल को पढ़ा, जिसका जवाब लड़की ने सही लिखा था। सवाल को पढ़ने पर और उससे सटे जवाब को भी पढ़ने पर उसे लगा कि सवाल कठिन था, जवाब भी। वाकई! लड़की उधर उपसंहारसूचक दबी छिपी सिसकियाँ ले रही थी, इधर परीक्षक उसी सवाल के ऊपर नीचे वाले तमाम सवालों को एक एक कर कठिन सवालों के खाने में फेंकता जा रहा था। जैसे ही लड़की आखिरी हिचकी लेकर सामान्य हुई, वह इस निष्कर्ष पर पहुँच चुका कि उससे चूक हो गयी थी और सवाल दरअसल कठिन थे। उसने कहा -'फिर से सवाल लिखो दूसरे! ये तो बहुत कठिन थे!' लड़की के होंठों ने एक शानदार झूठ का मौका नहीं गँवाया। वह मुस्कुरायी। उसकी आँखों में देख कर विक्रम आहूजा के लिए यह यकीन करना कठिन हो गया कि लम्हे भर पहले आती सिसकियों से इस लड़की का कभी कोई संबंध रहा होगा! उसके भीतर कहीं कुछ चिनगा - कहीं उसे खबर तो नहीं थी अपनी इजा और ट्यूटर के बीच सुबह हुई मंत्रणा की! और शाम भर वह जो सब कुछ कर रही थी वह झूठ तो नहीं! ढोंग! वसुंधरा कार्णिक को ऐसा लगा मानों उसके जीवन से सारे स्वर निकल चुके हों और केवल ठस्स व्यंजन वर्ण बचे रह गये हों जिनके बगैर जीवन का कोई सार्थक मतलब न निकले, केवल ठूँठ संकेत खड़े हों जहाँ तहाँ। और उसका एक हाथ जिस संकेत को उघाड़ रहा होता है, दूसरा उसे ही ढक रहा होता है। अकेले लेटे रहने पर भी वह फैसला नहीं कर पा रही थी कि आखिर वह है किस तरफ! अपने पक्ष में? या अपना ही प्रतिपक्ष? और उसका अपना पक्ष ही कौन सा? लड़की की खुशी का पाला या उसके जख्म का पाला! या कि एक अलग ही खेमा, जिसमें सिर्फ कुंठाएँ थीं ईर्ष्या थी तिकड़म थे। रात घुटनों तक नींद में धँस चुकी थी कि एक चूड़ी भर टूटन ने वसुंधरा कार्णिक को उठा कर बैठा दिया। उसने अपनी दाहिनी कलाई को उठा कर देखने की कोशिश की। अँधेरे में बगैर चश्मे के भी साफ साफ दिखा कि चूड़ियाँ थीं नहीं वहाँ। पर चूड़ियों के पहनाये जाने के निशान फिर भी रह गये थे उधर। और वह दर्द भी, जो कलाई में पहनायी जाती एक चूड़ी के टूटने से जन्मा था, उस आवाज के साथ जिसने उसे जगा दिया था। और सबसे बढ़ कर चूड़ियाँ पहनाने वाले हाथों का खुरदुरा स्पर्श जो सबसे साफ दिखायी दे रहा था। किसके हाथ! उसके पति के नहीं! वह उछल कर बिस्तर से कूद गयी। अगले ही पल कमरे में रोशनी थी। उसने अपनी कलाई को गौर से देखा, जो ऊपर से नीचे तक खाली थी। बेदाग भी। बायाँ हाथ उस पर फिराया उसने। टूटी चूड़ी का दर्द अब भी महसूस हुआ कहीं। तो क्या कोई पिछला अध्याय था उसके अतीत के तहखाने में जिसने दिन रात दिमाग पर जोर डालने के बाद उसके सपने में ही सही, अपनी उपस्थिति दर्ज करानी शुरू कर दी थी! उसके जीवन में भी कभी कोई था जिसकी शक्ल नहीं कोई, पर जो था! वह नंगे पाँव लड़की के कमरे तक भाग कर गयी। उसे लगा कि उसके आस पास बल्कि उसके जीवन में ही कहीं बस लड़की ही बची रह गयी थी जिसके साथ वह अपने सुदूर अतीत से उड़ कर आया खुशी का एक पन्ना बाँट सके, जिस पर लिखा तो कुछ भी नहीं था, फिर भी जिसे पढ़ा जा सकता था। लेकिन एक कमरे के उजाले को लाँघ कर दूसरे कमरे के अँधेरे में दाखिल होने के रास्ते के बीचोंबीच ही उसे अहसास हो गया कि वह जो करने जा रही थी, उस काम को दरअसल बिना किये ही लौट आना था उसे बीच राह में। इवा कार्णिक के कमरे के मुहार से वापस लौटते समय उसकी चाल में एक इतराहट थी, जो अकसर चलते हुए पेटीकोट के तेज तेज फड़कने से सूँघी जा सकती है। वसुंधरा कार्णिक गमले की मिट्टी को खुरपी से उलट पुलट रही थी। उसके किसी एक हाथ में सोने की एक पतली चूड़ी थी, जिस पर गीली मिट्टी के दाग उछल उछल कर लग गये थे जहाँ कहीं। लड़की उसकी बगल में जाकर बैठ गयी। उसने किसी बहाने से अपने हाथ गमले की कोर पर रखे। आईने में जो दिखता था उस पर एक तुलनात्मक अध्ययन की मुहर भर लगा लेना चाहती थी वह चोरी वाली सरसरी निगाह से। दोनों हाथों में दूरी थी फिर भी चमड़े के अंतर की पहचान करना वाकई नजर भर का काम ही साबित हुआ। हताशा ने पलक भर के वक्त में इतनी सधी तेजी से उसे अपनी गिरफ्त में लिया कि चोरी की बात को भूल कर वह बेलाग पूछ बैठी - 'मेरा रंग ऐसा कब तक रहेगा?' वसुंधरा कार्णिक ने चौंक कर पहले उसे देखा, पीछे दोनों हाथों को। तीन अलग अलग भाव क्रम से उसके मन में आये। सबसे पहले ममता, उसके पीछे अपराधबोध और उसके भी पीछे कुटिल सी खुशी। उस तीसरे भाव के चंगुल में फँस कर उसने साँस छोड़ी - 'जन्म का रंग साथ कैसे छोड़ सकता है!' लड़की ने अपने हाथ खींच लिए। वह बगैर वक्त गँवाये अपने कमरे की ओर भाग गयी। वसुंधरा कार्णिक ने बहुत लंबी सी गंभीर साँस ली। उसका मन हलका हो गया और वह मिट्टी को दुगुने उत्साह से उकटने लगी। ऐसे छलके उत्साह से कि पौधों की नाजुक जड़ों को खुरपी की धार से बचने के लिए अपने आप में अपने आपको छिपाना पड़ा। फिर भी गमले कम पड़ गये। और उत्साह बचा ही रह गया। पड़ोसियों के गमले का भी विकल्प था पर विवेक ने उत्साह की कलाई दबा दी। वसुंधरा कार्णिक सजग हुई अवश्य पर उत्साह में फीकापन नहीं झलका। उसने साड़ी का पल्लू कमर से निकाला और गमले पर पोतने के लिए गेरुआ रंग खरीदने वह चौक तक चल दी। दुकान से दो कदम पीछे रह जाने पर उसे खयाल आया कि पैसे लेना वह भूल गयी। फिर भी उसका उत्साह नहीं कुम्हलाया। वह घर तक लौटी वापस। दुबारे के रास्ते में उसकी मुट्ठी में गेरू के लायक पैसे थे। गेरु के खरीदे जाने तक, घर वापस आने तक, उसके पानी में घुलाये जाने तक, गमलों की रँगाई शुरू किये जाने तक उत्साह की मात्रा टस से मस नहीं हुई। पर अभी एक तिहाई ही गमले रंगे गये कि अचानक उसका उत्साह खत्म हो गया। ब्रश चलते चलते अचानक थम गया। रंगे जाते हुए गमले में तीन चार अंगुल भर ही जगह बची रह गयी थी बेरंगी। पर ब्रश जहाँ रुक गया था उसके आगे एक कदम भी चलने से उसने इनकार कर दिया। वसुंधरा कार्णिक ने बहुत प्रयास किया - अपने मन को ठुकठुकाया। हार कर उसे उलट भी दिया कहीं किसी कोने में दुबके रह गये तीन चार अंगुल भर उत्साह की तलाश में, पर मन एकदम खाली था। बूँद भर की भी गुंजाइश नहीं थी। वसुंधरा कार्णिक ने हार कर अधरंगे गमले के आगे से अपने को उठा लिया। ब्रश पीछे जमीन पर ही पड़ा रह गया। वसुंधरा कार्णिक अपने कमरे में आकर उकड़ू बैठ गयी कि लेट गयी। कुछ घड़ी ठहर कर किचन से बरतन के निकाले जाने की, खाना परोसे जाने की, परसन लिए जाने की, थाली वापस धोये जाने की, बरतन रखे जाने की छिटपुट आवाजें आती रहीं। वसुंधरा कार्णिक हिली नहीं। लड़की के कमरे से कपड़े बदलने की, दो दो चोटियाँ गूँथने की, ट्यूब को खोज कर ट्यूब तो खो चुकी है यह याद करने की आवाजें आती रहीं। वसुंधरा कार्णिक हिली नहीं। ड्राइंग रूम से गहरे गहरे कदमों से किसी के चलने की, घर का दरवाजा खोलने की, बाहर निकल कर फिर से उसे सटा देने की आवाजें आती रहीं। वसुंधरा कार्णिक बस हिली नहीं। वह उछल कर बिस्तर से उतर गयी। बिना क्रीम वाले साँवले चेहरे में लड़की के विदा ले चुकने के बाद वसुंधरा कार्णिक ने लपक कर दरवाजा बंद कर दिया। उसके पास एक खतरनाक इरादा था। उसने आईने को अपने आगे खड़ा कर दिया। उसने अपने बालों से जिम्मेदारी के भार से अर्धवृत्ताकार हो चुके क्लिप को निकाल फेंका। बालों में बेमौसम एक तिरछी क्यारी निकल गयी और वसुंधरा कार्णिक अपनी आँखों में आँखें डाल कर सरपट दो चोटियाँ गूँथती चली गयी। अगली छापामारी में साड़ी के पिन को निशाना बनाया गया। साड़ी को नाभि के पास से एक बार पकड़ कर बेदखल कर दिया जाय तो साड़ी लगभग खुली चुकी मान ली जा सकती है। वसुंधरा कार्णिक ने अपने चालीस साल के अनुभव की बिना पर साड़ी को सबसे कम समय में पूरी तरह खोल देने का शार्टकट अपनाया। वह साड़ी के फंदों को तड़पा कर इवा कार्णिक की आलमारी तक दौड़ गयी। लड़की के तूफानी स्कर्ट्स, जींस और नाइटसूट के बीच से कुर्ता सलवार का जोड़ा बीनना था कठिन पर उसकी पकड़ में एक सलवार की मोहरी आ ही गयी। सलवार में साढ़े तीन मीटर कपड़े दुबके पड़े थे। पर उसकी जोड़ का पटियाला कुर्ता वसुंधरा कार्णिक को अपने में कभी भी समा नहीं पाता। एक दूसरे, जिप से खुल सकने वाले कुर्ते की जिप खोले खोले वह गले के रास्ते प्रवेश तो कर सकती थी पर कमर के ऊपर आकर यहाँ भी बात अटक जाती थी। वह वापस उसी रास्ते कुर्ते से बाहर आ गयी और उसने अपने शरीर के अगले हिस्से के आगे कुर्ते को बस खड़ा कर दिया और उसके पीछे से झाँक कर आईने को इस भ्रम में डालने के इरादे से देखने लगी मानों उसने कुरता सच का पहन ही रखा हो! इस भ्रम के सीने पर दो चोटियाँ डुलाते हुए अपने आप को अतीत के तहखाने तक खींच ले जाकर अपनी खोज को जारी रखने का जुनून, अपनी दयनीय पहचान को टुकुर टुकुर तकने के अभियान में बदल गया। शाम गहरा गयी थी और लड़की अभी तक लौटी नहीं थी। वसुंधरा कार्णिक को ऐसे वक्त में घर के दरवाजे पर होना चाहिए था चहलकदमी करते हुए और उसकी धड़कन को सीने से बाहर आकर धड़कना चाहिए था अपनी गति की सीमा लाँघ कर। पर वर्तमान में वसुंधरा कार्णिक अँधेरे कमरे में लेटी थी और उसका दिल भी टिम टिम किस्म का धड़क रहा था। अचानक कमरे की बत्ती जली और वसुंधरा कार्णिक की पुतलियाँ बहुत धीमे धीमे मुड़ीं उस तरफ, जहाँ से आवाज आयी - 'आप ऐसे लेटी हैं! मेरे कमरे में!' एक सवाल यहाँ किया जा सकता था - 'तुम भीतर कैसे आयी!' 'दरवाजा खुला था। मैं अंदर आ गयी।' एक सवाल यहाँ किया जा सकता था - 'कहाँ थी इतनी देर तक?' 'स्कूल के बाद सर के साथ चली गयी थी।' एक सवाल यहाँ किया जा सकता था - 'किससे पूछ कर?' 'आप इतनी चुप क्यों हैं? तबीयत।' एक सवाल जो यहाँ नहीं किया जा सकता था - 'शाम हो गयी क्या?' 'रात होने वाली है।' वसुंधरा कार्णिक बहुत आहिस्ता से उठ कर बैठ गयी। लड़की उसके पास आकर बैठ गयी - 'दरवाजा खुला कैसे रह गया।' 'भूल हो गयी होगी! तेरी ट्यूशन का वक्त।' लड़की ने चहक कर कहा - 'वे अब नहीं आयेंगे। कल सुबह वे शहर छोड़ कर जा रहे हैं।' एक सवाल जो यहाँ कतई नहीं किया जा सकता था - 'नहीं आयेंगे! मतलब?' लड़की ने पलकें झपकायीं - 'यहाँ नहीं आयेंगे!' एक सवाल जो यहाँ नहीं किया जा सकता था - 'कैसे नहीं आयेंगे!' 'जैसे नहीं आया जाता है वैसे ही।' एक सवाल जो यहाँ कभी नहीं किया जा सकता था - 'मेरा क्या होगा।' लड़की ने मुस्कुरा कर कहा - 'आप दो चोटियों में अच्छी लगती हैं।' वसुंधरा कार्णिक के होंठों के बीच फाँक बन गयी और उसके हाथ चोटियों की जड़ तक जाकर बंधन को खोलने लग गये। होंठों की फाँक में तसल्ली थी कि पंद्रहवें सोलहवें सत्रहवें साल से खौफ का काँटा निकल गया था। चोटी की जड़ में हूक थी कि काँटे की वजह से उसकी सफेद जिंदगी में ईर्ष्या, तलाश, बेचैनी, दर्द के जो रंग आये थे, वे सब अब नेपथ्य में चले जायेंगे फिर से और हलचल की अगली तलाश तक वापस जिंदगी सफेद होगी। कोरी। लड़की मुस्कुरायी हालाँकि गैर तैलीय त्वचा पर हल्की मूँछों का मौसम था और छनछनाहट होती थी होंठों के ऊपर, मुस्कुराने में। फिर भी। उसके होंठ कहते थे कि अब तक जो कुछ भी उसने कहा वह सिरे से सच था। लड़की की आँखों में पारदर्शी कुछ चमक रहा था। उसकी आँखें सुनती थीं कि होंठ जो कह रहे थे वह पाँव तक झूठ था। रात अभी भी हल्की साँवली थी। वसुंधरा कार्णिक अभी भी खड़ी थी, पर अपने कमरे की खिड़की से लग कर। और बहुत घड़ी बाद उसे होश आया कि वह हाथ खिड़की से बाहर फैलाये खड़ी थी। यह उसके जीवन की सबसे भयानक नाटकीय मुद्रा थी, पर इसकी सुध आने पर भी वह अपने हाथों को वापस नहीं खींच सकी। हाथ अकड़ गये थे कि मच्छरों ने आगे बढ़े हाथ पर धावा बोल दिया था। कुछ भी। फिर भी। बल्कि वह रात को जागी ही थी, यह तक यकीन से नहीं कहा जा सकता। उस रात का यकीन बगल के कमरे से आते महीन पंद्रहसाला खर्राटे पर टिका था। जमाने बाद लड़की सो रही थी, जबकि वसुंधरा कार्णिक जाग रही थी या शायद सो नहीं रही थी। जो भी था, सुबह हो चुकी है यह सूचना रात को पहले पहल उसने ही दी। और सूचना देने के फौरन बाद वह घर से बाहर निकल गयी। गंतव्य तक पहुँचने के पहले की उसकी उधेड़बुन एक असरकारी वाक्य तलाशने की थी, जिससे कि शहर छोड़ कर जाते हुए किसी व्यक्ति को रोक कर रख लिया जाय, पर वहाँ पहुँचने के बाद की उसकी उधेड़बुन उससे भी ज्यादा असरकारी वाक्य तलाशने की थी, जिससे कि कुछ भी छोड़ कर कहीं भी जाने का कोई ख्याल न रखने वाले आदमी के आगे अपनी इस कुसमय उपस्थिति को जायज साबित किया जा सके। इतवार के दिन वह चाहती थी कि लड़की को दिन में भी पढ़ाया जाय जैसा कुछ। वसुंधरा कार्णिक ने गौर किया था कि लड़की के नाम से जरा सा भी संबंध होने पर झूठ अपने को खुद ब खुद गढ़ लेता था। लड़की के नाम का जिक्र आते ही उसकी मुट्ठी बँध गयी। मुट्ठी के साथ धोखा हुआ था! विक्रम आहूजा जाग कर उठा था। वसुंधरा कार्णिक ने घर पर नजर दौड़ायी। घर को 'कहीं जाना है' की खबर तक नहीं थी। हालाँकि वह ड्रांइग रूम में थी और उस कमरे में ऐसा कोई सामान अमूमन हुआ नहीं करता था, जिसकी सज धज को घर के मालिक के पलायन का प्रतीक करार दिया जा सके। फिर भी उसने सूँघ लिया दीवारों से कि जाना वाना किसी को नहीं था। इतने के बावजूद भी उसने पूछ लिया - 'कहीं निकलना तो नहीं तुम्हें?' विक्रम आहूसजा को भी कैसे तो लग गया कि उस सवाल का जवाब नहीं देने से भी काम चल जायगा उतने ही कदम, जितने कि जवाब देने से चलता। विक्रम आहूजा को तुरत फिर से एक बार कैसे तो लग गया कि वह इतनी सुबह सुबह उसे अपने साथ ले जाने ही आयी है। वह चार उँगलियों की लचक से आगंतुक को बैठा कर अपने को तैयार करने भीतर की तरफ भागा। वापसी के रास्ते में वह विक्रम आहूजा के आगे आगे खरहे की तरह फुदक रही थी। वह खूब गहरी गहरी साँसें ले रही थी और उसे लग रहा था कि रोज सुबह ताजा हवा में सैर न करके उसने कितने तो स्वास्थवर्धक पल गँवा दिये। अपार्टमेंट में नीचे बित्ते बित्ते भर की गुलदावदी पसरी थी। उन्हें भर आँख देख कर उसे अहसास हो रहा था कि उसने अपनी बागवानी में कोताही कर कितने तो बित्ते बित्ते भर के अचम्भे गँवा दिये। एक साँस में और एक नजर भर में इतनी चीजें गँवा देने के बाद भी वह खुश थी। वह साड़ी के फंदों के नीचे दोनों एड़ियाँ जोड़ कर और अँगूठे छितरा कर चल सकती थी या कि अँगूठे ही जोड़ कर और एड़ियाँ छितरा कर। उसने पीछे घूम कर कहा फिर से या पहली बार पता नहीं। कुछ भी। फिर भी उसने कहा - 'तुम्हें कहीं जाना तो नहीं था!' जवाब जानने के लिए उसे कानों की नहीं आँखों की जरूरत पड़ेगी। वह जानती थी। उसने विक्रम आहूजा को न में गरदन डुलाते हुए देख लिया, तब आँखों को वापस मुड़ने की राह पर डाला उसने लगभग अपने आप को गिरा हुआ ही महसूस किया। विक्रम आहूजा ने कूद कर उसे सँभालना चाहा पर तब तक एड़ी मुड़ चुकी थी! 'क्या हुआ?' 'छल! क्या तुम भी इसमें शामिल थे!' वसुंधरा कार्णिक ने सिर झुका लिया - 'कुछ नहीं। गड्ढा था।' विक्रम आहूजा ने उसके चेहरे को पहली बार देखा खुलेपन में। उसे लगा वह किसी अजनबी भाषा में सरपट बुदबुदायी कुछ। विक्रम आहूजा ने आँखों को बंद कर फिर से खोला। उसे लगा कि हालाँकि सामने वाली स्त्री से पूछा नहीं गया उसके पहले के कहे का मतलब फिर भी वह गालों में गड्ढे धँसा कर मुस्कुरायी बस। उसने याद करने की कोशिश की कि उस स्त्री के गालों पर गड्ढे पहले कभी पड़ते भी थे क्या! पर जवाब में उसे आयरिश गड्ढों की गहरायी ही याद आयी केवल। उसने देखा वसुंधरा कार्णिक उससे फर्लांग भर आगे निकल चुकी थी। उसे लगा कि बादलों का एक गुच्छा बिना उसको छुए ऊपर से निकल गया। अपने घर के भीतर घुसने के लिए वसुंधरा कार्णिक को दरवाजे पर दस्तक भी नहीं देनी पड़ी। परदा दरवाजे का, घुटने उठा कर लहरा रहा था। लड़की ड्रांइग रूम में पार्टिशन के उस तरफ किताबें बिखरा कर अध्ययन कक्ष की परिकल्पना साकार किये तैयार बैठी थी। ऊँचे कंधे वाले आदमी को मालूम था कि उसे कहाँ बैठना है मंच पर। उसने बैठते ही सामने की किताब उठा ली। रोशनी का घेरा उन दोनों के ऊपर से उठ चुका था। वसुंधरा कार्णिक पार्टिशन के उस पार भीतर की तरफ बढ़ गयी। उस पार कदम धरते ही दीवार मिल गयी, जिससे टिक कर नीचे नीचे और नीचे ढहना संभव हुआ। बैठते ही वसुंधरा कार्णिक का जूड़ा ढलक कर खुल गया पूरी तरह बाल की लंबाई में। परदों की ढँकास से आती अलसायी रोशनी में अंधकार का एक सुडौल वृत्त, उसके चेहरे की नाप जोख का, सामने खड़ा हो गया। वसुंधरा कार्णिक ने अपने डिम्हे के बंजर भूरेपन में उस वृत्त को देखा। आईने के सुकून से। धोखा था यह! पर उस प्रजाति का जो खाये जाने के लिए ही बना था। अँधेरे के वृत्त में जो चेहरा दिखता था वह जवान था। वसुंधरा कार्णिक हड़बड़ा गयी। उसने दोनों हाथों से आईने को पकड़ लिया और उसे हिला डुला कर हर ऐंगल से सच को परखने लगी। पर सच वही था। जवान जवान और जवान होता जाता चेहरा, वसुंधरा कार्णिक के हाथों से हड़बड़ी में आईना छूट गया और उसने दोनों हाथों से अपने चेहरे को थाम लिया। पर आश्चर्य कि आईना टूटा नहीं! टूटा नहीं क्या वह गिरा तक नहीं! गिरा नहीं भी नहीं, बल्कि वह डिगा तक नहीं अपनी जगह से। वह टँगा रहा उसके चेहरे के सामने, जवान चेहरे के सामने। वसुंधरा कार्णिक घसीट कर उसके और करीब सिमट आयी। इतनी कि उसकी नाक की नोक से आईने के उस पार वाले जवान चेहरे के गालों में गड्ढे पड़ जायें। पर हुआ उल्टा। आईने के भीतर की पलकें वसुंधरा कार्णिक के चेहरे पर लकीरें खींचनें लग गयीं। वसुंधरा कार्णिक ने उँगली के पोर से उन्हें मिटाने की कोशिश की पहले। फिर उन निशानों को जिन्हें उम्र की पलकों ने उगा रखा था उसके अपने चेहरे पर। पर मिटने की बजाय वे लेपाने लग गयीं चेहरे पर। वसुंधरा कार्णिक को बल्कि ऐसा दिखा आईने में कि लड़की आ गयी वहाँ - अपनी उँगलियों से फेयरनेस क्रीम को चेहरे पर लपेसती लड़की। वसुंधरा कार्णिक के सीने को बाँस की खपच्ची के तीखेपन से छीला किसी ने। उसे दुनिया अच्छी नहीं लगी। उसने दाहिनी हथेली को बढ़ा कर आईने के वृत्त को ढाँक दिया। उसका माथा नीचे झुका। नीचे उस रोज के टूटे फोटोफ्रेम के काँच का एक कोई टुकड़ा रह गया था, उसके चुनने से बचा हुआ, कोई दूसरा वक्त होता तो वसुंधरा कार्णिक चौंक सकती थी। घर की सफाई में हुई अपनी इस चूक से। पर इस वक्त उस टुकड़े ने उसे समेट लिया। टुकड़े के तीखे कोरों से कटी तस्वीर में आड़ी तिरछी झुर्रियाँ और एक मोटी सफेद लट थी। वसुंधरा कार्णिक ने आँखें बंद कर लीं। उसे चुनना था किसी एक को। गरदन उठा कर अँधेरे के वृत्त को या गरदन झुका कर काँच के टुकड़े को। उसे आगे जाना था कि लौट जाना था पीछे। वसुंधरा कार्णिक ने गरदन ऊपर उठा कर आँखें खोल दीं। पिछला अगले पर भारी पड़ा था। फैसला हो चुका था। पर अँधेरे का वृत्त नहीं था वहाँ कहीं भी! आईना नहीं था न शक्ल कोई! उसने भयानक चेहरे से दोनों हाथों को खोल कर घुमाया हवा में। तलाश। कहीं कुछ नहीं था। उसकी साँसों से एक तेज चिघ्घार की परछाईं निकली। वह खड़ी हो गयी। उसने डग बढ़ाये दोनों हाथों से। फिर भी कुछ नहीं था। कुछ था! उसके पैरों में कोई टुकड़ा चुभा। या ऐसा ही कुछ भी। वह बिलबिला कर नीचे बैठ गयी। उसका माथा घुटने पर ढुलक गया था। उसने एक उँगली को जमीन पर डग भर आगे बढ़ा दिया किसी तीखे कोर वाले टुकड़े की तलाश में।
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यूँ तो सरसरी तौर पर यह एक सनसनीखेज फिल्मी पटकथा है जिसे पढ़ते हुए डर है कि कहीं लोग किसी ब्लू फिल्म का आनंद न लेने लगें। हालाँकि ब्लू फिल्म में भी कहीं कोई आनंद होता है, यह एक अलग विवाद का विषय है। फिलहाल इस कहानी में कहीं-न-कहीं, कुछ-न-कुछ तो ऐसा है जो इस अनजान अबोध लेखक को बाध्य कर रहा है लिखने को, और लिखना भी ऐसा कि रातों की नींद हराम हो जाए। तो लिखना पड़ रहा है, इस डर के साथ कि लोग पढेंगे और हँसेंगे। हालाँकि हँसना अच्छा है, स्वास्थ्यप्रद है, फिर भी कभी कोई कहानी पढ़कर हँसना त्रासद भी हो जाता है। ठीक उसी तरह जैसे किसी ब्लू फिल्म का आनंद त्रासद होता है। तो मित्रो, यह कहानी की भूमिका थी और मुझे लगता है कि जरूरी थी। क्यों जरूरी थी, इसका कोई जवाब नहीं है मेरे पास। सिर्फ कुछ संभावनाएँ हैं और उन संभावनाओं से ही इस कहानी का विकास होना है। पहली संभावना यह कि कथाकार को डर है एक ऐसी फिल्मी पटकथा से जिसमें एक होता है नायक और एक होती है नायिका। दोनों पूरे नौ दिन संभोगरत रहते हैं। सो भी खजुराहो के किसी बियाबान होटल में। जंगल में नहीं रहते, यही गनीमत है। खजुराहो में नायक और नायिका का नौ दिनों का संभोग यहाँ कोई रूपक नहीं है। यह दरअसल कई रूपकों का एक रूपक है। दिक्कत यह है कि मिथकों के इस देश में इस कार्यक्रम के लिए फिलहाल हमारे पास ऐसा कोई शब्द नहीं है जो इसकी संपूर्ण व्याख्या कर सके। इसलिए हम इसे संभोग ही कहेंगे। हालाँकि मनोरंजन की तर्ज पर कुछ लोग इसे तनोरंजन भी कहते हैं। लेकिन उससे अर्थ की जटिलता कहीं और ज्यादा जटिल न हो जाए, इसलिए फिलहाल उसे छोड़िए और आइए अपने उस मूल कथानक की तरफ जहाँ वस्तुतः कथाकार की इन ऊलजलूल बातों और शुरुआतों का सार छिपा है। इस कथानक का नायक है एक कलाकार जो वस्तुतः आवारा है और बेवजह चित्र बनाता है। इस कथानक की नायिका है भारतीय मूल की एक धनाढ्य फ्रांसीसी युवती जो वस्तुतः एक टूरिस्ट है और भटकते-भटकते यहाँ आ पहुँची है खजुराहो में। खजुराहो का इतिहास एकाएक जाग उठा है इन दोनों के यहाँ आने से, और कहानी है कि बार-बार भागना चाहती है इतिहास की उन्हीं मध्ययुगीन कंदराओं में जहाँ चंदेल वंश के परम प्रतापी राजा धंगदेव ने कभी एक सपना देखा था। सपने में उन्होंने जो देखा वह इतिहास की नहीं, बल्कि इतिहास के बाहर की कथा है। कहते हैं कि राजा धंगदेव काफी उदार, स्नेहिल और प्रजावत्सल राजा थे। जैजाकभुक्ति का उनका सिंहासन इंद्र के सिंहासन से कहीं जाता अटल माना जाता था। इतिहास का यह वही दौर था जब पूरे हिंदुस्तान में कहीं कोई केंद्रीय शक्ति नहीं बची थी। दक्षिण में राष्ट्रकूटों का पराभव हो चुका था और कन्नौज पर एक कमजोर और नपुंसक राजा राज्य कर रहा था। उत्तर में गहड़वाल थे, दक्षिण में पांड्य, होयसल, चालुक्य और यादव। दिल्ली में जरूर चौहानों के सशक्त दावेदार काबिज हो चुके थे। पश्चिम में मुल्तान की सीमा उस समय भी सबसे कमजोर सीमा मानी जाती थी और हर समय मुस्लिम आक्रांताओं का खतरा वहाँ मंडराया करता था। पूरे हिंदुस्तान का कहीं कोई नक्शा नहीं था और सीमाओं में अक्सर उलटफेर हो जाया करते थे। जिस समय राजा धंगदेव ने वह सपना देखा उस समय भी जैजाकभुक्ति के चंदेल कन्नौज के प्रतिहार नरेश से युद्ध में व्यस्त थे। चूँकि राजा धंगदेव का सपना इतिहास के बाहर की कथा है इसलिए इतिहास में उसका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन राजा धंगदेव ने सपना देखा था और सपने में उन्होंने देखा कि तंत्र की अधिष्ठात्री देवी तारा अपने प्रचंड आवेग में प्रकृतिस्थ हो, उनके निकट और निकट चली आ रही हैं। उनकी देह का अपना एक व्याकरण, अपनी एक भाषा थी। देवी तारा हँसीं और भयानक अट्टहास पूरे ब्रह्मांड में गूँजने लगा। "मुझे भक्त नहीं, प्रेमी चाहिए राजन!" देवी तारा एक कुटिल मुस्कान से मुस्कराईं। राजा धंगदेव काँपने लगे। एकाएक देवी तारा की वीभत्स नग्न मुद्रा एक लावण्यमयी चंचल सुकुमारी में तब्दील होने लगी। राजा ने देखा की वह चंचल सुकुमारी और कोई नहीं, उन्हीं की पुत्री राजकुमारी अलका थी। उधर प्रतिहार नरेश से युद्ध चल रहा था और इधर राजा धंगदेव अपने उस सपने का गूढ़ार्थ खोजने में अपनी तमाम राजनीतिक प्रतिभा को दाँव पर लगा रहे थे। कवि, ज्योतिषी, तांत्रिक, साधु, संन्यासी सब के सब राजा का सपना विचार रहे थे और इधर देवी तारा थीं कि हर रात पंचमकार में लिप्त अपने भक्तों पर जादू कर रही थीं। राजा का सुख, चैन सब छिन गया, भूख मर गई, नींद हराम! अराजकता के उसी दौर में राज्य में एक भयानक महामारी आई। जैजाकभुक्ति के चंदेलों का सिंहासन डोलने लगा। यह वही सिंहासन था जो कभी इंद्र के सिंहासन से कहीं ज्यादा अटल माना जाता था। राजा मौन थे और सिंहासन डोल रहा था। उस भूखे कलाकार की खोज में राज्य की पूरी सैन्यशक्ति लगा दी गई और अंततः कलाकार ढूँढ़ लिया गया। भूख से बेहाल, फटेहाल कलाकार ने बताया कि देवी तारा निरंतर उसके स्वप्नों में भी आती रही हैं और प्रेम की भीख माँगती हैं। राजा स्तब्ध। चिंतातुर। उसने अपने मंत्रियों व पुरोहितों से परामर्श किया। मगर राजा धंगदेव के स्वप्निल नेत्र इस महादेश की उस मिथकीय दुनिया में चले गए थे जहाँ कैलाश पर्वत पर विराजमान भगवान महादेव को एकाएक ज्ञात हुआ कि इस महादेश का काम कुंठित हो गया है। उस समय देवासुर संग्राम चल रहा था और बैकुंठ स्वामी भगवान जगन्नाथ चिंतातुर क्षीरसागर पर टहल रहे थे। युद्ध और युद्धातुर शक्तियों को रोकने का अब कोई विकल्प नहीं बचा था और उधर असुरों की प्रचंड शक्ति देवताओं को छिन्न-भिन्न कर रही थी। युद्धलिप्सा से त्रस्त भगवान महादेव ने एकाएक एक निर्णय लिया और देवी पार्वती के साथ नौ दिनों के महाअनुष्ठान पर चले गए। युद्ध चल रहा था और भगवान महादेव अज्ञातवास पर थे। अज्ञातवास का एक-एक दिन जब बरसों लंबा खिंचने लगा तब बैकुंठ स्वामी भगवान जगन्नाथ की व्याकुलता बढ़ी। वे दौड़ पड़े उस एकांत स्थल की तरफ जहाँ भगवान महादेव उस महाअनुष्ठान में रत थे। उस महाअनुष्ठान में रत भगवान महादेव की ललाटाग्नि धक्-धक् जल रही थी और मस्तक पर किशोर चंद्रमा अपनी शीतल रश्मियाँ बिखेरते हुए विराजमान था। द्वारपाल ने भगवान जगन्नाथ को उस महाअनुष्ठान कक्ष में जाने से रोक दिया। शिष्टाचारवष भगवान जगन्नाथ रुक गए। लेकिन कब तक? दो दिन, चार दिन पूरे नौ दिन तक भगवान महादेव अनुष्ठान कक्ष से बाहर नहीं निकले। सहस्रबाहु भगवान जगन्नाथ को क्रोध आ गया। दनदनाते हुए पहुँचे गर्भगृह में और जो देखा वह सृष्टि का वही रहस्य था जो कभी कहा नहीं गया और जिसे कहने के प्रयास में इस धरा-धाम के तमाम कवि-द्रष्टा पागल हो गए। युद्ध लिप्सा से त्रस्त और क्रोध के वशीभूत सहस्त्रबाहु भगवान जगन्नाथ ने भगवान महादेव को जो शाप दिया उसके अनुसार उन्हें इस मर्त्यलोक में युग-युगांतर तक लिंग-योनि के रूप में ही पूजा जाना था। भगवान महादेव के लिए यह शाप एक वरदान भी था। राजा धंगदेव तत्पर थे इस अधिकार को देने के लिए मगर इधर राजकुमारी अलका थीं कि राजा का प्रतिपक्ष बनी हुई थीं। पूर्व के तांत्रिकों का समूह नित नई दार्शनिक व्याख्याएँ दे रहा था और भूख से पीड़ित कलाकार शिल्पी तटस्थ द्रष्टा की मुद्रा में आ गया था। राज्य के सभी स्त्री-पुरुषों को देह का अधिकार मिल चुका था। दुंदुभि बज रही थी। समाज के तमाम नीतिज्ञ पुरुषों का विवेक देवी तारा ने एक ही झटके में हर लिया था। भगवान महादेव का आशीर्वाद, देवी तारा की इच्छा कि खजुराहो की इस पुण्यभूमि में एक मोक्षमार्ग बने, लिंग-योनि की पुनः प्राणप्रतिष्ठा की जाए, अन्यथा अनर्थ हो जाएगा। कलाकार को बुलावा आया। वह भूखा-नंगा कलाकार ही अब जैजाकभुक्ति के चंदेलों की कीर्ति बचा सकता है। काम के इस उद्दाम वेग को रोकना अब बस इस भूखे-नंगे कलाकार के हाथों में ही शेष है। देवी तारा फिर एक बार लावण्यमयी, चंचल, सुकुमारी राजकुमारी अलका में तब्दील होने लगी और कलाकार... वह राजकुमारी अलका की तटस्थ भाव से नग्न मूर्तियाँ बना रहा था। इतिहास का वही एक छोटा लम्हा ठीक एक हजार साल बाद आज फिर खजुराहो की उसी पुण्यभूमि में खुद को दोहरा था। वह फ्रांसीसी युवती जो इस पटकथा की नायिका है, नग्न देह धारण कर निद्रामग्न है होटल के एक कमरे में और ब्राह्मण पुत्र हमारा कलाकार नायक कागज-पेंसिल लिए उसके चित्र खींच रहा है। वस्तुतः इस कहानी का प्रारंभ यहीं से है। ऊपर जो कुछ कहा गया, वह तो इतिहास की एक गप्प मात्र थी जिस पर ध्यान न देना ही श्रेयस्कर होगा। तो, हमारा कलाकार नायक अपनी कलात्मक दृष्टि से उस फ्रांसीसी नायिका को देख रहा है। देख रहा है और काँप रहा है। उसकी दृष्टि केंद्रित है और होंठों से अस्फुट से कुछ शब्द फूट रहे हैं जो देखते-देखते खजुराहो के पूरे इतिहास में गूँजने लगते हैं। कुछ ऐसा ही कहती है वह फ्रांसीसी नायिका भी हमारे कलाकार नायक से। और हमारा कलाकार नायक उसके न्यूड स्केच का अंतिम स्ट्रोक मारता है। 'अहम् विभूत्या बहुभिरिह रूपैर्यदास्थिता। मैं अपनी ऐश्वर्यशक्ति से अनेक रूपों में यहाँ उपस्थित हुई थी। उन सब रूपों को मैंने अपने समेट लिया है। अब अकेली ही युद्ध में खड़ी हूँ। तुम स्थिर हो जाओ। कलाकार नायक स्थिर खड़ा है और सिगरेट का धुआँ निगल रहा है। फ्रांसीसी नायिका बिस्तर पर अलमस्त बिखरी हुई है। उसकी नीली, गहरी आँखें कलाकार नायक के पूरे अस्तित्व को छेद रही हैं... गहरे... बहुत गहरे तक! "इट मींस?" फ्रांसीसी नायिका ने पूछा। "ईश्वरीय मैथुन!" एक निःश्वास छोड़ते हुए कलाकार नायक ने कहा। और फिर पल भर का सन्नाटा। दो जोड़ी आँखें जैसे एक साथ ओम् मणि पद्मे हुम् का जाप करने लगीं। "देखो, कमल में रत्न छिपा है!" देवी तारा का आश्वासन। यहाँ हम एक छोटा-सा ब्रेक लेकर कहानी को थोड़ा-सा 'फ्लैशबैक' में ले जाएँगे ताकि बात कुछ और साफ हो सके। दरअसल, जिस समय हमारा कलाकार नायक और वह फ्रांसीसी खजुराहो के होटल के उस कमरे में संभोगरत थे ठीक उसी समय भारत के धुर पश्चिमोत्तर प्रांत में अपने समय के महानायक भगवान बुद्ध पाँच-पाँच परमाणु विस्फोटों की उपस्थिति में एक कुटिलता से मुस्कुराए थे। यह तो आप सब जानते ही हैं कि दुनिया की हर चीज इस कदर जुड़ गई है कि अलग से किसी चीज की कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती। सो, भगवान बुद्ध की वह कुटिल मुस्कान भी अलग से कल्पनातीत थी। दूसरी तरफ 'ओम् मणि पद्मे हुम्' का वह शाश्वत नाद था जो सूचना क्रांति के इस युग में भगवान बुद्ध की उस कुटिल मुस्कान के साथ इस कदर जुड़ गया था कि आश्चर्य होता था। और सचमुच वह भी एक आश्चर्यलोक था जहाँ हमारा कलाकार नायक और फ्रांसीसी नायिका एकाएक पहुँच गए थे। हालाँकि एकाएक भी एकदम से एकाएक नहीं होता। उसके पीछे भी कई एक और अनेक होते हैं। सो, 'ब्रेक' के बाद की यह कहानी उन्हीं एक और अनेक की कहानी है। तो मित्रो, हमारा कलाकार नायक शुरू से ही एक आम घर का बेरोजगार लड़का था और फ्रांसीसी नायिका शुरू से ही एक बड़े घर की बिगड़ैल लड़की थी। बहुत पहले की बात है। कलाकार नायक के पिता अपने गाँव से चलकर एक छोटे से कस्बे में आए थे और फ्रांसीसी नायिका के पिता उसी छोटे कस्बे से चलकर फ्रांस की राजधानी पेरिस पहुँचे थे। विस्थापन दोनों का हुआ था। लेकिन... लेकिन कलाकार नायक के धर्मभीरु पिता ने उस छोटे कस्बे में लोगों को सत्यनारायण की कथा सुनाई और फ्रांसीसी नायिका के पिता पेरिस जाकर कलात्मक भारतीय वस्तुओं का व्यापार करने लगे। यह उतना ही बड़ा अंतर था जितना कि जमीन और आसमान के बीच होता है। सो, जमीन और आसमान का यह अंतर कलाकार नायक और उस फ्रांसीसी नायिका के जीवन पर भी पड़ा और... और फिर वही दोयम दर्जे की फिल्मी प्रेम कहानी चली जो अक्सर गरीब और अमीर के बीच चलती है। तमाम मिथकीय कथाओें के बीच गुजरा कलाकार नायक का बचपन जहाँ छोटी-से-छोटी चीजों के लिए तरसता था, वहीं पेरिस में गुजरा फ्रांसीसी नायिका का बचपन खुद अपने आपमें एक मिथक था। सूचनार्थ बता दें कि फ्रांसीसी नायिका के पिता ने फ्रांस में कलात्मक भारतीय वस्तुओं के व्यापार से धन ही नहीं जोड़ा, बल्कि अपनी पुत्री यानी हमारी फ्रांसीसी नायिका की कलात्मक सनकों में भी काफी इजाफा किया था। यह उस समय की बात है जब विश्व बाजार में भारतीय चीजों की कीमत एकाएक बढ़ गई थी और सारा विश्व भारतीय सौंदर्यबोध पर अभिभूत था। शासक-प्रशासक कवि हो गए थे और कविता का बाजार भाव सातवें आसमान पर था। उस छोटे-से कस्बे में भी जहाँ हमारे कलाकार नायक के धर्मभीरु पिता लोगों को सत्यनारायण की कथा सुनाया करते थे और खुद जहाँ हमारा कलाकार नायक बेरोजगारी के दिनों में फांके किया करता था, टीवी और अन्य इतर माध्यमों के जरिए बंबई स्टॉक एक्सचेंज की खबरें आने लगी थीं। बावजूद इसके कि हमारे कलाकार नायक को टीवी के पर्दे पर बंबई स्टॉक एक्सचेंज की भव्य इमारत काफी खूबसूरत लगती थी, वह समझ नहीं पाता था कि शेयर सूचकांक का उठना-गिरना किस तरह उस देश के शासक-प्रशासक की कविता से जुड़ा है। लेकिन... यह सब था और इसके साथ ही और तमाम बातें थीं जो कथा से संबंध न रखते हुए भी संबंध रखती हैं। अब जैसे यही कि अपनी तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद पेरिस में ऐंटीक के सबसे बड़े व्यापारी की पुत्री एकाएक भारत आने की जिद कर बैठी, वो भी तब जब भारत में एक तरह की अघोषित इमरजेंसी लगी हुई थी। बुद्ध मुस्कुरा रहे थे और बेरोजगारी में फांके करता हमारा कलाकार नायक भागकर खजुराहो आ गया। खजुराहो में उसने गाइड का धंधा किया और महाराज धंगदेव के कल्पित सपने का गूढ़ार्थ लोगों को समझाने लगा। यूँ भी उसका पूरा जीवन इन्हीं मिथकीय आख्यानों में रचा-बसा था। फ्रांसीसी नायिका चूँकि 'अपने' इतिहास की खोज में आई थी इसलिए कलाकार नायक से उसका संबंध महज एक संयोग भी हो सकता है। और सच पूछिए तो यह पूरा आख्यान ही उन सहज संयोगों का एक विराट प्रतिबिंब है जो देवासुर संग्राम के दौरान भगवान महादेव के अनुष्ठान से चलकर महाराज धंगदेव के सपनों में आया था और फिर बीसवीं सदी के अंत में खजुराहो के किसी बियावान होटल में उस फ्रांसीसी नायिका और हमारे कलाकार नायक के बीच एक असहज संभोग का कारण बन गया था। ...लेकिन कलाकार नायक के सिगरेट से उठते धुएँ ने हमें एक बार फिर उन्हीं मध्ययुगीन कंदराओं में धकेल दिया है जहाँ महाराज धंगदेव अपने मंत्रणा कक्ष में बैठे इतिहास के उस प्रवाह को देख रहे थे जब कन्नौज पर चंदेलों का आक्रमण निर्णायक क्षण की प्रतीक्षा में था। पश्चिमोत्तर से मुस्लिम आक्रांताओं की एक टोली महमूद गजनवी के साथ आगे बढ़ रही थी। खंड-खंड भारत की विखंडित आत्मा जैसे किसी विप्लव की प्रतीक्षा में थी, और उनके अपने ही राज्य में 'ओम् मणि पद्मे हुम्' का वह निरंतर जाप... भयाक्रांत राजा को लगता जैसे उनकी साँस ही घुट जाएगी। शिल्पी और राजकुमारी का यह मौन संवाद निरंतर गूँज रहा है उन प्रस्तर प्रतिमाओं में जिन्हें योजनानुसार प्रस्तावित मंदिर की बाह्य परिधि में ही रहना है। 'ओम् मणि पद्मे हुम्'! संस्कृति के कामुक क्षण जैसे एक साथ राजकुमारी अलका के दैहिक धरातल पर बहकने लगे। इधर राजपुरुषों और सामंतों में चिंता व्याप गई है कि एक शूद्र कोटि शिल्पी आखिर कैसे एक राजकन्या से प्रेम कर सकता है? यह अनैतिक है... घोर अनैतिक! वर्जित फल का स्वाद आदम और हौव्वा ने चखा था तो उन्हें दंडस्वरूप इस मर्त्यलोक में धकेला गया। मगर यहाँ तो वर्जित फल का स्वाद चखने वाला एक शूद्रकोटि शिल्पी था। इसे पाताल भेजना होगा... वरना...। इस तरह दो संस्कृतियों के मुखर संघर्ष जारी थे और उधर महमूद गजनवी अपने दल-बल के समेत बढ़ता चला आ रहा था। राजा धंगदेव ने जान लिया था कि महाविप्लव सन्निकट है। उनके बूढ़े शरीर में अब उतना तेज भी बाकी नहीं था... फिर स्वप्न में निरंतर देवी तारा का आना... राजा भयभीत हो गए। समाज में नैतिकता के तमाम मानदंड टूट कर बिखर रहे थे। ब्राह्मणों का अपमान... शूद्रकोटि जातियाँ गुस्से से खौलने लगी थीं। जैसे देवी तारा ने उन सबको आशीर्वाद दे रखा हो। शिल्पी और राजकुमारी अलका के प्रेम की अनुगूँजें भी राजा के कानों में पड़ीं... राजा असहाय हो गए। उधर राजकीय कार्यशाला में शिल्पी की बनाई प्रस्तर प्रतिमाएँ निरंतर मुखर हो रही थीं। मुक्ति के सौंदर्य प्रतिमान गढ़े जा रहे थे। "मैं क्या कहूँ राजकुमारी? मैं एक शूद्रकोटि शिल्पी जो कुछ दिन पूर्व भूख से बेहाल था... कह भी क्या सकता है? मुझे तो इस मंदिर के निर्माण के उपरांत उसके सांधार प्रासाद में भी घुसने की अनुमति नहीं होगी।" शिल्पी ने एक दीर्घ निःश्वास लेते हुए कहा। और शिल्पी उठा... निःशेष! तमाम कामुक, मांसल प्रतिमाओं के बीच वह धँसकर हल चलाते एक श्रमिक की मूर्ति गढ़ रहा था, साथ ही रक्तपिपासु शस्त्र सुसज्जित एक सैनिक...! शिल्पी ने एक पूरा-का-पूरा दृश्य खींचा जहाँ मुस्लिम आक्रांताओं का पूरा समूह नतमस्तक जमीन पर बैठा हुआ था... पराजित। भारत खंड की सुसज्जित सेनाएँ बढ़ी जा रही थीं और उनके बीच एक स्वर गूँज रहा था - 'ओम् मणि पद्मे हुम्'! "यदगुह्यं परमं लोके सर्वरक्षात्करं नृणाम्। जो इस संसार में परम गोपनीय है और मनुष्यों की हर तरह से रक्षा करने वाला है, वह रहस्य जो आपने किसी से नहीं कहा, प्रभो! मुझसे कहिए। "व्हाट नानसेंस!" फ्रांसीसी नायिका के शब्द। "सांस्कृतिक विप्लव का महाआख्यान..." कलाकार नायक के मौन से गूँजती एक ध्वनि! कुछ ऐसी ही ऊलजुलूल बातें और हरकतें कलाकार नायक नायक पिछले नौ दिनों से करता रहा है। कभी वह दुर्गा सप्तशती का पाठ करता है तो कभी तांत्रिक सूत्रों का वाचन। उसकी हर हरकत पर फ्रांसीसी नायिका उसे आश्चर्यमिश्रित श्रद्धा से देखती है। कभी झिड़कती है तो कभी जिज्ञासा करती है। उसके अनुसार इन नौ दिनों में उसे अपूर्व आध्यात्मिक आनंद मिला है। कलाकार नायक के इस विरल संयोग ने जैसे उसे धन्य-धन्य कर दिया। इधर उसके बनाए चित्र भी अपूर्व बन पड़े हैं। फ्रांसीसी नायिका इसे जानती है। उसकी व्यवसाय बुद्धि उसे फ्रांसीसी कला जगत के शीर्ष पर देख रही है। मगर हमारे कलाकार नायक की जिद है कि वह फ्रांस नहीं जाएगा। उसे अपनी धरती प्यारी है... अपने लोग। यह अलग बात है कि उसका अपना यहाँ कोई भी नहीं। कलाकार नायक चाहता है कि काश! वह इसमें एक चित्र और खींच सकता जिसमें पश्चिमी आक्रांताओं का नत शिर समूह होता और वह कहता, 'ओम् मणि पद्मे हुम्'। मगर वह कह नहीं पाता। उसके शब्द एकाएक खजुराहो के मध्ययुगीन इतिहास में कहीं खो गए हैं और वह बावला-सा उन्हें खोज रहा है। खजुराहो में मोक्ष मार्ग के निर्माण का स्वप्न पूरा हुआ। अब मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की जाएगी। देश-विदेश के तमाम कवि-ज्योतिषी, तांत्रिक और विद्वान इतिहास के इस अपूर्व आयोजन के साक्षी होने जा रहे हैं। महाराज धंगदेव की बेचैनी थमी नहीं थी। उनकी आत्मा पर जैसे कोई बोझ था। इधर राजपुरुषों और सामंतों ने एक अलग ही मुहिम छेड़ रखी थी। राजकुमारी अलका और शिल्पी का उन्मुक्त प्रेम अब नैतिकता का नहीं - उनके अस्तित्व का प्रश्न बन चुका था। राजा धंगदेव दोराहे पर खड़े बार-बार देवी तारा का स्मरण कर रहे थे मगर देवी तारा हँसे जा रही थीं। उनका भयानक अट्टहास पूरे ब्रह्मांड में गूँज रहा था। मंदिर के सांधार प्रासाद में प्रवेश करते हुए राजकुमारी अलका ने अपने तमाम सामंतों व राजपुरुषों पर एक दृष्टि डाली। शिल्पी उसमें कहीं नहीं था। राजकुमारी की नजरें पूरे परिदृश्य में सिर्फ और सिर्फ शिल्पी को खोज रही थीं, मगर वह उन्हें कहीं नजर नहीं आ रहा था। शिल्पी मंदिर से दूर खड़ा था... एकाकी। अपनी इस अनुपम कृति को देखते हुए कभी उसे गर्व होता था... कभी क्षोभ। अब वह इन मूर्तियों की प्रदक्षिणा भी नहीं कर सकता। हालाँकि वह चाहता था कि इन उदग्र मूर्तियों पर वह कभी शांति से केसर का भरपूर लेप करे...। अपवित्र मूर्तियाँ भागीरथी के जल से पवित्र कर दी गई थीं। शिल्पी के भीतर जैसे कोई ज्वालामुखी धधकने लगा... उसकी आँखें गुस्से और अपमान से लाल हो गईं। इतिहास में यह दृश्य फिर कभी दोहराया नहीं गया। शिल्पी के तेज बढ़ते कदमों में एक अद्भुत दैवीय चमक थी और वह निरंतर दृढ़तापूर्वक मंदिर के सांधार प्रासाद की ओर बढ़ रहा था। देवी तारा साँस रोककर इस पूरे आयोजन को हतप्रभ देख रही थीं। जैसे ही शिल्पी प्रदक्षिणा पथ के निकट पहुँचा, एक साथ कई-कई प्रहरियों ने उसे पकड़ लिया और उसे दूर ले गए... बहुत दूर...! राजकुमारी अलका अपने विवश नेत्रों से उसे जाते हुए देख रही थीं और सुन रही थीं - 'ओम् मणि पद्मे हुम्'! सुनने में आया कि मूर्तिभंजक महमूद गजनवी पंजाब के सीमांत प्रदेशों तक चढ़ आया था। वहाँ का शासक जयपाल पराजय व अपमान से क्षुब्ध अग्निचिता पर जलकर मर गया। महाविप्लव से आक्रांत राजा धंगदेव ने भी उस रात दो विकट फैसले लिए। एकाएक उन्होंने संन्यास की घोषणा कर दी और प्रयाग की ओर प्रस्थान कर गए। प्रयाग में उन्होंने जल-समाधि ले ली। जब वे संगम में जल-समाधि ले रहे थे ठीक उसी समय खजुराहो में वर्जित फल का स्वाद चखने वाला एक शिल्पी पाताल लोक भेज दिया गया था। इस समय तक महमूद गजनवी ने भी पेशावर जीत लिया था। कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है। महाराजा धंगदेव की जल-समाधि और खजुराहो में मूर्ति शिल्पी की निर्मम हत्या के वर्षों बाद जब राजा धंगदेव के प्रपौत्र परम प्रतापी राजा विद्याधर देव ने महमूद गजनवी के खिलाफ कायर राज्यपाल का वध कर एक अभियान छेड़ा और भारत खंड के छह राजपूत राज्यों की सशस्त्र संघीय सेना लेकर महमूद गजनवी को खदेड़ना शुरू किया तब अचानक एक घटना घट गई। भारत खंड की विजयिनी सेनाओं ने महमूद गजनवी को पराजय के कगार पर खड़ा कर दिया था और हताश महमूद अल्लाह से मदद की दुआ कर रहा था। इधर दिन भर युद्ध से थके राजा विद्याधर निद्रामग्न थे और देवी तारा उन्हें स्वप्न में कह रही थीं, "भागो राजन, भागो! महाविप्लव सन्निकट है। संपूर्ण भारत देश की खंडित आत्मा एक शूद्रकोटि शिल्पी के शाप से अभिशप्त हो चुकी है। अब मूर्तिभंजक महमूद को इस महादेश में आने से कोई नहीं रोक सकता। तुम्हारी अपनी ही सेनाओं की तमाम अंत्यज जातियाँ विद्रोह पर उतारू हैं। महाविप्लव आ चुका है।" पसीना-पसीना हुए राजा की नींद टूट गई। गुप्तचरों के अनुसार विद्रोह की सूचना सही थी। भयभीत राजा विद्याधर देव अचानक युद्धस्थल से भाग खड़े हुए। कोई भी इतिहास लेखक कभी यह नहीं जान पाया कि आखिर क्यों परम प्रतापी विद्याधर देव इस तरह अचानक कायरतापूर्वक युद्धस्थल से भाग खड़े हुए? राजनीतिक प्रपंच ने एक जीती हुई बाजी पलट दी थी। थानेश्वर, कन्नौज, कालिंजर को लूटता हुआ मूर्तिभंजक महमूद सोमनाथ तक पहुँचा और फिर इस खंडित देश की आत्मा एक साथ त्राहि-त्राहि कर उठी। पाताल लोक में बैठा शूद्रकोटि शिल्पी भी भारतखंड की इस नियति पर हँस रहा था। उसकी उस हँसी में प्रतिशोध और हताशा का एक मिला-जुला भाव था। खजुराहो की तमाम तांबई, उदग्र प्रतिमाएँ उसकी इस हँसी से मुक्तिरास कर रही थीं। भगवान महादेव शांत थे और देवी तारा...! 'ओम् मणि पद्मे हुम्' इस कथानक का सूत्रवाक्य जैसे अब भी खजुराहो के मध्यकालीन इतिहास में कहीं खोया हुआ है और हमारा कलाकार नायक अपने लाख प्रयत्न के बावजूद उसे खोज नहीं पा रहा था। उसकी नौ दिनों की सतत साधना का प्रतिफल उसकी वे अनुपम कलाकृतियाँ फ्रांसीसी नायिका अपने साथ ले गई है और हमारा कलाकार नायक पागलों की तरह अकेले होटल के इस कमरे में भटक रहा है। उसकी तेज चलती साँसों के आरोह-अवरोह एक बार फिर आध्यात्मिक स्थिरता की माँग कर रहे हैं, मगर हमारा कलाकार नायक है कि इस तरह की किसी भी स्थिरता के खिलाफ अब तनकर खड़ा हो गया है। बावजूद इसके कि पश्चिमोत्तर में भगवान बुद्ध की कुटिल मुस्कान अब तक शांत हो गई थी, कलाकार नायक की क्रुद्ध जलती हुई आँखें और तनी हुई मुट्ठियाँ 'युद्धं देहि' का आह्वान कर रही थीं। मगर पता नहीं क्यों, 'ओम् मणि पद्मे हुम्' का वह शाश्वत नाद अब भी हमारे कलाकार नायक की पकड़ में नहीं आ रहा था। शायद इसके कारण राजनीतिक थे। शायद सांस्कृतिक। या शायद कुछ भी नहीं... कलाकार नायक यूँ ही हवा में अपनी मुट्ठियाँ तान रहा था। 'अब तक फ्रांसीसी नायिका पेरिस पहुँच चुकी होगी। कुछ ही दिनों में उसके चित्र देश-विदेश में विख्यात हो जाएँगे और...' कलाकार नायक इसके आगे कुछ नहीं सोच पाता। अचानक वह दौड़ पड़ता है कंदरिया महादेव के उस विख्यात मंदिर की तरफ जहाँ भगवान महादेव के आशीर्वाद से कभी एक मोक्ष मार्ग का निर्माण हुआ था। कलाकार नायक उसके गर्भगृह में प्रवेश से पहले, क्षण भर को ठिठकता है और दौड़कर उन तमाम मूर्तियों की प्रदक्षिणा करता है जो रात के उस सुरमई प्रकाश में मुक्तिनाद कर रही थीं। कलाकार नायक उन सभी मूर्तियों को अपने आलिंगन में कस लेना चाहता है और चाहता है उनके ठोस वर्तुल स्तनों पर एक सुदीर्घ चुंबन...। इस तरह की तमाम इच्छाएँ ढोता हुआ हमारा कलाकार नायक मंदिर में प्रवेश कर रहा है। ज्योर्तिलिंग के ठीक सामने एक शिला पर बैठा हमारा कलाकार नायक न जाने क्यों अचानक रो पड़ता है। उसका यह रुदन अनेकार्थी है और अपने अलग-अलग अर्थों में सारे ब्रह्मांड का रुला रहा है। भगवान महादेव का आशीर्वाद... देवी तारा की इच्छा...। मित्रो, यह कथा का प्रस्थान बिंदु है। इस बिंदु पर आकर खुद कथाकार भी असमंजस में है। वह ठीक-ठीक नहीं जानता कि इस तरह कलाकार नायक के रोने के असली कारण क्या थे? जब तक उन असली कारणों की खोज नहीं हो जाती तब तक कथाकार सांस्कृतिक विप्लव के इस महाआख्यान से मुक्ति चाहता है। फ्रांस लौटने के बाद उस फ्रांसीसी नायिका ने पेरिस में एक भव्य प्रदर्शनी का आयोजन किया था जिसमें हमारे कलाकार नायक के चित्र काफी ऊँचे दामों पर बिके थे। और कला-समीक्षकों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उस समय भारत में करगिल युद्ध हो रहा था और कलाकार नायक का कहीं अता-पता नहीं था।
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नरेंद्र ने तो मोबाइल नंबर देने के लिए ही हिमानी को फोन किया था। यही सोच कर कि कभी इमरजेंसी में मौसी कहां - कहां लैंडलाइन पर फोन पर फोन करके उसे खोजेगी, वह एक जगह तो बैठता नहीं, सौ जगहें, और सौ काम हैं उसके पास। यह ठीक है कि घर जाने को उसका मन नहीं होता, बचपन से ही घर में कोई आकर्षण नहीं रहा। मां नहीं थी, मौसी थी, मां जैसी ही। बाप की जगह एक शराबी, अड्डेबाज आदमी था, जो सुबह - शाम दिखता था, हमेशा तंगी से जूझता, लड़ने को आमादा। ताऊ - ताई शुरू से अजनबी थे। उनके लड़के कभी भाई जैसे नहीं लगे। वैसे यह सब न भी होता, तो भी आमतौर पर 'टीन एजर' लड़के घर के कम बाहर के ज्यादा होकर रहते हैं। हिमानी ने नंबर लिख कर बातों का सिलसिला जोड़ लिया। यही कि तेरे ताऊजी ने छोटे बेटे का भी रिश्ता तय कर दिया है। कहते हैं सोचा तो यही था कि यहां से कहीं दूर जाकर शादी करें, किंतु क्या करें मकान बिका ही नहीं तो... अब कहते हैं, हम लोगों को शादी में बुलाएंगे नहीं, बदनामी होगी...। बात करते - करते हिमानी भावुक हो गई। कहने लगी, "एक ही जिम्मेदारी रह गई...रितु यहां होती तो उसकी डोली कब की उठ गई होती, एक - दो बच्चे गोद में खेल रहे होते...। अब तू भी पच्चीस - छब्बीस का हो गया है, तू भी मेरी बात नहीं सुनता। अपने बाप को तो तू जानता ही है, उसे किसी की फिकर नहीं। मैं ही कोशिश कर रही हूं, हां! अपनी गली के आखिर में जो चौहान जी हैं, उनकी पहचान वालों की लड़की है। मिसेज चौहान दो बार पूछ चुकी हैं, क्या कहूं? तू बता, अगर तेरी अपनी कोई पसंद है तो बता दे...कुछ बोल न...मैं कब से बकर - बकर कर रही हूं...बिलकुल गूंगा हो गया है...हलो! नन्नू!' नरेंद्र ने मुख्तसर - सा जवाब दिया, "मौसी! उस बेशर्म रितु की बात मुझसे आगे कभी मत करना। दूसरी बात यह कि मेरी शादी की चिंता छोड़ दो, सोचो भी मत, मुझे शादी - वादी के झंझट में नहीं पड़ना। हां, ध्यान रखना, मकान की डील जब भी फाइनल हो, मुझे जरूर खबर करना।" प्रापर्टी 'महादेव भवन' में से अपना हिस्सा लेना था। इसके लिए वह पूरी तरह सचेत था। नंबर भी इसीलिए दिया था कि भावकुता की मारी मौसी उससे संपर्क करती रहेगी। वर्तमान सरकार का कार्यकाल पूरा हो रहा था। देखते - देखते आर एन सेठ ने राजनीति के पांच वर्ष पूरे कर लिए। अब वह उसके अनुभवी खिलाड़ी बन गए थे। नये जनादेश के लिए कभी भी घोषणा हो सकती थी। चूंकि इस सरकार के कार्यकाल में बड़े - बड़े घोटाले हुए, स्वयं प्रधानमंत्री पर कई आरोप थे, इसलिए पार्टी की हालत नाजुक लग रही थी। स्वयं आर एन सेठ भी बातचीत में ऐसी संभावना जता चुके थे। परदे के पीछे यह तय भी था कि हालत देखकर वे अपने समर्थकों के साथ विपक्षी पार्टी का दामन थाम लेंगे। तब उनके मंत्री बनने का सपना जल्दी पूरा हो जाएगा। जब आर एन सेठ को कद बढ़ेगा तो उनके करीबी लोगों का भी फायदा होगा। सचमुच किसी मंत्री जी का खास होना किस्मत की बात है। नरेंद्र अभी से ख्वाब बुनने लगा। सफेद सफारी में तो वह अब भी जमता था, किंतु नेताओं वाला अंदर का रुआब, जिससे चेहरा दिप - दिप करता है और पुलिस के बड़े - बड़े अधिकारी सलाम ठोककर आगे - पीछे घिघियाते फिरते हैं'उस रुतबे की बात ही और है।' एम.पी. साहब आराम फरमा रहे होते थे, वही समय उसकी फुरसत का होता था। पूरी तरह वह भी नहीं, क्योंकि फोन की घंटी हर समय घनघनाती रहती थी। उसके जूनियर फोन उठाकर उससे जवाब पूछते थे। खास लोगों को वह स्वयं जवाब देता था। उनसे खास लोगों की कॉल उसके मोबाइल पर आती थी। उस दिन वह निश्चिंत, अपने कमरे में व्हिस्की के साथ बैठा था। सेठ विदेश दौरे पर थे। ऐसे वक्त उनके साथ उनका दूसरा पी.ए. राघवन ही साथ जाता था। वह निश्चिंत, अवकाश की मनःस्थिति में, बोतल खोलकर अपने कमरे में बैठा था। तीन लोग और थे, दो उसके जूनियर और एक सेठ के क्षेत्र से उनका परिचित युवक राकेश, जिसे यहां रहकर भविष्य की संभावनाएं तलाशनी थीं। उसके साथ कुछ ही दिनों में नरेंद्र का दोस्ताना हो गया था। एकांत था, उम्र का उठान था और शराब का साथ। माहौल में सुरूर घुल रहा था। राकेश ने उठकर टीवी चालू कर दिया। यह मात्र संयोग था कि चैनल पर जो गाना बज रहा था, वह रितु के एलबम का था। अपने समय का 'लोकप्रिय' भड़काऊ गाना। नरेंद्र पेग सिप करते हुए भविष्य के सपनों में सफेद पोशाक में सजा - संवरा अपने को सफेद अम्बेसडर में देख रहा था, जिसके आगे - पीछे हॉर्न बजाती अन्य अम्बेसडर चल रही थीं। उसे लगा जैसे गाड़ी को इमरजेंसी ब्रेक लग गए हों। आगे रेड लाइट है या एक्सीडेंट हुआ है या कि गाड़ी ही खराब हो गई है। टीवी स्क्रीन पर उसकी बहन, रितु कम से कम कपड़ों में दर्शकों को उत्तेजना का आमंत्रण देती हुई तेज़ 'बीट' पर थिरक रही थी। उसने आंखें बंद कर लीं। यही है शायद, जिससे उसकी गाड़ी को ब्रेक लग सकते हैं। आदमी जब मशहूर होता है, उसका परिवार भी मशहूर होता है। आजकल चैनल वाले तो पुरखों का बायोडाटा तक निकाल लाते हैं। यह तो मेरी बहन है, जीती - जागती। 'अपोजीशन' वाले खूब नमक - मिर्च लगाएंगे, संस्कृति की दुहाई देंगे। हो सकता उसके पोस्टर तक छपवाकर दीवारों पर चिपकवा दें। लोगों के जुनून का कुछ पता नहीं, पासा पलट गया तो? उसने टीवी देखना ही छोड़ रखा था, इसलिए कि उसकी सूरत दिखेगी तो मन खराब होगा, गुस्सा आएगा। वह सिर्फ न्यूज चैनल देखने लगा, पर वहां भी ब्रेक में विज्ञापनों के दरमियान उसके दिख जाने का अंदेशा बना रहता था। एक बार तो उसने अपने कमरे से टीवी हटवाकर रिसेप्शन में रखवा दिया था। सेठ साहब को पता चला तो उन्होंने वजह पूछी तो यही कह सका कि देखने लायक कुछ होता नहीं है। उसमें सब ऊलजलूल दिखाते हैं। "न्यूज देखो, सिर्फ न्यूज! समझे, अपडेट रहना जरूरी है। न्यूज देखो, हमें भी बताओ, कहां क्या हुआ? किसने क्या कहा और क्या किया? हमारा तो सारा कैरियर न्यूज पर ही टिका है ...ऊलजलूल! ...अरे तू कब से साधु - संन्यासी हो गया। हमारे छोड़े हुए 'लेग - पीस' चांपता है कि नहीं, बोल!" अंतिम वाक्य उन्होंने खास अंदाज में आंख दबाकर कहा था, जिसका मतलब नरेंद्र जानता था, इसलिए वह मुस्कराया भी था। ऐसी अंतरंग बातें सेठ खाना खाते समय करते थे। इस तरह टीवी फिर उसके कमरे में आ गया था। वह सोच से उबरा तो देखा अभी भी रितु कमर लचकाते हुए सीने को खास अंदाज में हिला रही थी। अन्य तीनों लोग सुरूर में गाने के साथ झूमते हुए सिसकारियां ले रहे थे। वह गुस्से से भन्ना गया। उसने जोर से गिलास को टेबल पर ठोक कर रखा, गिलास छन्न से टूटकर बिखर गया। छन्नाहट के साथ - साथ उसकी आवाज गूंजी, "बंद करो, यह सब...!" बाकी लोगों की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ? या कि उन्होंने क्या गलत किया। उन्होंने अपने - अपने गिलास तुरंत खाली किए और बेआवाज वहां से खिसक गए। नरेंद्र अभी भी बुदबुदा रहा था, "जाओ!...सब जाओ!...मुझे अकेला छोड़ दो..." आदित्य ने लगभग सात वर्ष 'महादेव भवन' के ऑफिस में गुजारने के बाद आखिरकार कब्जा छोड़ दिया। उसने कोई मांग नहीं रखी थी। यदि रखता भी तो गरज़ के हिसाब से पूरी हो सकती थी, लेकिन नहीं, उसका मानना था कि किसी के मकान को हथिया लेना या उसके एवज़ में रुपया मांगना सरासर गलत है।' इसीलिए वह स्वयं किरायेदार होते हुए भी 'किराया - कानून' के शोर - शराबे के बीच मालिक - मकानों का समर्थन कर रहा था। उस दिन सुखदेव जितना खुश था, उतना ही हिमानी दुःखी थी। अजीब बेचैनी से भरी थी वह, जैसे कुछ छूटा जा रहा है उससे। लेकिन क्या? कुछ अबूझ है, जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता। दिल में हौल - सा पड़ रहा है। खाली - खाली - सा सब निरर्थक। अब क्या होगा, यहां से आगे अब किधर जाएगा जीवन, किसके सहारे जाएगा। आज भी वह क्यों खाली हाथ खड़ी है, इतने बरस बाद भी। सोच - सोच कर जिया फटने को हो रहा था। कब तक, कितने दिन, कितनी रातें, कितना जीवन, कैसे कटेगा, निपट अकेले, सन्नाटे में। अब क्या शेष है, बच्चों का बहाना भी नहीं, तब? सुन, अपने लिए जी, नई राह बना, जो साथ हो लें, उनके लिए जी। जीवन को बड़ा और बड़ा बना...' जिस दिन उसका सामान 'पैक' हुआ, आदित्य पहले ही कुछ दिन से गायब था। विनोद ने दोनों टेबल, अलमारी कुछ फाइलों के बण्डल छोटे ट्रक में रखवाए और चाबी हिमानी को दे आया था। हिमानी ने पूछा था, "कहां हैं वकील बाबू, कुछ दिनों से दिखे नहीं।" "हां! वे बिजी हैं, शहर से बाहर गए हैं।" "नया दफ्तर कहां खोला है, मतलब कहां शिफ्ट किया है?" "साब जिस एनजीओ के लिए काम करते हैं, उसका बड़ा दफ्तर है, उसी कैम्पस में मिल गया है, सभी सुविधाएं हैं वहां!" हिमानी को अपने हर प्रश्न के बाद सोचना पड़ रहा था कि अब क्या पूछे। लगा, प्रश्न खत्म हो गए हैं या जो प्रश्न पूछना है, वह जुबान पर नहीं आ रहा। हलक तक आकर फिर नीचे लौट जाता है। "बैठो भैया! चाय पिओगे।" यूं ही पूछा उसने और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना रसोई की ओर जाने को मुड़ी। विनोद ने विनम्रता से अनुरोध ठुकराया, बोला "नहीं मैडम! चाय रहने दीजिए, थोड़ा पानी पिऊंगा, ट्रकवाला इंतजार कर रहा है।" विनोद पानी पी रहा था, तब हिमानी ने पूछा, "वकील बाबू अकेले रहते हैं?" "जी!" विनोद के मुंह से निकला, जैसे कह रहा हो कि यह क्या प्रश्न है? उधर हिमानी का दिल जोर - जोर से धड़क रहा था। किया न बच्चों का..." हिमानी ने बात को इधर - उधर घुमाकर स्वयं को सहज बनाने की कोशिश की। विनोद ने पानी पीकर गिलास पकड़ाते हुए बताया कि वह कभी उनके घर नहीं गया और साब कभी घर की बात नहीं करते। हारकर हिमानी ने उनके नये ऑफिस का नंबर नोट कर लिया था। कई दिन से वह आदित्य को फोन पर संपर्क करना चाह रही थी, किंतु आदित्य फोन पर उपलब्ध नहीं हो रहा था। विनोद हर बार उसकी व्यस्तता की बात कहता था, 'उनकी कुछ पर्सनल प्रॉबलम्स है, बताते नहीं हैं मैडम...मैं उन्हें कहूंगा आपका फोन था। ...मैंने आपका मैसेज दे दिया था... जैसे ही थोड़ा फ्री होंगे, बात करेंगे... जी मैं याद दिला दूंगा। ओ.के. मैडम!' लगभग दो महीने बाद अचानक आदित्य का फोन आया और उसने देर से फोन करने के लिए खेद प्रगट किया। उसने यह भी कहा कि वह बेहद निजी समस्या से जूझ रहा था। वह मसला हल हो गया है, वह अब फ्री है। जिस दिन से विनोद ने कहा था कि साहब कभी घर की बात नहीं करते, हिमानी को वह आदमी अचानक रहस्यमय लगने लगा था, जो वर्षों से उसके पड़ोस में ऑफिस चलाता रहा। उसे याद आया, आदित्य ने एक बार वादा किया था, एक दिन अपने बारे में बताएगा। एकाएक यही सूत्र हिमानी को बहुत महत्त्वपूर्ण लगने लगा या कहें कि फेसीनेट करने लगा। अब जबकि आदित्य ने स्वयं अपनी निजी समस्या का हल्का - सा ज़िक्र किया था तो हिमानी ने उस अवसर को हाथ से जाने नहीं दिया और बच्चे की भांति आग्रह किया, "मुझे आपसे मिलना है। अभी के अभी!" "जैसे भी हो, मुझे नहीं मालूम, इट्स अरजेंट!" "क्या हुआ, सब कुशल तो है, नन्नू, सुखदेव सिंह या रितु की कोई खबर है।" चिंतित होकर पूछा उसने। हिमानी कुछ क्षण के लिए खामोश हो गई। "हलो! क्या हुआ...कुछ बोलिए तो।" "क्या बोलूं, उन तीनों के अलावा किसी और की चिंता नहीं है आपको।" कुछ पल रुका आदित्य, फिर संजीदा स्वर में कहा, "सच तो यह है कि उस एक ही की चिंता अधिक है। उसकी खुशी के लिए उसके अपनों की चिंता करनी पड़ती है।" "खुशनसीबी है उसकी, वकील बाबू।" "पर मेरी नहीं।" "क्यों भला।" आश्चर्य व्यक्त किया हिमानी ने। "इसलिए कि आप मुझे हमेशा वकील बाबू बुलाती हैं और आप - आप कहकर बात करती हैं...आप मुझे नाम से बुला सकती हैं, छोटा हूं आपसे।" छोटा होने की बात पर हिमानी पल भर के लिए बुझ गई। 'यह क्या नया बैरियर है हमारे बीच।' सोचा उसने, पर तुरंत संभल कर कहा, "मैं तो आपका आदर करती हूं..." "यदि आदर के साथ प्यार भी है, तब मुझे कोई एतराज नहीं। केवल सम्मान का सूखापन...नो वे।" आदित्य के यह शब्द सुनकर हिमानी लरज गई। उसके कपोल रक्ताभ से खिल उठे थे। कानों के पास चींटियां - सी रेंगने लगी थीं। एक मीठी लहर उसके भीतर उतर गई। संभवत उसके कान ऐसा ही कुछ सुनने को तरस रहे थे। तो...माफ कर दीजिए..." हंस पड़ी हिमानी, "नहीं, नहीं! ऐसी कोई बात नहीं, पर मैं हैरान हूं कि आज अचानक... ऐसी बातें...आप...आपकी तबीयत तो ठीक है न!" उसने चुहल करते हुए पूछा। "तबियत ठीक वैसी ही है, जैसी आपकी।" हिमानी उसकी हाजिर जवाबी पर मोहित हुई, किंतु तुरंत ही नहले पर दहला मारते हुए कहा, "मगर आप तो मुझसे छोटे हैं न।" इस वाक्य में जो गुदगुदाहट थी, उसे महसूस कर दोनों देर तक हंसते रहे। अवरोध जैसे हट गया था। इसके बाद वे कई बार एक - दूसरे से मिले भी। आदित्य के दफ्तर में, सीपी के युनाइटेड कॉफी हाउस में, पंडारा रोड के रेस्तरां में। खुली जगहों पर मिलना दोनों को ही नापसंद था। शायद नापसंद वाली बात उतनी सही नहीं थी, हां! एक हिचक ज़रूर थी कि इस उम्र में, टीन एजर्स की भांति पेड़ों के पीछे चिपककर बैठना, गोद में सिर रखकर लेटना, हाथों में हाथ लेकर टहलना शोभा नहीं देता। प्यार किसी उम्र में हो, हर उम्र की अपनी गरिमा होनी चाहिए, ऐसा उनका मत था। वे बैठकर बातें करते हों या रेस्तरां में खाना खा रहे हों, हमेशा आमने - सामने बैठते थे। हर मुलाकात के बाद ज्यादा नज़दीक महसूस करते थे। एक - दूसरे को अधिक से अधिक समझ लेने की आतुरता थी। दोनों को एक - सा आश्चर्य था, क्या यह बहुत पहले से हमारे भीतर था या अचानक अब ऐसा क्या हुआ कि सारी सीमाओं को नजरअंदाज कर वे इतना पास आ गए? उत्तर भी उनके ही भीतर था। आदित्य ने बताया था कि वह हिमानी को ऐसी बदहाली और वीतरागी छवि में भी पसंद करता था। उसमें एक चार्म है। वह उसे बहुत पहले से अच्छी लगती थीं। उसका ओवर - आल लुक, बात करने का सलीका और सबसे बड़ी बातजिंदगी से जूझने की हिम्मत...मरते हुए भी शेष रहने का जज्बा मुझे फेसीनेट करता था। इसलिए आपसे बात करना चाहता था। वह मौका आपके परिवार की मुश्किलें मुहैया करा देती थीं। इस बात पर हिमानी ने चुटकी ली थी, 'अच्छा!' ओह ओ! कितनी भोली थी मैं, यह भी नहीं जान पार्इं कि कोई मदद के बहाने मेरी कलाई पकड़ना चाह रहा है।" दोनों खूब हंसे थे। आदित्य ने कहा था, 'यह सच है कि आपकी मुश्किलें हल होने पर मुझे राहत मिलती थी। हां! एक और बातकभी - कभी आप मुझे परीकथाओं वाली राजकुमारी लगती थीं, जिसे सुखदेव - रूपी राक्षस ने अपने महादेव भवन में कैद कर रखा है। मैं उस राजकुमारी को राक्षस के चंगुल से मुक्त देखना चाहता था। यह मात्र मनोभाव थे। प्यार के बारे में तो सोचा ही नहीं जाता था।' "आप मुझसे छोटे थे, शायद इसीलिए।" हिमानी को मजाक सूझा और उसने फिर वही जुमला जड़ दिया। दोनों देर तक हंसे थे। आदित्य ने उत्तर में इतना ही कहा था, "मैं इस रूढ़ि का पक्षधर तो नहीं हूं, पर अंतर बहुत अधिक नहीं होना चाहिए, पर मेरा यकीन मानिए, तब मैं वैसा सोचता ही नहीं था।" "और अब सोचते हो?" चट से पूछ लिया हिमानी ने। वह गंभीर हो गया था, "इस पर हम दोनों को सीरियसली विचार करना चाहिए। जहां तक मेरा सवाल है, मेरे लिए अब कोई अड़चन नहीं है। अकेला हूं...मेरा फैसला, मां की खुशी होगी। पर आपके लिए बहुत मुश्किलें हैं। आपका परिवार, सुखदेव सिंह, नाते - रिश्तेदार सबसे कैसे छूटेंगी आप?" "जुड़ने जैसा वहां कुछ है कहां! दोनों बच्चों के जाने के बाद तो बिलकुल नहीं। मैं नहीं चाहती कि अब शेष जिंदगी उस शराबी के साथ लड़ते - झगड़ते पूरी करूं। इससे पहले कि मैं अकेली बंद कमरों में पागल हो जाऊं वहां से भाग जाना चाहती हूं। दूर, बहुत - दूर।" "और अगर रितु लौट आई किसी दिन...नन्नू जवान हो गया है, उसकी शादी, उसके बच्चे! क्या नहीं देखना चाहोगी।" कातर निगाहों से कुछ पल वह आदित्य को देखती रही, सोचती रही। फिर बोली, 'शायद यह उत्तरदायित्व भी मुझे निभाना है ...पर क्यों? हरदम फर्ज की सलीब पर मैं ही क्यों? मेरे लिए किसी का दायित्व नहीं... अब मैं अपने लिए कुछ चाह रही हूं तो इसलिए उसे गवां दूं कि रितु के आने का इंतजार करूं, नरेंद्र की गृहस्थी बनाऊं। फिर उसके बच्चे पालूं...सुखदेव जैसे नाकारा की सुहागिन बनी अंतिम सांसें गिनूं? ...नहीं! अब और नहीं!' प्रत्यक्ष में उसने आदित्य से कहा था, "यह सब क्या अब भी जरूरी है?" यह सब बातें बाद की हैं। पहली मुलाकात में तो हिमानी ने वही पूछा था, जो वह अरसे से जानने को व्याकुल थी, जिसके लिए आदित्य ने वादा किया था कि समय आने पर अपने बारे में सब बताएगा। "क्या अभी भी समय नहीं आया है, जब आप मुझे अपने बारे में बता सकें।" हिमानी ने पूछा था। "बिलकुल आ गया है, तभी आपसे बात करने की हिम्मत कर सका। आज मैं खुश हूं और स्वतंत्र भी।" बात को आगे बढ़ाते हुए आदित्य ने अपनी कथा को कुछ इस तरह बयान किया था, "आदित्य अपने माता - पिता की दूसरी संतान था, छोटा बेटा। बड़े बेटे सोमेंद्र ने एम.सी.ए. के बाद एम.बी.ए. करके एक आईटी कंपनी ज्वाइन कर ली थी। चूंकि पिता सूचना - प्रसारण मंत्रालय के अधिकारी थे, उन्हें भविष्य में आईटी क्रांति का पूरा अंदाजा था। सोमेंद्र ने उनकी बात मानी और उसी लाइन पर बढ़ गया, परंतु आदित्य कुछ अपने मन की करना चाहता था। विरोध के बावजूद उसने सोशलवर्क से ग्रेजुएशन किया, उसके बाद उसने एल - एल.बी. कर ली। इससे पिता खुश नहीं हुए, किंतु थोड़ा संतोष हुआ कि आज के जमाने में वकालत थोड़ी भी चल गई तो अच्छा पैसा कमाया जा सकता है। मां हाउस - वाइफ थी और वह बच्चों के कैरियर को लेकर इतनी चिंतित नहीं थी। उनका मानना था कि बच्चे अपनी खुशी से जो करेंगे, अच्छा ही करेंगे। इज्जत से जीवनयापन हो जाए, बाकी क्या धरा है मारामारी में।' आदित्य ने एन.जी.ओ. के लिए काम करना शुरू कर दिया। आदित्य मां की सोच के ज्यादा करीब था। उसने तो वकालत भी यह सोचकर की थी कि वह असहाय लोगों के लिए कानून का पैरोकार बनेगा। उन दिनों उसे जनहित याचिकाएं भी बहुत प्रभावित करती थीं और सोशल कॉज के लिए काम करने वाली संस्थाओं से जुड़े वकील उसके प्रेरक थे। इस दौरान बड़े भाई सोमेंद्र की शादी हो गई और जल्दी ही वह बंगलौर शिफ्ट कर गया। कंपनी ने उसे बंगला, गाड़ी और मोटी तनख्वाह ऑफर की थी। पिता उसकी तरक्की से जितना खुश थे, उतना ही आदित्य की ओर से दुःखी। सिर्फ दुःखी नहीं, उसमें उनकी नाराज़गी और क्रोध भी झलकता था। वह अपने बड़े बेटे के साथ ही रहना चाहते थे। उनकी पत्नी, उन्हें टोक देती थीं, 'पहले इसकी भी शादी कर दें और फारिग होकर जहां दिल चाहे, वहां रहें। अभी आपके रिटायरमेंट में भी दो - तीन वर्ष हैं। पद पर रहते ही यह काम भी निबट जाए तो अच्छा है। 'आदि' भी पच्चीस - छब्बीस का हो गया है, अब देर करना उचित नहीं।' पिता ने भी आदित्य से यथाशीघ्र मुक्ति पाना ही श्रेयस्कर समझा। कई रिश्ते आए। आदित्य की मां कहती थी, 'तय तो वहीं होगा, जहां ऊपर वाले ने लिखा होगा। जहां रिश्ता तय हुआ, वह रिश्ता दूर के संबंधी के अपने परिचित की लड़की का था। पिता कारोबारी था, लड़की के दो बड़े भाई थे और दोनों शादीशुदा थे। लड़की पढ़ी - लिखी थी, पर नौकरी करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी गोया पढ़ाई टाइम - पास के लिए ही की गई थी। स्वाभाविक था। जिसका उत्तर आदित्य को कई वर्ष बाद मिला। लड़की सुंदर थी, कॉलेज के समय ही किसी लड़के से आंखें चार कर बैठी थी। जब घर वालों को मालूम हुआ तो पांव तले जमीन खिसक गई। जितने भी दबाव हो सकते थे, सब लड़की पर डाले गए। ऊंच - नीच भी समझाया गया। लड़की उतनी बागी नहीं हुई थी और वह शादी करने को राजी हो गई, इसलिए बिना किसी हंगामे के शादी हो गई थी। एक और कारण था, एक कारोबारी द्वारा आदित्य को पसंद कर लेने का, वह यह कि उन दिनों एक जनहित याचिका में आदित्य का नाम अखबार की सुर्खियों में उछला था। कोर्ट का फैसला याचिका के पक्ष में आया था। धन - कुबेरों में प्रसिद्धि का आकर्षण बेहद होता है, लोकप्रियता का दर्जा उन्हें धन से ऊपर लगता है। पहले सेठ - साहूकार परोपकार के कार्य करके नाम कमाने का प्रयास करते थे। कुएं - बावड़ी, धर्मशालाएं, अस्पताल और मंदिर आदि इसी भावना के तहत बनवाए जाते थे, जिनमें बनवाने वाले दो - तीन पीढ़ियों के नाम के पत्थर स्थापित कर दिए जाते थे ताकि सनद रहे। अब तो उनका नजरिया भी बदल गया है। वे सोचते हैंजिस तरह धन से प्रसिद्धि हासिल की जा सकती उसी तरह प्रसिद्धि को भुनाकर धन भी कमाया जा सकता है। थी, घूमना - फिरना, शॉपिंग करना, डिस्कोथिक जाना, डिनर होटल में करना, उसके खास शगल थे। शुरुआत में कुछ समय तक तो चला। फिर कलह होनी शुरू हो गई। आदित्य के पिता रिटायर होने वाले थे। उन्हें अपने भविष्य के लिए पैसा सुरक्षित रखना था, करते भी तो कितना? खर्च की कोई सीमा भी तो हो। उधर आदित्य की आय सीमित थी। कुछ समय लड़की के मां - बाप ने स्थिति को संभाला। लड़की के पास अपनी गाड़ी नहीं थी, उन्होंने बड़ी गाड़ी दे दी, महंगा मोबाइल दे दिया, कैश भी हर महीने भिजवा देते थे, पर कब तक? अंततः दबाव आदित्य पर बढ़ रहा था कि वह अपनी आमदनी बढ़ाए। यह कि गरीब - गुरबा लोगों और अनाथ बच्चों की पैरवी छोड़कर कायदे से वकालत करे, धोखाधड़ी, मारकाट, लूटपाट, जालसाजी के हजारों मुकदमें रोज आते हैं, क्यों नहीं लड़ता ऐसे मुकदमे। बड़ी - बड़ी कंपनियों में अपने 'लीगल - सेल' होते हैं, क्यों नहीं ज्वाइन करता। बड़े - नामी वकीलों से जुड़कर काम क्यों नहीं करता...वगैरह - वगैरह! किंतु आदित्य ऐसा नहीं कर सकता था। वह जानता था कि ईमानदारी से यदि उन केसों को लड़ेगा तो भी उसकी स्थिति में विशेष सुधार नहीं होने वाला, तो क्या अपने मन के संतोष को भी नष्ट करे। उसकी पत्नी ने घर छोड़ दिया, यह कहकर कि ऐसे 'होपलेस' आदमी के साथ वह नहीं रह सकती। उसके मां - बाप ने थोड़ी कोशिश की, उसे वापस भेजा, किंतु कुछ महीने बाद वह फिर चली गई। आदित्य के लिए संतोष की बात यह रही कि इस दौरान पत्नी ने 'कंसीव' नहीं किया था, वरना बच्चे की जिंदगी तो तबाह होती ही उसके अधिकार को लेकर भी महाभारत होना था। रिटायर होने के बाद आदित्य के माता - पिता उसके बड़े भाई सोमेंद्र के पास चले गए, वह रह गया और उसका काम। तलाक को लेकर आदित्य ने अपनी ओर से कोई पहल नहीं की। काफी समय गुजर गया। जब उधर से तलाक का केस फाइल किया गया तो उसमें स्त्रीधन को वापस करने की मांग से कई पेचीदगियां आ गर्इं। फिर गुजारा भत्ते का मसला उसमें जुड़ गया, केस लटकता चला गया, कभी तारीख, कभी जज महोदय का ट्रांसफर, कभी उनका रिटायरमेंट, इन सबके चलते कानूनी तौर पर संबंध - विच्छेद होने में छह वर्ष लग गए। आधा - अधूरा ही तो रहा। "सचमुच! यू आर ग्रेट! आदित्य बाबू!" उसने कहा था। 'मेरी मुश्किलें आसान बनार्इं, किंतु अपना दुःख कभी शेयर नहीं किया, ऐसा क्यों? ...वो कहते हैं न कि दुःख बांटने से कम होता है। संबंधों के दुःख दूर तक फैल जाते हैं। उनको फैलाने में लोगों को मज़ा आता है। उदाहरण के तौर पर आपने कभी नहीं बताया कि सुखदेव आपका जीजा था, दोनों बच्चे आपकी बहन के थे, लेकिन मुझे शुरू में ही इधर - उधर से यह जानकारी मिल गई थी। और भी न जाने कितने लोगों को मालूम होगा। वे सभी आपको हमेशा सहानुभूति की नजर से या खोट - परखने वाले शीशे से ही देखेंगे ताकि आप अपने को तुच्छ - निरीह समझती रहें। ऐसे दुःखों को जितना कम लोग जानें, उतना अच्छा है। पर क्या करें, अड़ोस - पड़ोस और संबंधियों की हिस्सेदारी, अपने आप हो जाती है।' आदित्य के बारे में सब जान लेना, हिमानी के लिए अंततः सुखद रहा। यह विचित्र बात है कि एक दुःख, कैसे दूसरे को सुकून दे सकता है! पर कहते हैं न कि दिल को दिल से राहत होती है। या दो अंधे मिलकर ज्यादा हौसले के साथ सड़क पार करते हैं। दरअसल हिमानी आत्मग्लानि से भी मुक्त हो रही थी। आदित्य को चाह लेने में अब उसे किसी अपराध - बोध का अहसास नहीं हो रहा था। यदि आदित्य सुखी गृहस्थ होता तो उसके सूखे रूख पर, जो नन्हीं कोमल कोपलें फूटी थीं, कुम्हला जातीं। सपनों के ताने - बाने टूट जाते। परिजनों और समाज से आंखें मिलाकर अपने लिए जीने की जो चाहत पैदा की थी, वह मर जाती। 'थैंक गॉड! ऐसा नहीं हुआ, सब बच गया। उसकी चाह बरकरार है, अब नई ऊर्जा के साथ। और जहां चाह होती है, राह निकल ही आती है।' यही उसने आदित्य से कहा था, जब उसने पूछा था कि 'अब आप क्या करेंगी? आपकी राह अभी मुश्किल है। तलाक लेना भी किसी यातना शिविर से गुजरने जैसा होता है।' हिमानी ने बात के वजन को एकदम हल्का कर दिया था, यह कहकर, 'मैं जो करूंगी, बाद में सोचूंगी। पहले आप मुझे 'आप - आप' कहना बंद करिए...।' आदित्य ने भी मुस्कराकर कहा, "अब आप भी मुझे आप नहीं कहेंगी...पहले वादा कीजिए।" "फिर आप!" हिमानी ने फिर टोका और दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े थे। "संबंधों से टूटकर, अकेले जीना कैसा लगता है।" हिमानी तुरंत संजीदा हो गई थी। "संबंध, अहसास भर होता है, आदमी जीता तो अकेले ही है।" "मुझे भयावह लगता है, अकेले जीना। फिर भी मन के बोझ, तन के कष्ट नितांत निजी अनुभव होकर भी तसल्ली दिया करते हैं, सिक्योर करते हैं।" "शायद तुम ठीक हो, पर कभी - कभी भयानक दंश देते हैं।" कहने के साथ आदित्य के चेहरे पर दर्द था, जिसे देखकर हिमानी के अपने दर्द हरे हो गए। फिर भी उसने पूछा, "क्या परिवार के लोग अब मिलते नहीं।" आदित्य ने गहरी सांस ली, "जब दिल करता है, मां आ जाती है।" कुछ देर दोनों के बीच खामोशी छाई रही। आदित्य, दीवार पर लगी एक पेंटिंग देख रहा था और हिमानी, नजरें नीची किए टेबल के 'सनमाइका' डिजाइन के फेड - आउट हो गए डिजाइन को उंगली से बना रही थी। थोड़ा और रुक कर वे उठे, तब हिमानी ने पूछ लिया, "मुझे मां से मिलाओगे?" कुछ क्षणों के लिए हिमानी को देखता रह गया था आदित्य, फिर कहा था, "आखिर तुम्हारा इरादा क्या है?" "वही, जो तुम्हारा नहीं है शायद!" फिर दोनों हंसे थे, हंसते - हंसते ही रेस्तरां से बाहर आ गए थे, जहां कुछ भीख मांगने वाले बच्चों और औरतों ने उन्हें घेर लिया था।
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की सहायता से पहुॅचा । साहित्यालोचन का विज्ञान अब भी अपने सञ्चित ज्ञान को क्रमबद्ध कर रहा है और अभी दूसरी अवस्था से आगे नहीं बढा । वह अपनी तीसरी अवस्था को तभी प्राप्त होगा जब वह उन नियमो का अन्वेषरण कर लेगा जो इस बात को स्पष्ट करेगे कि तरह-तरह की साहित्यिक कृतियाँ किस प्रकार अपने प्रभावो को पैदा करती है । इस बीच मे साहित्यालोचन को वैज्ञानिक कठोरता से अन्वेषण और वर्गीकरण के काम को अग्रसर करना चाहिए । लोकको साहित्य का निरीक्षण वैज्ञानिक वृत्ति से करना चाहिये । वह अपने तथ्य कृति के ब्यौरो मे ढूंढे । परन्तु कुछ शास्त्रशो का कहना है कि साहित्य की विषय-वस्तु मे कोई निश्चितता नही है । साहित्य का एक तथ्य उतने तथ्य हो जाते है जितने पाठक होते हे । इसके उत्तर मे मोल्टन की दलील है कि यह कठिनाई और विज्ञानो मे भी मिलती है । भय की एक वस्तु दर्शको को तरह-तरह से प्रभावित करती है, कोई दिखाता है तो कोई मूर्छा से विवश हो जाता है । फिर भी मनोविज्ञान सम्भव हुआ है । प्रश्न केवल यह उठता है कि तथ्य से प्रभावित होने की विभिन्नता कैसे दूर की जाय । साहित्य मे यह विभिन्नता किताब की ओर बार-बार ध्यान देने से निकाली जा सकती है क्योकि तथ्य उसी मे निश्चित है । जब तथ्य ऐसे शुद्ध रूप मे एकत्रित किये जाते है तो उनके आधार पर साधारणीकरण सम्भव हो सकता है । मान लो, हमे मैक्वैथ के चरित्र की व्याख्या करनी है । हम नाटक को अनात्मिकता से पढ़े, उसमे मैक्वैथ जो कुछ कहता है या करता है और उसके विषय मे जो कुछ दूसरे कहते महसूस करते है, इन बातो पर और दूसरी ऐसी बातो पर ध्यान देकर मैक्वैथ के विषय मेहमी मति निर्धारित करे । बस, यही मैक्वैथ के चरित्र की आगमनात्मक व्याख्या होगी। इस व्याख्या की सत्यता से हम तभी प्रभावित होगे जब वह उन सब व्यौरोको स्पष्ट कर देगी जो मैक्वैथ के चरित्र के सम्बन्ध मे नाटक मे मिलते है । यह व्याख्या चरित्र के निहित उद्देश्य को विदित करेगी, चरित्र के शरीर अथवा अन्तर्जात उद्देश्य को ऐसे किसी उद्देश्य को नही जो स्वय नाटककार का अभिप्रेत हो । वैज्ञानिक आलोचक इस बात को मानता है कि कला प्रकृति का अश है । जैसे प्रकृति के नियम प्रकृति ही देती है, उनका आरोप बाहर से किसी शक्ति द्वारा प्रकृति पर नहीं होता, वैसे ही साहित्य के नियम साहित्य देता है, बाहर से कोई व्यक्ति उन्हे निश्चित नही करता । यह नियम धार्मिक अथवा राजनीतिक नियमो से भिन्न होते है। केवुए का उद्देश्य धरती फाडकर उसे उपजाऊ बनाना है। क्या कोई बाहर से केचुए को इस उद्देश्य की पूर्ति की शिक्षा देता है ? इसी तरह फूलो के रङ्ग-बिर होने का उद्देश्य कीडों को आकृष्ट करना है। कौन फूलों की पूर्वप्रबोध के लिये प्रशसा करता है? ऐसे ही उद्देश्य साहित्य के होते है और ऐसे ही उद्देश्य और नियमो की खोज वैज्ञानिक आलोचक साहित्य मे करता है । जिस नियम की उसे उपलब्धि होती है वह रचना विस्तार विषयक व्यापार का वर्णन होता है । यदि वैज्ञानिक आलोचक को निश्चित नियम से हटा हुआ कोई दृष्टान्त मिलता है तो वह उसे किसी नये वंश का सूचक मानता है । साहित्यिक वशो का अन्तर तिरूपण ही मोल्टन के मतानुसार वैज्ञानिक आलोचना का मुख्य कर्त्तव्य है । वह इस बात को मानती है कि साहित्य मे असीम परिवर्तन और नानाविधित्व की पूरी क्षमता है और इसी क्षमता के फल - स्वरूप उसकी वृद्धि होती है । और क्योकि साहित्योत्पादन आलोचना के आगे आगे चलता है, आलोचना का फर्ज यही है कि वह उसके पीछे-पीछे चले और उसकी उत्पादित नई वस्तु की व्यवस्था करे । आगमनात्मक आलोचना पुराने समय से चली आ रही है । अरिस्टॉटल आगमनात्मक आलोक था । उसने उस यूनानी साहित्य का जो उसके समय से पहले लिखा जा चुका था, पूरा अध्ययन किया था । कविता, करुरण, और महाकाव्य के सम्वन्ध मे उसके साधारणीकरण हमे उसकी 'पोइटिक्स' मे मिलते है, और गद्य प्रौर सुभाषरणकला के सम्बन्ध मे उसके साधारणीकररण हमे उसकी 'रैटॉरिक' मे मिलते है । उसके प्रदत्त मे आख्यायिको की कमी थी । इसी से उसने कविता को आत्मिक रूप की जगह अनुकरणात्मक तत्त्व कहा । फिर भी करुरण और महाकाव्य के क्षेत्रो मे उसके साधारणीकरण अब तक बडे उपयोगी साबित हुए है । करुण की कई बातो पर तो उसका कथन अन्तिम हे । बेकन ने कविता के रूपों की परीक्षा करके उनको तीन वर्गों में विभक्त किया कथात्मक, प्रतिके • निध्यात्मक, और लाक्षरिएक। अठारहवी शताब्दी के अँग्रेजी साहित्य की विवेचना मे पैरी का यह दृढ विश्वास है कि साहित्य का विकास उतना ही नियमबद्ध हे जितना कि समाज का विकास । पोसनैट ने साहित्य की प्रगति चिह्नित करने के लिये स्पैसर के वैज्ञानिक अनुसन्धानो की सहायता ली है । उसका यह निष्कर्ष है कि साहित्य पहले कुल सम्बन्धी था, फिर नगर प्रजातन्त्र सम्बन्धी हुआ, फिर ससार सम्बन्धी हुआ और अन्त में राष्ट्रीय हुआ । ब्र नैटियर ने साहित्यिक प्रकारों के विविधत्व की परीक्षा स्पैन्सर के विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार की है, उनके रूपान्तर की परीक्षा टेन के ऐतिहासिक सिद्धान्त के अनुसार की है, और उनके परिवर्तन की परीक्षा डार्विन के जीवनहेतु सघर्ष और प्राकृतिक चुनाव के सिद्धान्तो के अनुसार की है। मोल्टन को आगमनात्मक आलोचना मे पथप्रदर्शक नही कह सकते । अपनी 'शेक्सपिअर एज ए ड्रैमैटिक आर्टिस्ट' नाम की पुस्तक मे जिसमे उसने शेक्सपिअर के नौ नाटकों के आधार पर उसकी आगमनात्मक व्याख्या की है, वह साफ कहता है कि साहित्यिक आलोचना मे आगमनात्मक काम काफी हुआ है, खेद इसी बात का रहा है कि प्रलोचको ने अपने काम को आगमनात्मक कह कर घोषित नहीं किया है । आगमनात्मक आलोचना मे मनोवृत्ति पूर्ण सहानुभूति की रहती है । और सहानुभूति ही वास्तविक व्याख्याता है। निर्णयात्मक क्रिया मे सहानुभूति सीमित हो जाती है । निरर्णय की भावना ही चाहे जितनी ग्रहणशील क्यो न हो, पक्षपातपूर्ण होती है। इसीसे मोल्टन आगमनात्मक आलोचना को निर्णयात्मक आलोचना से उच्चतर कहता है। परन्तु साहित्यिक अध्ययन की आगमनात्मक पद्धति के आवेश मे आकर वह अपने सिद्धान्त की उपेक्षा करता है। आलोचना उसी साहित्य का एक प्रश है जो सदा वृद्धि की ओर अग्रसर होता है । निर्णयात्मक आलोचना साहित्य मे अपना अस्तित्व रखती है और वैज्ञानिक गवेषरणा का विषय उसी तरह बन सकती है जिस तरह शेक्सपिअर का नाटक मोल्टन बडी दृढता से इस बात की पुष्टि करता है कि साहित्यिक व्यापारी का विज्ञान उतना ही न्याय्य है जितना कि बनस्पति व्यापारी का अथवा बारिणज्य व्यापारी का । यदि बनस्पतिशास्त्र और अर्थशास्त्र सम्भव है तो आलोचना - शास्त्र भी सम्भव है । गुरण और दोष के सवाल आलोचना के बाहर है । कोई भूगर्भविज्ञानवेत्ता इस चट्टान को बुरा और उस चट्टान को भला कहते हुए नही सुना गया। उसे सब चट्टाने एक समान ग्रहणीय है और सब का वह आगमनात्मक रीति से अध्ययन करता है । उसी वृति से आलोचना साहित्यिक तथ्यो का अध्ययन करती है । परन्तु भूगर्भविज्ञान अथवा बनस्पति विज्ञान मे वैयक्तिक तत्त्व का लोप हो जाता है । साहित्य में व्यक्तित्व प्रधान होता है। दूसरी बात यह है कि साहित्य कला की हेसियत से जीवन का चित्ररण करता है । जब तक साहित्यिक तथ्यो की मानुषिक और रचनाप्रक्रिया विषयक सङ्गतता का मूल्य न निर्धारित किया जाय तब तक ठीक आलोचना सम्भव नही और ऐसी सङ्गतता के मूल्य निर्धारण से आगमनात्मक आलोचक विमुख रहता :है । फिर भी आगमनात्मक आलोचना की उपयोगिता है । किसी कृति अथवा कृतिकार को आलोचना उसके सम्यक् बोध के बाद ही आ सकती है। आगमनात्मक आलोचना हमारा ध्यान उन सिद्धान्तो पर एकाग्र करती है जो साहित्यिक कृतियो के ब्योरो को सम्बद्ध करते और उनका एकीकरण करते है । ऐसे सिद्धान्तो की पकड के अतिरिक्त क्या कोई और तरीका ऐसा है जिससे कृति का ज्ञान अधिक पूर्णता से हो जाय ? चौथा प्रकरण निर्णयात्मक आलोचना ( जुडीशल क्रिटीसिज़्म) आलोचना के लिये अंग्रेजी का शब्द क्रिटीसिज्म है । यह शब्द जिस ग्रीक धातु से आया है उसका अर्थ निरर्णय करना है । पश्चिम मे आलोचना की प्रारम्भिक रीति निर्णयात्मक ही थी, और निर्णय करने के मानदण्ड नैतिक होते थे। धीरे-धीरे आलोचना ने प्रेक्षावत् विश्लेषण द्वारा साहित्याध्ययन की प्रक्रिया का निष्पादन किया । आलोचना की आधुनिक चाल साहित्यिक कृतियों से प्राप्त मनाको को लिख डाल कर सन्तुष्ट होने की है । इस क्रम से आलोचना का विकास समय में हुआ। आदर्श रूप मे यह क्रम उलट जाना चाहिये । पहली अवस्था मे प्रलोचक पूर्ण ग्रहरणशीलता से कृति को पढे और उसके सम्पर्क में अपनी स्वतन्त्र प्रतिक्रिया का अनुभव करे । दूसरी अवस्था में कृति का सम्पर्क ज्ञान प्राप्त करे, जो तभी सम्भव हो सकता है जब आलोचक उत्तरप्रद और उत्तरदायी दोनो हो । और अन्त मे कृति के मूल के विषय में अपना निर्णय निश्चय करे । जो कि रचनात्मक और व्याख्यात्मक आलोचक इस बात को मानने के लिये तैयार नहीं है, फिर भी यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि आलोचना का मुख्य कार्य निर्णय रहा है और रहेगा । कृति का मूल्य उसी में पहले से ही निहित है अभिव्यक्त अनुभव मे ही नहीं, वरन् अनुभव की अभिव्यजन्ना मे भी । यदि कलाकार का अनुभव उसके लिये मूल्यवान् नही है और अनुभव की अभिव्यञ्जना उसे सन्तुष्ट नहीं करती, तो वह कलाकृति की रचना में असफल रहेगा, आलोचक का यही कर्तव्य है कि वह उन मूल्यों की खोज करे जिनके प्रभाव से कलाकार की रचनात्मक क्रियाशीलता सञ्चालित हुई थी और उन मूल्यों के जीवन और कलासम्बन्धी औचित्य की परीक्षा करे। इस प्रकार आलोचक मूल्यों का निर्णायक है । कलाकार जीवन के जङ्गल और अभिव्यञ्जना की परिक्रिया के परिष्कारकों का साहसी नेता है । आलोचक देखता है कि भटकी हुई मानवजाति के लिये उसने रास्ता साफ किया है या नहीं। और जिसे मानव जाति सत्य समझती थी, उसे उसने व्यक्त किया है या नही । आदर्श आलोचक तो असम्भव सी चीज़ है । वह सर्वज्ञ हो तथा जीवन और अस्तित्व की योजना में प्रत्येक वस्तु का आवश्यक स्थान समझता हो । उसकी बुद्धि दैविक होनी चाहिये। जिस प्रालोचक को हम आदर से सुन सकते है, वह मानव जाति की सञ्चित ज्ञानराशि का पूर्णतया जानता हो और उसमे यह निर्णय करने का सामर्थ्य हो कि कहाँ मनुष्य जाति सत्य के मार्ग पर थी और कहाँ वह भ्रान्तिमय भटकती थी । आलोचक कलाकार से उसके स्थल पर ही भेट नहीं करता वरन् उससे प्रागे जाता है। उसकी यह क्षमता जीवन व्याख्या तक ही सीमित नही है । उसे रूप के मूल्याङ्कन और शब्दो की व्यञ्जनाशक्ति की परीक्षा मे प्रवीण होना चाहिये, क्योंकि कलाकार अपने जीवनदर्शन को क्रमिक प्रतिमाओ और प्रत्ययो द्वारा रूप देता है । जिस प्रकार आलोचक जीवन के मूल्याङ्कन मे कलाकार से आगे होता है उसी प्रकार वह उससे रूप और रचनाप्रक्रिया के मूल्याङ्कन मे आगे होता है । उसमे यह देखने की योग्यता होती है कि वारणा और अभिव्यञ्जना दोनो मे रूप प्राप्त करने के लिये कलाकार ने जीवनवस्तु का निष्कपटता से प्रयोग किया है और उपकरण रूप के पूर्णतया उपयुक्त है। ऐसे प्रलोकको सास्कृतिक अनुशासन अविरत और सोत्माह स्वीकार करना चाहिये । ग्रीस के एक प्राचीन आलोचक लॉञ्जायनस का कहना है कि साहित्य की योग्यता पर निर्णय देना अतिशय प्रयास का मिष्ठ फल है। लोकको कला का विस्तृत अनुभव और दर्शन, सौन्दर्यशास्त्र तथा मालोचना का सर्वाङ्ग अध्ययन होना चाहिये । ऐसे अनुभव और अध्ययन से उसे मूल्याङ्कन के उन मानदण्डो की सूझ होगी जिन्हे वह साहित्य की परीक्षा में सविश्वास इस्तेमाल कर सकता है । साहित्य और कला के मूल्याङ्कन को समस्या को भलीभाँति समझने के पहले यह जानना लाभदायक होगा कि भिन्न-भिन्न काल के कवियो, दार्शनिको और आलोचको ने हमारे पथप्रदर्शन के लिए कौन-कौन सङ्केन, सिद्धान्त, और विशदीकरण दिये है । यूनानियो मे आलोचनात्मक शक्ति होमर से ही क्रियाशील हो जाती है। उसकी 'इलियड' के अठारहवें सर्ग मे कलात्मक रचना के विषय में एक प्रसिद्ध स्थल है । हिस्टस ने एकोलीज की माँ थैटिस की प्रार्थना पर उसके लिए एक ढाल बनायी थी । वह युद्ध और शान्ति के दृश्यो से प्राभूषित थी । इनमे से एक दृश्य बसन्त ऋतु मे किसी कृषक को खेत मे हल चलाता हुआ उपस्थित करता है। खेत को कन्दाकारी का वर्णन करते हुए होमर, हिफ स्टस की प्रशसा मे लिखता है, "और हल के पीछे धरती काली पड़ गई और जुती हुई धरती की तरह दिखाई पडने लगी, यद्यपि वह सोने की बनी हुई थी, और यही उसकी कला का अद्भुत चमत्कार था ।" कवि का कहना है कि यद्यपि कलाकार सोने पर काम कर रहा था फिर भी वह सोने के पीलेपन को काला कर दिखाने मे सफल हुआ । स्पष्ट है कि कलाकार माध्यम को अपनी इच्छानुसार परिवर्तित कर उसके द्वारा अपने विचार प्रकट कर सकता है। यहाँ हिर्फ स्टस ने सोने मे वह बात पैदा कर दी जो सोने का गुण नहीं था। गोकि होमर साफ-साफ नहीं कहता, इस स्थल का मालोचनात्मक महत्व कलाकार की सफलता का मानदण्ड निर्दिष्ट करना है। जहाँ तक कलाकार अपने माध्यम के अन्तर पर विजय प्राप्त करता है, वहाँ तक ही उसे सफल कहा जा सकता है । होमर के बाद यूनानी आलोचना मे कूटतार्किकों (सोफिस्ट्स ) का स्थान है । वे व्याकरण मे और वाग्मिता में निपुण होते थे। इसी से उन पर यह आक्रमरण होता था कि वे नवयुवको को वाक्चपल बनाकर उन्हे भ्रष्ट करते थे। परन्तु उनके छोटे नगरराज्य मे जनसत्तावादी वक्ता की आवाज कान मे गूंजती थी और सुभाषणकला मे चातुर्य दिखाने की प्रवृत्ति प्रत्येक नागरिक मे देखी जाती थी। इस कारण से आलोचना का एक ओर तो सुभाषणकलाकौशल मे अनुराग बढ़ा और दूसरी ओर उसी कला की विषय-वस्तुओ मे। बस, पालोचनात्मक मूल्याङ्कन के दो मानदण्ड भली-भाँति परिभाषित हो गये । जो लेख अथवा वक्तव्य जितना अलङ्कारयुक्त, व्यग्यार्थपूर्ण, प्रभावशाली हो वह उतना ही सुन्दर है और उसकी विषयवस्तु जितनी शिक्षाप्रद हो वह उतना ही महान् । यूनानी मस्तिष्क पर धर्म पौर जनतन्त्रीय राजनीति का ढाग्रह था और इन्ही दोनो गुरणको ने यूनान के साहित्य का विकास निश्चित किया। यूनानी मत के अनुसार साहित्य का उद्देश्य मनुष्यो को सत्य, धर्म्यता, और नागरिकता का उपदेश देना है। सभी यूनानी आलोचक इस बात पर सहमत है कि साहित्य का कर्तव्य पढाना है, परन्तु क्या पढाया जाय और कैसे पढ़ाया जाय, इन बातो पर मतभेद है । साहित्य उपदेशात्मक हो, इस मत का सबसे बली प्रकाशक प्लैटो था । प्लेटो आदर्शवादी सुधारक था और वह प्रत्येक एथेन्स निवासी को आदर्श नागरिक बनाना चाहता था । मनुष्य के दो धर्म हैं । बतौर विशिष्ट व्यक्ति के उसे सत्य की प्राप्ति में संलग्न रहना चाहिये और बनौर समाज के सदस्य के उसे सदाचारी होना चाहिये । सत्य और सदाचार की प्राप्ति ज्ञान द्वारा सम्भव है, ज्ञान जीवन के अनुभव के अतिरिक्त साहित्य द्वारा भी आता है। यह जानने के लिए कि साहित्य द्वारा प्राप्त ज्ञान एथेन्स के नवयुवक को लाभदायक या अथवा हानिकारक, उसने यूनानी साहित्य की कड़ी परीक्षा की। उसने होमर के महाकाव्य के बहुत से शो को दूक और झूठा साबित किया । पावित्र्यदूषकता का तो साहित्य मे व्यापक दोष है। इसका कारण यह है कि साहित्यकार अपने काव्यों मे भले आदमियों को दुखी और बुरे भादमियों को सुखी करके चित्रित करता है। नाटक मे तो बहुधा यही मिलता है। कविता भी मनोवेगो को दबाने के बजाय उन्हें उत्तेजित करती है और पाठक की बुद्धि पर अन्धकार का आवरण माच्छादित करती है। क्रूडेपन का दोष भी साहित्य में व्यापक है। प्लेटो का विश्वास था कि लौकिक सत्य अलौकिक सत्य की छाया है। कलाकार लौकिक सत्य का अनुकररण करता है और जिस सत्य को वह अपनी कला मे चित्रित करता है वह लौकिक सत्य की छाया है। इस प्रकार कला का सत्य दैविक अथवा सारभूत अथवा शुद्ध सत्य की छाया है । बस, यह बात सिद्ध हो जाती है कि साहित्य, नागरिक को न तो सत्य की शिक्षा देता है और न नीति की । इसी विचार से प्लैटो ने अपने जनसत्तात्मक राज्य मे कवि को कोई स्थान नहीं दिया। परन्तु इस विचार को प्लैटो का अन्तिम विचार नहीं समझना चाहिये। यदि कोई कवि दार्शनिक मनन मे व्यस्त रहता हुआ आध्यात्मिक अनुशासन का जीवन व्यतीत करे और ब्रह्मनिष्ठ गति को प्राप्त करके दैविक सत्य का अनुभव करने में समर्थ हो और ऐसे अनुभवो को अपती कविता में चित्रित करे, तो ऐसा कवि मानव जाति का सच्चा पथप्रदर्शक होगा और उसकी कविता मानव जाति की वाञ्छित विपुल धनराशि होगी। दोनो पक्षो मे जब वह कवि का बहिष्कार करता है और जब कवि को सच्चा पथप्रदर्शक कहता है, प्लैटो का निष्कर्ष यही है कि कविता अथवा कला वही उत्कृष्ट मानी जायगी जो नैतिक और दार्शनिक सत्य पर आधारित होगी। प्लेटो की कलात्मक उत्कृष्टता के मूल्याङ्कन का मानदण्ड सत्य की अनुकूलता है। प्लेटो कला को उपदेश के अधीनस्थ करके उसकी उपेक्षा करता है। अरिस्टॉटल उसे कल्पनात्मक आदर्शीकरण से सम्बन्धित करके उसका स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित करता है। प्लेटो ने सुन्दर और शिव का समीकरण किया। अरिस्टॉटल ने सुन्दर को शिव से अधिक विस्तृत माना । उसने कहा कि कल्पनात्मक अनुकरण तो चाहे बुराई का हो चाहे कुरूपता का सदा सुखदायक होता है और उपलब्ध सुख सदा मानसिक शोध का होता है। इस बात को उसने करुरण की परिभाषा के अन्तिम भागो मे स्पष्ट किया है कि वह करुणा, दया और भय के भावो को उत्तेजित करके उनका शोध करता है। इस विचार से कला पर पावित्र्यदूषकता का दोषारोपण करना वृथा है। झूठेपन का दोषारोपण भी सर्वथा निरर्थक है। कला का सत्य, भाव का सत्य होता है, तथ्य अथवा इतिहास का सत्य नही । अमुक पुरुष अमुक परिस्थिति में प्रमुक चारित्रिक विशेषताओं के कारण ऐसा करेगा, यह कलात्मक सत्य है। एलकोवियेडीज ने यह किया, यह ऐतिहासिक सत्य है। इस विचार से यह निश्चित हुआ कि अरिस्टॉटल का कला के मूल्याङ्कन का पहला मानदण्ड कलात्मक आदर्शीकरण है । कला के मूल्याङ्कन का अरिस्टॉटल का दूसरा मानदण्ड रूपसौष्ठव है। इसका स्पष्टीकरण उसने करुरण के विवेचन मे किया है। करुण के छ घटकावयव होते हैं - वस्तु अथवा घटनाओं का विन्यास; चरित्र अथवा सकल्पमक वृत्ति का बाह्य प्रदर्शन, वाक्सरणि जिसके द्वारा पात्रों के विचार व्यक्त होते है, भाव जिनसे वे उत्तेजित होते है, रङ्गमञ्च पर अभिनेताओं का खेल, और सङ्गीत । इन छहों मे वस्तु करुण की जान है और कवि को उसके निर्माण मे बडी नावधानी दिखानी चाहिये । वस्तु का श्रादि, मध्य, और अन्त हो और समस्त वस्तु मे ऐक्य हो । उसका घटना- विन्यास सम्भाव्य और अनिवार्यता के सिद्धान्तो पर हो । नायक के भाग्य में एक परिवर्तन हो सकता है, सुख से ही दुख की ओर; और दो परिवर्तन भी हो सकते हैं, सुख से दुःख की ओर और फिर दुख से सुख की ओर, परन्तु नाटककारो को एक परिवर्तन वाली वस्तु को अधिक पसन्द करना चाहिये । वस्तु का विकास अनुवृत्ताधार पर हो । नायक की परिस्थिति, उसके मित्रो और शत्रुओं के वर्गों के विवरण के पश्चात् धीरे-धीरे नायक का भाग्य उच्चतम स्थान तक उत्कृष्ट हो और फिर वहाँ से शावशक्तियों के बल पकड जाने के कारण धीरे-धीरे उसके भाग्य का पतन हो यहाँ तक कि उसका दु खमय परिणाम मे अन्त हो । पात्रो मे चार विशेषताएँ होनी चाहिये- वे पुण्यात्मा और उत्कृष्ट वृत्ति के हो, उनमे विप्रतिपत्ति न हो, उनमे यथार्थता हो, और अन्त तक उनके विकास मे सङ्गीत हो । करुण और भयानक रसों की उत्पत्ति के लिये नाटककार अभिनय और सङ्गीत का सहारा न ले वरन् चरित्र और सङ्घर्ष की विशेषताओं का । पात्र बडे घराने का हो और जाने किसी घातक भूल के कारण विपत्ति मे फँसे । सङ्घर्ष निकट सम्बन्धियो मे हो । शैली विशद और उत्कृष्ट हो । शब्द साधारण बोलचाल के हो, वैदेशिक शब्दो का प्रयोग किया जा सकता है, उपयुक्त अलङ्कार भाषा को रोचक और बनाएँ । रुरण का यह विवेचन जिसे वह महाकाव्य के विषय मे भी ठीक समझता है, इस बात का पूरा साक्ष्य है कि अरिस्टॉटल रूपमौष्ठव को कविता की परीक्षा मे कितने महत्त्व का समझता था। अरिस्टॉटल ने करुरण के विषय में विशिष्ट सुख का उल्लेख किया था, जो हमे रङ्गमञ्च पर उसके अभिनय अथवा घर मे उसके पढ़ने से मिलता है, परन्तु उसने इसे इतने महत्व का नही समझा था कि उसे कविता की परीक्षा का महत्त्वपूर्ण मानदण्ड माने । यूनान के अन्तिम महान् प्रलोचक लॉञ्जायनस का ध्यान इसी ओर गया । वह अपनी 'एट्रीटिज कन्सनिङ्ग सब्लीमिटी' नामक पुस्तक मे लिखता हे कि साहित्य मे अत्युदात्तत्व सदा भाषा की उच्चता और वैशिष्ट्य है । इसी गुरण के कारण कवि और गद्य-लेखक यशस्वी और अमर हुए है। असाधारण प्रतिभा के गद्याश और पद्याश हमे बोध ही प्रदान नही करते, वरन् हमे अलौकिक चमत्कारक आनन्द का स्वादन कराते हैं । रचना - कौशल और अनुक्रममूलक व्यवस्थापन तो समस्त रचना मे रचयिता परिश्रम से ले आता है, परन्तु अत्युदात्तत्व उचित समय पर आकर विषय-वस्तु को इधर-उधर अलग कर देता है और रचयिता की समस्त शक्ति को बिजली की जैसी एक चमक मे प्रकाशित करता है । साहित्य मे अत्युदात्तत्व पाँच तत्त्वों से आता है। पहला तत्व है महान और ऊँचे विचारों को सोचने और ग्रहण करने की शक्ति जो नैसर्गिक प्रतिभा का फल होती है । अत्युदात्तत्व का स्वर महानात्मा से ही निकलता है । महान् शब्द अनिवार्यत महान् प्रतिभा से ही उत्पन्न होते है । दूसरा तत्त्व है प्रबल और द्रुतम मनोवेग जिसकी क्षमता भी प्रकृति देती है। तीसरा तत्त्व है शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार का उपयुक्त प्रयोग । चौथा तत्त्व है पदरचना अथवा वाक्शैली । पाचवाँ तत्त्व है चमत्कारक प्रणयन । इन सब गुरगो से सम्पन्न प्रत्युदात्तत्व की पहचान यह है कि इससे सहृदय की आत्मा सत्व के उद्रेक से आनन्दमय हो उत्कृष्ट होती है। वही महान् साहित्य है जो नये मनन के लिये उत्तेजना देता है, जिसके प्रभाव को रोकना असम्भव हो जाता है, जिसकी स्मृति शक्तिवान् और अमिट होती है । यह सर्वथा सत्य है कि अत्युदात्तत्व के वही सुन्दर और सच्चे प्रभाव हैं जो सब कालो मे और सब देशो मे सहृदयो को आनन्द देते हैं। अत्यानन्दमय प्रभावोत्पादकता ही लॉञ्जायनस का साहित्यिक गुरण जाँचने का मानदण्ड है । सेण्ट्सबैरी के कथनानुसार तुलना ही उच्चतर और श्रेष्ठतर मालोचना का जीवन और प्राण है। रोम के आलोचको को तुलना का लाभ था, क्योंकि उनके सामने यूनानी साहित्य उपस्थित था । इस लाभ के परिणामस्वरूप वे यूनान की Raieना से अधिक सयुक्तिक आलोचना छोड सकते थे। परन्तु रोम की प्रतिभा व्यवहार कौशल मे चाहे जितनी उत्कृष्ट हो, तत्त्वत शौर्यहीन थी और यूनानी प्रतिभा की अपेक्षा अपने को तुच्छ समझती थी। रोम, ग्रीस को साहित्यिक बातो मे अपना शिक्षक और पदप्रदर्शक समझता । निरर्णयात्मक आलोचना रहा । और जिस उपयोगिता के दृढाग्रह ने यूनानी आलोचना को पथभ्रष्ट किया उसी दृढाग्रह ने रोम के आलोचको को और भी पथभ्रष्ट किया । सिसरो और क्विण्टीलियन दोनो वाग्मित्ता पर जोर देते है । वे किसी साहित्य को वही तक ऊँचा समझते है जहाँ तक वह सुभाषणकला के लिये लाभकारी हो । सुभाषणकला ही उनका प्रधान हित है और साहित्य गौरण । रोम के श्रालोचको मे एक हौरेस अवश्य ऐसा आलोचक है जो साहित्य को ही प्रधान हित मानता है । हौरेस कवि आलोचक था और कवि आलोचक कोरे आलोचक से सदा अधिक विश्वसनीय होता है, क्योकि वह कविता का अभ्यास करने के कारण कविता के सब नियमो को अपने भीतर देखने की क्षमता रखता है । परन्तु होरेस भी हमे निराश करता है । साहित्य के किसी रूप का उसे गहरा ज्ञान नही है । उसके सारे नियम ऐच्छिक है और वे पूर्वगामी आलोचको से लिये गये है । जिस बात पर उसका ज़ोर है, वह रचनाकौशल मे व्यवहारिक बुद्धि का प्रदर्शन है । उसके नियम उसके 'दि एपीसल टू द पीसोज अथवा आर्ट ऑफ पो मे है । श्रौचित्य का ध्यान रखो । ऐसा न करो कि स्त्री का सर घोडे की गदन और किसी पक्षी के शरीर पर रख दो । हाँ, कविश्नो को सब प्रकार के साहस का अधिकार प्राप्त है। फिर भी प्रकृति और व्यावहारिक बुद्धि असगत बातो को मिलाने से रोकती है। अलङ्कररण विषयोनुकूल होना चाहिये । इन बातो का ध्यान रखो कि कहीं सक्षेप होने में अस्पष्ट न हो जाओ, स्पष्टता के प्रयास मे बलहीन न हो जाम्रो, उडान के पीछे वृहच्छब्दस्फीत न हो जाओ, सादगी का गौरव प्राप्त करने मे नीरस न हो जाओ, और विभिन्नता के उद्देश्य की पूर्ति मे अमर्यादित न हो जाओ । विषय अपनी शक्ति को ध्यान में रख कर बॉटो । शब्दो की छाँट मे रिवाज का ख्याल रखो । जिस प्रकार की कविता मे जैसा छन्द का प्रयोग चला आ रहा है, उससे न हटो । काव्यो के पात्र अब तक जैसे चित्रित होते आये है वैसे ही चित्रित होते रहने चाहिये, एकीलीज़ को सदा असहिष्णु, कठोर और घमण्डी चित्रित करना चाहिये और मैडी को रुधिरप्रिय और प्रतिशोधनोत्सुक चित्रित करना चाहिए । नये विषयो की अपेक्षा पुराने विषय अधिक अच्छे है। पुराने विषयो पर नया प्रकाश डाल कर मौलिकता दिखाना ज्यादा ठीक है। किसी प्रबन्ध का आदि शब्दाडम्बर पूर्ण शैली मे नही होना चाहिये। आग जलाकर धुँए मे अन्त करने से धुंए से आग जलाना अधिक चित्तवशकर होता है। अपने पाठक को धीरेधीरे ऊपर उठाना चाहिये । जीवन-चित्ररण मे साधारणीकरण सविवेक हो, बच्चे को बुड्ढे के गुण देना और बुड्ढे को जवानो के गुरण देना अनुचित है। प्रत्येक नाटक मे पाँच प्रक होने चाहिये और एक दृश्य मे तीन पात्रो से अधिक न बोले । कार्य की कमी को गायकगरण पूरी करे, उनके भाव नैतिक और धार्मिक हो । हास्य और करुण का सम्मिश्रण अनुचित है। हर प्रकार के लेख को जितना माँजा जाय उतना अच्छा । अचिन्तित और प्रेरित रचना की चर्चा सारहीन है। जीवन और दर्शन के कवि को जितना ज्ञान हो उतना ही थोडा । ( राजशेखर भी अपनी 'काव्यमीमासा' मे कहता है कि बिना सर्वज्ञ कवि होना असम्भव है) कवि शिक्षा दे, अथवा दुख दे, अथवा शिक्षा और सुख दोनी दे । दोषो से बिल्कुल बनने की कोशिश ज्यादा आवश्यक नहीं, पर दोषो से जितना बचा जाय उतना अच्छा । ( इस विषय में लॉञ्जायनस की यह उक्ति व्यान में रखने योग्य है कि मनुष्य की श्रेष्ठता उस ऊँचाई से जानी जाती है जिस तक वह चढ जाता है । उस नीचाई से नही जिस तक गिर जाता है ।) मध्य श्रेणी की कविता असह्य है । कविता या तो उदात्त ही होती है नही तो दूषित और घृणित ही। अपनी रचना को प्रकाशित करने की जल्दी न करो परन्तु अपनी और दूसरो की आलोचना से उसे ठीक करते रहो । इन नियमो मे बडी ऊँची बाते नहीं है और इन नियमो का पालन करके कोई मध्यम श्रेणी का कवि ही बन सकता है, फिर भी पुनरुत्थान और नवशास्त्रीय कालो मे हौरेस का बडा आदर था, नवशास्त्रीयकाल मे तो उसका अरिस्टॉटल से भी अधिक आधिपत्य था । इन नियमो से हौरेस ने शास्त्रीय मत की स्थापना की । मध्यकालीन विचार सामूहिक था, स्वतन्त्र और वैयक्तिक था । स्वभावत आलोचना के अनुकूलन था । बीथियस का मानदण्ड प्लैटो का है । काव्य देवियाँ मनुष्यो को मधुर विष पिलाती है, बुद्धि के प्रचुर फल का विनाश करती है, और दर्शन देवी को आते देखकर खिसक जाती है । सेट ऑगस्टिन भी साहित्य के सुख को राक्षसी सुख बताता है । डाएटे अकेला ही आलोचना का ऐसा महान् उदाहरण है जिसने बिना धार्मिक पक्षपातो के साहित्य की परीक्षा की। वह हौरेस से काव्यशक्ति और आलोचनात्मक प्रेरणा मे कही बढा चढा था । उसके निर्णयात्मक मानदण्ड उसकी 'डे वलौराई दूसरी पुस्तक से निकाले जा सकते है । इस पुस्तक मे वह कविता के लिये सास्कृतिक भाषा की उपयुक्तना की जाँच करता है। उसके विचार ये है । उत्कृष्ट कविता सास्कृतिक भाषा ही मे हो सकती है । उत्कृष्ट कविता के विषय युद्ध, प्रेम और धर्म होते है । कवियो के अभ्यास से भी यही स्पष्ट है और दार्शनिक विचार से भी । मनुष्य - पौधा-जातीयपाशविक - बौद्धिक प्राणी है । पौधाजतीय होते हुए बढवार के लिये रक्षा चाहता है जिसके लिये उसे शत्रुप्रो से लडना पड़ता है, पाशविक होते हुए भिन्न लिङ्ग पर आसक्ति की उसमे प्रवृत्ति है; और बौद्धिक होते हुए धर्म और नीति के पालन करने मे तत्पर होता है । उत्कृष्ट कविता का पद ग्यारह मात्रा का होता है । डाराटे कविता की परिभाषा ऐसे करता है, "कविता वग्मितापूर्ण पद्यकृत कल्पित कथा के अतिरिक्त और कोई चीज़ नही है।" इस परिभाषा मे कल्पित कथा जातिसूचक है और वाग्मिता और पद्यात्मकता पार्थक्य सूचक है, कल्पना और पद्यात्मकता इस प्रकार कविता के दो मुख्य लक्षण हो जाते हैं । महान् शैली के लक्षण डाएटे के अनुसार चार है- अर्थगुरुता जो युद्ध, प्रेम, और धर्म उपर्युक्त विषयो का प्रयोग से है; पद्य-चमत्कार जो ग्यारह मात्राओ के पद के प्रयोग से आता है; शैली की उत्कृष्टता जो सालङ्कार भाषा के प्रयोग से आती हैं, और शब्दसग्रह की श्रेष्ठता जो मध्य आकार के शब्दों के प्रयोग से आती है। डाराडे मुख्यत, रूप का आलोचक है 'गोकि जैसा स्पष्ट है विषयवस्तु की ओोर भी वह ध्यान देता है। यदि कविता रूपसौष्ठव मे उच्चश्रेणी की है तो वह ही सराहनीय है । इस विषय मे उसकी दो उक्तियाँ स्मरणीय है - पहली यह कि जो कुछ सङ्गीत के नियमों के अनुसार पदो मे व्यक्त हो चुका है, एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवादित नही हो सकता । इससे स्पष्ट है कि डाएटे को रूपसौष्ठव का ज्यादा ख्याल है क्योकि अनुवाद मे विषय तो ज्यो का त्यो रहता है परन्तु रूपसौष्ठव की हानि होती है। दूसरी उक्ति है कि किसी भाषा की आन्तरिक शक्ति उसकी गद्य मे जानी जाती है न कि उसकी पद्य मे । भारतीय विचार के अनुसार भी गद्य को कवि को कसौटी कहते है - "गद्य कवीना निकष वदन्ति" । यहाँ भी डाएटे का व्यान अर्थ की अपेक्षा शब्द और शब्दयोजना की ओर है। काव्यगुण निर्णय करने का डाराटे का मानदण्ड रूप का सौन्दर्य है । पुनरुत्थान के समय कई प्रभाव ऐसे क्रियाशील थे जिन्होने योरोपीय मस्तिष्क को स्पष्टतया आलोचनात्मक मनोवृति प्रदान की। जागीरदारी की प्रथा का केन्द्रित राज्य मे परिवर्तन, प्राचीन शास्त्रो का अध्ययन भ्रष्ट पादरी जीवन का स्पष्ट विरोध - ये ऐसी - बाते थी जिनसे राजनीतिक, सास्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रो मे क्रान्ति पैदा हो गई । क्रान्तिकारी वृत्ति जो आलोचना से उत्तेजित होती है, स्वय आलोचना को वृद्धि भी देती है । शैतान ही तो पहला आलोचक था जिसने भगवान के विरुद्ध स्वर्ग मे क्रान्ति फैलाई और फिर नरक मे पहुँच कर अपने अनुयायियों को आलोचनात्मक व्याख्यान दिये । पुनरुत्थान मे मुद्रणकला द्वारा विचारों के प्रसार ने आलोचनात्मक प्रक्रिया को और प्रवर्तकशक्ति दो । साहित्य मे आलोचनात्मक प्रवृत्ति को नई भाषाओ की कमजोरी, ग्रीक और लैटिन आलोचना की पुनर्प्राप्ति और प्योरीटन आक्रमण के विरुद्ध प्रतिवाद ने और मदद दी । पुनरुत्थान की पहली अवस्थाओ मे इटली आलोचनात्मक संस्कृति का घर था और इटली के आवक योरोप भर मे तब तक सम्मानित रहे जब तक कि फ्रान्स के आलोचक सत्तरहवी शताब्दी मे उच्चतर पद को न प्राप्त हुए । विडा का मत है कि कवियो को शास्त्रीय लेखको का अनुकरण करना चाहिये, विशेषतया वर्जिल का जो कि होमर से बढ़ा चढा था । वह वर्जिल को सब गुरगो का प्रतिमान और सब श्रेष्ठता का आदर्श मानता है । डैनीलो सुख और शिक्षा देने के अतिरिक्त कविता का उद्देश्य आवेग और सानन्दाश्चर्य का उत्तेजित करना भी मानता है। फार्केस्टोरो अरिस्टॉटल के अनुकरणात्मक सिद्धान्त के प्रत्ययात्मक तत्त्व को स्पष्ट करता है, कवि वस्तु के सादे और तात्विक सत्य का वर्णन करता है, वह नग्न वस्तु का वर्णन नहीं करता वरन् सब प्रकार के आभूषण से सजा कर उसके प्रत्यय का वर्णन करता है। फार्केस्टोरी के समय तक सौन्दर्य के तीन विचार प्रचलित थे। पहला शुद्ध अनात्मिक विचार था जिसके अनुसार सौन्दर्य स्थिर और रूपात्मक माना जाता है, वही वस्तु सुन्दर कही जा सकती है जो किसी यान्त्रिक अथवा रेखागणित विषयक रूप के समान हो जैसे गोलाकार, सम-चतुर्भुजाकार और सारल्य। दूसरा प्लैटो सम्बन्धी विचार था जिसके अनुसार शिव, सत्य और सुन्दर को समान माना जाता है; तीनो दैविक शक्ति के प्रकटन हैं। तीसरा सौन्दर्य शास्त्रसम्बन्धी विचार था जिसके अनुसार सौन्दर्य को उन सब उपयुक्तता के अनुरूप माना जाता है जो किसी वस्तु से सम्बन्धित की जा सकती है । यह विचार आधुनिक विचार के निकट आ जाता है जिसके अनुसार सौन्दर्य किसी पदार्थ के वास्तविक लक्षरण का प्रत्यक्षीकरण है अथवा उसके अस्तित्व के नियम की सिद्धि है। इतिहासकार अपने लेख को इतिहास सम्बन्धी सौन्दर्य ही दे सकता है, दार्शनिक दर्शन सम्बन्धी सौन्दर्य दे सकता है, परन्तु कवि अपने लेख को सब प्रकार के सौन्दर्य से सजा सकता है । वह किसी एक क्षेत्र के सौन्दर्य ही की धारणा नहीं करता, वरन् उन सब सौन्दर्यो की जो किसी वस्तु के शुद्ध प्रत्यय से सम्बन्ध रखती है। इस प्रकार कवि और सव लेखको से श्रेष्ठ है क्योकि वह अपनी वरिंगत वस्तु को सम्पूर्ण सौन्दर्य मे प्रदर्शित करता है। मिण्टरनो के मतानुसार कवि को सदाचारी और विद्वान् पण्डित होना चाहिये । यदि वह प्रतिभाशाली हो तो नियमो का उल्लङ्घन कर सकता है । स्कैलीगर कवि के पाण्डित्य पर ज़ोर देता है । जिराल्डी सिन्थियो करुण और हास्य पर अपने विचार व्यक्त करता है । करुण के पात्र ऊँची पदवी के होते हे और हास्य के साधारण और नीची पदवी के । करुरण महान् और भयानक घटना का वर्णन करता है और हास्य सुज्ञान और घरेलू बातो का । करुरण सुख से दुख की ओर परिवर्तित होता है और हास्य बहुधा दुख से सुख की ओर । करुण की शैली और वाक्सररिग उत्कृष्ट मौर उदात्त होती है और हास्य की अपकृष्ट और सालापिक । करुण के विषय अधिकाश ऐतिहासिक होते है और हास्य के कवि के आविष्कृत । करुण का वातावरण अधिकतया निर्वासन और रक्तपात का होता है और हास्य का प्रधानत प्रेम और सग्रहण का । कैस्टेलवैट्रो का ध्यान भी नाटक की आलोचना की ओर जाता है । वह उसी नाटककार को सफल मानता है जो अपने नाटक मे वस्तुसङ्कलन, कालसङ्कलन, और देशसङ्कलन तीनो मे से किसी को भङ्ग नही करता और जो रङ्गमञ्चीय सत्याभास देता है । टासो ने रोमानिक महाकाव्य का आदर्श निश्चित किया है । उसमे विषय की आनन्दप्रद विभिन्नता के साथ-साथ महाकाव्य का तात्विक वस्तुसङ्कलन भी होता है। रोमासिक वीरकाव्य की यह विशेषताएँ बताता है । विषय ऐतिहासिक होना चाहिये । ऐतिहासिकता से काव्य मे सत्य का प्राभास होने लगता है और पाठक को भान होता है कि लिखित बाते सब सप्रमाण है। वीरकाव्य मे सच्चे धर्म का अर्थात् ईसाई मत का वृतान्त होना चाहिये, झूठे मत का नहीं, यूनानी धर्म की बाते वीरकाव्य के लिये ठीक नही क्योकि उसमे अद्भुत तत्त्व तो है परन्तु सम्भाव्य नही और वीरकाव्य के लिये दोनो आवश्यक है । काव्य मे धर्म की ऐसी कट्टर बातो का समावेश न होना चाहिये ज़िनका थोडा बहुत परिवर्तन कर देना अधर्म का दोष ले आये और कवि की कल्पना बाधित हो जाय । विषय-वस्तु न तो अधिक प्राचीन हो, न अधिक आधुनिक हो, क्योकि यदि बहुत प्राचीन हुई तो उसमे ऐसे अनोखे रीतिरिवाजो का वर्णन आयेगा जिसमे पाठक का अनुराग कठिनाई से हो सकता है और यदि विषयवस्तु बहुत आधुनिक हुई तो उसमे सम्भाव सहित अद्भुत बातो का लाना कठिन हो जायगा । शार्लमेन और आर्थर के काल उचित माने जा सकते है। घटनाएँ महत्त्वपूर्ण होनी चाहिये । नायक भद्र और जातिनिर्णयात्मक आलोचना ] पालक होना चाहिये । पैट्रिजी का कहना है कि कविता किन्ही विशिष्ट विपयो से सीमित नही है, उसमे कला, विज्ञान इतिहास सब विषयों का निरूपण हो सकता है, बस बात यह है कि शैली काव्यमय हो । पुनरुत्थान काल की अँग्रेजी आलोचना न इतनी प्रचुर है, न इतनी प्रभावशाली और विभिन्नतापूर्ण है जितनी कि इटली की । परन्तु उसका अध्ययन इस बात को स्पष्ट कर देता है कि पुनरुत्थान काल मे आलोचनात्मक सिद्धान्त उपलब्ध थे और इस उपलब्धि मे इङ्गलैड का भी पूरा भाग था। दूसरी बात जो यह अध्ययन स्पष्ट करता है वह यह है कि किस प्रकार अंग्रेजी आलोचना मे शास्त्रीयता का प्रचार बढा । अंग्रेजी आलोचना के विकास की पहली अवस्था मे मालोचको ने आलङ्कारिता, रूप, और शैली की ओर व्यान दिया । दूसरी अवस्था में भाषा और पदयोजना के प्रश्नो को हल किया। तीसरी अवस्था मे कविता का दार्शनिक विचार से अध्ययन, विशेषतया इस हेतु से कि किस प्रकार उसे प्योरीटनो के आक्रमण से बचाया जाय जो कविना को झूठी और कलुषीकारक कह कर दूषित करते थे। चौथी अवस्था मे कविता का अध्ययन काव्यरचना और आलोचनात्मक सिद्धान्तों के समर्थन के उद्देश्यो से हुप्रा । उस काल के सिडनी, बैनजॉन्सन, और बेकन, तीन ऐसे आलोचक हैं जिनसे साहित्य परीक्षा के मानदण्ड मिलते है । सिडनी, कविता को अरिस्टॉटल की तरह अनुकरण मानता है । सालङ्कार भाषा मे उसे बोलती हुई तस्वीर कहता है जिसका उद्देश्य सुख और शिक्षा देना है । छन्द कविता के लिये तात्त्विक नही है, वह उसका आवश्यक प्राभूषण है । कविता नीति की शिक्षा देती है और मनुष्य के जीवन को उच्चतम स्तर तक ले जाने में समर्थ होती है । कविता नैतिक ज्ञान ही नही देती, नैतिक जीवन व्यतीत करने की उत्तेजना भी देती है । कवि तत्त्ववेत्ता और इतिहास - वरन् कार दोनो से उच्चतर है । तत्त्ववेत्ता तो नीति और अनीति का स्पष्टीकरण करता है और अपने अनुयायियों को आदेश देता है, परन्तु कवि नैतिक प्रदेश को एक कल्पित व्यक्ति के जीवन मे अनुप्राणित कर एक प्रभावोत्पादक उदाहरण पेश करता है । इतिहासकार किसी सासारिक महान व्यक्ति के जीवन का वृतान्त देता है जिसको पढकर पाठक को यह विश्वास नही हो पाता कि जिन नियमों का पालन करके उस महान् व्यक्ति ने यश और गौरव पाया वे व्यापक महत्त्व के हैं, परन्तु कवि साधारणीकरण शक्ति के द्वारा पाठक को नियमो का प्रभाव कारणकार्य रूप में दिखाता है। इतिहास मे कभी-कभी बुरे आदमी सफल हो जाते हैं और कभी-कभी भले मादमी विफल हो जाते है और साहित्यकार उनके जीवन को वैसे ही वरिंगत करता है, परन्तु कवि भले प्रादमी को सदा सफल कर दिखा सकता है और बुरे आदमी को सदा विफल कर दिखा सकता हैं। इसी विशेषता से कविता को अज्ञानी पुरुष झूठा कह देते हैं। वे ऐतिहासिक सत्य और काव्यमय सत्य मे भेद नही कर सकते । बैनजॉन्सन की रुचि व्यवस्था, एकरूपता, और शास्त्रीयता की ओर थी । उसने बडे पाण्डित्य से उन सब बातो को कह डाला है जिन्हें अग्रेजी आलोचक ऐस्कन से लेकर पदनहम तक कहने का प्रयास कर रहे थे और वह ड्राइडन, पोप, और जॉन्सन के मत की रूपरेखा निश्चित करता है । नाटक प्ररणयन मे वह शास्त्रीय मत का प्रकाशक है और नियमो का बडा निर्भीक प्रतिपादक है, गो कि अभ्यास में वह काल और देशसङ्कलन और गायकगरण सम्बन्धी नियमों का उल्लङ्घन करता है। करुण के लेखक को नियमो के पालन के साथसाथ वस्तु की सत्यता, पात्रो की गम्भीरवृत्ति, वक्तृत्व की उत्कृष्टता और सारपूर्ण वाक्यो की बहुतायत पर ध्यान देना चाहिये । बैनजॉन्सन ने करुरण की अपेक्षा हास्य का अधिक विस्तृत विवरण दिया है । हास्य के श्रङ्ग वे ही है जो करुरण के है और करुणा की तरह हास्य का उद्देश्य भी सुख और शिक्षा देना है । हास्य मनुष्य के छोटे-छोटे दोषो को रङ्गमञ्च पर खोल दिखाकर उन्हें उपहास्य बताता है ताकि दर्शक लोग अपने ऐसे दोषो पर स्वय दृष्टि डाले और उन्हे छोडे । जैसे करुरण, शोक और भय द्वारा नैतिकता का उद्देश्य पूरा करता है वैसे ही हास्य छोटे परिमाण के कमीनेपन और बेवकूफी की हँसी उडाकर नैतिकता का उद्देश्य पूरा करता है। दोनो मे क्रिया सुधारक है, बस उपकरण का अन्तर है । करुरण ऊँची और असाधारण बातो से मतलब रखता है और हास्य छोटी बातो से, जो साधारण अनुभव की होती है, हास्य मे अन्तर्वेगो का द्वन्द्व और घटनाओ का भाग्य से और उनका परस्पर सङ्घर्ष दिखाया जाता है, करुण मे चरित्रो का भेद और कूटयुक्तियों की सफलता अथवा विफलता दिखाई जाती है, हास्य मे कृत्य की विशेषता यह है कि उसका कोई वाह्य आधार नहीं होता, बल्कि चरित्र - विभेद का प्रान्तरिक प्रभाव ही कृत्य का रूप दृढ करता है । ऐसे सादृश्य के आधार पर ही बैनजॉन्सन ने हास्य का विवेचन किया। हास्य का मुख्य उद्देश्य हँसी और विनोद नहीं, वे उसके साधक है । हास्य के लेखक को उन्हें मुख्य उद्देश्य बनाने के विलोभन से बचते रहना चाहिये । यदि वह इस विलोभन मे पड गया तो सम्भव है कि वह घोर पापो का प्रदर्शन कर उनकी ओर हँसी दिलाने की चेष्टा करने लगे । इससे हास्य का उद्देश्य मारा जायगा क्योकि घोर पापो की ओर घृणा उत्पन्न करना चाहिये न कि हँसी । हँसी उत्पन्न करने के विलोभन में यह भी खतरा है कि हास्य का लेखक प्रतिवाद मे पड जाय और अतिवाद प्रहसन ( फार्स ) मे ठीक है, हास्य मे गलत । प्रचचित सुखान्त हास्य को बैनजॉन्सन निन्दनीय मानता है । ठीक हास्य समाज का सुधारक होता है, इस धारणा से उसने स्वभाव ( ह्यूमर ) का सिद्धान्त प्रतिपादित किया । पृथ्वी, जल, वायु, औौर अग्नि इन चार तत्वों के अनुरूप मनुष्य के शरीर मे कृष्ण पित्त, कफ़, रक्त, और पित्त इन चार द्रव्यो का सञ्चार है । जब ये चारों द्रव्य ठीक-ठीक अनुपात में किसी मनुष्य में विद्यमान होते हैं तो मनुष्य का मानसिक और नैतिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है। यदि इनमे से किसी एक द्रव्य का अनुपात अधिक हो जाय तो मनुष्य का स्वभाव अधिक मात्रा वाले द्रव्य की विशेषता दिखायेगा। यदि मनुष्य में कृष्ण पित्त अधिक हुआ तो उसका स्वभाव निरुत्साह होगा, यदि उसमे कफ का अनुपात ज्यादा हुआ तो उसका स्वभाव मन्द होगा, यदि उसमें रक्त का अनुपात ज्यादा हुआ तो उसका स्वभाव उल्लसित होगा, यदि उसमे पित्त का अनुपात ज्यादा हुआ तो उसका स्वभाव निर्णयात्मक प्रालोचना] क्रोधी होगा । हास्य का उद्देश्य मनुष्य के व्यवहार मे उन तत्त्वों का निरीक्षण करना है जो या तो उसमे नैसर्गिक रूप से प्रधान होते है या जो जीवन व्यापार मे उत्तेजना पाने पर दूसरे तत्त्वो को दबाकर अपनी सीमा से बढ जाते है । ऐसा निरीक्षरण भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले बहुत से मनुष्यों में किया जाय और जब बिगडे हुए स्वभावो का एक दूसरे से सङ्घर्ष हो तो इन व्यतिक्रमो का अनैतिक प्रभाव प्रदर्शित किया जाय । मान लो कि हम किसी आदमी को लोभी कहते है क्योकि लोभ उसकी विशेषता है और उसके लिए लोभ स्वाभाविक है, यह श्रादमी जीवन व्यापार में इस प्रकार काम कर सकता है कि लोभ की प्रवृत्ति उभरने न पाये, और मूर्खो प्रथवा शैतानों के बीच मे पड जाने से ऐसा भी व्यवहार कर सकता है जिससे उसकी लोभ की प्रवृत्ति दूसरी प्रवृत्तियो पर आधिपा जाये । पहली दशा मे मनुष्य अपने स्वभाव के अन्तर्गत कहा जायगा और दूसरी दशा मे अपने स्वभाव के वहिर्गत कहा जायगा । दोनो दशाओ मे हास्य को अवकाश है और प्रश्न केवल परिमारण का है। पिछली दशा नाटककार को अधिक प्रिय है क्योकि आधिक्य रङ्गमञ्च पर अधिक प्रभावोत्पादक होता है और आधिक्य के सङ्घर्षो का प्रदर्शन प्रधिक शिक्षाप्रद होता है । इस सिद्धान्त पर हास्य लिखने मे पात्र कठपुतली की तरह रुक्ष और एकरूप हो सकते है और वे सरल तो हो ही जाते हैं, तथा वे आन्तरिक शक्ति की न्यूनता के कारण जीवित से भी प्रतीत नही होते । परन्तु बैनजॉन्सन का हास्य विषयक मानदण्ड यहाँ स्पष्ट है । कविता के विषय में पहली बात जो बैनजॉन्सन की आलोचना मे एकदम द्रष्टव्य है वह कवि की नैतिकता है। बिना सदाचारी हुए कवि अच्छी कविता नही कर सकता । अपनी 'डिसकवरीज' मे कवि की आवश्यकताओ का वर्णन देते हुए बैनजॉन्सन कहता है कि "कवि मे उपयुक्त स्वाभाविक बुद्धि हो, क्योकि बहुत सी दूसरी कलाएँ नियमो और प्रदेश के परिपालन से भी आ सकती है, परन्तु कवि जन्मना ही होता है। दूसरी आवश्यकता कवि मे जन्मप्राप्त बुद्धि का अभ्यास है। बहुत से पद जल्दी लिख डालने से ऊँची श्रेणी की कविता नही आ सकती । काट-छाँट और पदो को धीरे-धीरे माँजना आवश्यक है। अच्छा लिखने से जल्दी लिखना आता है न कि जल्दी लिखने से अच्छा लिखना । वर्जिल कहा करता था कि वह अपनी कविता को पीछे से ऐसे रूप देता था जैसे रीछनी अपने बच्चो को डालकर फिर चाट चाट कर उन्हें रूप देती है। तीसरी आवश्यकता अनुकरण की है। किसी महान् कवि को छाँट कर उसका ऐसे अनुकरण करना कि धीरे-धीरे स्वय उसी कवि के समान हो जाना, जैसे वर्जिल और स्टेटस ने होमर का अनुकरण किया था। अनुकरण दास तुल्य न हो। चौथी आवश्यकता अध्ययन की सूक्ष्मता और विस्तार, ऐसा अध्ययन जो जीवन का अश हो जाय और उचित समय पर काम आ जाय। पाँचवी आवश्यकता नियमो का ज्ञान है, क्योकि बिना नियमो के ज्ञान के प्रतिभा का नियन्त्रण और उससे पैदा हुए भावो का व्यवस्थापन सम्भव नहीं। इस प्रकार लिखी हुई कविता को कवि ही जाँच सकता है, कविता की समीक्षा की शक्ति कवियो मे ही होती है। बेकन ने इतिहास का निर्देश मेधा से, दर्शन का ज्ञानशक्ति से, और कविता का कल्पना से मान लेने मे परम्परा का अनुसरण किया । नाटक को उसने सारङ्गी बजाने वाले का गज कहा जिससे निकली हुई तान द्वारा बडे-बडे मस्तिष्क प्राभवित हो सकते है। रङ्गशाला मे नाटक के अद्भुत प्रभाव का कारण सामूहिक मनोवृत्ति बताई गयी है । जब बहुत से दर्शक एक जगह एकत्रित होते हैं तो उनमे रस का सवार आधिक्य पा जाता है । कविता कल्पनामय ज्ञान है । उसका स्रोत मनुष्य की इस संसार से असन्तुष्टि है । सासारिक गौरव, सासारिक व्यवस्था, सासारिक विभिन्नता मनुष्य को सन्तुष्ट नही करती और वह अपनी कल्पना से वास्तविक गौरव से अधिक श्रेष्ठ गौरव, वास्तविक व्यवस्था से अधिक पूर्ण व्यवस्था और वास्तविक विभिन्नता से अधिक सुन्दर विभिन्नता सोच सकता है । कविता वस्तुओं के रूप को मानसिक इच्छा के अनुरूप परिवर्तित कर देती है । बेकन का मानदण्ड कल्पनात्मक सुख है । सत्तरहवी शताब्दी के फ्रान्सीसी आलोचको के नियम फ्रान्स ही मे नही वरन् समस्त यूरोप में सम्मानित थे जिनमे से तीन अधिक माननीय हैं - बोयलो, रैपिन और लै बौस्यू । वोयलो की 'एल आर्ट पोयटीक' से यह मत यहाँ उल्लेखनीय है । कविता के प्रत्येक विषय मे चाहे वह मोदजनक हो चाहे उदात्त, विवेक अवश्य होना चाहिये । पद्यरचना से अधिक मूल्यवान् विवेक ही है और इसी से काव्य मे गुरण और चमक पैदा होती है। बहुत से कवियो को इस बात का मान होता है कि उनकी कविता मे ऐसी अद्भुत बाते है जो आज तक किसी दूसरे ने नही लिखी । यह सब प्रयुक्त है । कविता विवेकपूर्ण होनी चाहिये । कविता मे कोईं अविश्वसनीय बात नही होनी चाहिये, जिस बात मे विश्वास नही उससे मन कैसे प्रभावित हो सकता है । यदि तुम अपनी कविता को प्रिय बनाना चाहते हो तो तुम्हारी काव्यदेवी ज्ञानपरिपूर्ण होनी चाहिये । सौरस्य के साथ-साथ सार और उपयोगिता भी होनी चाहिये । प्रकृति ही हमारा अध्ययन होनी चाहिये । हम प्रकृति से कभी विमुख न हो । बोयलो का मत इस बात पर आधारित है कि प्रत्येक साहित्यिक रूप की सम्पूर्णता की चरम सीमा अथवा मर्यादा है। रचनात्मक कलाकार इस मर्यादा को पूरी तरह समझे और आलोचक इसी के मानदण्ड से साहित्य समीक्षा करे । इस मत मे वस्तु के विषय में प्रार्थना की कचहरी विवेक अथवा प्रकृति है और प्रणयन के विषय में प्रार्थना की कचहरी रुचि है। रैपिन अपनी 'रिफलेक्शन्स सर लापोयटीक' मे कविता पर अपने विचार प्रकट करता है । वह प्लैटो और अरिस्टॉटल के इस मत का प्रतिवाद करता है कि कविता में विक्षिप्ति का प्रवेश होना चाहिये । चित्तविक्षेप का कविता से कोई सम्बन्ध नही । कविता सुख का प्रयोग उपदेश के लिये करती है। अरिस्टॉटल के नियम प्रकृति के व्यवस्थापन है। यदि किसी नाटक मे सङ्कलन-त्रय न हो तो उसमे सत्याभास भी नहीं आ सकता । ले बोस्यू महाकाव्य मे अरिस्टॉटल और हौरेस को नियमो के सम्बन्ध मे और होमर और बजिल को आधार के सम्बन्ध मे सब अधिकार देता है । नवशास्त्रीय काल की रूपरेख बैनजॉन्सन और बोयलो मे निश्चित हो जाती हे । आलोचनात्मक एकरूपता इस काल की मुख्य विशेषता है । मिल्टन कहता है कि शिक्षणपूर्णता मे कविता तक प्रौर वाग्मिता से दूसरी श्रेणी की हे ओर शिक्षणपूर्ण होने के लिये कविता सरल, इन्द्रियमूलक ओर आवेगमय होनी चाहिये । ड्राइडन आलोचना को शिक्षरण के उद्देश्य से बचाकर उसे सद्धान्तिक, तुलनात्मक ओर ऐतिहासिक बनाता है । वह कवि मालोचक था, साहित्य मे उसका सच्चा अनुराग था, उसने प्राचीन ग्रीक और रोमी साहित्य खूब पढ रखा था और तत्कालीन यूरोप के साहित्य का भी उसे अच्छा ज्ञान था । ड्राइडन नाटक को जीवन का जीवित चित्र मानता है । इसी कारण वह ऐसे नाटको से जो नियमो का पालन करते हो पर जीवन- चित्रण में कृत्रिम हो जाते हो, उन नाटको को ज्यादा अच्छा समझता है, जिनमे नियमो का चाह उल्लङ्घन हो, परन्तु उनमे अकृत्रिमता हो । वह करुण-हास्य के पक्ष मे है । करुण-हास्य अधिक सुखमय होता हे । यह बात नही मानी जा सकती कि करुण श्रोर प्रमोद एक-दूसरे को निष्फल बना देते हे, सच यह हे कि सम्मिश्रण मे वे एक-दूसरे को और फलीभूत कर देते हैं। यदि के साथ किसी नाटक में उपवस्तु भी हो और उपवस्तु के होने से अस्तव्यस्तता न तो उपवस्तु का प्रयोग दोप की जगह गुरण माना जायगा । नाटक क चित्रित कृत्य और वरिणत कृत्य मे ठीक सामञ्जस्य हो, एलीजेत्रेय के काल का नाटक कृत्य को अधिक दिखाता है और फान्स का नाटक कम दिखाता है, नाटककार को दोनों के बीच का रास्ता पकडना चाहिये । करुण की भाषा के विषय मे ड्राइडन का मत है कि वह पद्यात्मक होनी चाहिये, पहले तो तुकान्त पद्य के पक्ष मे था पर पीछे से अतुकान्त के पक्ष मे हुआ । वह पद्यात्मक भाषा के प्रयोग का समर्थन इस विचार से करता है कि उसके द्वारा एक ऐस। वातावरण तैयार हो जाता है जिसमे काव्य की आदर्शवादिता अच्छी तरह ग्रहणीय होती है। इसमे शक नही कि पद्यात्मक भाषा से अकृत्रिम, क्योकि जीवन मे पद्यात्मक भाषा नहीं बोली जाती और नाटक जीवन का अनुकरण होता है । नाटक के विषय में ड्राइडन का मत नियमो के कठार बन्धन से मुक्त होने का है । वह 'डिफेन्स ऑफ दी एसे' में बिना हिचक के स्वीकार करता है कि कविता का प्रधान उद्देश्य सुख देना है, शिक्षा गौण । 'प्रफेस टू एन ईवनि प्रहसन (फार्स) मे यह भद लक्षित करता है । हास्य मे पात्र निम्न श्रेणी के उनके चरित्र और कृत्य निसर्गज होते है, उसमे ऐसी वृत्तियाँ, योजनाएँ और ऐसे साहसी कार्यं प्रदर्शित होते है जो दिन-प्रतिदिन जीवन मे मिलते है; प्रहसन मे बनावटी वृत्तियां और अप्राकृतिक घटनाएँ होती हैं। हास्य, मनुष्य स्वभाव की त्रुटियाँ हमारे सामने लाता है; प्रहसन ऐसी वस्तुओ से हमारा मनोरञ्जजन करता है जो अमूलक और अपरूप होती हैं । हास्य एसे लोगो को हँसी दिलाता है जो मनुष्यों की मूर्खताओ और उनके भ्रष्टाचारो पर अपना निर्णय दे सकते हैं, प्रहसन ऐसे लोगो को हँसी दिलाता है जिनमे निर्णयात्मक शक्ति नहीं होती और जो असम्भवकल्पक प्रदर्शन से खुश होते है । हास्य अवधारणा और उच्छृङ्खल कल्पना पर क्रियाशील होता है, प्रहसन उच्छृङ्खल कल्पना पर ही । हास्य की हसी में अधिक सन्तुष्टि होती है, प्रहसन की हँसी मे अधिक घृणा । इसी लेख मे ड्राइडन करुण और हास्य का मुकाबिला करते हुए कहता है कि करुरण के लिये काव्यात्मक न्याय ( पोइटिक जस्टिस ) आवश्यक है क्योकि उसका उद्देश्य उदाहरण द्वारा शिक्षा देना है और हास्य मे उसकी आवश्यकता नही क्योकि उसका उद्देश्य सुख और आनन्द है । वह 'ऑफ हीरोइक प्लेज' मे वीर नाटक के लिये प्रतिमानुष श्रेष्ठता और उत्कृष्ट शैली का पक्षपाती है । वीर नाटक महाकाव्य का सक्षिप्त रूप है । महाकाव्य मे अतिमानुष पात्रो और उदात्त शैली के अतिरिक्त अलौकिक पात्रो और घटनाओ का समावेश भी होता है । करुण भी भाव मे वीर होता है । उसकी रूपरेखा पहले से ही निर्दिष्ट है । नायक वृहद् आकार का होता है, नायिका सौन्दर्य और सातत्व मे अद्वितीय होती है, बहुत से पात्रों के हृदय मान और प्रेम के बीच मे विभक्त होते है, कहानी युद्ध और सामरिक उत्साह से परिपूरण होती है । समग्र वातावरण उत्कृष्ट प्रदर्शवादिता का होता है । वीर नाटक, महाकाव्य, और करुण मे ड्राइडन के वीरकाव्य विषयक विचार स्पष्ट है । वह 'प्रेफेस टू द ट्रान्सलेशन ऑफ प्रोविड्स एपीसल्स' मे अनुवाद का आदर्श पेश करता है । अनुवाद तीन प्रकार का होता है - Jथाशब्दानुवाद जिसमे लेखक का एक भाषा से दूसरी भाषा मे शब्दश और पदश अनुवाद होता है, शब्दान्तरकरण जिसमे लेखक का ध्यान प्रतिक्षरण रहता है परन्तु उसके शब्दो का इतना ध्यान नहीं किया जाता जितना उसके आशय का अनुकरण जिसमे अनुवादक लेखक के शब्दो और आशय से भी ध्यानमुक्त हो जाता है और उससे केवल इशारा लेकर अपना स्वतन्त्र लेख लिख डालता है। अनुवाद का काम इतन। मुश्किल है जितना बँधे पैरो से रस्सी पर नाचना । पहले और तीसरे प्रकार के अनुवाद बहुवा असन्तोषजनक ही होते है । दूसरे प्रकार का अनुवाद ही ठीक अनुवाद माना गया है और इसके अनुवादक का दोनों भाषाम्रो पर पूरा प्रभुत्व होना चाहिये और अपनी प्रतिभा को मौलिक लेखक की प्रतिभा के अनुरूप करने की क्षमता होनी चाहिये । 'ए पैरेलल ऑफ पोइट्री एण्ड पेण्टिड' मे ड्राइडन चित्रकला के लिये आदर्शवाद का पक्ष लेता है । कला में प्रकृति के अनुकरण करने का अर्थ प्रत्यय को पा लेना है और अनुभव की नानाव्यक्तिभूत बातो को छोड देना है। जब चित्रकार के हृदय में सम्पूर्ण सौन्दर्य की मूर्ति समा जाती है तभी वह कला के पवित्र मन्दिर मे प्रवेश करने का अधिकारी होता है । साहित्यिक रूपो का ड्राइडन-कृत जैसा विश्लेषण अग्रेजी मालोचना मे नही हुआ था । ड्राइडन के बाद एडीसन ने आलोचनात्मक बल दिखाया, परन्तु उसमे कोई बडी मौलिकता न थी । महाकाव्य के उसके मानदण्ड अरिस्टॉटल के हैं। मिल्टन के 'पैरेडाइज लॉस्ट' की परीक्षा उसने वस्तु, पात्र, भाव और भाषा, इन चार धारो पर की और उनके गुण-दोष बडी सूक्ष्मता से दिखाये । वस्तु की परीक्षा करते हुए उसने अरिस्टॉटल के मत से अपनी असहमति व्यक्त की। महाकाव्य का अन्त सदा सुखमय होना चाहिये । वह महाकाव्य, महाकाव्य, नही जिसमे उच्च उपदेश नही । इसलिये महाकाव्य मे काव्यात्मक न्याय अवश्य होना चाहिये । काव्यात्मक न्याय के माने बुराई को दण्ड देना और भलाई को प्रतिफल देना है । कल्पना पर एडीसन के विचार हम पहले ही व्यक्त कर चुके है । वोर्सफोल्ड उन विचारों को इतना महत्त्वपूर्ण समझता है कि एडीसन को वह कल्पना को प्रेरणा देने के मानदण्ड से साहित्य की जाँच करने वाला पहला ही आलोचक बताता है । परन्तु जैसा हम पहले दिखा चुके हे, कल्पना को प्रेरणा देने का मानदण्ड अरिस्टॉटल और बेकन में भी निहित है । स्विफ्ट अपनी 'बैट्ल ऑफ बुक्स मे प्राचीन लेखको की मधुमक्खियो से तुलना देता हुआ उनकी कलात्मक निता को 'माधुर्य और प्रकाश से प्रतिक्षित करता है । यहाँ काव्य के प्रभाव से एक बडा सन्तोषजनक मानदण्ड निश्चित होता है । पोप के आलोचनात्मक विचार होरेस, बैनजॉन्सन, और बोयलो से मिलते-जुलते है । वह शास्त्रीयता का पूरा पक्षपाती है । जब प्रकृति को प्रेरणा देने के मानदण्ड का प्रतिपादित करता है तो वह प्रकृति स एक ऐसी कृत्रिम प्रकृति समझता है जो नागरिक समाज की रीतियों के अनुसार व्यवस्थित हो और जिसमे रूढ़ियो और साधारणीकरण का पूरा प्रवकाश मिला हो । यदि किसी काव्य मे ऐसी प्रकृति को प्रेरणा हो तो वह श्रेष्ठ काव्य है । इस काल का हमारा अन्तिम आलोचक डाक्टर जॉन्सन हे । उसने यूनान के साहित्य को पूरी तरह पढा था, परन्तु लेटिन और मध्यकालीन साहित्य को उसने इतना नही पढा या । उसकी साहित्यिक संस्कृति के प्रदर्श ड्राइडन और पोप थे, इसीसे उसकी नवशास्त्रीय प्रवृत्ति बडी बलवान हो गई थी। उसने आलोचनात्मक सिद्धान्तो पर अपने विचार मुख्यत 'रैम्बलर' मे व्यक्त किये हे । मिल्टन की पद्य की आलोचना कही कही बडी शिक्षाप्रद है, विशेषत यति के स्थान के विषय मे । यति जितनी मव्यस्थित हो उतनी अच्छी । पश्चगणात्मक पद मे यति दूसरे या तीसरे गण के बाद होना चाहिये । सिद्धान्त यह है कि यति से विभक्त दोनो भाग सङ्गीतमय होने चाहिये । यदि तीसरे अक्षर (सिविल) और सातवे अक्षर के बाद यति हो तो भी भाग सङ्गीतमय हो सकते है। लय, गरण की श्रावृत्ति से पैदा होती है। पहले गण के बाद तीसरे अक्षर के आते ही उसमे चौथे अक्षर की प्राकाक्षा होती है और लय की व्यञ्जना हो जाती है । इसी प्रकार सातवे अक्षर के बाद यति आने पर भी दोनो विभक्त भाग सङ्गीतमय हो जाते है । पहले और दूसरे अक्षरो तथा आठवे और न अक्षरो के बाद की यति दूषित होती है। मिल्टन इन स्थानों पर भी यति लाता है और इस कारण उसकी पदयोजना दोषरहित नही कही जा सकती। 'रैम्बलर' के अगले एक नम्बर मे आलोचक के दायित्व का वर्णन है। चक पक्षपात से अलग हो, वह इस बात का घमण्ड न करे कि वह बडेबड़े कवियो और लेखको का न्यायाधीश है, वह पुस्तक अथवा लेखक के समझने मे मे जल्दबाजी न करे, वह यह न सोचे कि उससे तो गलती हो ही नहीं सकती । आलोचक स्वानुराग से पथभ्रष्ट हो सकता है, देशप्रेम उसके निर्णय को दूषित कर सकता है; जीवित लेखकों के प्रति वह अधिक कोमल हृदय हो सकता है। आलोचना का कर्त्तव्य शुद्ध बुद्धि के प्रकाश में सत्य दिखाना है। और अगले एक नम्बर मे जॉन्सन नाटक के नियमो की परीक्षा करता है । अक्सर, नियम कल्पना की उडान को रोकते है । यह पुराना नियम कि रङ्गमञ्च पर तीन अभिनेता से अधिक न आये, कोई अर्थ नहीं रखता, और जैसे-जैसे नाटक मे विभिन्नता और गहनत्व आये यह नियम भङ्ग होने लगा। नाटक पाँच श्री मे विभक्त हो, इस नियम की आवश्यकता न तो कृत्य के गुरण से और न उसके प्रदर्शन के औचित्य से दीख पडती है और आज कल तीन अङ्क के और एक अ के बहुत से नाटक लिखे जा रहे है । काल सङ्कलन का नियम यह चाहता है कि नाटक में जितनी घटनाओ का समावेश हो वे सब उतने समय मे हो जितने समय मे नाटक रगमच पर खेला जाता है । यदि दो अड्को के बीच मे काफी समय दे दिया जाय तो कोई बुराई नही, क्योकि वह भ्रम जिस पर खेल की सफलता निर्भर है अड्को के बीच के आये हुए समय से नष्ट नही हो सकता । करुण-हास्य को इस कारण बुरा कहा जाता है कि उसमे तुच्छ और महत्त्वपूर्ण बाते साथ-साथ आती है और करुरण का प्रभाव नष्ट हो जाता है यदि उसमे गम्भीरता की क्रमश बाढ न हो । जॉन्सन का कहना है कि शेक्सपिअर इस बात का उदाहरण हे कि उसने अपने करुण और हास्य रसो को बारी-बारी से एक ही नाटक मे बडी सफलता से दिखाया है । एक नाटक में एक ही प्रधान कृत्य हो और उसमे एक ही नायक हो, ये नियम ठीक है । नियमो का बन्धन कडा नही होना चाहिये । यदि कोई लेखक उन्हें तोडकर उच्चतर सौन्दर्य प्राप्त कर लेता है तो वह इस बात का साक्षी है कि प्रकृति रूढि के ऊपर सदा विजय पाती है । 'प्रफेस टू शेक्सपियर' मे शेक्सपियर के पात्रों के विषय मे जॉन्सन की यह उक्ति बडी सूक्ष्म है कि उनमे व्यापकता भी है और वैशिष्ट्य भी । उत्कृष्ट कविता का यह पक्का चिह्न है, क्योकि कवि किसी व्यापक आदर्श को लेकर किसी व्यक्ति में समाविष्ट करता है। आदर्शीकरण की इस वृत्ति का यह उत्लेख वह स्वय 'रैसीलाज' मे करता है । कवि का कर्तव्य व्यक्तियों की परीक्षा करना नही वरन् व्यापक गुणो और रूपो का निरीक्षण करना है। जॉन्सन के मानदण्डो मे पूरी शास्त्रीयता नही है । वह प्रकृति के अधिकार को रूढ़ि के ऊपर सदा उच्चता देता है। अठारहवी शताब्दी मे जर्मनी का भी प्रालोचनात्मक उत्थान हुआ और नियमो के प्रति वही भावनाएँ प्रदर्शित हुईं जो इङ्गलैण्ड मे । गौटशेड, अरिस्टॉटल के अनुसार वस्तु को ही काव्य की आत्मा मानता है और उन सब पात्रो और घटना का निषेध करता है जिनमे सत्याभास न हो, जैसे मिल्टन का पैण्डिमोनियम और उसके सिन और डैथ दो पात्र । वह नियमो का पूरा अनुयायी था। गैलर्ट की प्रवृत्ति मध्यस्थावलम्बन की है। उसका कहना है कि नियम व्यापक रूप से उपयोगी हैं परन्तु प्रतिभा के लिये उनका उल्लङ्घन करने का अधिकार होना उचित है । लैसिङ्ग साफ कहता है कि नियम प्रतिभा को कष्ट पहुंचाते हैं । अरिस्टॉटल के प्रति तो उसकी श्रद्धा है परन्तु फ्रान्सीसी आलोचको के प्रति उसकी कोई श्रद्धा नही, क्योकि उन्होंने उसके मतानुसार, नियमो की ऐसी उल्टी-सीधी व्याख्या की जिससे अरिस्टॉटल का आशय कुछ का कुछ हो गया । काण्ट और गढ़ साहित्य की परीक्षा सौन्दर्य को किसी ऐसे उद्देश्य की उपयुक्तता का विशेष गुण बताता है जिसका किसी उपयोगी उद्देश्य से सम्बन्ध नही । गटे का कहना है कि कला और कविता में व्यक्तित्व सब कुछ है । वह बफो का शब्दान्त रकरण करता हुआ कहता है कि शैली लेखक की अन्तरात्मा की सच्ची व्यञ्जना है । यह अचेतन शैली के विषय मे निश्चित रूप से ठीक है, परन्तु इससे विषय निरूपण पर कोई प्रभाव नहीं पडना चाहिये । उत्कृष्ट कविता मे पूर्ण रूप से वास्तविकता होती है । जब वह वाह्य ससार से असम्बद्ध हो कर प्रात्मक हो जाता है तभी वह पदच्युत हो जाती है । काव्यात्मक रचना सारपूर्ण होती है । प्रकृति जीवित और निरर्थक प्रारी को व्यवस्थित करती है और कला मृत और सार्थक प्रारणी को व्यवस्थित करती है । नवशास्त्रीय काल की यह विशेषता थी कि उसमे कुछ ऐसे आलोचनात्मक नियम प्रचलित थे जिन्हे अधिकाश में आलोचक मानते थे । रोमान्सिक काल मे साहित्यालोचन के नियमों के प्रतिपादन मे कोई एकरूपता नही । वर्ड्सवर्थ कविता को वेगपूर्ण अन्तर्वेगो का स्वयप्रवर्तित सप्लव कहता है । यह सप्लव याद की हुई अनुभूतियो पर मनोवृत्ति के सन्द्ररण से उठता है। उसका विचार है कि अच्छी कविता कभी तत्कालविहित नहीं होती । उसकी अभिव्यञ्जना के लिये किसी विशेष वाक्मरणि की आवश्यकता नहीं होती । उसकी भाषा मे और गद्य की भाषा मे कोई तात्विक अन्तर नही । साधारण बोलचाल की चुनी हुई भाषा कविता के लिये उपयुक्त है। यह भाषा छन्दोबद्ध अवश्य हो क्योकि कवि का उद्देश्य सुख देना है। पोप्यूलर जजमेण्ट' नामक लेख मे व सवर्थ का मत है कि साहित्य का आनन्द सहृदय रुचि से लेता है । रुचि के तीन अर्थ माने जाते है --अध्ययनशील आलोचको के मत की प्रमुरूपता, सवेदनशीलता और अपने को लेखक के स्तर तक उठा लेने की शक्ति । जिस रुचि से सहृदय लेखक का आनन्द लेता है वह तीसरे अर्थ की रुचि है । बिना ऐसी रुचि की क्षमता के करुणात्मक और उदात्त साहित्य की उचित सराहना असम्भव है । कोलरिज मालोचक होते हुए बडा सूक्ष्मदर्शी तत्त्ववेत्ता था। उसने व सवर्थ के कई सिद्धान्तो की विश्लेषणात्मक बुद्धि से काट की। कविता की परिभाषा करता हुआ वह 'बायोग्रॅफिया लिटरैरिया' मे लिखता है, पद्य मे सत्य की सुखमय अभिव्यञ्जना को कविता कह सकते है, गो कि दृढतापूर्वक नही । ऐसी आख्यायिका और उपन्यासो को जो तत्क्षणिक सुख देती है, कविता कह सकते है यदि उन्हे पद्य में परिवर्तित कर दिया जाय, गो कि दृढतापूर्वक नही । केवल ऐसे प्ररणयन को जो तत्क्षणिक सुख देता है और जो प्रत्येक भाग में उतना ही सुखमय है जितना कि पूर्ण मे-दृढतापूर्वक कविता कह सकते हैं । कविता की इसी विशेषता के कारण कि उसका प्रत्येक भाग मनोरञ्जक होता है, यह आवश्यक है कि उसकी वाक्सर रिण ध्यानपूर्वक चुनी हुई हो और शब्दो का व्यवस्थापन कौशलपूर्ण हो । ग्रामीण और निम्नश्रेणी का जीवन कविता के लिये अनुपयुक्त है क्योकि कविता आदर्श जीवन को व्यक्त करती है न कि वास्तविक जीवन को । व सवर्थ कुछ कविताएँ जैसे 'हैरीगिल' श्रीर 'इडियट बौय' वास्तविक जीवन को ज्यो का त्यो नरित करने के कारण काव्यात्मक नही हो पाती । दूसरी कविताएँ जैसे 'माइकेल ' और 'रूथ' इसी से काव्यात्मक हो जाती है क्योकि उनमे जीवन का धर्म द्वारा आदर्शीकरण हो गया है । यह कहना कि कविता साधारण जीवन की भाषा मे होनी चाहिये ठीक नही, क्योकि यह भाषा संस्कृत होती है और ऐसे गूढ और सूक्ष्म अर्थों के व्यक्त करने में असमर्थ होती है, जिनमे कविता अपनी प्रतिभा का वैभव दिखाती है। स्वय व सवर्थ जहाँ उत्कृष्ट शैली की कविता करता है, ऐसी भाषा का परित्याग कर देता है । कविता श्रेष्ठतम शब्दो का श्रेष्ठतम क्रम मे प्रयोग करती है । छन्द के विचार से भी कविता की वाक्सरणि श्रेष्ठतम होनी चाहिये । कविता का उद्गम शरीर और मन की आवेशपूर्ण दशा है । ऐसी दशा मे यदि आवेश बढ़ता ही जाय तो मनुष्य पर इतना जोर पड सकता है कि उसके कारण विह्वल होकर मर जाय । इसी से ऐसी दशा मे ही आप विचार शक्ति उद्धव होती है जो मनोवेग के कार्य को नियन्त्रित करती है । प्रवेशपूर्ण काव्यात्मक प्रणयन के कार्य में विचार शक्ति शब्दरचना को छन्दोबद्ध कर देती है और वाक्सररिग को उत्कृष्ट कर देती है। छन्द के प्रभाव की जाच से भी कविता के लिए उत्कृष्ट वाक्सरणि आवश्यक है। छन्द ध्यान ओर साधारण भावो को प्रफुल्लता और सुविकारता को वर्द्धित करता है। यह प्रभाव अचम्भे के उत्ताप से और उत्सुकता के जागृत और सन्तुष्ट होने से पैदा होता है। यदि वर्द्धित ध्यान और वर्द्धित भावो को उत्कृष्ट भाषा के रूप में उचित भोजन न मिला तो पाठक की अशा अवश्य भङ्ग होगी और उसे कविता मे कोई आनन्द न आयगा । छन्द और कविता के अवियोज्य होने के कारण जिन-जिन वस्तुप्रो का समावेश छन्द मे होगा उनका समावेश कविता में भी होगा । छन्द मे उत्कृष्ट वाक्सररिण होते हुए उत्कृष्ट वाक्सर रिण काव्यात्मक हुई । उत्कृष्ट वासरणि कविता और छन्द के बीच मे फिटकरी का काम देती है। फिर यह भी विचार है कि कविता बहुत से तत्त्वो का समस्वरत्व है। जब विचार उत्कृष्ट है, छन्द उत्कृष्ट है, व्यक्तित्व उत्कृष्ट है, तो भाषा अपने आप उत्कृष्ट होगी। अन्त मे, कवियो का अभ्यास भी इसी बात का द्योतक है कि कविता में उत्कृष्ट वाक्सरणि होती है । आलोचना के विषय मे एक लेख मे कोलरिज यह विचार व्यक्त करता है। आलोचना का काम काव्यरचनात्मक सिद्धान्तो की स्थापना करना है और 'एडिनबरा रिव्यू' के एडीटरो की तरह लेखो और लेखको पर फैसले देना नही । यदि फैसला देना आलोचना का काम माना जाय तो पहले एक एकेडेमी बनाई जाय जो ऐसे नियमो की सहिता तैयार करे जिनके आधार पर व्यापक नैतिकता और दार्शनिक बुद्धि हो । व सवर्थ की कविता के गुरण बताते हुए कोलरिज 'बायोग्रॅफिया लिट्रेरिया' मे उदात्त शैली की पक्की पहचान बताता है। वह यह है कि उदात्त शैली मे लिखा हुआ लेख उसी भाषा के शब्दों में भी बिना अर्थ को हानि पहुंचाये अनूदित नही हो सकता। इसी आशय का फ्रेन्च आलोचक फ्लोबर्ट का केवल शब्द का सिद्धान्त ( द डॉक्ट्रिन ऑफ द सिङ्गिल वर्ड ) है । प्रवीण लेखक के लेख मे जो शब्द जहाँ
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मेरी एक संन्यासिनी है -- माधुरी । उसकी मां भी संन्यासिनी है। उसकी मां ने मुझे कहा कि उसके तो आपरेशन में दोनों स्तन उसे गंवाने पड़े। लेकिन डाक्टरों ने कहा, चिंता न करो, अब तुम्हें कोई नया विवाह तो करना भी नहीं है, उम्र भी तुम्हारी ज्यादा हो गई। और झूठे रबर के स्तन मिलते हैं, वे तुम अंदर पहन लो, बाहर से तो वैसे ही दिखाई पड़ेंगे। रबर के हों कि चमड़ी के हों, क्या फर्क पड़ता है? बाहर से तो वैसे ही दिखाई पड़ेंगे। सच तो यह है कि रबर के ज्यादा सुडौल होंगे। तो वह रबर के स्तन पहनने लगी। मेक्सिको में रहती थी। कार से कहीं यात्रा पर जा रही थी। रास्ते में ट्रैफिक जाम हो गया तो रुकी। पुलिस का इंसपेक्टर पास आया। खुद ही कार ड्राइव कर रही थी। वह एकटक उसके स्तन की तरफ देखता रह गया। उसे मजाक सूझा । बड़ी हिम्मतवर औरत है। उसने कहा, पसंद हैं? एक क्षण को तो वह इंसपेक्टर डरा कि कोई झंझट खड़ी न हो। मगर उसने कहा, नहीं, चिंता न करो, पसंद हैं? उसने कहा कि सुंदर हैं। क्यों न पसंद होंगे? सुडौल हैं। तो उसने कहा, यह लो, तुम्हीं ले लो। उसने दोनों स्तन निकाल कर दे दिए। अब जो उस पर गुजरी होगी बेचारे पर, जिंदगी भर न भूलेगा। अब असली स्तन वाली स्त्री को भी देख कर एकटक अब नहीं देखेगा। अब कौन जाने असलियत क्या हो? रखे होगा वह रबर के स्तन अब, अपनी खोपड़ी से मारता होगा कि अच्छे बुद्धू बने। मुझे उसकी घटना पसंद आई। मैंने कहा, तूने ठीक किया । तू तो और खरीद ले और बांटती चल। जो मिले उसको बांट दिए। जितनों का छुटकारा हो जाए उतना अच्छा । मूढ़ हैं, बचकाने हैं-- छुटकारा करो। जगह-जगह मिलेंगे इस तरह के लोग। अपनी पत्नी से तो तुम स्वभावतः ऊब जाओगे। पत्नियां भी ऊब जाती हैं। लेकिन पत्नियों को हमने इतना दबाया है सदियों में कि वे यह कह भी नहीं सकतीं कि ऊब गई हैं। हमने उन्हें कहा है, पति परमात्मा है। हमने उन्हें कहा है कि एक पति को ही सब कुछ मानना है। पति व्रत की हमने उन्हें खूब शिक्षा दी है। सदियों की धारणाओं ने उनको एक तरह से कुंठित कर दिया है। उनका रस ही खो गया है। उनका सच में पूछो तो किसी पुरुष में कोई रस नहीं रहा है। मुझसे हजारों स्त्रियों ने कहा है कि उनका किसी पुरुष में कोई रस नहीं रहा है। पुरुषों ने ही रस मार डाला है। यह बात तुम ख्याल रखना कि अगर एक पुरुष में रस है, स्त्री का, तो और पुरुषों में भी रस होगा। क्योंकि पुरुष में रस होने का अर्थ पुरुष में रस होना होता है, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि किस में! अगर एक पुरुष में रस है, तो और पुरुषों में भी रस होगा। अगर एक पुरुष आकर्षित करता है, तो उससे सुंदर व्यक्ति को देख कर वह क्यों आकर्षित न होगी? हमने सदियों से उसे समझाया है कि किसी दूसरे पुरुष में आकर्षण मत रखना, यह महापाप है। और स्त्रियां निश्चित ही ज्यादा भावुक हैं, हार्दिक हैं, उन्होंने इसको हृदय में ले लिया है। पुरुषों के संस्कार तो खोपड़ी में हैं, लेकिन स्त्रियों के संस्कार हृदय तक पहुंच गए हैं, ज्यादा गहरे पहुंच गए हैं। चूंकि उन्हें किसी पुरुष में कोई रस नहीं लेना है, इसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि उन्हें अपने पुरुष में भी कोई रस नहीं है। इस गणित को तुम ठीक से समझ लो। अगर सारे पुरुषों से रस हटा दोगे तो स्वयं के पुरुष से भी रस नहीं रह जाएगा। और तब वह स्त्री बोझ की तरह पुरुष के साथ संभोग करेगी। पुरुष को तृप्ति नहीं मिलेगी, यह अड़चन है। उसको तृप्ति कैसे मिले? वह स्त्री कोई रस ही नहीं ले रही है। वह यूं टाल रही है कि ठीक है--यंत्रवत। क्योंकि मैं पत्नी हूं, तुम्हारी दासी हूं, तुम्हारी सेवा के लिए ही मेरा जीवन है, जो करना हो करो, यह देह तुम्हारी है--लाश की तरह। जैसे लाश से तुम प्रेम करोगे, तो क्या रस मिलेगा? उसकी तरफ से कोई प्रत्युत्तर नहीं है--न वह नाचती, न वह गाती, न वह गुनगुनाती, न वह मस्त होकर डोलती, न वह तुम्हें धन्यवाद देती। हालत तो उलटी है, हालत तो यह है कि जब भी तुम उससे कहते हो कि क्या विचार है आज? तो वह कहती है, सिर में दर्द है। कभी कमर में दर्द है। कि आज मैं थक गई हूं, आज क्षमा करो। कि आज मुन्ना के दांत निकल आए हैं, और वह दिन भर से रो रहा है । और बड़ा बेटा अभी तक नहीं लौटा है, पता नहीं कहां गया, आधी रात हो रही है। और तुम्हें यह सूझी है! कि रसोइया घर छोड़ कर चला गया है; कि नौकर ने चोरी कर ली है; कि दिन भर से मैं मरी जा रही हूं काम कर-करके, घर में मेहमान ठहरे हुए हैं-- और तुम्हें यह सूझी है ! मैंने सुना, एक बूढ़े ने जिसकी उम्र अस्सी साल थी, एक बुढ़िया से जिसकी उम्र पचहत्तर साल थी, शादी कर ली। अमरीका में घटना घटी, यहां तो कैसे घटेगी! यह समय तो संन्यास का है-- पचहत्तर साल। पचहत्तर साल में कोई विवाह करे, तो उस पर तो जूतियों की वर्षा हो जाए। उस पर तो लानत-मलानत इतनी हो उसकी, इतना कुटे-पिटे जहां जाए वहीं, ऐसा स्वागत-सत्कार हो उसका कि वह भी जिंदगी भर याद रखे। अमरीका में संभव है। दोनों की शादी हो गई। शादी में बहुत लोग सम्मिलित हुए, क्योंकि सब लोगों को आनंद आया कि यह बढ़िया बात है--पचहत्तर साल की बहू, अस्सी साल का दूल्हा । जो नहीं भी संबंधित थे, वे भी देखने आए थे शादी। चर्च खचाखच भरा था। और सबने फूल भी भेंट किए, सबने उपहार भी भेंट किए--अपरिचितों ने भी-कि आपका दांपत्य जीवन सुखमय हो । हिम्मतवर लोग हो, गजब की हिम्मत है! अरे आदमी तीस-पैंतीसचालीस साल तक पहुंचते-पहुंचते टूटने लगता है, घबड़ाने लगता है; मगर गजब के जुझारू हो, रिटायर होने का के नाम ही नहीं ले रहे। मगर अब करते क्या दोनों बेचारे। शादी तो हो गई, सुहागरात मनाने भी गए मियामी बीच, जहां जाना चाहिए। जो भी औपचारिक था, सब पूरा किया। शानदार से शानदार होटल में ठहरे, जहां सुहागरात मनाने वाले जोड़े ठहरते हैं। सुंदर से सुंदर कमरा लिया। बहू पचहत्तर साल की तैयार होकर बिस्तर पर लेटी। दूल्हा राजा तैयार होकर... दांत वगैरह निकाल कर उन्होंने सब साफ किए; सिर पर जो बालों का विग वगैरह पहन रखा था, उसको ठीक से जमाया; मूंछें, जिनको काला रंग लिया था, उन पर ताव दिया। वे भी आकर बिस्तर पर लेटे। बुढ़िया का हाथ हाथ में लिया, बड़े प्रेम से दबाया, थोड़ी देर दबाए रहे दो-तीन मिनट, फिर कहा कि अब सो जाएं। तो दोनों सो गए। ऐसी सुहागरात की पहली रात बीती। दूसरी रात भी हाथ दबाया, उतनी देर नहीं। जब तीसरी रात बूढ़ा हाथ दबाने लगा, तो बुढ़िया ने करवट ली और कहा, आज मेरे सिर में दर्द है। स्त्रियां, इस देश में तो कम से कम, कह भी नहीं सकतीं यह बात; कहना भी हमने उनसे छीन लिया, उनकी जबान भी छीन ली है। इसलिए तो पुरुषों ने वेश्याएं ईजाद कर लीं, लेकिन स्त्रियों ने वेश्य ईजाद नहीं किए। हालांकि लंदन में, न्यूयार्क में अब पुरुष वेश्याएं उपलब्ध हैं। उनको वेश्या नहीं कहना चाहिए, वेश्य कहना चाहिए। यह स्त्री आजादी के आंदोलन का परिणाम है वहां, कि जब पुरुष वेश्याओं के पास जा सकते हैं, तो स्त्रियां क्यों न वेश्यों के पास जाएं! मेरा मतलब वेश्यों से वह नहीं है जो कि हमारे यहां ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, शूद्र से होता है। जो अपने शरीर को बेचते हैं, वे वेश्य; जैसे वेश्या, जो अपने शरीर को बेचती है। पुरुष वेश्य उपलब्ध हैं लंदन में। जैसे स्त्रियां खड़ी होती हैं सज-धज कर खास रास्तों पर--उनके रास्ते हैं, उनके मोहल्ले हैं, रेड-लाइट इलाके-वैसे ही पुरुष भी खड़े होते हैं सज-धज कर । स्त्रियां अपनी कारें रोक कर उनको देखती हैं, पसंद करती हैं, दाम तय करती हैं, हिसाब-किताब होता है। मगर भारत में तो यह कल्पना के बाहर है बात। स्त्रियां तो सोच ही नहीं सकती हैं। हमने उनका सोचना भी मार डाला है। लेकिन पुरुष का सोचना नहीं मरा है! और स्त्रियों का सोचना पुरुषों ने ही मारा है, इसलिए वे अपना सोचना तो क्यों मारेंगे? वे मालिक हैं। उन्होंने अपने को तो मुक्त रखा है। इससे एक दुविधा और एक अड़चन पैदा हुई है। इसलिए मैंने कहा कि श्री मोदी का प्रश्न थोड़ा जटिल है। दुविधा यह है कि सब पुरुष अपनी पत्नियों से ऊब जाते हैं। कोई कहता है, कोई नहीं कहता। कोई झेल लेता है, कोई नहीं झेल पाता। कोई इधर-उधर से रास्ते निकाल लेता है पीछे के दरवाजे से, कोई नहीं निकाल पाता। लेकिन जब तुम पीछे का रास्ता निकालोगे तो अपराध-भाव पैदा होगा, गिल्ट पैदा होगा, क्योंकि वह पंडित-पुरोहितों की आवाज तुम्हारे भीतर भरी हुई है। वे कहेंगे कि तुम पाप कर रहे हो । तब घबराहट पैदा होगी, बेचैनी पैदा होगी। पत्नियां तो सोच ही नहीं सकतीं। अगर सोचेंगी भी, तो भी अपराध-भाव पैदा हो जाएगा। करना तो दूर, अगर दूसरा पुरुष उन्हें सुंदर भी मालूम पड़ेगा, तो भी उनके भीतर बेचैनी पैदा हो जाएगी कि यह कैसे हुआ! इसलिए उन्होंने तो अपने को बिल्कुल जड़ कर लिया है, संवेदना को ही मार डाला है। इसलिए भारत की स्त्रियां एक अर्थ में आत्महीन हो गई हैं। आत्महीन उन्हें होना पड़ा है, नहीं तो अपराधी होना पड़े। अपराधी होने से आत्महीन होना अच्छा है; बिल्कुल जड़ हो जाना अच्छा है। और पुरुष आत्महीन तो नहीं हुए, लेकिन तब अपराध की भावना पकड़ती है। दोष व्यवस्था का है, व्यक्ति का नहीं है। हमें व्यवस्था बदलनी होगी। हमें एक व्यवस्था देनी चाहिए जिसमें पुरुष और स्त्रियां साथ रहें, लेकिन इतने बंधन में नहीं जितने बंधन में हम उन्हें रख रहे हैं। और मनोवैज्ञानिकों का यह अनुभव है पिछले पचास वर्षों का, मेरा यह अनुभव है मेरे अपने आश्रम का, जहां सैकड़ों जोड़े रह रहे हैं, कि अगर कभी-कभी कोई पुरुष किसी स्त्री के साथ दिन, दो दिन के लिए बिता दे, या कोई स्त्री किसी पुरुष के साथ दिन, दो दिन के लिए बिता दे, तो इससे उनके आपसी संबंध खराब नहीं होते-गहरे होते हैं। यह बात उलटी लगेगी और रूढ़िग्रस्त लोगों के लिए तो महापाप की लगेगी; मगर मैं तो सत्य ही कहने को मजबूर हूं। लगे जिसको जैसा लगना हो। मैंने तो कसम खाई है कि जो सत्य है, उसे वैसा ही कहूंगा जैसा है; नग्न ही कहूंगा, उस पर वस्त्र भी नहीं डालूंगा। सत्य यह है कि अगर पति-पत्नी का संबंध गहरा करना हो, अगर सिर्फ औपचारिक न रखना हो, तो हमें इतनी स्वतंत्रता देनी चाहिए कि पुरुष कभी किसी और स्त्री के साथ जाए, तो इससे पत्नी बेचैन न हो, परेशान न हो। और अगर पत्नी कभी किसी पुरुष के साथ चली जाए, तो पति बेचैन न हो, परेशान न हो। इससे उनका दांपत्य नष्ट नहीं होगा, इससे उनके दांपत्य में पुनर्जीवन आ जाएगा। अगर उस नवाब को दो-चार दिन दूसरी सब्जी खाने को मिली होती, और फिर भिंडी मिलती, तो फिर भिंडी में रस आता, फिर भिंडी अच्छी लगती। इससे कुछ गहराई में बाधा नहीं आएगी, इससे गहराई बढ़ेगी। इसमें अपराध-भाव की कोई भी आवश्यकता नहीं है। श्री मोदी, मैं यह कहना चाहूंगा कि छोड़ो अपराध-भाव। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारी कामवासना को तृप्त नहीं कर पाती, तो किसकी पत्नी कर पाती है? किसका पति कर पाता है? और अगर तुम्हें कभी किसी दूसरी स्त्री में रस मालूम होता है, तो अपराध-भाव से मत भरो, अन्यथा दोहरी मुश्किलें होंगी। अगर अपराध-भाव से भरे तुमने किसी स्त्री से कोई संबंध भी बनाया, तो उससे भी तुम्हें तृप्ति नहीं मिलेगी, क्योंकि वह अपराध-भाव बीच में खड़ा रहेगा, वह दीवाल बनी रहेगी। तुम उसको प्रेम करते समय भी जानोगे कि सिर्फ पाप कर रहे हो, गुनाह कर रहे हो, नरक में जा रहे हो; तुम अपनी पत्नी के साथ धोखा कर रहे हो। कोई अपराध-भाव की जरूरत नहीं है। लेकिन यह अपराध-भाव तब तक तुम्हारा पीछा करेगा, जब तक तुम पत्नी को भी इतनी ही स्वतंत्रता न दोगे। इतनी ही स्वतंत्रता पत्नी को भी देनी चाहिए। वह भी मनुष्य है, जैसे तुम मनुष्य हो। न तुम समाधिस्थ हो, न वह समाधिस्थ है। न तुम बुद्ध हो, न वह बुद्ध है। न तुमने ध्यान जाना, न उसने ध्यान जाना। हां, ध्यान जान लो तो कामवासना से मुक्ति हो जाती है। जब तक ध्यान नहीं जाना है, तब तक तुम भी स्वतंत्रता से अपनी इंद्रियों को तृप्ति दो और अपनी पत्नी को भी तृप्ति देने दो। लेकिन पुरुष को यह बात अखरती है। वह सोचता है कि मैं तो स्वतंत्रता अनुभव करूं, लेकिन पत्नी! यह बरदाश्त के बाहर है कि कोई मुझसे कह दे कि तुम्हारी पत्नी किसी और पुरुष के साथ देखी गई। तो उसके अहंकार को चोट लगती है। अगर अहंकार को चोट लगेगी, तो फिर अपराध-भाव भी रहेगा, क्योंकि फिर तुम धोखा दे रहे हो। फिर तुम अपनी पत्नी के साथ बेईमानी कर रहे हो। फिर तुम्हें दिखावा करना होगा। फिर तुम्हें एक चेहरा पत्नी के सामने ओढ़ कर रखना पड़ेगा कि प्रेम मैं तुझे करता हूं, सिर्फ तुझे करता हूं, और किसी को नहीं। और पीछे तुम्हें दूसरा चेहरा! तुम दो चेहरे वाले आदमी हो जाओगे। दो चेहरों के बीच में तुम कशमकश में रहोगे, दुविधा में रहोगे। तुम्हारे जीवन में द्वंद्व हो जाएगा। और दो ही चेहरे होते तो ठीक थे, बड़ी मुश्किलें हैं, कई चेहरे हो जाएंगे। मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे कह रही थी कि देखो, जब तक मैं बरदाश्त कर सकती हूं करती हूं, लेकिन अगर किसी दिन बात पकड़ में आ गई तो ठीक नहीं होगा। यह औरत कौन थी जो अभी रास्ते पर हमको मिली और एकदम मुस्कुरा कर तुम्हारी तरफ देखा, और तुम एकदम डर गए और तुम नीचे देखने लगे--यह औरत कौन थी? नसरुद्दीन ने कहा कि बाई, तू मुझसे कह रही है कि वह औरत कौन थी! मैं उससे डरा हुआ हूं कि वह मुझे मिलेगी तो पूछेगी कि वह औरत कौन थी जो तुम्हारे साथ थी ? झंझट तो होने वाली है। मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी एक दिन अपनी नौकरानी से बोली कि सुनती हो, मुझे इस बात के पक्के प्रमाण मिलने शुरू हो रहे हैं कि नसरुद्दीन अपनी टाइपिस्ट के साथ गलत संबंध बनाए हुए है। वह नौकरानी बोली, रहने दो, रहने दो! मत कहो ये बकवास की बातें! यह सिर्फ तुम मुझसे इसलिए कह रही हो ताकि मेरे मन में ईर्ष्या पैदा हो, जलन पैदा हो। मैं ऐसी जलने-भुनने वाली नहीं हूं। मैं ऐसी बातों में पड़ने वाली नहीं हूं। नसरुद्दीन का प्रेम मुझसे बिल्कुल शाश्वत है। उसने खुद ही मुझसे कहा है कि मेरा प्रेम अमर है। यह पत्नी को पता ही नहीं था। दो ही चेहरे से काम नहीं चलेगा, बहुत चेहरे लगाने पड़ेंगे। और तब झंझटें होने वाली हैं। जितने झूठ बोलोगे, उतने उपद्रव में पड़ जाओगे। मेरी सलाह हैः जीवन को सहजता से जीओ, प्राकृतिक ढंग से जीओ। व्यवस्था भला अप्राकृतिक हो, तुम्हें कुछ अप्राकृतिक होने की जरूरत नहीं है। लेकिन अपनी पत्नी के साथ भी ईमानदारी बरतो। उसको भी कहो कि तू भी स्वतंत्र है। और इससे यह अर्थ नहीं होता कि तुम अपनी पत्नी को प्रेम नहीं करते। यह भी भ्रांति पैदा की गई है कि अगर प्रेम है, तो एक से ही होगा। यह बात बिल्कुल फिजूल है। इस बात का कोई मूल्य नहीं है। अगर प्रेम है, तो निश्चित ही अनेक से होगा- यह मैं तुमसे कहता हूं। क्योंकि प्रेम कोई ऐसी चीज नहीं जो एक पर चुक जाए। जिसको फूलों से प्रेम है वह सिर्फ गुलाब के फूलों से ही प्रेम करेगा? चंपा के फूल उसे प्रीतिकर नहीं लगेंगे? चमेली के फूल उसे प्रीतिकर नहीं लगेंगे? कमल उसे प्रीतिकर नहीं लगेगा? अगर कोई ऐसा कहता हो, तो या तो वह विक्षिप्त है या फिर झूठ बोल रहा है। जिसे फूलों से प्रेम है, उसे बहुत तरह के फूल प्रीतिकर लगेंगे। बेले का भी अपना आनंद है और गुलाब का भी अपना आनंद है। और दोनों की अपनी खूबियां हैं। यह हो सकता है, एक स्त्री की देह तुम्हें पसंद आए और इससे ज्यादा कुछ भी पसंद न आए। और यह भी हो सकता है, एक स्त्री का भाव तुम्हें पसंद आए, लेकिन देह पसंद न आए। और यह भी हो सकता है, एक स्त्री की बुद्धिमत्ता पसंद आए --न भाव पसंद आएं, न देह पसंद आए । किसी स्त्री से तुम्हारा लगाव बौद्धिक हो सकता है, तात्विक हो सकता है। तुम उससे चर्चा कर सकते हो गहराइयों की । तुम उससे कला की, धर्म की, अध्यात्म की चर्चा कर सकते हो। और एक स्त्री के साथ तुम्हारा संबंध केवल दैहिक हो सकता है, क्योंकि उसकी देह सुंदर है, सानुपाती है। और एक स्त्री के साथ तुम्हारा संबंध बड़ा रहस्यपूर्ण हो सकता है कि तुम तय ही न कर पाओ कि किस कारण से है, लेकिन कुछ है, कुछ रहस्यपूर्ण जो तुम्हें जोड़े हुए है। और यही बात पुरुषों के संबंध में सही है। जिस दिन मनुष्य प्राकृतिक होगा, जिस दिन समाज इन अतीत की व्यर्थ वर्जनाओं से मुक्त हो जाएगा, अंधविश्वासों से, जड़शृंखलाओं से-उस दिन हम इन सारे सत्यों को स्वीकार करेंगे। अब यह हो सकता है कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारे जीवन में एक अनिवार्यता हो । उसने तुम्हें जैसी सुविधा दी हो, तुम्हारे जीवन को जैसी व्यवस्था दी हो, तुम्हारे जीवन को जैसा स्वास्थ्य दिया हो, तुम्हारी उसने जितनी चिंता की हो, फिक्र की हो-- उतना कोई न करे। लेकिन इससे यह तय नहीं होता कि इससे तुम्हारी कामवासना को वह तृप्त कर पाए। और यह हो सकता है, जो स्त्री तुम्हारी कामवासना को तृप्त करे, उससे तुम्हें यह कुछ भी न मिल सके। हो सकता है, सुबह उठ कर तुमको ही चाय बना कर उसको पिलानी पड़े। ज्यादा संभावना यही है। हो सकता है, बर्तन वह तुमसे धुलवाए, कपड़े तुमसे धुलवाए। व्यक्ति के बहुआयाम हैं, और उसके सब आयाम तृप्ति मांगते हैं। अपराध का भाव जबरदस्ती थोपा गया भाव है। अपराध के भाव से बिल्कुल मुक्त हो जाओ। वह व्यवस्था -जन्य है। लेकिन उससे मुक्त होने में सबसे जरूरी कदम यह है कि अपनी पत्नी को भी मुक्ति दो। तुम्हारा जिसके साथ इतना निकट संबंध है, तुम मुक्त रहो और उसे मुक्त न करो, तो कैसे तुम अपराध से मुक्त हो सकोगे? उसे भी मुक्ति दो। उसे भी कहो कि तू भी मुक्त है। और झूठ न बोलो, चेहरे मत ओढ़ो, मुखौटे मत लगाओ-सचाइयां प्रकट करो। और मैं तुमसे यह कहता हूं कि सचाइयां भला एकदम से तूफान खड़ा कर दें, लेकिन वे तूफान आते हैं और चले जाते हैं। और सचाइयों से आए हुए तूफान नुकसान नहीं करते, जड़ों को और मजबूत कर जाते हैं। यह हो सकता है कि झूठ बड़ा सुविधापूर्ण मालूम पड़े। पत्नी को कभी कहो ही मत कि तुम्हारा किसी और स्त्री से कोई नाता संबंध है। लेकिन कभी न कभी पता चल जाएगा। और जिस दिन पता चलेगा, उस दिन सारी चीजें टूट जाएंगी। बजाय इसके कि पता चले, यह बेहतर है कि तुम कहो। जिसको तुमने प्रेम किया है, यह उचित है कि तुम उसके प्रति कम से कम अपने सत्य को स्वीकार करो। और तुम जितना सत्य अपने लिए चाहते हो, जितनी स्वतंत्रता अपने लिए चाहते हो, उसे भी दो। फिर कोई अपराध-भाव पैदा नहीं होगा। और स्मरण रखो कि अगर तुम दोनों एक-दूसरे को सत्य दे सको, और दोनों एक-दूसरे को स्वतंत्रता दे सको, तो तुम्हारा संबंध निरंतर गहरा होगा, निरंतर उसमें नये-नये फूल खिलेंगे । और तुम चकित होओगे यह जान कर कि सारी अतीत की धारणाएं कितनी भ्रांत हैं, जो यह कहती हैं कि एक के साथ ही संबंध रखना, अगर एक के साथ संबंध नहीं रखा तो संबंध विकृत हो जाएगा, नष्ट हो जाएगा, खराब हो जाएगा; फिर जोड़ा नहीं जा सकता। तुम्हें यही समझाया गया है। यह बात बिल्कुल ही गलत है। मनोवैज्ञानिक सत्य कुछ और है। मनोवैज्ञानिक सत्य यह है कि मनुष्य को विभिन्न स्वादों की रुचि है। इसमें कुछ बुरा भी नहीं है। यह केवल मनुष्य की बुद्धिमत्ता का लक्षण है। लेकिन इस बुद्धिमत्ता को हम मौका नहीं देते। हमारी छाती पर पंडित-पुरोहित बैठे हुए हैं। जमाने भर की मूढ़ताएं हम ढो रहे हैं। लेकिन यह मैं तुम्हें अंततः कह देना चाहूंगा कि दूसरी स्त्री जो तुम्हें आज कामवासना तृप्त करती मालूम हो रही है, कल वह भी नहीं मालूम होगी; परसों तीसरी स्त्री की जरूरत पड़ेगी; फिर चौथी स्त्री की जरूरत पड़ेगी; फिर पांचवीं स्त्री की जरूरत पड़ेगी-- क्योंकि कामवासना तृप्त होना जानती ही नहीं। कोई वासना तृप्त होना नहीं जानती। वासना दुष्पूर है। बुद्ध का यह वचन सदा स्मरण रखने योग्य हैः वासना दुष्पूर है। वासना भरती ही नहीं कभी। लाख भरो, खाली की खाली रह जाती है । एक सूफी कहानी है। एक फकीर ने एक सम्राट के द्वार पर भिक्षापात्र किया। संयोग की बात थी, सम्राट दरवाजे से निकल रहा था, सुबह अपने बगीचे में घूमने को। उस भिखारी ने कहा, मालिक, क्या मैं कुछ मांग सकता हूं? सम्राट ने कहा, हां, क्या मांगना चाहते हो? उसने कहा, लेकिन मेरी एक शर्त है। जो मेरी शर्त पूरी करे, उससे ही मैं अपनी मांग कर सकता हूं। सम्राट ने कहा, क्या शर्त है? भिखारी मैंने बहुत देखे, लेकिन सशर्त भिखारी तुम पहली बार हो। क्या तुम्हारी शर्त है? सम्राट भी उत्सुक हुआ। उस भिखारी ने कहा, मेरी शर्त यह है कि अगर कुछ भी आप मुझे देना चाहें, तो मैं लेने को राजी हूं, लेकिन मेरा भिक्षापात्र पूरा भरना पड़ेगा। सम्राट भी हंसने लगा। उसने कहा, तूने मुझे भिखारी समझा है क्या? सिर्फ उस भिखारी को दिखाने के लिए कि मैं कौन हूं, उसने अपने वजीर को कहा, जो पीछे आ रहा था, कि इसके भिक्षापात्र को स्वर्ण अशर्फियों से भर दो! उस फकीर ने कहा, एक बार पुनः सोच लें। मेरी शर्त याद रखें। फिर मैं शर्त पूरी हुए बिना हटूंगा नहीं यहां से। मेरा भिक्षापात्र भरना चाहिए। सम्राट ने कहा, पागल, चुप रह! तेरा भिक्षापात्र, जरा सा भिक्षापात्र लिए खड़ा है, इसको हम नहीं भर सकेंगे? स्वर्ण अशर्फियां डाली गईं, और सम्राट हैरान हुआ कि यह तो झंझट हो गई। जैसे ही स्वर्ण अशर्फियां उसमें गिरें, वे न मालूम कहां खो जाएं! भिक्षापात्र खाली का खाली! मगर सम्राट भी जिद्दी था, और एक भिखारी से हारे! सम्राटों से नहीं हारा था। हार उसने जानी नहीं थी जिंदगी में। जीत और जीत ही उसका एकमात्र अनुभव था। उसने कहा, आज मैं हूं और यह भिखारी है। सारा खजाना डाल दो ! खजाने अकूत थे, मगर सांझ होते-होते खाली हो गए। हीरे-जवाहरात डाले गए, मोती डाले गए, स्वर्णमुद्राएं डाली गईं, चांदी की मुद्राएं डाली गईं। सब खत्म होता चला गया, सब खत्म होता चला गया। सांझ होतेहोते सम्राट की हालत भिखारी की हो गई, और सारी राजधानी इकट्ठी हो गई यह देखने को। खबर आग की तरह फैल गई कि एक भिखारी, पता नहीं क्या, कैसा जादू है उसके भिक्षापात्र में... ! आखिर सम्राट सांझ को उसके पैरों पर गिर पड़ा और उसने कहा, मुझे क्षमा करो। मैं तुम्हें पहचान नहीं पाया। मैं तुम्हारे इस जादू से भरे पात्र को भी नहीं पहचान पाया। मेरे अहंकार को माफी दे दो। मुझ पर दया करो। मुझे यह शर्त स्वीकार नहीं करनी थी। शर्त सुन कर ही समझ लेना था कि कुछ गड़बड़ होगी। क्या मैं पूछ सकता हूं... मैं हार गया, मैं शर्मिंदा हूं अपनी अकड़ के लिए, लेकिन क्या मैं इतना जान सकता हूं-- क्योंकि यह जीवन भर मेरे मन में जिज्ञासा रहेगी- इस भिक्षापात्र का जादू क्या है? उस भिखारी ने कहा, इसमें कोई जादू नहीं है। इसे मैंने आदमी की वासनाओं से निर्मित किया है। इसमें ताने-बाने आदमी की वासनाओं के बुने हैं। यह आदमी का हृदय है, यह आदमी का मन है। इसमें भिक्षापात्र में कुछ खूबी नहीं है। यह भिक्षापात्र साधारण है। बस इसके ताने-बाने विशिष्ट हैं। वे ही ताने-बाने जिनसे तुम्हारा हृदय बना है। तुम्हारा भिक्षापात्र भरा? जैसे बिजली कौंध गई! सम्राट को दिखाई पड़ा कि निश्चय ही उसका भिक्षापात्र भी खाली रह गया है। जीवन तो हो गया, अभी भी दौड़ जारी है। मौत करीब आने लगी, दौड़ जारी है। हाथ खाली के खाली हैं। इतना बड़ा साम्राज्य है, मगर तृप्ति कहां! तो श्री मोदी स्मरण रखना, कोई स्त्री तुम्हारी कामवासना को तृप्त नहीं कर पाएगी। वासनाएं तृप्त होतीं ही नहीं। इसलिए इस भ्रांति में मत रहना कि मैं यह कह रहा हूं कि इस तरह तुम्हारी वासना तृप्त हो जाएगी। इतना ही होगा कि इससे तुम्हें एक सजगता मिलेगी कि कोई स्त्री तुम्हारी वासना को तृप्त नहीं कर सकती। इस विवाह ने एक धोखा पैदा कर दिया है। विवाह का सबसे बड़ा धोखा जो है... । मैं दुनिया से विवाह को विदा कर देना चाहता हूं। और उसका कारण तुम जान कर चकित होओगे। उसका कारण यह है कि अगर दुनिया से विवाह विदा हो जाए, तो इस दुनिया को धार्मिक होने के लिए रास्ता खुल जाए। विवाह के कारण यह भ्रांति बनी रहती है कि इस स्त्री में मैं उलझा हूं, इससे फंसा हूं, इसलिए वासना तृप्त नहीं हो रही! काश मुझे मौका होता, इतनी सुंदर स्त्रियां चारों तरफ घूम रही हैं, तो कब की वासना तृप्त हो गई होती। वह भ्रांति है। मगर वह भ्रांति बनी रहती है विवाह के कारण। दूसरे की स्त्री सुंदर मालूम पड़ती है। दूसरे के बगीचे की घास हरी मालूम पड़ती है। और दूसरे की स्त्री जब घर से बाहर निकलती है, तो बन ठन कर निकलती है, तुम्हें तो उसका बाहरी आवरण दिखाई पड़ता है। तुम्हारी स्त्री भी दूसरे को सुंदर मालूम पड़ती है। मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन घर आया और उसने देखा कि चंदूलाल मारवाड़ी उसकी पत्नी को आलिंगन कर रहा है। वह एकदम ठिठका खड़ा रह गया। चंदूलाल बहुत घबड़ाया। चंदूलाल ने समझा कि मुल्ला एकदम गुस्से में आ जाएगा, बंदूक उठा लेगा! लेकिन न उसने बंदूक उठाई, न गुस्से में आया। चंदूलाल के कंधे पर धीरे से हाथ मारा और कहा, जरा मेरे पास आओ। बगल के कमरे में ले गया और बोला, मेरे भाई, मुझे तो करना पड़ता है, तुम क्यों कर रहे हो? तुम्हें क्या हो गया? तुम्हारी बुद्धि मारी गई है? मेरी तो मजबूरी है, क्योंकि मेरी पत्नी है। सो रोज मुझे आलिंगन भी करना पड़ता है और रोज कहना भी पड़ता है कि मैं तुझे बहुत प्रेम करता हूं। बस तुझे ही चाहता हूं, जी-जान से तुझे चाहता हूं मेरी जान, जनम-जनम तुझे चाहूंगा। मगर तुझे क्या हो गया मूरख? और हमने तो सुना था कि मारवाड़ी बड़े होशियार होते हैं। मगर नहीं, तू निपट गधा है। और तेरी जैसी सुंदर पत्नी को छोड़ कर तू यहां क्या कर रहा है? अरे मूरख, मैं तेरी पत्नी के पास से चला आ रहा हूं। चंदूलाल ने कहा कि भैया, तूने मुझे भी मात कर दिया। उस औरत के डर से मैं कहां-कहां नहीं भागा फिरता हूं! शराब पीता हूं, फालतू दफ्तर में बैठा रहता हूं, फिजूल ताश खेलता हूं, शतरंज बिछाए रखता हूं कि जितनी देर बच जाऊं उस चुड़ैल से उतना अच्छा! तू उसके पास से चला आ रहा है! कहते क्या हो नसरुद्दीन? मैं तो सदा सोचता था कि तुम एक बुद्धिमान आदमी हो । तुमने उसमें क्या देखा? उस मोटी थुलथुल औरत में तुमको क्या दिखाई पड़ता है? एक दिन स्टेशन पर वजन तुलने की मशीन पर चढ़ी थी, तो मशीन में से आवाज आईः : एक बार में एक, दो नहीं । तुम्हें उसमें क्या दिखाई पड़ रहा है? मगर यही होता है। विवाह ने एक भ्रांति पैदा कर दी है। विवाह ने खूब धोखा पैदा कर दिया है। विवाह से ज्यादा अधार्मिक कृत्य दूसरा नहीं है, मगर धर्म के नाम पर चल रहा है! अगर लोग मुक्त हों, तो जल्दी ही यह बात उनकी समझ में आ जाए कि न तो कोई पुरुष किसी स्त्री की वासना तृप्त कर सकता है, न कोई स्त्री किसी पुरुष की वासना तृप्त कर सकती है। लेकिन यह अनुभव से ही समझ में आ सकता है। जब एक से ही बंधे रहोगे तो यह कैसे समझ में आएगा? और जिस दिन यह समझ में आ जाता है, उसी दिन जीवन में ध्यान की शुरुआत है। उसी दिन जीवन में क्रांति है। उसी दिन तुम वासना के पार उठना शुरू होते हो। ध्यान है क्या? ध्यान यही है कि मन सिर्फ दौड़ाता है, भरमाता है, भटकाता है मृग-मरीचिकाओं में-- और आगे, और आगे... । क्षितिज की तरह, ऐसा लगता है-अब तृप्ति, अब तृप्ति, जरा और चलना है; थोड़े और! और क्षितिज कभी आता नहीं, मौत आ जाती है। तृप्ति आती नहीं, कब्र आ जाती है । ध्यान इस बात की सूझ है कि इस दौड़ से कुछ भी नहीं होगा। ठहरना है, मन के पार जाना है, मन के साक्षी बनना है। श्री मोदी, अगर सच में ही चाहते हो कि वासना से तृप्ति, मुक्ति, वासना के जाल से छुटकारा हो जाए, तो न तुम्हारी पत्नी दे सकी है, न किसी और की पत्नी दे सकेगी, न कोई वेश्या दे सकेगी, कोई भी नहीं दे सकता है। यह कृत्य तो तुम्हारे भीतर घटेगा। यह महान अनुभव तो तुम्हारे भीतर शांत, मौन, शून्य होने में ही संभव हो पाता है। मगर जब तक यह न हो, तब तक मैं दमन के पक्ष में नहीं हूं। मैं कहता हूं, तब तक जीवन को जीओ, भोगो। उसके कष्ट भी हैं, उसके क्षणभंगुर सुख भी हैं; कांटे भी हैं, फूल भी हैं वहां; दिन भी हैं और रातें भी हैं वहां - - उन सबको भोगो। उसी भोग से आदमी पकता है। और उसी पकने से, उसी प्रौढ़ता से, एक दिन छलांग लगती है ध्यान में।
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तांत्रिक चंद्रा ने अपने अनुष्ठान का समापन किया ही था कि तभी अश्वारोही सैनिकों के दल ने उसे चारों ओर से आकर घेर लिया। 'चंद्रा...!' दल के नायक का अवज्ञापूर्ण स्वर गूंजा-'सेनापति ने तुझे स्मरण किया है...तत्काल हमारे साथ चल!' अपमानबोध से आहत चंद्रा ने संयम खो दिया। क्रोधाग्नि में उसका रोम-रोम जल उठा। स्वयं से उसने कहा-धृष्टता की यह तृतीय पुनरावृत्ति की है इस दुष्ट सेनापति ने...इस बार क्षमा का अधिकार इसने खो दिया है। इसे दण्डित करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं। 'किस चिन्तन में खो गया तू...' उसी सैनिक ने पुनः कहा-'तूने क्या सुना नहीं? ...तुझे अविलम्ब हमारे साथ चलना है। शीघ्रता कर अन्यथा।' 'अन्यथा क्या' ? कुपित चंद्रा ने फुफकारते हुए कहा-'क्या कर लेगा तू...? मुझे बलात् ले जाएगा? क्या सोचता है तू...चंद्रा तांत्रिक को अपने शस्त्रा बल के अधीन कर सकता है तू...क्यों?' तांत्रिक के द्वारा व्यक्त इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया से उस सैनिक का आत्मविश्वास डिग गया। क्या पता...सिद्ध तांत्रिक हुआ तो न जाने क्या कर बैठे...उसने तो सोचा था कोई सामान्य तांत्रिक होगा यह...! परन्तु इसकी निर्भीक वाणी से तो प्रतीत होता है, यह वास्तव में सिद्ध है। अब क्या करे वह? उसने तत्काल निर्णय लिया। शस्त्रा-बल को त्याग वाक्-बल से स्थिति को संभालना होगा। परन्तु अनायास झुकना भी अनुचित है अन्यथा यह चंद्रा और चढ़ जाएगा। इस प्रकार विचार कर उसने कहा-'हम सब तो सेनापित के अधीन उनके आज्ञापालक मात्र हैं चंद्रा...! न हमारी तुमसे कोई व्यक्तिगत शत्रुता है न तुम्हारी हम से...अतएव, हम पर तुम्हारा क्रोधित होना व्यर्थ है। हमने तो अपने सेनापति की आज्ञा से तुम्हें अवगत करा दिया है... अब तुम जो संदेश दोगे, वह हम अपने सेनापति को पहुँचा देंगे। इतनी-सी ही तो बात है...अब कहो तुम्हें क्या कहना है?' 'अत्यंत चतुर है तू,' कुटिलता से मुस्कुराते हुए चंद्रा ने कहा-'भय के कारण प्रीति प्रदर्शित कर रहा है...परन्तु फिर भी जा...चंद्रा ने तुझे क्षमा किया...अब बता क्या कहा है सेनापति ने?' 'अविलम्ब तुमसे मिलने को व्याकुल हैं वे।' उसी सैनिक ने कहा। 'मुझसे मिलना था तो मेरे समक्ष आना था उसे...मुझे क्यों बुलाया है? ... मुझे तो तुम्हारे सेनापति से कोई कार्य नहीं...मैं क्यों जाऊँ उसके पास। जाओ जाकर कह दो अपने सेनापति से...चंद्रा नहीं जाएगा...जाओ जाकर कह दो उससे।' 'इसकी भलमानसाहत ने तुझे सिंह बना दिया है तांत्रिक' , दूसरे अश्वारोही सैनिक ने तीव्र गति से आगे आकर कहा-'अन्यथा भीगी बिल्ली-सा तू मस्तक झुकाए हमारे साथ चलता...तूने क्या समझा था, हम सब तेरे झाँसे में आकर लौट जायेंगे?' कह कर अश्वारोही अश्व की पीठ से उछलकर भूमि पर आ खड़ा हुआ और अद्भुत तत्परता से तत्क्षण म्यान से तलवार निकाल ली। 'सावधान सैनिक!' चंद्रा ने चीखते हुए कहा-'प्राणों का मोह-त्याग चुका है तो आगे आ, परन्तु फिर मुझे दोष न देना।' कहकर चंद्रा ने भूमि पर अपने दाहिने पग के अंगुष्ठ से एक वृत्त खींच दी। 'शौर्य-पुत्र है तो इस अभिमंत्रित वृत्त को पार कर!' कहकर चंद्रा ने भीषण अट्टहास प्रारंभ कर दिया। चंद्रा के अट्टहास ने सैनिकों के हृदय में भय-सा भर दिया। परिणामस्वरूप, भयभीत अश्वारोही सैनिकों का दल तीव्र गति से तत्काल पलायन कर गया। भागते सैनिकों के पीछे खड़ा चंद्रा और भी तीव्र स्वर में अट्टहास करने लगा। सेनापति को पूर्व से ही आशंका थी कि चंद्रा नहीं आएगा, इसी कारण वह क्रोधित न होकर विचारमग्न हो गया। अंततः उसने निश्चय किया कि वह स्वयं जाकर चंद्रा को मनाएगा और उसने ऐसा ही किया। अश्वारोही सेनापति के पीछे-पीछे पाँच भैंसागाड़ियाँ चंद्रा तांत्रिक की कुटिया पर जा पहुँचीं। अश्व से उतरकर सेनापति ने मुस्कराते हुए कहा-'तुम्हारा क्रोध सर्वथा उचित है चंद्रा! स्वीकार करता हूँ मैं कि मुझसे भूल हुई है, परन्तु यह तो कहो...जब मैं अपनी पूर्व में की गयी भूलों को सुधारने की कामना रखता हूँ तो क्या यह अनुचित है?' चंद्रा ने उत्तर नहीं दिया। उसे दृढ़ विश्वास था, इस धूर्त्त की यह नवीन चाल है। अवश्य किसी प्रयोजन विशेष ने इसे पुनः विवश किया है, अन्यथा यह दुष्ट पुनः क्यों आता? 'मौन क्यों हो मित्र!' सेनापति ने अत्यंत मृदुल स्वर में कहा-' विश्वास करो। अपनी अंतरात्मा से प्रेरित होकर तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हुआ हूँ... इन गाड़ियों में लदे उपहार मेरी मित्रता के प्रतीक हैं चंद्रा! पूर्व में की गयी मूर्खता ने मुझे अत्यंत लज्जित किया है। मेरा विश्वास करो तथा मेरा उपहार स्वीकार कर मेरी आत्मा का बोझ हलका कर दो मित्र! 'इस बार उलझ गया चंद्रा। उसकी समझ में कुछ नहीं आया। क्या वास्तव में इस धूर्त्त का हृदय परिवर्तित हो गया है अथवा इसमें भी कुछ चाल है? शंकित चंद्रा ने अंततः कहा-' आपकी अभिलाषा को तो ग्रहण लग गया सेनापति! युवराज आ गये और मैंने सुना है उत्कल नरेश अपने पुत्र एवं सुरक्षा-सेना के साथ राज-भरोड़ा प्रस्थान कर रहे हैं...अब इस परिस्थिति में आपको पुनः मेरी मित्रता का स्मरण होना, वास्तव में अनोखी बात है। क्षमा करें सेनापति! मुझे न तो आपसे मित्रता की इच्छा है और न शत्रुता की अभिलाषा...क्षमा कर दें मुझे। नहीं चंद्रा! 'पुनः स्वर में रस घोलते सेनापति ने कहा-' मेरा हृदय यूँ न तोड़ो। इन उपहारों को स्वीकार करो और मुझे विदा करो। परन्तु यह जान लो, तुम सदा मेरे हृदय में मित्रवत् ही रहोगे चंद्रा...यह निश्चित है। मुझसे मित्रता का प्रयोजन भी स्पष्ट कर दें सेनापति तो मेरा विस्मय समाप्त हो जाए', इस बार चंद्रा ने मुस्कुराते हुए कहा-' क्योंकि निष्प्रयोजन आप न किसी को मित्र बनाते हैं...न शत्रु। ठीक ही कहा तुमने चंद्रा! 'सेनापति ने शांत स्वर में कहा-' इस संसार में कोई कार्य निष्प्रयोजन नहीं होता। अपने राजा जी तथा राज कुँवर के साथ मैं भी राज-भरोड़ा जा रहा हूँ। क्या पता लौटूँ या न लौटूँ... फिर हृदय पर बोझ लिये क्यों जाऊँ? ...मैंने तुम जैसे सिद्ध-साधक को हार्दिक आघात पहुँचाया है...इसका स्पष्ट भान है मुझे। इसीलिए मैं चाहता हूँ तुमसे क्षमा माँग कर तुम्हें पुनः मित्र बना लूँ। भरोड़ा-यात्र में जीवित रहूँगा तो पुनः तुम्हारी सेवा में उपस्थित होऊँगा, मित्र! इस घड़ी तो इन उपहारों को सम्हालो और मुझे विदा करो! क्यों सेनापति जी! 'कृत्रिम आश्चर्य प्रकट करते हुए चंद्रा ने कहा-' भरोड़ा में कौन शत्रु है आपका, जिससे आपको अपने प्राणों का भय है। मैंने तो सुना है महाराज का प्रयोजन कुछ और है...और आप इस प्रकार आशँकित हो रहे हैं जैसे आप युद्ध पर जा रहे हों। वैसे भी युद्ध अभियानों पर तो आपका उत्साह यों भी द्विगुणित हो जाया करता है, फिर इस बार ऐसी क्या बात है? 'प्रसन्न हो गया सेनापति! अब पंछी आया जाल में और उसने बहुरा गोढ़िन की सम्पूर्ण कथा विस्तार में सुना दी। तो यह बात है! चंद्रा तांत्रिक समस्त रहस्य समझ गया। मित्रता स्वीकारते ही फँसेगा वह। यह धूर्त्त अवश्य उसे इस यात्र में अपने साथ चलने का अनुरोध करेगा।' ठीक है सेनापति जी! 'सम्पूर्ण युक्ति पर विचार करने के उपरांत चंद्रा ने कहा-' मैं आपकी भावना समझ गया। मुझे प्रसन्नता है कि आपने अपनी भूल अंततः स्वीकारी। मेरे हृदय में आपके प्रति अब कोई दुर्भाव नहीं रहा, यह निश्चित है परन्तु इन उपहारों को मैं स्वीकार नहीं कर सकता। मैं गृहस्थ नहीं, तांत्रिक हँू...ज्ञात ही है आपको। इन सांसारिक पदार्थों का क्या करूँगा मैं। ये सब निरर्थक हैं मेरे लिए, अतः इन्हें लौटा लें और प्रसन्नतापूर्वक भरोड़ा-यात्र सम्पन्न करें। मेरी समस्त शुभकामनाएँ आपके साथ हैं...आप जाइये सेनापति, सुखपूर्वक अपनी यात्र प्रारंभ कीजिए. 'आश्चर्य है! सेनापित फुसफुसाया। पक्षी तो जाल में उतरकर पुनः उड़ गया। ऐसी कलाकारी कब से सीख ली इस मूर्ख ने?' मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी चंद्रा! 'सेनापति ने नैराश्य के स्वर में कहा।' क्यों, क्या किया है मैंने! 'चंद्रा ने चतुराई से कहा-' मैंने तो अपने अंतस् से आपके प्रति अपना समस्त विद्वेष विसर्जित कर दिया सेनापति! और आप कहते हैं। 'चंद्रा ने आपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया।' क्या करता मैं चंद्रा...तुम्हीं कहो क्या करता मैं? ...वंश-विहीन हो चुके इस उत्कल प्रदेश पर आतताइयों की प्रभुता स्वीकार लेता? क्या करता मैं, क्षणोपरांत उसने पुनः कहा-'और सबसे बड़ी बात कि मैं भी एक मनुष्य ही हूँ। मेरे भी अंदर अभिलाषाएँ हैं...देवता नहीं मैं। विगत की परिस्थितियों में उलझ गया मैं...तो क्या तुम...तुम चंद्रा तुम...मेरे मित्र, मेरे अपने, इस छोटी-सी बात को भी नहीं समझ सकते! और मान लो उस घड़ी मैंने तुम्हें अपमानित कर ही दिया तो इसका दोष अकेले मुझ पर नहीं, तत्कालीन परिस्थितियों का भी है। आज विश्वास कर सको मित्र तो मुझ पर विश्वास करो। अपने प्रिय युवराज की रक्षा में मैं अपने प्राणों की भी आहुति हँसते...हँसते दे सकता हूँ। परन्तु, मुझे खेद है मित्र, इस स्थिति में भी मुझे तुम्हारा सहयोग, तुम्हारा साहचर्य प्राप्त नहीं हो सका। ऐसी आशा तुमसे नहीं थी चंद्रा!' औपचारिकता का समस्त आवरण तोड़ते हुए इस बार चंद्रा ने कठोर स्वर में कहा-'आप क्या सोचते हैं सेनापति?' विषैली मुस्कान तैर गयी उसके अधरों पर-'चतुराई का समस्त भंडार आपके ही पास है, या विधाता ने कुछ मुझे भी दिया है? ... स्पष्ट क्यों नहीं कहते कि उस विकट बहुरा के भय ने पुनः आपको मेरे पास आने को विवश किया है। यह सारा प्रपंच और आपका अभिनय मुझसे छिपा नहीं है। परन्तु आप इस बार मुझे छल नहीं सकते। दो बार आपने मुझे मूर्ख बनाया, अपमानित किया मुझे, जबकि मैंने आपके लिए।' पुनः उसने अपने वाक्य को अधूरा छोड़ दिया और अवाक् सेनापति विस्फारित नेत्रों से चंद्रा को अपलक देखने लगा। सारे पासे पलट चुके थे। इस तांत्रिक ने इस बार उसे मात दे दी थी। अब क्या करे वह? क्या मस्तक झुकाये मौन चला जाये वह...अथवा एक प्रयत्न और करके देखे। चंद्रा ने उसके अंतस् की बात जान ली थी। वास्तव में बहुरा की विकट शक्तियों से भयभीत था वह। यह चंद्रा यदि साथ रहता तो उसके स्वयं के प्राणों की रक्षा तो अवश्य हो जाती...रही बात राजा एवं युवराज की, तो उनकी पराजय तो वस्तुतः इसकी विजय ही थी। परन्तु यह धूर्त्त तो सारी चालें भाँप गया...अब क्या करे वह? उसके अंतस् में एक बार क्रोध भी उबला। इच्छा हुई की अपनी प्यासी तलवार की प्यास इसी से बुझा दे, परन्तु तत्क्षण उसने, स्वयं को नियंत्रित किया। ऐसी भूलें पूर्व में भी हो चुकी हैं उससे अन्यथा परिस्थिति ऐसी विषम नहीं होती। यह मूर्ख तो न्यौछावर था मुझ पर, मैंने ही अपनी मूर्खता से अपना अहित किया है। 'अब किस चिंतन में लीन हैं सेनापति!' चंद्रा ने ही पुनः कहा-'मैं भली भाँति जानता हूँ...क्या पक रहा है आपके मस्तिष्क में, परन्तु अब चंद्रा पुनः मूर्ख नहीं बनेगा सेनापति, यह निश्चित है।' 'मैं तुम्हें दोष नहीं देता चंद्रा! भूल मैंने की है तो उसे भोगूंगा भी मैं ही। परन्तु मुझे इस बात की चिन्ता है कि तुमने मेरे अंतस् को नहीं पहचाना। इस राज्य में और भी तांत्रिक सिद्ध हैं चंद्रा! उग्रचण्डा को ही लो...तुमने स्वयं उसकी शक्ति को पहचाना है। वह प्रसन्न भी है मुझ पर, परन्तु इस विकट संकट में मैं उसके समक्ष न जाकर तुम्हारे समक्ष आया... अपने मित्र के समक्ष आया। इस आशा और विश्वास के साथ आया था चंद्रा कि तुम मेरी भावनाओं को समझोगे...मेरी सहायता करोगे, परन्तु तुमने अपने अंदर इतना विष भर लिया है कि मेरी सीधी-सच्ची भावना में भी तुम मेरी चतुराई ही देख रहे हो...मेरी चाल देख रहे हो! धिक्कार है मुझ पर। मैं इतना पतित, इतना लोभी तथा अहंकारी था कि मेरे साथ यही होना था, जो हो रहा है। तुम्हें दोष क्यों दूँ मैं चंद्रा...क्यों दूँ दोष तुम्हंे?' 'आपने स्वयं के स्वरूप को पहचान लिया...यह अच्छी बात है सेनापति! मैंने आपके लिए कभी अशुभ की कामना नहीं की, सदा आपके कल्याण की ही कामना की, परन्तु आपने दूध की मक्खी समझकर सदा मेरा तिरस्कार किया।' कहते-कहते चंद्रा के मस्तिष्क में सहसा एक नवीन विचार उभरा। इस विचार ने उसकी मुखाकृति पर विषाक्त मुस्कान बिखेर दी। कुछ क्षणों के उपरांत मुस्कुराते हुए उसने कहा-'फिर भी इस यात्र में मैं आपके साथ चलूँगा। जाऊँगा मैं।' चंद्रा की इस अप्रत्याशित स्वीकृति ने अनायास परिस्थिति परिवर्तित कर दी। झपटकर सेनापति ने चंद्रा को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया। सेनापति के वक्ष से लगा चंद्रा पुनः मुस्कुराया। परन्तु सेनापति को इसका तनिक भी भान न हुआ। चंद्रा की इस मुस्कराहट में विष ही विष भरा था। शंखाग्राम में कामायोगिनी का स्वागत स्वयं भुवनमोहिनी ने किया। 'शंखाग्राम में भुवनमोहिनी आपका स्वागत करती है देवी!' स्निग्ध मुस्कान बिखेरती भुवनमोहिनी ने कहा-'आपके दर्शनों की चिर अभिलाषा आज पूर्ण हुई देवी!' 'अभिलाषा तो मेरी पूर्ण हुई है।' हँसती हुई कामायोगिनी ने कहा-'यही एकमात्र इच्छा थी मेरी कि आपके दर्शन हों। ...वस्तुतः धन्य तो मैं हूँ देवि। मेरे पुण्यों का आज वास्तव में उदय हुआ है तभी तो आप जैसी विदुषी-साधिका के दर्शन संभव हुए हैं। साथ ही आपने मुझे अनुगृहीत भी किया है देवी! आभार व्यक्त करना अभी शेष है।' 'आभार कैसा!' भुवनमोहिनी के मुख पर मंद हास बिखरा-'और मैंने आपको भला अनुगृहीत कैसे कर दिया?' 'मेरे प्रिय कुँवर को शिष्यवत् स्वीकारा है आपने देवी...! मेरे अपूर्ण शिष्य को आपने पूर्ण किया है। कुँवर पर की गयी आपकी कृपा वस्तुतः मुझ पर आपका अनुग्रह ही है देवी! कुँवर को पूर्ण कर वस्तुतः आपने मुझे ही अनुगृहीत किया है। यह आपका उपकार है मुझ पर।' भुवनमोहिनी ने पुनः स्मित-भाव से कामायोगिनी को निहारकर कहा-'आपके शिष्य के साथ मेरी माताश्री भोजन-कक्ष में हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं तथा हम दोनों एक दूसरे की प्रशंसा में व्यस्त हैं...आज्ञा हो तो हम भोजन-कक्ष के लिए प्रस्थान करें?' भुवनमोहिनी की बात पर खुलकर हँस पड़ी कामायोगिनी। हँसती-मुस्कुराती दोनों देवियो ने जब भोजन-कक्ष में प्रवेश किया तो वास्तव में, वहाँ राजमाता एवं कुँवरदयाल इनके लिए प्रतीक्षारत थे। राजमाता के साथ औपचारिक वार्तालाप के पश्चात् भरोड़ा-यात्र की चर्चा प्रारंभ हो गयी तथा देवी कामायोगिनी को राजमाता ने विस्तार में समस्त सूचना देकर कहा-'उत्कल नरेश, हमारे जामाता के साथ भरोड़ा के लिए प्रस्थान कर चुके हैं। अतः, हमें अपनी यात्र कल सूर्योदय के साथ ही प्रारंभ कर देनी चाहिए.' 'ऐसा ही होगा राजमाता!' कामायोगिनी ने कहा-'सूर्योदय के साथ ही, कल हमारी यात्र प्रारंभ हो जाएगी।' इस समस्त वार्तालाप के मध्य कुँवर दयाल सिंह मौन रहा था। भोजन के समापन के उपरांत भुवनमोहिनी कामायोगिनी के साथ अपने शयन-कक्ष में चली गयीं। रात्रिपर्यन्त दोनों इसीप्रकार वार्तालाप में निमग्न रहीं, मानो वर्षों की बिछुड़ी दो सहेलियाँ आपस में मिली हों। राजामाता को भी नींद नहीं आयी। शय्या पर लेटी राजमाता कुँवर के द्विरागमन-संस्कार की कल्पना में डूबी रहीं। शंखाग्राम के गंगाघाट पर भी रात्रि जागरण था। राजमाता की नौका को अंतिम रूप से सज्जित किया जाता रहा और इन समस्त गतिविधियों से निर्लिप्त कुँवर दयाल सिंह अपने कक्ष में मुस्कुराता विधि का विधान देखता रहा। सूर्योदय के पूर्व ही राजमाता अपनी पुत्री एवं पुत्रवत कुँवर के साथ नौका में उपस्थित हो गयीं। कामायोगिनी अपनी नौका में जा पहुँची। शंखाग्राम की रक्षक नौकाओं ने दोनों नौकाओं को अपनी सुरक्षा-परिधि में ले लिया। सूर्योदय होने को ही था कि राजमाता की आज्ञा से सभी नौकाओं के लंगर उठ गये और यात्र प्रारंभ हो गयी। क्षितिज से उदित होते सूर्यनारायण की स्वर्णिम किरणें गंगा की कल-कल करती धारा पर स्वर्ण छटा बिखेर रही थीं। आकाश में पंख फैलाये उड़ते पंछियों का कलरव व्याप्त था। नौका के ऊपरी तल पर विराजी राजमाता प्रकृति के इस अनुपम सौंदर्य को मुग्ध हो निहार रही थीं। इसी घड़ी कुँवर के साथ भुवनमोहिनी भी नौका के ऊपरी तल पर आ पहुँची। राजमाता को अभिवादन निवेदित कर दोनों वहीं बैठ गये। 'तुम्हारी निरंतर उदासीनता का क्या कारण है पुत्र?' राजमाता ने स्मित हास से कहा-'जब से हमने इस यात्र का निश्चय किया है, तभी से मैंने लक्ष्य किया है...बात क्या है पुत्र?' राजमाता के कथन पर भुवनमोहिनी हँस पड़ी। हँसते हुए ही उन्होंने कहा-'आपने सत्य कहा माताश्री! जीवन से पूर्णरूपेण निर्लिप्त हो चुका है मेरा शिष्य।' 'आपने भी देवी...!' मंद हँसी के साथ कुँवर ने अधूरी पंक्ति कही। 'हाँ मैंने भी' , पुनः हँस पड़ी भुवनमोहिनी। 'मैंने भी माताश्री का अनुमोदन कर दिया तो तुम रुठ गये प्रिय? ...' हँसी रूकी तो उन्होंने कहा। कुँवर के मौन पर भुवनमोहिनी ने पुनः कहा-'चेतना के इस स्तर पर उपस्थिति का अर्थ है-भावनाओं, संवेदनाओं का अभाव हो जाना। परन्तु तुमने तो प्रिय।' मुस्करा कर कुँवर ने देवी की बात में हस्तक्षेप करते हुए कहा-'मैंने क्या देवी? ... क्या किया है मैंने? ...माताश्री की इच्छा को मैंने सादर-स्वीकार कर लिया। इनके निर्देश पर वज्रबाहु ने दिव्य-भव्य व्यवस्था कर दी। उत्कल-नरेश ने भी मेरे अंचल हेतु भव्य यात्र प्रारंभ कर दी तो मैंने विरोध कहाँ किया देवी?' क्षणोपरांत उसने पुनः कहा-'देवी कामायोगिनी ने मुझसे वचन लिया था, अतएव उन्हें साथ लेना आवश्यक था...परन्तु मेरे लिए आप सब इसप्रकार अतितत्पर हो जाएँगे, ऐसी कोई भावना मेरे अंतस् में नहीं थी। अतः मैं निर्लिप्त था।' कुँवर के कथन पर राजमाता मुस्करायीं। स्मित नेत्रों से उन्होंने कुँवर से कहा-'तुमलोगों की बातें तुम्हीं लोग जानो। मैं तो साधारण मनुष्य की स्त्राी-योनि में ही संतुष्ट हूँ। भला यह भी कोई बात हुई कि दुःख हमेंदुःखी न करे और सुख में हम प्रसन्न न हों। साधना की यही परिणति है तो अच्छा है...मैं साधिका नहीं हूँ। मैं तो प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्रवधू की विदाई कराऊँगी और तत्पश्चात् आनंद पर्व भी मनाऊँगी।' राजमाता ने अपनी बात पूरी ही की थी कि तभी उनकी दृष्टि सुदूर जल-धारा पर पद्मासन में आसीन एक कापालिक पर पड़ी। विस्मित स्वर में उन्होंने कहा-'अरे! तनिक आगे तो देखो...कोई कापालिक ही है वह...देखो तो, जल पर कितनी सहजतापूर्वक आसन जमाये आसीन है वह!' कुँवर के साथ ही भुवनमोहिनी की दृष्टि भी उस पर पड़ी। पद्मासन में आसीन वह कापालिक धारा के विपरीत नौका की ओर ही बहता आ रहा था। 'कौन है वह?' राजमाता ने कहा-'वेषभूषा एवं आकृति से तो वह कोई कापालिक ही प्रतीत हो रहा है...परन्तु जल पर इसप्रकार आसीन! ...आश्चर्य है!' 'कौन है वह प्रिय?' भुवनमोहिनी ने कुँवर से प्रश्न किया। 'टंका!' कुँवर ने अति शांत स्वर में कहा। राजमाता चौंकी तथा भुवनमोहिनी मुस्कुराने लगी। भुवनमोहिनी के आदेश पर सेवकों ने तत्काल रस्सी की सीढ़ी नीचे लटका दी। उत्सुक राजमाता के साथ ही मुस्कराती भुवनमोहिनी एवं शांतचित्त कुँवर ने अपने आसन को त्यागा। ये सभी रस्सी के समीप आकर पास आते कापालिक को देखने लगे। वास्तव में यह टंका ही था। उसकी आकृति अब स्पष्ट होने लगी थी। शंखाग्राम की रक्षक नौकाओं ने उसे अपने मध्य सादर मार्ग प्रदान कर दिया और अब टंका नौका के अत्यंत समीप आ पहुँचा था। टंका ने युगलहस्त तीनों का अभिवादन किया। तदुपरांत पद्मासन त्याग कर उसने सीढ़ियाँ थाम ली। 'आओ मित्र! शंखाग्राम की इस नौका पर तुम्हारा स्वागत है!' नौका पर आते ही कुँवर ने कहा। 'अनामंत्रित व्यक्ति का स्वागत!' हँसते हुए कहा टंका ने 'इस टंका को तो आपने विस्मृत ही कर दिया था स्वामी!' उसे बाँहों में भरते हुए कुँवर ने कहा-'नहीं मित्र...! तुम विस्मृति के योग्य नहीं...परन्तु मित्र को व्यर्थ कष्ट प्रदान करना क्या उचित था?' तत्पश्चात् अपनी बाँहों से टंका को मुक्त करते हुए कुँवर ने पुनः कहा-'आओ हमारे संग विराजो!' 'हाँ टंका!' भुवनमोहिनी ने कहा-'तुम्हें अनायास अपने मध्य पाकर मैं भी प्रसन्न हूँ। कुँवर पर तुम्हारा आरोप उचित ही है...स्वीकार करती हूँ तथा इसकी ओर से मैं तुमसे खेद भी प्रकट करती हूँ।' कहकर वह हँस पड़ी। राजमाता की मुखाकृति पर भी टंका के इस अप्रत्याशित आगमन पर प्रसन्नता की रेखाएँ उभर आयी थीं। वार्तालाप के क्रम में समस्त कार्यक्रमों से अवगत हो चुके टंका के मस्तक पर चिन्ता की रेखाएँ उभर आयीं। 'स्वामी के प्रति राजमाता के स्नेह से मैं भलीभाँति परिचित हूँ'-भुवनमोहिनी से टंका ने कहा-'परन्तु राजमाता ने भावनाओं के प्रवाह में वज्रबाहु को यों असुरक्षित भेज दिया यह चिन्ता का विषय है देवी! दूसरी ओर उत्कल-नरेश ने भी अपनी राजकीय यात्र प्रारंभ कर दी है।' 'अपने मनोभावों को तनिक और स्पष्ट करो टंका'-भुवनमोहिनी ने कहा-'और तुमने वज्रबाहु को असुरक्षित क्यों कहा...अभिप्राय क्या है तुम्हारा...?' 'अभिप्राय स्पष्ट है देवी!' टंका ने कहा-'जिस भव्यता के साथ वज्रबाहु ने अपना अभियान सम्पन्न किया, तथा जिसप्रकार उत्कल-नरेश ने अपनी राजकीय यात्र प्रारंभ की है; इसकी सूचना समस्त अंचलों के साथ-साथ बखरी-सलोना तक अवश्य पहुँचेगी देवी...! पहुँचेगी क्या, कदाचित् पहुँच भी चुकी होगी। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही है कि भ्रमित बहुरा।' टंका ने जानकर अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया। मुस्कराती भुवनमोहनी ने कहा-'परन्तु उनसे बहुरा की क्या शत्रुता है? ...भ्रमवश शत्रु तो वह हमारे कुँवर की है टंका...! उसे तंत्र-प्रहार करना ही है तो वह कुँवर पर ही करेगी।' 'नहीं देवी...!' असहमत टंका ने कहा-'मुझे वज्रबाहु के समीप अविलम्ब उपस्थित होना होगा...मुझे आज्ञा दें!' 'तुम्हारी यही इच्छा है तो ऐसा ही हो'-भुवनमोहिनी मुस्करायी। 'आप गंभीर नहीं हैं देवी!' 'तुम्हारी चिन्ता अनावश्यक है टंका!' आश्वस्त भुवनमोहिनी ने कहा-'ऐसी बात नहीं है कि मैंने अपनी सेना की सुरक्षा-व्यवस्था पर विचार नहीं किया था, परन्तु फिर भी तुम्हें मैं रोकूँगी नहीं। तुम्हारी उपस्थिति से वज्रबाहु को प्रसन्नता ही होगी टंका...जाओ...!' न राजमाता ने कुछ कहा न कुँवर ने, परन्तु कुँवर को प्रणाम कर टंका ने तत्काल गंगा में छलांग लगा दी। शंखाग्राम की सेना के पश्चात् भरोड़ा में उत्कलराज की राजकीय सेना की उपस्थिति का समाचार दावानल की भाँति सम्पूर्ण अंग-महाजनपद में तत्काल फैल गया। अंग के प्रत्येक अंचल राजा-रजवाड़ों के मध्य जहाँ उत्सुकता का वातावरण उत्पन्न हो गया, वहीं बखरी-सलोना में आशंकायुक्त उत्सुकता फैल गयी। जेठ की तपती धूप में बखरी-सलोना का कण-कण तप रहा था। मुख्य चौपाल पर विशाल वट वृक्ष की छाया में एकत्र लोग इसी चर्चा में निमग्न थे। घाट पर, मल्लाहों के समूह में, हाट पर, मछली-सब्जी तथा मशालों के व्यापारियों के मध्य तथा तृणयुक्त मैदानों में मवेशी चराते चरवाहे तक आपस में इसी की चर्चा कर रहे थे। अंग की भूमि पर इसप्रकार, बाहरी सेनाओं का जमावड़ा आश्चर्यजनक था। जितनी सूचनाएँ आ रही थीं, सब अभूतपूर्व थीं। भरोड़ा जैसे लधु अंचल में बाहरी सेनाओं का ऐसा जमावड़ा पूर्व में कभी हुआ नहीं। यही कारण था कि चारो ओर अंग के समस्त अंचलों में आकुलता फैल गयी। सैनिकों की यथार्थ संख्या से अनभिज्ञ बखरी के निवासी एक दूसरे से भ्रमित समाचारों एवं सूचनाओं का आदान-प्रदान करने लगे। बखरी सलोना का सम्पूर्ण अंचल जहाँ इसप्रकार आशंकित था, वहीं तिनकौड़ी आम्र वृक्षों से आच्छादित भूमि पर अपनी खाट पर शांतचित्त लेटा था। खाट की रस्सी थी ही इतनी ढीली कि उसका मध्य तन भूमि से मात्र एक मुठ्ठी ऊपर झूल-सा रहा था। उष्ण पवन के तीव्र झोंकों में रगड़ खाती आम्र वृक्षों की डालियों एवं पत्तों के शोर में चिन्तामुक्त लेटा तिनकौड़ी भूमि पर गिर रहे टिकोलों को मौन निहार रहा था। माँ नित्य सिर पीटती और झुंझलाकर कहती-पुत्र अब लड़कपन छोड़ और कुछ काम-धाम शुरु कर। परन्तु वह भला काम क्या करता? प्रातः से सूर्यास्त तक कभी घाट के किनारे और कभी चौपाल पर व्यर्थ समय व्यतीत करते रहना ही उसकी दिनचर्या थी। उसके वयस के सभी संगी-साथियों ने काम-धाम करना शुरू कर दिया था, इसीलिए तिनकौड़ी के साथ व्यर्थ खेलकूद करने वाला कोई रहा नहीं। अकेले ही अपना सारा समय वह यों ही व्यर्थ करता रहता। इधर जबसे जेठ की तपन शुरू हुई, तभी से उसकी दिनचर्या बदल गयी। दोपहर की तपिश में वह आम्र के एक सघन वृक्ष के नीचे भूमि पर खाट बिछा कर अन्यमनस्क-सा यूँ ही पड़ा रहता। आज भी वह अपनी खाट पर लेटा गिरते हुए टिकोलों को देख रहा था कि तभी उसकी दृष्टि उस विकटा पर पड़ी जो भूमि को रौंदती हुई तीव्र गति से उसी की ओर चली आ रही थी। चिकने-काले पत्थर को जैसे किसी कुशल शिल्पी ने सम्पूर्ण मनोयोग से तराश कर बनाया हो, ऐसी सुधड़ काया वाली उस भयंकर आकृति को देखते ही तिनकौड़ी के प्राण सूख गए. नग्न चमकते पृथुल वक्ष पर बंदरों की हड्डियों का मुण्डमाल, कटि-प्रदेश पर रक्तवर्णी लघु-आवरण के ऊपर हड्डियों की जंजीर तथा दोनों कलाइयों में उंगलियों की हड्डियों का आभूषण धारण किये इस अमानवी ने तिनकौड़ी को जड़वत् कर दिया। युवती के उन्नत सुडौल और पाषाण सदृश छातियाँ तिनकौड़ी की दृष्टि को बलात् अपनी ओर खींचने लगीं। परन्तु उसकी बड़ी-बड़ी दहकती आँखों ने उसे अत्यंत भयाक्रांत कर दिया। नितम्बों तक लटक रहे खुले केशों को लहराती इस विकटा की तीक्ष्ण दृष्टि तिनकौड़ी पर ही गड़ी थी। वह पत्ते की भाँति खाट से उठकर अपने दोनांे काँपते कर जोड़े थरथराता खड़ा हो गया। कौन है यह? अपने बाल्य-काल से ही उसने अनेक सिद्ध और कापालिकों को अपने ही आँगन में देखा था। उसकी माता स्वयं तांत्रिक थी। माँ के साथ उसने महाश्मशान में भी अनेक औघड़ों को भयंकर अनुष्ठानों में निमग्न देखा था। अंचल की चौधराइन बहुरा को भी उसने अनेक बार निकट से देखा था, परन्तु ऐसी विकराल स्त्राी-मूर्त्ति की उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। मानवी तो नहीं हो सकती यह, उसने सोचा। यह अवश्य महाश्मशान की जाग्रत शाकिनी या कोई अतिविकट डाकिनी अथवा हाकिनी ही है। अब उसके प्राण नहीं बचेंगे। यह विकटा तो उसे पकड़कर कच्चा ही चबा जाएगी और यह सोचते ही अनायास रोने लगा वह और वह विकटा तिनकौड़ी पर दृष्टि टिकाये पास आती जा रही थी। तभी उसका रौद्र रूप परिवर्तित हुआ और उसके अधरों पर विषाक्त मुस्कान उभर आयी। निकट आकर रुक गयी वह। 'शांत हो जा मूर्ख!' उच्च स्वर में उसने कहा और तत्काल ही तिनकौड़ी का रुदन बलात् रुक गया। उसके दोनों कर अभी भी अभय-याचना में उठे थे और समस्त शरीर पूर्ववत् थर-थर कांप रहा था। 'यूँ काँप क्यों रहा है मूढ़' ! अपेक्षाकृत शांत स्वर में उसने कहा-'मुझसे भयभीत मत हो...शांत हो जा!' कुछ क्षणों तक वह विकटा मौन रही पुनः मुस्कराकर उसने कहा-'यह अंचल, बखरी है न?' 'हाँ माते' ! घिघियाते स्वर में तिनकौड़ी ने कहा, 'आप बखरी-सलोना में ही हैं।' 'तुम्हारी चौधराइन का निवास-स्थल किस दिशा में है पुत्र?' इस बार उसने और भी मृदुल स्वर में प्रश्न किया। कक्ष में इस घड़ी बहुरा के साथ माया तथा पोपली काकी भी उपस्थित थीं। क्रोधाग्नि में बहुरा ने नियंत्रण खो दिया था, परन्तु माया शांत थी। 'स्वयं को नियंत्रित कर पुत्री!' माया ने कहा-'तुम्हारे क्रोधित होने का वास्तव में कोई कारण ही नहीं है...!' पुनः रूककर उसने कहा-'हमारा जामाता हमारे पास लौट रहा है...हमारी प्रिय पुत्री का बिछुड़ा सुहाग पुनः वापस हो रहा है तो तू इस प्रकार रूष्ट क्यों हो रही है?' 'व्यर्थ वाक्य-भ्रम में हमें मत उलझा माया'-बहुरा को रोककर पोपली काकी ने रूष्ट स्वर में कहा। 'मैं स्थिति को उलझा नहीं रही' , पूर्ववत् शांत माया ने कहा-'अपितु सुलझा रही हूँ काकी! क्यों नहीं समझना चाहतीं आप...हमारा प्रिय जमाई राजा और भी समर्थ होकर हमारे पास वापस आ रहा है। ऐसे में हमें उसका स्वागत करना चाहिए अथवा तिरस्कार?' 'वाह री माया!' हाथ चमका कर काकी ने कहा-'कितनी भोली है तू जो इतनी-सी बात भी नहीं समझती कि हमारा भगोड़ा जमाई, जो हमारी फूल-सी बच्ची को ब्याह के तत्काल पश्चात् यूँ ठुकरा कर भाग गया, उसीका पक्ष ले रही है तू? ... अरी माया, वह हमारे अंचल में नहीं, अपने अंचल में पधारेगा, जहाँ उपस्थित होने के पूर्व से ही उसने शक्ति संचित कर रखी है। भला बता तो हमें, भरोड़ा में बाहरी सेनाओं की उपस्थिति का क्या प्रयोजन है?' 'तुम्हारे प्रश्न का उत्तर समय के गर्भ में छिपा है काकी!' माया ने कहा-'इस घड़ी मैं तुम्हारी इस शंका का समाधान नहीं कर सकती, परन्तु मुझ पर विश्वास करो काकी...! मैं जानती हूँ अपने कुँवर को। वह हमारा शत्रु नहीं है।' 'दीदी, तुम मौन ही रहो तो अच्छा है'-बहुरा ने वार्तालाप में हस्तक्षेप करते हुए कहा-'शत्रु की भूमि पर सशस्त्रा सेनाओं ने अपनी सशक्त उपस्थिति प्रदर्शित कर दी है और इसके उपरांत हमारे मुख्य शत्रु ने भी अपनी जलयात्र प्रारंभ की है...तो क्या अर्थ है इसका? ...' कुछ क्षणों तक रुष्ट नेत्रों से माया को देखते रहने के उपरांत उसने पुनः कहा-'तुम चाहती हो हम सब अपने जमाई के लिए, जो वस्तुतः शत्रु है हमारा और हमारे अंचल का... उस के स्वागत-सत्कार की कल्पना में पलकें बिछाकर प्रतीक्षा करती रहें और वह कुटिलता से हमपर प्रतिघात कर दे...क्यों दीदी, यही चाहती हो न...?' 'तुमने अपने अंतर्मन में विष ही विष भर लिया है पुत्री!' माया ने कहा-' विवाहोत्सव की घड़ी भी जो कुछ अप्रिय घटित हुआ, वह सब भ्रम के माया-जाल के कारण ही हुआ पुत्री, अन्यथा सत्य मान, हमारी प्रिय पुत्री का सुहाग वैसा नहीं, जैसा तुमने और दुर्भाग्यवश काकी ने भी समझ लिया है। तो अब तू क्या चाहती है माया! 'क्रोधित काकी फूट पड़ी-' हम सब अपनी अबोध अमृता को अपने साथ लेकर भरोड़ा चले चलें? ...और अपने प्रिय कुँवर के समक्ष नतमस्तक होकर प्रार्थना करें कि वे हमें क्षमा प्रदान कर हमारी अमृता को अपनी दासी स्वीकार कर लें...! क्यों माया...यही परामर्श है न तुम्हारा! 'क्रोधयुक्त व्यंग्य-वाण के पश्चात् काकी की आकृति और भी कठोर हो गयी।' नहीं दीदी...नहीं...'बहुरा ने निर्णयात्मक स्वर में कहा-' तुम्हारी सहृदयता हमारा समूल नाश कर देगी...मुझे उस दुष्ट को दण्डित करना ही होगा। अपने शत्रु को मार्ग में ही दण्डित कर देगी दीदी! ... जिस गंगा में वह उपस्थित है, उसी की धारा में तुम्हारी बहुरा, अपने शत्रु को जल-समाधि प्रदान कर देगी...जल-समाधि...हा...हा...हा'! वीरा का विकट अट्टहास गूंजा। बहुरा की कटुता के समक्ष माया की ममता हार गयी और उसने संकल्प पूर्वक मंत्रोच्चार करते हुए, अगिनबाण का संधान कर दिया। पोपली काकी की आकृति पर संतुष्टि के भाव उभरे तथा प्रसन्न बहुरा के अधरों पर विजयी मुस्कान छा गयी। विवश माया मौन थी और इसी घड़ी कक्ष में पदार्पण हुआ उस विकटा का, जिसने तीनों को चौंका दिया।' कौन हो तुम? 'बहुरा ने तीव्र स्वर में पूछा। आगंतुका मौन हो मुस्कुरायी।' मैंने तुम्हारा परिचय पूछा था! 'बहुरा ने पुनः कटु स्वर में कहा-' मौन खड़ी यों मुस्कुरा क्यों रही हो...! परिचय दो हमें...कहाँ से आयी हो और कौन हो तुम? आश्चर्य है मुझे'! मुस्कुराते हुए ही कहा उसने-' तुम्हारे द्वार पर अतिथि की ऐसी ही अभ्यर्थना होती है? '...क्षणोपरांत उसने पुनः कहा-' कदाचित् तुम्हीं बहुरा हो...क्यों? अपरिचितों की अभ्यर्थना नहीं की जाती कापालिके', बहुरा ने कहा-' और तुमने मुझे ठीक ही पहचाना, मैं ही बहुरा हूँ। अभ्यर्थी को तुमने जान लिया और अब मुझे अपना परिचय दो...कौन हो तुम? उत्कल में सभी मुझे उग्रचण्डा के नाम से जानते हैं बहुरा! और मैं। 'मध्य में ही तड़प कर हस्तक्षेप किया बहुरा ने-' बस...उग्रचण्डा...बस, मौन हो जा अब तू! उत्कल की है इतना ही ज्ञात होना पर्याप्त है, शेष मैं समझ गयी। क्या समझ गयी बहुरा? ...'पुनः मुस्कराकर कहा उग्रचण्डा ने-' मैंने तो अभी मात्र अपने निवास-स्थल की ही चर्चा की है और तुमने मेरे आगमन का उद्देश्य भी समझ लिया? उत्कल हमारा शत्रु-राष्ट्र है, उग्रचण्डा! '-बहुरा ने तीव्र स्वर में कहा।' शत्रु-राष्ट्र! 'चकित होने का अभिनय किया उग्रचण्डा ने-' वह क्यों वीरा? हमारे राज्य ने भला तुम्हारा क्या अहित किया है? मेरे परम शत्रु का मित्र है तुम्हारा राष्ट्र! '-बहुरा ने रोषपूर्ण स्वर में कहा' शंखाग्राम के साथ-साथ तुम्हारे उत्कल नरेश भी हमारे जामाता के हितैषी बन गये हैं तथा मेरे पराभव की कामना से सेना सहित राज भरोड़ा में...', कहते-कहते अनायास मौन हो गयी बहुरा। क्षणिक अंतराल के बाद पुनः कहने लगी-' परन्तु यह सब तुम्हें क्यों बता रही हूँ मैं ...तू कह, हमारे अंचल में आने का प्रयोजन क्या है तुम्हारा? सर्वप्रथम तो यह जान ले बहुरा'-उग्रचण्डा ने कहा-' तूने सत्य कहा, राजभरोड़ा में शंखाग्राम की सेना के साथ ही उत्कल के रणबाँकुरे वीर भी उपस्थित हैं। उत्कल-नरेश भी अपने समस्त परिजनों एवं सेनापति सहित पधार चुके हैं। उत्कल सेनापति के साथ एक तांत्रिक चंद्रा भी भरोड़ा में उपस्थित है बहुरा...परन्तु इनमें से कोई भी तुम्हारा शत्रु नहीं। 'हँस पड़ी बहुरा। उसका भयंकर अट्टहास कक्ष में गूंजने लगा। हँसी रुकी तो उसने कहा-' मेरे शत्रु अंचल में सेना का जमावड़ा यों ही हो रहा है, क्यों...? मुझे बहलाने आयी है तू ...अथवा मुण्डमाल के अपने इस शृंगार से मुझे भयभीत करना चाहती है? 'पोपली काकी एवं माया अब तक मौन धारण किये शांत खड़ी थी।' मेरा प्रयोजन न तुम्हें बहलाना है और न भयभीत करना। तो और क्या प्रयोजन है तुम्हारा? तुमसे मित्रता! 'मुस्कराती उग्रचण्डा ने कहा।' ठहरो पुत्री! 'प्रथम बार पोपली काकी ने अपना मौन तोड़ते हुए कहा-' उग्रचण्डा से मुझे बात करने दो! 'बहुरा को रोककर काकी ने उग्रचण्डा से कहा-' तू भी मेरी पुत्री के समान ही है उग्रचण्डा! बहुरा सहित समस्त अंचल मुझे पोपली काकी सम्बोधित करता है और यह है माया, बहुरा की नृत्य-प्रशिक्षिका तथा भैरव-चक्रीय नृत्य की विशेषज्ञा। 'उग्रचण्डा ने काकी सहित माया का अभिवादन किया तो काकी ने पुनः कहा-' हम सभी अपने अंचल में तुम्हारा स्वागत करती हैं उग्रचण्डा! मैं नहीं जानती तुम्हारे आगमन का प्रयोजन क्या है? मित्र-भाव से आयी हो तो तुम्हारा पुनः स्वागत है परन्तु शत्रुतावश आयी हो तो तत्काल इस स्थल से पलायन ही तुम्हारे लिए उचित है। ... वैसे यह स्पष्ट जान लो कि भरोड़ा का राजकुँवर हमारा शत्रु है और शत्रु का मित्र तथा सहायक भी हमारा शत्रु ही है उग्रचण्डा और अब मैं आशा करती हूँ कि शब्दाडम्बर से मुक्त होकर अपने आगमन का स्पष्ट उद्देश्य हमें बताओ! अच्छा लगा मुझे...अच्छा लगा काकी'! उग्रचण्डा ने सहज स्वर में कहा-' आपकी स्पष्टवादिता ने मुझे प्रभावित किया। मैंने आपलोगों की भाँति साधना तो नहीं की है...परन्तु मैंने ब्रह्मपिशाचों को सिद्ध किया है काकी। उत्कल राष्ट्र में मैं जग से निर्लिप्त रहती आयी हूँ। मैंने पूर्व में कभी भी उस राष्ट्र के राजपरिवार में रुचि नहीं ली, परन्तु विगत दिनों घटित घटनाक्रमों से निर्लिप्त भी नहीं रह पायी मैं। आप कदाचित् महान् कापालिक टंका को अवश्य ही जानती होंगी काकी। जानती हूँ...तुम कहती जाओ', शांत स्वर में कहकर काकी मौन हो गयीं।' आपके कुँवरश्री के साथ कापालिक टंका के दर्शनों का प्रथम अवसर मुझे वहीं, अपने उत्कल राज्य में ही प्राप्त हुआ काकी। तो फिर? 'काकी ने पूर्ववत् कहा।' जहाँ तक मेरे स्वयं का प्रश्न है'-उग्रचण्डा ने कहा-' मैं तो टंका के समक्ष अत्यंत तुच्छ साधिका हूँ, परन्तु आपके कुँवरश्री के प्रति जब मैंने टंका का दासत्व भाव देखा तो सत्य मानिये काकी, मैं विस्मित हो गयी। यह कुँवर हैं कौन और इनका विग्रह क्या है? ...और तभी से मैंने अपने ब्रह्मपिशाचों के माध्यम से कुँवरश्री को कुछ-कुछ जाना है। मैं नहीं जानती ऐसे अद्भुत् कुँवरश्री के प्रति आपकी शत्रुता क्यों है...और मेरे आगमन का वास्तव में प्रयोजन भी यही है काकी। 'काकी के अधरों पर विषाक्त मुस्कान उभर आयी। रहस्यमयी मुस्कान के साथ काकी ने कहा-' हमारा शत्रु तुम्हारा आराध्य है उग्रचण्डा...! इतनी श्रद्धा भरी है उसके लिए, फिर तो तुम्हारे लिए अत्यंत दुख भरा समाचार है हमारे पास। 'क्षण भर मौन रह कर काकी ने पुनः कहा-' तुम्हारे आगमन के क्षण भर पूर्व ही मेरी पुत्री ने कुँवर पर, अमोघ अग्निबान का संधान सम्पन्न किया है उग्रचण्डा! कुँवर की नौकाएँ गंगा की धारा में हैं और इसी शीतल जल-धारा में तप्त होकर निश्चित दग्ध हो जाएँगी वह...'कहते ही हँसकर उसने पुनः कहा-' भस्म हो जाएगा तुम्हारा कुँवर और साथ ही भस्म हो जाएंगे उसके साथ उपस्थित, उसके समस्त संगी-साथी! 'कह कर काकी ने पुनः अट्टहास प्रारंभ कर दिया। काकी के अट्टहास के मध्य ही बहुरा ने माया से कहा,' हमारे अतिथि को अपने आतिथ्य में ले जाओ दीदी! 'और कह कर मुदित बहुरा हँस पड़ी। माया ने मुस्करा कर उग्रचण्डा को देखा। आँखों ही आँखों में भावों का आदान-प्रदान हुआ और बहुरा के कक्ष से दोनों बाहर निकल गयीं।' तुम चिन्तित न हो उग्रचण्डा! 'माया ने सहजतापूर्वक कहा,' इसने पूर्व में भी हमारे प्रिय कुँवर पर अपने अमोध मारण मंत्र का संधान किया था, परन्तु पूर्णरूपेण असफल रही थी वह। मैं तनिक भी चिन्तित नहीं हूँ! 'उग्रचण्डा ने कहा-' सर्वशक्तिमान टंका का आराध्य है आपका कुँवर। उनपर तामसी तंत्रों का कोई संधान, कदापि प्रभावी नहीं हो सकता...यह तो मैं सम्यक् प्रकार जानती हूँ। 'कह कर विचारमग्न उग्रचण्डा कुछ क्षण मौन हो गयी तथा पुनः उसने कहा,' परन्तु फिर भी मैं विस्मित हूँ। अपने जिस जामाता पर बहुरा को गर्व करना था, उसी को अपना शत्रु मान बैठी है यह। यही तो दुर्भाग्य है मेरी पुत्री का'माया ने कहा-' भ्रमित हो गयी है वह ...परन्तु उग्रचण्डा! यह तो कहो... हमारे प्रिय कुँवर के साथ टंका भी उसकी नौका में उपस्थित है क्या? तो तुम भी परिचित हो उससे? देखा कभी नहीं', माया ने कहा,' परन्तु मुझे ज्ञात है। अत्यंत दुर्दान्त है वह। इस युग में भी नरबलि देने वाला वह एकमात्र तांत्रिक है। ऐसे तांत्रिक से मेरे कुँवर का भला क्या नाता हो सकता है? तुमने जिस घड़ी से कहा है, मैं तभी से इसी पर विचार कर रही हूँ। वह तो मैं नहीं कह सकती परन्तु, मैंने स्वयं देखा है। टंका ने कुँवरश्री को अपना स्वामी मान लिया है। आश्चर्य है मुझे! आश्चर्य की आवश्यकता नहीं'...उग्रचण्डा ने कहा,' इस घड़ी मैं कुँवरश्री की मंगल सूचना प्राप्त करना चाहती हूँ माया...! मुझे किसी एकांत कक्ष में ले चलो। ' बिछाये आतुरता में प्रतीक्षारत था और इन समस्त हलचलों से परे कापालिक टंका ने जलधारा की दूसरी ओर स्थित हिंसक वन्य-जीवों से भरे धनघोर वन के मध्य अपना आसन जमा लिया था। टंका की उपस्थिति से अनभिज्ञ समस्त जन शिविरों में मगन थे। उत्कल नरेश के शिविर में भरोड़ा के राजाजी के साथ राजरत्न मंगलगुरु विराजे थे। आमोद-प्रमोद के मध्य वार्तालाप का केन्द्र था मंगलगुरु के प्रशिक्षित काग। उत्कल नरेश के समक्ष ही मंगल के काग निरंतर संदेश पहुँचा रहे थे। 'आश्चर्य है मुझे!' उत्कल नरेश ने मंगलगुरु से कहा, 'आपकी इस कला ने मुझे विस्मित कर दिया है, राजरत्न! यह कैसे संभव है कि काग जैसा पक्षी, मनुष्य की भाषा का इतना स्पष्ट उच्चारण करे?' उत्कल नरेश की बात पर राजरत्न को हँसी आ गयी। हँसते हुए ही उन्होंने कहा, 'तोतों को तो आपने अवश्य सुना होगा राजन्...कई तोते हमारी भाषा का स्पष्ट एवं शुद्ध उच्चारण करते हैं।' 'हाँ करते हैं' , उत्कल नरेश ने स्वीकार किया, 'हमारे राजमहल में ही वे हमें नित्य' शुभ प्रभात'कहते हैं।' 'तो हमारे कागों पर विस्मय क्यों है महाराज' ! राजरत्न ने कहा, 'थोड़े प्रशिक्षण की आवश्यकता है बस...और प्रमाण तो आपके समक्ष ही है।' वार्तालाप आगे बढ़ता कि तभी कांव-कांव करता एक काग आकर मंगल के स्कंध पर बैठ गया। मंगल ने मुस्कराते हुये उसे अपने हाथ पर ले कर कहा, 'क्या समाचार है कहो?' 'कांव-कांव...! समाचार अशुभ है!' काग ने अपनी आँखें मटमटाते हुए कहा, 'कुँवर की नौकायें तांत्रिक अग्नि की ज्वाला के मध्य फँसी हैं... कांव...कांव...कांव...! उनकी सहायता करें मंगलगुरु, सहायता करें!' अपनी बात कहकर वह पंख फड़फड़ाता उड़ गया। शिविर में कुछ घड़ी पूर्व तक उपस्थित हास-परिहास का वातावरण अचानक शोकमय हो उठा। 'अब क्या होगा राजरत्न?' आतुर स्वर में भरोड़ा के राजा ने कहा। 'शांत रहें राजाजी!' सहज स्वर में कहा राजरत्न ने, 'बहुरा की तामसी शक्तियाँ हमारे प्रिय कुँवर पर निष्फल हो जायेंगी। लाख जतन करले वह तामसी, परन्तु हमारे कुँवर का बाल भी बाँका न कर पायेगी वह। आप सब निश्चिंत रहें। मुझे विश्वास है, शीघ्र ही शुभ समाचार आ जाएगा।' इसी घड़ी अति प्रसन्न वज्रबाहु एवं चंद्रचूड़ के साथ कापालिक टंका ने शिविर में प्रवेश कर सबको विस्मित कर दिया। शंखाग्राम से कुँवर के प्रस्थान का यह द्वितीय दिवस था। संध्या होने को थी। सूर्य अस्ताचल की ओर अग्रसर था। लहरों पर सूर्य की स्वर्णिम किरणें बिखरी थीं तथा नौकाओं के ऊपर, उड़ते पंछी कलरव कर रहे थे। राजमाता के आमंत्रण पर कामायोगिनी, शंखाग्राम की राजकीय नौका पर विराजमान थीं, तथा रक्षक नौकाएँ त्रिकोण की व्यूह-रचना में दोनों नौकाओं को घेरे, गंगा की धारा में निर्भय चली जा रही थीं। तभी सबकी दृष्टि, सुदूर धारा पर प्रज्वलित, अग्नि की लपलपाती ज्वाला पर पड़ी। धारा के मध्य से दोनों किनारों तक फैली ज्वाला के कारण रक्षक नौकाओं ने तत्काल लंगर डालने की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी। 'हमारे स्वागत का यह प्रथम चरण है देवी!' भुवनमोहिनी ने स्मित नेत्रों से कामायोगिनी को देखते हुए कहा। 'उत्तर में कामायोगिनी मुस्कुरायीं जबकि, राजमाता राजराजेश्वरी उद्विग्न हो गयीं।' यह कैसी विपत्ति है? 'राजमाता ने स्फुट स्वर में स्वतः कहा।' यह विपत्ति नहीं'! भुवनमोहिनी ने हँसते हुए कहा,' हमारा स्वागत है माताश्री...! 'कहकर उन्होंने कुँवर पर दृष्टि डालकर उससे कहा,' क्यों प्रिय...! माता के इस आत्मीय स्वागत से तुम प्रसन्न तो हो न? तुम लोग परिहास कर रही हो'! व्यग्र राजमाता ने हस्तक्षेप किया।' सत्य कहा था टंका ने...! इस घड़ी उसकी उपस्थिति आवश्यक थी। इस संकट से वही हमें मुक्त करा सकता था पुत्री, परन्तु तुमने उसकी बात स्वीकार कर व्यर्थ ही उसे विदा कर दिया। यों व्यथित न हों माते! 'शांत स्वर में कुँवर ने कहा,' इस घड़ी हम पर कोई विपत्ति नहीं है। विपत्ति नहीं तो क्या है यह? 'राजमाता ने कहा,' हमारी समस्त रक्षक नौकायें रुक चुकी हैं। इस भीषण अग्नि-शिखाओं से हम भला कैसे निकलेंगे पुत्र? 'इसी घड़ी नाविक प्रमुख हृदयनारायण ने आकर कहा,' हमारे लिए क्या आज्ञा है राजमाता? हमारी रक्षक नौकाएँ लंगर डाल कर रुक चुकी हैं...आदेश हो तो हम। 'परन्तु कामायोगिनी ने मध्य में ही हस्तेक्षप करते हुए कहा,' रक्षक नौकायें रुकी रहेंगी। इस नौका को आगे करके उन्हें निर्देश दो...समस्त नौकाएँ हमारे पीछे-पीछे रहेंगी। चिन्ता की कोई आवश्यकता नहीं...पूर्ववत् चलते रहो। 'उलझनपूर्ण नेत्रों से हृदयनारायण ने राजमाता को देखा। कदाचित् वह उनका अनुमोदन प्राप्त करना चाहता था।' देवी के निर्देश का पालन करो हृदय! 'उसके मनोभाव लक्ष्य कर भुवनमोहिनी ने कहा-' माताश्री का भी यही आदेश है! 'राजमाता राजराजेश्वरी हतप्रभ थीं, कुँवर शांत एवं दोनों देवियों की आकृति पर मुस्कान फैली थी।' जो आज्ञा! 'कह कर हृदयनारायण तत्काल चला गया। निर्देशानुसार राजमाता की नौका आगे बढ़ गयी। शेष नौकाएँ कतारबद्ध होकर कामायोगिनी की नौका के पीछे चलती रहीं।' मुझे आदेश दें देवी! 'कामायोगिनी ने भुवनमोहिनी से कहा,' तो मैं इस अग्नि को पुनः उसी के पास प्रेषित कर दूं, जिसने इसका संधान किया है। यह उचित नहीं है देवी! 'भुवनमोहिनी ने प्रतिवाद किया,' वे हमारी सम्बंधी हैं। उनके प्रति हमारे अंतस् में कोई द्वेष नहीं। परन्तु फिर भी हमें प्रतिकार तो करना ही होगा! 'दृढ़ स्वर में कामायोगिनी ने कहा।' क्या कहते हो प्रिय? 'भुवनमोहिनी ने कुँवर से कहा,' तुम्हारी क्या इच्छा है? निर्विकार कुँवर ने कहा, 'यह सत्य है कि हम किसी के शत्रु नहीं परन्तु परिस्थितिवश मेरी माता इस घड़ी भ्रमित हैं। हमारी यात्र में उनके द्वारा उत्पन्न यह प्रथम एवं अंतिम प्रतिरोध नहीं। अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर वे प्राण-पण से अनवरत अवरोध उत्पन्न करती रहेंगी।' 'तो इस स्थिति में हमें प्रतिकार तो करते ही रहना होगा न प्रिय!' मंद हासयुक्त स्वर में भुवनमोहिनी ने कहा। 'कोई आवश्यकता नहीं'। पूर्ववत् शांत कुँवर ने कहा। 'तो हम स्वयं को दग्ध हो जाने दें' , कामायोगिनी ने कहा, 'क्या अर्थ है तुम्हारा?' 'अग्नि हमारी शत्रु नहीं है देवी!' 'परन्तु दग्ध करना तो उसकी प्रकृति है वत्स!' कामायोगिनी ने पुनः प्रतिवाद किया। 'प्रकृति की ही तो लीला आज देखनी है...!' अधूरी पंक्ति कह कर मौन हो गया कुँवर! कामायोगिनी उलझ गयीं, परन्तु भुवनमोहिनी हँस पड़ी। हँसते हुए भुवनमोहनी ने कामायोगिनी से कहा, 'व्यर्थ विवाद में उलझ गयीं हम, अब तो और कुछ न कहूँगी...और प्रकृति की नहीं, अपने कुँवर की लीला देखूंगी मैं।' कामायोगिनी तो मौन हो गयीं परन्तु राजमाता की व्यग्रता और भी तीव्र हो गयी। अब तक अग्नि की लपटें और भी पास आ गयी थीं। राजमाता के नेत्रों में आतंक की छाया उभरी। वे कुछ कहना ही चाह रही थी कि कुँवर ने अपनी आँखों से ही उन्हें आश्वस्त कर दिया और शंखाग्राम की नौका ज्वाला में प्रविष्ट हो गयीं। आश्चर्य! अग्नि की लपटों में पूर्णतया प्रविष्ट हो चुकी नौका सहजता से आगे बढ़ रही थी। कुछ भी तो न दग्ध हुआ और न तप्त और कुँवर की नौका ने सुरक्षित अग्नि-ज्वाला पार कर ली। कामायोगिनी की नौका भी सुरक्षित रही तथा अन्य रक्षक नौकाएँ भी क्रमशः पार होती चली गयीं। शंखाग्राम की राजकीय नौका में द्वितीय रात्रि सुखपूर्वक व्यतीत हो गयी। बहुरा ने कदाचित् अपने प्रथम अगिनबाण की सफलता को ही अचूक मानकर पुनः प्रहार नहीं किया था। नित्यक्रिया सम्पन्न कर राजमाता, नौका के ऊपर खड़ी होकर उदित होते सूर्य को निहार रही थीं तभी क्रमशः कामायोगिनी, भुवनमोहिनी तथा अंत में कुँवर भी आ पहुँचे। एक साथ सभी ने यहीं प्रातःकालीन जलपान ग्रहण किया। सूर्योदय हो चुका था। कुँवर के आदेश से इसी घड़ी प्रधान नाविक हृदयनारायण आ उपस्थित हुआ। 'हृदय!' कुँवर ने उसे सम्बोधित कर कहा, 'गंगा माता की लहरों पर अब हमारी यात्र समाप्त होने वाली है। दो ही घड़ी में पूर्व की ओर जो दूसरा मार्ग मिलेगा, वहीं से हमारा मार्ग परिवर्तित होगा। उस स्थल पर समस्त नौकाओं को रुक जाना है।' 'जो आज्ञा कुँवर जी!' विनीत स्वर में उसने कहा, 'मैं तत्काल सबको सूचित कर देता हूँ।' सबों का अभिवादन करके हृदयनारायण चला गया तो भुवनमोहिनी ने कुँवर से पूछा, 'तुम्हें तो मार्ग परिवर्तन का आदेश भर देना था...उस स्थल पर रुकने का क्या प्रयोजन है प्रिय?' भुवनमोहिनी के प्रश्न का उत्तर न देकर स्मित-भाव से कुँवर ने आसन त्यागा और मंद गति से चलता हुआ नौका के किनारे जा कर खड़ा हो गया। कुँवर के मौन से उत्सुक भुवनमोहिनी ने कुँवर के समीप जाकर कहा, 'मौन क्यों हो गए प्रिय! इच्छा क्या है तुम्हारी?' 'आपसे तो कुछ भी छिपा नहीं है देवि' , कुँवर ने कहा, 'जिस दिशा में आगे यात्र करनी है, पूर्व में माता कमला की निर्मल धारा वहीं प्रवाहित हुआ करती थी।' 'क्या अर्थ है तुम्हारा!' उत्सुक भुवनमोहनी ने कहा, 'अब क्या कमला मैया की धारा वहाँ प्रवाहित नहीं होती?' 'हाँ देवि! कमला मैया ने अपना मार्ग परिवर्तित कर लिया है।' आश्चर्य है, फिर हमारी सेना किस मार्ग से पहुँची? ' कुँवर ने वज्रबाहु के पहुँचने का मार्ग तथा भरोड़ा में उसके द्वारा सम्पन्न कार्यकलापों से देवी को विस्तार में अवगत कराया तो मुग्ध देवी से उनके अंतस् ने कहा-योग की जिस अवस्था पर उसका शिष्य अवस्थित हो चुका है, वहाँ स्थित योगी तो स्वतः ही सर्वज्ञ हो जाता है। परन्तु उसका प्रिय शिष्य, सूखी नदी के समीप रुकना क्यों चाहता है? इसका कोई उत्तर उनके पास नहीं था। दोनों मौन खड़े गंगा की कलकल करती धारा को निहारते रहे। कापालिक टंका की आशंका सत्य सिद्ध हो चुकी थी। परन्तु उसका तंत्र-प्रहार उसके स्वामी पर होगा, ऐसा तो उसने सोचा ही नहीं था। यद्यपि अपने स्वामी की सुरक्षा के प्रति उसे तनिक भी शंका नहीं थी, तथापि बहुरा के दुःसाहस ने उसे चकित कर दिया था। कदाचित् उसकी शक्ति को उसने कम करके आँका था। इसके पूर्व की क्रुद्ध बहुरा का द्वितीय प्रहार भरोड़ा पर हो, उसे तत्काल ही अंचल को सुरक्षित कर देना होगा। परन्तु तांत्रिक अनुष्ठान प्रारंभ करते ही, वह चौंका। आश्चर्यचकित होकर उसने अपने मानस-पटल पर देखा, भरोड़ा अंचल की प्रत्येक दिशा, उप-दिशा, आकाश एवं भूमि की रक्षा में, एक अज्ञात किन्तु अपूर्व शक्ति उपस्थित है। मुग्ध टंका अपने स्वामी के सौरभ पर नतमस्तक हो गया। बंद पलकों को खोलकर उसने उद्घोषणा की, सम्पूर्ण अंचल अभेद्य कवच मेंसुरक्षित है। उसे अब कोई चिन्ता नहीं। उसके स्वामी आज ही पधारेंगे। स्वामी के स्वागत में मुदित टंका के पग तीव्र गति से जलधारा की ओर बढ़ गए. राज भरोड़ा के वातावरण में उत्साह का अतिरेक छाया था। कुँवरश्री के स्वागत में वज्रबाहु ने पांच कोस लम्बे वन के मध्य निर्मित नवीन मार्ग पर शीतल जल का छिड़काव कराया था। सम्पूर्ण मार्ग में अनेक तोरण द्वार बनवाए गए थे। भरोड़ा के नर-नारी और आबाल-वृद्ध, दो घड़ी पूर्व से ही वन-मार्ग के दोनों किनारों पर स्वागत में पंक्तिबद्ध होने लगे थे। स्वयं भरोड़ा के राजा, पुत्र के स्वागत में अपनी रानी एवं अन्य परिजनों सहित जल धारा की ओर प्रस्थान कर चुके थे। उत्कल-नरेश ने भी अपने पुत्र चंद्रचूड़, सेनापति, अमात्य एवं सशस्त्रा योद्धाओं सहित अपनी भव्य शोभा-यात्र प्रारंभ कर दी थी। जल-धारा के किनारे की विस्तृत भूमि को समतल कर, वज्रबाहु ने भव्य स्वागत-द्वार का निर्माण कराया था तथा स्वागत-द्वार के ऊपर शंखाग्राम, उत्कल एवं कामरूप की भव्य ध्वजायें लहरा रही थीं। भरोड़ा के राजा विश्वम्भरमल्ल जहाँ प्रफुल्लता में छलक रहे थे वहीं रानी गजमोती पूर्वरूपेण शांत और मौन थीं। 'पुत्र के आगमन पर आपने यूँ मौन क्यों धारण कर लिया है?' राजा ने विनोदी स्वर में कहा, 'मार्ग में प्रतीक्षारत अपने अंचल-वासियों को देखिए...! कैसे आनंद-मग्न होकर, सभी आपके पुत्र के स्वागत में खड़े हैं और आप हैं कि इस उत्सव की घड़ी में भी।' वाक्य सम्पूर्ण न कर पाये राजा जी, क्योंकि रानी की आँखें छलकने लग गयी थीं। 'अरे! ... यह क्या!' विस्मय से कहा राजा ने, 'आपने तो रुदन भी प्रारंभ कर दिया...बात क्या है...मुझे नहीं बतायेंगी?' 'इस बार अपने आँचल मेंबांध लूंगी उसे!' रूंधे गले से रानी ने कहा, 'कहीं नहीं जाने दूंगी अब। आप पिता हैं...आप क्या जानें पुत्र जब आँखों से दूर होता है तो माँ पर क्या बीतती है।' कुछ न कह सके राजा जी. अपने पीताम्बर से उन्होंने रानी के अश्रु पोंछने चाहे तो उनका हाथ रोक कर रानी ने कहा, 'चलिए, छोड़िए...अब आप अश्रु पोछना चाहते हैं मेरा...! उस घड़ी क्या किया था आपने? जब मेरा पुत्र हमें छोड़ कर जा रहा था और रो-रो कर मैं निढाल हो गयी थी!' क्या कहते राजा जी? मौन आँखों से रानी को निहारते रह गए. 'बधाई स्वीकार करें राजरत्न!' वैद्यराज रसराज ने कहा, 'आपका प्रिय शिष्य विभूति-सम्पन्न होकर आज वापस आ रहा है।' हँस पड़े मंगलगुरु। 'आपको भी बधाई है वैद्यराज' , हँसते हुए ही मंगलगुरु ने कहा, 'वह क्या आपका शिष्य नहीं?' 'मुझे क्यों छोड़ दिया राजरत्न!' सेनापति भीममल्ल ने प्रतिवाद किया, 'शस्त्रा-संचालन की विद्या में वह मेरा भी शिष्य है।' 'आपको भी बधाई!' वैद्यराज ने मुदित स्वर में कहा फिर तीनों हँस पड़े। 'पिताश्री!' चंद्रचूड़ ने अनुरोध किया, 'इस घड़ी कुँवरश्री गंगा की मुख्य धारा में ही हांेगे। मेरी इच्छा है कि मैं अपनी नौका से आगे जाकर, वहीं उनकी अगवानी करूँ।' अति उत्तम! 'उत्कल नरेश ने उत्साह में कहा,' हम सभी तुम्हारे साथ चलेंगे पुत्र। हमारे पहुँचते ही इसकी व्यवस्था करो। ' तत्काल ही अश्वारोही सेनापति को, तद्नुसार निर्देश प्राप्त हो गये। उसके रण-बाँकुरों के साथ-साथ कापालिक चंद्रा भी मंथर-गति से चला जा रहा था। भरोड़ा आगमन के पश्चात् घटनायें इतनी तीव्र गति से घटित हो रही थीं कि सेनापति भ्रमित हो कर रह गया था। टंका के कारण, बहुरा के कोप से सभी सुरक्षित हो चुके थे और जहाँ तक स्वयं कुँवर का प्रश्न था, उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता ही नहीं थी। कैसा अभागा है वह, उसने सोचा, सौभाग्य का अवसर पाकर भी उसका भाग्य चूक गया। यह तो अच्छा हुआ कि उसके विचार, उसके अंदर ही दबे रह गए, अन्यथा उसके प्राण ही संकट में पड़ जाते। अब यह चंद्रा उसे बोझ लगने लगा था। व्यर्थ ही उसने इस दो कौड़ी के तांत्रिक के लिए इतने पापड़ बेले और इतना अनुनय-विनय किया। अश्व पर आसीन सेनापति के मानस में, चंद्रा का एक-एक शब्द हथौड़े की तरह चोट करने लगा। उसे स्वयं पर घृणा होने लगी। उसने चंद्रा जैसे मदारी का तिरस्कार सहन कर लिया था। उसे तो उसी पल इस दुष्ट का वध कर देना था। धिक्कार है मुझे...! धिक्कार है! दूसरे अश्व पर बैठा चंद्रा और ही विचारों में मग्न था। उसने तो निश्चय कर लिया था कि बहुरा की क्रोधाग्नि में वह घृत का कार्य करेगा और इस दुष्ट सेनापति को सहज ही अपने कुकृत्यों का दण्ड प्राप्त हो जायेगा। परन्तु टंका ने समस्त परिस्थिति ही बदल कर रख दी अन्यथा कुँवर से पराजय की स्थिति में बहुरा का क्रोध अवश्य ही इस अंचल को जला देता। ऐसे ही विचारों में उलझा, चंद्रा चला जा रहा था कि वन्य-प्रदेश का मार्ग समाप्त हो गया। जलधारा के किनारे पहुँचते ही उसके विचारों का प्रवाह भी थम गया। उत्कल नरेश की आज्ञा सुनते ही वज्रबाहु प्रसन्न हो गया। उसकी भी यही इच्छा थी कि वह स्वयं कुँवरश्री का स्वागत गंगा की मुख्य धारा में उपस्थित होकर करे। तत्काल ही तद्नुसार व्यवस्था होने लगी। भरोड़ा के राजा जी को भी उत्कल नरेश का विचार भा गया और उन्होंने भी साथ चलने की इच्छा व्यक्त कर दी और नदी किनारे की इन हलचलों के मध्य, टंका का शरीर कब जलधारा में प्रविष्ट हो गया, किसी ने न जाना। निर्देशानुसार हृदयनारायण ने जिस स्थल पर लंगर डाला वहाँ दूसरी दिशा से आती एक अन्य जलाधारा, गंगा एवं कौशिकी का स्पर्श कर पूर्व की ओर प्रवाहित हो रही थी। इसके जल का वर्ण गंगा की धारा से अलग था। पास ही इसी दिशा की ओर, एक अन्य जल-विहीन सूखी नदी दिखाई दे रही थी। कुँवर ने अपने दोनों कर जोड़ कर इस सूखी नदी को प्रणाम किया। उसकी दोनों पलकें झुक कर बंद हो गयीं। 'हे माता!' उसने निःस्वर प्रार्थना की, 'हमारे अंचल की तुम्हीं प्राणधारा हो! तुम्हारा ही आश्रय लेकर हमारे कृषक अपने खेतों में अन्न उगाते हैं और तुम्हारे ही जल से हमारा जीवन-यापन होता है। हमारे व्यापार और वाणिज्य का आधार भी तुम्हीं हो माता! तुम्हारी ही गोद में असंख्य जलचरों का जन्म एवं पोषण भी होता है। जब से तुम विमुख हुई हो, तब से अंचल की कोख ही उजड़ गयी है। यद्यपि अपने पुरूषार्थ से हमारे कटिबद्ध परिजनों ने, तुम्हारे परिवर्तित मार्ग तक, अपनी पहुँच बना ली है तथापि तुम्हारी अनुपस्थिति ने हमारे अंचल की आकृति मलिन कर दी है माते! हे माता! मैं अंग का पुत्र नटुआ दयाल, अपने दोनों कर जोड़ कर प्रार्थना करता हूँ कि यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो तथा, यदि मैंने अपने जीवन में कुछ भी पुण्य किया हो, तो हे माता! मेरे इस अंचल तथा अंग जनपद में ही नहीं, वरन इस धरा पर कहीं भी तुम, हम से विमुख मत होना माता...विमुख मत होना।' कुँवर के मानस पटल पर इसी क्षण नीलवर्णी प्रभा उदित हुई और कमला माता की स्पष्ट आकृति उभर आयी। उनके नेत्रों में स्नेहयुक्त वात्सल्य भरा था और अधरों पर स्मित मुस्कान। उनके नेत्रों ने हौले से अनुमोदन का भाव प्रकट किया तथा मुस्कुराती हुयी माता अदृश्य हो गयीं। विभोर कुँवर के नेत्र खुले। कामायोगिनी एवं भुवनमोहिनी के साथ-साथ कापालिक टंका उसके समक्ष उपस्थित था। 'मित्र तुम!' स्मित कुँवर ने कहा, 'कहो क्या समाचार लाए हो?' टंका से कह कर कुँवर ने पुनः भुवनमोहिनी से कहा, 'माता ने पुत्र की विनती स्वीकार कर ली है देवी! हृदय नारायण से कहें वह इसी सूखे मार्ग की ओर नौका बढ़ाए.' भुवनमोहिनी मुस्करायी परन्तु कापालिक टंका ने आश्चर्य से कहा, 'इस मार्ग में स्वामी?' 'हाँ मित्र!' कुँवर ने कहा, 'हमारी यात्र इसी मार्ग से होगी!' कुछ न कह सका टंका परन्तु उसके नेत्रों में उलझन का भाव और भी सघन हो गया। भुवनमोहिनी जा चुकी थीं। आश्चर्य से भरा टंका और उत्सुक कामायोगिनी वहीं खड़ी रहीं। कुँवर का आदेश सर्वोपरि था। लंगर उठाये जाने लगे। नौका की दिशा पूर्व की ओर मोड़ दी गयी और शंखाग्राम की राजकीय नौका सूखी नदी की दिशा में बढ़ चली। समस्त चौंसठ विद्याओं का सिद्ध, दुर्दांत कापालिक टंका, युगों-युगों की साधिका कामायोगिनी तथा शतदल-सह कमल नृत्य की ज्ञाता भुवनमोहिनी ने मुग्ध होकर देखा, नौका के आगे-आगे सूख चुकी नदी की भूमि पर, कमला का जल-प्रवाह उत्पन्न होता गया और नौका बढ़ती गयी। कुँवर के चरणों में नतजानु होकर कहा टंका ने, 'स्वामी! आप तो स्वयं सर्वज्ञ हैं। आपको तो भली-भाँति ज्ञात ही है कि आपके परिजन नौकाओं के द्वारा किस मार्ग से आने वाले हैं। गंगा की धारा में आपको न पाकर वे कितने उद्विग्न हो जायेंगे...मुझे आज्ञा दें स्वामी तो, मैं तत्काल उनकी नौका यात्र स्थगित करूँ!' कुँवर ने कुछ न कह कर अपने नेत्रों से मूक स्वीकृति दे दी। कापालिक टंका के आगमन के पूर्व ही चतुर्दिक् शोर मच गया। कमला मैया की धारा पुनः कलकल करती प्रवाहित होने लगी है। दावानल की भाँति प्रसारित इस समाचार ने सबके हर्ष को द्विगुणित कर दिया। सूखी नदी पर बंधी नौकाएँ, कमला की धारा पर, ऊपर उठ आयीं। पंचकोसी वनमार्ग के किनारे खड़े लोग, हर्षोन्माद में दौड़ पड़े! उत्कल नरेश एवं राजा विश्वम्भर मल्ल अपने लोगों के साथ अपनी-अपनी नौकाओं में जाने ही वाले थे कि इस समाचार ने सबको हतप्रभ कर दिया और इसी घड़ी कापालिक टंका ने उपस्थित होकर उन्हें कुँवर की सूचना दे दी। कुँवरश्री की नौकाएँ, अंचल की मूल धारा में ही आ रही हैं यह ज्ञात होते ही हर्षित होकर तत्काल सभी लौट पड़े। काला पहाड़ तथा झिलमा खबास! दोनों ने मिलकर अपनी विशाल नौका को सम्हाल लिया। पारिश्रमिक लिए बिना, उन्होंने अंचल के लोगों को पार पहुँचाना शुरु कर दिया। यह देखते ही अन्य नाविकों ने भी कमला की धारा को पार कर अपनी-अपनी नौकाएँ सम्हाल ली। गड़े हुए लंगर के खूंटों से नौकाओं को मुक्त किया और लोगों को उस पार पहुँचाना प्रारंभ कर दिया। कमला की धारा ने अंचल में पुनः उपस्थित होकर अभूतपूर्व उमंग और उत्साह उत्पन्न कर दिया था। तत्काल उस पार पहुँच जाने की इच्छा सबकी थी, परन्तु किसी ने अनुशासन भंग न किया। नौकाओं की संख्या प्रतिपल बढ़ती जा रही थी तथा किनारे खड़ी भीड़ धैर्यपूर्वक अपनी बारी की प्रतीक्षा में खड़ी थी। भरोड़ा का राजपरिवार तथा उत्कल नरेश के प्रस्थान के पश्चात् वज्रबाहु के आदेश पर, जलधारा में उपस्थित शंखाग्राम एवं उत्कल की नौकाओं ने अपने लंगर उठाने शुरू कर दिए. समस्त नौकाओं को गंगा की मुख्य धारा में पहुँच कर वापस कमला की नवीन धारा से पुनः भरोड़ा पहुँचना था। समस्त जनों के लौटने के उपरांत जो हलचल थमी थी, नौकाओं के कारण वह पुनः प्रारंभ हो गयी। बखरी सलोना के परिवेश से उग्रचण्डा अब अपरिचित नहीं रही। माया तो प्रथम परिचय में ही उससे घनिष्ठ हो गयी थी, काकी के अनुमोदन के उपरांत बहुरा के हृदय में भी उसके प्रति कटुता की भावना समाप्त हो गयी। भरोड़ा में भुवनमोहिनी एवं कामायोगिनी के साथ, कुँवर के आगमन की विस्तृत जानकारी से, बहुरा अवगत थी। अमृता आहलादित थी तथा माया प्रसन्न, परन्तु काकी के साथ-साथ बहुरा अति-विस्मित थी। 'प्रत्येक कार्य का कारण होता है काकी!' बहुरा ने आश्चर्य से कहा, 'परन्तु हमारे समक्ष जो कुछ घटित हो रहा है, इसके नेपथ्य में क्या है...और सबसे अधिक विस्मयकारी है, कमला की धारा का यूँ अनायास पुनरागमन। विस्मित हूँ मैं।वह कौन-सी अदृश्य शक्ति है जो निरंतर हमारे विपक्षी की सहायक बनी हुयी है?' परन्तु काकी के पास बहुरा केे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। तत्काल कुछ न कह सकी वह। काकी के मौन पर माया ने बहुरा से कहा, 'अपने कुँवर के प्रति तुम्हारे अंदर जो विद्वेष भरा है, उसके ही कारण तुम्हारी चेतना भ्रमित हो गयी है पुत्री! ...अन्यथा मेरी दृष्टि में अब असंगत कुछ नहीं। शंखाग्राम की सेना ने भरोड़ा में उपस्थित होकर हम सब को भ्रमित कर दिया था। मैं भी उलझ गयी थी पुत्री! मुझे भी इसका औचित्य समझ में नहीं आया था, परन्तु अब कोई भ्रांति शेष नहीं।' 'तुम हमेशा उल्टी बात कहती हो माया!' काकी ने तत्क्षण कहा, 'दो भिन्न देशांे की शक्तियों का क्या औचित्य था भरोड़ा में...? अपने कुतर्कों से हम सब को तुम पुनः भ्रमित कर रही हो माया, अन्यथा शत्रु के इस प्रकार शक्ति-प्रदर्शन का क्या कारण है, बताओ तो हमें?' 'घृष्टता न समझें तो मैं कुछ कहूँ काकी?' उग्रचण्डा ने तत्काल कहा। 'कहो, तुम भी कहो उग्रचण्डा' ! काकी ने कहा। 'जिसे आप शक्ति-प्रदर्शन कह रही हैं, वास्तव में वह शक्ति का प्रदर्शन नहीं है, क्योंकि तब स्वयं शंखाग्राम की राजमाता का पदार्पण नहीं होता। जब वे स्वयं आयी हैं तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि यह सैनिक अभियान है ही नहीं।' 'ठीक कह रही है उग्रचण्डा!' माया ने कहा, 'हमने व्यर्थ उन्हें अपना शत्रु मान लिया है। हमें शांत-चित्त होकर समस्त स्थिति पर पुर्नविचार करना होगा तथा धैर्य-धारण कर किंचित प्रतीक्षा करनी होगी। फिर यदि, दुर्भाग्यवश परिस्थिति विपरीत हुई, तो तद्नुसार ही हम स्थिति के अनुकूल कार्य करेंगे।' उग्रचण्डा तथा माया के तर्क से पूर्णतया सहमत नहीं होते हुए भी बहुरा ने माया से कहा, 'कदाचित् तुम ठीक कह रही हो दीदी। यूँ भी जिसे हमने अपना शत्रु स्वीकार किया है वह अब स्वयं उपस्थित हो ही गया है। परन्तु फिर भी मैं नहीं चाहती कि हम निष्क्रिय होकर शांत बैठ जायें तथा अनहोनी की प्रतीक्षा करती रहें। हमें पूर्ण सतर्क रह कर प्रतिरोध हेतु हर-पल सावधान रहना होगा।' अपनी बात कह कर बहुरा ने पुनः उग्रचण्डा से कहा, 'और तुम यह मत समझना उग्रचण्डा कि मेरे अगिनबाण का प्रतिकार कर उसने मेरा पराभव कर दिया है अथवा तुम्हारे तथाकथित कापालिक टंका से मैं भयभीत हो गयी हूँ।' हँस पड़ी उग्रचण्डा। हँसते हुए ही उसने विनोद किया, 'स्वीकार करती हूँ बहुरा...तुम्हारी शक्ति को स्वीकार करती हूँ।' कहते ही उसकी आकृति गंभीर हो गयी और उसने पुनः कहा, 'परन्तु मेरा अनुरोध इतना ही है तुमसे कि क्रोधावेश में अपनी शक्ति का अपव्यय न करना!' 'उग्रचण्डा से सहमत हूँ मैं!' काकी ने कहा, 'यद्यपि नीति यही है कि विजयी वही होता है जो सर्वप्रथम प्रहार करता है, परन्तु फिर भी मैं चाहती हूँ कि आक्रमण का पहल शत्रु-पक्ष की ओर से ही हो।' 'क्या कहती है पुत्री!' माया ने बहुरा से कहा, 'काकी ने भी हमारी बात मान ली है। अब क्या निर्णय है तुम्हारा?' 'तत्काल कुछ नहीं कहूँगी मैं' अति-गंभीर स्वर में बहुरा ने कहा और बहुरा के इस वाक्य ने सबको मौन कर दिया। मौन को भंग किया माया ने, 'जब तक दोनों पक्षों में संवाद-हीनता की स्थिति है, तब तक हमारी समस्या यथावत् ही बनी रहेगी पुत्री! अतएव मैं चाहती हूँ इस स्थिति को भंग किया जाये।' 'वह कैसे?' बहुरा ने कहा। 'मैं स्वयं जाऊँगी भरोड़ा।' माया की बात ने सबको चौंका दिया। सब मौन हो गए. 'नहीं दीदी' ! बहुरा ने कुछ क्षण रुक कर कहा, 'यह उचित नहीं।' 'क्यों पुत्री?' 'तुम्हारे इस सकारात्मक पहल का अर्थ उनकी दृष्टि में नकारात्मक ही होगा। यह तो झुक जाने वाली बात होगी।' 'तो क्या हुआ!' माया ने कहा, 'हम कन्या पक्ष वाले हैं। हमारा झुकना तो यूँ भी स्वभाविक ही है पुत्री!' और माया की इस बात पर बहुरा पुनः मौन हो गयी। आनंद और उत्साह में सारा अंचल छलक रहा था। कुँवर के आगमन ने भरोड़ा का वातावरण पूर्णतः बदल दिया। ऐसे में तांत्रिक चंद्रा अंचल के बच्चों के मध्य सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हो गया था। बच्चों का समूह उसे घेरे रहता और तांत्रिक चंद्रा, अपने जादू के खेल दिखाकर उन सबों का मनोरंजन करता। पलक झपकते ही उसके हाथों में विभिन्न मिष्टान्न एवं खिलौने उत्पन्न हो जाते, जिसे पाकर बच्चों की खुशी का ठिकाना न रहता। सारे अंचल के बच्चे, खिलौने तथा मिठाई पाने के लोभ में उससे चिपके रहते। कापालिक टंका, बहुरा के बलाबल से ज्ञात होने हेतु तांत्रिक अनुष्ठान में संलग्न था। राजा विश्वम्भरमल्ल के साथ-साथ रानी गजमोती अपने पुत्र को निहारने-निरखने में व्यस्त हो गए. मंगलगुरु आगामी कार्यक्रम पर विचार कर रहे थे तथा भरोड़ा के सेनापति भीममल्ल, बहुरा को दण्डित करने की योजना बना रहे थे। पूर्णतः परिवर्तित स्थिति ने उनका उत्साह बढ़ा दिया था। शंखाग्राम की राजमाता एवं उत्कल नरेश, भरोड़ा प्रवास का आनंद उठा रहे थे तथा उनका पुत्र अपनी भार्या भुवनमोहिनी एवं कामायोगिनी के साथ कुँवरश्री के द्विरागमन पर विचार-विमर्श कर रहा था। चंद्रचूड़ की इच्छा थी कि वह स्वयं बखरी में उपस्थित होकर बहुरा से मिले, परन्तु उसकी भार्या भुवनमोहिनी की इच्छा थी कि कुल की नीति-रीति के अनुसार ही कार्य करना उचित है, अतः कुँवर के पिताश्री जो निर्णय करेंगे, उसी का अनुपालन करना श्रेयस्कर होगा। दूसरी और भरोड़ा के सेनापति भीममल्ल का कहना था कि बहुरा ने जब कुल की परम्परा का उल्लंघन कर हमारे आत्मसम्मान को धूल-धूसरित कर दिया तो फिर किसी लोकाचार, रीति-रिवाज तथा पारम्परिक औपचारिकता की कोई आवश्यकता नहीं। हमें तो बहुरा का मान-मर्दन कर अपनी पुत्रवधु को बल-पूर्वक भरोड़ा लाना चाहिए. ऐसे विरोधाभासी विचारों के मध्य राजरत्न मंगलगुरु तथा वैद्यराज रसराज के परामर्श को स्वीकार कर राजा विश्वंभर मल्ल ने अतंतः कुँवर के गौना का डाला भेजने का निश्चय कर लिया और इस मध्य सबसे अधिक व्यस्त था वज्रबाहु। समस्त अतिथियों के आतिथ्य का भार उसी पर था। किसी पल वह पाकशाला में उपस्थित होता तो अगले पल सेवकों के पास। सभी व्यस्त थे। कोई आमोद-प्रमोद में, कोई चिन्तन में, कोई मनन में तो कोई चर्चा में। परन्तु एक व्यक्ति ऐसा भी था जो पूर्णरूपेण निष्क्रिय था। क्या करे, क्या न करे वाली स्थिति थी उसकी। वह था उत्कल का अति महत्त्वाकांक्षी सेनापति। दीर्घ विचार-मंथन के उपरांत वह इसी निश्चय पर पहुँचा कि नियति के समक्ष स्वयं को समर्पित कर दे वह। अन्यथा ऐसा न हो कि सेनानायक के पद से भी वह च्युत हो जाये। भँवर के मध्य से निकली अमृता की जीवन-नौका किनारे पहुँचती कि तभी पतवार उसके हाथ से छूट गया। काकी और बहुरा की हठ में, विरहिणी अमृता टूट कर बिखर गयी। उसकी हँसी खो गयी, मुस्कराना भूल गयी। खोयी-खोयी-सी हो गयी वह। निंदिया तो बैरन हो ही चुकी थी, जागी रहती तो भी संज्ञाहीन ही रहती। उसकी पीड़ा माया से सही नहीं जाती। परन्तु इस घड़ी जब उसकी दृष्टि कक्ष में बैठी अमृता पर पड़ी तो, बरबस ही उसके अधरों पर मुस्कान उभर आयी। उसकी अमृता बैठी-बैठी कहीं खो-सी गयी थी। लाज से भरी उसकी आँखों से अपूर्व-सी प्रसन्नता छलक रही थी। हुआ क्या है इसे? यह निगोड़ी आज इतनी प्रसन्न क्यों है? कदाचित् अपनी जागी आँखों से ही स्वप्न देख रही है यह अभागी। निकट पहुँच कर अमृता को घड़ी भर निहारती रही वह, परन्तु माया की उपस्थिति से पूर्णतया अनभिज्ञ अमृता की प्रफुल्लित दृष्टि शून्य में ही अटकी रही। क्या करे वह? अमृता की तंद्रा भंग कर दे अथवा कुछ पल और जी लेने दे इसे, क्योंकि चैतन्य होते ही पुनः रो पड़ेगी यह। ममतामयी उसके हृदय ने कहा-पीर विरह की विरहिनी ही जाने और न जाने कोय नीर बहे अँखियन से, फिर भी मन न शीतल होय और वह सचमुच ही स्वप्न में खोई थी। हँसती-खिलखिलाती सखियाँ उसे घेरे चुहल कर रही हैं। कोई पाँवों में मेंहदी रच रही है तो कोई उसकी वेणी को पुष्पों से श्रृंगारित कर रही है। दूर खड़ी पोपली काकी स्निग्ध नेत्रों से उसे तक रही है और पास बैठी माता बहुरा बारंबार उसकी बलाइयाँ ले रही है। हाथों में महावर लिए उसकी प्यारी दीदी माया आयी और तभी जैसे बादलों की ओट से चंदा झांके-उसके प्राण, उसके कुँवर ने द्वार की ओट से उसे झांका। नैना चार होते ही लाज से दुहरी होकर सकुचायी अमृता और भी सिमट गयी। पगली हो जायेगी यह। माया ने सोचा। उसकी चेतना ने उससे कहा-कुँवर के स्वप्न-भंवर मेंपड़ी है यह अभागी। हृदय फट गया माया का, आँखें भर आयीं। रोक न सकी स्वयं को और बढ़ कर अपने अंक में समेट लिया उसने अमृता को। तत्क्षण तंद्रा टूटी तो अमृता ने स्वयं को दीदी के अंक में जकड़े पाया। तो स्वप्न था यह! प्रथम बार...अपने जीवन में संभवतया प्रथम बार रो पड़ी माया। अमृता भी रो पड़ी। फिर तो बांध ही टूट गया दोनों का। राज भरोड़ा से आये मनुआ ठाकुर को बहुरा ने आपादमस्तक निहारा। राजा ने अपने ठाकुर के हाथों, उसकी पुत्री के गौना का डाला भिजवाया था। साँवले वर्ण के इस वृद्ध ठाकुर ने अपने मस्तक पर पीला मुरैठा बाँध रखा था। इसके कंधों पर लालवर्णी गमछा और कमर में पीली धोती बँधी थी। बाँस की किरचियों से बने जिस डाले को यह अपने साथ लेकर आया था, वह वहीं भूमि पर उसके पास उपेक्षित-सा पड़ा था। लाल रंग से चित्रित इस डाले पर अक्षत, चंदन एवं रोली के छींटे अंकित थे। लाल रेशमी पाड़ से बँधा यह डाला यंू तो ठाकुर के आगमन का अभिप्राय स्वयं कह रहा था, फिर भी बहुरा ने तीक्ष्ण स्वर में प्रश्न किया-'यह क्या लेकर आये हो यहाँ? ...और तुम हो कौन?' 'मैं, मनुआ ठाकुर, राज भरोड़ा से आया हूँ चौधराइन!' सादर कहा उसने, 'हमारे राजा जी ने भेजा है मुझे।' 'अच्छा तो राज भरोड़ा से पधारे हैं आप!' व्यंगपूर्ण स्वर में बहुरा ने कहा, 'सौगात लेकर आये हैं हमारे लिए.' 'नहीं चौधराइन' , कमर तक झुक कर कहा उसने, 'बिटिया के गौना का डाला है यह।' बहुरा की मुखाकृति पर क्रोध उभर आया। भूमि पर पड़ा डाला उसे चिढ़ा रहा था। इच्छा हुई कि पग-प्रहार से दूर कर दे इस डाला को। निर्लज्जता की परिणति है यह तो। मुझे पराभूत करने के लिए पहले तो उन्होंने सैन्य बलों का संचय किया और अब डाला भेजकर मेरा उपहास! उसकी उग्रता और भी बढ़ गयी। मेरी अबोध कन्या का परित्याग करने के उपरान्त अब दुष्टों ने लोकाचार की धृष्टता की है। लोकाचार के निर्लज्ज प्रदर्शन के साथ ही उन्होंने मेरी अस्मिता को भी चुनौती दी है। उनका यह दुःसाहस! क्रोध से उफनते बहुरा ने अपने समधी को दण्डित करने का दृढ़ निश्चय कर लिया और ऐसा निश्चय करते ही उसके अंतस् का ज्वालामुखी फट कर, उसके भयंकर अट्टहास में प्रकट हो गया। बहुरा के इस अति-विकट अट्टहास से थर्राया मनुआ ठाकुर की टाँगे काँपने लगीं। प्राणों के भय से काँपते ठाकुर ने अपने दोनों कर जोड़ दिए. उसके नेत्रों में भय उभर आया और कंठ अवरुद्ध हो गया। अपनी मृत्यु को निश्चित जानकर उसने उस पल को धिक्कारा, जब भरोड़ा से गौना का डाला लेकर उसने बखरी के लिए प्रस्थान किया था। कितना समझाया था पत्नी ने और परिजनों ने भी तो रोका था; परन्तु काल ने उसकी बुद्धि ही हर ली थी, तभी तो मैं मूर्ख स्वयं चल कर आ गया, काल का ग्रास बनने। अब क्या करे वह? पता नहीं यह विकटा अब क्या करेगी? मनुआ ठाकुर अपनी मृत्यु को आसन्न जान थरथरा ही रहा था कि इसी मध्य पोपली काकी और माया दीदी ने कक्ष में प्रवेश किया। बहुरा पूर्ववत् अट्टहास कर रही थी। भयाक्रांत ठाकुर कर जोड़े, थरथराता खड़ा था। गौना का उपेक्षित डाला, पास ही भूमि पर पड़ा था। समस्त परिस्थितियाँ स्पष्ट थीं। तो भरोड़ा से डाला लेकर नाई आया है। माया दीदी के अधरों पर सुखद मुस्कान बिखरी। परन्तु पोपली काकी को इस दृश्य ने विक्षिप्त कर दिया। भरोड़ा का ऐसा दुःसाहस! उसने सोचा, सैन्य-बल ने विश्वंभरमल्ल को अति-विश्वासी बना दिया है। भुवनमोहिनी, कामायोगिनी तथा कापालिक टंका की मित्रता के गर्व में चूर होकर उसने इस लोकाचार का दुस्साहस किया है। बहुरा का अट्टहास थमा तो उसने पोपली से व्यंग्य में कहा, 'देखा काकी। तुम्हारे समधी जी ने क्या भेजा है?' 'देख रही हूँ' , क्रोधित काकी ने कहा, 'इस डाले में शत्रु ने शगुन नहीं, अपना गर्व और अभियान भर कर भेजा है।' 'क्या कहती हो काकी!' तड़प कर कहा माया ने, 'बिगड़ी को और न बिगाड़ो। समधी जी ने तो सौहार्द का प्रदर्शन किया है। शगुन के इस डाले में जो संदेश छिपा है, उसे पहचानो काकी और अभागी अमृता के बिखरे भाग्य को सँवरने से मत रोको!' काकी ने तत्काल कुछ नहीं कहा, परन्तु बहुरा ने तीक्ष्ण दृष्टि से देखा माया को। कैसी मूर्ख है यह, सोचा उसने। शत्रु की धृष्टता का इसे तनिक भी भान नहीं। यूँ भी हमारी मान-मर्यादा के विरुद्ध ही विचार व्यक्त करना, इसे प्रिय लगने लगा है। उसकी इच्छा हुई कि वह तत्क्षण माया को कक्ष त्यागने का परामर्श दे-दे परन्तु उसने ऐसा कुछ कहा नहीं। बहुरा ने काकी तथा माया को बैठा कर स्वयं भी बैठते हुए माया से कहा, 'वही करूँगी जिसपर सब सहमति होगी, परन्तु अपने स्वाभिमान से समझौता कदापि नहीं करूँगी।' 'स्वाभिमान और अभिमान में अंतर होता है पुत्री!' माया ने शांत स्वर में कहा। 'अच्छा, तो अब हमें तुमसे सीखनी होगी' ! क्रोधयुक्त स्वर में काकी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, 'मैं देख रही हूँ माया, आज-कल प्रायः तुम्हारा स्वर, हमारे विरोध में ही व्यक्त होता है।' 'ऐसा मत कहो काकी!' पूर्ववत् शांत स्वर में माया ने कहा, 'विचारों में मतभेद को इस प्रकार व्यक्तिगत मतभेद में परिणत मत करो! हमें अच्छी तरह सोच-विचार कर ही निर्णय लेना चाहिए. हमारे सौभाग्य से ही यह शुभ अवसर उपस्थित हुआ है। तनिक सोचो काकी...भरोड़ा में बाहरी सेना की उपस्थिति से कितने भ्रमित थे हम। क्या-क्या नहीं सोच लिया था हमने। स्थिति से पूर्णतया अनभिज्ञता ने ही हमारी पुत्री को भी इतना उद्वेलित कर दिया था जिस कारण इसने कुँवर पर तंत्र-प्रहार तक किया। परन्तु इतनी कटुतापूर्ण स्थिति में भी हमारे समधी ने जब इस सौजन्य का प्रदर्शन किया है तो हमें भी सब विस्मृत कर अमृता के जीवन को सुखों से भर देना चाहिए काकी।' मूक काकी के अंदर विभिन्न विचारों के प्रवाह चल रहे थे। माया से पूर्णतया असहमत काकी कुछ और ही सोच रही थी। सहसा उसके अधरों पर मुस्कान उभर आयी। समझ गयी माया। काकी अवश्य ही किसी दुश्चक्र में लिप्त है इस घड़ी। बहुरा के मनोभावों को तो वह शत-प्रतिशत जान लेती थी क्योंकि उसके अंतस का भाव, तत्काल उसकी मुखाकृति पर प्रतिबिम्बित होने लगता था। परन्तु काकी के साथ ऐसी बात नहीं थी। वह क्या सोच रही है... उसका मुख देख कर यह जान पाना संभव नहीं था। दूसरी तरफ बहुरा भी वही सोच रही थी जो कदाचित् पोपली काकी सोच रही थी। बहुरा के अंदर एक अंतर्द्वंद्व चल रहा था। क्या इस अवसर को शत्रु-मर्दन के शुभ-अवसर पर परिवर्तित कर दिया जाए? और इस विचार के आते ही उस के अधरों पर पोपली काकी की भांति विषाक्त मुस्कान थिरकने लगी। बहुरा के नेत्र काकी से मिले। मूक नेत्रों का परस्पर सम्भाषण हुआ। 'धबड़ाओ मत ठाकुर!' काकी से दृष्टि हटाकर बहुरा ने मनुआ से कहा, 'तुम तो अतिथि हो! शांत हो जाओ और मेरी बात ध्यान से सुनो!' बहुरा के स्वर परिवर्तन ने माया को आशान्वित कर दिया। कदाचित् इसने मेरा तर्क स्वीकार लिया है। उसकी उत्सुक दृष्टि बहुरा पर केन्द्रित हो गयी। बहुरा कह रही थी, 'यद्यपि तुम्हारे राजा ने हमें हार्दिक क्लेश एवं आघात पहुँचाया है। विवाहोपरांत उन्होंने मेरी निर्दोष पुत्री को कलपते छोड़कर, उसका परित्याग कर दिया। तथापि हम अपने समस्त आत्मसम्मान का विचार छोड़ कर इस शगुन के डाले को स्वीकार करते हैं ठाकुर! हम कन्या-पक्ष वाले हैं। परम्परा ने भी हमें वर-पक्ष के अधीन रखा है। यूँ भी समर्थ को कोई दोष नहीं देता। अपनी पुत्री के मलिन मुख को देख कर, उसके सुख के समक्ष आज वीरा झुक गयी है ठाकुर! इस शगुन को तो मैं स्वीकार कर ही चुकी हूँ साथ ही अपनी पुत्री का गौना भी स्वीकारती हूँ ठाकुर! परन्तु अपनी आहत अंतरात्मा की रक्षा हेतु मेरी एक अरदास है। गौना के लिए मेरे जमाई को अकेले ही आना होगा। अपने समधी-समधिन, उनके परिजन तथा इष्ट-मित्रों का मैं स्वागत नहीं कर सकूंगी। अपने राजा को कहना, वीरा की यह बात यदि उन्हें स्वीकार्य हो, तो वे अपने प्रिय पुत्र को अकेले भेज दें।' बहुरा की वाक्पटुता ने पोपली काकी को पूर्णरूपेण संतुष्ट कर दिया। माया को यद्यपि बहुरा की बात अच्छी नहीं लगी तथापि उसने इस बार कोई विरोध नहीं किया। पति संग अमृता की विदाई हो जाये, इसके अतिरिक्त उसकी कोई अभिलाषा थी भी नहीं। उसे पता था, शेष कटुता शनैः-शनैः स्वयं मिट जायेगी। परन्तु सर्वाधिक प्रसन्न हुआ मनुआ ठाकुर। प्राणभय से मुक्ति मिली थी उसे। त्रण पाते ही उसने मुक्ति की सांस ली। राजा विश्वम्भरमल्ल के शिविर में सभी को मनुआ ठाकुर की प्रतीक्षा थी। सभी उत्सुक थे। राजरत्न मंगलगुरु तथा वैद्यराज रसराज के परामर्श पर ही शंकित राजा ने अंततः मनुआ को भेजा था। परन्तु राजा के इस निर्णय से सेनापति भीममल्ल अत्यंत व्यथित थे। विरोध करते हुए उन्होंने कहा भी था 'जिस अंचल से हम सभी को इस प्रकार अपमानित कर भगा दिया गया, उसी के पास हम अपने नाई के द्वारा गौना का डाला भेजें... धिक्कार है हम पर...और हमारे पुरूषार्थ पर!' क्रोध से उफनते सेनापति को बड़ी कठिनाई से सम्हाला था राजरत्न ने, परन्तु सेनापति ने तभी से आहत हो, मौन धारण कर लिया था। इसी कारण राजा जी के शिविर में इस घड़ी राजरत्न और वैद्यराज के साथ उपस्थित होकर भी वह पूर्ण मौन था और यह स्वभाविक ही था। नृशंस बहुरा ने जिस क्रूरता से उसकी दाहिनी आँख नोच ली थी, उसे भूल जाना किसी के लिए भी संभव नहीं था। फिर भीममल्ल जैसा अति बलशाली सेनापति, इस अपमान को भूल जाये, यह भला कैसे संभव था। उसके अंदर धधकते प्रतिशोध की ज्वाला से राजा, राजरत्न और वैद्यराज अच्छी तरह परिचित थे, परन्तु फिर भी वार्तालाप के मध्य उनका निंरतर मौन रहना किसी को स्वीकार्य नहीं था। इसी कारण वैद्यराज ने सेनापति से कहा, 'आपका क्रोध सकारण ही है सेनापति! आपकी मनःस्थिति से भी हम अपरिचित नहीं, परन्तु इस प्रकार आपका निरंतर मौन रहना हम सभी को अखर रहा है सेनापति।' 'वैद्यराज का मैं भी समर्थन करता हूँ सेनापति!' राजरत्न ने भी कहा, 'तथा आपकी पीड़ा भी हम सभी समझ रहे हैं...फिर भी मेरा अनुरोध है कि आप अपना मौन भंग करें।' वैद्यराज तथा राजरत्न के अनुरोध पर भी जब सेनापति मौन ही रहा तो राजा ने ही अंततः कहा, 'सेनापति के दुःख में हम सभी दुखी हैं तथा हमारे भी अंतस में बहुरा को दण्डित करने की तीव्र अभिलाषा है, परन्तु इस घड़ी हमने विवशता में वही किया, जिस पर सर्वसम्मति थी।' अपनी बात कह कर राजा ने पुनः सेनापति से कहा, 'आप यह मत समझें सेनापति कि बहुरा को हमने क्षमा कर दिया अथवा उसके कुकृत्य को हमने भुला दिया। उसके इस जधन्य अपराध को, मैं आजन्म नहीं भूलूंगा...परन्तु इस घड़ी मैंने जो निर्णय लिया इसी में सबों की सहमति थी।' सेनापति ने दृष्टि उठा कर राजा को देखा। उसके अंतर की समस्त पीड़ा उसकी बांयी आँख में उभर आयी। कुछ पल वह यूँ ही राजा को देखता रहा और अंततः उसके बोल खुल गए. शांत-गंभीर स्वर में उसने कहा, 'जिन परिस्थितियों में हमेंविवश होकर बखरी से पलायन करना पड़ा, वह स्थिति अब नहीं रही राजा जी. अब हम हर प्रकार से शक्ति-सम्पन्न हैं। हमारे सहायकों में कापालिकों में श्रेष्ठ टंका तक हमारे साथ है जिसके समक्ष बहुरा जैसी सिद्ध भी तृण के समान है। इसके अतिरिक्त, बंग तथा उत्कल की श्रेष्ठ शक्तियों से सम्पन्न होते हुए भी हमने कापुरुषों जैसा निर्णय लिया...इसकी ग्लानि मुझे सदा व्यथित करती रहेगी।' 'यह निर्णय किसी कापुरुष का नहीं, हमारा समवेत् निर्णय है,' राजा ने कहा, 'अपनी वर्तमान शक्ति का भली प्रकार भान होते हुए भी हमने कायरों का नहीं वीर पुरुषों का निर्णय लिया है सेनापति...! और आप यूँ अधीर क्यों होते हैं...संभव है बहुरा हमारे अनुरोध को स्वीकार न कर, हमारा पुनः तिरस्कार ही कर दे और संभावना भी इसी की है सेनापति। जिस प्रकार उसने कुँवर के मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया था, उससे तो यही प्रतीत होता है कि वह हमारे अनुरोध को अवश्य ठुकरा देगी और यदि ऐसा हुआ तो आप विश्वास करें, हम वही करेंगे जो आपकी इच्छा है।' राजा की बात से संतुष्ट सेनापति उठ कर खड़ा हो गया और राजा को प्रणाम करते हुए कहा, 'अपने समस्त क्लेशों से मैं मुक्त हो गया महाराज! इतनी छोटी-सी बात भी मेरी समझ में नहीं आयी थी, आश्चर्य है मुझे। हमने अपने संस्कारों के अनुरूप, सब कुछ भूल कर बहुरा के पास अपना नाई भेज दिया है। यह जानते हुए भी कि वह दुष्टा पुनः हमारा अपमान ही करेगी, क्योंकि यही स्वभाव है उसका।' कह कर सेनापति मुस्कराया और मुस्कराते हुए ही उसने पुनः कहा, 'अब मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ। मनुआ ठाकुर के आते ही हम टूट पड़ेंगे उस दुष्टा पर...टूट पड़ेंगे' ! भरोड़ा का नाई डाला लेकर आया है, यह समाचार देखते-ही-देखते सारे अंचल में फैल गया। हाट-बाजार, खलिहान और चौपाल में बस एक ही चर्चा...क्या होगा अब? बखरी का प्रत्येक आंगन और प्रांगण इसी उत्सुकता में प्रतीक्षा कर रहा था कि बहुरा की अब प्रतिक्रिया क्या होगी और ऐसे में अमृता की स्थिति और भी विचित्र थी। उसकी तो श्वास ही अटक गयी। उसकी माता तो मानेगी नहीं...और क्रोधावेग में जाने क्या कर बैठेगी वह। अपने मानस-पटल में अमृता ने देखा, उसकी माता ने पग-प्रहार से उसके गौना के डाला को ठोकर मार दिया है और भय से थरथराता नाई मूक खड़ा है। उसने चाहा, दौड़ कर जा पहुँचे अपनी माँ के पास और उसके चरणों से लिपट कर अपने सुहाग की भीख माँग ले अपनी माँ से। परन्तु उसके पग ठिठक कर रुक गए. आँखों में सावन-भादो उतर आया। जड़ हो गयी वह। अंतस् में झंझावात उठा और मस्तक में चक्कर-सा आने लगा। इसी घड़ी कक्ष में प्रविष्ट हो रही माया ने सम्हाला न होता तो मूर्च्छित होकर गिर पड़ी होती वह, 'यह क्या पुत्री!' माया ने उसे सम्हाल कर कहा, 'क्या कर रही है तू...! कदाचित् तुझे पता नहीं... तेरी माँ ने तेरा गौना स्वीकार कर लिया है पुत्री!' अप्रत्याशित था यह! कुछ पल तो विश्वास ही न हुआ अमृता को। परन्तु उसके कक्ष में जब उसके गौना का डाला आ गया तो उसे विश्वास करना ही पड़ा। डाले की एक-एक वस्तु को उसने स्वयं स्पर्श करके निहारा। सिंदूर, चूड़ी, लहटी, बिंदिया, कुँकुम और महावर के अतिरिक्त जब उसने चमचमाते कठमंगिया (घूंघट) को हाथों में उठाया तो उसकी आँखों में कई सपने तैरने लगे। बहुरा ने षडयंत्र तो रच दिया परन्तु उसे पता था, राजा विश्वम्भरमल्ल अपने पुत्र को अकेला कदापि नहीं भेजेंगे। यह स्वभाविक भी था। शंखाग्राम एवं उत्कल के वीर-सेनानी उसके पास थे। साथ ही भुवनमोहिनी, कामायोगिनी एवं कुख्यात कापालिक टंका भी भरोड़ा में उसके साथ उपस्थित था। ऐसी स्थिति में उसका दामाद अकेला-निःसहाय उसके पास चला आए, ऐसी कल्पना भी उसके लिए हास्यास्पद थी। वास्तव में यह प्रस्ताव नहीं, बहुरा की खुली चुनौती थी और महाकाल की सहायता से उसे विश्वास भी था कि वह अपने समधी का, उसके समस्त सहायकों सहित मान-मर्दन कर देगी। वस्तुतः भरोड़ा के ठाकुर को ससम्मान विदा करने के उपरांत से ही वह मुदित थी क्योंकि अपने प्रतिशोध का अवसर, अनायास ही उसे प्राप्त हो गया था। बखरी में जहाँ बहुरा ने अपना विकट अनुष्ठान प्रारंभ कर दिया था, वहीं भरोड़ा में बहुरा के निर्णय पर मिश्रित प्रतिक्रियायंे होने लगीं। रानी गजमोती ने निःस्वास लेते हुए राजा से कहा, 'बहुरा की पीड़ा मैं समझ सकती हूँ। जिसकी नव-विवाहिता पुत्री, विवाह होते ही परित्यक्ता हो गयी हो, उसकी व्यथा आप नहीं समझ सकते।' 'कदाचित् आप ठीक कह रही हैं' ! राजा ने कहा, 'परन्तु इसमें हमारा क्या दोष? ...हमें तो बलात् पलायन करना पड़ा था... और तनिक हमारे सेनापति की तो सोचिये। बहुरा ने कितनी नृशंसता से उसकी दायीं आँख नोच ली थी, फिर भी आप उसकी व्यथा की बात कर रही हैं...आश्चर्य है मुझे!' रानी गजमोती की ममता और राजा विशम्भरमल्ल की मर्यादा परस्पर टकराती रही और अंततः अपने प्रिय पुत्र को अकेले भेजना उन्होंने अस्वीकार कर दिया। सेनापति भीममल्ल को मनोवांछित फल प्राप्त हो चुका था। हर्षित सेनापति, तड़ित-वेग से जा पहुँचा टंका के पास, 'कापालिक श्रेष्ठ!' अभिवादन के उपरांत सेनापति ने कहा, 'हमारा ठाकुर, बहुरा का दुष्टतापूर्ण प्रस्ताव लेकर वापस लौट आया है, ज्ञात है आपको?' 'जानता हूँ सेनापति...! ज्ञात है मुझे बहुरा ने क्या कहा और यही अपेक्षित भी था उससे... मेरे स्वामी को बंदी बनाना चाहती है वह।' और कहते ही टंका हँस पड़ा। 'आपको विनोद सूझ रहा है कापालिक-श्रेष्ठ और मेरी भुजायें फड़फड़ा रही हैं,' व्यग्र स्वर में सेनापति ने कहा, 'जिस प्रकार वनराज के पंजों में आकर उसका निरीह शिकार तड़फड़ाता है, ठीक उसी प्रकार, मैं इस दुष्टा को अपनी बलशाली भुजाओं में तड़पता हुआ देखने को अति-व्याकुल हूँ।' 'दुर्बल से दुर्बल और वीर्यहीन-कापुरूष तक ऐसी स्थिति में उद्विग्न हो जायेगा सेनापति, जबकि आप तो अतुलित-बलशाली सिंह पुरूष हैं। आपके अंदर प्रतिशोध की कैसी लपटें उठ रही हांेगी, मैं समझ सकता हूँ। विश्वास करें, मैं चाहूँ तो इसी क्षण बहुरा समेत उसके सम्पूर्ण अंचल को भस्म कर सकता हूँ, अथवा स्वामी का आदेश हो तो उस दुष्टा को बांध कर आज ही यहाँ ला सकता हूँ।' 'नहीं कापालिक-श्रेष्ठ!' तड़प कर कहा सेनापति ने, 'मेरे प्रतिशोध की अग्नि तभी शांत होगी, जब मैं स्वयं अपनी भुजाओं से उस दुष्टा को दण्डित करूँ।' कापालिक टंका के ओठों पर मुस्कान बिखरी देख सेनापति ने संकोचपूर्ण वाणी में पुनः कहा, 'इन नंगी भुजाओं से मैं हिंसक वनराज को भी परास्त कर सकता हूँ कापालिक-श्रेष्ठ! परन्तु बहुरा के तांत्रिक-छल का प्रतिकार मैं कैसे करूँ? ...इसी कारण आपके समक्ष।' और सेनापति का वाक्य पूर्ण न हो पाया क्योंकि सेनापति की इस बात पर टंका पुनः हँस पड़ा। आपातकालीन व्यवस्था में व्यस्त होना पड़ गया। परन्तु, इसके विपरीत भुवनमोहिनी एवं कामायोगिनी मौन रह गयीं। उत्कल नरेश पार्थसारथी और शंखाग्राम की राजमाता राजराजेश्वरी भी इसी विमर्श में निमग्न थे। अंत में राजमाता ने कहा, 'कुँवर के पिताश्री का निर्णय ही मुझे उचित प्रतीत होता है महाराज...! यूँ तो मैंने अपने कुँवर की दिव्यता स्वयं जान ली है। इसीलिए मुझे विश्वास है, उस जैसी तामसी-साधिका की शक्तियाँ हमारे कुँवर का कदापि अहित नहीं कर सकतीं, परन्तु फिर भी लोकाचार की दृष्टि से कुँवर का अकेले प्रस्थान करना, मर्यादा का उल्लंघन है महाराज!' 'आपके कथन पर सहमत हूँ मैं राजमाता!' उत्कल नरेश ने मुद्रा बदलते हुए कहा, 'परन्तु यह तो कहिए, ऐसी स्थिति में अब हमें करना क्या है?' 'यही तो समस्या है महाराज! कुँवर के नहीं जाने का स्पष्ट अर्थ है, द्विरागमन का स्थगित हो जाना...और किसी भी स्थिति में हम ऐसा होने नहीं देंगे।' 'फिर तो संघर्ष!' उत्कल नरेश बुदबुदाये। इसी प्रकार अलग-अलग टुकड़ों में विमर्श होता रहा और संध्या घिर आयी। रात्रि-भोज में जब समस्त अतिथि एवं आतिथेय एक साथ सम्मिलित हुए तो, इसी समस्या पर सामूहिक विमर्श प्रारंभ हो गया। राजा विशम्भरमल्ल ने अपने निर्णय से सबको अवगत कराते हुए कहा, 'द्विरागमन हेतु हमने अपने जिस नाऊ को गौना के डाला के साथ बखरी-सलोना भेजा था, वह आज लौट आया है। समधिन ने मेरे पुत्र का द्विरागमन तो स्वीकारा है, परन्तु उसने कहा है कि वह अपने अंचल में हमारे बंधु-बांधवों एवं परिजनों का स्वागत-सत्कार करने में असमर्थ है अतः हमें अपने प्रिय पुत्र को एकाकी ही उसके अंचल में भेजना होगा।' कहकर राजा ने सभी पर अपनी विहंगम दृष्टि डाली और पुनः कहा, 'आप सभी को विदित ही है, पूर्व में उसने मेरे प्रिय पुत्र पर प्राण-घातक मारण-पात्र का उग्र-संधान किया था तथा मेरे निर्दोष सेनापति की एक आँख छलपूर्वक नोच ली थी। उसकी इन घृष्टताओं पर हमारे मौन ने उसे और भी नृशंस कर दिया, तभी तो उसने गंगा की मध्य-धारा में पुनः मेरे पुत्र पर तंत्र-प्रहार का दुःसाहस किया। बहुरा की निंरतर दुष्टता के कारण ही मेरी इच्छा नहीं थी कि मैं लोकाचार की परम्परा का निर्वहन करते हुए, उसके समक्ष द्विरागमन का औपचारिक प्रस्ताव भेजूँ, परन्तु आपके सामूहिक परामर्श ने मुझे विवश कर दिया। मुझे भली-भांति ज्ञात था कि इस निर्णय से मेरे वीर सेनापति अत्यंत आहत होंगे, फिर भी मैंने आप सबों का सर्वसम्मत प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था।' कहते-कहते राजा की वाणी अवरुद्ध हो गयी। क्रोध एवं प्रायश्चित का सम्मिलित भाव उनके चेहरे पर उभरा और क्षण भर के लिए वे मौन हो गए. सबों की ध्यानमग्न दृष्टि उनपर ही थी। क्षणोपरांत उन्होंने पुनः कहा, 'बहुरा के प्रस्ताव के नेपथ्य में क्या है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। मुझे दृढ़ विश्वास है यदि मेरा पुत्र अकेला गया तो निश्चित ही वह उसका ग्रास बन जायेगा और यदि आप सब साथ गए तो भी संघर्ष निश्चित ही है। इसीलिए मैंने विचार किया है, मैं द्विरागमन को ही स्थगित कर दूँ।' उपस्थित जन में से किसी ने भी जब कुछ न कहा तो राजा ने ही पुनः कहा, 'इस समस्या के समाधान पर आप सबांे की क्या प्रतिक्रिया है...? कृपा करके मुझे बताऐं, क्योंकि मेरे सम्मुख मात्र दो ही विकल्प शेष हैं। या तो मैं अपनी पुत्रवधु का द्विरागमन भूल जाऊँ या फिर बखरी से संघर्ष स्वीकारूँ, जबकि इन दोनों में कोई भी विकल्प मेरी आत्मा को स्वीकार नहीं है। ऐसी स्थिति में मुझे परामर्श दें...मुझे क्या करना उचित है।' 'अपने विवाहित पुत्र को पत्नीविहीन रखना किसी को स्वीकार नहीं हो सकता राजा जी' ! शंखाग्राम की राजमाता ने धीर-गम्भीर वाणी में कहा, 'परन्तु दुष्टता का प्रतिकार तो मानव-मात्र का धर्म है...आपकी आत्मा इसे क्यों नहीं स्वीकारती?' 'हाँ राजा जी,' तुरंत ही उत्कल नरेश बोल पड़े, 'राजमाता के कथन का मैं भी समर्थन करता हूँ...और हमारे आगमन का एकमात्र प्रयोजन भी यही है। हमें तो पूर्व ही से विदित था कि हमारे प्रिय कुँवरश्री के द्विरागमन का प्रारंभ ही संघर्ष से होगा। हम सभी इसके लिए पूर्व से तैयार भी हैं। साथ ही हमें विश्वास भी है कि हमें दीर्घ-संघर्ष की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। हमारी संयुक्त-शक्ति के समक्ष वह भला कब-तक ठहर सकेगी!' राजा विश्वम्भरमल्ल के अंतस् का द्वंद्व और भी गहरा गया। राजमाता एवं उत्कल नरेश ने जो कहा उसका आभास तो उन्हें पूर्व से ही था। संघर्ष को अवश्यंभावी मान कर वे चिंतित हो गए.
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सत्रहवाँ अध्याय हमारे विकास में प्रकृतिका नियम विभिन्नता में एकता, विधि (Law) और स्वाधीनता पृथ्वीके सब प्राणियोमेसे अकेले मनुष्यको ही ठीक ढगसे जीवन-यापन करनेके लिये ठीक ज्ञान प्राप्त करनेकी आवश्यकता पडती है, चाहे यह ज्ञान वह, जैसा कि बुद्धिवादका कहना है, अपनी बुद्धिके एकमात्र या प्रधान साधनद्वारा प्राप्त करे अथवा अधिक व्यापक और जटिल रूपमे अपनी समस्त शक्तियोद्वारा । उसे सत्ताके सच्चे स्वरूप और जीवनके व्यावहारिक क्षेत्रोमे उसकी सतत आत्म-चरितार्थताको, - सरल भाषामे कहे तो, -- प्रकृतिके नियम विशेषतया अपनी प्रकृतिके नियम, तथा अपने अदर और अपने चारो ओरकी शक्तियोको जाननेकी आवश्यकता है; साथ ही उसे यह भी जानना है कि उसके अपने महत्तर सुख और उत्कर्पके लिये अथवा उसके और उसके साथियोके महत्तर सुख और उत्कर्षके लिये इन शक्तियोका ठीक उपयोग क्या है। पुरानी उक्तिके अनुसार, उसे प्रकृतिके अनुकूल जीवन बितानेका ढंग सीखना चाहिये । कितु प्रकृतिका जो रूप पहले स्वीकार किया जाता था वह अब स्वीकार नही किया जा सकता; अब प्रकृति वह सनातन सत्य नियम नही मानी जाती जिससे मनुष्य विच्छिन्न हो गया है, वल्कि प्रकृति स्वयं एक ऐसी चीज है जो बदल रही है, वर्द्धित और विकसित हो रही है, एक शिखरसे अधिक उन्नत शिखरकी ओर बढ़ रही है, अपनी सभावनाओके एक छोरसे अधिक व्यापक छोरकी ओर विस्तृत हो रही है । तथापि इस समस्त परिवर्तनम सत्ताके कुछ सनातन नियम या सत्य भी है जो सदा एकसे रहते है और इन्हीके आधारपर एव इन्ही प्रारंभिक साधनोसे तथा इन्हीके ढाँचेके भीतर हमारी प्रगति और पूर्णताको सपन्न होना है। नही तो शक्तियोके सघर्षमे भी व्यवस्थित रहनेवाले ससारका अस्तित्व न होता, वरन् चारो ओर अनत अस्तव्यस्तताका ही साम्राज्य होता । पशु और वनस्पतिके अवमानवीय जीवनको न तो इस ज्ञानकी और न इस ज्ञानके साथ अनिवार्य रूपमे रहनेवाली उस चेतन इच्छा शक्तिकी ही - आवश्यकता पड़ती है जो सदैव प्राप्त ज्ञानको कार्यरूपमे परिणत करनेकी प्रेरणा अनुभव करती है । इस छूटके मिल जानेसे वह अनगिनत भ्रांतियो, विकृतियों और व्याधियोसे बच जाता है, क्योकि वह सहज-स्वभाववश ही प्रकृतिके अनुसार चलता है; उसका ज्ञान और संकल्प दोनो प्रकृतिके है, चेतन हों अथवा अवचेतन, वे उसके नियमों और आदेशोको टाल नही सकते । इसके विपरीत, मनुष्यके पास एक ऐसी सामर्थ्य प्रतीत होती है जो प्रकृतिके ऊपर अपनी बुद्धि और इच्छाशक्तिका प्रयोग कर सकती है, उसमें उसकी गति-विधियोंको संचालित करने, यहांतक कि जो मार्ग वह उसे बताती है उससे भिन्न मार्ग ग्रहण करनेकी भी क्षमता विद्यमान है। परंतु वास्तवमे यह भी भाषाकी एक विकृतिपूर्ण चाल है, क्योकि मनुष्यका मन भी प्रकृतिका ही एक अंग है, और यह मन यदि उसकी अपनी प्रकृतिका सबसे वडा अंग नही तो सबसे प्रमुख अंग अवश्य है । हम कह सकते है कि यह भी प्रकृति ही है जो कुछ हदतक अपने नियमो और शक्तियो तथा अपने विकाससंबंधी संघर्षके प्रति सजग हो गयी है और जिसके अंदर अपने जीवन और अस्तित्वकी प्रक्रियाओपर एक अधिकाधिक उच्चतर नियम लागू करनेकी चेतन इच्छा जाग उठी है। अवमानवीय जीवनमें प्राणिक और भौतिक संघर्ष तो है पर मानसिक संघर्ष नही । मनुष्य इस मानसिक उलझनमें ग्रस्त है और इसी कारण वह दूसरोके साथ ही नहीं, अपने साथ भी संघर्ष करता है और क्योकि उसमें अपने साथ इस प्रकारका संघर्ष करनेकी सामर्थ्य मौजूद है, उसमे आंतरिक विकासके, उच्चसे उच्चतर स्तरकी ओर बढ़ने तथा अनवरत आत्म-अतिक्रमण करनेके संघर्षकी भी सामर्थ्य विद्यमान है जो पशुओको प्राप्त नहीं है । वर्तमान समयमें यह विकास जीवनसे संवद्ध विचारोके संघर्ष और उनकी प्रगतिद्वारा होता है। अपने प्राथमिक रूपमें मानवके जीवनविषयक विचार स्वयं जीवनकी शक्तियो और प्रवृत्तियोका, जैसे कि वे आवश्यकताओ, इच्छाओ और हितोंके रूपमे प्रकट होती है, मानसिक उल्थामात्र होते है। मनुष्यकी बुद्धि व्यावहारिक और थोड़ी-बहुत स्पष्ट एवं यथार्थ होती है । वह इन चीजोको अपनी दृष्टिमें रखती है तथा अपने अनुभव, मत और रुचिके अनुसार इनमेंसे एक या दूसरेको अधिक या कम महत्त्व देती है। इनमेंसे कुछको मनुष्य स्वीकार करता है और अपनी इच्छा शक्ति और बुद्धिद्वारा उनके विकासमे सहायता पहुंचाता है और कुछको अस्वीकार करके निरुत्साहित कर देता है, यहांतक कि उनका उन्मूलन करनेमे भी सफल हो जाता है । परतु इस प्रारंभिक प्रक्रियासे मनुष्यके अंदर जीवनके विषयमे एक और प्रकार - के उन्नत विचार उत्पन्न होते है । वह उनके मानसिक उल्थामात्र और उनके साथ सहज सक्रिय संबंधसे आगे बढकर उन शक्तियो और प्रवृत्तियोंका निय मित रूपसे मूल्यांकन करने लगता है जो उसमें और उसके वातावरणमे प्रकट हो चुकी है या हो रही है । वह उन्हे प्रकृतिकी स्थिर प्रक्रियाएँ और नियम समझकर उनका अध्ययन करता है और उनके विधान और ढंगको जाननेका प्रयत्न करता है । वह अपने मन, प्राण और शरीरके नियम तथा अपने चारों ओरके उन तथ्यो और शक्तियोके विधान और नियम निर्धारित करनेकी चेष्टा करता है जो उसका वातावरण बनाते हैं तथा उसके कार्यका क्षेत्र और ढंग निश्चित करते है । क्योकि हम अपूर्ण और विकसनशील प्राणी है, जीवनसंबंधी नियमोंका यह अध्ययन अवश्य ही दो पहलुओको अपने विचारमें लायगा : एक तो उसका नियम जो इस समयमें है अर्थात् हमारी वर्तमान अवस्थाओका नियम और दूसरा उसका नियम जो हो सकता है या होना चाहिये अर्थात् हमारी संभावित शक्तियोंका नियम यह पिछला नियम ही मानवबुद्धिके निकट जो सदा ही वस्तुओके विषयमे मनमाना और आग्रहपूर्ण सिद्धांत वनानेकी प्रवृत्ति रखती है, एक स्थिर और आदर्श मानदंड या कुछ नियमोंका रूप ले लेता है जिनसे हमारा वर्तमान जीवन विचलित और च्युत हो गया है या जिनकी ओर वह प्रगति एवं अभीप्सा कर रहा है । प्रकृति और जीवनका विकासवादी सिद्धात हमें एक गंभीरतर विचारकी ओर ले जाता है। जो है और जो हो सकता है दोनो सत्ताके उन्ही शाश्वत तथ्यो और हमारी प्रकृतिकी शक्तियो या सामर्थ्योकी अभिव्यक्तियाँ है जिनसे हम न तो बच सकते है और न इनसे बचना अभिप्रेत ही है । कारण, जीवनमात्र वह प्रकृति है जो स्वयंको चरितार्थ कर रही है, वह प्रकृति नही जो अपने-आपको नष्ट या अस्वीकार कर रही है। किंतु हम अपनी प्रकृति और सत्ताके इन शाश्वत तथ्यों और शक्तियोके रूपो एवं महत्त्वो तथा इनकी व्यवस्थाओको उन्नत कर सकते हैं, और उन्हें उन्नत करना, वदलना तथा विस्तृत रूप देना हमारा निर्दिष्ट कार्य भी है। हमारे विकासक्रममे यह परिवर्तन और पूर्णत्व समूल रूपांतर जैसा प्रतीत हो सकता है, यद्यपि मल वस्तुमें कोई परिवर्तन नही होता । हमारी वर्तमान क्षमताएँ अभिव्यक्तिका वह रूप और महत्त्व अथवा सामर्थ्य है जिसे हमारी प्रकृति और हमारा जीवन प्राप्त कर चुके हैं, उनका मानदड या नियम विकासके उसी सोपानकी एक विशिष्ट और स्थिर व्यवस्था एवं प्रक्रिया है। हमारी संभावित शक्तियाँ अभिव्यक्तिके उस नये रूप, महत्त्व और सामर्थ्यकी ओर संकेत करती है जिनकी अपनी एक नयी और उपयुक्त व्यवस्था तथा प्रक्रिया होती है और वही इनका विशेष नियम और मानदंड है । इस प्रकार वर्तमान और सभवनीयके बीचमे स्थित हमारी बुद्धि वर्तमान नियम और रूपको हमारी प्रकृति और हमारे अस्तित्वका सनातन नियम समझनेकी गलती करने लगती है, और जहाँ कोई परिवर्तन हुआ उसे वह नियम भंग या पतन मान लेती है, या, इसके विपरीत, किसी भावी और प्रसुप्त नियम एवं रूपको हमारे जीवनका आदर्श नियम माननेकी भूल कर बैठती है, - उसके अनुकूल यदि कार्य - न किया जाय तो उसे वह हमारी प्रकृतिका दोप या पाप समझने लगती है। वास्तवमें, केवल वही नित्य है जो सब परिवर्तनोके वीच भी स्थिर रहता है और हमारा आदर्श इसकी उत्तरोत्तर अभिव्यक्तिसे अधिक और कुछ नही हो सकता । आत्म-अभिव्यक्तिकी उच्चता, व्यापकता और परि पूर्णताकी जो चरम सीमा मनुष्यके लिये संभव है - यदि ऐसी कोई सीमा हो और उसका हमे ज्ञान हो, किंतु अभीतक हमें अपनी चरम संभावनाओका ज्ञान नही है -- केवल उसीको सनातन आदर्श समझा जा सकता है । जिन विचारों या आदर्शोको मानव-मन जीवनसे संगृहीत करता है या उसपर लागू करनेकी चेष्टा करता है वे स्वयं जीवनकी, जव कि वह अपने नियमको अधिकाधिक प्राप्त करनेका तथा उसे ऊँचेसे ऊँचा उठाने और साथ ही अपनी सुप्त शक्तियोंको उपलब्ध करनेका यत्न कर रहा होता है, अभिव्यक्तिके अतिरिक्त कुछ नही हो सकते । प्रकृतिकी मानवी जीवनप्रणालीके महत्त्व तथा उसकी सुप्त शक्तियोंकी इस क्रमिक चरितार्यता और परिपूर्णतामे हमारा मन उसकी गतिके चेतन भागका प्रतिनिधि है । यदि यह मन पूर्ण होता तो यह अपने ज्ञान और संकल्पमें उस समग्र गुप्त ज्ञान और सकल्पके साथ एक होता जिसे प्रकृति ऊपरी तलपर लानेकी कोशिश कर रही है और तब कोई मानसिक संघर्प भी न होता, क्योकि तव हम उसकी क्रियाके साथ एक हो सकते, उसके उद्देश्यको जान लेते और उसके मार्गका वुद्धिमत्तापूर्वक अनुसरण कर सकते । तब हम वह सत्य जान लेते -- जिसपर गीता भी वल देती है - कि केवल प्रकृति ही क्रियाशील है और हमारे मन एवं जीवनके कार्य उसके गुणोंके ही व्यापार है । अव मानवीय जीवन प्राण और सहजबुद्धिके द्वारा और यात्तिक रूपसे यही कार्य करता है, वह अपनी श्रेणी - विशेषकी सीमाओके भीतर प्रकृतिके अनुकूल वनकर ही रहता है और इस प्रकार आंतरिक संघर्ष से मुक्त हो जाता है, यद्यपि इतर जीवनके साथ उसका संघर्ष फिर भी चलता है । उधर अतिमानवीय जीवन सचेतन रूपमे इस पूर्णताको प्राप्त करेगा, वस्तुओंमें निहित गुप्त ज्ञान और संकल्पको अपना बना लेगा और प्रकृतिके द्वारा, उसीकी मुक्त, सहज और सामंजस्यपूर्ण गतिसे अपने आपको चरितार्थ करेगा; प्रकृति धीर, अविश्रांत भावसे उस पूर्ण विकासकी ओर बढ़ रही है जो उसका जन्म-जात और इसलिये पूर्व निर्धारित लक्ष्य है । सच तो यह है कि हमारा [ मन अपूर्ण है, हमे उसकी प्रवृत्तियों तथा उद्देश्योका आभासमात्र ही मिलता [ है और ऐसे प्रत्येक आभासको हम अपने जीवन और व्यवहारका निरपेक्ष नियम वा आदर्श सिद्धांत वना लेते है; हम उसकी प्रक्रियाका केवल एक पहलू देखते है, उसे एक समग्र और पूर्ण प्रणालीके रूपमे प्रस्तुत करते है और फिर वही हमारी जीवन-व्यवस्थाका संचालन करती है । अपूर्ण व्यक्ति तथा उससे भी अधिक अपूर्ण सामूहिक मनद्वारा कार्य करते हुए वह हमारी सत्ताके तथ्यों तथा शक्तियोको उन विरोधी नियमो और सामर्थ्याके रूपमें खड़ा कर देती है जिनके साथ हम अपनी बुद्धि और भावावेगोद्वारा अपना संबंध स्थापित कर लेते है । कभी वह एकको उत्साहित या निरुत्साहित करती है और कभी दूसरेको; इस प्रकार मनुष्यके मनमे वह उन्हें संघर्ष और विरोधके द्वारा उस पारस्परिक ज्ञान और उनकी पारस्परिक आवश्यकताकी भावना तथा उनकी सुप्त शक्तियोके उत्तरोत्तर समुचित संबंध और समन्वयकी ओर ले जाती है जो मनुष्य जीवनकी नमनीय सभाव्यतामे चरितार्थ शक्तियोंके बढ़ते हुए सामंजस्य तथा संगठनमे प्रकट होता है । मानवजातिका सामाजिक विकास आवश्यक रूपसे तीन स्थायी तत्त्वो, - व्यक्ति, नाना प्रकारके समाज और मनुष्यजाति, के बीचके सबधोका विकास है। इनमेसे प्रत्येक अपनी परिपूर्णता और तुष्टि चाहता है । पर प्रत्येक ही इन्हें स्वतंत्र रूपमे नही अपितु दूसरोसे संबंध रखते हुए विकसित करनेको वाध्य होता है। व्यक्तिका पहला स्वाभाविक उद्देश्य उसकी अपनी आतरिक उन्नति और पूर्णता और अपने बाह्य जीवनमे इनकी अभिव्यक्ति है। यह कार्य वह दूसरे व्यक्तियोके साथ, अनेक प्रकारके धार्मिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक, राजनीतिक समुदायोके साथ जिनका वह अग है और सामान्य रूपमे मनुष्यजातिकी भावना और आवश्यकताके साथ संबंध रखकर ही कर सकता है। समुदाय भी अपनी परिपूर्णता चाहता है, पर उसकी समष्टि चेतना और उसके सामूहिक सगठनमें कितनी भी शक्ति क्यो न हो, वह अपना विकास केवल व्यक्तियोके द्वारा ही कर सकता है। ऐसा वह अपने वातावरणद्वारा प्रस्तुत की गयी परिस्थितियोके दबावसे और उन अवस्थाओके अधीन होकर करता है जो दूसरे समुदायो और व्यक्तियो तथा समग्र मनुष्यजातिके साथ उसके संबंधोद्वारा उसपर लाद दी जाती है । समूची मानवजातिका अपना कोई सचेतन रूपमे संगठित सामान्य जीवन नही है, उसके पास केवल एक ऐसा प्रारंभिक सगठन है जो मानवी बुद्धि और इच्छा-शक्तिसे कही अधिक परिस्थितियोद्वारा निर्धारित होता है । तथापि हमारे सामान्य मानव अस्तित्व, स्वभाव और भवितव्यताके विचार और तथ्यने सदा ही मनुष्यके विचारों और कार्योपर अत्यधिक प्रभाव डाला है। नीति और धर्मका तो मुख्य कार्य ही मनुष्यजातिके प्रति मनुष्यके कर्त्तव्योंका बताना रहा है। जातिमें होनेवाले वृहत् आंदोलनों और परिवर्तनोके द्रबावसे उसके पृथक्-पृथक् समुदायोका भविष्य सदा ही प्रभावित हुआ है, साथ ही अपने विस्तारके लिये और यथासंभव समस्त जातिको अपनेमे मिला लेनेके लिये इन पृथक् सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और धार्मिक समुदायोंका प्रतिकारात्मक दवाव भी सदा हो रहा है । और यदि अथवा जव भी समस्त मनुष्यजाति एक संगठित सामान्य जीवन प्राप्त कर लेगी और सभीकी परिपूर्णता और तुष्टिकी इच्छा करने लगेगी, तो ऐसा वह समष्टिके अपने अंगोके साथ संवधद्वारा और व्यक्तियो और समुदायके विस्तारशील जीवनकी सहायतासे ही कर सकेगी। क्योंकि इनकी प्रगति ही मनुष्यजातिके जीवनकी अधिक व्यापक अवस्थाओंका निर्माण करती है । प्रकृति सदैव इन तीन करणोके द्वारा काम करती है, और इनमेंसे किसीको भी हटाया नही जा सकता । वह एक और अनेकको प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति तथा समष्टि और उसकी अवयवभूत इकाइयोंसे आरंभ करती है और फिर इन दोनोके बीचकी एकताओंका निर्माण करती है जिनके विना न तो समष्टिका और न ही इकाइयोंका पूर्ण विकास हो सकता है । उद्भिज जीवनमे भी वह सदा जाति, उपजाति और व्यप्टिकी तीन अवस्थाओंकी रचना करती है। किंतु, जव कि पशु-जीवनमें वह तीव्र भेद करने और छोटे-छोटे वर्ग बनानेसे ही संतुष्ट हो जाती है, मानवजीवनमे वह अपने किये हुए विभाजनोको अतिक्रांत करने और समस्त जातिको ऐक्यकी भावना तथा एकत्वको प्राप्तिकी ओर ले जानेका प्रयत्न करती है। मनुष्यके समुदाय एक ही जाति या उपजातिके कुछ व्यक्तियोकी सहजप्रेरणावश एकत्र होनेके द्वारा उतने नहीं निर्मित होते जितने कि स्थानीय संसर्ग और हितो एवं विचारोकी समानताके द्वारा निर्मित होते है । जैसे-जैसे जातियो, राष्ट्रों, है। हितों, विचारों और संस्कृतियोके निकटतर संमिश्रणसे मनुष्यके विचार और सद्भाव व्यापेक् रूप धारण करते जायंगे वैसे-वैसे ये सीमाएँ भी समाप्त होती जायंगी। फिर भी, अपने पृथक्त्वकी दृष्टिसे समाप्त होकर भी, तथ्य रूपमे ये समाप्त नही होती; कारण, ये प्रकृतिके मूल सिद्धांत - एकतामे विभिन्नता - पर आधारित होती है । अतएव, यह प्रतीत होता है कि प्रकृतिका आदर्श अथवा अंतिम उद्देश्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति तथा समस्त व्यक्तियोका जुनकी पूरी सामथ्यंके अनुसार विकास हो जाय, प्रत्येक हमारे विकासमे प्रकृतिका नियम समुदाय तथा समस्त समुदाय इस प्रकार विकसित हो जायं कि जिस अनेकागी अस्तित्व और क्षमताको व्यक्त करनेके लिये उनमे विभिन्नताएँ पैदा की गयी थी उसकी पूरी अभिव्यक्ति हो जाय, साथ ही मानवजातिका एकीकृत जीवन भी इस प्रकार विकसित हो जाय कि सभी अपनी पूर्ण योग्यता और सतोषको प्राप्त कर ले । पर ऐसा वह व्यक्ति या छोटे समुदायके जीवनकी समृद्धिको दबाकर नही पर जिस विभिन्नताको वे विकसित करते है उससे पूरा लाभ उठाते हुए करेगी । मनुष्यजातिके सपूर्ण वैभवको बढाने तथा उसके द्वारा सर्वसामान्यकी सुख-संपत्तिके कोषमे वृद्धि करनेका यही सर्वोत्तम ढग प्रतीत होता है । इस प्रकार मनुष्यजातिका सयुक्त विकास व्यक्ति व्यक्तिके बीच, व्यक्ति और समुदायके बीचे, समुदाय और समुदायके बीच, छोटे जनसमाज और समृची मनुष्यजातिके बीच, मनुष्यजातिके सामान्य जीवन और उसकी चेतनाके बीच तथा उसके स्वतत्र रूपमे विकसित होते हुए सामाजिक और वैयक्तिक अगोके बीच आदान-प्रदान एवं आत्मसात्करणके सामान्य सिद्धांतद्वारा साधित किया जायगा । चाहे अब भी प्रकृति इसी आदान-प्रदानको चलानेकी चेष्टा कर रही है, फिर भी तथ्य यह है कि जीवनका ऐसे स्वतंत्र और समस्वर पारस्परिक सहयोगके सिद्धांतद्वारा परिचालित होना अभी बहुत दूरकी बात है । इसमे संघर्ष है, विचारो, आवेगो और हितोका परस्पर विरोध है, प्रत्येक ही दूसरोके साथ अनेक प्रकारके सघर्प करके लाभ उठानेका प्रयत्न करता है; ऐसा करनेके लिये वह स्वतंत्र और प्रचुर आदान-प्रदानकी अपेक्षा कही अधिक एक प्रकारकी बौद्धिक, प्राणिक और भौतिक चोरी डकैतीका आश्रय लेता है, इतना ही नही, वह अपने साथियोके शोषण, उत्पीडन और भक्षणतककी इच्छा रखता है । अपने सर्वोच्च विचार और अभीप्साकी अवस्थामे मनुष्यजाति यह जानती है कि जीवनके इस पक्षसे उसे ऊपर उठना है, पर या तो उसे इसके ठीक साधनका पता ही नहीं चला और या फिर उसमे इसे प्रयोगमे लानेकी शक्ति नही है । इसके स्थानपर वह अब वैयक्तिक जीवनको कठोरतापूर्वक सामाजिक जीवनके अधीन करके अथवा उसका सेवक बनाकर विकासके सघर्ष और उसकी अव्यवस्थासे मुक्त होना चाहती है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि सामाजिक जीवनको प्रवल रूपसे मानवजातिके सयुक्त और संगठित जीवनके अधीन करके अथवा उसका सेवक बनाकर समाजोके पारस्परिक कलहके निवारणके लिये यत्न करना पडेगा । अव्यवस्था, संघर्ष और विनाशसे त्राण पानेके लिये स्वतत्रताका त्याग, पृथक्त्व और विरोधी जटिलताओसे मुक्त होनेके लिये विभिन्नताका त्याग व्यवस्था और शासनप्रवधकी एक ऐसी प्रेरणा है जिसके द्वारा वौद्धिक तर्ककी स्वच्छद कठोरता प्रकृतिकी क्रियाके कठिन और विषम मार्गीके स्थानपर अपना सीधा मार्ग लानेका प्रयत्न करती हैं । किंतु स्वतंत्रता भी जीवनके लिये उतनी ही आवश्यक है जितने कि विधान और शासन पद्धति; विभिन्नताका भी हमारी सच्ची पूर्णतामें उतना ही स्थान है जितना कि एकताका । सत्ता अपने सार और अपनी समग्रतामें केवल एक है, जब कि अपनी क्रीड़ामे वह आवश्यक रूपसे बहुरूप है । पूर्ण एकरूपताका अर्थ होगा जीवनका अंत, उधर जीवन-धमनीकी शक्ति उन विभिन्नताओकी समृद्धिसे नापी जा सकती है जिन्हें जीवन उत्पन्न करता है । साथ ही, यदि विभिन्नता जीवनकी शक्ति और विपुलताके लिये आव श्यक है तो एकता भी उसकी व्यवस्था, क्रमवद्धता और मुस्थिरताके लिये जरूरी है । एकता तो हमे उत्पन्न करनी है पर एकरूपता उत्पन्न करन उतना आवश्यक नहीं । यदि मनुष्य एक पूर्ण आध्यात्मिक एकता प्राप्त कर सके तो किसी भी एकरूपताकी आवश्यकता नही होगी, क्योंकि तब इस आधारपर विभिन्नताकी चरम क्रीड़ा सुरक्षित रूपमें संभव होगी । माथ ही यदि वह एक सुरक्षित, स्पष्ट और सुदृढ एकता सिद्धातरूपमे चरितार्थ कर सके, तो उसे क्रियान्वित करने में एक समृद्ध यहांतक कि एक असीम विभिन्नता भी प्राप्त की जा सकेगी और उसमे किसी संघर्प, अव्यवस्था या अस्तव्यस्तताका भय भी नहीं होगा। क्योंकि वह इन दोनों बातोमेंसे एक भी नहीं कर सकता, वह सदा सच्ची एकताके स्थानपर एकरूपता लानेके लिये लालायित रहता है । जब कि मनुष्यकी जीवन-शक्ति विभिन्नताकी माँग करती है, उसकी बुद्धि एकरूपताका पक्ष लेती है । वह एकरूपताको इसलिये अधिक पसंद करती है कि यह सच्ची एकताके स्थानपर - जिसे प्राप्त करर्ना अत्यंत कठिन है - मनुष्यके अंदर सहज ही एकताका एक प्रवल भ्रम पैदा कर देती है। वह एकरूपताके पक्षमें इसलिये भी है कि यह उसके लिये विधान, व्यवस्था और शासन-प्रबंधके कार्यको आसान कर देती है जो वैसे कठिन होता है। उसकी पसंदका एक कारण यह भी है कि मनुष्यके मनकी प्रेरणा प्रत्येक अनुभवनीय विभिन्नताको पृथक्त्व और संघर्षका बहाना बना लेती है और इसलिये एकरूपता ही उसे एकत्व प्राप्त करने की एकमात्र सुरक्षित और सुगम पद्धति प्रतीत होती है । इसके अतिरिक्त, जीवनकी किसी एक दिशा या क्षेत्रमे एकरूपता उसे दूसरी दिशाओमें विकास करनेके लिये शक्ति-संचय करनेमें सहायता देती है । यदि वह अपने आर्थिक जीवनको एक नियत रूप देकर उसकी समस्याओसे वच सके तो उसे अपने वौद्धिक और सास्कृतिक विकासकी ओर ध्यान देनेके लिये अधिक अवकाश और अवसर मिल सकता है । अथवा फिर, यदि अथवा फिर, यदि वह अपने समस्त सामाजिक जीवनको भी एक नियत रूप दे दे और साथ ही भविष्यमे प्रकट हो सकनेवाली समस्याओका निराकरण कर दे तो उसे वह शांति और स्वतंत्र मानसिक अवस्था प्राप्त हो सकती है जिससे वह अपने आध्यात्मिक विकासकी ओर अधिक उत्साहपूर्वक ध्यान दे सकेगा । किंतु यहाँ भी सत्ताकी जटिल एकता अपने सत्यका प्रतिपादन करती है, अतमे मनुष्यके समग्र बौद्धिक और सास्कृतिक विकासको सामाजिक निष्क्रियतासे, उसके आर्थिक जीवनकी सीमाओ और हीनतासे हानि उठानी पड़ती है । जातिका आध्यात्मिक जीवन यदि अधिक ऊँचा उठ जाय और एक अत्यधिक नियमबद्ध और अनुशासित समाजपर निर्भर रहने लगे तो अतमे उसका वैभव और उसकी जीवन-शक्तिके अखड स्रोत क्षीण हो जाते है, तमस् नीचेसे उठकर शिखरोतकको जा छूता है । अपनी मनोवृत्तिके दोषोके कारण हमे कुछ हदतक एकरूपताको स्वीकार तो करना पड़ता है तथा उसके लिये प्रयत्न भी करना पड़ता है । फिर भी प्रकृतिका वास्तविक उद्देश्य समृद्ध विभिन्नताको आश्रय देनेवाली सच्ची एकता ही है । उसका गुप्त भेद इस तथ्यसे काफी स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि वह एक ही सामान्य योजनाके अनुसार निर्माण करती है तथापि उसका आग्रह सदा असीम विविधतापर होता है । मानवीय आकृतिकी योजना एक ही है, तथापि कोई भी दो मनुष्य अपनी शारीरिक गठनमे एक समान नही है । मानव प्रकृति अपने उपादानो और अपनी प्रधान दिशाओमे एक है पर किन्ही भी दो मनुष्योका स्वभाव, गुण या मनोवैज्ञानिक तत्त्व ठीक एक जैसा नही है । समस्त जीवन अपनी मूल योजना और सिद्धातमे एक है, यहाँतक कि पौदा भी पशुका सजातीय प्रतीत होता है परंतु जीवनकी एकता प्रतिरूपोकी असीम विविधताको स्वीकार और उत्साहित करती है । मानव-समुदायोका एक-दूसरेसे स्वाभाविक भेद भी उसी योजनाके अनुसार होता है जिसके अनुसार व्यक्तियोमे परस्पर विभिन्नता पायी जाती है । प्रत्येक ही अपना-अपना गुण, विभिन्न सिद्धात और स्वाभाविक नियम विकसित करता है । यह विभेद और मूल रूपसे अपने ही नियमका अनुसरण उसके जीवनके लिये तो आवश्यक है ही, पर मानवजातिके स्वस्थ और समग्र जीवनके लिये भी यह उतना ही आवश्यक है । क्योकि विविधताका सिद्धांत स्वतत्र आदान-प्रदानको नही रोकता और न ही वह एक ही भंडारके द्वारा सबकी और सबके द्वारा उस भंडारकी समृद्धिका विरोध करता है और यही, जैसा कि हम देख चुके हैं, जीवनका आदर्श सिद्धात है। इसके विपरीत, बिना किसी सुरक्षित विविधताके इस प्रकारका आदान-प्रदान और पारस्परिक आत्मसात्करण संभव ही नही होगा । अतएव हम देखते है कि हमारी एकता और हमारी विभिन्नताके समन्वयमे ही हमारे जीवनका गुप्त भेद निहित है। प्रकृति अपने सव कार्यो में एकता और विभिन्नतापर समान रूपसे आग्रह करती है। हम देखेंगे कि सच्ची आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक एकता स्वतंत्र विभिन्नताको तो स्वीकार कर सकती है पर एकरुपता वह केवल उतनी ही रखती है जो स्वभाव और मूल तत्त्वकी समानताको मूर्त रूप देनेके लिये पर्याप्त होती है। जबतक हम उस पूर्णताको नही प्राप्त कर लेते, तबतक हमें एकरूपताकी प्रणालीको व्यवहारमें लाना पडेगा, पर हमें इसके प्रयोगमे अति नही करनी चाहिये, अन्यथा जीवनकी शक्ति, समृद्धि और उसकी स्वस्थ, स्वाभाविक आत्म-अभिव्यक्तिके मूल स्रोतोंके मद पड़नेका भय उपस्थित हो जायगा । विधि और स्वाधीनताका झगड़ा भी इसी प्रकारका है और उसका समाधान भी यही होगा। विभिन्नता अथवा विविधता स्वतंत्रतापूर्ण होनी चाहिये । प्रकृति वस्तुएँ गढ़ती नही, न ही उसका आग्रह किसी बाह्य प्रतिरूप या नियमपर होता है । वह जीवनको अपने अंदरमे विकमिन होने तथा अपने स्वाभाविक नियम और विकासका प्रतिपादन करनेके लिये प्रेरित करती है । जीवनके इस नियम और विकासमें परिवर्तन केवल वातावरणके साथ उसके संबंधसे होता है । वैयक्तिक, राष्ट्रीय, धार्मिक, सामाजिक और नैतिक समस्त प्रकारकी स्वाधीनता हमारे जीवनके मूल सिद्धांतपर आधारित होती है। स्वाधीनतासे हमारा अभिप्राय है अपनी सत्ताके नियमके अनुसार चलना, अपनी स्वाभाविक आत्म-परिपूर्णतातक, विकसित होना और अपने वातावरणके साथ स्वाभाविक और स्वतंत्र रूपये समस्वरता प्राप्त करना । स्वाधीनताका दुरुपयोग स्वाधीनताका दुरुपयोग करनेसे अव्यवस्था, सघर्प, विनाश और अस्तव्यस्तताके रूपमें जो संकट आते है या हानियाँ होती है वे तो प्रत्यक्ष है ही, किंतु ये चीजे इस कारण ऊपर उठती है कि व्यक्ति व्यक्ति, समाज समाजमे, एकताकी भावनाका या तो अभाव होता या उसमें कुछ त्रुटि होती है जो उन्हें पारस्परिक सहायता और आदानप्रदानद्वारा उन्नति करनेके स्थानपर दूसरेको हानि पहुँचाकर भी अपने स्वत्वकी स्थापना करनेके लिये तथा अपने साथियोके स्वतंत्र विकासमें बाधा डालते हुए अपनी स्वतव्रताका समर्थन करनेके लिये प्रेरित करती है। यदि एक वास्तविक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक एकता प्राप्त कर ली जाय तो स्वाधीनतामे न तो कोई सकट रहेगा और न ही उससे कोई हानि होगी, क्योकि एकताप्रिय स्वतंत्र व्यक्तियोको अपने आप ही अपनी आवश्यकतावश इस वातके लिये वाधित होना पड़ेगा कि वे अपने और अपने साथियोके विकासमे पूर्ण समन्वय स्थापित करे और तवतक अपने आपको परिपूर्ण न समझे जवतक दूसरोका भी स्वतन • विकास नही हो जाता । क्योकि हम अभी अपूर्ण है, हमारा मन और सकल्प भी अज्ञानग्रस्त है, वाह्य रोक और दवावके लिये हमे विधि और शासनकी सहायता लेनी पड़ती है । एक सबल विधि और दवावके सहज लाभ तो प्रत्यक्ष है ही, पर हानियाँ भी उतनी ही वड़ी है । जिस पूर्णताको लानेमे यह सफल होती है वह भी पीछे यात्रिक हो जाती है, यहाँतक कि जो व्यवस्था यह स्थापित करती है वह भी अंतमे कृत्रिम सिद्ध होती है और यदि पकड़ ढीली पड़ जाय या नियंत्रण हटा लिया जाय तो वह व्यवस्था टूट भी सकती है । यदि यह बाह्य व्यवस्था अधिक दूरतक ले जायी जाय तो यह स्वाभाविक विकासके उस सिद्धातको जो जीवनको यथार्थ प्रणाली है, निरुत्साहित कर देती है, यहाँतक कि यह वास्तविक विकासकी सामर्थ्यको नष्ट भी कर सकती है । जीवनको दवाने और उसे आवश्यकतासे अधिक नियमित करनेसे हम सकटमे पड़ जाते है। शासन-प्रवधकी अति करनेसे हम प्रकृतिकी प्रेरणा और उसके सहज आत्म-अनुकूलनके स्वभावको कुचल डालते है । नमनीयतासे कम या अधिक वचित निष्प्राण व्यक्तित्व ऊपरसे सुन्दर और सुडौल प्रतीत होनेपर भी अदरसे नष्ट हो जाता है । जो विधि हमारी अपनी नही है या जिसे हमारी सच्ची प्रकृति आत्मसात् नही कर सकती, उसके लगातार बने रहने से तो अराजकता अच्छी है। दवाने या रोकनेवाली प्रत्येक विधि एक उपाय अथवा सच्ची विधिकी स्थानापन्नमात्र होती है; सच्ची विधि तो अदरसे हो विकसित होनी चाहिये, उसे स्वाधीनताका प्रतिबंधक नही, बल्कि उसका वाह्य स्वरूप तथा उसकी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति होना चाहिये । जहाँतक विधि स्वतन्त्रताका शिशु बनकर रहती है, मानव समाज वास्तविक और सजीव रूपमे उन्नति करता है । वह अपनी पूर्णतातक तभी पहुंचेगा जब मनुष्य अपने साथियोके साथ आध्यात्मिक रूपमे एक होना जान लेगा और एक हो जायगा, एवं जब उसके समाजकी सहज विधि केवल उसकी स्व-शासित आंतरिक स्वाधीनताका बाह्य साँचामात्र रह जायगी ।
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सबसे आग्रह था कथा के श्रवण हेतु ऊंच-नीच, धनी-निर्धन, पंडित-अपढ़ का कोई भेद नहीं. सब समकक्ष हो कर श्रवण करें. उछाह भरे प्रजा- जन उमड़ आये. सम्राट् को अपने पास, समान आसन पर पा कर अभिभूत हो गये. सबकी सुख-सुविधा हेतु चारों भाई सजग हैं, कोई किसी को बता रहा है -' इस आयोजन में भोग हेतु प्रसाद साम्राज्ञी को स्वयं बनाना है ' विस्मय से सुनते हैं लोग. व्यास देव की मनोरम शैली, श्रोताओं का औत्सुक्य - क्या सुन्दर ताल-मेल! युद्ध की विभीषिका ने आर्यावर्त की धरती पहले ही वीरों से विहीन कर दी, अनेक महान् वंश समाप्त हो गये. माँ और पितामही, की बातों से जो जाना है युवराज ने आज कथा-क्रम में सब सुन रहे हैं. यदुकुल के लोगों का बहुत स्नेह पाया परीक्षित ने, उनके वार्तालाप से लाभान्वित होता रहा है, बोले, ' हाँ,मुझे ज्ञात है, कृतवर्मा पितामह को बहुत दुख रहा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया. ' 'जाने दो पुत्र,उनकी बातें उनके साथ गईँ. ' 'परीक्षित को जन के सम्मुख उपस्थित कर उसकी पात्रता सिद्ध करने का समय आ गया है. उसे ही शासन सूत्र सँभालने हैं. यहाँ की स्थितियों से परिचित होता चले. ' भावी राजमाता है उत्तरा. अपने सामने ही सब से परिचित कराना उचित होगा. तब युधिष्ठिर ने संशय किया था, ' धार्मिक कार्यों में राजनीतिक उद्देश्य जोड़ना,. . . . ' 'राजनीति ? कौन सी नीति हो रही है यहाँ ? हमारा कर्तव्य,हमारा धर्म. राजा-प्रजा में सामंजस्य का प्रयास, परस्पर सद्भावना और समझ उत्पन्न करने का, इसमें राजनीति कहाँ से आ गई ? ' व्यास बोले थे, वाचक के आसन पर पर बैठ कर पोथी नहीं जीवन के अध्याय खुलते हैं. सत्य-वाचन किये बिना कैसे रहा जा सकता है. धर्म वैयक्तिक जीवन के साथ समाज को भी साधता है. लोक को जानना ही उचित है कि वह किस ओर जा रहा है,' परिवार के सदस्य भागवत श्रवण करेंगे. उपस्थित जन से संपर्क तो होना ही है. ' पार्थ बोले,'सही है. उसके जन्म का वृत्तान्त जान लें सारे जन. जीवन की आपाधापी में किसे याद होंगी वे पुरानी घटनायें ? ' क्या-क्या घट चुका अपने उस इतिहास को यह पीढ़ी समझ ले. ' पांचाली स्वयं स्वागत करती है, आवश्यक शिष्टाचार का निर्वाह करती है. कोई संकुचित न हो कहती है,' मेरे बाँधव कृष्ण ने स्वयं अतिथियों के जूठे पात्र उठाये थे,और आप तो भागवत-कथा का श्रवण कर रहे हैं - मेरे आदरणीय हैं. ' गद्गद् हो जाते हैं जन. गद्दी पर आसीन महर्षि व्यास ,कथा के बीच स्पष्ट करते हैं, ब्रह्मास्त्र से कोई बच नहीं पाया आज तक. पर श्रीकृष्ण ने देवी उत्तरा के गर्भस्थ शिशु की रक्षा की अपने सत और तप से की. यही है वह परीक्षित. आपके सम्मुख. ' मर्मर ध्वनि उठती है -'परीक्षित ? ' 'पुत्र सम्मुख आओ, ये सब तुम्हारे अपने, मिलो इनसे!' कितना सुदर्शन, गौर वर्ण युवक! वह,शीष झुका कर, कर जोड़ देता है 'आप सब मेरा प्रणाम स्वीकारें!' हर्ष की लहर दौड़ जाती है. पांचाली ने पौत्र का सिर सूंघा, हृदय से लगा लिया, वात्सल्य उमड़ पड़ा. उत्तरा के पुत्र में कृष्ण और पार्थ दोनों की झलक पा ली . अपने पुत्र के संपर्क से पयोधर उमड़ आये हों ज्यों, वही अनुभूति परीक्षित को पहली बार गोद में लेने पर जाग उठी थी, वही अनुभव दुहरा आया अपने सजल होते नेत्रों को छिपा गई वह. अभी ऊँचे-पूरे युवक-पौत्र को निहार अंतर उसी भाव से भर उठा. मेरी ही टोक न लग जाय कहीं. उसने दृष्टि-दिशा बदल दी. 'वत्स तुम्हारे पिता के मामा-श्री के तप और सत् से आज तुम हमारे सामने हो. नहीं तो हमारा वंश ही डूब गया था. प्रयत्न करना उनके शुभ्र चरित्र पर कोई आँच न आये. ' 'आपका आशीष साथ रहे, पितामही. ' सब देख रहे हैं दक्षिण बाहु पर यह नील-लोहित चिह्न - यह क्या ? 'हाँ, और हृदय के समीप भी. जैसे उस समय की मुद्रा में था, अस्त्र शिशु के हृदय में प्रविष्ट हुआ हो. ' किसी की उत्सुकता जागी है. 'तुम्हें क्या अनुभव हुआ था वत्स, उस समय ? " कुछ स्मरण करता-सा बोला, ' बहुत धुँधली स्मृति. अभी भी कँपा देती है! इतना तीव्र ताप जैसे पल में वाष्प कण बन जाऊँगा. तभी कानों में कुछ ध्वनित होने लगा. लगा मेरे चारों ओर अत्यंत वेग से कुछ घूम रहा है- घनघनाता चक्कर काट रहा. इतना समीप कि अभी स्पर्श कर लेगा. . . . हाँ, फिर ताप घटने लगा,' कहते-कहते उसकी वह बाँह हिल गई, ' यहाँ तीव्र पीड़ा, असहनीय. अभी भी लगता है जैसे सनसनाहट हो रही हो. तब भी यह बाँह काँपी थी फिर माँ के कर का स्पर्श अनुभव किया,' उसने समीप बैठी राजवधू उत्तरा की ओर देखा, ' माँ ने मेरे उदर पर अपना हाथ धरा था. कुछ निश्चेष्ट सा हो गया मैं. धीरे-धीरे शीतलता व्यापने लगी. . आगे कुछ याद नहीं. ' महिलाओं के समूह में किसी ने उत्तरा से सहानुभूति प्रकट की, ' इन्हें कैसा लगा होगा उस समय, हे भगवान!' 'पुत्री, तुम पर क्या बीती होगी!' सुभद्रा पास खिसक आईं आश्वस्त करती बोलीं. 'कुछ बोलोगी, वत्से ? कहने-सुनने से हृदय का भार हल्का हो जाता है. ' कुछ क्षण सिर झुका रहा, मुख पर कुछ भाव आये-गये, जैसे स्वयं में कुछ समेट रही हो. बोली उत्तरा,' हाँ, मुझे लगा अचानक एक भयंकर ताप मेरे उदर को दग्ध करने लगा, इतनी व्याकुल हो गई. . . हाथ उदर पर धर लिया, मुख से चीत्कार निकल गया तभी जैसे किसी ने कहा हो, चेत मत खोना वधू, परीक्षा का समय है, अचेत हुईं कि गर्भस्थ पुत्र गया. . ' और मैं दूसरे हाथ से अपनी देह नखों से खरोंचने लगी कि इस पीड़ा के आगे वह ताप ध्यान न आये,. ' मुझे याद आ गया, माँ की अनजाने में उस निद्रा से कितना बड़ा अनर्थ हो गया था. ' दृष्टियाँ सुभद्रा की ओर चली गईं. उन्होंने ने सिर हिलाया. विशाल कक्ष. अपार जन-समुदाय. वधू का मृदुल-सा स्वर एक सीमा तक ही पहुँच रहा था, पर विलक्षण शान्ति. स्तंभित से हो गये थे सब. 'ओह, कैसे बीता वह समय? जैसे क्षण-क्षण कोई शत-शत अग्नियों से दहा रहा हो. जैसे पल भर में वाष्प में बदल जाऊँगी. कैसा दारुण, विष-बुझे सैकड़ों तीरों के चुभन की पीड़ा. असह्य! ओह. ' स्मृति-मात्र से वह कंपित हो उठी थी. 'बस, बस, अब कुछ मत बोलो,' 'मत याद दिलाओ उन्हें उस दारुण क्षण की. अंत भला सो सब भला! नारियाँ चर्चा कर रहीं थीं, 'चेत बनाये रखा फिर भी. . ' कोई कह रहा था. . 'सुख और आनन्द के सब भागीदार, दारुण पीड़ा और जतन केवल माँ का भोग. ' वह फिर भी कहती रही, कुछ क्षण और, कुछ क्षण और. पर मुझे लगता पता नहीं समय कितना लंबा खिंच रहा है. और फिर, मैं एकाग्र होने लगी. ध्यान केन्द्रित हो गया . ताप का भान भूल गई. उन्होंने कहा ', बस, शान्त हो,सो जाओ पुत्री. ' और मैं विचित्र निद्रा में लीन हो गई. लगता रहा अमिय-कणों की फुहार रह-रह कर दग्ध तन को शीतल कर रही है. . ' 'जब जागी तो उदर पर एक ऐसा ही नील-लोहित व्रण था जो बाद में चिह्न शेष रह गया. . ' सुभद्रा बोलीं, उनकी अभिभूत दृष्टि वधू के सुकुमार मुख पर. पांचाली करुणा से भरी चुप देखती रहीं. पार्थ की नेह-भीगी दृष्टि का अनुभव हो रहा है उसे. उनके शब्द शीतलता का प्रलेप करते हैं. . 'उत्तरे, मैने प्रारंभ से तुम्हें पुत्रीवत् माना. तुम्हें नृत्य की शिक्षा देने में उसी वत्सल-आनन्द का अनुभव किया. वैसा ही स्नेह बहिन दुःशला के लिये मेरे हृदय में था. ' तभी तो मुझे अपने पुत्र के लिये स्वीकारा सोच कर तप्त हृदय शीतल हो गया. जनार्दन की भागिनेय-वधू, उत्तरा के नैन भर आये. उस विशाल सभागार में कितने नेत्र सजल हो उठे थे. पांचाली भी जानती है, दुःशला के प्रति कितना ममत्व था पार्थ के हृदय में - और वह भी इन पर अपना विशेष अधिकार समझती थी. तभी वन में जब जयद्रथ ने उसका हरण किया तो उसे जीवित छोड़ दिया कि बहिन विधवा न हो जाय. भावाकुल होकर श्वसुर के हृदय से आ लगी उत्तरा. ' इस घोर दुख में आप दोनों का ही सहारा. नहीं तो कौन बचा है मेरा!' कृष्ण-भगिनी सुभद्रा सामने खड़ी हैं, भाई का मुख झलकता है व्यवहार झलकता है उनके हर विन्यास में. 'ऐसा न कहो पुत्री,' पांचाली ने शीष पर हाथ धर दिया, ' यह सभी तुम्हारा है!'. बीच-बीच में होनेवाला ऐसा कथान्तर व्यास की कथा में व्यवधान नहीं, उसका प्रत्यक्षीकरण लगता है. अतिप्राकृतिक अस्त्रों का प्रयोग धरती का अंतस्थल दहला गये, उर्वरता रूखी रेत बन गई. महा-समर का अपशिष्ट सरस्वती और उसकी सहयोगिनी सरिताओं में विसर्जित कर दिया गया था, पोषण के स्थान पर दूषणदायी हो गया सारा जल!' कोई बोल उठा, 'अब कहाँ जल? संपूर्ण वैदिक संस्कृति को जन्म से पोषण देने वाली सदानीरा सरस्वती में जल बचा ही कहाँ!' 'जल कहाँ, अब केवल कीच और विषम गंध!' दूसरा स्वर, 'पशु-पक्षी आते हैं, बिना पिये लौट जाते हैं. ' कहाँ हो रे, अश्वत्थामा! आओ देखो. ये परिणाम कहाँ तक चला आया. और आगे कहाँ तक पहुँचेगा! शताब्दियों की अनवरत साधना ने जो उपलब्ध किया था, उत्तेजना के एक पल ने चौपट कर दिया! कैसे आदिबद्री समीपस्थ हिमनद से प्रारंभ नदीतमा की प्रभास क्षेत्र तक की अथाह जल-यात्रा इसी अहंकारी अतिचार के महादानव ने पी डाली. विस्तीर्ण, वनस्पति-सघन, खग-मृगाकीर्ण प्रदेश रुक्ष मरुथल बन कर रह गया. तटवर्ती आश्रम ध्वस्त, निर्जन पड़े हैं- ज्ञान का प्रसार कहाँ से हो? चिन्तक मनीषियों और तपस्वियों के बिना वैदिक संस्कृति और सभ्यता लुप्त प्राय है. ज्ञान-विज्ञान की धारायें सूखी जा रही हैं ' आँखों देखा सच है -लोग सिर हिलाते हैं. 'सब इस युद्ध के कारण, जो हम पर थोपा गया. ' 'अति हो गई थी,' सबको लगता है. परित्राण के लिये जो हुआ, वह होना ही था. उसी का तो परिणाम है - यज्ञों की व्यवस्था विस्मृत हो गई. लोग वेदों का शुद्ध उच्चारण भूल गये, मंत्रों का दिव्य प्रभाव क्षीण हो गया. केवल दक्षिणा का लोभ रह गया. दयनीय अर्थ-व्यवस्था एवं आर्थिक और सामरिक दृष्टि से दुर्बल आर्यावर्त को विदेशी आँखें टटोलने लगीं. आदर्शों के भव्य-प्रासाद ढह गये थे. उतार पर आ था गया सब. एक संपूर्ण सभ्यता-संस्कृति को निरंतर जीवन-ऊर्जा से सींचती सरस्वती अब कहां है? उन्नति के शीर्ष पर पहुँची वैदिक संस्कृति के पतन का काल बन गया यह युग, जिसमें दुष्कृतियों को हत करने के लिये कितनी सीमायें पार करनी पड़ीं. ' वर्तमान सम्राट् ने भावी सम्राट् से कहा, 'वत्स, सत्य को जान लो, जनार्दन की छाया में रहे हो. . . तुमसे बहुत आशायें हैं जन को. ' 'मामामह ने मेरे बोधों को जाग्रत कर दिया है, पूज्य. अश्वारोहण द्वारा विविध स्थानों का भ्रमण करवाते थे वे, कि अपनी आँखों से देख लूँ. ' पार्थ ने कृतज्ञ दृष्टि सुभद्रा पर डाली, 'सुभद्रे, तुम्हारे भ्राता बड़े नीतिज्ञ थे. कितने आगे तक की सोच गये. ' 'दाऊ जितने सहज विश्वासी रहे, मोहन भैया को कोई चरा नहीं सका,' उसने अपना अनुभव कह डाला. . परीक्षित बोल उठा,' 'महान् नीतिज्ञ माना है, तो फिर उनके दृष्टान्त ही आगे मार्ग दिखायेंगे. ' युधिष्ठिर का विश्वास मुखर हुआ,' मुझे विश्वास हो गया वत्स, तुम इस राज्य के योग्य उत्तराधिकारी हो. ' 'तात, आपका मार्ग-दर्शन और आशीष पाता रहूँ. प्रयत्नशील रहूँगा. ' सुभद्रा पुलक उठी. सब ने संतोष से देखा. ऐसा लगता था जैसे श्रीमद्भागवत का साक्षात निरूपण हो रहा हो. 'वे स्वर्णिम दिवस सदा को लुप्त हो गये ? ' एक चिन्तित स्वर उठा. 'सदा को कुछ लुप्त नहीं होता, वत्स. समय का चक्र, और कर्म तुम्हारे!' आरती हेतु, रजत पात्र में पातों का द्रोण धर कर कर्पूर की जोत जगाने लगे थे महर्षि द्वैपायन. सुगंधों से गमकते प्रसाद के बड़े-बड़े गंगाल सेवकों ने लाकर रख रख दिये- साम्राज्ञी के करों से निर्मित भोग! सब की उत्सुक दृष्टियाँ उधर घूम गईँ. कहते हैं - जिस मानसिकता से पाक हो, भोक्ता में तदनुकूल भाव का परिपाक अनायास हो जाता है! सात दिन की भागवत-कथा. सात दिन आचार-विचार से शुद्ध रहने का संकल्प! हृदयों का संस्कार हो रहा है. ये सात दिवस, वर्ष भर अपना शुभ-प्रभाव बना रखेंगे. सात्विकता आंशिक स्वभाव बन जायेगी. इतने समय पुनीत मनोमयता की यह डूब, कितनी दूषित भावनाओं का शमन करेगी, धीरे-धीरे वही सात्विकता, स्वभाव में परिणत होने लगेगी. 'सारे जीवन तपे थे वे, संसार को सुन्दरतर बनाने के लिये. उनके संदेश हम जीवन में उतार लें तो विश्व का कल्याण संभव है!' अभिभूत है नर-नारी. जैसे भागवत के अध्यायों का साक्षात् प्रत्यक्षीकरण देख रहे हों! सकारात्मक ऊर्जायें जन-मानस में नव-चेतना संचरित करने लगीं थीं. परीक्षित का राज्याभिषेक धूम-धाम से संपन्न हो गया. मणिपुर नरेश और कौरव्य नाग के परिवारों का समर्थन था ही, उलूपी और चित्रांगदा के साथ सभी पांडव-बंधुओं की अन्य पत्नियों के परिवार भी सादर आमंत्रित थे. सबका समुचित सत्कार किया था पांचाली ने. पौत्र को निर्देश दिया था इस विस्तृत परिवार की शाखायें अलग जा कर भी परस्पर जुड़ी रहें, अपने मूल से संबद्ध रहें. एक दूसरे की संपद्-विपद् में सहयोगी बनी रहें. आस-विश्वास का संबंध कभी न टूटे. परीक्षा की घड़ियों में एक दूसरे को साध कर ही वे अपना अस्तित्व बनाये रख सकते हैं. पितामही के रूप में सभी संततियों को नेह से सींचती रही थी वह. पर भीतर ही भीतर एक विरक्ति घेरती जा रही थी. कभी जब अकेली होती, चुपचाप बैठी कुछ सोचती रह जाती. परम मीत चला गया,मन उमड़ आता है किससे कुछ कहे. बार-बार उसके शब्द कानों में झंकारने लगते हैं. वह उपस्थित हो कर भी वर्तमान में नहीं रह जाती. ऐसी अन्यमनस्कता देख, पार्थ ने पूछा था, ' प्रिये, सबसे तटस्थ होती जा रही हो, सबसे विच्छिन्न- सी. क्या हुआ तुम्हें ? ' 'पार्थ, अब मन उचाट हो गया. कितना लंबा जीवन जी लिया, कैसी-कैसी विचित्र स्थितियाँ घेरती रहीं. . . ' 'जो बीत गया सो गया उस पर क्या सोचना. ' आगे भी क्या है- कहना चाहती थी पर कहते-कहते रुक गई. समारोह समाप्ति के पश्चात् एक खालीपन पसर गया था, जैसे खुमार उतर जाने के बाद अवसन्न-सी विरक्ति तन-मन को घेर ले. आगे कुछ करने को नहीं रहा. प्रिय सखा के प्रस्थान के बाद पार्थ का व्यक्तित्व भी बदला-बदला लगता है. तेजस्वी धनंजयका वह सव्यसाची रूप उदासीनता के आवरण से ढँक गया. युद्ध के बाद के घटना-क्रम ने हृदय में स्थाई ग्लानि-भाव की छाया डाल दी. नकुल-सहदेव के लिये कोई क्षेत्र नहीं बचा, हाँ अपने को लगा सकें. अवस्था में छोटे होने पर भी वार्धक्य का प्रभाव उन पर कम नहीं था. नित्यसुन्दरी, चिर-यौवना, पांचाली अपने आप में सिमटी हुई - जीवन की सारी रुचियाँ, सारे चाव हवा हो गये. उसे देख कर लगता जैसे कोई मनोरम चित्र मन को भाये पर थिरता में थम जीवन्तता का बोध गुम जाये. ' भीम का वेग शान्त पड़ गया, युधिष्ठिर की धर्म और नीति की दमक को तो तभी से ग्रहण लग गया था जब बर्बरीक ने औचित्य पर प्रश्न उठाया था. रही-सही कमी कर्ण के वृत्तान्त ने पूरी कर दी. पांडव -बंधुओं को लगने लगा कि अब यहाँ उनका कोई काम नहीं. योग्य उत्तराधिकारी सब सँभाल लेगा. युगान्तर के आचार-विचार में आया परिवर्तन कभी-कभी उनके वार्तालाप का विषय बन जाता था. 'आगे क्या' का प्रश्न सिर उठाने लगा. वेदव्यास के शब्द याद आये, 'हमारी नीति-अनीति हमारे साथ! अब नई पीढ़ी को अपने समय के साथ जीने दो. काल-कथा की नई भूमिकाओं में नये पात्रों का आगमन, पुरानों का पृष्ठभूमि में पदार्पण; यही जीवन का क्रम है. . . ' सब गहन सोच में पड़े रहे, किन्तु समाधान खोजना ही था. और उन्होंने निश्चय किया कि अब यहाँ से प्रस्थान करना ही उचित है, पूरा प्रबंध करने के पश्चात् परीक्षित को समझा-बुझा कर उन्होने सुभद्रा और उत्तरा को प्रबोधित किया, पुत्र के गृहस्थाश्रम में प्रवेश हेतु परामर्श दिया. पांचाली ने उत्तर नरेश की पुत्री इरावती के साथ पौत्र के विवाह हेतु अपना मत प्रकट कर दिया. प्रस्थान की पूर्व-संध्या वे प्रणाम करने महर्षि व्यास के आश्रम गये. स्नेह से आसन दे समुचित सत्कार किया उन्होंने. प्रस्थान की बात जान कर बोले,' उचित है. सारे कार्य संपन्न कर चुके, तुम्हारा निर्णय सर्वथा उचित है. ' कुछ रुक कर उन्होंने कहा, ' अब तक के सांसारिक संबंध अब नहीं, सब समानरूपेण स्वतंत्र हैं. किसी पर किसी का अधिकार नहीं. ' उन्होंने युधिष्ठिर की ओर देखा था. 'सब अपने निजत्व में रमें, सबका व्यक्तित्व अपने ही स्व के अधीन रहे. ' बिदा समय साथ हो लिये थे वे, आश्रम-द्वार पर रुक कर खड़े हो गये. 'जाओ वत्स, पंथ कल्याणमय हो तुम्हारा! अब पीछे लौट कर मत देखना. ' पीछे खड़े वे उन्हें जाते हुये निहारते रहे. श्वेत श्मश्रुओं और रजत भौंहों के नीचे किंचित ढके नेत्र अर्ध निमीलित हो उठे थे. और फिर प्रस्थान की बेला आ गई. नगर-सीमा के आगे, जहाँ तक संभव हो सके, रथारूढ़ रहें - परीक्षित का अनुरोध था. प्रजाजनों और परिजनो के उद्गारों से, चलते समय व्यवधान न पड़े, वे शान्ति से गृह त्याग सकें इसलिये रात्रि की सुनसान, अंतिम बेला में पाँचो पांडव द्रौपदी के साथ उत्तर- यात्रा पर चल पड़े. जीवन भर संघर्ष से थके प्राणी! अंत में विजय मिली, पर उसके लिये क्या-क्या मूल्य चुकाना पड़ा! अपने दुष्कृतों के प्रायश्चित हेतु हिमालय की देव-धरा पर जा कर साधना करने का विचार मन में पाले, वे निरंतर बढ़ते गये. जीवन में दीर्घकाल तक वनवासी रहे उन छः जनों के लिये पर्वत के तल-तक चलते जाना कोई बड़ी बात नहीं थी. गिरि पर आरोहण का श्रम या अपने आप में डूबे, वे अधिक तर मौन ही चलते जा रहे थे. बीच-बीच में कुछ वार्तालाप हो जाता था. 'कितना गहन वन. 'पांचाली बोल उठी, ' यहाँ तो वन्य-जीव रहते होंगे?" अर्जुन आगे बढ़ आये, 'हाँ छोटे-बड़े सब. यहीं तो वन-शूकर के कारण भगवान पशुपति से झड़प हुई थी मेरी, और फिर पाशुपत अस्त्र की प्राप्ति.' पार्थ के चले हुये रास्ते हैं ये, इधर ही तपस्या करने इन्द्रकील पर्वत पर आये थे. अपने अनुभव बताने लगते है. दोनों छोटे, कुछ कह-सुन कर परस्पर मन बहला लेते हैं. वे भी चर्चा में सम्मिलित हो गये. हिमालय के भव्य और दिव्य परिवेश में आगे और आगे, ऊँचाइयों पर चढने लगे वे. पर्वत के शिखरों का विस्तृत क्रम प्रारंभ हो चुका था. युधिष्ठिर चुप चल रहे हैं, यों भी मौन ही रहते आये थे, उनकी विचार-लीनता स्वाभाविक लग रही है. वेद व्यास के कथन बार-बार स्मरण हो आते हैं. 'यह मात्र बाहरी यात्रा नहीं, एकान्त अंतर-यात्रा भी हो, जो मन के गहन से परिचित कराये!' आशीष था, या वानप्रस्थ के लिये संदेश? उन्होंने कहा था -' किसी का किसी पर अधिकार नहीं ' युधिष्ठिर को लग रहा है उन्हीं के लिये कहा. और तो किसी ने किसी को कहीं अटकाया नहीं...मैंने ही कितनी बार...और द्यूत में. भी...सोचा था केवल क्रीड़ा है, पर कहाँ रहा था वहाँ मनोरंजन! एक दुरभिसंधि थी जैसे.., मनोमालिन्य ही बढ़ा, एक बार नहीं बार-बार...' पश्चाताप से भर उठे. 'स्वयं को धिक्कारते-से पग बढ़ाये जा रहे हैं. अनुज-वधू थी. कैसे प्रस्तुत किया मैंने, माँ का उत्तर जानता था, ओह, मन का सच! मुझे लगता था सबसे बड़ा हूँ, सब नीतिज्ञ मानते हैं मुझे! जो करूँगा परिस्थितियों के अनुसार उचित कहलायेगा. उस दिन बर्बरीक ने झटक दिये सारे आवरण! और अब स्वयं से सामना! 'बहुत अकार्य कर डाले हैं, तब विचार नहीं किया... अब पश्चाताप ही शेष रहा..' 'जीवन भर जो करना पड़ा, अपनी समझ भर किया, अब सारी गठरी ही सौंप आई तो अपना क्या? रिक्त हूँ! उस सबसे मुक्त हूँ...' धर्मराज क्या कहें! वही कहती रही. 'देख रही हूँ चारों ओर का असीम विस्तार, डूब जाती हूँ इस में..' 'तुम नारी हो सहज समर्पित हो सकती हो. हमारा अहं, हमारा कर्तृ-भाव हमें जगाये रखता है.' 'हर पुरुष में एक नारी निहित है, उससे बचता रहता है, पर, उससे भिन्न हो कर वह रिक्त रह जाता है, बस अपने भीतर उसे जगा रहा हूँ. उससे समन्वित हो कर संभव है यह कोलाहल शान्त हो जाये, अंतर की उद्विग्नता से मुक्ति मिल जाये. अब तक उसे दबाता रहा अपने अहं में उसे सुना नहीं. पर अब उसके बिना निस्तार नहीं. साधना के पथ में केवल पुरुष होना पर्याप्त नहीं. यह पुरुष-भाव कहीं समर्पित होने नहीं देगा. .उस निष्ठा, उस विश्वास और समर्पण के बिना अध्यात्म का मार्ग खुलेगा नहीं.' सब मौन सुनते रहे. 'आज मैं समझ पाया, सारे संबंध सामाजिकता और सांसारिकता के निर्वाह हेतु जुड़ते हैं प्रत्येक का व्यक्तित्व अक्षुण्ण रहे यही उचित है.' 'संबंधों को भावना मधुर बनाती है बुद्धि या तर्क तो.., ' सबको अपनी ओर देखते पा सहदेव सकुचा कर बीच में ही चुप हो गये. नकुल ने जोड़ा, 'बौद्धिकता से पूरा नहीं पड़ता, भावना की फुहार बिना लगाव कैसे विकसे! और कहते हैं, सात जनम का बंधन होता है...' भीम, चुप न रह सके, '.हे भगवान, सात जनम ! एक को ही ईमानदारी से निभा दे....' पांचाली कैसे चुप रहती, ' सात जनम वही सारे पति..नहीं रे, नहीं, सोच कर ही जान सूख जाती है.' फिर स्पष्ट करने लगी -'नहीं, ऐसा नहीं, जनार्दन ने कहा था, ये नहीं होता कि पति, पति ही हो या पुत्र, पुत्र ही हो., बंधु, भगिनी पिता कुछ भी. जन्म लेंगे, मिलेंगे संस्कारवश.' सहदेव ने एक और मोड़ दिया, ' सात जन्मों की बात है तो ऐसा होता होगा कि इस जन्म में जो पति बन कर सेवा-समर्पण ले, अगले में वह उसी की पत्नी बन कर उसका उधार चुकाये.' सब हँस पड़े. 'तुम भी इतने ज्ञानी नहीं रहोगे.' 'पांचाली, तुमसे कब जीता मैं?' भीम का प्रश्न, 'फिर सात जनम क्यों?' 'जिसमें तुम जैसे लोग एक दूसरे के अनुकूल होने के प्रयास करते रहें, विमुख न हों.' चैन की सांस ली भीम ने, 'वही तो मैं कहूँ..' 'क्यों हिडिंबा भाभी का ध्यान आ गया?' सबकी विनोदभरी दृष्टियाँ भीम पर. 'वे अगले जनम में नया रूप लेंगी, अपने संस्कारों के अनुरूप. क्यों भीम के पीछे पड़े हो! तुम भी नकुल, आवश्यक नहीं कि इतने सुन्दर ही बने आओ. सदा करेणुका से तुलना करते रहते हो.' कुछ खिसियाता सा बोला, 'तुमसे तो नहीं करता न!' युधिष्ठिर सुन रहे थे अब तक, बोल उठे, 'अब यहाँ वे सब चर्चायें नहीं करनी चाहियें.' 'भइया, हम तो केवल हँस बोल रहे हैं, मन से कोई लिप्त नहीं.' आरोहण का क्रम जारी रहा. भयंकर शीत, पग-पग पर धमकाती उद्दंड हवायें, पल-पल विचलित करती, जीवनी-शक्ति खींचे ले रही हैं. लड़खड़ाते, एक दूसरे को सहारा देते बढ़े जा रहे हैं धीरे-धीरे! सर्वप्रथम द्रौपदी की सहनशक्ति ने जवाब दे दिया. अग्नि-संभवा पांचाली जीवन भर ताप झेलती रही. उसके जीवन का उपसंहार हो रहा था, चिर-शीतल हिम-शिखरों के बीच. गिर पड़ी द्रौपदी. द्रुत गति से अर्जुन आगे बढ़े. वही लाए थे उसे, कितने चाव से भरे, अपने पौरुष की परीक्षा देकर. प्रिया को अंतिम क्षणों में बाँहों का सहारा देने आगे आए. "नहीं.' युधिष्ठिर ने रोक दिया. 'अब उसे किसी की आवश्यकता नहीं बंधु, उस ओर अकेले ही जाना है.' जिस नारी ने जीवन भर हमारा साथ दिया आज हम उसके लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं. क्या कभी कुछ कर पाए? आज भी इतने विवश क्यों हैं- पार्थ का हृदय विकल हो उठा. द्रौपदी ने क्षण भर को नेत्र खोले. पाँचो पर दृष्टिपात किया, अर्जुन पर आँख कुछ टिकी - जैसे बिदा मांग रही हो. बहुत धीमें बोल फूटे, ' हे कृष्ण, गोविंद, माधव, मुरारे... ' जाने कहाँ से एक मोरपंख याज्ञसेनी के समीप आ गिरा. देखा उसने, ईषत् हास्य अधरों पर खेला और जीवन भर जलनेवाली वह वर्तिका शान्त हो गई. भीम के आगे बढते पग थम गए, धम्म से वहीं बैठ गए. नकुल, सहदेव स्तब्ध. अर्जुन ने आँसू छिपा लिए. युधिष्ठिर स्थिर हैं. कुछ क्षण देखते रहे एकदम चुप, अगम से. फिर बोले, ' कहीं रुकना नहीं है अब कुछ नहीं है यहाँ, बस, चलो आगे!' अर्जुन कह रहे थे, '..अब तक उसमें प्राण थे, वह सबका हिस्सा थी. अब निर्जीव है किसी की नहीं रही. अब केवल मेरी, ' व्याकुल हृदय आज हर मर्यादा भूल गया, ' नित्ययौवना, याज्ञसेनी, छोड़ कर अभी मत जाओ.. मैं जीवन भर भटकता रहा...कहाँ रह पाया तुम्हारे साथ. रुक जाओ, पांचाली मत जाओ..! ' देखते रहे उस निष्चेष्ट देह को. झुक आये उसकी ओर, 'ओ पांचाली, थक गई तू, नहीं झेल पाई, चली गई तू..' वहीं बैठे रहे अर्जुन, पांचाली के शान्त निर्विकार श्यामल मुख को निष्पलक ताकते. 'वह किसी की नहीं. केवल मेरी. सब जाओ अब. मैं देख लूँगा..' सारे भाई शोकाकुल विमूढ़! युधिष्ठिर आगे बढ़े, 'अब कुछ देखने को नहीं बचा. पागल हुये हो बंधु, अब पांचाली कहाँ! मृत देह, माटी,. मोह छोड़ो, उठो.' अर्जुन ने सुना कि नहीं सुना? 'वह सौभाग्यशालिनी थी, चली गई.' कुछ रुक कर बोले युधिष्ठिर, 'हमें भी उसी राह जाना है. रुकना नहीं है अब, उठो बंधु, उठो.' भीम को संकेत किया, वे अनुज को हाथ पकड़ उठाने लगे. अर्जुन विवश यंत्र-चालित-से उठे. भीम और युधिष्ठिर ने बीच में ले लिया. युधिष्ठिर ने कुछ विचार कर सीधे आगे न बढ़ कर, चढ़ाव के घूम पर मोड़ की ओर पग बढ़ाये, बंधु साथ देते रहे, अचानक लौट पड़े अर्जुन. बड़े पांडव ने टेरा, ' कहाँ, कहाँ जा रहे हो, बंधु?.' कोई उत्तर नहीं. पार्थ बिना कुछ बोले चलते रहे. पांचाली की देह के निकट पहुँचे. जा कर अर्जुन ने अपना उत्तरीय उतारा और झुक कर पत्नी की देह आवरित करने लगे. 'बंधु, अब उसे शीत-ताप कुछ नहीं व्यापेगा.' युधिष्ठिर पीछे चले आये थे. पार्थ नहीं मान सके अग्रज का तर्क, जीवन भर पाले गये अनुशासन भंग हो गये, 'उत्तरदायी मैं हूँ, पितृगृह से उसे अर्धांगिनी बनाने को मैं लाया था, दायित्व मेरा था. क्या किया मैंने उसके साथ? जब वह पूछेगी, मुझे अनावृत्त कैसे भेज दिया तुमने? मैं क्या कहूँगा...' युधिष्ठिर ने कुछ कहा. शब्द उनके कानों तक नहीं पहुँचे. उनके हाथ ठिठक गये, दृष्टि उस चिर -परिचित मुख पर टिक गई, नील-कमल की सुपरिचित गंध कुछ देर चतुर्दिक मँडरा कर वायु-मंडल में विलीन हो गई. 'पांचाली, तुम समर्पित रहीं. जीवन भर किसी को अपना माध्यम नही बनाया. अंत में स्वयं को विसर्जित कर दिया. मैं अधिकार-भावना से ग्रस्त रहा, पांचाली ने निःस्व-भाव में स्वयं को ढाल लिया था. तुम्हारी साधना तक हम कहाँ पहुँचे? हमारी यात्रा अभी शेष है.' भाइयों से बोले 'माधव की शरण में रही, उसकी मुक्ति सर्व प्रथम होनी ही थी.' बहुत अस्पष्ट थे स्वर - 'और मेरी, संभवतः सबसे बाद!' किरीटी ने वह देह यत्न-पूर्वक ढाँक दी. 'वह जीवित थी तब तक सबका अधिकार था. अब वह नहीं है, यह देह-मात्र, वह केवल मेरी. कोई लज्जा नहीं अब. अंतिम बिदा लेने में कोई आड़े नहीं आ सकता.' 'जाता हूँ प्रिये, जीवन भर भागता रहा, तुम्हें पाने को व्याकुल. आज तुम चली गई हो. मैं यहीं रह गया. अब भटकने को है ही क्या? हर तरह से निभा गईं तुम. हम स्वार्थी तुम्हें कुछ न दे सके....' कंठ वाष्पित हो रहा था. आगे पार्थ क्या बोल रहे हैं, कोई समझ नहीं पा रहा था. कुछ क्षण खड़े रहे अर्जुन टक लगाये, भीम ने आगे बढ़ हाथ पकड़ा. वे विवश से पलटे और चलने लगे, भयंकर शीत भरी हवायें अबाध चली आ रही हैं. रह-रह कर तुषार-कणों की वर्षा, वनस्पतिविहीन दुर्गम प्रदेश, हिम-चट्टानें रोर करती फिसल रही हैं, एक-एक पग दूभर, विषम झोंके झेलते लड़खड़ाते किसी तरह बढ़ रहे हैं, एक दूसरे को साधते -सँभालते. आगे पंचचूली शिखर तक जाने को राह पर्वत के किनारे घूम जाती है. उसी ओर जाना है, मोड़ आ गया था. कुछ आगे बढ़े वे, मुड़ने से पहले अर्जुन ठिठके, पलट गये. उनके साथ शेष चारों भी देखने लगे उस ओर, जहाँ पांचाली को छोड़ आये थे. तल की हिमशिला पर वह श्यामल देह एकदम शान्त. उद्दाम हवाएँ उत्तरीय का छोर बार-बार उड़ा रहीं थीं. सघन केश-राशि की कुछ बिखरी लटें उस अनिन्द्य मुख पर आ पड़ी थीं. हिमालय की उठती हुई धवल श्रेणियाँ, मंदिर के भव्य शिखरों सी दिशा व्याप्त करती हुई. वहीं नीचे हिमाच्छादन युक्त तल पर निश्चल पड़ी याज्ञसेनी की देह, ज्यों शुभ्र वेदिका पर अर्पित, जल से विच्छिन्न नीलोत्पल! आगे मोड़ था. युधिष्ठिर ने कंधे पर हाथ रखा, भीम बाँह से सहारा दिये आगे बढ़े. सब पीछे छूट गया. हिमपात से धुँधलाते परिवेश में दूर जाती, प्रचंड पवन झोंकों में हिलती -डोलती वे पाँच आकृतियाँ दृष्टि-पथ से ओझल हो गईं!
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कल इस पर वापस काम करना। हे भगवान। हर्ड। उन्हें लहूलुहान कर दो! वह ठीक हो जाना चाहिए लुटेरे! भागो! नहीं! रुक जाओ! उसे मारो। शाबाश, लड़के। तुमने हर्ड का सिर गर्व से ऊँचा किया। नाम से डरना सिखाओ। कोई पहरेदार नहीं है। कोई हरकत नहीं हो रही। जो तुमने सपने में देखी थी? कई बार प्रदर्शन किया है। पर पुराने गानों के दीवाने होते हैं। स्कैनलैन। ध्यान दो। ठीक है। ग्रॉग जैसे विशालकाय से घिरा दिखाया था। मतलब, सामान्य ग्रॉग जैसे। दस्ताने पहन रखे थे, जो चमक रहे थे। अवशेष। लगता है कि वे लोग आगे बढ़ गए। कि हम कहाँ हैं, हमें वापस चलना चाहिए। ज़रूरत हो सकती है। रहम करो! मुझे जाने दो! कुछ नहीं बचा! फिर तो तुम बेकार हो, है न? हाँ, मैं बेकार हूँ। तो मेरी नज़रों के सामने से दफ़ा हो जाओ। और उम्मीद है कि तुम्हारी किस्मत चमके। शुक्रिया। कंकड़, पत्थर, भाले! मत जाओ! क्या? बस दो हैं। उन्हें आसानी से मार देंगे। अगर वे हर्ड के साथ हैं तो नहीं। उनसे लड़ना आसान नहीं है। बढ़िया तरह से फेंका। लगता है कि इसकी किस्मत नहीं चमकी। केवडैक वहाँ पर है। फिर से बताना, यह केवडैक कौन है? उनका सरदार। मेरे चाचा। मेरे और केवडैक के बीच ज़ाती दुश्मनी है। और उसके पास एक असली अवशेष है। हाँ, पर मुझे नहीं पता था कि वे अवशेष थे। वह उन्हें अपने टाइटनस्टोन पोर बुलाते थे। वह दस्ताना पहने रहते हैं। और वे उन्हें बेहद ताक़तवर बनाते हैं। हर्ड में लगभग कितने लोग होंगे? मुझे नहीं पता, किसी ने गिना नहीं था। किसी को "सैकड़ों" कहते सुना था। क्या यह बहुत ज़्यादा है? अच्छा। चीरकर निकालना होगा। थोड़ी पैमाइश करनी चाहिए। नहीं। मुझे इस हाल में देखने देना चाहूँगा, समझे? इंतज़ार नहीं कर सकते? अच्छा। हम तुम्हारा क्या करें? उठा ही सकते हो, है न? यह यकीन से नहीं कह पाऊँगा। अच्छा, तुम्हारा क्या, स्कैनलैन? जब चाहो चिकनीचुपड़ी बातें बोल लेते हो। शायद तुम्हें आगे जाना चाहिए। तो क्या तुम प्रभावित होगी? सबसे बहादुरी वाला कारनामा होगा। फिर तो यह करके दिखाऊँगा। तो वादा करो कि दोबारा प्रेम करोगी। मैं पूरी कोशिश करूँगी। हर्ड से तुम्हें इतना डर लगता है। मुझे डर नहीं लगता। शर्मिंदगी होती है। मेरी ज़िंदगी काफ़ी कि उसके बारे में पूछना ठीक नहीं होगा। तो कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है। पर ऐसा करके शायद बेहतर महसूस करो। तो मैंने कुछ काम किए। बहुत बुरे काम। चलो! मुझे नहीं लगता कि तुम मुझे तब पसंद करती। हमारे लिए केवल मारकाट अहम थी। जो चाहे वह ले लेता था। मुझे रोक नहीं सकता था। फिर एक दिन मैं उनसे मिला। नहीं। जो चाहो, वह ले जाओ! रहम करके मुझे बख्श दो। मेरा एक परिवार है! विल्हैंड दादा जी? उस ड्रैगन ने इस जगह की ऐसी की तैसी कर दी। पर अंब्रसिल का नामोनिशान नहीं। लूट कम हो गई है। तो हमारे सिर कलम होंगे। यह दल नहीं चुना था। तुम क्या कहते हो, ज़ैन्रोर? और इस हर्ड को वापस पहले जैसा बनाना होगा। कोई चूहा होगा। यह क्या क्या तुम उनमें से एक हो? काफ़ी नाटा हूँ। तुम लोग कौन हो? बदकिस्मत लोग। किसान। दुकानदार। और उसके बीतने का इंतज़ार किया। ये कमबख़्त लुटेरे आ धमके। धत् तेरे की। कब से? एक हफ़्ते से। शायद दो हफ़्ते से। मौके का इंतज़ार कर रहे थे, पर तुम इस नर्क में कैसे आए? मैं कारनामों का शौकीन हूँ। एक विद्रोही नेता हूँ। संगीतकार हूँ। कुछ लोग मुझे दार्शनिक भी कहते हैं। नाम है स्कैनलैन। मतलब, स्कैनलैन शॉर्टहॉल्ट? मैं उन्हें मार सकता था। पर जब तुम्हारे परपरपरपरपर बस दो बार। तो पता नहीं। सब कुछ बदल गया। यहाँ क्या हो रहा है, ग्रॉग? तुम्हें कोई पालतू मिल गया? ज़ैन्रोर, रुको। यह कोई लड़ने वाले नहीं हैं। यह बस एक बूढ़े इंसान हैं। ए। यूँ नरमी दिखाते हुए मत पकड़ने देना। उन्हें इन बूढ़ों को मारना पसंद है। कहते हैं कि इन पर एहसान कर रहे हैं। यह क्या माफ़ करना, कज़िन। सुनिए। यहाँ से चलिए। इससे पहले कि वे देख लें। शुक्रिया, बेटा। तुम्हारी दया का कर्ज़ चुका पाऊँगा। स्ट्रॉन्गजॉ! अपने चचेरे भाई को धोखा दोगे? वरना मैं तुम्हारा सिर कलम कर दूँगा। नहीं। भागिए! गद्दार! हमारा नाम ख़राब किया। छापा मारने की ताक़त नहीं है। तुम भी अपने बाप की तरह बुज़दिल हो। यह ग़ुरूर। तुम मेरे जैसे योद्धा कभी नहीं बन पाओगे। हर्ड ऑफ़ स्टॉर्म्स से बेदखल किया जाता है। इसे गिद्धों के नोचने लिए छोड़ दो। मुझे उस दिन मर जाना चाहिए था। जल्दी से! इसे ठीक करने की कोशिश करो। एवरलाइट, मदद कीजिए। मेरे दादा जी को बचाने के लिए शुक्रिया। तुमने बहुत बहादुरी का काम किया। मैं ही हूँ। चलो, बेटा। तुम्हें किसी गर्म जगह पर ले चलते हैं। इतने सालों तक मुझे कुछ पता ही नहीं था। कभीकभी बिना किसी वजह के। और मैं उसे रोकने के लिए बहुत कमज़ोर था। ग्रॉग, हम अतीत में अटके नहीं रह सकते। तुम अब वैसे नहीं हो। तुम अलग हो। तुम मेरे सबसे जिगरी दोस्त हो। हाँ, वह तो है। फ़र्क नहीं पड़ता, जिन्हें मैंने मरने दिया। वह यहाँ क्यों आया है? क्या हमारा पीछा कर रहा है? रुको। यह स्कैनलैन कहाँ है? कि तुमने मेरे बारे में सुना है? बेशक सुना है। दरअसल, केली मेरी मंडली का हिस्सा है। आपकी सेवा में हाज़िर है। हम तो यहाँ से हैं भी नहीं। बस ग़लत वक़्त पर ग़लत जगह पर थे। पर हाँ, तुम्हारे बारे में सुना है। जादुई संगीत के किस्से दूरदूर तक फैले हैं। रुको। मैं मशहूर हूँ? किसी को ऑटोग्राफ़ नहीं चाहिए। और पानी भी ख़त्म हो रहा है। वफ़ादारी और सोने की माँग कर रहा है। अगर कम पड़ जाए, तो बदले में मौत मिलती है। और वह ड्रैगन? उनके साथ काम कर रहा है? तुम्हें हमें यहाँ से निकालना होगा। फ़ौरन। क्या? रुक जाओ। मैं बस मुआयना करने आया हूँ। मेरे पास मेरी सारंगी भी नहीं है। संपर्क कर पाता, तो शायद वे दोस्तों से? तुम्हारे "दोस्त" यहाँ नहीं हैं। तुम हो। कोई तुम्हें बचाने वापस नहीं आता। क्या कर गुज़रने के लिए तैयार हो? चौक को खाली करो! वह लौट आया। वह वापस लौट आया! केवडैक को बुलाओ! केवडैक! सामने आओ, केवडैक। तुम्हारे एकदसवीं पेशगी बकाया है। मिथकार्वर। या फिर पेशगी वाकई कम होती जा रही है? तुलना में तो कुछ भी फीका पड़ जाता है। कसम से मुझे यह आवाज़ पता है। इसके अवशेष से मुक्त क्यों नहीं किया है? ये मुर्दाखोर अब भी काम के हैं। जबकि तुम्हारे पास वह है, जो मुझे चाहिए। हमारा सौदा पक्का है। हम सोना लाकर देंगे। भले ही हमें और मेहनत करनी पड़े। देखना कि ऐसा ही हो। मुफ़्त में वेस्ट्रन नहीं दे रहा है। मैं नाख़ुश हूँ। मैं दिन दिन में वापस आऊँगा, केवडैक। तो भुगतान के बदले तुम्हारे हाथ ले जाऊँगा। दुबकना बंद करो। हर एक पाई ढूँढ निकालो। केवल उस ड्रैगन की चिंता नहीं करनी होगी। हम यह और कब तक सहेंगे, पिता जी? हम नौकर बनकर रह गए हैं। ज़बान को संभालो। यह गठबंधन हमें शहर पर शासन करने देता है। हमारा ज़िंदा रहना इसे जीना नहीं कहते हैं! उन्हें हमसे डरना सिखाना चाहिए। हम गिड़गिड़ा रहे तुम्हारे मिमियाने से तंग आ चुका हूँ। तुम इस हर्ड का नेतृत्व कर सकते हो, लड़के? मुझे यकीन है कि मैं कर सकता हूँ। हमें उससे वे अवशेष तो मिलने से रहे। तुम में से कोई मेरे बेटे से सहमत है? नहीं, थंडरलॉर्ड। और हम वेस्ट्रन पर शासन करते हैं। और उनका सब कुछ ले लो। फैल जाओ। हमें जाना होगा। फ़ौरन। स्कैनलैन मुसीबत में हो सकता है। चलो। तुम पागल हो क्या? मुझे देखा, मैं कैसे सिकुड़ा हुआ हूँ। मेरे पास अब क्रेवन एज भी नहीं है। मतलब, अगर केवडैक ने ठीक है। हमारे दोस्त को लेकर चुपके से निकल जाएँगे। कैसे? तुम्हारा कवच काफ़ी शोर करता है। और मुझे वे एक मील दूर से पहचान लेंगे। भेंट के साथ वहाँ जाना होगा। कंकड़, पत्थर, भाले! भाड़ में जाए। तो मुझे ख़ुद से इसे पकड़कर लाना पड़ा। क्या मैं तुम्हें जानता हूँ, पतलू? बेहतर होगा कि जान लो। मैं केवडैक का रिश्तेदार हूँ। पसंद नहीं है, मुच्छड़। यह बढ़िया तरकीब थी, पाइकी। मुझे निखट्टू क्यों बुलाया? माफ़ करना। मैं तो बस नाटक कर रहा था। मज़ाक था। तुमने बहुत ख़ूब किया, दोस्त। बेहोश हो जाऊँ, चलो स्कैनलैन को ढूँढ़ें। धत्, वह मेरी ग़लती थी। मेरी आँख में सूअर का खून चला गया था। वे सड़कों पर फैले हुए हैं। और एक बचाव दल लेकर आता हूँ। अरे। मेरे पास कई तरकीब हैं। मुझे तुम्हारी चिंता नहीं है, धोखेबाज़। जितना मैंने सुना है, तुम भाग निकलोगे। ठीक है। सभी चल सकते हैं। लेकिन बाहर बहुत ख़तरा होगा। तो मुझे तुमसे एक चीज़ चाहिए होगी। तुम्हारी बाँसुरी। जल्दी करो। ठीक है। ढेर के लिए और सोना। पास रहना! बाप रे, तुम्हें तो वाकई तरकीबें आती हैं। अभी तो बस शुरुआत है। स्कैनलैन! हमें बहुत चिंता हो रही थी। ए, तुम्हारी झप्पी से दर्द हुआ! थोड़ाबहुत। बढ़िया, दोस्त! मुझे देखकर ख़ुश हो, हाँ? मेरा मतलब, नहीं तो। दखल देने के लिए माफ़ी चाहूँगी। अच्छा। चिंता मत करो, दोस्तो। असल में हमारी तरफ़ है। तंदरुस्त वाला नहीं मिल पाया था। मुझे ठेस पहुँची। इसकी बात का बुरा मत मानो, यार। एक ड्रैगन से मिल गया है। क्या हो गया? क्या हम यहाँ से बाहर निकलें? जिस रास्ते से हम आए थे। केवडैक हर्ड को इकट्ठा कर रहा है। चलो। बढ़िया, अब हमारा मौका है। ग्रॉग के पीछे जाना, ठीक? पेड़ों की पंक्ति की ओर जाना। चलो। तो ठीक है। पहले हम जाते हैं। ग्रॉग, तुम पीछेपीछे आना। मैं नहीं जा रहा। क्या मतलब? क्या यह गंभीर है? रास्ता साफ़ है। केली। तुम इन्हें ले जाओ। हम आते हैं। मैं वादा करता हूँ। पर तुम क्या कर रहे हो? वे मुझसे डरते हैं। मेरे जैसों से डरते हैं। ख़त्म नहीं करता, तब तक यह नहीं बदलेगा। या फिर मैं ही केवडैक का ख़ात्मा न कर दूँ। केवडैक का? इस हाल में? उस बेल्ट ने तुम्हें पहना है। दोस्त, हमें एकदूसरे के साथ रहना होगा। इस बार नहीं। मुझे यह काम अकेले ही करना होगा। ग्रॉग, मेरी बात सुनो। यह ख़ुदकुशी होगी। क्या तुम यही चाहते हो? तुमने कहा था कि अब मैं बदल गया हूँ। जितना वह कहते थे। कोई ताक़तवर नहीं बनता। छोटे लोगों के लिए खड़े होने से होता है। मुझे यही चीज़ उनसे अलग बनाती है। अगर मुझे तुम्हारी ज़रूरत पड़ी तो? एक नियम के हिसाब से चलता है। सत्ता के बूते पर बलशाली बनना। तो उस चुनौती का जवाब देना होगा। भले ही वह मेरा बेटा क्यों न हो। वापस जंगल जाना चाहते हैं। मैं तुम सब से कहता हूँ, शौक़ से जाओ। गुस्ताखी को मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। तो सामने आओ। इसी वक़्त। थंडरलॉर्ड को चुनौती देना चाहेगा? मुझे लगा भी नहीं था। केवडैक! मुझे पहचाना? कल इस पर वापस काम करना। हे भगवान। हर्ड। उन्हें लहूलुहान कर दो! वह ठीक हो जाना चाहिए... लुटेरे! भागो! नहीं! रुक जाओ! उसे मारो। शाबाश, लड़के। तुमने हर्ड का सिर गर्व से ऊँचा किया। तुम्हें जो चाहिए वह ले लो, और उन्हें ग्रॉग स्ट्रॉन्गजॉ के नाम से डरना सिखाओ। द लेजेंड ऑफ़ वॉक्स माकिना कोई पहरेदार नहीं है। कोई हरकत नहीं हो रही। पक्का यही वह जगह थी, जो तुमने सपने में देखी थी? सौ फ़ीसदी। मैंने वेस्ट्रन में कई बार प्रदर्शन किया है। बख्शीश देने में कंजूस, पर पुराने गानों के दीवाने होते हैं। मेरा सबसे लोकप्रिय गाना था, "जब कोई बात..." स्कैनलैन। ध्यान दो। ठीक है। मिथकार्वर ने मुझे शहर को ग्रॉग जैसे विशालकाय से घिरा दिखाया था। मतलब, सामान्य ग्रॉग जैसे। और एक बेहद गबरू आदमी ने रत्नों के दस्ताने पहन रखे थे, जो चमक रहे थे। अवशेष। लगता है कि वे लोग आगे बढ़ गए। इससे पहले विल्हैंड को चिंता हो कि हम कहाँ हैं, हमें वापस चलना चाहिए। इन लोगों को हमारी मदद की ज़रूरत हो सकती है। रहम करो! मुझे जाने दो! कसम से, मेरे पास जो था मैंने दे दिया, कुछ नहीं बचा! ख़ैर, नन्हे दोस्त, अगर तुम्हारे पास देने के लिए कुछ नहीं है, फिर तो तुम बेकार हो, है न? हाँ, मैं बेकार हूँ। तो मेरी नज़रों के सामने से दफ़ा हो जाओ। और उम्मीद है कि तुम्हारी किस्मत चमके। शुक्रिया। कंकड़, पत्थर, भाले! मत जाओ! क्या? बस दो हैं। उन्हें आसानी से मार देंगे। अगर वे हर्ड के साथ हैं तो नहीं। उनसे लड़ना आसान नहीं है। बढ़िया तरह से फेंका। लगता है कि इसकी किस्मत नहीं चमकी। केवडैक वहाँ पर है। फिर से बताना, यह केवडैक कौन है? उनका सरदार। मेरे चाचा। मेरे और केवडैक के बीच ज़ाती दुश्मनी है। और उसके पास एक असली अवशेष है। हाँ, पर मुझे नहीं पता था कि वे अवशेष थे। वह उन्हें अपने टाइटनस्टोन पोर बुलाते थे। वह दस्ताना पहने रहते हैं। और वे उन्हें बेहद ताक़तवर बनाते हैं। हर्ड में लगभग कितने लोग होंगे? मुझे नहीं पता, किसी ने गिना नहीं था। मैंने पहले एक बार किसी को "सैकड़ों" कहते सुना था। क्या यह बहुत ज़्यादा है? अच्छा। अगर हमें वे दस्ताने चाहिए, तो हमें सामान्य ग्रॉग के झुंड से लड़ना होगा, फिर उन्हें महाविशालग्रॉग के हाथों से चीरकर निकालना होगा। थोड़ी पैमाइश करनी चाहिए। नहीं। मुझे नहीं लगता कि मैं हर्ड को मुझे इस हाल में देखने देना चाहूँगा, समझे? क्या हम अपने दोस्तों का इंतज़ार नहीं कर सकते? अच्छा। हम तुम्हारा क्या करें? पर चलो भी, तुम एक फ़रसा तो उठा ही सकते हो, है न? यह यकीन से नहीं कह पाऊँगा। अच्छा, तुम्हारा क्या, स्कैनलैन? जब चाहो चिकनीचुपड़ी बातें बोल लेते हो। शायद तुम्हें आगे जाना चाहिए। दरअसल, पाइक, अगर मैं अपने दम पर वेस्ट्रन में घुसपैठ करके वह अवशेष लेकर आता हूँ, तो क्या तुम प्रभावित होगी? यह तुम्हारा आज तक का सबसे बहादुरी वाला कारनामा होगा। फिर तो यह करके दिखाऊँगा। अगर क्रांतिकारी स्कैनलैन एक घंटे के अंदर वापस नहीं लौटा, तो वादा करो कि दोबारा प्रेम करोगी। मैं पूरी कोशिश करूँगी। मुझे पता नहीं था कि तुम्हारे पुराने हर्ड से तुम्हें इतना डर लगता है। मुझे डर नहीं लगता। शर्मिंदगी होती है। तुम्हारे मुझे अपनाने से पहले, मेरी ज़िंदगी काफ़ी... विल्हैंड को एहसास था कि उसके बारे में पूछना ठीक नहीं होगा। अगर तुम नहीं चाहते, तो कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है। पर ऐसा करके शायद बेहतर महसूस करो। जब मैं हर्ड के साथ था, तो मैंने कुछ काम किए। बहुत बुरे काम। चलो! मुझे नहीं लगता कि तुम मुझे तब पसंद करती। हमारे लिए केवल मारकाट अहम थी। मैं बिना कुछ सोचेसमझे, जो चाहे वह ले लेता था। कोई भी चीज़ या इंसान मुझे रोक नहीं सकता था। फिर एक दिन मैं उनसे मिला। नहीं। जो चाहो, वह ले जाओ! रहम करके मुझे बख्श दो। मेरा एक परिवार है! विल्हैंड दादा जी? उस ड्रैगन ने इस जगह की ऐसी की तैसी कर दी। पर अंब्रसिल का नामोनिशान नहीं। लूट कम हो गई है। अगर हमारी पेशकश में कमी हुई, तो हमारे सिर कलम होंगे। मैंने किसी ड्रैगन से आदेश लेने के लिए यह दल नहीं चुना था। तुम क्या कहते हो, ज़ैन्रोर? मैं कहता हूँ कि किसी को मेरे पिता का सामना करना होगा और इस हर्ड को वापस पहले जैसा बनाना होगा। कोई चूहा होगा। यह क्या... क्या तुम उनमें से एक हो? मैं "उनमें से एक" होने के लिए काफ़ी नाटा हूँ। तुम लोग कौन हो? बदकिस्मत लोग। किसान। दुकानदार। जब ड्रैगन ने हमला किया, हम सब छिप गए और उसके बीतने का इंतज़ार किया। और जिस दिन वह ड्रैगन गया, उसके अगले ही दिन ये कमबख़्त लुटेरे आ धमके। धत् तेरे की। कब से? एक हफ़्ते से। शायद दो हफ़्ते से। हम बचकर भागने के मौके का इंतज़ार कर रहे थे, पर... तुम इस नर्क में कैसे आए? मैं कारनामों का शौकीन हूँ। एक विद्रोही नेता हूँ। संगीतकार हूँ। कुछ लोग मुझे दार्शनिक भी कहते हैं। नाम है स्कैनलैन। मतलब, स्कैनलैन शॉर्टहॉल्ट? मैं उन्हें मार सकता था। पर जब तुम्हारे परपरपरपरपर... बस दो बार। ...दादा ने मुझे देखा, तो पता नहीं। सब कुछ बदल गया। यहाँ क्या हो रहा है, ग्रॉग? तुम्हें कोई पालतू मिल गया? ज़ैन्रोर, रुको। यह कोई लड़ने वाले नहीं हैं। यह बस एक बूढ़े इंसान हैं। ए। मेरे पिता को तुम्हें यूँ नरमी दिखाते हुए मत पकड़ने देना। उन्हें इन बूढ़ों को मारना पसंद है। कहते हैं कि इन पर एहसान कर रहे हैं। यह क्या... माफ़ करना, कज़िन। सुनिए। यहाँ से चलिए। इससे पहले कि वे देख लें। शुक्रिया, बेटा। उम्मीद है एक दिन तुम्हारी दया का कर्ज़ चुका पाऊँगा। स्ट्रॉन्गजॉ! तुम उसके पीछे मेरे बेटे, अपने चचेरे भाई को धोखा दोगे? मुझे उस बौने का सिर काटकर दो, वरना मैं तुम्हारा सिर कलम कर दूँगा। नहीं। भागिए! गद्दार! तुम दोनों ने अपनी कमज़ोरी से हमारा नाम ख़राब किया। मुझे पता होना चाहिए था कि तुममें छापा मारने की ताक़त नहीं है। तुम भी अपने बाप की तरह बुज़दिल हो। यह ग़ुरूर। तुम मेरे जैसे योद्धा कभी नहीं बन पाओगे। ग्रॉग स्ट्रॉन्गजॉ, आज से तुम्हें हर्ड ऑफ़ स्टॉर्म्स से बेदखल किया जाता है। इसे गिद्धों के नोचने लिए छोड़ दो। मुझे उस दिन मर जाना चाहिए था। जल्दी से! इसे ठीक करने की कोशिश करो। एवरलाइट, मदद कीजिए। मेरे दादा जी को बचाने के लिए शुक्रिया। तुमने बहुत बहादुरी का काम किया। हाँ। "बहादुर।" मैं ही हूँ। चलो, बेटा। तुम्हें किसी गर्म जगह पर ले चलते हैं। इतने सालों तक मुझे कुछ पता ही नहीं था। और हम लोगों की जान लेते, कभीकभी बिना किसी वजह के। और मैं उसे रोकने के लिए बहुत कमज़ोर था। ग्रॉग, हम अतीत में अटके नहीं रह सकते। तुम अब वैसे नहीं हो। तुम अलग हो। तुम मेरे सबसे जिगरी दोस्त हो। हाँ, वह तो है। पर उन लोगों को इससे फ़र्क नहीं पड़ता, जिन्हें मैंने मरने दिया। वह यहाँ क्यों आया है? क्या हमारा पीछा कर रहा है? रुको। यह स्कैनलैन कहाँ है? तो, तुम कह रही हो कि तुमने मेरे बारे में सुना है? बेशक सुना है। दरअसल, केली मेरी मंडली का हिस्सा है। डॉ. ड्रैन्ज़ल की यात्रा मंडली, आपकी सेवा में हाज़िर है। हम तो यहाँ से हैं भी नहीं। बस ग़लत वक़्त पर ग़लत जगह पर थे। पर हाँ, तुम्हारे बारे में सुना है। स्कैनलैन शॉर्टहॉल्ट के जादुई संगीत के किस्से दूरदूर तक फैले हैं। रुको। मैं मशहूर हूँ? किसी को ऑटोग्राफ़ नहीं चाहिए। इन लोगों के पास खाना नहीं है और पानी भी ख़त्म हो रहा है। हर्ड घरघर जाकर वफ़ादारी और सोने की माँग कर रहा है। अगर कम पड़ जाए, तो बदले में मौत मिलती है। और वह ड्रैगन? उनके साथ काम कर रहा है? तुम्हें हमें यहाँ से निकालना होगा। फ़ौरन। क्या? रुक जाओ। मैं बस मुआयना करने आया हूँ। मेरे पास मेरी सारंगी भी नहीं है। अगर दोस्तों से संपर्क कर पाता, तो शायद वे... दोस्तों से? तुम्हारे "दोस्त" यहाँ नहीं हैं। तुम हो। मैंने ज़िंदगी में एक चीज़ सीखी है, कोई तुम्हें बचाने वापस नहीं आता। तो स्कैनलैन शॉर्टहॉल्ट, क्या कर गुज़रने के लिए तैयार हो? चौक को खाली करो! वह लौट आया। वह वापस लौट आया! केवडैक को बुलाओ! केवडैक! सामने आओ, केवडैक। तुम्हारे एकदसवीं पेशगी बकाया है। मिथकार्वर। क्या मुझे ही ऐसा लगता है या फिर पेशगी वाकई कम होती जा रही है? बेशक, एक अवशेष की ताक़त की तुलना में तो कुछ भी फीका पड़ जाता है। कसम से मुझे यह आवाज़ पता है। मुझे बताओ कि तुमने अब तक इसे इसके अवशेष से मुक्त क्यों नहीं किया है? ये मुर्दाखोर अब भी काम के हैं। तुच्छ चीज़ों से समय ज़ाया कर रहे हैं, जबकि तुम्हारे पास वह है, जो मुझे चाहिए। हमारा सौदा पक्का है। इस शहर से दिनबदिन कम पेशगी मिल रही है, पर तुम्हारे प्रिय कॉन्क्लेव के लिए हम सोना लाकर देंगे। भले ही हमें और मेहनत करनी पड़े। देखना कि ऐसा ही हो। आशा का भक्षक तुम्हें मुफ़्त में वेस्ट्रन नहीं दे रहा है। मैं नाख़ुश हूँ। मैं दिन दिन में वापस आऊँगा, केवडैक। अगर तुमने मुझे थोरडैक का सोना लाकर न दिया, तो भुगतान के बदले तुम्हारे हाथ ले जाऊँगा। दुबकना बंद करो। खोजी दलों को इकट्ठा करो और इस शहर से दौलत की हर एक पाई ढूँढ निकालो। कोई कसर मत छोड़ना, वरना तुम्हें केवल उस ड्रैगन की चिंता नहीं करनी होगी। हम यह और कब तक सहेंगे, पिता जी? हम नौकर बनकर रह गए हैं। ज़बान को संभालो। यह गठबंधन हमें शहर पर शासन करने देता है। हमारा ज़िंदा रहना... इसे जीना नहीं कहते हैं! हमें उन ड्रैगन का शिकार करना चाहिए, उन्हें हमसे डरना सिखाना चाहिए। उसके बजाय, आपकी कमज़ोरी के कारण हम गिड़गिड़ा रहे... तुम्हारे मिमियाने से तंग आ चुका हूँ। तुम इस हर्ड का नेतृत्व कर सकते हो, लड़के? मुझे यकीन है कि मैं कर सकता हूँ। हमें उससे वे अवशेष तो मिलने से रहे। तुम में से कोई मेरे बेटे से सहमत है? नहीं, थंडरलॉर्ड। मैं इस हर्ड पर शासन करता हूँ, और हम वेस्ट्रन पर शासन करते हैं। अब जाओ। स्थानीय लोगों को मार डालो और उनका सब कुछ ले लो। फैल जाओ। जैसा कि मैंने कहा था, हमें जाना होगा। फ़ौरन। स्कैनलैन मुसीबत में हो सकता है। चलो। तुम पागल हो क्या? मुझे देखा, मैं कैसे सिकुड़ा हुआ हूँ। मेरे पास अब क्रेवन एज भी नहीं है। मतलब, अगर केवडैक ने... ठीक है। तो हम चुपके से जाएँगे, हमारे दोस्त को लेकर चुपके से निकल जाएँगे। कैसे? तुम्हारा कवच काफ़ी शोर करता है। और मुझे वे एक मील दूर से पहचान लेंगे। फिर तो हमें एक बढ़िया सी भेंट के साथ वहाँ जाना होगा। कंकड़, पत्थर, भाले! भाड़ में जाए। हाँ, इस निखट्टू बौनी ने केवडैक से कुछ चुराया था, तो मुझे ख़ुद से इसे पकड़कर लाना पड़ा। क्या मैं तुम्हें जानता हूँ, पतलू? बेहतर होगा कि जान लो। मैं केवडैक का रिश्तेदार हूँ। और उन्हें इंतज़ार करना पसंद नहीं है, मुच्छड़। यह बढ़िया तरकीब थी, पाइकी। मुझे निखट्टू क्यों बुलाया? माफ़ करना। मैं तो बस नाटक कर रहा था। मज़ाक था। तुमने बहुत ख़ूब किया, दोस्त। इससे पहले कि उल्टा लटककर बेहोश हो जाऊँ, चलो स्कैनलैन को ढूँढ़ें। धत्, वह मेरी ग़लती थी। मेरी आँख में सूअर का खून चला गया था। वे सड़कों पर फैले हुए हैं। सुनो, मैं अकेले जाता हूँ और एक बचाव दल लेकर आता हूँ। अरे। मेरी चिंता मत करो, मोहतरमा, मेरे पास कई तरकीब हैं। मुझे तुम्हारी चिंता नहीं है, धोखेबाज़। जितना मैंने सुना है, तुम भाग निकलोगे। ठीक है। सभी चल सकते हैं। लेकिन बाहर बहुत ख़तरा होगा। और अगर मुझे कामयाब होना है, तो मुझे तुमसे एक चीज़ चाहिए होगी। तुम्हारी बाँसुरी। जल्दी करो। ठीक है। ढेर के लिए और सोना। पास रहना! बाप रे, तुम्हें तो वाकई तरकीबें आती हैं। अभी तो बस शुरुआत है। स्कैनलैन! हमें बहुत चिंता हो रही थी। ए, तुम्हारी झप्पी से दर्द हुआ! थोड़ाबहुत। बढ़िया, दोस्त! मुझे देखकर ख़ुश हो, हाँ? मेरा मतलब, नहीं तो। दखल देने के लिए माफ़ी चाहूँगी। अच्छा। चिंता मत करो, दोस्तो। यह कातिलाना विशालकाय असल में हमारी तरफ़ है। कमाल है, तुम्हें इससे तंदरुस्त वाला नहीं मिल पाया था। मुझे ठेस पहुँची। इसकी बात का बुरा मत मानो, यार। यह डरी हुई है क्योंकि तुम्हारा चाचा एक ड्रैगन से मिल गया है। क्या हो गया? क्या हम यहाँ से बाहर निकलें? जिस रास्ते से हम आए थे। केवडैक हर्ड को इकट्ठा कर रहा है। चलो। बढ़िया, अब हमारा मौका है। ग्रॉग के पीछे जाना, ठीक? फाटक से बाहर निकलने के बाद, पेड़ों की पंक्ति की ओर जाना। चलो। तो ठीक है। पहले हम जाते हैं। ग्रॉग, तुम पीछेपीछे आना। मैं नहीं जा रहा। क्या मतलब? क्या यह गंभीर है? रास्ता साफ़ है। केली। तुम इन्हें ले जाओ। हम आते हैं। मैं वादा करता हूँ। ग्रॉग, तुमसे प्यार करती हूँ, पर तुम क्या कर रहे हो? वे मुझसे डरते हैं। मेरे जैसों से डरते हैं। और जब तक कोई हर्ड को ख़त्म नहीं करता, तब तक यह नहीं बदलेगा। या फिर मैं ही केवडैक का ख़ात्मा न कर दूँ। केवडैक का? इस हाल में? ऐसे लग रहा है उस बेल्ट ने तुम्हें पहना है। दोस्त, हमें एकदूसरे के साथ रहना होगा। इस बार नहीं। मुझे यह काम अकेले ही करना होगा। ग्रॉग, मेरी बात सुनो। यह ख़ुदकुशी होगी। क्या तुम यही चाहते हो? तुमने कहा था कि अब मैं बदल गया हूँ। लेकिन अगर मैं गया, तो उतना ही कमज़ोर हूँ जितना वह कहते थे। नहीं। ज़ोर से मारने से या बड़ा होने से कोई ताक़तवर नहीं बनता। छोटे लोगों के लिए खड़े होने से होता है। मुझे यही चीज़ उनसे अलग बनाती है। लेकिन, अगर मुझे तुम्हारी ज़रूरत पड़ी तो? वेस्ट्रन हर्ड ऑफ़ स्टॉर्म्स एक नियम के हिसाब से चलता है। बल के बूते पर जीना, सत्ता के बूते पर बलशाली बनना। अगर उस सत्ता को कोई चुनौती देता है, तो उस चुनौती का जवाब देना होगा। भले ही वह मेरा बेटा क्यों न हो। इसने बताया कि तुममें से कुछ लोग वापस जंगल जाना चाहते हैं। मैं तुम सब से कहता हूँ, शौक़ से जाओ। पर मेरे नेतृत्व पर सवाल उठाने की गुस्ताखी को मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। अगर यहाँ कोई सोचता है कि वह मुझसे बेहतर नेतृत्व कर सकता है, तो सामने आओ। इसी वक़्त। क्या कोई भी थंडरलॉर्ड को चुनौती देना चाहेगा? मुझे लगा भी नहीं था। केवडैक! मुझे पहचाना? संवाद अनुवादक श्रुति शुक्ला रचनात्मक पर्यवेक्षकअशोक बक्षी
speech
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‪तुम कब्रिस्तान नहीं गई। ‪नहीं, मुझे पता है। माफ़ करना। ‪क्या तुम मुझे बताओगी क्या चल रहा है? ‪आपने क्विनतानिया को ना क्यों कहा? ‪तुम्हें कैसे पता? ‪उन्होंने मुझे बताया। ‪खैर, मुझे उनके ऑफ़िस में अँगूठी मिली। ‪तुमने कुछ क्यों नहीं कहा? ‪आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया। ‪मैंने मना कर दिया और यह मेरा फैसला था। ‪यह मेरी वजह से था? ‪को समझाने की ज़रूरत नहीं है। ‪और पता है क्या? ‪अब से चीज़ें बदलने वाली हैं। ‪तुम स्कूल से सीधे घर आओगी। ‪तो मुझे सज़ा दी जा रही है? ‪अगर तुम इसे ऐसे देखना चाहती हो, तो हाँ। ‪आपने मुझे कभी सज़ा नहीं दी। ‪मुझे लुईस से मिलने अस्पताल जाना है। ‪और स्कूल से सीधे घर। ‪चार सौ छब्बीस। ‪तुम यहाँ क्या कर रहे हो? ‪क्या तुम उन चीज़ों का मतलब नहीं निकलोगी? ‪तो तुम अंदर क्यों नहीं जाते? ‪मैं क्या कर सकता हूँ? ‪मैं चीज़ों को ठीक नहीं कर सकता। ‪मैं कसम खाता हूँ मैं वह सारी बेवकूफ़ियाँ ‪की हैं, लेकिन मैं नहीं कर सकता। ‪मैं कुछ नहीं कर सकता। ‪मैं यहाँ रहने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। ‪खैर, हाँ। तुम इंतज़ार कर सकते हो। ‪तुम्हें पता है यह कौन था? ‪तो मुझे बताना। मैं उस हरामी को मार दूँगा। ‪तुम कुछ नहीं सीखे, जैरी। ‪वह कैसा है? ‪बहुत बुरा। ‪दोस्त हो जब तुम मेरे घर आई थी। ‪मैंने उसकी कई बार मदद की। ‪कभी नहीं किया, सच कहूँ तो। ‪करती हूँ, मैं ऐसा कह सकती हूँ। ‪मुझे समझ नहीं आता उसने ऐसा क्यों किया। ‪हाई स्कूल में यह मेरा पहला दिन है। ‪तुम सच में यह करना चाहती हो? ‪यह मेरा विचार था। ‪बेहतर होगा तुम करो। ‪वरना तुम्हें तकलीफ़ होगी। ‪तुम यहाँ क्यों आई हो? ‪हमें बात करनी होगी। ‪जैसा दिखता है। मैं समझा सकता हूँ। ‪हम ब्रूनो के बारे में बात करना चाहते हैं। ‪प्रिंसिपल। ‪हाँ। ‪हाँ, चलो चलें। ‪मारिया। ‪क्या हाल है? ‪ठीक हूँ। ‪मुझे चिंता हो रही थी। ‪तुमने जवाब ही नहीं दिया। ‪आने लगे और मैं सो गई। लेकिन मैं ठीक हूँ। ‪मुझे एक संदेश आया। ‪यह नतालिया है, है ना? ‪मुझे नहीं पता। ‪मुझे नहीं लगता। ‪बचाने की ज़रूरत नहीं है। ‪नहीं। ‪का तुमसे कोई लेनादेना नहीं है। ‪ओह, देखो। ‪तुम्हारे लिए कुछ लाई हूँ। ‪मेरे लिए? ‪मुझे पता है तुम्हें ये कितने पसंद हैं। ‪शुक्रिया। ‪नहीं, इसे यहीं होना चाहिए। ‪हम क्या करने वाले है? ‪करने के लिए किसी को ढूँढना होगा। ‪यह अभी ज़रूरी नहीं है, लुलु। ‪क्या तुमने उसे फ़ोन किया था? ‪लेकिन वॉइसमेल पर चला जाता है। ‪लेकिन उसे न मिलने की वजह से एक चिन्ह है। ‪वह वापस नहीं आ रहा है। ‪और तुम्हें इतना यकीन कैसे है? ‪वह अपना सारा निजी सामान ले गया है। ‪मैंने भी गौर किया। ‪हैकर से सहमत है। मैंने गौर किया होता। ‪खैर, आप कम से कम छानबीन कर सकते हैं। ‪समझाने की किसी को ज़रूरत नहीं है। ‪बात कर रहा हूँ। मेरी तरफ देखो। ‪क्या हम आपके साथ एक तस्वीर ले सकते हैं? ‪ठीक है। ‪शुक्रिया। ‪क्यों नहीं, लड़कियों। ‪दोस्तों, बहुत हुआ। बस। ‪वर्ग के लिए। डेमियन विलियम्स। ‪मैं ‪मैं तुमसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक था। ‪हावी। ‪वह एक विजेता है। एक विजेता। ‪क्या तुम यहाँ...? ‪मातापिता की मीटिंग के लिए? ‪असल में, हमने पहले बात की थी। ‪यह क्या है? ‪पैसा। ‪तुम्हें कहाँ से मिला? ‪कहा था यह पड़ा है। ‪खैर, शुक्रिया, बेब। ‪मुझे आशा है तुमने इसे चुराया नहीं है। ‪बहुत हुआ, रोसिता। ‪और मैं कुछ और सहन नहीं करूँगी। ‪ठीक है, लड़की, चिंता मत करो। ‪अलविदा। ‪वह क्या था? ‪कागज़ का एक टुकड़ा। ‪उस पर क्या था? ‪क्या बकवास है, क्या यह एक पूछताछ है? ‪मैं आज सुबह लुईस से मिलने गई थी। ‪और वह कैसा रहा? बढ़िया? ‪तुम अकेले गई थी या राउल के साथ? ‪मेरी तरफ से हैलो कहा? ‪वजह से अस्पताल में है, है ना? ‪इतना कर सकता हूँ, है ना? ‪पर प्रतिबंध लगाना। ‪हम इस साल नोने रद्द कर रहे हैं। ‪क्या? ‪यह नैशनल की रात है, स्कूल की परंपरा। ‪बेशक, टिकट का पैसा वापस कर दिया जाएगा। ‪सारी चीज़ों के लिए ज़िम्मेदार है। ‪मैं सहमत हूँ। मुझे पता है आप चिंतित हैं। ‪के जवाब देते हैं। ठीक है, सर। ‪प्रौद्योगिकी के रूप में भी जाना जाता है। ‪इसका क्या उपयोग है? ‪उदाहरण के लिए, कपड़े का उद्योग। ‪और जैव ईंधन। ‪और मैं ‪तो हमें भी पता चले? ‪हम अब नोने रद्द नहीं कर सकते। ‪ज़रूरी है, लेकिन हम सच में नहीं कर सकते। ‪सोफ़िया, अब क्या? ‪क्या मैं बाथरूम जा सकती हूँ? ‪ठीक है। ‪चलो कक्षा फिर से शुरू करें। ‪सफेद जैव प्रौद्योगिकी। ‪यह क्या है, इसके उपयोग, इसके उद्देश्य ‪कपड़े के उद्योग में किया जाता है। ‪क्या तुमने गाब्रीएला से नाता तोड़ लिया? ‪बेशक तुम पहले से ही जानती थी। ‪इसलिए मैं उसे नज़रअंदाज़ कर रही हूँ। ‪तुम्हें पता हैं? ‪मैं इस स्कूल से पूरी तरह से थक गई हूँ। ‪मुझे बहुत अकेलापन लगता है। ‪मेरा मतलब ‪कम से कम तुम्हारे पास हाविएर है। ‪और मैं दिल से माफ़ी माँगता हूँ। ‪आने के लिए शुक्रिया। ‪शुक्रिया। ‪जाओ। ‪हाँ। ‪शुक्रिया। ‪मिगैल। ‪हम बात कर सकते हैं? ‪यह स्कूल के बारे में है? ‪तुमने एक भी संदेश का जवाब नहीं दिया। ‪में एक हज़ार चीज़ें चल रही हैं। ‪जिसके बारे में सोचना चाहता हूँ। ‪तुम सच कह रहे हो? ‪सुनो। ‪तुम्हें इसमें दिलचस्पी होगी। ‪ये हाविएर के दो सबसे अच्छे दोस्त हैं। ‪और दूसरे ने उसे ब्लॉक कर दिया। ‪के आखिर में स्कूल क्यों शुरू किया? ‪नहीं, मैंने कभी नहीं पूछा। ‪यह अजीब है, है ना? ‪क्या तुम क्लास छोड़ना चाहते हो? ‪हैलो। ‪क्या तुमने मारिया को देखा है? ‪नहीं। ‪तुम चाहो तो यहाँ बैठ सकती हो। ‪शुक्रिया। ‪सुनो। ‪मैंने बहुत बुरा बर्ताव किया तुम्हारे साथ। ‪लेकिन तुम किस समय की बात कर रही हो? ‪साथ देने की कोशिश की। ‪तुम सही थी। ‪तुम्हें खुद सामना करना सीखना होगा। ‪खैर, हाँ। ‪मैं किसी पर भरोसा नहीं कर सकती। ‪यह असहनीय स्कूल है। ‪यह है। ‪यह स्वादिष्ट है। ‪तुम खा सकते हो। ताकि तुम और दुखी न हो। ‪मुझे मशहूर बना दो! ‪वे तीनों यहाँ खेलते थे। ‪इसे पास करो, यार। ‪एक साथी की मौत का उल्लेख नहीं किया। ‪क्या वह संदेहपूर्ण नहीं है? ‪वह इसका उल्लेख क्यों नहीं करेगा? ‪मुझे नहीं पता। ‪चलो उसके दोस्त से पूछते हैं। ‪मैं ‪तो मैं जानना चाहती थी यह कैसी रही। ‪तुम कह सकती हो यह अच्छी रही। ‪मैं बच गया। ‪खैर, हाँ। बेशक तुम बच गए। मैंने कहा था। ‪तुम अच्छी तरह से जानते हो तुम बढ़िया हो। ‪है ना? ‪मैंने यह कई बार कहा है। ‪और ‪के साथ क्या हुआ था? नोरा के साथ? ‪देखो, सुसाना, तुम शादीशुदा हो। ‪हाँ, मैं जानती हूँ। ‪के साथ मेरा रिश्ता थोड़ा उलझा हुआ है। ‪वह बल्कि फुटबॉल देखना चाहेगा ‪सहकर्मी, पेशेवर ‪और मुझे नोरा से प्यार है। ‪मैं ‪प्रिंसिपल? ‪मैं ‪ग्रेड? ‪मैं आपके साथ एक तस्वीर ले सकती हूँ? ‪विजेता! ‪शुक्रिया। ‪वे खेल की जगह देखना चाहते हैं। ‪हाँ, ज़रूर। हाँ। ‪वह देखना चाहते हैं। हाँ। चलो चलते हैं। ‪हाँ? ‪मैं साथ चलता हूँ। ‪शुक्रिया। ‪तुम्हारा स्वागत है। ‪हैलो। ‪क्या चल रहा है? ‪हैलो। ‪तुम कबसे चोर बनना बंद करके व्यापारी बन गई? ‪तुम पक्का एक उद्यमी हो। ‪मेरे पास वह है जो तुम लेते हो। ‪और जो मेरे पास है, वह सस्ता नहीं है। ‪अरे, बस अपने बॉस से सावधान रहना। ‪सच, में। ‪ध्यान रहे। ‪सच में। ‪सुनो! ‪तुम यहाँ नहीं आ सकती। ‪मैं उस मस्से की जाँच करवाती, भाई। ‪क्या तुम जा रहे हो? ‪माफ़ करना? ‪क्या तुम जल्दी में हो? तुम नहाओगे नहीं? ‪तुम कौन हो? ‪जो यहाँ खेला करता था। ‪कौन? ‪गीएर्मो गर्रिबे। ‪तुम्हें जाना चाहिए। ‪हम बस जानना चाहते हैं क्या हुआ था। ‪वह मर चुका है। तुम और क्या जानना चाहते हो? ‪तुम कसूरवार महसूस करते हो। ‪इसीलिए तुम घर जाकर नहाना पसंद करते हो? ‪तुम अपने टीम के साथियों को पसंद नहीं करते। ‪क्या कह रही है। हाँ, नहीं ‪चिंता मत करो। ‪लेकिन उन्होंने हमें कुछ नहीं बताया। ‪ख्याल रखना! ‪लेकिन उन्होंने हमें कुछ नहीं बताया। ‪हावि! ‪हम तुम्हारा इंतज़ार कर रहे थे। ‪मैं अपने दोस्त क्विनताना को बता रहा था ‪क्विनतानिया। ‪हाँ। ‪तुम फुटबॉल टीम में ज़रूर खेलोगे, है ना? ‪खैर, केवल अगर तुम चाहते हो। ‪कोई दबाव महसूस करो, ठीक है? ‪खैर, क्विनताना सही है, बेटा। तुम तय करें। ‪लेकिन याद रखना, फुटबॉल हमारे खून में है। ‪को गंवा नहीं सकते, ठीक है, बेटा? ‪हाविएर। विजेता, भाई। ‪देखे जब तुमने उनसे वह पूछा? ‪वे कुछ कहने वाले नहीं थे। ‪क्या तुम सच में मेमो के दोस्त हो? ‪हाँ। ‪और हमें विश्वास नहीं होता कि वह कूदा था। ‪यह सच नहीं है। ‪हाविएर विलियम्स ने उसे मार डाला। ‪बस इतना ही! ध्यान लगाओ! ‪पास करो, हावी! ‪यहाँ! ‪हम विलियम्स हैं, बेटा। ‪उसे पैरों में लात मारो, सर! ‪इसे यहाँ पास करें! ‪हावी, यहाँ पर! ‪सिखाओ! ‪मैं यहाँ हूँ, लानत है! ‪वह टीम का कप्तान था। ‪की शुरुआत के लिए ज़िम्मेदार था। ‪यह धार्मिक संस्कार के जैसा है। ‪टीम समूह में विडियो बाँटें। ‪उन्हें यह मज़ाकिया लगा। ‪कल मिलते हैं, यार। ‪फिर मिलते हैं! ‪मुझे इस बारे में बात नहीं करनी चाहिए। ‪करता है और सब मान लेते हैं। ‪लेकिन अंदर से, वह एक धौँसिया है। ‪चलो भी, बेटा! करो! ‪बस इतना ही! जाओ! ‪दिखाओ इन्हें विलियम्स क्या हैं! ‪हावी! ‪ध्यान लगाओ! ‪उसे पैरों में लात मारो! ‪उसे हराओ! ‪क्या बकवास है, यार? ‪माजरा क्या है, हाविएर? ‪अरे! ‪हाविएर, यह क्या है? ‪बहुत हुआ! ‪अरे! ‪क्या हुआ तुम्हें? ‪आराम से। ‪यह एक दोस्ताना मैच है। ‪चलो भी, बेटा। शांत हो जाओ। ‪पापा! ‪तुमने इसकी रिपोर्ट क्यों नहीं की? ‪उसके पिता की वजह से। ‪टीम से निकाल देने के लिए मना लिया। ‪को मिटाने के लिए बाकियों को पैसे दिए। ‪ठीक है, कमीने। ‪कि तुम्हें कौन मुसीबत से बाहर निकालता है। ‪के साथ किया, उससे मुझे गुस्सा आता है। ‪उन्हें लोगों को ब्लैकमेल करने के लिए रखे? ‪यह वही है जो हैकर कर रहा है। ‪उसे ढूँढने में मदद कर रहा था। ‪हाँ, सही कहा। ‪ताकि तुम उस तक कभी न पहुँचो। ‪यह स्वीकार करना बहुत कठिन है ‪जो तुमने सोचा था कि वे थे। ‪कौन थे जब तक मैंने खबर नहीं देखी। ‪और फिर भी, मुझे उनकी याद आती है। ‪हैलो। ‪तुम्हें क्या चाहिए, मारिया? ‪बस बात करनी है। ‪इसाबेला को लगता है तुम बनी हो। ‪क्या? ‪मुझे पता है। ‪वह क्यों सोचती है वह मैं हूँ? ‪और इसके अलावा, मैं कुलटा नहीं हूँ। ‪मारिया, क्या तुम ठीक हो? तुमने क्या खाया? ‪इसाबेला ने मुझे कुछ ब्राउनी बनाकर दी थी। ‪खैर, अलविदा, ब्राउनी। ‪नहीं, मैं कल से बीमार महसूस कर रही हूँ। ‪असल में, मैं सो नहीं पाई। ‪तनाव से दर्द कर रहे हैं। ‪कि इसका कारण तनाव है। ‪यह क्या हो सकता है? ‪शायद तुम गर्भवती हो। ‪यह तुम्हारे पास था? ‪हैकर ने इसे मुझसे लिया था। ‪और यह तुम्हारे लॉकर में था। ‪तुम गंभीर नहीं हो। ‪विलियम्स। ‪हमने विडियो देखा। ‪कौन सा विडियो? ‪गीएर्मो गर्रिबे का विडियो। ‪हमने देखा जब वह कूदा था। ‪या जब तुमने उसे कूदने पर मजबूर किया। ‪मजबूर नहीं किया था। ‪सोफ़िया, यह मैं नहीं था। ‪मेरा मतलब ‪किसी को लग सकता है ‪हावी, रुको। ‪हाविएर। रुको। ‪रुको। ‪सोफ़ी, इधर आओ। ‪मेरी बात सुनो। ‪आओ। ‪तुम मेरा विश्वास नहीं करोगी? ‪सोफ़िया, तुम मुझे जानती हो। ‪तुम जानती हो मैं कौन हूँ। ‪मैं नहीं जानती। ‪क्या? ‪नहीं। मैं नहीं जानती तुम कौन हो। ‪तो? ‪क्या तुम ठीक रहोगी? ‪हाँ। ‪तुम चाहो तो मैं थोड़ी देर रुक सकता हूँ। ‪तकनीकी रूप से, मुझे सज़ा मिली है। ‪कि हम इस कमीने को रोक सकते हैं। ‪किसी राज़ का खुलासा नहीं किया है। ‪हाँ, लेकिन हमारे पास कोई सबूत नहीं है। ‪यह वह नहीं था, है ना? ‪मुझे नहीं पता। ‪मुझे नहीं पता। ‪थोड़ा आराम करो। ‪ठीक है? ‪की ज़रूरत हो, तो मुझे फ़ोन करना। ‪ठीक है? ‪ठीक है। ‪ख्याल रखना। ‪हाँ। ‪ठीक है। ‪कि तुम क्यों आते रहते हो। ‪वह तुम्हारी वजह से यहाँ है। ‪उसके जागने की संभावना कम होती रहती है। ‪नहीं, लुईस ‪उससे ज़्यादा मज़बूत है। ‪लुईस जाग जाएगा। ‪जैरी, बंद करो! ‪मैं भी सच में नहीं जानता। ‪तुम चाहो तो रुक सकते हो। ‪मैं इन तस्वीरों को देख रही थी ‪देखो। ‪यहाँ तुम अपने पिता के साथ हो। ‪क्या तुम्हें यह जन्मदिन याद है? ‪याद है? ‪हाँ। ‪मुझे तुम्हारे लंबे बाल बहुत पसंद थे। ‪सुंदर। ‪नोरा, क्या सब ठीक है? ‪मोटरसाइकिल पर स्कूल से निकल रही थी। ‪नोरा, यह वैसा नहीं है जैसा दिखता है। ‪जैसा दिखता है वैसा नहीं है? तो यह क्या है? ‪आप मुझ से क्या कहलवाना चाहती हैं? ‪सच, प्रिय! ‪तुम आजकल बहुत अजीब बर्ताव कर रही हो। ‪तुम मुझे अब कुछ नहीं बताती। ‪तुम उस दिन नशे में थी। ‪यह कुछ भी नहीं है। ‪तुम स्कूल से निकल जाती हो। ‪मैं तुम्हें जवाब देती हूँ और तुम ‪कुछ नहीं हो रहा। ‪क्या मतलब? ‪कुछ गड़बड़ है! ‪ठीक है, रुको! ‪बंद करो, माँ! ‪में इतनी चिंता करना बंद कर सकती हो? ‪तो मुझे किसकी चिंता करनी चाहिए? ‪मुझे नहीं पता। ‪आप खुद से शुरुआत कर सकती हो। ‪आप खुश रहना शुरू कर सकती हो, ठीक है? ‪आपने मेरी वजह से क्विनतानिया को मना किया! ‪क्योंकि आपने सोचा मुझे दुख होगा! ‪सोचती हैं, मैं उससे ज़्यादा मज़बूत हूँ। ‪"मैं क्या सोच रहा था? ‪कहाँ थे आप इतने दिनों से? ‪मैंने खत्म कर दी। ‪आ रहा हूँ! ‪NETFLIX ओरिजिनल सीरीज़ ‪"सोफ़िया।" ‪"सच में?" ‪"एक मुखौटा?" ‪"मुझे लगा तुम कुछ अनोखा करोगे।" ‪"मेरा मतलब, तुम्हारे अहंकार के कारण।" ‪"क्या तुम मुझे जानती हो?" ‪"यह सच नहीं है।" ‪"क्या तुम पता लगाने से डरती हो?" ‪"नहीं, मैं तुम्हें नहीं जानती।" ‪"मैं तुम्हें नहीं ढूँढ पा रही।" ‪"हम इतने करीब रहे हैं।" ‪"नहीं, यह सच नहीं है।" ‪"मैं तुम्हारे बहुत करीब रहा हूँ।" ‪"तुम इसकी पुष्टि करने से डरती हो।" ‪तुम कब्रिस्तान नहीं गई। ‪नहीं, मुझे पता है। माफ़ करना। ‪क्या तुम मुझे बताओगी क्या चल रहा है? ‪क्या आप मुझे बताएँगी ‪आपने क्विनतानिया को ना क्यों कहा? ‪तुम्हें कैसे पता? ‪उन्होंने मुझे बताया। ‪खैर, मुझे उनके ऑफ़िस में अँगूठी मिली। ‪तुमने कुछ क्यों नहीं कहा? ‪आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया। ‪मैंने मना कर दिया और यह मेरा फैसला था। ‪यह मेरी वजह से था? ‪सोफ़ी, मुझे खुद ‪को समझाने की ज़रूरत नहीं है। ‪और पता है क्या? ‪अब से चीज़ें बदलने वाली हैं। ‪तुम स्कूल से सीधे घर आओगी। ‪तो मुझे सज़ा दी जा रही है? ‪अगर तुम इसे ऐसे देखना चाहती हो, तो हाँ। ‪आपने मुझे कभी सज़ा नहीं दी। ‪मुझे लुईस से मिलने अस्पताल जाना है। ‪अस्पताल से सीधे स्कूल, ‪और स्कूल से सीधे घर। ‪चार सौ छब्बीस। ‪तुम यहाँ क्या कर रहे हो? ‪क्या तुम उन चीज़ों का मतलब नहीं निकलोगी? ‪अगर तुम लुईस से मिलने आए हो, ‪तो तुम अंदर क्यों नहीं जाते? ‪मैं क्या कर सकता हूँ? ‪मैं चीज़ों को ठीक नहीं कर सकता। ‪मैं कसम खाता हूँ मैं वह सारी बेवकूफ़ियाँ... ‪बदलना चाहता हूँ जो मैंने ‪की हैं, लेकिन मैं नहीं कर सकता। ‪मैं कुछ नहीं कर सकता। ‪मैं यहाँ रहने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। ‪खैर, हाँ। तुम इंतज़ार कर सकते हो। ‪तुम्हें पता है यह कौन था? ‪जब तुम्हें पता चले, ‪तो मुझे बताना। मैं उस हरामी को मार दूँगा। ‪तुम कुछ नहीं सीखे, जैरी। ‪वह कैसा है? ‪बहुत बुरा। ‪तुमने कहा था तुम उसकी ‪दोस्त हो जब तुम मेरे घर आई थी। ‪मैंने उसकी कई बार मदद की। ‪भले ही यह जानबूझकर ‪कभी नहीं किया, सच कहूँ तो। ‪मैं उसे कईयों से ज़्यादा पसंद ‪करती हूँ, मैं ऐसा कह सकती हूँ। ‪मुझे समझ नहीं आता उसने ऐसा क्यों किया। ‪ऐसा लगता है ‪हाई स्कूल में यह मेरा पहला दिन है। ‪तुम सच में यह करना चाहती हो? ‪यह मेरा विचार था। ‪बेहतर होगा तुम करो। ‪वरना तुम्हें तकलीफ़ होगी। ‪तुम यहाँ क्यों आई हो? ‪हमें बात करनी होगी। ‪नहीं, यह ऐसा नहीं है ‪जैसा दिखता है। मैं समझा सकता हूँ। ‪हम ब्रूनो के बारे में बात करना चाहते हैं। ‪प्रिंसिपल। ‪हाँ। ‪हाँ, चलो चलें। ‪मारिया। ‪क्या हाल है? ‪ठीक हूँ। ‪मुझे चिंता हो रही थी। ‪तुमने जवाब ही नहीं दिया। ‪माफ़ करना, घर पहुँचने पर मुझे बहुत चक्कर ‪आने लगे और मैं सो गई। लेकिन मैं ठीक हूँ। ‪मुझे एक संदेश आया। ‪"बनी तुम्हारे बहुत करीब है।" ‪यह नतालिया है, है ना? ‪मुझे नहीं पता। ‪मुझे नहीं लगता। ‪मारिया, तुम्हें उसे ‪बचाने की ज़रूरत नहीं है। ‪नहीं। ‪उसके साथ मेरी समस्याओं ‪का तुमसे कोई लेनादेना नहीं है। ‪ओह, देखो। ‪तुम्हारे लिए कुछ लाई हूँ। ‪मेरे लिए? ‪मुझे पता है तुम्हें ये कितने पसंद हैं। ‪शुक्रिया। ‪नहीं, इसे यहीं होना चाहिए। ‪हम क्या करने वाले है? ‪हमें प्रोजेक्टर स्थापित ‪करने के लिए किसी को ढूँढना होगा। ‪यह अभी ज़रूरी नहीं है, लुलु। ‪क्या तुमने उसे फ़ोन किया था? ‪हाँ, किया था, ‪लेकिन वॉइसमेल पर चला जाता है। ‪और मैंने संदेश भेजने की कोशिश की, ‪लेकिन उसे न मिलने की वजह से एक चिन्ह है। ‪वह वापस नहीं आ रहा है। ‪और तुम्हें इतना यकीन कैसे है? ‪वह अपना सारा निजी सामान ले गया है। ‪मैंने भी गौर किया। ‪लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह ‪हैकर से सहमत है। मैंने गौर किया होता। ‪खैर, आप कम से कम छानबीन कर सकते हैं। ‪सोफ़िया, मुझे मेरा काम ‪समझाने की किसी को ज़रूरत नहीं है। ‪अरे, मैं तुमसे ‪बात कर रहा हूँ। मेरी तरफ देखो। ‪क्या हम आपके साथ एक तस्वीर ले सकते हैं? ‪ठीक है। ‪शुक्रिया। ‪क्यों नहीं, लड़कियों। ‪दोस्तों, बहुत हुआ। बस। ‪वर्ग के लिए। डेमियन विलियम्स। ‪मैं... ‪मैं तुमसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक था। ‪हावी। ‪वह एक विजेता है। एक विजेता। ‪क्या तुम यहाँ...? ‪मातापिता की मीटिंग के लिए? ‪असल में, हमने पहले बात की थी। ‪यह क्या है? ‪पैसा। ‪तुम्हें कहाँ से मिला? ‪वही खाता जहाँ मैंने ‪कहा था यह पड़ा है। ‪खैर, शुक्रिया, बेब। ‪मुझे आशा है तुमने इसे चुराया नहीं है। ‪बहुत हुआ, रोसिता। ‪मैंने तुम्हें पैसे दे दिए ‪और मैं कुछ और सहन नहीं करूँगी। ‪ठीक है, लड़की, चिंता मत करो। ‪अलविदा। ‪वह क्या था? ‪कागज़ का एक टुकड़ा। ‪उस पर क्या था? ‪क्या बकवास है, क्या यह एक पूछताछ है? ‪मैं आज सुबह लुईस से मिलने गई थी। ‪और वह कैसा रहा? बढ़िया? ‪तुम अकेले गई थी या राउल के साथ? ‪मेरी तरफ से हैलो कहा? ‪क्योंकि वह मेरी ‪वजह से अस्पताल में है, है ना? ‪कम से कम मैं ‪इतना कर सकता हूँ, है ना? ‪उस स्थिति के कारण ‪जिसका हम सामना कर रहे हैं, ‪मुझे कठोर कदम लेने की जरूरत महसूस हुई, ‪जैसे स्कूल परिसर में मोबाइल के इस्तेमाल ‪पर प्रतिबंध लगाना। ‪इसके अलावा, एहतियाती उपाय के रूप में, ‪हम इस साल नोने रद्द कर रहे हैं। ‪क्या? ‪यह नैशनल की रात है, स्कूल की परंपरा। ‪बेशक, टिकट का पैसा वापस कर दिया जाएगा। ‪और अंत में, मैं बताना चाहता था ‪कि हम उस व्यक्ति या लोगों को पकड़ने के लिए ‪बहुत व्यापक छानबीन करेंगे, ‪जो हाल ही में हुई ‪सारी चीज़ों के लिए ज़िम्मेदार है। ‪मैं सहमत हूँ। मुझे पता है आप चिंतित हैं। ‪शांति। आइए कुछ सवालों ‪के जवाब देते हैं। ठीक है, सर। ‪सफेद जैव प्रौद्योगिकी को औद्योगिक जैव ‪प्रौद्योगिकी के रूप में भी जाना जाता है। ‪इसका क्या उपयोग है? ‪उदाहरण के लिए, कपड़े का उद्योग। ‪नई सामग्री बनाई जाती है, ‪जैसे सड़नशील प्लास्टिक, ‪और जैव ईंधन। ‪और मैं... ‪रोसिता, क्या तुम पूरी कक्षा ‪को बताओगी तुम क्या बात कर रही हो ‪तो हमें भी पता चले? ‪हम अब नोने रद्द नहीं कर सकते। ‪दोस्तों, मुझे पता है यह तुम्हारे लिए ‪ज़रूरी है, लेकिन हम सच में नहीं कर सकते। ‪सोफ़िया, अब क्या? ‪क्या मैं बाथरूम जा सकती हूँ? ‪ठीक है। ‪चलो कक्षा फिर से शुरू करें। ‪सफेद जैव प्रौद्योगिकी। ‪यह क्या है, इसके उपयोग, इसके उद्देश्य... ‪इसका उपयोग ‪कपड़े के उद्योग में किया जाता है। ‪क्या तुमने गाब्रीएला से नाता तोड़ लिया? ‪बेशक तुम पहले से ही जानती थी। ‪इसलिए मैं उसे नज़रअंदाज़ कर रही हूँ। ‪तुम्हें पता हैं? ‪मैं इस स्कूल से पूरी तरह से थक गई हूँ। ‪मुझे बहुत अकेलापन लगता है। ‪मेरा मतलब... ‪कम से कम तुम्हारे पास हाविएर है। ‪खैर, मैं आपके आने की सराहना ‪करता हूँ, और अगर कोई और सवाल न हो, ‪मैं आपकी सेवा में हूँ ‪और मैं दिल से माफ़ी माँगता हूँ। ‪आने के लिए शुक्रिया। ‪शुक्रिया। ‪जाओ। ‪हाँ। ‪शुक्रिया। ‪मिगैल। ‪हम बात कर सकते हैं? ‪यह स्कूल के बारे में है? ‪तुमने एक भी संदेश का जवाब नहीं दिया। ‪नोरा, मेरे दिमाग ‪में एक हज़ार चीज़ें चल रही हैं। ‪तुम आखिरी चीज़ हो ‪जिसके बारे में सोचना चाहता हूँ। ‪तुम सच कह रहे हो? ‪सुनो। ‪तुम्हें इसमें दिलचस्पी होगी। ‪ये हाविएर के दो सबसे अच्छे दोस्त हैं। ‪उनमें से एक की मौत हो गई ‪और दूसरे ने उसे ब्लॉक कर दिया। ‪क्या तुम जानती हो हाविएर ने साल ‪के आखिर में स्कूल क्यों शुरू किया? ‪नहीं, मैंने कभी नहीं पूछा। ‪यह अजीब है, है ना? ‪क्या तुम क्लास छोड़ना चाहते हो? ‪हैलो। ‪क्या तुमने मारिया को देखा है? ‪नहीं। ‪तुम चाहो तो यहाँ बैठ सकती हो। ‪शुक्रिया। ‪सुनो। ‪मैंने बहुत बुरा बर्ताव किया तुम्हारे साथ। ‪लेकिन तुम किस समय की बात कर रही हो? ‪जब तुमने बाथरूम में मेरा ‪साथ देने की कोशिश की। ‪तुम सही थी। ‪तुम्हें खुद सामना करना सीखना होगा। ‪खैर, हाँ। ‪मैं किसी पर भरोसा नहीं कर सकती। ‪यह असहनीय स्कूल है। ‪यह है। ‪यह स्वादिष्ट है। ‪तुम खा सकते हो। ताकि तुम और दुखी न हो। ‪उच्च प्रदर्शन केंद्र ‪"हाविएर इस टीम का कप्तान था।" ‪मुझे मशहूर बना दो! ‪वे तीनों यहाँ खेलते थे। ‪इसे पास करो, यार। ‪और हाविएर ने कभी भी अपने ‪एक साथी की मौत का उल्लेख नहीं किया। ‪क्या वह संदेहपूर्ण नहीं है? ‪वह इसका उल्लेख क्यों नहीं करेगा? ‪मुझे नहीं पता। ‪चलो उसके दोस्त से पूछते हैं। ‪मैं... ‪मुझे मातापिता की मीटिंग की चिंता थी ‪तो मैं जानना चाहती थी यह कैसी रही। ‪तुम कह सकती हो यह अच्छी रही। ‪मैं बच गया। ‪खैर, हाँ। बेशक तुम बच गए। मैंने कहा था। ‪इसके अलावा, ‪तुम अच्छी तरह से जानते हो तुम बढ़िया हो। ‪है ना? ‪मैंने यह कई बार कहा है। ‪और... ‪सोफ़िया की माँ ‪के साथ क्या हुआ था? नोरा के साथ? ‪देखो, सुसाना, तुम शादीशुदा हो। ‪हाँ, मैं जानती हूँ। ‪लेकिन मान लेते हैं कि गुएरो ‪के साथ मेरा रिश्ता थोड़ा उलझा हुआ है। ‪वह बल्कि फुटबॉल देखना चाहेगा... ‪देखो, तुम और मैं सहकर्मी हैं, ‪सहकर्मी, पेशेवर... ‪और मुझे नोरा से प्यार है। ‪मैं... ‪प्रिंसिपल? ‪मैं... ‪ग्रेड? ‪मैं आपके साथ एक तस्वीर ले सकती हूँ? ‪विजेता! ‪शुक्रिया। ‪वे खेल की जगह देखना चाहते हैं। ‪हाँ, ज़रूर। हाँ। ‪वह देखना चाहते हैं। हाँ। चलो चलते हैं। ‪हाँ? ‪मैं साथ चलता हूँ। ‪शुक्रिया। ‪तुम्हारा स्वागत है। ‪हैलो। ‪क्या चल रहा है? ‪हैलो। ‪तुम कबसे चोर बनना बंद करके व्यापारी बन गई? ‪तुम पक्का एक उद्यमी हो। ‪हाँ, पर सच कहूँ, मुझे नहीं लगता ‪मेरे पास वह है जो तुम लेते हो। ‪और जो मेरे पास है, वह सस्ता नहीं है। ‪अरे, बस अपने बॉस से सावधान रहना। ‪सच, में। ‪ध्यान रहे। ‪सच में। ‪सुनो! ‪तुम यहाँ नहीं आ सकती। ‪अगर मैं तुम होती, ‪मैं उस मस्से की जाँच करवाती, भाई। ‪क्या तुम जा रहे हो? ‪माफ़ करना? ‪क्या तुम जल्दी में हो? तुम नहाओगे नहीं? ‪तुम कौन हो? ‪हम उस लड़के के दोस्त हैं ‪जो यहाँ खेला करता था। ‪कौन? ‪गीएर्मो गर्रिबे। ‪तुम्हें जाना चाहिए। ‪हम बस जानना चाहते हैं क्या हुआ था। ‪वह मर चुका है। तुम और क्या जानना चाहते हो? ‪तुम कसूरवार महसूस करते हो। ‪इसीलिए तुम घर जाकर नहाना पसंद करते हो? ‪तुम अपने टीम के साथियों को पसंद नहीं करते। ‪वह नहीं जानती वह ‪क्या कह रही है। हाँ, नहीं... ‪चिंता मत करो। ‪लेकिन उन्होंने हमें कुछ नहीं बताया। ‪ख्याल रखना! ‪लेकिन उन्होंने हमें कुछ नहीं बताया। ‪हावि! ‪हम तुम्हारा इंतज़ार कर रहे थे। ‪मैं अपने दोस्त क्विनताना को बता रहा था... ‪क्विनतानिया। ‪हाँ। ‪मैं उससे कह रहा था ‪तुम फुटबॉल टीम में ज़रूर खेलोगे, है ना? ‪खैर, केवल अगर तुम चाहते हो। ‪मैं नहीं चाहता तुम ‪कोई दबाव महसूस करो, ठीक है? ‪खैर, क्विनताना सही है, बेटा। तुम तय करें। ‪लेकिन याद रखना, फुटबॉल हमारे खून में है। ‪यह वही है जो हमें ख़ास बनाता है ‪और तुम उस मौके ‪को गंवा नहीं सकते, ठीक है, बेटा? ‪हाविएर। विजेता, भाई। ‪तुमने उनके चेहरे ‪देखे जब तुमने उनसे वह पूछा? ‪वे कुछ कहने वाले नहीं थे। ‪क्या तुम सच में मेमो के दोस्त हो? ‪हाँ। ‪और हमें विश्वास नहीं होता कि वह कूदा था। ‪यह सच नहीं है। ‪हाविएर विलियम्स ने उसे मार डाला। ‪बस इतना ही! ध्यान लगाओ! ‪पास करो, हावी! ‪यहाँ! ‪हम विलियम्स हैं, बेटा। ‪उसे पैरों में लात मारो, सर! ‪इसे यहाँ पास करें! ‪हावी, यहाँ पर! ‪सिखाओ! ‪मैं यहाँ हूँ, लानत है! ‪वह टीम का कप्तान था। ‪और वह नौसिखियों ‪की शुरुआत के लिए ज़िम्मेदार था। ‪यह धार्मिक संस्कार के जैसा है। ‪हाविएर को विचार आए, ‪उन्होंने उनको रिकॉर्ड किया, ‪और फिर उन्होंने ‪टीम समूह में विडियो बाँटें। ‪उन्हें यह मज़ाकिया लगा। ‪कल मिलते हैं, यार। ‪फिर मिलते हैं! ‪मुझे इस बारे में बात नहीं करनी चाहिए। ‪"कूद! कूदो, कमीने!" ‪देखो, हाविएर अच्छा बर्ताव ‪करता है और सब मान लेते हैं। ‪लेकिन अंदर से, वह एक धौँसिया है। ‪चलो भी, बेटा! करो! ‪बस इतना ही! जाओ! ‪दिखाओ इन्हें विलियम्स क्या हैं! ‪हावी! ‪ध्यान लगाओ! ‪उसे पैरों में लात मारो! ‪उसे हराओ! ‪क्या बकवास है, यार? ‪माजरा क्या है, हाविएर? ‪अरे! ‪हाविएर, यह क्या है? ‪बहुत हुआ! ‪अरे! ‪क्या हुआ तुम्हें? ‪आराम से। ‪यह एक दोस्ताना मैच है। ‪चलो भी, बेटा। शांत हो जाओ। ‪पापा! ‪तुमने इसकी रिपोर्ट क्यों नहीं की? ‪उसके पिता की वजह से। ‪उन्होंने बिना मानहानि के उसे ‪टीम से निकाल देने के लिए मना लिया। ‪और उन्होंने विडियो ‪को मिटाने के लिए बाकियों को पैसे दिए। ‪ठीक है, कमीने। ‪यह मत भूलो ‪कि तुम्हें कौन मुसीबत से बाहर निकालता है। ‪जो हाविएर ने विडियो ‪के साथ किया, उससे मुझे गुस्सा आता है। ‪उन्हें लोगों को ब्लैकमेल करने के लिए रखे? ‪यह वही है जो हैकर कर रहा है। ‪लेकिन वह मुझे ‪उसे ढूँढने में मदद कर रहा था। ‪हाँ, सही कहा। ‪ताकि तुम उस तक कभी न पहुँचो। ‪देखो, सोफ़िया, मुझे पता है ‪यह स्वीकार करना बहुत कठिन है... ‪कि कोई वह नहीं है ‪जो तुमने सोचा था कि वे थे। ‪मुझे नहीं पता था कि मेरे पिताजी ‪कौन थे जब तक मैंने खबर नहीं देखी। ‪और फिर भी, मुझे उनकी याद आती है। ‪हैलो। ‪तुम्हें क्या चाहिए, मारिया? ‪बस बात करनी है। ‪इसाबेला को लगता है तुम बनी हो। ‪क्या? ‪मुझे पता है। ‪वह क्यों सोचती है वह मैं हूँ? ‪वह मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी ‪और इसके अलावा, मैं कुलटा नहीं हूँ। ‪मारिया, क्या तुम ठीक हो? तुमने क्या खाया? ‪इसाबेला ने मुझे कुछ ब्राउनी बनाकर दी थी। ‪खैर, अलविदा, ब्राउनी। ‪नहीं, मैं कल से बीमार महसूस कर रही हूँ। ‪असल में, मैं सो नहीं पाई। ‪यहाँ तक कि मेरे स्तन ‪तनाव से दर्द कर रहे हैं। ‪मुझे सच में शक है ‪कि इसका कारण तनाव है। ‪यह क्या हो सकता है? ‪शायद तुम गर्भवती हो। ‪माइनर लीग में दुखद दुर्घटना ‪यह तुम्हारे पास था? ‪हैकर ने इसे मुझसे लिया था। ‪और यह तुम्हारे लॉकर में था। ‪तुम गंभीर नहीं हो। ‪देखो, हम जानते हैं तुमने क्या किया, ‪विलियम्स। ‪हमने विडियो देखा। ‪कौन सा विडियो? ‪गीएर्मो गर्रिबे का विडियो। ‪हमने देखा जब वह कूदा था। ‪या जब तुमने उसे कूदने पर मजबूर किया। ‪मैंने उसे कूदने के लिए ‪मजबूर नहीं किया था। ‪सोफ़िया, यह मैं नहीं था। ‪मेरा मतलब... ‪किसी को लग सकता है... ‪हावी, रुको। ‪हाविएर। रुको। ‪रुको। ‪सोफ़ी, इधर आओ। ‪मेरी बात सुनो। ‪आओ। ‪तुम मेरा विश्वास नहीं करोगी? ‪सोफ़िया, तुम मुझे जानती हो। ‪तुम जानती हो मैं कौन हूँ। ‪मैं नहीं जानती। ‪क्या? ‪नहीं। मैं नहीं जानती तुम कौन हो। ‪तो? ‪क्या तुम ठीक रहोगी? ‪हाँ। ‪तुम चाहो तो मैं थोड़ी देर रुक सकता हूँ। ‪तकनीकी रूप से, मुझे सज़ा मिली है। ‪खैर, मैं बस तुम्हें बताना चाहता हूँ ‪कि हम इस कमीने को रोक सकते हैं। ‪उसने अभी तक ‪किसी राज़ का खुलासा नहीं किया है। ‪हाँ, लेकिन हमारे पास कोई सबूत नहीं है। ‪तुम्हें अभी भी लगता है ‪यह वह नहीं था, है ना? ‪मुझे नहीं पता। ‪मुझे नहीं पता। ‪थोड़ा आराम करो। ‪ठीक है? ‪अगर तुम्हें कभी भी, किसी भी चीज़ ‪की ज़रूरत हो, तो मुझे फ़ोन करना। ‪ठीक है? ‪ठीक है। ‪ख्याल रखना। ‪हाँ। ‪ठीक है। ‪मुझे समझ नहीं आता ‪कि तुम क्यों आते रहते हो। ‪वह तुम्हारी वजह से यहाँ है। ‪हर बीतते दिन के साथ, ‪उसके जागने की संभावना कम होती रहती है। ‪नहीं, लुईस... ‪वह जितना दिखता है, ‪उससे ज़्यादा मज़बूत है। ‪लुईस जाग जाएगा। ‪जैरी, बंद करो! ‪मैं भी सच में नहीं जानता। ‪तुम चाहो तो रुक सकते हो। ‪मैं इन तस्वीरों को देख रही थी... ‪देखो। ‪यहाँ तुम अपने पिता के साथ हो। ‪क्या तुम्हें यह जन्मदिन याद है? ‪याद है? ‪हाँ। ‪मुझे तुम्हारे लंबे बाल बहुत पसंद थे। ‪सुंदर। ‪नोरा, क्या सब ठीक है? ‪मैंने देखा तुम एक लड़के के साथ ‪मोटरसाइकिल पर स्कूल से निकल रही थी। ‪नोरा, यह वैसा नहीं है जैसा दिखता है। ‪जैसा दिखता है वैसा नहीं है? तो यह क्या है? ‪आप मुझ से क्या कहलवाना चाहती हैं? ‪सच, प्रिय! ‪तुम आजकल बहुत अजीब बर्ताव कर रही हो। ‪मुझे ऐसा लगता है ‪तुम मुझे अब कुछ नहीं बताती। ‪तुम उस दिन नशे में थी। ‪यह कुछ भी नहीं है। ‪तुम स्कूल से निकल जाती हो। ‪मैं तुम्हें जवाब देती हूँ और तुम... ‪कुछ नहीं हो रहा। ‪क्या मतलब? ‪कुछ गड़बड़ है! ‪ठीक है, रुको! ‪बंद करो, माँ! ‪क्या आप एक बार के लिए मेरे बारे ‪में इतनी चिंता करना बंद कर सकती हो? ‪तो मुझे किसकी चिंता करनी चाहिए? ‪मुझे नहीं पता। ‪आप खुद से शुरुआत कर सकती हो। ‪आप खुश रहना शुरू कर सकती हो, ठीक है? ‪आपने मेरी वजह से क्विनतानिया को मना किया! ‪क्योंकि आपने सोचा मुझे दुख होगा! ‪और पता है क्या? आप जितना ‪सोचती हैं, मैं उससे ज़्यादा मज़बूत हूँ। ‪"तुम्हारे पापा ने जो किया..." ‪"मैं क्या सोच रहा था?" ‪"मैं क्या सोच रहा था? ‪क्या तुम जानती हो...?" ‪"क्या तुम जानती हो क्या हो सकता है?" ‪"क्या तुम्हारी ‪अपने पिता से अच्छी बनती थी?" ‪"समय बीतता है और फिर भी दर्द होता है।" ‪"अगर तुम्हारे पापा..." ‪"मैं जेल चला जाऊँगा।" ‪"अगर तुम्हारे पिताजी देख सकते..." ‪"मैं जेल चला जाऊँगा।" ‪"मैं क्या सोच रहा था?" ‪"मेरे पापा मर चुके हैं।" ‪"समय बीतता है और फिर भी दर्द होता है।" ‪कहाँ थे आप इतने दिनों से? ‪"मेरे पापा कहते थे ‪कि ये छोटी चीज़ें जादुई हैं।" ‪"इसलिए तुम बोर नहीं होती।" ‪मैंने खत्म कर दी। ‪"तुम्हारे पापा की पसंदीदा किताब।" ‪वहाँ पहुँचकर मैं खबर कर दूँगी। " ‪"कितना कमीना है।" ‪"क्या तुम जानती हो ‪इसका खुलासा होने पर क्या होगा, सोफ़ी?" ‪"हाँ, मैं जानती हूँ।" ‪"अगर तुम्हारी माँ को पता चल गया, ‪तो वह तुम्हें कभी माफ़ नहीं करेगी।" ‪@_ऑलयौरसीक्रेट्स ‪मैं तुम्हारा राज़ जानता हूँ ‪"मैं क्या सोच रहा था? मूर्ख!" ‪"मैं जेल चला जाऊँगा।" ‪आ रहा हूँ! ‪संवाद अनुवादक: नीना किस
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और फिर नैना अविनाश के पास आकर बोलती हैं, " हां अवि, अब बोलो क्या हुआ, कुछ काम था क्या तुम्हें" , अविनाश उसकी बात सुनकर हंसता हैं और फिर उससे बोलता हैं, " काम और मुझे , नहीं तो मैं तो यहां पर तुम्हें तुम्हारे काम से ही बुलाया था" , " मेरे काम से लेकिन मेरा कौन सा काम हैं जिसके लिए तुमने मुझे ही बुलाया हैं यहां पर" , नैना ने चौंकते हुए पूछा, " लगता हैं तुम भूल गई नैना, कल तुमने ही तो कहा था की तुम्हें उस सुपर हीरो कश्यप से मिलना हैं, और आज तुम अपनी ही बोली गई बात को भूल गई हो, क्या नैना तुम भी ना" , सूरज ने नैना से कहा, " अरे हां मैं तो भूल ही गई थी उस बारे में, लेकिन तुम दोनों ने तो कहा था की तुम पहले उस आदमी से बात करोगे उसके बाद ही तुम लोग मुझे उस सुपर हीरो कश्यप से मिलवाओगे" , नैना ने कहा, " हां उस आदमी ने बोल दिया हैं और वो उस सुपर हीरो से तुम्हें आज ही मिलवा देगा" , अविनाश ने कहा, " क्या सच में उसने मुझसे मिलने के लिए हां बोल दिया हैं" , नैना ने जोर से चिल्लाते हुए क्लास रूम में सबके सामने कहा, " तुम क्या कर रही हो नैना, इसमें इतना चिल्लाने की क्या जरूरत हैं, तुम ये बात धीरे से भी तो बोल सकती हो ना" , अविनाश ने कहा, " हां, वही तो, इतना चिल्लाने की क्या जरूरत हैं" , सूरज ने कहा, उसके बाद नैना अपने आस पास क्लास रूम में देखती हैं, जहां पर बाकी के स्टूडेंट भी उसे ही देख रहे थे, क्योंकि नैना ने इतनी जोर से चिल्लाते हुए जो बोला था, और फिर वो धीरे से बोलती हैं, " सॉरी वो मैं कुछ ज्यादा ही एक्साइटेड हो गई थी, इसलिए अपनी खुशी को कंट्रोल नहीं कर पाई" , " अब मेरी बात ध्यान से सुनो, तुम्हें वो सुपर हीरो कश्यप आज शाम को उसी स्कूल में मिलेगा जिसमें कुछ दिनों पहले उन अपराधियों ने उन छोटे बच्चों को कैद करके रखा हुआ था, और तुम वहां पर शाम को ठीक पांच बजे उस स्कूल में पहुंच जाना, और हां ये बात किसी और को बिलकुल भी मत बताना की तुम आज उस सुपर हीरो कश्यप से मिलने वाली हो, ठीक हैं " , अविनाश ने कहा, " हां मैं किसी को भी नहीं बताऊंगी, लेकिन वो स्कूल तो चार बजे के बाद बंद हो जाता हैं, तो फिर मैं अंदर कैसे जाउंगी" , नैना ने कहा, " तुम उसकी चिंता मत करो सूरज तुम्हें वहां पर अंदर लेकर चला जायेगा, बस तुम दोनों टाइम से वहां पर पहुंच जाना" , अविनाश ने कहा, " ठीक हैं मैं वहां पर पहुंच जाऊंगी, लेकिन तुम दोनों मेरे साथ कोई मजाक तो नहीं कर रहे हो ना, क्योंकि मुझे मज़ाक बिलकुल भी पसंद नहीं हैं" , नैना ने कहा, " मज़ाक, तुम्हें ये सब मजाक लग रहा हैं, एक तो हम दोनों इतनी मेहनत करके उस सुपर हीरो को तुमसे मिलने के लिए मना रहे हैं और एक तुम हो की तुम्हें हम दोनों की मेहनत मजाक लग रही हैं, ठीक हैं अगर तुम्हें हम दोनों पर अब भी भरोसा नहीं हैं तो तुम हम दोनों से अभी इसी वक्त दोस्ती तोड़ कर यहां से जा सकती हो, हम तुम्हें बिलकुल भी नहीं रोकेंगे", अविनाश ने थोड़े गुस्से में आकर कहा, " नहीं ऐसी बात नहीं हैं अवि, मुझे तुम दोनों पर पूरा भरोसा हैं, लेकिन वो क्या हैं न की मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा हैं,की सुपर हीरो कश्यप मुझसे मिलने के लिए तैयार हो गया हैं, इसलिए मैंने ऐसा बोल दिया" , नैना ने कहा, " चलो ठीक हैं अब तुम अपनी सीट पर जाकर बैठो, और जब कॉलेज की छुट्टी हो जायेगी तब तुम सूरज के साथ वहां पर उस स्कूल में पहुंच जाना" , अविनाश ने कहा, " ठीक हैं अवि मैं वहां पर टाइम से पहुंच जाऊंगी, और तुम दोनों ने मेरे लिए इतना सब किया उसके लिए थैंक्स", नैना के कहा और फिर अपने सीट पर जाकर बैठ गई, उसके थोड़ी देर के बाद क्लास रूम में प्रोफेसर आ जाते हैं और फिर वो सभी स्टूडेंट्स की अटेंडेंस लेने लगते हैं, और इधर कैप्टेन स्पाइक अपने उस न्यूज चैनल के ऑफिस में मौजूद हैं और फिर अपने उस नए शो के बारे में सोच रहा हैं, जिसमें गेस्ट के तौर पर उस सुपर हीरो कश्यप को रखने वाले थे लेकिन अब तक उस सुपर हीरो कश्यप का कुछ पता नहीं चला था और कैप्टेन स्पाइक अपने केबिन में बैठ कर उसी के बारे में सोच रहा था, की तभी उसके केबिन में एक चपरासी अंदर आता हैं, और उससे बोलता हैं, " सर आपको मनीष सर ने अपने केबिन में बुलाया हैं" , " ठीक हैं, तुम जाओ और उनको बोल दो की मैं आ रहा हूं," कैप्टेन स्पाइक ने उस चपरासी से कहा, उसके बाद कैप्टेन स्पाइक यानी की सतीश चैनल हेड मनीष कुमार के केबिन में जाता हैं, और वहां जाकर वो देखता हैं कि वहां पर पहले से ही रिपोर्टर रिमा मौजूद थी, और फिर वहां पर जाते ही सतीश मनीष से पूछता हैं, " आपने मुझे बुलाया , कुछ जरूरी काम था क्या" , " हां, वो उस सुपर हीरो कश्यप का कुछ पता चला की नहीं" , मनीष ने कहा, "नहीं सर, अभी तक तो उसका कुछ पता नहीं चला" , सतीश ने कहा, " क्या, तुम्हें अभी तक वो सुपर हीरो कश्यप नहीं मिला, अब उस कंपनी के हेड अवधेश सिंह से मैं क्या बोलूंगा, जिसने हमारे चैनल के नए शो को स्पॉन्सर करने के लिए उतने पैसे दिए थे,और उन्होंने तो हमारे चैनल के साथ डील भी साइन कर लिया हैं, अब हम क्या करे" , मनीष ने कहा, मनीष की बात सुनकर कैप्टेन स्पाइक यानी की सतीश और रिपोर्टर रिमा उदास होकर वहीं पर खड़े रहते हैं, और अपनी नज़रें नीचे झुकाए हुए रहते हैं क्योंकि उनके पास और कोई चारा नहीं था, की तभी रिपोर्टर रिमा अपने दिमाग में कुछ सोचने लगती हैं, और फिर मुस्कुराते हुए मनीष से बोलती हैं, " सर क्या आप कभी उस सुपर हीरो कश्यप से मिले हैं", " नहीं", मनीष ने कहा उदास होकर कहा, " क्या आपने उससे बातें की हैं" , रिपोर्टर रिमा ने कहा, " जब मैं उससे कभी मिला नहीं तो उससे बात कैसे कर सकता हूं, और तुम भी क्या बकवास की बातें कर रही हो, क्या हो गया हैं तुम्हें" , मनीष ने कहा, " एक मिनट सर" , रिपोर्टर रिमा ने कहा, मनीष उसकी बात सुनकर चुप हो जाता हैं, क्योंकि उसके पास अभी कोई आइडिया नहीं आ रहा था, इसलिए वो चुप हो जाता हैं, " क्या तुमने उस सुपर हीरो कश्यप को देखा हैं, सतीश" , रिमा ने सतीश से पूछा, " नहीं, क्योंकि वो अपने चेहरे पर मास्क लगा कर रखता हैं" , सतीश यानी की कैप्टेन स्पाइक ने दबी हुई आवाज में रिमा से कहा, वैसे तो कैप्टेन स्पाइक ने उस सुपर हीरो कश्यप यानी की अविनाश को अपने इसी ऑफिस में देखा था, लेकिन उसने रिमा को झूठ बोल दिया, क्योंकि अगर वो बोल देता की उसने देखा हैं, तो सब लोग उसके पीछे पड़ जाते, और उसे अपने चैनल के शो में लाने के लिए बोलते, " बिलकुल सही कहा तुमने, किसी ने भी उसे नहीं देखा हैं,और ना ही किसी ने उससे बात की हैं क्योंकि वो सभी लोगों की मदद करने के बाद वहां से चला जाता हैं, तो फिर हमें इस बात का एडवांटेज लेना चाहिए" , रिपोर्टर रिमा ने कहा, मनीष उसकी बात ध्यान से सुनता रहता हैं और फिर उससे बोलता हैं, " एडवांटेज, लेकिन कैसा एडवांटेज" , " अगर हम असली सुपर हीरो कश्यप की जगह पर किसी और को मास्क लगा कर अपने शो में चीफ गेस्ट बनाकर ले आए तो उस कंपनी के हेड अवधेश सिंह जिसने हमारे शो को स्पॉन्सर कर रहा हैं, उसको थोड़े ही पता चलेगा की मास्क के पीछे कौन हैं, अपने ऑफिस में से ही किसी को बना देते हैं" , रिपोर्टर रिमा ने कहा, " लेकिन हमारे ऑफिस में कौन होगा जिसको हम सब सुपर हीरो कश्यप बना सके" , मनीष ने कहा, " वो तो हमारे सामने ही हैं, सर " , रिपोर्टर रिमा ने कहा, " सामने, लेकिन कौन रिमा?" , मनीष ने पूछा, " सतीश, और कौन?" , रिपोर्टर रिमा ने कहा, रिमा की बात सुनकर सतीश चौंक जाता हैं, और बोलता हैं, " क्या , मैं...., लेकिन मैं कैसे बन सकता हूं" , " हां, तुम सतीश और तुम्हारी तो हाइट भी उसके जितनी ही हैं, तो तुम ही बन जाओ ना" , रिमा ने कहा, ये बात सुनकर सतीश यानी की कैप्टेन स्पाइक अपने मन में सोचने लगता हैं, " ये कहा आकर फंस गया हूं मैं, मैं जिसे खोजने और फिर उस इंद्र कवच को उससे छीनने के लिए यहां पर आया था, मुझे उसके ही तरह के कपड़े पहनकर उसकी एक्टिंग करनी पड़ रही हैं" , " क्या सोच रहे हो सतीश, रिमा जो कह रही हैं वो बिल्कुल सही कह रही हैं, नकली ही सही तुम उसकी जगह पर रहकर आम जनता के सारे सवालों के जवाब दे सकते हो" , मनीष ने कहा, " अगर आपको ये सब सही लग रहा हैं तो ठीक हैं, ऐसा ही सही, मैं उस सुपर हीरो कश्यप की जगह पर मास्क लगा उस शो में चीफ गेस्ट बनकर बैठ जाऊंगा" , सतीश यानी की कैप्टेन स्पाइक ने कहा, उधर कैप्टेन स्पाइक अपने चैनल के उस नए शो में उस सुपर हीरो कश्यप बनकर उसकी जगह पर मास्क लगा कर बैठने को तैयार था और इधर अविनाश के कॉलेज की सारी क्लासेस खत्म हो चुकी हैं और कॉलेज में छुट्टी हो चुकी हैं और सारे स्टूडेंट्स अपने घर पर जा रहे हैं,और अविनाश अपने कॉलेज के गेट से बाहर निकल रहा हैं और उसके साथ उसका दोस्त सूरज भी होता हैं, और दोनों आपस में कुछ बात कर रहे होते हैं की तभी उसको नैना सामने से आती हुई दिखाई देती हैं, और फिर अविनाश सूरज से बोलता हैं, " चुप हो जा, वो देख नैना आ रही हैं, उसके सामने इस बात का जिक्र मत करना", " ठीक हैं" , सूरज ने कहा, " मैं रेडी हूं, अब चले, वरना देर हो गई और वो वहां पर आकर चला गया तो फिर मैं उससे कैसे मिलूंगी", नैना ने कहा, " हीरो अभी वहां पर गया ही नहीं हैं तो फिर भागेगा कैसे" , सूरज ने फुसफुसाते हुए कहा, " क्या....., तुमने कुछ कहा क्या सूरज" , नैना ने कहा, "कुछ नहीं नैना, अब चलो वरना लेट हो जायेंगे, क्योंकि आज बस की स्ट्राइक भी हैं, तो हम दोनों को वहां पर पैदल ही जाना पड़ेगा, ना" , सूरज ने नैना से कहा, " उससे मुझे क्या, मेरे पास तो मेरी कार हैं न, हम लोग उस स्कूल में मेरी कार से ही चले जायेंगे" , नैना ने कहा, " क्या तुम्हारे पास अपनी पर्सनल कार हैं, लेकिन तुम तो रोज बस से आती थी ना कॉलेज", अविनाश ने कहा, " बस से, नहीं तो मैं तो रोज अपनी कार से ही आती जाती हूं, हां वो कभी कभार दोस्तों के साथ कहीं आस पास किसी रेस्टोरेंट में जाना होता हैं तो उसके लिए टैक्सी या फिर बस से उन लोगों के साथ चली जाती हूं" , नैना ने कहा, " लेकिन उस दिन जब उस स्कूल में उन अपराधियों ने उन बच्चों को कैद करके रखा था और तुमने मुझे बताया था की तुमने उस स्कूल के बाहर भीड़ को देखा था तब तो तुम अपनी दोस्त के साथ पैदल ही जा रही थी" , अविनाश ने कहा, " अच्छा उस दिन , उस दिन तो मेरी कार खराब थी इसलिए मैं कॉलेज में बिना कार के ही पहुंच गई थी, और फिर छुट्टी में मेरी एक दोस्त ने कहा था की उसके साथ चलकर कुछ शॉपिंग करने के लिए चलने के लिए इसलिए मैं उसके साथ पैदल जा रही थी, लेकिन मैं उस दिन पैदल जा रही थी ये तुम्हें कैसे पता चला, हमम क्या तुम मुझ पे नजर रखे हुए थे क्या" , नैना ने कहा, " नहीं वो तो मैं बस ऐसे ही सूरज के साथ बात करते हुए जा रहा था की तभी तुम्हें कॉलेज से जाते हुए देखा था, बस और कुछ नहीं" , अविनाश ने कहा, " अरे अवि मैं तो बस ऐसे ही बोल रही थी, और तुमने सीरियस ले लिया" , नैना ने कहा, उसके बाद सूरज ने देखा की माहौल कुछ ठीक नहीं लग रहीं हैं तो उसने बात बदलते हुए कहा, " अरे अब बातें ही करते रहोगे या फिर उस स्कूल में चलोगे भी" , " हां रुको मैं यहीं पर ड्राइवर को बुला लेती हूं कार लेकर" , नैना ने कहा और फिर अपने जींस से अपना मोबाइल निकाल कर कॉल करने लगी, थोड़ी देर के बाद ड्राइवर कार लेकर आ जाता हैं और फिर नैना अपने कार का गेट खोलते हुए बोलती हैं, " चलो अवि, सूरज जल्दी से आ जाओ" , उसके बाद सूरज अंदर कार में बैठ जाता हैं और फिर नैना अविनाश की तरफ देखते हुए बोलती हैं, " चलो अवि आओ जल्दी से" , फिर सूरज नैना से बोलता हैं, " अरे नैना वो नहीं आएगा हम लोगों के साथ" " क्यों, वो क्यों नहीं आएगा, वो नहीं मिलेगा क्या उस सुपर हीरो कश्यप से" , नैना ने कहा, " उसे मिलने की क्या जरूरत हैं, वो खुद से कैसे मिलेगा" , सूरज ने फुसफुसाते हुए कहा, " तुमने कुछ कहा क्या सूरज" , नैना ने कहा, " अरे नैना उसे उस आदमी से काम हैं जिसने उस सुपर हीरो से तुम्हें मिलवाने के लिए बोला था , इसलिए वो अभी उसी के पास जायेगा, तुम उसे छोड़ो और हम दोनों जल्दी से चलो उस स्कूल में" , सूरज ने कहा, " अच्छा ठीक हैं, हम चलते हैं, अच्छा अवि जब तुम्हारा काम हो जाए तो तुम वहां पर उस स्कूल में जरूर आना, उस सुपर हीरो कश्यप से मिलने के लिए" , " ठीक हैं नैना मैं अपना काम खत्म करके वहां पर आ जाऊंगा, अब तुम लोग जाओ" , अविनाश ने कहा, " ठीक हैं हम लोग अब जाते हैं, ड्राइवर गाड़ी स्टार्ट कीजिए और यहां से चलिए जहां पर मैं बताती हूं" , नैना ने कहा और फिर उसकी गाड़ी वहां से चली जाती हैं, उसके बाद अविनाश थोड़ी दूर तक ऐसे ही पैदल चलने लगता हैं, और फिर एक सुनसान सी जगह देख कर वहां पर जाकर अपने बैग से उस सूट और मास्क को बाहर निकाल लेता हैं और फिर अपने कपड़े उतार कर उन सब को उसी बैग में रख देता हैं और फिर उस सुपर हीरो कश्यप वाले उस सूट और मास्क को अपने शरीर और चेहरे पर पहन लेता हैं, और फिर अपने बैग का चैन बंद करके उसे अपनी पीठ पर टांग लेता हैं और फिर उस सुनसान जगह से उपर हवा में उड़ते हुए उस जगह से स्कूल की तरफ जाने लगता हैं, और फिर थोड़ी देर के बाद अविनाश उस स्कूल की बिल्डिंग के सबसे ऊपर वाली मंजिल के छत पर उतर जाता हैं और सूरज और नैना के वहां पर आने का इंतजार करने लगता हैं, और फिर दस मिनट के बाद नैना की कार उस स्कूल के पास आकर रुकती हैं, और फिर वापस से वो कार चलने लगती हैं और फिर वो कार उस स्कूल के पीछे जाकर रुकती हैं, और फिर उस कार से नैना और सूरज बाहर निकलते हैं, और ये सारा नजारा अविनाश उस स्कूल की चार मंजिला इमारत के उपर की छत से देख रहा था, जैसे ही नैना उस स्कूल के पीछे पहुंच कर अपने कार से बाहर आती हैं तो सूरज से पूछती हैं, " सूरज तुमने मुझे स्कूल के पीछे क्यों लेकर आए हो, हम लोग स्कूल के मेन गेट से भी तो अंदर जा सकते थे न" , " हां जा तो सकते थे लेकिन चार बजे तक ही, क्योंकि ये स्कूल चार बजे तक ही खुला रहता हैं, उसके बाद स्कूल के बच्चों की छुट्टी हो जाती हैं और फिर ये स्कूल का गेट बंद हो जाता हैं, और अभी चार बजके तीस मिनट हो रहे हैं, इसलिए हम दोनों को पीछे के रास्ते से ही अंदर जाना पड़ेगा, सो चलो अब", सूरज ने कहा, " ये दीवार तो ऊंची हैं, मैं कैसे जा पाऊंगी यहां से अंदर" , नैना ने कहा, " हमें यहीं से अंदर जाना पड़ेगा नैना, क्योंकि वो देखो, सिर्फ इसी जगह पर दीवार टूटी हुई हैं और बाकी की दीवार तो उससे भी ऊंची हैं, एक काम करो तुम मेरी पीठ पर अपना पैर रखकर अंदर कूद जाओ" , सूरज ने कहा, " और फिर तुम अंदर कैसे आओगे, जब मैं अंदर चली जाऊंगी तब" , नैना ने कहा, " उसकी चिंता तुम मत करो नैना , हम लड़के तो इससे भी ऊंची ऊंची दीवारों को लांघ कर अपने स्कूल से भाग जाते हैं, और फिर उन सब के मुकाबले तो ये दीवार छोटी हैं," , सूरज ने कहा, " अच्छा ऐसा क्या, मुझे तो ये सारी बातें पता ही नहीं थी", नैना ने कहा, " अच्छा वो सब छोड़ो अब मैं नीचे झुक रहा हूं , अब तुम मेरी पीठ के उपर चढकर दीवार को फांद कर दूसरी तरफ चली जाओ" , इतना बोलते ही सूरज जमीन पर झुक जाता हैं, और फिर नैना उसकी पीठ पर चढ़ कर स्कूल की दीवार के दूसरी तरफ चली जाती हैं, और फिर उसके जाने के बाद सूरज भी उस दीवार को फांद कर उस तरफ चला जाता हैं, उसके बाद सूरज और नैना दोनों उस स्कूल की बिल्डिंग के अंदर जाने लगते हैं, उस स्कूल के अंदर की बिल्डिंग में ग्राउंड फ्लोर पर कोई भी गेट नहीं लगा हुआ था , क्योंकि गेट सिर्फ स्कूल की मेन गेट पर ही लगा था, और फिर दोनों उस स्कूल के अंदर जाने लगते हैं, और फिर अंदर जाने के बाद जब सूरज उपर सीढ़ियों की तरफ जाने लगता हैं तो नैना उससे पूछती हैं, " अरे सूरज उपर कहां पर जा रहे हो, क्या हम दोनों को उपर जाना हैं" , " हां नैना , हमें उपर इस बिल्डिंग की छत पर जाना हैं, क्योंकि सुपर हीरो कश्यप वहीं पर आने वाला हैं तुमसे मिलने के लिए" , " अच्छा ऐसी बात हैं क्या, तो फिर चलो" , नैना ने कहा और फिर सूरज और नैना उपर छत पर जाने लगते हैं, और फिर जब दोनों उपर चढकर छत पर जाते हैं तो देखते हैं की वहां पर सुपर हीरो कश्यप यानी की अविनाश सूट पहन कर वहां पर पहले से ही खड़ा था, नैना सुपर हीरो कश्यप को देख कर खुश हो जाती हैं, और फिर सुपर हीरो कश्यप के पास जाकर बोलती हैं, " ओह माय गॉड, क्या सच में ये तुम हो, सुपर हीरो कश्यप", और उधर नैना को उपर छत पर छोड़ कर सूरज वहां से वापस नीचे जाने लगता हैं, " हां मैं ही हूं सुपर हीरो कश्यप, तुम सब का हीरो" , अविनाश ने कहा, " लेकिन मुझे तुम्हारे ऊपर शक हो रहा हैं, क्योंकि सुपर हीरो तो कहीं भी अपना काम करने के बाद रुकता नहीं हैं, और वो तो उड़ भी सकता हैं" , नैना ने कहा, " अच्छा तो तुम्हें लगता हैं की मैं असली नहीं नकली सुपर हीरो कश्यप हूं, तो फिर ठीक हैं मैं यहां से चलता हूं" , इतना बोलते ही अविनाश वहां से हवा में धीरे धीरे उपर उड़ने लगता हैं, और फिर उस छत से दस पंद्रह फिट ऊपर हवा में उड़ने लगता हैं, " नहीं मत जाओ सुपर हीरो, मुझे तुम पर विश्वास हो गया हैं की तुम ही असली वाले सुपर हीरो कश्यप हो , कोई नकली वाले नहीं" , नैना ने कहा, " लेकिन तुम सच में मुझ से मिलने के लिए यहां पर आ गए, मुझे तो अभी भी विश्वास नहीं हो रहा हैं, सच में अविनाश ने सच ही कहा था, लेकिन तुम अविनाश को कैसे जानते हो, और तुम दोनों की दोस्ती कैसे हुई थी", नैना ने कहा, अविनाश नैना के इस सवाल पूछने पर सोच में पड़ गया और फिर नैना से झूठ बोलते हुए कहता हैं, " मैं उसे पर्सनली तो नहीं जानता हूं लेकिन उस दिन जब उस दानव ने शहर में आतंक मचा रखा था, तभी मैंने उसे पहली बार देखा था जब वो वहां उस मार्केट में फंसे हुए लोगों की उस दानव से दूर भागने में मदद कर रहा था, तभी मैं समझ गया था की वो दिल का नेक इंसान हैं और लोगों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता हैं, और जब वो दानव से लोगों को बचा रहा था तभी उस दानव ने उस पर हमला करने की कोशिश की थी , तभी मैंने उसे बचाया था और तभी से मैं उसे जानता हूं " , अविनाश ने कहा, " ओ अच्छा ऐसी बात हैं, वैसे सच में वो नेक और सच्चे दिल का इंसान हैं" , नैना ने कहा, अविनाश अपनी तारीफ नैना के मुंह से सुनते हुए अपने मास्क के अंदर ही मुस्कुरा रहा था , लेकिन चेहरे पर मास्क लगे होने के कारण नैना को उसकी मुस्कान दिखाई नहीं दी, " वैसे क्या मैं आपसे एक पर्सनल बात पूछ सकती हूं अगर आप बुरा न मानो तो" , नैना ने कहा, " हां हां पूछो, मुझे क्यों बुरा लगेगा" , अविनाश ने कहा, " क्या आपकी कोई गर्ल फ्रेंड हैं" , नैना ने कहा, " नहीं तो मेरी कोई गर्लफ्रेंड नहीं हैं, लेकिन तुम ये बात क्यों पूछ रहीं हो" , अविनाश ने कहा, " नहीं कुछ खास नहीं, वो बस कैजुअली पूछ लिया था मैंने" , नैना ने कहा, उसके बाद अविनाश ने सोचा की यही मौका हैं की नैना से उसके दिल की बात जानने का, उसके बाद अविनाश ने नैना से पूछा, " तुम उस लड़के क्या नाम था उसका...... हां, अविनाश उसको कैसे जानती हो" , " अविनाश...., वो तो मेरे ही कॉलेज में मेरे साथ पढ़ता हैं, और तो और हम दोनों ने एक ही स्ट्रीम में एडमिशन लिया हैं, यानी की साइंस, और तो और हम दोनों एक ही क्लास रूम भी सेम ही हैं" , नैना ने कहा, " उसके बारे में इतने डिटेल्स में बता रहीं हो, और उसने भी मुझे तुमसे मिलने के लिए इतनी रिक्वेस्ट की थी की मत पूछो क्या बताऊं , मैं तो उसे मना करता रहा, लेकिन उसने आखिरी में मुझे तुमसे मिलने के लिए मना ही लिया था तभी मुझे लगा था की कहीं तुम्हारे और उसके बीच में कुछ......" , इतना बोलकर अविनाश रुक जाता हैं, और फिर नैना की तरफ उसके फेस का एक्सप्रेशन देखने लगता हैं, " , अविनाश ने कहा, " नहीं नहीं आप गलत समझ रहे हैं, हम दोनों के बीच अभी तक तो ऐसा कुछ नहीं हैं, और लेकिन,क्या सच में उसने आपको मुझसे मिलने के लिए रिक्वेस्ट किया था" , नैना ने कहा, " हां किया था, और तुम अभी कुछ बोल रही थी लेकिन...., लेकिन क्या इसके आगे भी तो कुछ बोलो" , अविनाश ने कहा, " एक्चुअली मैं तो उसे लाइक करती हूं लेकिन वो मुझे लाइक करता हैं की नहीं ये मुझे नहीं पता हैं, इसलिए अभी तक मैं थोड़ी टेंशन में हूं, और मुझे तो डर भी लगता हैं की अगर मैंने उसे अपने दिल की बात बता दूंगी, और उसे ये बात अच्छी नहीं लगी और उसने मुझसे दोस्ती भी तोड़ दी तो फिर मैं क्या करूंगी, बस इसी बात को सोच कर मैं थोड़ी टेंशन में रहती हूं" , नैना ने कहा, अविनाश ने जैसे ही सुना की नैना भी उसे पसंद करती हैं तो उसके मन में लड्डू फ़ूटने लगते हैं, और वो अपने मन ने सोचने लगता हैं, " अरे यार मैं तो बेकार में ही टेंशन ले रहा था की नैना मुझसे प्यार नहीं करती हैं, अरे इधर तो सेम टू सेम कहानी हैं, ये भी मुझसे प्यार करती हैं लेकिन मुझसे कहने से डरती हैं क्योंकि इसे भी लगता हैं की कहीं मैं इसकी बात सुनकर नाराज न हो जाऊं और इससे दोस्ती न तोड़ दूं" , की तभी नैना उसे चुप चाप खड़े देख कर अविनाश से बोलती हैं, " आप क्या सोचने लगे" , " कुछ नहीं मैं बस यहीं सोच रहा था की जो लड़का तुम्हें मुझसे मिलवाने के लिए मुझसे इतनी शिफारिश कर सकता हैं, उसके दिल में भी तुम्हारे लिए कुछ न कुछ फीलिंग्स तो जरूर होंगी, अब तुम ही मुझे सोच कर बताओ की क्या उसने तुम्हारे लिए इससे पहले भी कुछ काम किया हैं, जिससे ये पता चले की वो तुम्हारी केयर करता हैं, ज़रा अच्छे से सोच कर मुझे बताना" , अविनाश ने कहा, " उसके बाद नैना अविनाश के बारे में सोचने लगती हैं, जब अविनाश ने उसके लिए कुछ काम किया हो, पर फिर वो अपने मन में सोचने लगती हैं कि कैसे उसने उस सीनियर से बचाया था जब उस सीनियर ने उसे धक्का देकर गिराने की कोशिश की थी, और फिर वो रात के आठ बजे उससे मिलने के लिए उस चटकारा रेस्टोरेंट में आया था और फिर उसके साथ पैदल ही उसके घर तक छोड़ने के लिए गया था, और फिर आज उसने उसका सपना यानी की उस सुपर हीरो कश्यप से मिलने का सपना भी उसके एक बार बोलने पर ही पूरा कर दिया और सुपर हीरो कश्यप से उसके लिए रिक्वेस्ट भी की थी, इतनी सारी बातें सोचने के बाद नैना के चेहरे पर एक मुस्कान आ जाती हैं और फिर वो उस सुपर हीरो कश्यप यानी की अविनाश से बोलती हैं, " हां वो केयर तो करता हैं मेरी और जब जब मैंने उससे मदद मांगी हैं, उसने मेरी मदद की हैं" , " हां, इसका साफ मतलब हैं की वो भी तुम्हें लाइक करता हैं, और तुमसे प्यार भी करता हैं" , अविनाश ने कहा, " लेकिन उसने ये बात मुझसे क्यों नहीं कही, की वो मुझे पसंद करता हैं, वो भी तो बोल सकता था ना ये बात मुझसे" , नैना ने कहा, फिर अविनाश ने सिचुएशन को संभालते हुए कहा, " जिस तरह से तुम उसे खोने से डरती हो और उससे ये बात नहीं बोल सकी ठीक उसी तरह से शायद वो भी ये बात बोलने से डरता होगा, और उसे भी लगता होगा की अगर उसने तुमसे अपने दिल की बात बोल दी तो शायद तुम उससे बात करना छोड़ दोगी और उससे दोस्ती भी तोड़ दोगी" , " लेकिन आप ये बात इतने श्योर होकर कैसे बोल सकते हैं की वो भी मुझसे प्यार करता होगा" , नैना ने कहा, " जिस तरह से तुम लड़कियां दूसरी लड़कियों के मन की बात जान लेती हो ठीक उसी तरह से हम लड़के भी एक दूसरे की मन की बात जान लेते हैं, और मैं पूरे दावे के साथ ये कह सकता हूं की वो भी तुमसे प्यार करता हैं, बस तुम्हें उसे इस बात का एहसास दिलाना होगा, या फिर तुम्हें किसी भी तरह से उसके मुंह से उसके दिल की बात उससे बुलवानी पड़ेगी, समझी अब ये काम तुम कैसे करोगी ये तो तुम ही जानो" , अविनाश ने कहा, उसके बाद नैना अविनाश के बारे सोचने लगती हैं, और फिर अविनाश उसे इस तरह से सोचते हुए देख कर उससे बोलता हैं, " देखो अब मैं चलता हूं , क्योंकि मुझे लेट हो रहा हैं, अब मैं यहां से जाऊंगा" , उसके बाद नैना अपने ध्यान से बाहर आती हैं और बोलती हैं, " ठीक हैं अब मुझे भी अपने घर चलना चाहिए ,आप मुझसे मिलने के लिए यहां पर आए उसके लिए थैंक यू वेरी मच, और क्या मैं आपको गले लगा सकती हूं सिर्फ एक बार प्लीज...." , " ठीक हैं" , अविनाश ने कहा और फिर नैना उसके पास आती हैं और अविनाश यानी की सुपर हीरो कश्यप के गले लग जाती हैं, " अच्छा जाने से पहले क्या एक बार मैं आपके साथ एक सेल्फी ले सकती हूं, सिर्फ एक ही लूंगी" , नैना ने कहा, " अच्छा ठीक हैं ले लो लेकिन ये फोटो किसी को दिखाना मत, और कहीं तुमने इस पिक्चर को कहीं सोशल मीडिया में पोस्ट कर दिया और कोई बदमाश तुम्हारे पीछे पड़ गया तो फिर तुम्हारे लिए मुसीबत हो हो जायेगा, इसलिए इस पिक्चर को न ही किसी को दिखाना और न ही कहीं पर पोस्ट करना समझी" , अविनाश ने कहा, " हां हां आपने सही कहा, मैं इसे किसी को नहीं दिखाऊंगी, अब मैं सेल्फी ले लूं" , नैना ने कहा, " हां ठीक हैं, ले लो" , अविनाश ने कहा और उसके इतना बोलते ही नैना सुपर हीरो कश्यप यानी की अविनाश के साथ सेल्फी लेने लगती हैं, और फिर सेल्फी लेने के बाद नैना अपने आस पास सूरज को खोजने लगती हैं, लेकिन सूरज वहां पर मौजूद नहीं होता हैं, वो तो वहां पर नीचे उस स्कूल की बाउंड्री के पास खड़ा होता हैं, " क्या हुआ, तुम किसी को खोज रही हो" , अविनाश ने कहा, " हां, वो मेरे साथ मेरा एक फ्रेंड यहां उपर छत पर आया था लेकिन वो अब यहां पर नहीं हैं शायद वो नीचे चला गया हैं" , नैना ने कहा, " कहीं वो तो नहीं" , अविनाश ने अपने हांथ से सूरज की तरफ इशारा करते हुए बोला, फिर नैना ने नीचे सूरज को देख कर बोला , " हां वही हैं", " देखो वो तो नीचे भी चला गया हैं, और अब तुम सीढ़ियों से नीचे उतर कर जाओगी, अगर तुम्हें बुरा न लगे तो मैं तुम्हें अपने साथ हवा में उड़ा कर ले जा सकता हूं" , अविनाश ने कहा, " हां ज़रूर, मुझे इसमें बुरा क्यों लगेगा" , नैना ने कहा, " तो ठीक हैं मेरे पास आओ और मुझे कस के गले लग जाओ" , अविनाश ने कहा, उसके बाद नैना अविनाश को कस के गले लगा लेती हैं और फिर अविनाश उसे अपने बाहों में कस के पकड़ लेता हैं और फिर उस छत से उड़ते हुए नीचे आने लगता हैं और फिर सूरज के पास जाकर उतर जाता हैं, नैना ने डर के कारण अपनी आंखे बंद कर रखी थी,और फिर अविनाश ने जमीन पर उतरकर नैना से कहा, " हम लोग नीचे आ चुके हैं" , इतना सुनते ही नैना अपनी आंखें खोलती हैं, और फिर अविनाश से दूर होते हुए बोलती हैं, " थैंक्स" , उसके बाद अविनाश उससे बोलता हैं ," यू आर वेलकम" , और फिर इतना बोलते ही अविनाश वहां से उड़ते हुए वहां से अपने घर चला जाता हैं क्योंकि उसे घर पर भी तो जाना था, जहां पर लेट से पहुंचने पर उसकी सौतेली मां उसे ताने मारने लगती हैं, इसलिए वो उस बिल्डिंग में वापस जाकर अपने सुपर हीरो वाले कपड़े खोल देता हैं और फिर अपने नॉर्मल कपड़े पहन कर वापस अपने घर जाने लगता हैं, और दूसरी तरफ सूरज नैना को जल्दी से उस स्कूल से जाने के लिए बोलने लगता हैं, " नैना यहां से जल्दी से चलो अगर उस स्कूल के चपरासी ने देख लिया तो फिर हम दोनों के लिए दिक्कत हो सकती हैं, इसलिए हम दोनों को जल्दी से यहां से चलना चाहिए" , " लेकिन अविनाश ने मुझे यहां पर मिलने के लिए बोला था, तो मैं उससे बिना मिले कैसे चली जाऊं" , नैना ने कहा, " दरअसल वो तो कब का अपने घर पर पहुंच चुका होगा, उसने मुझे थोड़ी देर पहले ही कॉल करके बोला था की वो जिस आदमी से मिलने वाला था, और जिसने तुम्हें उस सुपर हीरो कश्यप से मिलने दिया था, वो उस आदमी से मिलने के बाद अपने घर पर चला गया था और उसने मुझे तुम्हें ये बात बताने के लिए भी बोला था, और सॉरी भी बोला था, की उसने तुमसे वादा किया था यहां पर मिलने के लिए लेकिन मिल नहीं सका" , सूरज ने कहा, "अच्छा, उसने ऐसा बोला था, लेकिन उसने मुझे कॉल करके क्यों नहीं बोला, उसके पास मेरा नंबर भी तो था ना, वो ये बात मुझे भी तो बोल सकता था कॉल करके" , नैना ने कहा, " हां कर तो सकता था, और उसके पास तुम्हारा नंबर भी था लेकिन उसने ये भी बोला था की वो तुम्हें और उस सुपर हीरो कश्यप से मिलने के दौरान डिस्टर्ब नहीं करना चाहता था इसलिए" , सूरज ने कहा, " अच्छा ठीक हैं अब चलो जल्दी से वरना कोई आ जायेगा " , नैना ने कहा और फिर सूरज की पीठ पर चढ़ कर बाउंड्री पार करके वो दोनों उस स्कूल से बाहर चले जाते हैं और फिर नैना सूरज को अपने कार से ही उसके घर तक उसे छोड़ कर अपने घर पर चली जाती हैं,
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amera TerBall de Model Rai anno fa ar MukandminSEMIndant UmdatLundellHukum घर पहुँचकर पता लगा मेरे पतिदेव प्रयाग नहीं आये हैं। दादा आशंका से बेचैन हो गये । सबसे अधिक खतरा लड़ाई के रँगरूटोंमें शामिल हो जाने का था। मेरी सास बीच-बीच में छिप-छिप कर रोया करती थीं। मैं उन्हें समझाती पर उनकी समझ में कैसे आता । बुढ़ापे की इकलौती सन्तान की सुधि की आहट से ही उनकी आखें गीली होने लगती थीं । दादा ने गाँव के लोगों को पत्र लिखेइधर-उधर जो रिश्तेदार थे उन्हें सूचनायें दीं और पता लगाया । आठ-दस दिन के बाद नागपुरसे : सूचना मिली कि वे वहाँ हैं और भाराम से हैं । उन्हें प्रयाग वापस भेजने की चेष्टा की जा रही है। समझाया, बुझाया जा रहा है पर दादा के कारण उनकी लौटने की इच्छा नहीं हो रही । मुझे आश्चर्य हुआ -- दादा को जो संतोष और निश्चिन्तता यह खबर पाकर होनी चाहिए थी वह नहीं हुई । चिट्ठी पाकर वह उल्टे और आग-बबूला हो गये । तरहतरह की उल्टी-सीधी गालियाँ पतिदेव को दे रहे थे और बार-बार अपनी नाक के कट जाने की घोषणा भी कर देते थे। मुझे बाद में सांस से पिता जी का था । वहाँ किसी मिल में 'लेबर श्राफ़ीसर' थे । दादा उनसे बिल्कुल दूर रहना चाहते थे उसी विरोधी और खानदानी प्रतिद्वन्द्वी के घर जाकर उनका लड़का पड़ा रोटियाँ तोड़ रहा है। दिल दुखने की बात थी । पत्र में यह भी लिखा था कि यदि वह अकेले आने को तैयार न हुए तो प्रकाश के साथ उन्हें भेज दिया जायगा । दादा निश्चित रहें - वे बम्बई जाने का हठ अवश्य कर रहे हैं पर बम्बई जाने न पायेंगे !! मेरे ससुर के लिये यह सब असह्य था । न जाने कौन सा मर्मान्तक आक्रोश उन के भीतर वेग से छलछला उठा था । क्या करना चाहिये - क्या नहीं यह वे तय न कर पा रहे थे । मेरी सास से पूछने लगे - 'अब ! अब क्या करना चाहिये । भाग कर गया भी तो कहाँ और किसके यहाँ ! फेल हर साल हुआ करता था । क्या मैं खा जाता ? जिनका अहसान मैं कभी नहीं लेना चाहता उन्हीं शत्रुओं के घर जाकर पड़ा है। और कोई ठौर न मिला । सास को अपार निश्चिन्तता हो रही थी यद्यपि अन्धा आँख पा लेने तक एतवार नहीं कर पाता । उनकी गीली आँखें और रोते हुए उच्छ्वास अब सूख चले थे । बोलीं- 'काहे का अपमान ! वे लोग कोई दूसरे हैं ! अपना ही खून मांस हैं। उनसे पूछ कर जो रुपया उनका किशोर ने खर्च कराया हो वह दे देना। इसमें कंजूसी न करना । प्रकाश बड़। चतुर है । वह जरूर किशोर को लाकर यहाँ छोड़ जायगा । उसके बाप को छुट्टी मिले न मिले पर उसकी छुट्टियाँ होंगी । तुम एक तार दे दो कि वे लोग किशोर को अकेला न छोड़ें । इधर उधर हो गया तो जिन्दगी भर का रोना हो जायगा। मैं मन ही मन फिक्र से मरी जा रही थी । भगवान् ने रक्षा कर ली । अब तुम न बिगाड़ना । दादा ने कहा - 'वह यहाँ आ जाय । मैं कुछ न बोलूँगा। नहीं पढ़ना चाहता न पढ़े, पर घर पर रहे। खाने का बहुत है । बहू पढ़ी-लिखी है । हिसाब-किताब रक्खेगी। मैं ताली ताला सब सौंप कर इन्हीं लोगों पर छोड़ दूँगा । मुझे कुछ कहना सुनना नहीं ।' जानती थी पतिदेव के लौट आने दादा कितनी फजीहत करेंगे । वे अपनो आदत से लाचार थे । मेरा जी हल्का-फुल्का-सा चारों ओर कूद रहा था। एक बार उनके दर्शन होंगे। दादा की कोर भी कहाँ जाकर दवी ! अब देखती हूँ प्रकाश के साथ किस तरह पेश आयेंगे। मैं रोज उनकी बाट जोहने लगी । पति की मुझे चिन्ता न थी । मैं जानती थी वे केवल दादा के भय से भाग निकले हैं। उनमें पौरुष और साहस नाम मात्र को नहीं । इतना बल उनमें नहीं कि आत्महत्या या अन्य किसी असाधारण काम की आशंका उनकी ओर से की जा सके । मैं कभी यह न सोचती थी कि वह नागपुर भाग जा सकेंगे । लेकिन दादा के भय और नवविवाहिता पत्नी के सामने गाली- अपमान की मर्म-व्यथा से बचने के लिये वह न जाने किस प्रकार भागते हुए नागपुर पहुँच गये थे । संभव है प्रकाश की ओर से अब दादा का भाव बदल जाय । वे न आये । दादा का तार पाकर उनके पिता स्वयं मेरे पति को लेकर आ पहुँचे। मैं जानती थी कितना प्रचण्ड अभिमान उनमें हैं । यदि उतना बड़ा अहं उनमें न होता तो वे इतने ऊँचे कवि न हो पाते । उनके पिता सीधे और लम्बे क़द वाले गैर वर्ण के गठे हुए एक अति विनम्र व्यक्ति ज्ञात हुए । लखनऊ से आने के बाद इस बार भोजन मैं बनाया करती थी, क्योंकि सास को पुत्र की चिन्ता में रोने-धोने से फुर्सत न थी । आने के दिन जब उन्होंने खाना खाया तो थाली के पास दस रुपये रखते हुए बोले- 'बहू ! तुम्हारा नेग है यह । मैंने आज पहले पहल तुम्हारे हाथ की रसोई खाई है ।" बगल में दादा बैठे भोजन कर रहे थे। उन्होंने एक दो बार रोका पर मेरी सास ने दादा को ही रोकते हुए कहा - 'क्या हुआ ? ले लेने दो । छोटे भाई की बहू को दिया जाता है । पर अभी तुमने ( प्रकाश के पिता ) बहू का मुँह नहीं देखा । देखकर देना - जल्दी क्या है। दो चार दिन रहोगे न ।' 'नहीं काकी ! मैं कल मेल से लौट जाऊँगा । प्रकाश से बार-चार कहा ---- 'तू चला जा ! मैं बूढ़ा आदमी काहे को इतनी लम्बी यात्रा करूं ।' पर आज-कल के लड़कों को तुम जानती हो । यों महीनों घूमता रहेगा पर मेरे कहने से एक बार प्रयाग न आ सकेगा। तुम लोगों की घबड़ाहट और चिन्ता का ख्याल था । किशोर वहाँ से कहीं और चला जाता तो तुम मुझे कभी क्षमा न करते । मैं किसी न किसी प्रकार उसे तुम्हारे घर पहुँचाकर अपने कर्तव्य से उऋण होना चाहता था। अब ऐसा करना कि कहीं जाने न पाये । आज कल के लड़की-लड़कों से डर कर चलने में कल्याण है । आठ साल से प्रकाश की शादी के लिये झोंख रहा हूँ पर नहीं करता। कहता है आजीवन अविवाहित रहूँगा - विवाह करूँगा ही नहीं। छोटे लड़के कहते हैं- जब तक बड़े भाई की शादी न होगी हम शादी न करेंगे । इतना बड़ा घर भाँय-भाँय किया करता है । आज-कल छुट्टियों में सब इधर-उधर घूमने चले गये हैं । हम दो प्राणी पड़े-पड़े भाग्य को रोया करते हैं। बहू आती - नाती-पोतों से घर भरता तो हमारी आत्मा ठंडी होती । मेरा कल जाना जरूरी है। प्रकाश की माँ बिल्कुल अकेली है। रुपये उठा ले बहू ! तेरा मुँह देखने की क्या जल्दी है ? जब घर में व्याह कर आई है तब कभी न कभी देख लूँगा ।' दादा ने अपने जनेऊ में बँधी चाँदी की दँतखोदनी से दाँत खोदते हुए कहा -- प्रकाश की शादी अब कर लेनी चाहिये । उमर बढ़ रही है। बाद में मुश्किल पड़ सकती है। कारण कुछ बतलाता है ? तीसपैंतीस वर्ष का होने आया । अच्छी-खासी नौकरी है। कोई कमी नहीं । किताबों और रेडियो वगैरह से हज़ारों रुपये साल में कमाता है ! चालचलन ठीक है न ! तुम्हें कोई शिकायत तो नहीं मिली ।' 'यही शनीमत है। कालेज के बीसों लड़के-लड़कियाँ दिन भर घर घेरे रहते हैं । कभी-कभी मैं परेशान हो जाता हूँ, लेकिन क्या बोलूँ । नाराज़ होकर दूसरा बँगला ले ले और रहने लगे - यह भी सहन नहीं। सारा शहर उसकी तारीफ करता है--कालेज के प्रिन्सिपल और अन्य प्रोफेसर भी । किसी प्रकार का स्केण्डल वहाँ नहीं। उधर के लोग यहाँ वालों की तरह परछिद्रान्वेषण नहीं करते फिरते । प्रकाश कहता है- जिस दिन मन में दुर्बलता अनुभव करूंगा विवाह कर लूँगा । देखना चाहता हूँ कत्र तक अपनी रक्षा कर सकता हूँ ।' मैं बैठी-बैठी सव सुन रही थी। मेरी पीठ उनकी ओर थी - मुँह चौके की थोर ! पतिदेव बाहर गये थे। मैं अपनी सास के साथ जब खाने बैठी तो बोली- 'ये बड़े भले और अपनत्व मानने वाले हैं । कैसे तुम लोग इनकी और इनके लड़कों की इतनी निन्दा करते रहते हो । बेचारे उतनी दूर से तुम्हारे लड़के को यहाँ पहुँचाने आये हैं। तुम लोग कल उनके जाने के बाद फिर उनकी निन्दा शुरू कर दोगे । भगवान् को किसी की अकारण निन्दा और प्रपंच बुरा लगता है। दादा को दूसरों के लड़कों का वैभव और यश भाता नहीं । बेचारे अपनी हीनता में ही सदैव बँधे रहते हैं। पर तुम माँ की जाति की हं । तुम किसी के लड़के की अकारण निन्दा न किया करो.........' प्रकाश के पिता में मुझे असाधारण सौकुमार्य और सुरुचि के दर्शन हुए । पुत्र के सारे संस्कारों का बीज मुझे उनमें दिखाई दिया । कोमल और सुन्दर ललाट पर प्रतिभा की रेखा शोभा पा रही थी । मुद्रा में, चाल-ढाल में सारे व्यक्तित्व में चारित्र्य और गाम्भीर्य का प्रवाह दीखता था जो वाचालता को सुघरता प्रदान करता था। प्रकाश के चेहरे जैसी सुसंस्कृत चंचलता उनमें न थी पर एक जीवन्त आलोक था जो उन्हें शक्तिशाली बताता था । भाव के आवेश में आकर वे बात करते-करते गद्गद् हो जाते थे । उनके हृदय की अव्यावहारिक निर्मलता के फूट-फूट कर बाहर आने लगती थी । बड़ी-बड़ी श्वेत मूछों के बीच से होकर आदर्शोपासना की चन्द्र-लेखा बीच-बीच में झलक जाती थी । रात को मैंने पतिदेव से पूछा- 'दादा ने कुछ कहा नहीं ?' पतिदेव ने उसी अर्ध- विकसित चतुरता का भाव प्रकट करते हुए कहा - 'भैया से मैंने यहाँ कह दिया था। उन्होंने जब वायदा कर दिया कि दादा तुम्हें कुछ न कहने पायेंगे- मैं उनसे लौटते समय वचन ले लूँगा कि मेरे आने के बाद तुम्हें कुछ न कहेंगे तब वहाँ से चला हूँ । बेवकूफ नहीं हूँ ।' सचमुच उनकी बुद्धिमानी सराहनीय थी। पर जिसको उस दिन इस प्रकार भला-बुरा कह रहे थे और जिसने मिलने-जुलने और बात करने के लिये मुझे इस प्रकार प्रताड़ित कर रहे थे उसी के पिता के पास आत्मरक्षा की फरियाद लेकर जाना उनकी बुद्धिमानी का परिचायक था । दादा का यह विश्वास कि उनकी सन्तान संसार की सब सन्तानों से गई बीती है निराधार न था । दादा में जो एक अक्खड़पन - संघर्षों के बीच अपने उद्यमी व्यक्तित्व को लेकर उग आने का जातीय अभिमान था वह भी उनके लड़के से दूर था । मैंने पूछा-- 'प्रकाश तुम्हें लेकर आने वाले थे । वे क्यों न आये ? क्या तुम अकेले न आ सकते थे ! ब्यर्थ में...... पतिदेव ने कहा - 'प्रकाश की तुम्हें बड़ी फिक्र रहती है । वह आता सो तुम खुश होती क्यों न ? मेरी फिक्र काहे को रही होगी ?' मैंने कहा- यों ही पूछा । दादाजी ( सास की आज्ञानुसार प्रकाश के पिता को भी मैंने दादाजी कहना शुरू कर दिया था ) की चिट्ठी पहले इसी तरह की आई थी ।की बात उन्होंने लिखी न थी । आपको अब उन लोगों के प्रति बुरी भावना मन में न लानी चाहिये । आप लोगों के हितचिन्तक न होते तो क्यों साथ में लेकर यहाँ दौड़े आते। मेरे चाहने की बात क्या ? मैं जरूर चाहती थी वे यहाँ आपके साथ आते । आपसे मैं बयान नहीं कर सकती, उन्हें देखकर - उनके पास बैठकर मुझे कितनी खुशी होती है। उसे उन पर भखंड श्रद्धा है................ . कहते-कहते मुझे लगा जैसे दिलकी सूनी अँधियारी कोठरी के पर्दे को उठाता हुआ कोई सिर लटकाये बाहर निकला और ऊपर सितारों के घने आँचल की ओट ओझल हो गया । सहसा पति ने मेरी बाहों में बाहें डाल दीं। मैं अलग जाकर मुन्डेर के पास खड़ी हो गई । नीचे मंजिल की छत पर सब लोग थे । दोनों में बातें चल रहीं थी। गाँव और रिश्तेदारों की चर्चा थी । मेरी सास को इन बातों में दिलचस्पी थी । वे पास जमीन पर बैठी सब सुन रही थीं। पतिदेव का यह हाल था कि मुझे देखते ही उनका तन और मन शारीरिक बुभुक्षाओं का घर बन जाता था । पुरुष की कामुकता की बातें इधर-उधर किताबों में पढ़ी थों पर पता न था - उसके आततायीपन में आजीवन मुझे पिसना होगा। ऐसे पशु-प्रवृत्ति वाले पति की पालतू पत्रि का अभिनय मुझे करना होगा। उनके पास रहने की कल्पना मुझे पतित बनाने लगती थी । इतने बड़े हो जाने पर भी उन्हें पत्नी के मानोभावों की कोमलता का कभी कोई ध्यान न आता था । उठते-बैठते वे मुझे काम-वासना चरितार्थ करने की मशीन बना देना चाहते थे । मैं यह भी जानती थी वे कितने 'टिमिड' और बुली' टाइप के हैं। मेरे पीछे आकर फिर एक पाशव ऊत्तेजना लिये खड़े हो गये । मैं सामने दूर तक फैली छात की कतारें देख रही थी जहाँ की शान्ति और सुख का ओर-छोर न था। जहाँ सौख्य, सुभावना, सुकुमारता और सहवास की आनन्ददायिनी लहरें उठ रही थीं। कहीं रेडिओ बज रहा था, कहीं ग्रामोफोन । कहीं बच्चे बैठे खेल रहे थे और कहीं पति-पत्नी आनन्द से दिन भर के कार्यभार से थक निशीथ की नीरवता का सुख लूट रहे थे । मैंने पीछे मुड़ कर कहा- 'आप मेरा कहना न सुनेंगे तो मैं कल से कह कर कमरे के अन्दर अपनी चारपाई ले जाऊँगी। मुझे क्या आपने भोग की गुड़िया समझ रक्खा है कि जब मन में आया पीट चले। यह सब नहीं होने का । मैं इन सब बातों से दूर रहना चाहती हूँ। मुझे यह सब बेमानी लगता है।' पति के लिए अपनी वासना का बाँध रोकना असम्भव था। मेरे लिये इस प्रकार के वात्म-समर्पण दुःखद ओर भयकारी थे। मैं चुपचाप नीचे उतर आई और कमरे में जाकर जमीन पर लेट गई । पतिदेव की हिम्मत नीचे सबके सामने से होकर मेरे पास आने की न हुई । पड़े-पड़े पछताते रहे होंगे। क्यों न तत्काल बलात्कार कर काबू में कर लिया। सब लोग बातचीत में लगे थे मुझे किसी ने देखा भी नहीं । मैंने चुपचाप भीतर से सिटकनी चढ़ा ली । खिड़कियाँ खोलकर रात भर गर्मी के कारण आधी नींद सोती आधी नोंद जागती रही । न जाने कैसी भर्त्सना की चमक मेरे कन्धों से चलकर बाहों और पीठ को कँपाती हुई पैरों तक चली जाती थी। मैंने तयकर लिया मैं कमरे में सोऊँगी - भले मुझे पूरी रात पंखे झलकर काटनी पड़े । तब रोज-रोज के अनाचार से जान छूटेगी । दूसरे दिन दादा जी चले गये । जाते-जाते वे मेरे ससुर को पति के साथ धीरज और विवेक से काम लेने का निर्देश दे गये । पति को अलग बुलाकर बहुत समझाते बुझाते रहे और हर प्रकार दादा को संतुष्ट रखने का आग्रह करते गये । उनके जाने के बाद दो-चार दिन शान्ति रही। मैं देखती थी, पिता-पुत्र की मूक पारस्परिक उदासीनता में घृणा की लपट और विकराल होती जाती थी। कभी-कभी यदि पतिदेव दादा के सामने पड़ जाते थे तो उनके चेहरे पर अकारण कर्कशता फूट पड़ती थी । यह उबाल कब तक भीतर दबा रहता ? इस बीच एक और . बात हो रही थी ? दादा मेरे पति से बिलकुल बोलते न थे । मेरे पति उनसे बोलना चाहते थे पर हिम्मत न पड़ती थी । बेचारे मन ही मन सकुच कर रह जाते थे । कहीं दादा बरस न पड़े। पन्द्रह-बीस दिन बीतते-बीतते गाँव में बिरादरी से एक लड़के के जनेऊ का निमंत्रण आ गया । दादा मुझे गाँव के असभ्य वातावरण में न ले जाना चाहते थे । घर पर एक न एक व्यक्ति का रहना जरूरी था। रेहन रखने वालों का पचीसों हजार का जेवर पड़ा था । साथ ही निमन्त्रण में किसी न किसी का जाना जरूरी था । अन्त में मेरी साँस को लेकर पतिदेव चले गये। मैं निश्चिन्तता की साँस छोड़ कर घर पर अकेली रह गई । मन ही मन डर रही थी कहीं दादा का मत न बदल जाय और पतिदेव के साथ मुझे न भेजने लगें ! मैं उस दशा में साफ इन्कार कर देती । पति के साथ यात्रा करने की अपेक्षा इन्कारी की वेशर्मी मुझे पसन्द थीं । इस बीच एक नई घटना हो गई। दादा के पैर में कहीं मामूली सी चोट लग गई जो लापरवाही से बढ़ गई। धीरे-धीरे उसका जख्म बढ़ गया । एक दिन जब डाक्टर ने आकर उसे 'कारबंकिलडिक्लेयर' किया और दूसरे दिन पेशाब की जाँच कर दादा को गहरी अपने 'ढायवेडीज' से ग्रस्त पाया गया तो चिन्ता बढ़ गई । दादा जीवन से भी निराश होने लगे। मैं उन्हें बराबर समझाती बुझाती और उनके पास बैठकर उन्हें रामायण, महाभारत, गीता सुनाती रहती । गाँव खबर भेज दी गई थी। मेरी साँस लड़के के साथ चौथे दिन आ गई । दादा की दशा खतरे से बाहर न थी और बराबर उन्हें 'इन्जेक्शन' लग रहे थे । पतिदेव भी आकर उनकी सेवा-सुश्रुषा में लग गये । परिवार का ध्यान चारों ओर से सिमट कर उन पर केंद्रित हो गया । वे लगभग एक सप्ताह दादा की खतरे की अवस्था रही । अब धीरे-धीरे खतरे से बाहर हो रहे थे। जख्म धीरे-धीरे भर रहा था । पर इतने ही बीच में वे कृशकाय रह गये थे और सूख कर कौंटा जैसे निकल आये थे । मृत्यु की निदारुण यातना और भविष्य की काली, कुरूप चिन्तना ने उन्हें इस बिमारी की दशा में, जीवित ही कुम्भीपाक में पकाया था। भयंकर चिड़चिड़ापन और स्वार्थपरता उनमें आ गई थी । मेरी ओर से उनकी विरक्ति और घृणा का पारावार न था । जो कोई उनके पास आता उससे मेरा रोना रोते । 'जब से यह कुलच्छनी बहू आई तब से एक दिन शान्ति न मिलो । इसके आते ही दो-दो बार लड़का 'फर्स्ट इयर' में फेल हुआ। हजारों रुपयों का कर्ज और सूद का सैकड़ों रुपया डूब गया अब 'कारबंकिल' हुआ है। बीच में लड़का घर से भाग गया सो अलग। भगवान ही रक्षा करें। यह आपत्ति कटे तो आगे का उपाय सोचें ।' मैं भीतर कमरे में बैठी सब सुना करती और से अपने भाग्य को कोसती । आजकल पुत्र के ऊपर वे आंशिक रूप से संतुष्ट थे । सारे दोषों की जड़ और दुर्भाग्य का कारण मैं समझी जाती थी । मुझे इस सबकी चिन्ता न थी । इसी समय दूसरा और कदाचित् जीवन की सबसे बड़ा आघात लगा । मुझे गर्भ के लक्षण जान पड़ने लगे। मैं कैसे इसे प्रकट करूँ या कैसे इतने बड़े दंश को भीतर भीतर सहती रहूँ- समझ न पाती थी । भगवान ने मेरे किस अपराध का दण्ड दिया। विवाह को अभी एक साल से कुछ ऊपर हुआ था । यह कहाँ का अभिशाप मेरे सिर पर टूट पड़ा ! संसार में बालिकायें ऐसे अवसरों पर प्रतिक्षण असंख्य गुने हो होकर बढ़ने वाले सुख से भर जाती हैं। अपने सौभाग्य पर फूली नहीं समातीं - इतराती घूमती हैं। मैं अभागिन यह आग अपने भीतर छिपाये तिल-तिल कर भस्म हो रही थी। कैसे यह अनाहूत अंगार मेरे भीतर आ गया ! कभी कभी अपने अधोभाग को कुल्हाड़ी से टुकड़े-टुकड़े कर फेंक देने की इच्छा होती थी और मेरा जी भयानक वेग से मिचला उठता था । मेरी देह का एक-एक तार अस्त-व्यस्त होकर विखर जाता । न जाने कहाँ-कहाँ की बौखलाहट भरी बातें सोचने लगती । मुझे मालूम पड़ता - मेरे पेट के रन्ध्र-रन्ध्र से धुएँ के लच्छे निकल रहे हैं । जंगली दरिन्दे की तरह हूँ हूँ हूँ करती कोई चीज मेरी कोख में हलचल कर रही है । ikut Un katt. Ihled With Band Burea Straata. Iya, condam and a mu शाम को पाँच बजे होंगे । दादा बैठकखाने में पड़े रहते थे। उन्हें देखने दिन भर लोग आतेजाते रहते थे। मेरे कारण यह भीतर के कमरे में न हो सकता था । मैं बगल के कमरे में बैठी 'क्रोशिया' बिन रही थी । एक पूर्व परिचित और स्थिर, अपलक स्तव्ध सुख में लहरा देने वाली कंठ ध्वनि सुनकर चौंक पड़ी। किवाड़ों की साँस से झाँक कर देखा - प्रकाश थे । पर कैसे आये वे और क्यों ? दादा के पैर छूकर कुर्सी पर बैठ गये। दादा ने आशीर्वाद देते हुए अपने की गाथा सुनानो आरम्भ की। उन्होंने बताया- 'देहली रेडिओ पर 'टॉक' देकर लौट रहे थे । यहाँ दो कल शाम को चौंक में किशोर से भेंट हुई और आपकी इस बीमारी का पता चला । आप बिल्कुल दुबले हो गये हैं। मैं बाहर देखता तो पहचान न पाता !' दादा ने कहा- अब पहले से अच्छा हूँ । प्राणों की आशा न रह गई थी। जब से किशोरो की शादी हुई तब से मेरी शान्ति जाती रही । ऐसी कुलच्छनी बहू भाई है...... प्रकाश ने फौरन बात काट कर कहा - 'यह व्यर्थ की बात आप कर रहे हैं। मैं उसे जानता हूँ । बहुत अच्छी और भाग्यवती लड़की है। यह संयोग की बातें हैं दुर्भाग्य भी मैं इसे न मानूँगा । आप उसे कुछ न कहें ।' दादा एक अनभ्यस्त विस्मय में हूबे चुप पड़े रहे। मैं गर्व और गौरव से फूल उठी। संसार में चाँद भैया के बाद कोई और है जो मेरी निन्दा और अवमानना नहीं सहन कर सकता । भूल गई मैं आने वाले संताप को - दादा के भीतर का विद्रूप कितना भयानक विस्फोट करेगा ? दादा ने कहा- 'तुम पिछली बार लखनऊ में जब उससे मिले थे तब मैं वहाँ था । मुझे बड़ा बुरा लगा था यह जान कर कि तुम जान-बूझ कर मुझसे बिना मिले लौट गये - विशेष कर जब तुम्हें यह मालूम हो गया था - उसी के द्वारा कि मैं वहाँ हूँ । एक मसल है - चोर नहीं पर चोर जैसी बातें । तुम्हारा यह व्यवहार मुझे वैसा ही लगा था ।... तुम्हें यह न करना था । मेरे गोपन अन्तःपुर में उस दिन की याद जाग उठी । किवाड़े की सन्धियों से मैं सांस रोके देख रही थी। वे कुछ बोलते न थे । शायद और कटु सत्य वे जबान पर न लाना चाहते थे। वे केवल मनुष्यत्व सांसारिकता के कारण दादा की ऐसी कड़ी बीमारी का समाचार सुनकर उन्हें देखने आये थे । किसी प्रकार का आरोप प्रतिरोप करने और कोई अप्रिय चर्चा छेड़ने की उनकी इच्छा न थी । दादा को उनका चुप रहना बदमाशी और अपराध की स्वीकृति जान पड़ी। मैं भीतर से देख रही थी उनके चेहरे पर कैसी भींगी वेदना सिमटी पड़ी है। जिस प्रसंग से बचने के लिए यह यहाँ आते समय प्रार्थना करते रहे होंगे वह इतनी जल्द - बैठते हो इस रूप में शुरू हो जायगा यह उन्होंने स्वप्न में न सोचा था । मैं बैठी देख रही थी - एक व्यापक उत्तेजना उनकी नसों में भर-भर आती थी पर वैसी ही ज्यों की त्यों सूख जाती थी। दादा कहा -'तुम उसे जानते हो - वह बड़ी अच्छी लड़की है यह मैंने लिया । पर मेरी बातें तो पूरी सुन लेते। मैं इस बार मरते-मरते बचा हूँ । जब से यह आयी है मेरी अशान्ति और चिन्ता का ओर छोर नहीं ! मैं किशोर का यह विवाह कर अब पछता रहा हूँ। टीकमगढ़ से एक शादी आई थी । पाँच हजार रुपये वे लोग केवल फलदान में दे रहे थे पर मैंने न किया । सोचा ग़रीब घर की लड़की है तो पढ़ी-लिखी सदाचारिणी, सुशील और पुन्यवती होगी। शादी में मिले रुपये से क्या किसीका गुजारा होता है । लेकिन इसके मिजाज रानियों महारानियों से बढ़ कर हैं। न किशोर को कुछ समझती है न मुझे । जिस बात के लिये मना किया जाता है वही करती है और शेखी दिखाती है...' उन्होंने कहा - 'श्राप कोई और बात करें । क्यों उसकी निन्दा तब से कर रहे हैं । आपको पता नहीं । वह मेरे बड़े प्यारे दोस्त की मुँहबोली बहन है । मुझे उस पर उतनी श्रद्धा है जितनी सगी बहन पर होती है। यहाँ के सम्बन्ध से भी वह मेरी काकी लगती है। श्राप बराबर उसकी बातें कर रहे हैं। एक निवेदन मुझे करना है । चाँद मुझे जाते-जाते उसे सौंप गया है । आप मेरे दादा हैं । आप से मेरा कुछ भी कहना अनुचित न होगा । उसे अधिक से अधिक सुखी बनाने का यत्न करें । भावुक और तीव्र बुद्धिवाली लड़की है । चाँद के साथ-साथ लिखते-पढ़ते वह इतनी होशियार और ज्ञानवती हो गई है कि ग्रेजुएट लड़कियों को पढ़ा सकती हैं। किशोर मूर्ख है पर आप इस 'मणि' का मूल्य सहज ही जान सकते हैं। उसे उठते-बैठते हर व्यक्ति से किसी प्रकार की ठेस न लगने दे । उसकी निन्दा और कलंक कहते होंगे उसे छोड़ दें । वह सुनती होगीउसे पीड़ा पहुँचती होगी।' छः सात महीने बाद उन्हें देख रही थी। उनके चेहरे पर एक एक नवप्रभा - एक नया आकर्षण लहरा रहा था । मैं उन्हें निकट से देख चुकी थी और उनसे घण्टों बहस कर उस समय उनके प्रति विरक्त हो उठी थी । पर उनकी महानता से परिचित थी । जानती थी उनकी व्यक्तित्व में कौन-सी दैवी मोहिनी है जो मुझे नीम के नये बौर की सुगन्धि जैसी बेहोश और बेहवास बना देती है। मैं मानवता का अपवाद बन जाती हूँ- झंकारहीन पाषाणी जैसी निस्पन्द और कंपनशून्य ! मैं दीवार की आड़ से लगी किवाड़े की सांसों से उन्हें देख रही थी पर जी न भरने आता था । एक कोने में सिमटी स्तब्ध अधीरता और अतृप्ति की सजीव मूर्ति बनी बैठी थी । दादा ने उनकी बात को सुनकर कहा- 'इस सम्बन्ध में तुम्हारा कुछ कहना अनाधिकार चेष्टा है प्रकाश ! वह मेरा पुत्रवधू है । मैं उसके प्रति अपना कर्तव्य जानता हूँ। तुमसे मुझे कुछ सोखने को शेष नहीं । दफ्तर में मेरे नोचे तुम्हारे जैसे पचीसों लौण्डे काम किया करते थे । तुम आज बढ़े आदमी हो गये ! मेरी प्राइवेट बातों दखल देने का तुम्हें अधिकार नहीं । मैं नहीं जानता वह बदमाश चाँद कौन है जो तुम्हें यह काम सौंप गया है । इस नाम का एक कालेजी छोकरा शुक्लजी के यहाँ आया करता था । पर बात यहाँ तक बढ़ गई है यह मुझे न मालूम था । मुझे पता न था तुम उसका पक्ष लेकर मुझसे बहस करोगे - लड़ोगे और बाद में उपदेश देने लगोगे । चाँद पक्का पाजी है - एक नम्बर..... 'मुझे कल ही संवाद मिला है कि लन्दन में उनको मृत्यु हो गई है - एक मोटर एक्सीडेन्ट में यह समाचार मैं मंजु को सुनाना चाहता था । कल मुझे उसके बड़े भाई का तार मिला है । आज उसे दूसरा अशब्द न कहें वर्ना मैं एक मिनट न रुकूँगा ।' मेरे सिर पर गाज गिर पड़ी। इतना बड़ा दर्द छाती में भरे ये इतने गंभीर बैठे हैं। मैं सब कुछ भूल कर पागल हो उठी । बोच का खुला दरवाजा झट से खोल कर सामने आ खड़ी हो गई । दादा हकबका कर उठ बैठे । मेरी मुखमुद्रा देखकर वे हैरत में आगये । प्रकाश ने दोनों हाथ जोड़ कर नमस्ते किया ।...... मैंने उन्मादग्रस्त स्वर में पूछा'चाँद भैया ! चाँद भैया !! उन्हें क्या हुआ है ? आप अभी दादा से क्या कह रहे थे.........बोलिये.... बोलिये.........जल्दी बोलिये ?' उन्होंने जेब से तार निकाल कर मेरे सामने फेंक दिया। शोकविह्वल, करुण, कातर दृष्टि से मेरी ओर देखने लगे तार बड़े भैया का था । चाँद भैया - मेरे चाँद भैया उठी.........................वहीं खड़ी खड़ी कुछ मिनटों के बाद पछाड़ खाकर गिर पड़ी यह क्या हो गया - कैसे हो गया. - कैसे हो गया कितनी सहजता से हो गया...... बाद में जब होश आया तब मैं अपने कमरे में चारपाई पर अकेली पड़ी था । प्रकाश जा चुके थे पर मैं कहाँ जाती ? मुझे कहाँ ठिकाना था ? रात में मैं बराबर फूट-फूट कर घाड़ मार-मार कर रोती रही । मेरी सास ने तरह-तरह से धीरज दिया। पतिदेव दो एक बार पास आये पर मेरी उन्मादग्रस्त दशा को देखकर अधिक समझा न सके । रात के बारह बजे के लगभग मेरे कान में दादा की आवाज पड़ी । वे सास से कह रहे थे - 'जाकर उस कुलच्छिनी से कह दो - रो-रो कर मेरी जान का अमंगल न करे । भगवान की कृपा से मैं बच गया हूँ, मेरा नया जन्म हुआ इस प्रकार अगर रोयेगी और विलाप करेगी तो यह मेरा अशुभ चेतना होगा। इससे मेरा अकल्याण होगा । जाओ उससे कह दो - शोक सभा अब बरखास्त करे और चुपचाप सोये । दुनिया ऐसे ही रोती-धोती रहती है । जिसको जाना है वह चला जाता है। कौन सगा था - अपनी जात बिरादरी, कुटुम्ब कबीले का भी न था । यह सब लगा रहता है। अगर मेरी मृत्यु मनाती हो और सर्वनाश चाहती हो तो बात दूसरी है । मैं जानता हूँ उसे गैरों की जितनी परवाह है उतनी घर के आदमियों की नहीं । उनके साथ मजे उड़ाती रही है.. लेकिन अब कुछ न हो सकेगा ।' मैंने किसी भाँति भैया की स्मृति को हाथ जोड़ कर अधूरा प्रणाम करते हुए कहा- तुम इनकी कुत्सित बातें सुन रहे हो तो कानों में उगली लगा लेना । 'मुझे लगता था जैसे मेरा कंठ-स्वर किसी दूसरे लोक से आ रहा...... मुझे स्वयं उसे सुनकर डर मालूम हो रहा है। हाँ ! डर ही तो है...... जैसा बालक को किसी विक्षिप्त का प्रलाप सुनकर होता है...... जैसा बिल्ली के मुँह में दबे और कड़कड़ होते हुए अस्थिखंड को देखकर बिल के भीतर से झाँकते हुए छोटे चंचल चूहे को होता है । हे मेरे भगवान ! हे मेरे स्वामी ! मेरे देवता - मेरे महादेवता ! किन पापों का दण्ड तुमने मेरे ऊपर डाल दिया। मेरे भैया ! मेरे - केवल मेरे ! किसी के नहीं वरन् मेरे...... उठते बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते. दिन, दोपहर, गत, साँझ, सबेरे जो मेरे ही होकर रहे और चले गये.... मेरे ही होकर एक युग तक जला किये...... दूर बड़ी दूर जाकर बुझ गये । जिस काल के गर्भ से इतना विस्फोट होने वाला था - शाम को इतना भयानक गोला जिसके तलातल से इस विदारक गति से फूटने वाला था वह ऊपर से देखने में कितना शान्त था ! और प्रकाश ! उनके मुख पर विवश भावों की जो चमक थी उसके भीतर एक इंगित पर बड़े-बड़े अङ्गार बरसाने की विदारक क्षमता है, यह मैं केवल दरवाजे का सन्धियों से देखकर कैसे जानती !! मैं केसे शान्त रहूँ ! दादा नहीं चाहते मैं जोर से रोऊँ !! मैं कोशिश करूंगी मैं इस दारुण जगद्दहन में शान्त रहूँ......गले पर धीरे-धीरे यह आरी चलने दूँ । पर भीतर के दबे आवेगों को उबल कर फूटने से कैसे रोकूँगी ? मेरे श्रहंकार और इस शरवेधक वेदना के द्वेन्द्र का अन्त कहाँ जाकर होगा ! मैं रात भर रोती रही। दादा की बात के बाद यह यत्न करती रही कि मेरी आहे मेरे गले में घुल जायें । सुबकते सुबकते जब गला बिलकुल बेबश हो जाता था तब मेरे चीत्कार बाहर निकल एक घुमड़न बन उस कमरे में फैल जाते थे । सुबह सूजी-सूजी लाल आँखों के भीतर से फटी पड़ रही मेरी प्रमत्तता को देखकर सास ने मुझे छाती से लगा लिया और बोली'रो मत बहू ! जो चला गया वह क्या रोने से कभी वापस मिला है । आज उसकी माँ पर क्या बीतती होगी ? भगवान से विनती कर कि उसकी आत्मा को शान्ति दें । 'भगवान पर उनका दृढ़ विश्वास था माँ !'- मैंने सास के आँचल में अपना फफकता मुँह ढाँप कर कहा-जाने के पहले मुझसे कह गये थे
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पता नहीं था। आप वापस नहीं लौट सकते परन्तुआप कुछ समय के लिए वर्तमान भूल सकते हैं और अपनी स्मृति, अपने मनमें ही अतीत को पुनः जी सकते हैं आदमी पशुत्व के तल पर गिर सकता है। वह आनंदपूर्ण होगा, किन्तु अस्थायीयही कारण है कि नशीले पदार्थ, शराब आदि का इतना आकर्षण है। जब आपकिसी मादक द्रव्य के कारण बेहोशा हो जाते हैं तो थोडी देर के लिए आप पीछे गिर जाते हैं। थीड़े समय के लिए आप आदमी नहीं रह जाते, आप एक समस्या नहीं होते। आप फिर से पशुओं के जगत के हिस्से हो गये, अचेतन अस्तित्व के हिस्से हो गये। तब आप आदमी नहीं हैं। इसलिए फिर वहां कोई समस्याभी नहीं हैं। मनुष्यतासदा से कुछ-न-कुछ खोज़करती रही है - सोमरस से लेकर एल. एस. डी. तक ताकि वह भूल सके, पीछे लौट सके, बच्चों जैसा हो सके, पशुओं की निर्दोषिताको फिर से पा सके, बिना समस्या के हो सके, यानी बिना मनुष्यता के हो सके, क्योंकि-मनुष्यता का मेरे लिए अर्थ होता है एक समस्या। यह पीछे लोट जाना, यह गिर जाना संभव है लेकिन केवल अस्थायी रूप् से। तुम फिर लौट आओगे, तुम फिर से आदमी हो जाओगे और वहीसमस्याएँ तुम्हारे सामने खडी हुई होंगी, तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही होंगी। बल्कि पहले से भी ज्यादा गहरी होंगी। तुम्हारीअनुपस्थिति से ये विलीन होने वाली नहीं, वरन वे और भी जटिल हो जायेंगीऔर तब एक दुष्टचक्र का निर्माण होगा जब तुम लौटकर आओगे और जागोगे तो तुम पाओगे कि तुम्हारी गैरहाजिरीके कारण समस्याएँ और भी अधिक जटिल हो गई। वे बढ़गईं और तब तुम्हेंबार-बार स्वयं को विस्मृत करना पड़ेगा और जितनी बार तुम भूलोगे और पीछेपिरोने, तुंम्हारी समस्याएं बढ़ती जायेंगी। तुम्हें अपनी मनुष्यता का बार-बार सामनाकरना पड़ेगा। कोई इस तरह बच नहीं सकता। कोई चाहे तो स्वयं को धोखादे सकता है, किन्तु इस तरह बच नहीं दूसरा विकल्प अति कठिन है - विकसित होना; अपने चैतन्य को, बीइंग कोपा लेना। जब मैं कहता हूँ पीछे लौटना तो मेरा मतलब है बेहोशा होना; जो थोडीबहुत सजगता भी है उसे थी खो देना। जब मैं कहता हूँ होनाबीइंग तो मैरामलतब है बेहोशी को छोड़समग्र-सजगता को, पूर्ण चैतन्य को उपलब्ध होना। जैसे हम हैं, हमारा केवल एक ही हिस्सा चेतन है। हमारे अस्तित्व का छोटा-सा द्वीप चेतन है, और पूरा प्रायःद्वीप, पूरी मुख्यभूमि अचेतन है। जब यह छोटा-सा हिस्सा भी मूच्छित हो जाता है तो तुम पीछे लौट गये, तुम पीछे गिर गयेयह अज्ञान की अवस्था आनन्दपूर्ण है क्योंकि अब तुम समस्याओं से दूर हट गयेसमस्याएँ तो वहाँ अभी भी मौजूद हैं किन्तु तुम अब उनके प्रति सजग नहीं हो। इसलिए तुम्हारे लिए तुम्हें ऐसा लगता है कि जैसे वे समस्याएं नहीं हैं। यह शुतुरमुर्गकी विधि है, अपनी आँखें बंद कर लो ओर तुम्हारा शत्रु दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि-अब तुम उसे नहीं देख सकते--... यही बचकानी बुद्धि का तर्क कहता है कि जबतुम किसी वस्तु को नहीं देख सकते तो वह नहीं है। जब तक कि कोई चीज़तुम्हें दिखलाई नहीं पड़ती वह नहीं है। इसलिए यदि तुम्हें समस्याएँ महसूस नहीं होतीं तो वे नहीं हैं। जब मैं कहता हूँ "स्वयं का होना", मनुष्यता का अतिक्रमण कर जाता, दिव्यता को उपलब्ध हो जाना तो मेरा मतलब है पूर्ण चेतन हो जाना- एक द्वीपनहीं होना, बल्कि पूरा प्रायःद्वीप हो जाना। यह पूर्ण चेतनता भी तुम्हें सब समस्याओं के पार ले जायेगी क्योंकि समस्याएँ वस्तुतः हैं ही तुम्हारे कारण समस्याएँ वस्तुगतसत्य नहीं हैं; वे विषयगत घटनाएँ हैं। तुम ही तुम्हारी समस्याओं के निर्माता हीतुम एक समस्या को सुलझाते हो और उसे सुलझाने में दूसरो बहुत-सी समस्याओंको पैदा कर देते हो क्योंकि तुम तो वही हो। समस्याएँ वस्तुगत नहीं हैं। वे तुम्हारेही हिस्से हैं। तुम ऐसे हो इसलिए तुम ऐसी समस्याएँ उत्पन्न करते हो। बिज्ञान समस्याओ को वस्तु की तरह सुलझाने का प्रयत्न करता है । औरविज्ञान सोचता है कि यदि समस्याएँ नहीं होंगी तो मनुष्य सुखी हो सकेगा। समस्याएँवस्तु की तरह सुलझाई जा सकती हैं, परन्तु मनुष्य सुखी नहीं होगा। क्योंकि मनुष्यस्वयं एक समस्या है। यदि वह एक समस्या का सामाधान खोजता है तो वह दूसरीपैदा कर देता है। वही उनका स्रष्टा है । यदि तुम एक इससे अच्छे समाज कानिर्माण कर लो तो समस्याएँ बदल जायेंगी किन्तु समस्याएँ तो रहेंगी। यदि अच्छास्वास्थ्य, अच्छी दवा प्रदान कर दो, तो समस्याएँ बदल जायेंगी, किन्तु समस्यायेंतो रहेंगी। समस्याओँ का अनुपात सदा उतना ही रहेगा जितना पहले था क्योंकि आदमीवही का वही है; केवल परिस्थिति बदल देते है। आप परिस्थिति बदल देते हैं; पुरानी समस्याएँ नहीं होंगी, किन्तु तब नई समस्याएँ होंगी। और नई समस्याएँ औरभी जटिल होंगी बजाय पुरानी समस्याओं के। क्योंकि तुम पुरानी समस्याओं सेपरिचित हो चुके हो। नई समस्याओं के साथ तुम्हें और भी अधिक तकलीफ होगी। इसलिए यद्यपि हमारे समय में हमने सारी परिस्थिति बदल डाली है, परन्तु समस्याएँतो है - और भी अधिक घातक, और थी अधिक चिन्ताजनक। विज्ञान और धर्म में यही भेद है। विज्ञान सोचता है कि समस्याएँ वस्तुगत है, कहींबाहर हैं, तुम्हें रूपान्तरित किये बिना उन्हें बदला जा सकता है। धर्मसोचता है कि समस्याएँ यहीँ कहीं भीतर ही मौजूद हैं, मुझ में ही... बल्कि मैंही एक समस्या हूँ। जब तक मैं नहीं बदलता, कुछ भी भेद पड़ने वाला नहीं। रूप बदल सकता है, नाम दूसरा हो सकता है, किन्तु मुख्य वस्तु तो वही रहेगी। मैं समस्याओ का दूसरा संसार खड़ाकर दूंगा, मैं नई-नई समस्याओं को उत्पन्तकर दूँगा। यह आदमी जो कि स्वयं के प्रति ही मूंच्छित है, जिसे स्वयं का कोई भीफ्ता नहीं है, यही सारी समस्याओं का स्रष्टा है। वह कौन है, वया है इन सबसेअनभिज्ञ, स्वयं से अपरिचित रहकर वह समस्याओं को सृजन करता चला जाताहै। क्योंकि जब तक तुम स्वयं को ही नहीं जानते तुम यह नहीं जान सकते कितुम क्यों हो और किसलिए जी रहे ही; तुम नहीं जान सकते कि तुम्हें कहाँ जाना है, तुम अनुभव नहींकर सकते कि तुम्हारी नियति क्या है। और तब हर बाततुम्हें विषाद की और धकेलती जायेगी। क्योंकि यदि तुम कुछ भी करो बिना यहजाने कि तुम क्यों हो और तुम क्या हो तो तुम्हें वह कभी भी गहरी तृप्ति नहीं दे पायेगी। यह असंगत है। मुख्य बिन्दु ही खो गया, तुम्हारा प्रयत्न विफल हो गया। और अन्ततः प्रत्येक व्यक्ति विषाद को उपलब्ध होता है। क्योंकि जो सफलनहीं होते उन्हें अभी भी सफलता की आशा होती है, लेकिन जो सफल हो जाते हैं वे अब आशा भी नहीं कर सकते। उनकी दशा बडी निराशाजनक हो जाती है। इसलिए मैं कहता हूँ कि सफलता से बडी विफलता खोजनी मुश्किल है। धर्म विषयगत विचार करता है, विज्ञान वस्तुगत सोचता है। वह कहता हैकि परिस्थिति कोबदल दो, आदमी को स्पर्श न करो। धर्म कहता है कि आदमीको रूपान्तरित करो, परिस्थिति असंगत है। कोई भी परिस्थिति क्यों न हो एकभिन्न मन, एक रूपान्तरित व्यक्ति सब समस्याओं के पार होगा। इसीलिए एकबुद्ध भिखारी होकर भी पूर्ण शान्ति में जी सके, और एक मिडास भारी परेशानीसे घिरा है जबकि उसके पास चमत्कारी शक्ति है। वह जो भी छूता है, सोना हो जाता है। मिडास की परिस्थिति स्वर्णिम हो गई है। उसके स्पर्श करते-ही वस्तु सोना हो जाती है। किन्तु इससे कुछ भी हल नहीं होता, बल्कि मिडास और भीअधिक जटिल समस्यापूर्ण परिस्थिति में पड़ गया। आंज हमारे जगत ने विज्ञान की मदद से एक मिडास की परिस्थिति उपस्थित कर दी है। अब हम कुछ भी छुए और वह सोने का हो जाता है। एक बुद्धभिखारी की तरह रहते हुए भी इतनी शान्ति और नीरवता मेँ जीते हैं कि सम्राटों को भी ईंष्यों होती है। वया है रहस्य? मनुष्य का अन्तरतम अधिक महत्त्वपूर्ण है, बाह्य परिस्थिति नहीं। इसलिए तुम्हें मनुष्य की आंतरिक अवस्था बदलनी होगी। और बदलाहट केवल एक हैः यदि तुम अपनी सजगता में बढ़ सकों तो तुम बदलते हो, तुम रूपान्तरित होते हो। यदि तुम अपनी सजगता में पीछे गिरे, तब भी तुमबदलते हो, रूपान्तरित होते हो परन्तु जब तुम्हारी चेतना कम हो जाती है तो तुमपशुतल पर गिर जाते हो। यदि तुम्हारी चेतना बढ़ जाती है तो तुम देवताओं की ओर बढ़ जाते हो। धर्म के लिए यही एक मात्र कठिनाई है कि अपनी सजगता को केसे बढाएँइसलिए धर्म सदैव से ही मादक पदार्थों के विरुद्ध रहा है। उसका कारण नैतिकनहीं है, और तथाकथित नैतिक लोगों ने सारी ज्ञात को ही एक बड़ा गलत रंगदे दिया। धर्मं के लिए यह कोई नैतिकता का प्रश्न नहीं है कि कोई शराब पीता है। यह कोई नैतिकता का सवाल नहीं है क्योंकि नैतिकत्ता का प्रारम्भ ही तबहोता है जब कि मैं किसी और से संबंधित होता हूँ। यदि मैं शराब पीता हूँ औरबेहोश हो जाता हूँ तो इसका किसी से कुछ लेना देना नहीं । मैं जो कुछ कररहा हूँ स्वयं के साथ कर रहा हूँ। हिंसा नैतिकता के लिए एक प्रश्न है, न कि शराब। यहाँ तक कि यदि मैंआपको किसी विशेष समय पर मिलने को समय दूँ और नहीं मिलूँतो वह अनैतिकताकी बात हुई क्योंकि कोई और संबंधित है। शराब नैतिकता का एक प्रश्न हो सकताहै यदि उसमें दूसरा भी संलग्न हो, अन्यथा वह नैतिक सवाल बिल्कुल नहींयह तुम अपने साथ करते हो। धर्म के लिए यह कोई नैतिक सवाल नहीं हैधर्म के लिए यह और भी गहरा सवाल है। यह चेतना को कम करने और बढानेका सवाल है। एक बार तुम्हारी आदत पीछे गिर कर अचेतन होने कोपड़ जाती है, तोतुम्हारी चेतना कोबढाना और भी कठिन हो जाता है। यह और भी मुश्किल होजाएगा क्योंकि तुम्हारा शरीर बढ़ती हुई सजगता में साथ नहीं देगा। वह तुम्हारीघटती हुई सजगता में साथ देगा। तुम्हारे शरीर की संरचनां तुम्हें अचेतन होने में सहायता देगी। वह तुम्हें सजग होने में सहायक नहीं होगी। और कोई भी चीजजो अघिक सजग होने में बाधा बनती हो वह धार्मिक समस्या है। वह कोई नैतिकसमस्या नहीं है। इसलिए कभी-कभी एक शराबी अधिक नैतिक व्यक्ति हो सकता है बजायउसके जो कि शराब नहींपीता, किन्तु वह अधिक धार्मिक कभी भी नहींहोसकता। एक शराब पीने वाला व्यक्ति ज्यादा सहानुभूतिपूर्ण हो सकता है बजायराराब नहीं पीने वाले व्यक्ति के । वह ज्यादा प्रेम-पूर्ण, ज्यादा ईमानदार हो सकताहै लेकिन ज्यादा धार्मिक कभी भी नहीं हो सकता। और जब मैं कहता हूँ घार्मिकतो मेरा मतलब होता है कि वह कभी भी अधिक सज़ग, अधिक सचेतन व्यक्तिनहीं हो सकता। सजगता में विकसित होना संताप पैदा करता है। आदम ओर ईव की बाइबिल की पुरानी कहानी को समझना अच्छा होगाउन्हें स्वर्ग से निकाल दिया गया था, उन्हें ईडन के बाग से निष्कासित कर दिया गया था। यह एक बहुत गहरी मनोवैज्ञानिक कहानी है। परमात्मा ने उन्हें सिर्फएक फल को छोड़सारे फल खाने के लिए इजाजत दे दी थी। केवल एक वृक्षको नहीं छूना था और वह वृक्ष ज्ञान का वृक्ष था। यह बडी अजीब बात है किईश्वर अपने बच्चों को ज्ञान का फल खाने के लिए मना करे। यह बड़ा विरोधाभासी लगता है। यह कैसा ईश्वर है? और यह केसा पिता है जो कि अपने ही बच्चोंके और अधिक बुद्धिमान व ज्ञानी होने के खिलाफ है। परमात्मा क्यों ज्ञान के लिए निषेध कर रहा है? हम तो ज्ञान को बहुत मूल्य देते हैं। परंतु उन्हें मनाकर दिया गया। आदम व ईव पशु जगत में विचरण कर रहे थे। वे आनंद में थे, किन्तुउन्हें इसका कोई पता नहीं था। बच्चे बड़े आनंद में होते हैं किन्तु वे भी अनभिज्ञहोते हैं। और यदि बच्चों को विकसित होना हो तो उनके ज्ञान की वृद्धि होनीचाहिए। दूसरा कोई विकास का मार्ग नहीं है। यदि आप अज्ञानी हैं तो आप आनन्दपूर्णहो सकते हैं, परंन्तु आप अपने आनंद के प्रति सजग नहीं हो सकते इसे समझ लेना चाहिएः तुम आनंदित हो सकते हो यदि तुम अज्ञान में हो, किन्तु तुम्हें अपने आनंद का कोई पता नहीं होगा। जैसे ही तुम्हें अपने आनन्दका अनुभव होना प्रारंभ होगा, तुम अज्ञान से बाहर होने लगो। ज्ञान ने प्रवेश किया, तुम एक जानने वाले बने। अतः आदम और ईव बिल्कुल पशुओं की भांति रहतेथे-समग्ररूपेण अज्ञानी तथा, आनंदपूर्ण किन्तु यह स्मरण रखें कि इस आनन्दका उन्हें कोई पता नहीं था। वे केवल आनन्दमन थे बिना उसे जाने। कहानी कहती है कि शैतान ने ईव को फल खाने के लिए ललचाया औरउसका कारया यह था कि उसने ईव से कहा कि यदि तुमने यह फल खा लियातो तुम देवताओं के समान हो जाओगी। यह बहुत अर्थपूर्ण बात है। जब तकतुम ज्ञान का यह फल नहीं खाते हो तुम देवताओं के जैसे कभी भी नहीं होसकते। तुम पशु ही रहोगे। और इसीलिए परमात्मा ने उन्हें मना कर दिया था, निषेध कर दिया था कि उस वृक्ष को न छूएं, परन्तु फिर भी वे उसकी ओर आकर्षितहुए बिना नहीं रह सके। यह शब्द "डेविल" (शैतान ) बड़ा सुन्दर है और विशेषज्ञः भारतीयों के लिएइसका ईसाइयों से भिन्न ही महत्त्व है क्योंकि "डेविल" भी उसी शब्द से, उसीस्रोत से आया है जिससे कि "देव" या "देवता" बना है। दोनों उसी स्रोत से आयेहैं इसलिए ऐसा लगता है कि ईसाई कहानी ठीक बातन कह सकी, कहीं अधूरीरह गई। एक बात ज्ञात है कि "डेविल" स्वयं भी एक विद्रोही देवता था-एकविद्रोही देवदूत जिसने ईश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया था। परन्तु वह स्वयं भीदेवता था। में यह क्यों कह रहा दूँ? क्योंकि मेरे लिए इस संसार में शैतान और देवताजैसी दोशक्तियाँ नहीं हैं। यह द्वैत झूठा है। केवल एक ही शक्ति है। और द्वैतदो दुश्मनों की तरह नहीं है बल्कि दोदुश्मनोंकी तरह काम कर रहा है क्योंकिजब तक शवित्त दोध्रवों की तरह काम न करेगी तब तक वह काम ही नहींकर सकती। इसलिए मेरे लिए यह कहानी एक नया ही अर्थ रखती है। पत्मात्मा वे निषेधइसलिए किया क्योंकि आप आकर्षित तभी हो सकते हैं जब कि मना करें। यदिज्ञान के वृक्ष की चर्चा ही न की जाती तो यह संभव प्रतीत नहीं होता कि आदमऔर ईव ने उस विशेष वृक्ष के फल खाने की कल्पना भी की होती । ईडन काबाग एक बहुत बड़ा बाग था। वहाँ अनगिनत वृक्ष थे; यहाँ तक कि हम उन वृक्षोंके नाम भी नहीं जानते हैं। यह वृक्ष महत्त्वपूर्ण हो गया क्योंकि इसके लिए निषेध कर दिया गया। यहनिषेध ही निमंत्रण बन गया; यह मना ही आकर्षण का कारण बन गया। वस्तुतः कोई शैतान नहीं था जिसने कि उन्हें ललचाया। सर्वप्रथम ईश्वर ने उन्हें आकर्षितकिया। यह एक "मारी आकर्षण था- ज्ञान के वृक्ष के निकट भी मत जाना, उसकाफल मत खाना। केवल एक वृक्ष का निषेध है, अन्यथा तुम्हें स्वतन्त्रता है। "अचानकयह एक वृक्ष सारे बाग में महत्त्वपूर्ण हो गया और मैरे लिए "डेविल" (शैतान) दिव्यता का केवल दूसरा नाम है-दूसरा छोर, और उस डेविल ने ईव को प्रलोभितकिया क्योंकि तब वह देवताओं जैसी हो सकती थी। यह वादा था। और कौनदेवताओं जेसा नहीं होना चाहेगा? कौन नहीं चाहेगा कि वह देवता हो जाये? आदम और ईव लोभ में आ गये और तब वे स्वर्ग री निकाल दिए गये । परन्तु यह निष्कासन प्रक्रिया का एक हिस्सा है। वस्तुतः यह स्वर्ग एक पशुवतअस्तित्व था जो कि आनन्दपूर्ण था किन्तु अनजाना। क्योंकि ज्ञान के वृक्ष केइस फल को खाने के बाद आदम और ईव मनुष्य हो गये। उसके पहले वे मनुष्यकतई नहींथे। वे अब मनुष्य हो गये और साथ ही समस्या भी। ऐसा कहा जाता है कि पहले शब्द जो आदम ने स्वर्ग के दरवाजे से निकलनेपर कहे वे थे "कि हम एक बहुत ही क्रान्तिकारी समय से गुजर रहे हैं।" वहसचमुच एक क्रान्ति का काल था। मनुष्य का मन कभी भी इससे अधिक क्रान्तिसे नहीं गुजरेगा जैसा कि यह पशु जगत से उसका निकाले जाना था, आनन्द कीदुनिया से, अज्ञात अस्तित्व से निष्कासन । वह समय वास्तव में, बड़ा क्रान्ति कासमय था। दूसरी सारी क्रान्तियाँ उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। वह एक सर्वाधिकबडी क्रान्ति थी - स्वर्ग से निष्कासन। लेकिन उनको निकाला क्यों गया? जिस क्षण भी तुम जान लेते हो, जिस क्षण भी सजग होते हो, तो फिर तुम आनन्द में नहीं रह सकते। समस्याएँ उठेगी । और यदि तुम आनन्द में भी हो तो ये समस्याएँ तुम्हारे मन में आयेंगी कि मैंआनन्द में क्यों हूँ? क्यों? और तुम्हें सुख का कोई फ्ता नहीं चल सकता जब तक कि तुम्हें दुख का पता न चले क्योंकि हर एक प्रतीति बिना उसके विपरीतके संभव नहीं । तुम्हें सुख का पता भी तभी चलेगा जबकि तुम्हें दुख अनुभवमें आता हो; तुम स्वास्थ्य से तभी परिचित हो सकते हो जबकि तुम्हें बीमारी काअनुभव ही; तुम जीवन के प्रति सजग नहीं हो सकते जबतक कि तुम मृत्यु रोभयभीत न हो। पशु भी जीते हैं किन्तु उन्हें इसका कोई पता नहीं है कि वे जीवित हैं क्योंकिउन्हें मृत्यु का कोई पता नहीं। मृत्यु की कोई समस्या उनके लिए नहीं है, इसलिए वे चुपचाप जीवन से गुजर जाते हैं। परन्तु वे इसी भाँति जीवित नहीं हैं जिस तरह कि आदमी । मनुष्य जीता है और उसे होश है कि वह जीवित है क्योंकिवह जानता है फि मृत्यु है। ज्ञान के साथ विपरीत का एहसास होता है और समस्याओं का आविर्भाव होता है। तब फिर हर पल द्वन्द्व का होता है। तब तुम हर क्षणदो में बंटे हुए लटके हो । तब फिर तुम कभी एक न हो सकोगे। तुम लगातारद्वन्द्धों में बंटे हुए आंतरिक उलझनों में फंसे हुए रहोगे। इसलिए सचमुच वह एक बडी क्रान्ति थी-महान क्रान्ति आदम और ईवको निष्कासित कर दिया गया। सच ही यह कहानी बडी सुन्दर है। किसी ने उनकोनहीं निकाला किसी ने उन्हें बाहर जाने की आज्ञा नहीं दी। किसी ने नहीं कहाकि जाओ बाहर वे बाहर हो गये। जिस क्षण ही वे होश से भरे कि वे फिरबाग में होकर भी नहीं थे। यह यंत्रवत होगया। इस पर जरा विचार करें - एककुत्ता जो कि यहाँ बैठा हो, अचानक वह होश में आ जाये। तो वह बाहर हो गया। कोई उसे बाहर नहीं निकालता । परन्तु अब वह कुत्ता नहीं रहा। वह अपनीपशुस्थिति से बाहर चला गया और अब वह वापस वहीं नहीं हो सकता। आदम और ईव ने भी पुनः प्रवेश करने को कोशिश की, परन्तु उन्हें वह दस्वाजा फिर नहीं मिला। वे चारों ओर चक्कर लगाते रहे परन्तु सदैव ही द्वार चूक जाते। कहीं कोई दरवाजा ही नहीं है। निष्कासन समग्र है और अन्तिम है, वे पुनः प्रवेश नहीं कर सकते क्योंकि ज्ञान एक मीठा और कड़वा फल दोनो है। मीठा है क्योंकि वह तुम्हें शक्ति देता है, और कड़वा है क्योंकि उसके कारण समस्याएँ खडी होती हैं। मीठा है क्योंकि पहली बार तुम एक अहंकार की स्थिति में होते हो और कड़वा, क्योंकि अहंकार के साथ दूसरी सारी बीमारियाँ भी तुम्हारी होंगी। यह एक दुधारी तलवार जैसा है। आदम आकर्षित हुआ क्योंकि शैतान ने उससे कहा कि तुम देवताओं की तरह हो जाओगे। तुम शक्तिशाली हो जाओगे। ज्ञान भी एक शक्ति है, परन्तु यहतुम जानते हो तो तुम्हें सिक्के के दोनों पहलूजानने पड़ेंगे। तुम्हें जीवन की अधिकप्रतीति होगी, तुम अधिक आनन्दपूर्ण हो सकोगे किन्तु तुम मृत्यु के प्रति भी सजग हो जाओगे। तुमअधिक आनन्द का अनुभव करोगे, परन्तु तुम उसी अनुपात में अधिक संताप को भी अनुभव करोगे। यही एक समस्या है। यही है आदमी-एकगहरा संताप, एक गहरी खाईं दो विरोधी ध्रुवों के बीच। तुम्हें जीवन की प्रतीति होगी, परन्तु जब मृत्यु सामने हो तो सबकुछ विषाक्त हो जाता है। जब मृत्यु है तो फिर हर क्षण हर चीज़ विषाक्त हो गई। तुम जीकैसे सकोगे जब कि मृत्यु सामने हो। तुम आनन्दित कैसे रहोगे जबकि पीड़ा भीघिरी हो। और यदि आनन्द का एक पल आता भी है तो वह भी भागता हुआ होता है। और जब वह क्या होता है तब भी तुम्हें पता ही हैं कि कहीं पीछेदुख खडा हैं, पीड़ा छिपी है। वह जल्दी ही प्रकट होगी। अतः एक आनन्द काक्षण भी आपकी सजगता के कारण विषेला हो जाता है कि कहीं-न-कहीं दुखछिपा हुआ है, वह आता ही होगा। वह यहीं कहीं आसपास ही होगा, और तुम्हेंउससे साक्षात्कार करना पड़ेगा। आदमी भविष्य के प्रति जाग जाता है, अतीत के प्रति सजग हो जाता है, जीवन के प्रति, भृत्यु के प्रति सचेतन हो जाता है। किर्किगार्ड ने इसे ही "संताप" कहा है - इस जानने को ही। तुम पीछे गिर सकते हो, परन्तु वह अस्थायी रूप से होगा। फिर तुम वापस लौट आओगे। इसलिए एक ही संभावना है कि तुमबढ़ो-ज्ञान में आगे बढ़ो। उस बिन्दु तक, जहाँ से कि तुम उसके भी बाहर छलांगलगा सको, क्योंकि छलांग केवल अन्तिम छोर से ही संभव है। एक छोर हमारेपास हैं कि वापस गिर जाओ। हम वह कर सकते हैं परन्तु वह असंभव है क्योंकि हम सदैव के लिए उसमें नहीं रह सकते। हमें बार-बार आगे की ओर फेंक दियाजाता है। दूसरी संभावना यह है कि हम हमारी चेतना में बढ़ते चले जायें। एकबिन्दु ऐसा आता है कि तुम पूर्ण सजग हो जाते हो और जहां से कि तुम अतिक्रमणकर सकते हो। हमने जान लिया है, अब हमें इस जानने के, इस ज्ञान के भी पार जाना होगा। हम बाग के बाहर आ गये हैं ज्ञान के कारण और हम इस बाग में वापसप्रवेश कर सकते हैं जब हम ज्ञान को फेंक देंगे। परन्तु यह फेंकना पीछे गिरने से संभव नहीं है। जिस द्वार से आदम को बाहर निकाला गया था वह द्वार अब फिर से नहीं मिल सकता। हमेँ दूसरा द्धार मिल सकता है जिससे कि क्राइस्ट को, बुद्ध को निमंत्रण मिला था। हम इस ज्ञान को फेंक सकते हैं, हम इस सजगताको फेंक सकते हैं, किन्तु केवल उस चरम बिन्दु से जहाँ कि हम पूर्ण सजग हो जायें। जब कोई पूर्णरूप से जागरूक हो जाए, जब यह भाव भी नहीं रहे कि मैंसजगहूँ जब कोईबिल्कुल पशु की तरह हो जाए प्रसन्न और आनन्दित। उन्हेंयह पता नहीं है कि जब तुम पूर्णरूप से सजग रहोगे या हो तो देवता हो जाते होयदि यह सजगता समग्र है तो तुम सजग होत बिना यह जाने कि तुम सजग होतब यह साधारण सजंगता ही प्रवेश की शुरुआत हो जाएगी-यही प्रवेश बन जायेगी। तुम पुनः बाग में होओगे-पशुओं की भाँति नहीं, किन्तु देवताओं की भांति । और यह एक अनिवार्य प्रक्रिया है। यह आदम का निष्कासन ओर जीसस का प्रवेश एक अनिवार्य प्रकिया है। अपने अज्ञान में से बाहर निकलना ही होता है, यह प्रथम चरण है। और फिर अपने ज्ञान से भी बाहर निकलना होता है, वह दूसरा चरण है। यह सूत्र सजगता से संबंधित हैः "स्वयं में सजगता की अग्नि को जलाना ही धूप है । " स्वयं के भीतर होश की आग पैदा करना । पहली बात तो यह ठीक रो समझ लें कि होश से, सजगता से क्या मतलब है। तुम चल रहे हो; तुम बहुत-सी चीजोंके प्रति सजग हो-दूकानें हैं, लोग हैं जो पास से गुज़र रहे हैं, भीड़ है आदि । तुम ऐसी बहुत सी चीजों के प्रति सजग हो, केवल एक ही चीज के प्रति तुम्हारा ध्यान नहीं हैतुम्हारे अपने प्रति। तुम सड़क पर चल रहे हौः तुम्हारा ध्यानबहुत-सी चीजों के प्रति रहता है, . केवल तुम अपने ही प्रति सजग नहीं हो। यहस्वयं के प्रति होगा, इसे ही गुरजिएफ सेल्फ रिमेम्बरिग कहता है। गुरजिएफ कहताहै कि तुम कहीं पर भी होओ, सदैव, स्वयं का स्मस्या रखो। उदाहरण, के लिए, जैसे कि तुम यहाॅ मुझे सुन रहे हो, किन्तु तुम सुनने वाले के प्रति ही सजग नहीं हो। तुम्हें बोलने वाले का पता है, परन्तु तुम उस सुनने वाले के प्रति होश में नहीं हो। सुनने वाले के प्रति भी सजग रहो। स्वयंकी यहाँ उपस्थिति अनुभव करो । एक क्षण के लिए एक झलक आती है औरतुम पुनः भूल जाते हो। कोशिश करो। जो कुछ भी तुम कर रहे हो करते समय एक बात का ध्यान सतत भीतरबना रहे कि वह तुम कर रहे हो। भोजन कर रहे ही, स्वयं के प्रति सजग रहो। तुम चल रहे हो, स्वयं के प्रति सजग रहो। तुम सुन रहे हो, तुम बोल रहे हो, स्वयं के प्रति सजग रहो। जब तुमक्रोधित हो रहे हो, होश रहे कि तुम क्रोध में हो। यह स्वयं का सतत स्मस्ण एक सूक्ष्म शक्ति को निर्मित कस्ता है। एकबहुत ही सूक्ष्म ऊर्जा तुम्हारे भीतर पैदा होने लगती है। तुम घनीभूत होने लगते हो। साधारणतः तुम एक ढीलेढाले थैले की तरह होते हो, जिसमें कोई सघनता, कोई केन्द्र नहीं होता-केवल द्रव्यता होती है, खाली बहुत सी चीजों का ढीलमढालामिश्रण होता है जिसमें कोई केन्द्र नहीं होता। एक भीड़ होती है जो कि लगातारयहाँ से वहाँ डोलती रहती है; जिसका "कोई मालिक नहीं। सजगता का अर्थ होता है कि मालिक बनो। और जब मैं कहता हूँ "मालिक बनो" तो मेरा मतलब है कि उपस्थित हो जाओ-एक सतत उपस्थिति। जो कुछ भी तुम कर रहे हो, या नहीं कर रहे हो, एक बात तुम्हारे ध्यान में बनी ही रहे कि तुम हो। यह साघारण स्वयं की अनुभूति कि कोई है, यह एक केन्द्र क्रो निर्मित करतीहै-एक थिरता का केन्द्र, एक मौन का केन्द्र, एक आंतरिक मालकियत का केन्द्र एक भीतरी शक्ति और जब मैं कहता हूँ कि एक भीतरी शक्तितो में शब्दशः कह रहा हूँ-है। इसीलिए यह सूत्र कहता है कि सजगता की अग्नि। यह एक आग है, एक अग्नि है। यदि तुम सजग होना शुरू करो तो तुम अपने भीतर एक नई ऊर्जा को अनुभव करोगे-एक नई आग, एक नया जीवन। और इस नई अग्निये जीवन, नई ऊर्जा के कारण बहुत सी चीजें जो कि तुम्हारे ऊपर अधिकार जमाये हुए हैं वे सब विलीन हो जाएंगी। तुम्हें उनसे लड़ना नहींपड़ेगा। तुम्हें अपने क्रोध से, तुम्हारे लोभ से, तुम्हारे काम से, लड़ना पड़ता है क्योंकि तुम कमजोर हो। वास्तव में, काम, क्रोध, लोभ कोई समस्याएं नहीं हैं। कमजोरीही एक मात्र समस्या है। एक बार भी तुम भीतर मजबूत होना शुरू करो इस अनुभूतिके साथ कि तुम हो, तो तुम्हारी शक्तियाँ सघन होने लगती हैं, संगठित होने लगतीहैं भीतर एक बिन्दु पर और एक "स्व" का उदय होने लगता है। स्मरण रहे, इगोका, अहंकार का नहीं, बल्कि "स्व" का जन्म होगा। इगो"स्व" का झूठा भाव है। बिना किसी "स्व" के तुम ऐसा मानते चले जाते हो कि तुम्हारे भीतर "स्व" है वही अहं का भाव है। अहं का अर्थ होता है एक मिथ्या स्व । तुम स्व नहींहो, और फिर भी तुम्हें प्रतीत होता है कि तुम एक "स्व" हो। मौलिकपुत्र जो कि एक सत्य का खोजी था, बुद्ध के पास आया । बुद्ध ने पूछा कि तुम क्या खोज रहे हो? मौलिकपुत्र ने कहा-मैं अपने स्व को खोजरहा हूँ। मेरी मदद करें। बुद्ध ने कहा कि तुम एक वादा करो कि जो कुछ भी तुम्हें कहा जाएगा, तुम करोगे। मौलिकपुत्र रोने लगा। उसने कहा कि मैं कैसे वादा कर सकता हूँ? मैं तो हूं ही नहीं। मैं तो अभी हूँ ही नहीं, फिर वादाकेसे करूं? मुझेतो यह भी पता नहीं कि मैं मेरा कल वया होगा। मेरे भीतर कोई स्व नहीं जो कि वादा कर सके, इसलिए मुझसे ऐसी असंभव बात के लिए मत कहें। मैं प्रयत्न करूँगा, इतना ही कह सकता हूँ कि मैं कोशिश करूँगा, परन्तुमैं ऐसा नहीं कह सकता कि जो कुछ आप कहेंगे, वही करूँगा, क्योंकि कौन करेगा? मैं उसे ही तो खोज रहा हूँ जो कि वादा कर सके और उसे पूरा कर सके। मैं तो अभी हूँ ही नहीं। बुद्ध ने कहा-माँ "मौलिकपुत्र यह सुनने के लिए ही मैंने तुमसे यह प्रश्न पूछा था । यदि तुमने वादा किया होता तो मैं तुम्हें यहाँ से जाहर निकाल देता। यदितुमने कहा होता कि मैं वादा करता हूँ तो मैं जान लेता कि तुम कोई"स्वं" कीखोज में नहीं आये हो क्योंकि एक खोजी को तो पता होना चाहिए कि अभीवह है ही नहीं। अन्यथा, खोज की जरूरत ही क्या है? यदि तुम हो ही, तो कोई आवश्यकत्ता नहीं है। तुम नहीं होयदि कोई इस बात को अनुभव कर सके, तो उसका अहंकार वश्प्पीभूत हो जाता है। अहंकार एक झूठा ख्याल है ऐसी वस्तु का जो है ही नहीं। "स्व" का अर्थ होता है एक केन्द्र जो कि वादाकर सके। यह केन्द्र तब निर्मित होता है जबकि कोई लगातार सजग रहे, सतत होश बनाये रखे। ध्यान रहे कि जब भी तुम कुछकर रहे हो, कि तुम बैठ रहे हो, कि अब तुम सोने जा रहे हो, कि अब तुम्हें नींद आ रही है, कि तुम अब नींद में डूब रहे हो, प्रत्येक क्षण में जागे रहनेका प्रयास करो और तब तुम्हें प्रतीत होगा कि एक केन्द्र तुम्हारे भीतर निर्मितहोने लगा, चीजें सघन होने लगी, एक केन्दीकरण होने लगा। अब प्रत्येक चीज़ केन्द्र से जुड़ने लगी। हम बिना केन्द्र के ही हैं। कभी-कभी हमें केन्द्र की प्रतीति होती है, किन्तुवे क्षण ऐसे ही होते हैं जबकि परिस्थितिवश तुम सजग हो जाते हो। यदि अचानक ऐसी परिस्थिति हो, कि कोई खतरा पैदा हो गया हो तो तुम्हें तुम्हारे भीतर केन्द्रकी प्रतीति होगी क्योंकि खतरें के समय तुम सजग ही जाते हो। यदि कोई तुम्हेंमार डालने वाला हो तो तुम उस क्षण विचार नहीं कर सकते, तुम उस क्षण ठोस हो जाते हो। तुम अतीत में नहीं गिर सकते, तुम उस क्षण ठोस हो जाते होतुम अतीत में नहीं गिर सकते, तुम भविष्य को भी नहीं विचार सकते। यह क्षणही सब कुछ हो जाता है। और तब केवल तुम घातक के प्रति ही होश से नहींमरत्ते बल्कि तुम अपने प्रति भी सजग हो जाते ही जो कि मारे जाने वाला है। उस सूक्ष्म क्षण में तुम्हें अपने भीतर एक केन्द्र को प्रतीति होती है। इसीलिएखतरनाक खेलों के प्रति इतना आकर्षण है। पूछो किसी गौरीशंकर अथवा माउंट एवरेस्ट पर चढने वाले से। जब पहली बार हिलेरी वहाँ पहुँचा, तो उसे जरूरअपने भीतर एक केन्द्र का अनुभव हुआ होगा। और जज पहली दफा कोई चन्द्रमापर उतरा, तो अचानक एक गहरे केन्द्र की प्रतीति उसे अवश्य हुई होगी। इसीलिए खतरों का इतना आकर्षण है। तुम एक कार चला रहे हो और तुम उसकी स्पीडबढाते चले जाते हो और तब एक खतरनाक गति आ जाती है। तब तुम कुछभी नहीं सोच सकते, विचार रुक जाता है। उस खतरनाक क्षण में जब मौत कमीभी घटित हो सकती है तुम अपने भीतर एक केन्द्र का अनुभव करते ही। खतराआकर्षण का कारण है क्योंकि खतरे में कभी-कभी तुम्हें अपने भीतर उस केन्द्रको प्रतीति होती है। नीत्से ने कहीं पर कहा है कि युद्ध चलते ही रहने चाहिए क्योंकि केवलयुद्ध में ही कभी-कभी "स्वं" की प्रतीति होती है-केन्द्र की प्रतीति- क्योंकि युद्ध खतरनाक है। और जब मृत्यु एक सत्य बन जाती है तो जीवन मेँ सघनता आजाती है जब मृत्यु सामने ही हो तो जीवन सघन हो जाता हें और तुम अपने केन्द्र पर होते हो। परन्तु किसी भी क्षण जब भी तुम अपने प्रति जागे हुए हो तो तुम केन्द्र पर होते हो। परन्तु यदि वह स्थिति पर निर्भर है तो जब वह स्थिति चलीआयेगी तो वह भी चला जायेगा। वह स्थितिजन्य नहीं होना चाहिए। वह आंतरिक ही हो। इसलिए सामान्य-से-सामान्य क्षण में भी सजग रहो। जब कुर्सी पर बैठो, तो भी इस बात का ध्यान रखो-बैठनेवाले के प्रति होश रहे। खाली कुर्सी का ही नहीं कमरे का ही नहीं-चारोंओर के वातावरण का ही नहीं, वरन बैठने वाले का भी ध्यान रहे। अपनी आँखेंबन्द कर लें और स्वयं को महसूस करें, गहरे उतर जायें और स्वयं को अनुभव करें। हेरीगेल एक जेन गुरु के पास ध्यान सीख रहा था। वह तीन वर्ष तक लगातार धनुर्विद्या सीखता रहा। और गुरु सदैव कहता रहा कि ठीक है, जो भी तुम कर रहे हो टीक है, परन्तु वह पर्याप्त नहीं है । हेरीगेल स्वयं एक बहुत अच्छा घनुविद हो गया। उसके सौ फीसदी निशाने ठीक लगते थे और फिर भी गुरु यही कहताकि तुम ठीक कर रहे हो, परन्तु इतना काफी नहीं है। "जब सौ प्रतिशत निशानेठीक लगते हैं तो इससे ज्यादा और क्या चाहिए? अब मैं आगे क्या करूँ? जबसौ प्रतिशत निशाने ठोक लगते हैं तो इससे आगे मुझसे क्या आशा की जा सकती है?" कहते हैं ज़ेन गुरु ने कहा, "मुझे तुम्हारे निशानों से अथवा तुम्हारी धनुर्विद्यासे कोईमतलब नहीं। मुझें तो तुम्हारे से मतलब है। तुम एक कुशल टेक्नीशियनबन गये हो । परन्तु जब तुम्हारा बाण धनुष से छूटता है तब तुम्हें अपना होश नहीं रहता। इसलिए यह बेकार है। तीर निशाने पर लगा या नहीं इस बात सेमेरा कोई संबंध नहीं है मेरा तो संबंध तुमसे है। जब तीर धनुष पर खिंचे तोतुम्हारे भीतर भी तुम्हारी चेतना का तीर खिंच जाये। और यदि तुम निशाना चुक भी जाते तो भी उससे कोई भेद नहीं पढ़ता। परन्तु तुम्हारा भीतरी निशाना नहींचूकना चाहिए और तुम वही चूक रहे हो। तुम एक कुशल धनुबिद हो गये हो, किन्तु तुम खाली नकल करने वाले ही हो।" परन्तु पश्चिमी चित्त में था आधुनिकमन में, (और पश्चिमी चित्त ही आधुनिक चित्त है) यह बात ख्याल में आना बहुत ही कठिन है। यह उसको बकवास लगेंगी। धनुर्विद्या का संबंध ही इस बातसे है कि निशाने बिल्कुल ठीक लगते हों और उसमें एक विशेष कुशलत्ता हो । धीरे-धीरे हैरीगेल हत्ताश हो गया, और एक दिन उसने कहा, "अब मैं छोड़कर जा रहा हूँ। यह तो असंभव मालूम पड़ता है। यह संभव नहीं जब तुमकिसी चीज पर निशाना लगा रहे हो, तो तुम्हारी चेतना उस बिन्दु पर चली जातीहै; उस चीज़ पर, और यदि तुम्हें एक सफल धनुर्धर बनना है तो तुम्हें अपनेकोबिल्कुलभूल ही जाना है। केवल निशाने को ही स्मरण रखना है, उस वस्तुको ही ख्याल रखना है और बाकी सब भूल जाता है। सिर्फ निशाना ही रह जाएपरन्तु जेन गुरु लगातार उसे भीतर भी एक निशाने का बिन्दु उत्पन्न करने के लिएकह रहा था। यह तीर दो-त्तरफा होना चाहिए-बाहर तो निशान के बिन्दु परलगा हुआ और भीतर भी सतत स्वयं की ओर सधा रहे, स्व की और। हेरीगेल ने कहा, "अब मैं जाऊंगा। यह मेरे लिए असंभव है। तुम्हारी शर्तपूरी नहीं हो सकती, और जिस दिन वह जाने वाला था वह सिर्फ बैठा हुआ था। वह गुरु से छुदृटी लेने आया था, और गुरु किसी दूसरे बिन्दु पर निशाना लगा रहा था। कोई और शिष्य सीख रहा था और पहली बार हेरीगेल स्वयं इसमेंसंलग्न नहीं था। वह तो सिर्फ छुट्टी मांगने आया था और वह चुपचाप खाली बैठा था। जैसे ही गुरु खाली होगा, वह छुट्टी लेगा और चला जाएगा। पहलीबार वह उसमें संलग्न नहीं था। तब अचानक उसे गुरु का ख्याल आया और उसकी दो-तरफा चेतना समझ में आई। गुरु निशाना लगा रहा था। तीन वर्ष तक वह उसी गुरु के पास था, परन्तु वह अपने ही प्रयास में लगा हुआ था। उसने इस आदमी को देखा ही नहीं था कि वह क्या कर रहा था। पहली बार उसने उसे देखा और उसे समझ में आया, और अचानक स्वयंस्फूर्त वह उठा बिना किसी प्रयत्न के, और मास्टर के पास गया। उसके हाथ से उसने धनुष लिया, निशाना साधा और तीर छोड़ दियागुरु ने कहा-"ठीक पहली बार तुमने ठीक किया है। मैं बहुत प्रसन्न हूँ।" क्या किया उसने? पहली बार वह अपने में केन्दित हुआ था। निशाने काबिन्दु था, परन्तु अब वह भी मौजूद था वहाँ। इसलिए जो भी तुम करो, चाहेकुछ भी करो - किसी धनुर्विद्या की जरूरत नहीं जो भी तुम कर रहे हो, जब खाली बैठे भी होचेतना का तीर दो-तरफा हो-डबल-एरोड। स्मरण रहे कि बाहरक्या हो रहा है और यह भी याद रहे, कि भीतर कौन है। लींची एक दिन सुबह प्रवचन कर रहा था कि किसी ने अचानक पूछ लिया- मेरे एक प्रश्न का उतर दो"मैं कौन हूँ?" लींची उठा और उस आदमी के पास गया। सारा हाल शान्त हो गया। वह क्या करने जा रहा था? यह एक साघारण-सा प्रश्न था। वह अपनी जगह से उतर दे सकता था। वह उस आदमी के पास पहुँचा। सारे हाल में स्तब्धता छा गई। लींची उस प्ररन पूछने वाले की आँखों में आँखें डाल कर देखने लगा। वह एक बड़ा गहरा क्षण था। सब कुछ ठहरगया। प्रश्नकर्ता तो पसीने-पसीने हो गया। खींची उसकी आँखों में घूरकर देख रहा था। और तब लींची ने पूछा-"मुझसे मत पूछो कि मैं कौन हूँ? भीतर जाओ और खोजो उसको जो कि पूछ रहा है। कौन हैं भीतर ये-प्रश्न पूछने बालाइस प्रश्न का स्रोत ढूंढ़ निकालो। भीतर गहरे उत्तर जाओ। और ऐसा कहा जाता है कि उस आदमी ने अपनी आँखें बन्द कर लीं, मौनहो गया, और अचानक वह आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो गया। उसने अपनी आँखें खोली, हँसा और लींची के पैर छुए और कहा, "आपने मुझे उतर दे दिया। यहप्रश्न मैं बहुतों से पूछता रहा हूँ और बहुत से उतर मुझे दिए गये परन्तु कोई भी उत्तर सिद्ध साबित न हुआ। परन्तु आपने उत्तर दे दिया।" "मैं कौन हूँ?" कैसे कोई इसका उत्तर दे सकता है। परन्तु उस विशेष परिस्थितिमँ-एक हजार आदमी चुप बैठे हों, सुई गिरने को भी आवाज़ जहां सुनाईं पड़ जाये-लींची अपनी आँखों को गड़ा दे और फिर वह आज्ञा दे कि अपनी आँखों को बन्द-करो, भीतर जाओ और पता लगाओ कि यह प्रश्न पूछने वाला कौन है। उत्तर की प्रतीक्षा मत करो। पता लगाओ उसका जो कि पूछ रहा है। और उसआदमी ने आंखें बन्द कीं। क्या हुआ उस क्षण? वह केन्दित हो गया। अचानक वह केन्द्र पर पहुँच गया। अचानक वह अपने अंतरतम के आखिरी बिन्दु को इसे ही खोजना है। और सजगता का अर्थ होता है-वह विधि जिससे अन्तसके इस अन्तिम छोर को खोज लेना होता है। जितने तुम मूच्छित होते हो, उतने ही तुम स्वयं से दूर होते हो। जितने अधिक चेतन, उतने ही स्वयं के निकटयदि सजगता संपूर्ण हो जाये तो तुम अपने केन्द्र पर होते हो। यदि यह चेतना थोड़ी-सी होती है, तो तुम परिधि के पास ही होते हो। जब तुम मूच्छित होतेहो, तो तुम परिधि पर ही होते हो जहाँ कि केन्द्र बिल्कुल विस्मृत हो जाता। इसलिए ये दो संभव मार्ग हैं। तुम परिधि पर आ सकते हो, त्तब तुम मूच्छित होतेहो । कोई फिल्म देखते हुए, कहीं कोई संगीत सुनते हुए तुम अपने कोभूल सकते हो। तब तुम परिधि पर हो । मुझे सुनते वक्त भी तुम स्वयं को भूल सकते होतब फिर तुम परिधि पर हो । गीत्ता कुरान या बाइबिल पढ़ते समय भी तुम अपनेको विस्मृत कर सकते हो। तब तुम परिधि पर हो । जो कुछ भी तुम कर रहे हो, यदि तुम स्वयं के प्रति सजग रह सको, तोतुम केन्द्र के निकट हो। तब अचानक कभी भी तुम अपने केन्द्र को पा लोगे। तब तुम्हारे पास ऊर्जा होगी। वह ऊर्जा यह सूत्र कहता है कि, अग्नि है। सारा जीवन, यह सारा अस्तित्व ही ऊर्जा है। अग्नि पुराना नाम है। अब उसे विद्युत कहते हैं। आदमी बहुत-बहुत नामों से उसे पुकारता रहा है, किन्तु अनि अच्छा नाम है। विद्युत कहना कुछ मृत लगता है, अग्नि ज्यादा जीवन्त प्रतीत होता है। यह अंतरकी अग्नि, यह सूत्र कहता है कि यही धूप है। जब कोई पूजा करने के लिएजाता है तो वह अपने साथ धूप लेकर जाता है। वह धूप व्यर्थ है जब तक कितुम अपनी अन्तराग्नि को धूप की तरह नहीं लाये हो । यह उपनिषद बाहरी संकेतों को उनके पीछे छिपे हुए भीतरी अर्थ दे रहा हैं। प्रत्येक संकेत का भीतरी हिस्सा भी होता है। बाह्य भी अपने में ठीक है, किन्तु वह काफी नहीं है। और वह केवल प्रतीकात्मक है, वह वास्तविक बात नहीं हैं। वह कुछ संकेत करता है, परन्तु वह वास्तविक नहीं है। तुमने धूप देखीहोगी, वह सब जगह मन्दिरों में जल रही है। वह अपने आपमें ठीक है, परन्तु यह बाहरी संकेत मात्र है। एक भीतरी अग्नि चाहिए। और जैसे घूप सुगन्ध प्रदानकरती है उसी तरह आंतरिक अग्नि हमें वह सुगन्ध देती है। ऐसा कहते हैं कि जब महावीर चलते थे तो हर एक को एक सूक्ष्म सुगन्धसे उनकी उपस्थिति का अनुभव होत्ता था। ऐसा बहुत से लोगों के लिए कहा जाता हैं। यह संभव है। जितना अधिक तुम अपने भीतर केन्दित हो जाते हो उतनीही अधिक तुम्हारी उपस्थिति एक सुगंध बन जाती है। और जिनके पास भी ग्राहकताहोती है, उन्हें उसकी प्रतीति होती है। अतः मन्दिर में बाहरी धूप लेकर प्रवेशन करें, वरन आंतरिक धूप लेकर। और यह आंतरिक धूप केवल अवेयरनेस, केवलसजगता से ही उपलब्ध होती है। दूसरा कोई मार्ग नहीं है। जो भी करें होशपूर्वक करें। यह एक लम्बी और कठिन यात्रा है। और एकक्षण के लिए भी होश रखना बड़ा कठिन है। मन सत्तत्त चलता ही रहत्ता है। परन्तु यह असंभव नहीं है। यह अति कठिन है, बहुत श्रम चाहिए, परन्तु यह संभवहै। प्रत्येक के लिए यह संभव है। केवल श्रम चाहिए समग्र रूपेणा श्रम। कुछभी बाकी नहीं छूटना चाहिए, भीतरी कुछ भी अछूता नहीं छूटना चाहिए। सजगताके लिए हर चीज़ का बलिदान देना पड़ेगा। तभी केवल उस आंतरिक ज्योति को खोजा जा सकता है। वह वहाँ है। यदि कोई सब धर्मों में, जो कि हुए हैं औरजो कभी होंगे, एक अनिवार्य एकता को दूंढ़ना चाहत्ता ही तो यहशब्द सजगतासब में मिलेगा। जीसस एक कहानी कहते हैं। एक बड़े घर का मालिक बाहर गया औरउसने अपने घर के सारे नौकरों को लगातार सजग रहने के लिए कहा- क्योंकिकिसी भी क्या वह वापस लौट सकता है। इसलिए चौबीस घंटे उन्हें सावघानरहना पड़ता है। किसी क्षण भी मालिक लौट सकता है। कोई क्षण, कोई भी दिननिश्चित नहीं है। यदि कोई तारीख तय हो, तो तुम सो सकते हो, तब तुम जोचाहो कर सकते हो, और तुम केवल उस निश्चित तारीख को ही सचेत रह सकतेहो, क्योंकि तब मालिक आ रहा होगा। परन्तु मालिक ने कहा है, मैं किसी भी क्षण आ सकता हूँ। रात और दिन तुम्हें मेरा स्वागत करने के लिए जागते हुएरहना है। यही जीवन को कहानी है। तुम स्थपित नहीं कर सकते। किसी भी क्षणपरमात्मा आ सकता है, किसी भी क्षण मालिक लौट सकता है। सतत सजग रहने की जरूरत है। कोई तिथि निश्चित नहीं है, कुछ भी पक्का पता नहीं है कि वहअचानक घटना कब घटित होगी। केवल इतना ही कोई कर सकता है कि सजगरहे और प्रतीक्षा करे। रवीन्द्रनाथ ने एक कविता लिखी है-दि किंग आँफ दि नाइट-रात का राजायह एक बहुत गहरी प्रतीकात्मक कहानी है। एक बहुत बड़ा मन्दिर था जिसमें कई सौ पुजारी थे। एक दिन मुख्य पुजारी ने सपना देखा कि दिव्य अतिथि उसरात्रि आने वाला है-वह दिव्य अतिथि जिसके लिए वे बहुत समय से प्रतीक्षा कर रहे है। शताब्दियों से सारा मन्दिर उस राजा के लिए प्रतीक्षा कर रहा है-उस दिव्य राजा के लिए। मन्दिर का देवता आने वाला है। बहुत से लोग हंसे कियह केवल सपना है, इसलिए इस पर ध्यान देने की ज़रूरतनहीं है। मुख्य पुजारीभी सन्देह से भरा आ, कि यह सपना ही तो है। और यदि यह केवल सपना हीसाबित हुआ, तो सब लोग उस पर हंसेंगे। परन्तु कौन जाने, सच ही हो । यहसूचना सच ही निकल जाये। मुख्य पुजारी सोच में पड़ गया उसी दिन कि किसी को कहा जाये या नहीं। लेकिन फिर डर भी गया यह सच भी हो सकता है। त्तब दोपहर में उसने यहबात कह दी। उसने सारे पुजारियों को इकट्ठा किया, मन्दिर के सारे दरवाजे बन्दकिये और उसने कहा कि बाहर मत जाना और न ही किसी और से कुछ कहनायह केवल सपना भी हो सकता है, कौन जाने। परन्तु मैंने सपना देखा है, औरसपना इतना वास्तविक था। सपने में मन्दिर के देवता वे मुझे कहा था कि मैं आज रात आ रहा हूँ। तैयार रहना। इसलिए हमें सचेत रहना है। आज की रात हमसो नहीं सकते। अतः उन्होंने सारे मन्दिर को सजाया, उन्होंने सारे मन्दिर को धोया. साफकिया, और उन्होंने अतिथि के स्वागत के लिए सारी तैयारियाँ की। और त्तब वे प्रतीक्षा करने लगे। तब धीरे-धीरे सन्देह पैदा होने लगा। फिर किसी ने कहा-यह सब व्यर्थ ही बात है। आधी रात बीत गई, तब और भी सन्देह बढ़ने लगा। तब किसी ने विद्रोह से भरकर कहा, मैं तो सोने जा रहा हूँ। "यह मूर्खता है, सारादिन व्यर्थ गया और अभी भी हम प्रतीक्षा कर रहे हैं। कोई आने वाला नहीं है। तब बहुत-से-लोगों ने उसका साथ दिया । तब मुख्य पुजारी भी झुक गयाऔर उसने कहा, हो सकता है कि वह मात्र सपना ही हो। मैं कैसे कह सकता हूँ कि वह सच था? हो सकता है हम मूर्खता की बात कर रहे हो कि एक सपने की बात के पीछे चल रहे हैं। अतः उन्होंने कहा कि सिर्फ द्वार पर जोआदमी है वह जगा रहे बाकी सब सो जायें। यदि कोई आता है तो वह हमेंखबर कर देगा। निन्यानबे पुजारी सो गये और जो पुजारी इस काम के लिए नियुक्त किया गया था उसने कहा, जब निन्यानबे ऐसा सोचते हैं कि सपना था तो फिर मैं अपनीनींद खराब क्यों करूं? और यदि दिव्य अतिथि को आना ही हो तो आये। वहतो बहुत बडे रथ पर सवार होकर आयेगा, अतः उसका तो काफी शोरगुल होगाऔर सब लोग जान जायेंगे। उसने द्वार बन्द किया और वह भी सो गया। तब रथ आया और रथ के पहियों की भारी आवाज हुई। तब कोई जो नींद में था बोला, लगता है कि राजाआ गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि रथ के पहिये भारी शोर मचा रहे हैं। कोईदूसरा जो कि सोने की तैयारी कर रहा था, उसने कहा, समय बर्बाद न करो, सो जाओ। कोई आने वाला नहीं है। यह रथ नहीं है। ये तो आकाश में धिरे बादल-है। और फिर दिव्य अतिथि द्वार पर आया और उसने दरवाजे पर दस्तक दी। फिर किसी ने नींद में ही कहा कि ऐसा लगता है कि कोई आया है और द्वार पर दस्तक दे रहा है। तब मुख्य पुजारी ने कहा कि अब सो जाओ, यारबार नींद खराब मत करो। कोई दरवाजे पर दस्तक नहीं दे रहा है, यह तो केवलहवा है । सवेरे वे लोग रो रहे ये और चिल्ला रहे थे क्योंकि रात को रथ आया था। सड़क पर उसके चिह्नथे और दिव्य अतिथि द्वार तक आया था और उसने दस्तक दी थी। धूल पर निशान बने हुए थे और सीढियों पर उसके चिह्न थे। ऐसी कितनी ही कहानियां हैं। महावीर और बुद्ध ने कितनी ही कहानियाँकही है जिसमें उन्होंने बतलाया है कि आत्म-ज्ञान कभी भी और किसी भी क्षण हो सकता हैं। यह संभव है। इसलिए बहुत सावघान सचेत और सजग रहने की आवश्यकता है। यह रात के राजा की कहानी मात्र कहानी नहीं है। यह सच है हम सभी चीजों कोइसी तरह लेते रहते हैं। और जितने भी अर्थ हम निकालते हैं वे सभी हमारी नींद से आते हैं और नींद में ले जाने वाले होते हैं। हम कहतेहैं, यह कुछ नहीं है, सिर्फ हवा का झोंका ही है। हम कहते हैं कि वहां कुछनहीं है सिर्फ बादल की गड़गड़ाहट है। तब हम आराम से सो सकते हैं। हमधर्म को मना करते चले जाते हैं, हम उन सभी चीजों को जो कि हमारी नींद तोड़ती है, मना करते चले जाते हैं। हम तर्क करते हैं कि कोई परमात्मा नहींहै, कि कोई धर्म नहीं है कि कुछ भी नहीं है, सिर्फ हवा है, सिर्फ बादल हैतब हम बड़े मजे से सो सकते हैं। यदि परमात्मा है, यदि दिव्यता है, यदि हमसे कुछ भी उच्चतर की संभावना है तो फिर हम आराम से नहींसो सकते। त्तब हमें सजग होना पड़ेगा। जगानापड़ेगा और संघर्ष व श्रम करना पड़ेगा। तब फिर रूपान्तरण हमारी चिंता का कारणबन जाता है। सजगता ही विधि है अपने को केन्दित करने के लिए-आंतरिक अग्नि को उपलब्धि के लिए। वह वहाँ छिपी है, उसे खोजा जा सकता है। और एक जारउसे खोजने के बाद ही हम प्रभु के मन्दिर में प्रवेश कर सकते है-उसके पहलेनहीं। पहले कभी भी नहीं। परन्तु, हम अपने कोप्रतीकों से धोखा दे सकते हैं। प्रतीक हमें गहरी वास्तविकता की और इशारा करने के लिए किन्तु हम चाहें तो उनका प्रवंचनाकी तरह उपयोग कर सकते है। हम बाहरी धूप जला सकते हैं, हम बाहरी चीजोंसे पूजा कर सकते हैं, और तब हम मजे से कह सकते हैं कि हमने कुछ किया है। हम अपने को धार्मिक समझ सकते हैं बिना जरा भी धार्मिक हुए। यही हो रहा है। ऐसी ही तो मानवता हो गई है। प्रत्येक यही समझता है कि वह बड़ा घार्मिक है क्योंकि वे बाहरी प्रतीकों कोमान रहे हैं, बिना किसी आंतरिक अग्नि के। प्रयत्न करते रहें। सफल न हों तब भी । शुरू-शुरू में ऐसा होगा । तुम बार-बार असफल हो जाओगे। परन्तु तुम्हारी असफलता भी मदद करेमी । जब तुम्हेंपता चलेगा कि तुम एक क्षण के लिए भी सजग नहीं हो सकते, तब तुम्हें पहलीबार मालूम पड़ेगा कि तुम कितने मूच्छित हो । सड़क पर चलो और तुम कुछ कदम भी होशपूर्वक नहीं चल सकते। बार-बार तुम अपने को भूल जाते हो। तुम रास्ते पर लगे एक विज्ञापन कोपढ़ने लगतेहोऔर तुम अपने को भूल जाते को। कोई निकट से गुजरेगा और तुम उसे देखनेलगोगे, स्वयं को भूल जाओगे। तुम्हारी असफलताएं भी सहायक होंगी। वे तुम्हें बतलाएंगी कि तुम कितने मूच्छित हो। और यदि तुम इतना भी जान सको कि तुम मूच्छित हो तो भी तुमनेथोड़ी सजगता तोपा ली। यदि कोई पागल इतना भी जान ले कि वह पागल है तो वह ठीक होनेके मार्ग पर चल पड़ा।
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श्यामलाल एक क्षण ठिठके, फिर नाले में उतर पड़े। नाले में कीचड़ नहीं था; उसमें सूखी पत्तियाँ, अद्धे, गुम्मे, चीथड़े और एक खास तरह की धूल थी जो मोहल्ले के लोगों ने अपने-अपने घरों से बुहार कर सरकारी नाली में धकेल दी थी। पायँचे चढ़ा कर, दामन समेट कर वह उठकुरवाँ बैठ गए और पुलिया के नीचे झाँकने के लिए अपना सिर नाले की उसी अज्ञात गन्दगी के इतने करीब ले आए कि विनम्रता का एक बिल्कुल नया उनुभव उन्हें हुआ। पुलिया का मोखा जितना चौड़ा नगरपालिका ने बनवाया था उतना नहीं रह गया था - कचरे ने स्वाभाविक रूप से उसमें घर कर लिया था और सिर्फ एक छोटा-सा छेद रह गया था जिसके भीतर श्यामलालजी को अँधेरा ही दिखाई दिया, क्योंकि पुलिया का दूसरा छोर तो कचरे से बिल्कुल ही ताया हुआ था। वह अपनी बिल्ली को खोज रहे थे। इतवार का दिन था। जरा देर में पटरी पर चार-छह लड़के जमा हो गए। श्यामलाल के दो लड़के जो अपने बाप को देखते खड़े थे, इसी भीड़ में मिल गए था। गए थे। एक-एक कर कई चकित सम्भ्रान्त अधेड़ लोग तरकारी का झोला लिए चकित-से उनके पास से गुजर गए : एक नौजवान, जिसका स्वास्थ्य आतंककारी और चेहरा विज्ञापनों जैसा था, अधिकारपूर्वक पास आ कर खड़ा हो गया। श्यामलाल को रँगे हाथों पकड़ने की नीयत जैसा कुछ दिखा कर उसने पूछा, क्या है? श्यामलालजी ने कहा, "बिल्ली है।" "आप की बिल्ली है?" नौजवान ने पूछा। उत्तर प्रदेश के निवासी श्यामलाल को पंजाबी लहजे में सवाल सुन कर लगा कि 'आपकी' पर इतना जोर दिया गया है कि जैसे बिल्ली का किसी-न-किसी का होना तय हो और सवाल इतना ही रह गया हो कि वाकई आप की है या किसी और की? सच पूछिए तो सवाल का इतना बारीक अर्थ न था। पंजाब में पूछा ही ऐसे जाता है और उसमें भ्रम भी ऐसा ही होता है। जैसे पूछा जाए कि "सात बजे हैं?" तो सुनाई पड़ेगा कि क्या कहते हो। अभी सात कहाँ से बज गए? श्यामलाल ने कहा, "जी हाँ, मेरी बिल्ली है।" "पुलिया के नीचे चली गई है?" श्यामलाल ने कोई जवाब न दिया। वह पंजाब के धाकड़पन से ही नहीं, विज्ञापनी चेहरेवाली कुल नई पीढ़ी के ठसपने से भी एक साथ जूझने की हिम्मत न कर सके। उन्होंने और भी झुक कर मानो नाक रगड़ते हुए कोशिश की कि पुलिया के भीतर अँधेरे में बिल्ली की चमकती आँखें दिख जाएँ और आवाज दी, "मुनमुन, मुनमुन !" नौजवान ने सोचा होगा, मुझे यकीन दिलाने के लिए बिल्ली का नाम ले कर पुकार रहे हैं। परन्तु यह सोचना भी एक निर्दय व्यंग्य होता। मुनमुन श्यामलाल से ऐसे डरती थी जैसे कुत्ते से भी न डरती होगी। वह उन्हें देखते ही भागती। मगर इस वक्त श्यामलाल ने न जाने क्यों मान लिया था कि यह रिश्ता टूट गया है। वह एक संकट में थे और उन्हें विश्वास था कि बिल्ली भी एक संकट में है। नौजवान ने एक दोस्त और बुला लिया था। अबकी उसने पूछा, "यह बाहर क्यों नहीं निकल रही?" श्यामलाल को अचानक दो चमकती हरी बिंदियाँ दिखाई दे गईं। मुनमुन की आँखों के अलावा वे और क्या हो सकती थीं? मुनमुन ऐसे देखती थी जैसे कोई बहुत गम्भीर व्यक्ति हो जबकि थी वह अपनी उम्र के हिसाब से भी अधिक गावदू। वही उजबक आँखें थीं। जरा देर में उसका सफेद थूथन भी नजर आने लगा। पर उस चेहरे पर इस वक्त वह भय न था जिसे देखने के श्यामलाल आदी थे। उस पर भरोसा था कि मैं जब तक यहाँ से न निकलूँ, सुरक्षित हूँ। जानवर इससे आगे सोच नहीं पा रहा था - कि जब कभी निकलेगी तो क्या होगा! एकाएक श्यामलाल को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने जवाब दिया, "जब बाहर निकलेगी तो पूछ कर आपको बताऊँगा।" यह कहते ही उन्हें चेत हुआ कि उन्होंने अपने आपको उस लड़के के बराबर गिरा लिया है। इस बेवकूफ अमीर का तिरस्कार करने के लिए मुझे यह भी मंजूर है, उन्होंने सोचा। लड़के का दोस्त मामूली हैसियत का आदमी था। खुशामदाना तौर पर अपने दोस्त की आड़ करते हुए उसने पूछा, "बताती है?" श्यामलाल इतने उम्दा आदमी थे कि उन्हें तुर्की-बतुर्की नागवार न गुजरी। मगर वह इतने उथले न थे कि हर ऐसे मजाक को पसन्द करें जिसमें कोई हमदर्दी न हो। ज्यादातर मजाक आजकल इसी किस्म के होते हैं, उन्होंने अपने मन में कहा, और यह भी मेरे जैसे आदमियों के लिए आसान नहीं रह गया है कि मैं हँस सकूँ। यह खयाल आते ही वह चौकन्ने हो गए। वह अपने पर तरस खा रहे थे जो कि उन्होंने जवानी से ले कर अब तक सचेत रह कर अपने को नहीं करने दिया था। कुछ दिनों से वह देखते आ रहे थे कि वह बदल रहे हैं; चालीस पार करते-करते आदमी का गैर-मामूलीपन खत्म होने लगता है, यह उन्होंने सुन रखा था। वह अपने अन्दर ऐसा न होने देंगे। यह उनका दृढ़ निश्चय था। मगर कुछ ऐसा तो हो ही रहा था। जैसे उन्हें जानवर से प्यार हो चला था जो इस उम्र में बहुतों को अक्सर होता है। वह जानते थे कि यह उनके और उनकी पत्नी के जिन्दगी से थक चले होने का एक नतीजा है। मगर वह यह सोच कर खुश होते थे कि उनके बच्चे जो कि वास्तव में जानवर को पालने के लिए घर लाए थे, औरों से अच्छे इंसान बनेंगे। सिर्फ उस वक्त जब उन्हें खबरों से राजनीति की निर्दयता का क्षणिक अनुभव होता वह यह सोच कर सहम जाते कि उनके बच्चे अपने प्यार-भरे दिल से, जो उन्हें जानवर की बदौलत मिलेगा, कैसे आनेवाले हकिमों का सामना करेंगे? स्वार्थ के कारण जवानी के प्रेम-व्यापारों में उन्होंने गच्चा खाया था। वही स्वार्थभाव वह अब अपने जानवर पर थोप रहे हों तो क्या अजब है! पर उनके मन को तो इसका पता भी न था - और जानवर को पता चला भी हो तो वह कर ही क्या सकता था। हाँ, बिल्ली की बात थोड़ी-सी और थी। वह आदमी को उतने ही पास आने देती है जितनी उसे जरूरत हो और कुत्ते की तरह आदमी की खुदगर्जी का शिकार बनने के लिए अपने को समर्पित नहीं करती। मुनमुन की माँ ने जब छह महीने हुए तीन बच्चे दिए थे तो घर के मानवों को एक नई परिस्थिति का अनुभव हुआ था। टीना अपने बच्चों की सुरक्षा का अपना जंगली तरीका अपनाना चाहती थी जिसे सात घर दिखाने का नाम मनुष्यों ने दिया है, मगर वह भी इतनी आश्रित हो चुकी थी कि उसके लिए सात घर का मतलब हो गया था श्यामलाल के ही घर में सात जगह। और इसका मतलब था कि बच्चों को बिलौटे से बचाने में हर आदमी को बिल्ली की मदद करनी थी। श्यामलाल के बच्चे और उनकी माँ बिल्ली के बच्चों को अलमारी में, बंद कमरे में, गोद में, बिस्तर में रह कर अपनी समझ से बिल्ली के पक्ष में अपना काम करते रहे, मगर बिल्ली के तरीकों और उनके तरीकों में लगातार एक मतभेद चलता रहा। जिसे वे सुरक्षित समझते, टीना उसे सूँघ कर नामंजूर कर देती और जिस जगह को वे बिलौटे के लिए सबसे अधिक सुगम समझते टीना उसे पसन्द करके, खँखोड़ कर उसकी शक्ल इस तरह बदलने की जिद पकड़ लेती कि जिससे वह उसे काफी प्राकृतिक मालूम हो सके। यह किस्सा चलता रहा। गर्मियों की रात में जब सारा घर बाहर सो रहा था, बिलौटे ने रोशनदान से घुस कर एक बच्चे को खत्म कर दिया। टीना की हिंसक फुँफकार से जग कर जब सारा घर भीतर आया तो लाश जमीन पर पड़ी थी और कमरा टीना और बिलौटे के पेशाब की बदबू से भरा हुआ था जो क्रोध के क्षणों में हो गया था। कुछ दिन बाद एक और बच्चे को बिलौटे ने गुसलखाने की ठंड में आराम करती माँ को लड़ने का मौका दिए बिना बिल्कुल उसके सामने खत्म किया। इस बार बच्चे को वे लोग उठा कर लाए तो उसमें जान थी। श्यामलाल की बड़ी लड़की उसे अस्पताल ले गई। शरीर पर कहीं खून न था। मगर उसकी नट्टी बिलौटे ने भीतर-ही-भीतर कुरमुरा दी थी। अस्पताल में उसने वह सब दूध और ब्रांडी उगल दी जो घर पर बच्चों ने उसे बचाने की कोशिश में पिलाई थी और मर गया। तब सारी गर्मियाँ श्यामलाल मुनमुन को बन्द टोकरी में सिरहाने रख कर सोए और सारा घर टीना से एक नई किस्म का संवाद सीखने में लगा रहा, क्योंकि टीना जब उसकी अक्ल में आता मुनमुन की टोकरी में घुस जाना चाहती और जब मन होता उसमें से निकल आना चाहती - उसको चुपचाप बैठने का हुक्म देना बेकार था - रात में कई बार उसके लिए जागना हर एक को बिलौटे के खिलाफ कार्रवाई की खातिर इतना जरूरी मालूम होने लगा कि जैसे वे सब बिल्लियाँ हों। श्यामलाल ने छेद में हाथ डाल कर मुनमुन को पकड़ने का इरादा किया। भीतर कोई कनखजूरा या बिच्छू हो सकता था, उन्होंने डर और इंसानियत के विरोधी भावों का यह अजब मिला-जुला अनुभव किया। फिर उन्होंने ऊपर देखा। वह ठस दिमाग आदमी मय अपने खुशामदी साहब के जा चुका था - छोकरे भी। सिर्फ उनके अपने दो लड़के थे। उनका तनाव जाता रहा। यदि उन पर कुछ बुरी गुजरे तो वह तमाशा तो न बनेंगे। उन्होंने निर्मल मन से हाथ भीतर कर दिया। भीतर की ठंडी नम जमीन, जो छूने से ही साफ मालूम होती थी, उनकी हथेली से लगी। तत्काल उस मिट्टी की खुशबू उन्हें आने लगी। "मुनमुन, मुनमुन," उन्होंने आवाज दी। वह अब इस तरह बैठे थे कि भीतर झाँक नहीं सकते थे, मगर समझ सकते थे कि मुनमुन उनके हाथ की पहुँच से काफी दूर है। एकाएक उन्हें गोगी की महीन आवाज सुनाई दी। वह टीना के तीन नए बच्चों में से एक और सबसे दलिद्दर थी। आवाज के सहारे उनके हाथ ने गोगी को दबोच लिया और वह लटके हुए चारों पंजों को फैलाए और उनके नाखून निकाले गर्दन से टँगी हुई बाहर आ गई। लड़कों ने चिन्ता से कुछ कहा, मगर वह आवाज उस सड़क के यातायात की तरह स्वाभाविक थी जो कि श्यामलाल से कुछ दूर थी और ज्यादा चल नहीं रही थी। वह मुड़े और उन्होंने लड़कों से एक वाक्य कहा जो कि न उपदेश था, न आदेश, वह बराबर के लोगों से बोला गया एक वाक्य था : "मुश्तू और टीमा और टीना भी इसी सुरंग में होंगे," जो कि लड़के उनसे पहले ही समझ चुके थे। मुनमुन के होने के पाँच महीने बाद टीना ने तीन बच्चे और पैदा किए थे। इस बार ये तीनों आजादी से पले और बढ़े। बिलौटा कहीं दिखाई न देता था। एक मत यह था कि वह पालतू था और अपने मालिक के मद्रास तबादले के साथ वहीं चला गया है। टीना बच्चों को बहुत थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ती, जबकि उन्हें इतनी पहरेदारी की जरूरत न रह गई थी। वह सोती भी बहुत, और अपनी पहलौठी की मुनमुन को जो कि कद में लगभग उसके जितनी हो चली थी, अपना दूध बाकी तीनों के साथ पीने देती। मुनमुन टीना की गैरहाजिरी में चुपचाप आ कर बच्चों को इस तरह सूँघती जैसे वे कोई नई और विचित्र चीजें हों। एक दिन उसने उन्हें चाटना भी शुरू कर दिया और जब वह कूदने-फाँदनेवाले हुए तो उन्हें अपनी दुम भी खेलने को देने लगी। ये तीनों माँ की तरह काले और सफेद थे, मुनमुन की तरह भूरेमायल नहीं। वे इतने सुन्दर और मुलायम भी नहीं थे। मुनमुन दिन-ब-दिन खिलौने की तरह खूबसूरत और साथ ही जाहिल बनती जा रही थी। उसने एक मरतबा एक ही दिन में तीन बार घर के तीन कोनों में गंदगी करके रख दी। श्यामलाल ने सोचा, इसे सजा की जरूरत है। उन्होंने कहीं पढ़ रखा था कि बिल्ली कितने ऊँचे से भी क्यों न गिरे जमीन पर आते-आते अपनी मांसपेशियों को इस तरह ढील दे देती है कि पंजों के बल सुरक्षित ही गिरे। उन्होंने अपना गुस्सा तौला और ठंडे दिमाग से मुनमुन को उठा कर उसी के हगे के सामने पटक दिया। वह पंजों के ही बल गिरी : श्यामलाल आश्वस्त हुए कि यह सजा सफल होगी। मुनमुन सीधे घर से बाहर भागी और रात-भर नहीं आई। सवेरे वह लौटी तो पिछली दाहिनी टाँग जमीन पर रख नहीं पा रही थी। श्यामलाल के बच्चे फिर अस्पताल गए। टाँग की हड्डी बच गई थी, मगर वे तन्तु जिनके बारे में श्यामलाल ने पढ़ रखा था टूट गए थे। लम्बे इलाज के बाद वह जिस दिन पहली बार फिर से पेड़ पर चढ़ी, श्यामलाल ने उसे फिर प्यार करना चाहा। वह पकड़ में तो आ गई क्योंकि उसकी टाँग हमेशा के लिए कमजोर हो गई थी, मगर उसने प्यार ऐसे कबूल किया जैसे वह बनी ही इसलिए है और कोई एहसान नहीं मान रही है। इसके बाद वह और भी प्यारपसन्द और आरामतलब हो गई। उसने कभी न कोई चिड़िया पकड़ी, न चूहा। अधिक-से-अधिक तितली को देख कर वह उठ बैठती और कान खड़े करके अपनी नजर से उसका पीछा करती रहती। एक ही और काम था जिसमें वह फुर्ती दिखलाती थी। जैसे ही तीनों बच्चे टीना का दूध पीने जुटते, वह भी दौड़ी हुई आती और ठेलठाल कर अपने मुँह के लिए उनके बीच में जगह बना लेती। उस वक्त घर के सब लोगों को उसकी चाल पर राय देने का मौका मिलता - "मैंने देखा कि टाँग चला रही है," कोई कहता। कोई कहता, "नहीं, अभी थोड़ा-सा-बस थोड़ा सा जमीन पर छुआती है।" न जाने किस तरह वह बहस अपनी शक्ल बदलने लगी और विषय यह हो गया कि आखिर कब तक टीना और उसके बच्चे घर में पलते रहेंगे? कोई साफ-साफ यह नहीं कहता था कि इन्हें हम नहीं रखना चाहते। यह कहना कि इनके खाने पर बहुत खर्च हो रहा है, और भी अप्रिय सत्य था। टीना रहेगी, यह भी बिल्कुल निर्विवाद था। प्रश्न इतना ही था कि इन बच्चों को कोई पालने के लिए माँग क्यों नहीं ले जा रहा है। एक अजब इंसानी तर्क से श्यामलाल सोच रहे थे कि अगर ये इतने बड़े न होने पाएँ कि टीना के लिए इनसे बिछ़ड़ना बहुत दुखद हो जाए तो इन्हें किसी को दे दिया जा सकता है। इतने बड़े वह किस वक्त तक होंगे, यह जानने का कोई वैज्ञानिक आधार उनके पास न था। बस उन्होंने मान लिया था कि ऐसा कोई वक्त होता होगा। जहाँ तक टीना का सवाल था वह इतना ही जानती थी कि तीनों बच्चे इस बार बिलौटे से बच गए हैं और जिस घर में वह रहती है उसमें ये भी रह रहे हैं। एक दिन श्यामलाल ने अपने बच्चों को समझाया कि जानवर बहुत समय तक अपने बच्चों को आदमियों की तरह माँ पर निर्भर नहीं रखते, वे उन्हें आत्मनिर्भर बनने को छोड़ दिया करते हैं। बच्चों ने पूछा, "मगर मुनमुन क्यों अब तक माँ का दूध पीती है?" और यह प्रसंग वहीं समाप्त हो गया। पिछले तीन दिन से श्यामलाल के दिमाग में कई तर्क उपज रहे थे जैसे यह कि प्रकृति जानवरों की संख्या का नियन्त्रण करती है... वह नवजात शिशुओं की मृत्यु का प्रबन्ध कर देती है नहीं तो दुनिया साँपों और घड़ियालों से भर जाए... जानवर को पल कर उसे पराधीन बना देना कितना निर्दय है... उसे अपनी आजादी का कुछ हिस्सा अपने पास रखने देना चाहिए... इसके पहले कि वह बिल्कुल असहाय हो जाए उसे स्वतन्त्र कर देना चाहिए। अन्त में वह किसी नतीजे पर न आते। किसी ने जब यह सुझाव दिया कि जानवर पालने के तरीकों के अनुसार बिल्ली के फालतू बच्चों को पैदा होते ही बाल्टी में डुबो कर खत्म कर दिया जाता है तो सारे घर ने इसका घोर विरोध किया और श्यामलाल सोचने लगे कि क्या इंसान के दिमाग ने बस इतनी ही तरक्की की है जो इतना सीधा और ठोस तरीका निकाला? उन्हें एकाएक सूझा कि तीनों बच्चों को सिखाना चाहिए कि आदमी से वे सिर्फ एक हद तक रिश्ता रखें। जैसे वे रहें बाहर और घर में जितनी बार चाहें आ जाया करें। क्षण-भर के लिए इस खयाल में छिपी हुई चालाकी भी उन्हें दिखाई दे गई। यह प्रमाण था कि वह चालीस पार करने पर भी अपने को ईमानदारी से समझना भूले नहीं हैं। मगर मूलतः यह एक सही विचार है, उन्होंने सोचा और सीधे इस नतीजे पर आ गए कि अगर इससे मेरा जाती फायदा हो भी जाए तो भी मूलतः यह जानवर के हित में होगा। वह दरअसल चालीस के हो चुके थे। उस रात को वह मुनमुन को गोद में ले कर घर से सौ गज दूर गए। इससे ज्यादा उनकी हिम्मत न पड़ी। लँगड़ी बिल्ली को उन्होंने वहीं छोड़ दिया और वह दुम दबा कर सर्र से सबसे नजदीक की झाड़ी में गायब हो गई। आधी रात को काँपती हुई वह खिड़की से घर में दाखिल हुई। उसकी आलसी आदतों को जो जानते थे उन्हें खिड़की के जँगले से गुजरने की उसकी कोशिश देख कर इस मुसीबत में भी हँसी आती। वह घर तो आ गई थी मगर हक्की-बक्की रह गई थी। जैसे यह भाव उसके चेहरे पर छप गया और फिर जब कभी वह सामने आ पड़ती उसका हक्का-बक्कापन ही दिखाई देता। धीरे-धीरे वह अच्छा लगने लगा और घर-भर ने उसे उसकी सुन्दरता की पहचान बना लिया। अपने प्रयोग की प्रौढ़ बुद्धि से संतुष्ट होक दूसरे दिन शाम होने पर श्यामलाल अपने बच्चों से बोले, "इन तीनों को हम ले चलें और घर के सामनेवाले मैदान में छोड़ दें। यह अपने आप वापस आ जाएँगे।" बच्चे उन्हें मैदान में खेलते हुए देखने की कल्पना कर खुश हुए - उन्हें घर में ही देखते-देखते वे ऊबे जा रहे थे। वे बिलौटे को भूल चुके थे। "मगर चिट्टी के घर के सामने मत छोड़िएगा, उससे हमारी बोलचाल बन्द है," उन्होंने कहा। श्यामलालजी ने और रात होने का इंतजार किया। उन्होंने अपने को भरोसा दिलाया कि चाँदनी है, इससे जो वह करने जा रहे हैं उसमें जानवर के लिए खतरा कुछ कम हो जाता है। वह तीनों को उठा कर ले गए और सूने मैदान में उन्हें गोद से उतार दिया। मुनमुन को उन्होंने जहाँ अकेले रहने की शिक्षा दी थी, वहाँ से यह जगह उनके घर के और नजदीक थी। तब वह वहाँ से ले कर अपने घर तक चहलकदमी करने लगे। दो-तीन फेरियों तक तो उन्हें बच्चों की चीं-चीं सुनाई देती रही, उसके बाद आवाजें बन्द हो गईं। वह अगली फेरी में बच्चों के और नजदीक तक गए। दो बच्चे एक घर के बरामदे की सीढ़ियों पर गुमसुम बैठे थे, एक का पता न था। सवेरे आएगा वह भी, उन्होंने कहा और घर लौट आए। हस्बमामूल सब के सो जाने का इंतजार करते रहे, क्योंकि उनको कुछ देर अकेले जाग कर सोने की आदत थी। पर जब नींद के ठीक पहले का शून्य उनको हँस-हँस कर डुबोने लगा तो वह चौंक कर उठ बैठे और उन्होंने बच्चों को एक बार फिर देख आने का निश्चय किया। उन्होंने हर मकान के बरामदे में झाँकना शुरू किया। जाड़ा पड़ने लगा था, लोग अन्दर सो रहे थे। कोई भी जाग पड़ता तो जवाबतलब करता। वह दबे पाँव हर बरामदे में एक कदम रख कर निगाहें चारों और दौड़ाते और वही एक कदम दबे पाँव वापस ला कर अगले मकान को चल देते। आखिरकार एक बरामदे में दो बच्चे मिल गए। दोनों गहरी नींद में सिकुड़े एक-दूसरे से पैबस्त पड़े थे। उन्होंने चार कदम और बढ़ कर उन्हें उठा लिया - चाहे कोई जाग ही जाए। लौटते हुए उन्हें कहीं से तीसरे की डरी हुई धीमी-धीमी चीं-चीं सुनाई दी। इस बार सहज भाव से वह दूसरी मंजिल के एक मकान की सीढ़ियाँ चढ़ते चले गए और पहले बरामदे में उन्हें तीसरा बच्चा भी मिल गया। घर वापस आ कर वह लेटे और फौरन सो गए। अगले दिन इतवार था। उठते ही श्यामलाल के बच्चों ने टीना के पास जा कर उसके बच्चों को देखा। जब उन्हें बताया गया कि ये तीनों अपने आप नहीं आए, इन्हें लाया गया था तो उन्होंने कहा तो कुछ नहीं, मगर श्यामलाल को मालूम हो गया कि उन पर सब का विश्वास कुछ कम हो गया है। उनको कुछ बहुत दुख न हुआ। वह जानते थे कि उन्हें अपने स्वभाव की यह कीमत चुकानी ही पड़ती है। वह कोई गलत काम नहीं कर रहे थे, कोई निर्दयता, कोई क्षुद्रता नहीं कर रहे थे - वह सिर्फ एक निर्भीक प्रयोग कर रहे थे जिसमें जोखिम था तो, पर नपा-तुला। वह चाहते थे कि उन्हें बस एक और मौका दिया जाए जैसा जिन्दगी में हर बार वह उनसे माँगते आए थे जिन्होंने उन्हें प्यार दिया था। और फिर सबकी सहमति ले कर जो किसी ने उन्हें खुलेआम नहीं दी, उन्होंने बिल्ली के परिवार को एक-एक करके अपनी खचड़ा मोटरकार में भर लिया। यह निहायत मुश्किल काम था। टीना ने और उसके हर बच्चे ने विरोध किया। श्यामलाल के बच्चे पहले तो सकपकाए खड़े देखते रहे, फिर उन्होंने बिल्लियों की गिरफ्तारी में मदद की जिससे बिल्लियों को तकलीफ न हो और एक ने कहा कि आप वहाँ किसी को पटक मत दीजिएगा। जब कार चली तो टीना घबरा कर इस गद्दी से उस पर टहलने और अपने बच्चों को उसी तरह बुलाने लगी जैसे दूध पिलाने के लिए बुलाती थी। शायद वह कोई और आवाज थी जिसकी ममता में दूध पिलाने को बुलानेवाली पुकार से सूक्ष्म भेद था। श्यामलाल बाजार को मुड़नेवाली सड़क छोड़ कर सीधे बढ़ते गए। इतना घर से बहुत दूर होगा, उन्होंने सोचा और लौट पड़े। एक जगह और रुके, पर वह भी उन्हें घर से बहुत दूर जान पड़ी। सब निर्णय उन्हीं के थे और उन्हें संतोष न मिल रहा था। आखिर बाजारवाले मोड़ पर आ कर उन्होंने सड़क के एक किनारे एक भलेमानस आदमी को पेड़ के नीचे सुस्ताते देखा। यहीं ठीक है। आदमी ने गाड़ी रुकते और बिल्लियों को दरवाजे से कूद कर बाहर आते देखा और वैसे ही बैठा रहा। मगर श्यामलाल जो कर रहे थे उसमें उसे चुपचाप अपना साझी मान चुके थे। टीना सड़क पर आते ही चारों ओर देख कर चौकन्नी हुई। फिर कान खड़े करके और दुम दबा कर सीधे सड़क के उस पार भागी। मुनमुन उसके पीछे-पीछे दौड़ गई और दोनों सड़क के पार की पटरी पर बैठ कर एक बार इधर और एक बार उधर देखने लगीं। वे सर साथ-साथ घुमातीं। उनके कान खड़े थे और मुँह खिंच कर आगे को निकल आया था। टीना के सफेद पैरों और सफेद सीनेवाला जिस्म तना हुआ था। यह देख कर श्यामलाल को धक्का-सा लगा। "टीना-टीना!" उन्होंने पुकारा। मगर टीना वापस आना नहीं अपने बाकी बच्चों को इस पार ले जाना चाहती थी। श्यामलाल ने उन्हें उठाया और टीना की तरफ ले चले। वह तेजी से आगे बढ़ी और बच्चों को पुकार कर वापस मुड़ कर वहीं जा बैठी जहाँ पहले थी। शायद यह जगह भी घर से ज्यादा दूर है। मगर नहीं। मुझे पूरी उम्मीद है कि इन्हें वह घुमा-फिरा कर यहाँ से घर की तरफ ले जाएगी... और फिर जो होगा वह स्वाभाविक तौर पर होगा। जो भी हो, हो। मैं इन्हें मारने के लिए नहीं छोड़ रहा हूँ। उनकी माँ उनके साथ है। उन्होंने कई बार हल्के से और एक बार जोर से अपने मन में कहा और वापस आ गए। किसी ने उनसे कुछ नहीं पूछा। थोड़ी देर बाद जब घर का काम खत्म हो चुका तो उनकी पत्नी आ कर कमरे में बैठीं। धीरे से बोलीं, "कहाँ छोड़ा है उनको?" श्यामलाल ने बताया कि बाजारवाले मोड़ पर। वह चुप रहीं। श्यामलाल ने कहा, "दूर नहीं है। टीना आ जाएगी।" उन्होंने बच्चों का नाम नहीं लिया। "टीना पिछवाड़े के स्कूल से आगे आज तक नहीं गई है," वह कहकर चुप हो गईं। फिर काफी देर बाद बोलीं, "टीना दो-तीन दिन के पहले नहीं आ सकती।" वह आँखें मूँदें बैठी हुई थीं। उनके चेहरे पर थकान तनी हुई थी। वह बिल्ली के साथ किए गए प्रयोग की बेदर्दी और अपना पुराना सिर-दर्द साथ-साथ सह रही थीं। थोड़ी देर बाद श्यामलाल ने पूछा, "दो-तीन दिन कहाँ रहेगी?" पत्नी ने कहा, "यह तो मैं नहीं कह सकती, परंतु वह बच्चों को अकेला छोड़ेगी नहीं, जहाँ वे रहेंगे वहीं वह रहेगी।" श्यामलाल बोले, "तो क्या यह भी हो सकता है कि वह लौट कर न आए?" पत्नी ने कहा, "यह तो मैं नहीं कह सकती। मगर वह आएगी तो दो-तीन दिन बाद ही आएगी। हफ्ते-भर बाद भी आ सकती है।" श्यामलाल ने कहा, "नहीं, इतने दिन तो बहुत होते हैं।" अपने हाथ से अपना सिर दबाते हुए पत्नी ने कहा, "तुम बाजार से खाना ले आओ। मैंने पकाया नहीं है।" श्यामलाला के साथ बाजार जाने के लिए उनके दो बच्चे फौरन तैयार हो गए। वे घर से निकले तो श्यामलाल ने कहा, "हम गली-गली जाएँगे।" एक बच्चे ने कहा, "सड़क-सड़क चलिए क्योंकि वह सीधे रास्ते से घर आ रही होगी।" श्यामलाल ने कहा, "नहीं, हो सकता है वे लोग किसी घर में दुबक गए हों, हम गलियों से हो कर जाएँगे और सड़क से हो कर आएँगे।" गलियों में उन्हें कई बिल्लियाँ मिलीं - छोटी, बड़ी, चोरों की तरह दुम दबा कर सरकती हुई और बेखबर घूरे को देख कर कुरेदती हुई। वे सब दूसरी बिल्लियाँ थीं। वे पास आते ही कितनी अजनबी लगती थीं और कितनी पराई भी। गोगी को पकड़ कर खींच निकालने के बाद श्यामलाल को विश्वास हो गया था कि टीना और उसके सब बच्चे इसी सुरंग में हैं। वह इतनी सँकरी और नीची थी कि यह विश्वास सिर्फ वही कर सकता था जो बिल्लियों की सिकुड़ सकने की क्षमता जानता हो। श्यामलाल ने वहीं जा कर पूछताछ की थी जहाँ वह सवेरे उन्हें त्याग गए थे। वह नहीं जानते थे कि जब वह अकेले घर वापस जा रहे थे तो इतवार को छज्जों पर खामख्वाह खड़े बहुत-से लोगों ने उन्हें देखा था। हर छज्जे पर बातचीत हुई थी कि यह आदमी कर क्या रहा है। निश्चय ही कुछ लोग बिल्कुल बोदे रहे होंगे। उनमें से कुछ ने श्यामलाल का बहुत राजदाँ बनते हुए कहा कि उन्होंने समझा था कि श्यामलाल अपनी बिल्लियों को छोड़ने नहीं अपनी बिल्लियों को पकड़ने आए हैं। "क्या अभी तक मिली नहीं?" उन्होंने पूछा। यह पर्दादारी लोग बिना माँगे कर रहे थे जिससे वह श्यामलाल को भय की तरह रहस्यमय लगी। उन लोगों के सामने जो उन्हें इतना गलत समझ रहे थे सच बोलना कितना निराशाजनक होता। "हाँ, मगर आप ने उन्हें जाते किधर देखा था?" उन्होंने जैसे डकैतों के सामने मीठी बोली से काम निकालना चाहा। एक बड़ी सींक-सी औरत बोली, "इधर तो वे आ ही नहीं सकतीं, हाँ। मेरा कुत्ता बिल्लियों को फाड़के रख देता है। डरिए नहीं, मैंने इसलिए उसे बाँध दिया है। वे वहीं नाले में कहीं होंगीं।" सुरंग का दरवाजा उन्होंने एक गुस्से से ढाँक दिया। गोगी को गोद में ले कर वह घर की तरफ दौड़े। वह अपनी बड़ी लड़की को बुलाने जा रहे थे जिसकी आवाज सुन कर मुनमुन बोला करती थी और वह अपनी पत्नी को भी बुलाने जा रहे थे जो रोज उनके घर लौटने पर उन्हें बताया करती थी कि आज टीना ने क्या किया। सब कोई आए। लड़की ने मुनमुन को दो बार बुलकारा तो उसने सिर बाहर किया और पकड़ ली गई। मुश्तू आदतन मुनमुन के पीछे-पीछे निकल आया। मगर टीना अपनी सुरंग के दरवाजे तक आ कर फिर भीतर चली गई। उसके पास अभी शीमा थी। भीड़ लग गई थी। जैसे वे दोनों दर्शकों के लिए संवाद बोल रहे हों, श्यामलाल ने पत्नी से कहा, "तुम बुलाओ।" स्त्री ने आवाज दी, "टीना, टीना!" तब भीड़ में से एक सूखा-सा आदमी जोर से बोला, "इसके बच्चे को दिखाओ तो बाहर आएगी।" कह कर उसने गोगी को श्यामलाल के हाथ से ले लिया। श्यामलाल और उनकी पत्नी दो सिलबिल आदमियों की तरह खड़े देखते रह गए। उसने गोगी को जोर से दबाया। और वह चीख कर रोई। श्यामलाल के बच्चों ने एक स्वर से कहा, "नहीं, नहीं, क्या करते हो !" तभी टीना परेशान बाहर आ गई। बड़ी लड़की ने उसे फौरन उठा कर गोद में दबा लिया। वह भौंचक थी और उसका बदन नम हो रहा था। उसने गरदन उठा कर चारों तरफ देखा और निश्चिंत हो गई। अपने ऊपर थोपी हुई मुसीबत से उसने जो संघर्ष किया था उसका कोई घमंड उसकी आँखों में नहीं था। वह न तो कुरकुराने लगी, न उसने अपनी दुम फुलाई, न उसने ऐसी और कोई हरकत की जिनसे आदमी बिल्लियों को पहचानते हैं। बस, उसने एक बार आँखें मींच कर खोल दीं। श्यामलाल ने उसे गौर से देखा। वह समझ रहे थे कि उन्होंने उसके साथ क्या किया है और यह भी जान रहे थे कि वह नहीं समझ सकती कि खुद उनके साथ क्या हुआ है ! एकाएक वह अपनी असहायता से छटपटा उठे। हालाँकि उनके दिल में प्यार-ही-प्यार था, मगर बिल्ली को किसी तरह यह बताने का तरीका वह नहीं जानते थे। चालीस बरस तक वह हर बार एक मौका और माँग चुके हैं, मगर आज फिर माँग रहे हैं।
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शेखर का जीवन बहुत सूना हो गया था, और इसीलिए जीवन में जो कुछ आता था, वह मानो उसके रस की अन्तिम बूँद तक निचोड़ लेना चाहता था। हँसी की बात होती, तो आवश्यकता से अधिक हँसता था; घूमने निकलता, तो पागल कुत्ते की तरह दौड़ता था; लड़ता, तो लड़ाई का कारण भूल जाने पर भी विरोध बनाये रखता...उसके जीवन में इससे एक झूठी तेजी आ गयी थी, गति का एक भ्रम, जबकि वास्तव में वह निश्चल खड़ा था। खंडहरों से घिरे हुए टीले की एक चोटी पर शेखर खड़ा था, और उसके पैरों के पास उसका कुत्ता। चारों ओर फैले हुए अरहर के खेत थे। कभी हवा का झोंका आता, तो अरहर के पौधों की चोटियाँ कुछ झुक जातीं और फिर सीधी हो जातीं, मानो हरी वर्दी पहने हुए बहुत से सिपाही पहरा देते-देते एक साथ ही ऊँघ गये हों, और फिर जागकर सावधान खड़े हो गये हों। कुत्ते का नाम था तैमूर। शेखर उसे विशेष प्यार नहीं करता था, किन्तु कुत्ता सदा उसके पीछे रहता था, न-जाने क्यों उसने शेखर को अपना स्वामी मान लिया था। हाथों से अरहर के पौधों में रास्ता बनाते हुए शेखर ने देखा कि तैमूर क्यों भागा आया था। बहुत-से बटेर अनेक दिशाओं में आगे जा रहे थे, और तैमूर कभी एक के पीछे, कभी दूसरे के पीछे दौड़ा फिरता था, पर पकड़ किसी को नहीं पाता था। तैमूर ने उकताकर खेल छोड़ दिया-हार मान ली। शेखर भी झख मारकर रह गया। खंडहरों के ऊपर सूर्य स्वर्ण बरसाता हुआ डूब रहा था। घर के पथ पर शेखर खून से लथपथ, थका हुआ, सिर झुकाए चला जा रहा था; और सदा आगे रहनेवाला तैमूर उसके पीछे-पीछे मुँह लटकाए आ रहा था...बटेर कोई हाथ नहीं आया था, लेकिन खेल हो गया था, दिन बीत गया था। फिर अरहर के खेत; फिर आगे-आगे शेखर और पीछे-पीछे शेखर का कुत्ता तैमूर। अब तैमूर ही शेखर का भाई है, गुरु है, साथी है और सेवक है। शेखर की माँ सरस्वती को लेकर अपने पिता के गाँव गयी हुई है, और शेखर पर किसी का नियन्त्रण नहीं है। शेखर निरुद्देश्य भटक रहा है, लेकिन उस उद्देश्यहीनता में एक प्रतीक्षा है। शेखर गनेसी की बाट देख रहा है। गनेसी जात का डोम है। शेखर के पिता की देख-रेख में कुली का काम करता है। छुट्टी के समय वह आतिशबाजी तैयार करता है। इसी नाते वह शेखर का मित्र है, क्योंकि वह बहुधा शेखर को साथ ले जाता है और उसके सामने चीजों की तैयार करता है-बारूद बनाता है, अनारों में भरता है, पटाखे लपेटता है; और साथ-साथ शेखर को बताता भी जाता है कि शोरा, गन्धक, कोयला, अलग-अलग कूटने चाहिए और मिलाते समय लकड़ी की चीजें काम में लानी चाहिए, कि आग न लग जाय; और 'छछूंदर' लपेटने के लिए कागज को शोरे और सिरके के घोल में भिगोकर सुखा लेना चाहिए...कभी वह शेखर के आग्रह करने पर उसे बारूद कूटने भी देता है, और कभी-कभी कुछ पटाखे उसे दे देता है। उनकी दोस्ती इतनी बढ़ गयी है कि कभी-कभी शेखर पिता से कहकर गनेसी को छुट्टी दिला देता है और साथ घूमने ले जाता है। आज उसकी प्रतीक्षा यों हुई कि शेखर ने एक गोह लाने के लिए भेजा था। गनेसी ने ही उसे बताया था कि गोह कैसी भी दीवार चढ़ सकती है और उससे चिपक जाती है। अगर कोई उसकी दुम पकड़कर लटक जाय तो भी नहीं छोड़ती, बल्कि पुराने जमाने में लोग उसकी दुम में रस्सी बाँधकर उसके सहारे किले की दीवारें फाँदा करते थे। यह सुनकर स्वाभाविक ही था कि शेखर गोह देखना चाहता। जब गनेसी ने बताया कि गोह जिन्दा नहीं आ सकती, क्योंकि उसका काँटा जहरीला होता है, तब शेखर की आज्ञा हुई कि गनेसी उसे मारकर ले आये। शेखर अरहर का खेत पार करके निकला तो देखा, सामने से गनेसी चला आ रहा है-दुबला-पतला, काला भूत, एक हाथ में लाठी लिए और दूसरे में दुम पकड़कर मरा हुआ गिरगिट-सा लटकाये। पास आते ही बोला, बबुआ यह लो गोह। शेखर थोड़ी देर उसकी ओर देखता रहा। उसे कुछ निराशा-सी हुई। यही है गोह! फिर वह बोला, इसकी चमड़ी उतारो, हम रखेंगे। गनेसी ने हँसकर बताया कि गोह की चमड़ी बहुत पतली होती है, खाल नहीं उतर सकती। पर शेखर उसकी बातों में आनेवाला नहीं था। खाल चीते की भी उतर सकती है, वह नित्य एक पर बैठता है, तब गोह की क्या बिसात! बोला, हम जो कहते हैं, उतारो! गनेसी ने देखा, मानना पड़ेगा। उसने एक चाकू निकाला और गोह का पेट चीर डाला। शेखर कुत्ते को पकड़कर खड़ा रहा। आधे घंटे में खाल खिंच गयी। शेखर ने कहा, इसे धूप में सूखने डाल दो; सूख जायगी तब धो लेंगे। गनेसी ने कुछ कहे बिना मुस्कराकर उसे सूखने के लिए फैला दिया। तीन दिन बाद वहाँ जो शेखर ने देखा, वह कहने की जरूरत नहीं है। जब गनेसी ने हँसते हुए पूछा, बबुआ, तुम देख आये, वह गोह की खाल सूख गयी है कि नहीं। तब उसने विस्मय दिखाते हुए कहा, कैसी खाल। कौन गोह? बुद्धिमान गनेसी मुस्कराकर चुप हो गया। शेखर ने नोट किया कि चमड़ी सभी की होती है, लेकिन चीता चीता है, और गोह गोह। जिस घर में शेखर रहता था, उसके साथ आमों का एक बगीचा था। आम देशी थे और घटिया किस्म के; केवल वृक्ष कलमी आमों का था। एक दिन अकेले वृक्ष पर कुछ पके-से आम देखकर शेखर ने माली से कहा, हमें आम दो। लेकिन माली को सर्वथा उचित माँग से सहानुभूति नहीं हुई। बोला, बबुआ कल तोडूँगा वो आम, और डाली लगाकर साहब के पास ले जाऊँगा। साहब के पास! शेखर को यह सरासर अन्याय लगा कि आमों को चाहनेवाले शेखर से छीने जाकर वे आमों की उपेक्षा करनेवाले उसके पिता के पास जायँ। बोला, देते हो कि नहीं? शेखर स्वयं पेड़ पर चढ़ने लगा। माली दूर खड़ा हँसता रहा, क्योंकि वह जानता था कि यह लड़का पेड़ पर क्या चढ़ेगा। लेकिन शेखर के हाथों-पैरों में क्रोध का बल था। वह ऊपर पहुँचा, आराम से एक डाल पर बैठा और चुन-चुनकर पके आम खाने लगा। माली की मुस्कान चिन्ता में बदल गयी। उसे देखकर शेखर का सारे आम खा डालने का निश्चय और भी पक्का हो गया। पर पेट ने साथ नहीं दिया। तब शेखर ने कच्चे, अधकचरे, पके सब प्रकार के आम तोड़-तोड़कर मुँह से जूठे कर-करके इधर-उधर फेंकने आरम्भ किये। प्रत्येक आम फेंकते हुए वह चिल्लाकर माली से कहता जाता, यह लो! और यह लो! और यह लो! माली यह नहीं सह सका, और शेखर को पकड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ने लगा। उसे आते देखकर शेखर ने कहा, आओ, आओ, बेशक आओ, और ऊपर चढ़कर एक डाल के बिलकुल सिरे पर ऐसा जा बैठा, कि तनिक और भार पड़ने से वह टूट जाय। माली ने पुकारा, लौट आओ, नहीं तो गिरोगे! नहीं, तुम आओ, पकड़ो, देखूँ मैं भी- और-कुछ-और आगे सरक गया। माली डर गया। बोला, बबुआ, उतर आओ, ईश्वर के वास्ते उतर आओ। तुम उतर जाओ, नहीं तो मैं और आगे जाता हूँ। माली उतर गया। वहाँ से चला गया। शेखर धीरे-धीरे नीचे उतरा। वह अभी भूमि पर पहुँचा नहीं था कि उसने देखा, माली के साथ पिता चले आ रहे हैं। वह दार्शनिक हो गया था। उसने एक बार अपने गिराए हुए आमों की ओर देखा, फिर तैयार होकर खड़ा हो गया। और मन-ही-मन गणित का एक सवाल करने लगा, कि कितने आम फी थप्पड़, या कितने थप्पड़ फी आम पड़ेंगे। पड़ेंगे या नहीं पड़ेंगे, यह सम्भावना विचार में लाने की नहीं थी। यह एक अवसर था जब कि शेखर ने मार की आशा की और हँसी पायी। प्रायः इससे उलटा ही हुआ करता था। फिर भी पिता के लिए शेखर के हृदय में अपार स्नेह था। शेखर के पिता ने नया मकान ले लिया है-पटना शहर में गंगा के किनारे पर। अब शेखर का मुख्य काम है अपने बगीचे में से केले के पेड़ काटना और उनके स्तम्भों पर लेटकर गंगा में बहना (उसे बहना ही कहना चाहिए, क्योंकि तैरना अभी तक सीखा नहीं)। कई बार स्तम्भ पर से फिसलकर उसने गोते खाये हैं, लेकिन सदा ही किसी ने उसे देखकर घसीट निकाला है। पिता के बहुत मना करने पर भी वह यह आदत नहीं छोड़ता, क्योंकि इतनी बड़ी नदी पर अकेले बिना हाथ-पाँव हिलाए बहने के विचार में सामर्थ्य का कुछ ऐसा आकर्षक अनुभव है कि शेखर उसका मोह नहीं छोड़ सकता। पर, शायद राजकन्या उसे नहीं देखेगी-वह बन्धनों के देश के एक मामूली लड़के से क्यों मिलने लगी? वहाँ और भी तो लोग होंगे और भी कन्याएँ होंगी, उस बाधाहीनता के देश में कोई भी क्यों राजकन्या से कम होगी? (मन्दगति और विशाल माँ गंगे!) जिस क्षण में शेखर को मालूम हुआ कि कविता पूरी हो गयी है, उसी क्षण में उसने यह भी अनुभव किया कि उसकी पीठ ठंड से अकड़ गयी है, और उसके हाथ सफेद, सुन्न पड़ रहे हैं। उसने जाना कि वह घर से बहुत दूर बह आया है। घबराहट यथार्थता के संसार में है, उस सूर्यास्त के सोने के टापू के पथ पर नहीं। शेखर धीरे-धीरे अनैच्छिक-सी क्रिया से अपने को किनारे की ओर खेने लगा। जब किनारे लगा, तब किसी तरह सूखी भूमि पर आया और धूप में औंधा लेट गया। जब वह नींद से उठा, तब सूर्य ढल गया था। वह उठा और थका-माँदा-सा घर की ओर चल पड़ा। जब घर के पास पहुँचा तब चाँद निकल रहा था, और घर में बिलकुल सन्नाटा था, यद्यपि बत्तियाँ जल रही थीं। घर के भीतर घुसते ही उसने देखा, बरामदे में माता-पिता खड़े हैं, स्थिर दृष्टि से बाहर देखते हुए, और मानो एकाएक बूढ़े हुए-इतनी झुर्रियाँ उनके मुँह पर पड़ी हुई थीं...शेखर को देखते ही वे खिंचे हुए चेहरे कुछ ढीले पड़े, माँ की आँखों में आँसू आ गये और पिता एकदम से लौटकर ऊपर चले गये। उनके पीछे-पीछे शेखर ने जाकर देखा, घर में कोई नहीं है। यह उसे दूसरे दिन मालूम हुआ कि उसे खोजने के लिए लोग लालटेन लेकर नदी के किनारे बहुत दूर तक गये हुए थे...घर पर किसी तरह पता लगा था कि वह अकेला केले की नाव पर बैठकर बह गया है, और घर में खलबली मच गयी थी। यह समाचार सुनकर शेखर अपने को इतना भूल गया कि उसे बहुत चेष्टा करने पर भी वह कविता याद नहीं आ सकी, जो उसने गंगा के वक्ष पर लिखी थी, केवल स्मारक-सी पहली लाइन ही उसके मन में रह गयी : O mother Ganges, vast and slow! जो बहुत दूर है, जिस तक पहुँचने में बहुत दिन लगते हैं, बहुत-से ऐसे दिन, जिनमें पहले ही दिन में पहले ही कुछ घंटों में पीठ अकड़ जाती है और हाथ सुन्न पड़ जाते हैं; उस सूर्यास्त के सोने के टापू तक कैसे पहुँचा जाय? कैसे देखा जाय उस राजकन्या को, जो उसे सिरिस के फूलों के महल में रखेगी और अपने पास बिठाएगी? वही दशा शेखर की थी। मुक्ति की खोज में पहले वह उन वस्तुओं से उलझा, जो स्थूल थीं, जिन्हें वह देख सकता था, और उनसे हारकर वह कल्पना के क्षेत्र में गया; वहाँ से निराश होकर वह फिर यथार्थता में, स्थूल और प्रत्यक्ष में लौट आया। शेखर के पिता मियादी बुखार से बीमार पड़े थे, और ईश्वरदत्त कभी-कभी टेलीफोन पर डॉक्टर को बुलाया करता था। उसी से शेखर ने टेलीफोन के बारे में कुछ जानकारी हासिल की थी। उसे जान पड़ रहा था कि जो उसे अन्यत्र नहीं मिला, वह टेलीफोन द्वारा शायद मिल जाय-क्योंकि टेलीफोन में नयापन था, रहस्य था। पिता बीमार थे, इसलिए जब दफ्तर बन्द होता था, तब जमादार सब दरवाजे बन्द करके चाभी शेखर को दे देता था कि पिता के पास पहुँचा दे। वह चाभी दफ्तर की नहीं, शेखर के रहस्यलोक की चाभी थी। करीब पाँच बजे थे। दफ्तर बन्द हो गया था, चाभी शेखर के हाथ में थी। जमादार चला गया था। शेखर ने दफ्तर का द्वार खोला, और सीधा पिता के कमरे में गया। टेलीफोन का रिसीवर उठाकर सुनने लगा। उन दिनों वहाँ आटोमेटिक एक्सचेंज नहीं था। एक्सचेंज से स्वर आया-'नम्बर?' शेखर ने एक दवाइयों की दुकान का नम्बर दे दिया। अच्छा, और डाक्टरी दस्ताने कैसे हैं? इस प्रश्न की आशा-आशंका-शेखर को नहीं थी। उसे यह बताया गया था कि जिसे फोन किया जाय, उसे करनेवाले का नम्बर तब तक नहीं ज्ञात होता, जब तक कि स्वयं न बताया जाय, और इसी विश्वास के आधार पर उसने फोन करके का साहस किया था। यह प्रश्न सुनकर वह एकाएक घबरा गया, समझ नहीं पाया कि क्या कहे; बोला 'दफ्तर के पते पर' और रिसीवर लटकाकर भाग गया। दूसरी बार। शेखर ने फिर चाभी प्राप्त करके दफ्तर खोला और टेलीफोन पर जाकर बैठ गया। अबकी उसने फायर स्टेशन को पुकारा। वह यह देखना चाहता था कि उसके भाइयों ने जो उसे बताया था कि टेलीफोन करने के बाद पाँच मिनट के अन्दर फायर इंजन पहुँच जाता है, वह ठीक है या नहीं। एकाएक शेखर को अपनी करतूत के फल का ध्यान आया, वह डर गया। उसने रिसीवर मेज पर रक्खा और जल्दी दफ्तर का दरवाजा बन्द करके चाभी दे आया। दूसरे दिन एक्सचेंज से रिपोर्ट आयी कि फोन का दुरुपयोग किया जा रहा है। पिता ने सबसे पड़ताल की, लेकिन मौन के सिवा कोई उत्तर नहीं पाया। बात वहीं समाप्त हो गयी, उस दिन से जमादार स्वयं चाभी पिता तक पहुँचाने लगा। शेखर पतंग उड़ाने लगा। पतंग उड़ानी उसे आती नहीं थी। लेकिन यह उसके पथ में विघ्न नहीं था इससे तो उसका आकर्षण बढ़ता ही था। और फिर पतंग उड़ाने में एक दूसरा मजा भी था-कि वह शेखर को मना थी। शेखर के पिता कहते थे कि यह खरतनाक खेल है, पतंग उड़ाते-उड़ाते कई लड़के कोठे पर से गिर पड़ते हैं। शेखर का पतंग उड़ाने का ढंग यह था कि वह घर के बगीचे में किसी को बुलाकर कहता कि पतंग उड़ा दो, जब वह खूब ऊँची उड़ जाती, तब चरखड़ी अपने हाथ में ले लेता और डोर को झटकाकर, नाचती हुई पतंग को देखकर अपने को विश्वास दिला लेता कि वही उड़ा रहा है (अतः उसी ने उड़ायी है)। उसे आज्ञा थी कि पिता के पास बैठे और समय-समय पर दवा पिलाया करे। इसलिए नहीं कि वह इस काम में विशेष दक्ष था, इसलिए कि उसके पिता उसे अपने पास रखना चाहते थे। लेकिन पतंग उड़ाने में वह सब भूला हुआ था। पिता के चपरासी ने आकर विघ्न डाला। "ठहरो, हम जरा पतंग उड़ा लें," कहकर शेखर उसे भूल गया। "चलो शेखर बाबू!" मिनट-भर बाद चपरासी फिर बोला। चपरासी बार-बार कहने लगा। चपरासी चला गया और थोड़ी देर में लौट आया। चपरासी ने एक-दूसरे नौकर को बुलाकर, पतंग की डोर तोड़कर उसके हाथ में दे दी कि वह उतारे, और शेखर को उठाकर ले चला : शेखर की टाँगें ही मुक्त थीं, वह उन्हें पटकने लगा, लेकिन वे हवा से टकराकर रह गयीं। तब उसने सारा जोर लगाकर अपनी पकड़ी हुई बाँह को झटका, वह छूट गयी, और जाकर चपरासी की नाक पर लगी। और चपरासी ने उसे झट से जमीन पर रख दिया, जैसे बर्रे ने काट खाया हो, और चीखता हुआ ऊपर भागा, क्योंकि नाक से खून छूट रहा था। तभी शेखर ने देखा, उसके पिता सीढ़ियों पर उतर रहे हैं। हाथ में एक छड़ी। हाथ काँप रहा है, दीवार पर कुहनी टेककर सम्भल-सम्भलकर पैर बढ़ाते हैं और दुबले कितने हो गये हैं! और उनकी आँखें न इधर देखती हैं, न उधर, न छत की ओर, न सीढ़ी की ओर, केवल शेखर पर स्थिर हैं, और उनके पीछे सीढ़ियों के ऊपर सरस्वती खड़ी है, जिसका मुख ऐसा हो रहा है कि पहचाना नहीं जाता, और उसकी मौन, विस्फारित आँखें शेखर की आँखों पर जमी हुई कुछ कहना चाहती हैं, कुछ कह रही हैं जो, वह मुँह से नहीं निकाल सकती। शेखर ने जान लिया कि उसे वहीं खड़े रहना है, हिलना नहीं है, सिर नहीं उठाना है, प्रतिवाद नहीं करना है, अपनी रक्षा नहीं करनी है। वह खड़ा रहा। छः बार छड़ी उठी और गिरी, छः बार शेखर के शरीर में एक रोमांच-सा हो आया, पर वह हिला नहीं। छड़ी रुक गयी। पिता ने एक तीखी दृष्टि से शेखर के मुख की ओर देखा। केवल चपरासी वहाँ खड़ा रह गया, जिसे यह घटना समझ नहीं आयी, लेकिन जो न-जाने क्यों लज्जित हो गया। शेखर को अनुमति मिली कि नाटक देख आये। गाँव की एक नाटक-मंडली है, जो साल में दो-बार खेल करती है-होली के दिनों और दशहरे के दिनों। शेखर के पिता बड़े आदमी हैं, उस गाँव के पड़ोस में रहनेवाले सबसे बड़े आदमी, इसीलिए स्वाभाविक है कि उनकी आशीर्वादपूर्ण अनुमति माँगकर खेल किया जाय। वे स्वयं तो नहीं जाते, किन्तु 'सत्य हरिश्चन्द्र' का खेल है, इसलिए लड़कों को जाना मिल गया। तितली फिर चक्कर काटने लगी...लेकिन कहाँ है वह अबाध की खिड़की, कहाँ है वह मुक्ति का मार्ग? उसने विदेशी कपड़े उतारकर रख दिये, जो दो-चार मोटे देशी कपड़े उसके पास थे, वही पहनने लगा। बाहर घूमने-मिलने जाना उसने छोड़ दिया, क्योंकि इतने देशी कपड़े उसके पास नहीं कि बाहर जा सके। प्रायः दुपहर को वह ऊपर की एक खिड़की के पास जाकर खड़ा हो जाता और बाहर देखा करता। कभी दूर से जब बहुत-से कंठों की समवेत पुकार उस तक पहुँचती; माँ के अतिरिक्त सब लोग बाहर गये हुए थे। माँ ऊपर कोठे पर बैठी हुई थी। शेखर ने घर के सब कमरों में से विदेशी कपड़े बटोरे और नीचे एक खुली जगह ढेर लगा दिया। फिर लैम्प लाकर उन पर मिट्टी का तेल उँडेला (तेल का पीपा नौकरों के पास रहता था, वहाँ जाने की हिम्मत नहीं हुई), और आग लगा दी। आग एकदम भभक उठी। शेखर का आह्लाद भी भभक उठा। वह आग के चारों ओर नाचने लगा, और गला खोलकर गाने लगा : लेकिन ढेर राख हो गया था। नाटक पूरा हो गया। शेखर ने सुन्दर देशी स्याही से उसकी प्रतिलिपि तैयार की और उसे अपनी पुस्तकों के नीचे छिपाकर रख दिया। पहले साहित्यिक प्रयत्नों की गति उसे अभी याद थी, इसलिए उसने अपना यह नाटक, यह अमूल्य रत्न किसी को नहीं दिखाया-सरस्वती को भी नही! और हर समय, जब जहाँ वह जाता, उसके मन में एक ध्वनि गूँजा करती, मैं शेखर हूँ, एक अपूर्व नाटक का लेखक चन्द्रशेखर! और मैंने अकेले ही, बिना किसी की सहायता के अपने हाथों से उसका निर्माण किया है, स्वाधीन बाधाहीन भारत के उस चित्र का, मैंने। शेखर के पिता एक दिन के दौरे पर जा रहे थे, और शेखर साथ था। बाँकीपुर स्टेशन पर सामान रखकर, पिता और पुत्र वेटिंग-रूम के बाहर टहल रहे थे-शेखर कुछ आगे, पिता पीछे-पीछे। शेखर ने सिर से पैर तक उसे देखा। लड़का एक अच्छा-सा सूट पहने था, सिर पर अँग्रेजी टोपी। और उसके स्वर में अहंकार था, शायद वह अपने अँग्रेजी-ज्ञान का परिचय देना चाहता था। शेखर को प्रश्न बुरा और अपमानजनक लगा। उसने उत्तर नहीं दिया। कुछ इस लिए भी नहीं दिया कि पीछे पिता थे, और पिता की उपस्थिति में बात करते वह झिझकता था। उस लड़के ने समझा, उसका सामना करनेवाला कोई नहीं है-यह लड़का शायद अँग्रेजी जानता ही नहीं। उसने तनिक और रोब में कहा, "My name is... Do you go to School?" (मेरा नाम है...तुम स्कूल में पढ़ते हो?) शेखर के पिता वहाँ न होते तो वह प्रश्न का उत्तर चाहे न देता पर (हिन्दी में) कुछ उत्तर अवश्य देता। उसके मन में यह सन्देह उठ भी रहा था कि वह लड़का शायद कोई पाठ ही दुहरा रहा है, अँग्रेजी उतनी जानता नहीं। पर उसने घृणा से उस लड़के की ओर देखा, उत्तर कोई नहीं दिया। तभी ट्रेन आ गयी और शेखर कुछ उत्तर देने से-या उत्तर न देने की गुस्ताखी करने से बच गया। शेखर ने सुन लिया। इसी सामर्थ्य की उपासना का एक रूप यह भी था कि उन्हें यह अनुभव करना अच्छा लगता था कि उनके पास शक्ति है। इसी भावना से वे कई बार अपने बच्चों के खेल में दखल दिया करते थे। वे यह नहीं चाहते थे कि बच्चे न खेलें या न पढ़ें, या ऐसा न करें, वैसा न करें; वे यह चाहते थे कि खेलें तो इसलिए कि उन्होंने कहा, पढ़ें तो इसलिए कि उन्होंने कहा। स्वाभाविकता-किसी बात का केवल इसीलिए होना कि वह उस समय हो रही है, या उसे करनेवाला उसे कर रहा है-के लिए उनके निकट कोई स्थान नहीं था। तभी, जब वे आते, तब बालक आतंक से एकाएक चुप हो जाते, खेल बन्द हो जाता, पुस्तक आगे से हट जाती, पैर सिमट जाते, कुर्सी या बिस्तर छूट जाता...कोई नहीं जानता था, कब किस बात की मनाही हो जाएगी। उनके जाने अच्छी या बुरी, क्योंकि उचित या अनुचित, कोई बात नहीं थी-बातें थीं दो प्रकार की, एक जिनके लिए उनकी अनुमति है, दूसरी जिनके लिए अनुमति नहीं है। बस, इसके आगे न तर्क था, न बुद्धि। माँ और पिता के विरोध का एक स्रोत यह भी था। माँ चाहती थीं कि लड़के फुर्तीले, चालाक, टिट-फिट हों, और पिता को इसमें एक ओछापन दीखता था...माँ को रुचता था कि लड़के इधर-उधर मिलें, हरेक की बात जानें, पता रखें कि फलाने को कितनी तनखाह मिलती है, फलाने के घर में क्या पका, फलाने की भौजाई का फुफेरा भाई क्या करता है; पिता कहते थे कि तुम किसी के घर मत जाओ, किसी से बात मत करो, और इस सबसे तुमको क्या? कभी-कभी माँ किसी को चोरी से पड़ोसी के घर भेजती थी कि 'अमुक काम तो कर आ' या 'अमुक बात तो पूछ आ'; और कभी पिता को पता लग जाता, तो लम्बी-चौड़ी जिरह करते थे कि क्यों गया था? क्या करने गया था? किससे पूछकर गया था? नौकर नहीं जा सकता था? माँ उदार नहीं थीं। वे क्रोधी नहीं थीं। उन्हें आपे से बाहर किसी ने नहीं देखा, लेकिन किसी अपराध को वे कभी भूलती नहीं थीं। उनके स्वभाव में इतनी विशालता ही न थी कि बड़ा क्रोध कर सकें, इसलिए अनुकम्पा भी उनकी बड़ी नहीं थी। पिता किसी दोषी पर भी क्रुद्ध होकर बाद में 'सुलह' करते थे, माँ स्वयं गलत होने पर भी यह प्रकट नहीं होने देती थीं, और जिसे डाँटा होता था, उस पर अपनी अप्रसन्नता बनाए रखती थीं। माँ के लिए आकारों का महत्त्व बहुत था। कभी लड़कों को सन्ध्या और पूजा-पाठ की शिक्षा दी गयी थी; तब पिता ने धीरे-धीरे यह देखकर कि उस अवस्था में उनके लिए उसमें ध्यान लगाना असम्भव है, अन्त में उन्हें बाध्य करना छोड़ दिया था, बहुत क्रुद्ध होकर कहा था, 'यदि मन से नहीं कर सकते तो क्या फायदा है? मत किया करो?' और लड़कों के इस बात को मानकर पूजा छोड़ देने पर, दुबारा उनसे नहीं कहा था। तब माँ ही थीं जिन्होंने बाध्य किया था कि वे नियम से आसन लगाकर पूजा के स्थान में बैठ जाया करें और पूजा की क्रियाएँ पूरी किया करें। पिता आवेश में आततायी थे, माँ आवेश की कमी के कारण निर्दय। पिता का क्रोध जब बरस जाता था, तब शेखर जानता था, हम फिर सखा हैं; माँ जब कुछ नहीं कहती थीं, तब उसे लगता था कि वह मीठी आँच पर पकाया जा रहा है। और इन दो भिन्न प्रकृतियों के मेल और संघर्ष से उत्पन्न हुई थीं छः सन्तान-सरस्वती, ईश्वरदत्त, प्रभुदत्त, शेखर, रविदत्त और चन्द्र। ये ही उस संघर्ष के फल थे, और ये ही उसके विकास के क्रीड़ास्थल भी। जीवन वैचित्र्य का दूसरा नाम है। जिनके जीवन एकरूपता के बोझ से कुचले जाकर नष्ट हो गये हैं, उनके जीवन में भी इतनी घटनाएँ हुई होंगी कि एक सुन्दर उपन्यास बन सके। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जीवनी लिखने लगे, तो संसार में सुन्दर पुस्तकों की कमी न रहे। लेकिन तब, जब हरेक को लिखना आता हो। लेकिन मुझे जान पड़ता है, मेरे जीवन की जो भी घटना मेरे सामने आती है, वह मेरी है, मौलिक है, अपने में सम्पूर्ण एक कहानी है, और मेरा सारा जीवन बढ़िया उपन्यास। शायद मुझ ही को ऐसा जान पड़ता हो, अपने जीवन के प्रति मोह उसे इतना विशिष्ट बनाता हो। लेकिन साथ ही मैं यह देखता हूँ कि वह इतना विशिष्ट, इतना एकान्त मेरा भी नहीं है कि दूसरे उसमें रुचि न रख सकें; मेरे व्यक्तिगत जीवन में मानव के समष्टिगत जीवन का भी इतना अंश है कि समष्टि उसे समझ सके और उसमें अपने जीवन की एक झलक पा सके। मेरे जीवन में भी व्यक्ति और टाइप का वह अविश्लेषण घोल है, जिसके बिना कला नहीं है, और उसके बिना, फलतः उपन्यास नहीं है। बिलकुल सम्भव है कि ऐसी सामग्री पाकर भी मैं उपन्यास न बना पाऊँ। लेकिन मेरा उद्देश्य उपन्यास लिखना कब है? मैं केवल एक बोझ अपने ऊपर से उतारना चाहता हूँ; मैं अपना जीवन किसी को देना नहीं चाहता, स्वयं पाना चाहता हूँ, क्योंकि मुझे अब उसे वैसे देना है, जैसे देकर वह फिर मुझे मिलेगा नहीं। बिलकुल पूर्णतया नष्ट हो जाएगा-कुछ नहीं रहेगा...यह अब शेखर नहीं है, यह मैं हूँ। कलाकार बनने का इच्छुक, कवियशः प्रार्थी, शेखर समाप्त हो गया है, अब वह बचा है जो मैं हूँ, जो फाँसी चढ़ेगा; जो मैं हूँ, जिसे मैं 'मैं' कहता हूँ और कहकर अर्थ नहीं समझता कि मैं क्या हूँ। लोग प्रायः भूल ही जाते हैं उनके जीवन क्या रहे। तभी समाज अपने लिए यह सम्भव पाता है कि विधान करे, 'योग्य माता-पिता वे हैं, जो बच्चों को वयःप्राप्त लोगों की तरह रहना सिखाएँ।' इस एक भावना ने यौवन का जितना अपघात किया है, उतना शायद ही किसी और कानून या प्रथा या विधान ने किया हो। अपनी सन्तान को वयःप्राप्त लोगों-सा बर्ताव सिखाते समय वे भूल जाते हैं कि उनके अपने जीवन क्या थे, कि वे भी कभी बच्चे थे, उनमें भी बच्चों की निष्पाप शरारत थी; कि बच्चों का कोई दोष है तो यही है कि वे इतने पोले, इतने अछूते, इतने स्वच्छ, निष्पाप हैं कि वे अपने माता-पिता को अपने कपट पर लज्जित कर देते हैं। यदि माता-पिता अपना बचपन याद भर रख सकते तो उनकी सन्तान और वे स्वयं, कितने सुखी होते! माता-पिता प्रायः समझते हैं कि बचपन बड़े सुख का समय है, क्योंकि वह उत्तरदायित्व-शून्य है। और यह विचार उनके हाथों बचपन के प्रति कितने अन्याय करवाता है! इसी विचार के कारण वे बहुधा मनाया करते हैं, "काश कि वे दिन फिर आ जाते!" यदि कभी कुछ दिन के लिए उनकी इच्छा पूरी की जा सकती, तो वे एक बड़ा उपादेय सबक सीखकर आते! शेखर अपने पिता का उपासक था। अच्छे और बुरे का निर्णायक कौन है? शेखर साधारण नहीं था। और वह अपने पिता का उपासक था। यह नुस्खा शेखर ने कई बार सुना है, और वह जानता है कि इसके पीछे सदा कोई उलझन या असमर्थता छिपी होती है। लेकिन वह यह भी जानता है कि इससे आगे कुछ कहना बेकार है। एक दिन पिता के एक मित्र आये। बैरिस्टर थे, खूब भड़कीले कपड़े पहनते थे, बहुत फूले हुए पहाड़ी चूहे-से-दीखते थे, और भारतीय कला के पारखी होने का दावा करते थे। साथ में उनका लड़का, और ऊँची फ्राक पहने लड़की भी थी। परस्पर सामना होते ही जिस क्षण में दोनों बच्चों ने कहा, 'गुड ईवनिंग', उसी क्षण में शेखर भुन गया। पर कुछ बोला नहीं, उन्हें अपने साथ बगीचे में ले गया और अपने पालतू खरगोश दिखाने लगा। बैरिस्टर साहब पिता के साथ चले गये। लेकिन वे कुछ ही मिनट के लिए आये थे। शेखर और दोनों भाई-बहन खरगोशों से खेलने लगे ही थे कि वे उतर आये। गाँधीवादी शेखर द्वार तक सबको छोड़ने चला। शेखर को गाँधीवाद भूल गया। उस मुस्कराहट में जो अहंमन्यता थी, वह उसे सह्य नहीं हुई। और वह अन्तिम 'डियर'-यह, यह नामहीन जन्तु मुझे डियर कहने का साहस करे! शेखर ने तड़पकर अँग्रेजी में कहा, "You dirty, You sneak" (दम्भी! कमीना!) और ऐसा ही बहुत कुछ, और एक तमाचा उसके मुख पर जड़ दिया। वह डरे हुए पिल्ले की तरह चीखने लगा। थोड़ी देर बाद शेखर भी पिटा और खूब पिटा। लेकिन वह मन-ही-मन कहता रहा, मैं कुत्ते का पिल्ला नहीं हूँ, मैं चूँ-चूँ नहीं करता; और मार खा गया। एक दिन बैरिस्टर साहब फिर आये। अबकी बार वे अकेले थे। उन्होंने शेखर को देखा नहीं, शेखर ने उनको नहीं 'देखा'। ऊपर चले गये। लेकिन थोड़ी देर बाद शेखर की बुलाहट हुई। वह पिता के पास पहुँचकर खड़ा हो गया, बैरिस्टर साहब की ओर उसने देखा भी नहीं। नहीं। इस पहाड़ी चूहे के सामने नहीं। वह जन्तु है, प्रदर्शन के लिए है, लेकिन इसके सामने...नहीं पिता, नहीं। मुझे बाध्य मत करो। उसके स्वर में हिंसा थी, दृष्टि में रोप, मानो वे काल्पनिक दो थप्पड़ वह बैरिस्टर साहब के फूले गालों पर लगा रहा हो, लेकिन बात कहते हो उसने जो लम्बी साँस ली, उसमें कितनी गहरी हताशा, कितना प्रगाढ़ नैराश्य था, वह किसने समझा? शाम हो गयी। शेखर अभी वहीं बैठा था। उसका हिलता हुआ पिंजर शान्त हो गया था। आँसू एक भी नहीं आया था। और उसे पता नहीं था कि वह जीता है या मर गया है। निराशा इतनी बढ़ गयी थी कि वह निराश नहीं रहा था। वह अनुभूति से परे चला गया था। शेखर ने नहीं सुना। उसने फिर भी नहीं सुना। क्रोध होता तो शेखर उसका हाथ झटक देखा। लेकिन उसने मुँह ऊपर उठने न दिया, और शून्य दृष्टि से सरस्वती की ओर देखा किया। उसने सरस्वती को नहीं देखा। सरस्वती ने एक बार फिर अनिश्चित-से स्वर में कहा, "शेखर," और परे हट गयी। कमरे के एक दूसरे कोने में जाकर निश्चल बैठ गयी। बहुत देर तक कमरे के दो ओर दोनों बैठे रहे। वह नहीं बोली। सरस्वती उठी और ऊपर चली गयी। थोड़ी देर बाद शेखर भी उठा, मुँह धोकर चला गया, और रोटी खाने लगा। उस एक छोटी-सी घटना में शेखर के भीतर क्या टूट गया था, और इस एक और भी घटना ने किस चीज से उसे बचा लिया, कौन कहे? लेकिन गाँधी जी गये, और गाँधीवाद भी गया। और श्ेाखर के देवता उसके पिता भी, फिर वही कभी नहीं हुए। मैं अपनी कोठरी के बाहर सूनी दीवार की ओर देख रहा हूँ। रोजेटी की कुछ पंक्तियाँ मेरे भीतर गूँज रही हैं : मृत्यु! एक स्तिमित कर देनेवाली घटना। एक हल न होनेवाली पहेली। लेकिन मैं मरना नहीं चाहता। मैं दीवारों से कहता हूँ, मैं सींखचों से कहता हूँ, मैं हवा से कहता हूँ, मैं सुननेवाली न सुनती हुई हृदयहीन उपेक्षा से कहता हूँ, मैं मरना नहीं चाहता; मैं जीवन को प्यार करता हूँ; मैं मरना नहीं चाहता! मालती-फल...उनका मधुर सौरभ...लेकिन कहाँ है नीम के बराबर सौरभ-वह सौरभ जिसे मैं भूल नहीं सकता, जो मुझ में परिव्याप्त है। ईश्वर को और अपने जीवन को 'नाऽस्ति' कहकर शेखर मानो अपने चारों ओर के जीवन के लिए नंगा हो गया। मानो अपने किसी धोंधे में से बाहर निकल आया, प्रत्येक चोट, प्रत्येक झोंका, प्रत्येक आघात के लिए प्राप्य स्पृश्य...यह मानो संसार का एक दर्शक मात्र हो गया, दर्शक भी नहीं, केवल एक छाप लेनेवाली, अंकित करनेवाली मशीन। स्वयं उसमें कोई शक्ति नहीं रही थी, उसका कोई आवरण, कोई कवच कोई बचाव नहीं था; और मानो उसमें अनुभूति नहीं थी, प्राण ही नहीं थे। वह मानो एक विराट आँख मात्र हो गया था, जो सब कुछ देखती जाती थी, सब कुछ स्वीकार करती जाती थी, और कुछ भी प्रभावित नहीं होती थी। शेखर वैसा हो गया जिसे कि माँ, यदि उन्हें कभी किसी को किसी बात का श्रेय देने की आदत होती, आदर्श सन्तान कहतीं। वह कभी ज्यादा बात नहीं करता, कभी प्रश्न नहीं पूछता, भाजी कम हो जाने पर कभी नहीं माँगता। बिना शिकायत किये सर्दी में भी ठंडी पानी से नहा लेता है, यथासमय पढ़ता है, बल्कि पढ़ाई के समय में तनिक भी देर हो जाने पर सरस्वती को बुलाकर कहता है, 'बहिन जी, पढ़ाने का वक्त हो गया', दोनों वक्त यथानियम सन्ध्या करने बैठता है, संक्षेप में ऐसे रहता है कि माँ को ऐसा लगे, उसके पाँच ही सन्तान हैं, शेखर की देख-रेख उसे करनी ही न पड़े। शेखर मानो जीवन के स्लेट पर से, भूल से या गलत लिखे गये अक्षर की तरह अपने को मिटा देना चाहता था। पहले तो यह, कि माँ क्या कभी-कभी सबसे अलग जा बैठती हैं, रसोई में नहीं आतीं, अलग बर्तनों में खाना खाती हैं और कोई उनके पास जाता है-और तो कोई जाता ही नहीं, प्रायः शेखर के छोटे भाई ही जाते हैं-तो कहती हैं, 'मेरे पास मत आओ, जाओ खेलो' सो सब क्यों! पता नहीं किसने शेखर को बताया था कि वे बीमार होती हैं, लेकिन शेखर बीमारी के लक्षण तो देखता नहीं। और फिर, दो-चार दिन बाद एक दिन सवेरे उठकर शेखर देखता है, माँ नहा-धोकर रसोई में बैठी हैं और काम कर रही हैं-यदि कल रात तक बीमार थीं तो सबेरे क्या हो गया? दूसरे यह है कि शेखर को याद आ रहा है, ऐसी बात अब बहुत दिनों से नहीं हुई। लेकिन अब जैसे माँ कुछ बीमार जान पड़ने लगी हैं। उनका मुँह पीला पड़ गया है, और वे काम बहुत वज्र करती हैं, प्रायः ढीली-सी और कुछ उदास रहती हैं। तीसरे यह कि एक दिन उसने सहज ही सरस्वती से कहा, "माँ बीमार हैं क्या?" तो सरस्वती ने ऐसी तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा और बिना कुछ कहे चली गयी। और भी बहुत कुछ जानता चाहता है। जिन कमरे में माँ प्रायः रहती हैं, उसमें एक आलमारी है, जिसमें ताला लगा रहता है। शेखर ने माँ को कभी-कभी उसे खोलते देखा है-उसमें निचले खाने में वे अपने गहने इत्यादि रखा करती हैं, और कभी-कभी बिस्कुट के डिब्बे, गुलकन्द, च्यवनप्राश का डिब्बा, और अन्य ऐसी चीजें जो लड़कों से बचाने की हैं। लेकिन उसके ऊपर दो खानों में किताबें भरी पड़ी हैं, वे क्या हैं, जब घर-भर में किताबें बिखरी पड़ी हैं, अच्छी-से-अच्छी, बहुमूल्य; जब एन्साइक्लोपीडिया तक खुली रहती है, तब वे किताबें क्यों ऐसी सँभालकर रखी जाती हैं? वे अच्छी हैं, तो क्यों नहीं उन्हें पढ़ने को दी जातीं! बुरी हैं तो क्यों रखी गयी हैं? एक कमरा अलग कर दिया, साफ किया गया, गोबर से लीपा गया, खिड़कियाँ बन्द कर दी गयीं, और माँ उसमें चली गयीं। एक दाई आकर उनके पास रहने लगी और सब लोगों को वहाँ आने-जाने की मनाही हो गयी। चन्द्र के जन्म की बात याद करके इन लक्षणों से शेखर ने जान लिया कि दाई, या डाक्टर, या कोई और शक्ति, उनके परिवार पर एक बार फिर कृपादृष्टि करनेवाली है। और वह डाक्टर के आने की प्रतीक्षा करने लगा। वह उठकर बैठ गया, चारों ओर देखने लगा। उसने पाया, उसके साथ वाली चारपाई खाली है, सरस्वती वहाँ नहीं है। वह चारपाई से उतरा और दूसरे कमरे में गया जहाँ पिता सोते थे। पिता वहाँ नहीं थे। निचली मंजिल में प्रकाश था। न-जाने क्यों, शेखर को साहस नहीं हुआ कि वह नीचे जाकर देखे। पहले कभी ऐसी बात हुई होती, तो वह अवश्यमेव नीचे जाकर देखता, लेकिन अब नहीं। अब वह बुझ जाना चाहता है, दीखना नहीं चाहता; कोई उससे पूछे कि वह क्या करने आया, इसका उत्तर देना तो क्या, यह प्रश्न सुनने का भी साहस उसमें नहीं रहा है-अपने आप में उसका विश्वास टूट गया है। सीढ़ियों पर सरस्वती के पैर की आहट हुई। सरस्वती से डर नहीं था, फिर भी शेखर का दिल धड़क उठा, वह भागकर चारपाई पर जाकर लेट गया। सरस्वती आयी। चारपाई पर बैठ गयी, पाँव समेटकर, घुटने भुजाओं से घेरकर घुटनों पर ठोड़ी टेककर। शेखर नहीं रह सका। उसने पूछा, "क्या हुआ?" मानो अभी जागा हो। सरस्वती विस्मित-सी होकर, बोली, "क्या है?" शेखर ने कभी उसे नाम लेकर नहीं बुलाया था। सरस्वती ने सहसा कोई उत्तर न दिया। शेखर उठ बैठा। "मुझे नहीं पता!" कहकर मुँह, सिर लपेटकर लेट गयी। फिर शेखर ने बहुत बुलाया, उठकर जाकर हिलाया भी, लेकिन वह नहीं बोली, नहीं बोली। शेखर लेट गया और छत की ओर देखने लगा। और मानो अपने ही व्यक्तित्व के जोर से, अपने को वहाँ छत पर टाँगकर, उससे कहने लगा, शेखर, तू सोच। किसी से पूछ मत, तू सोच। तू बता, तू कहाँ से आया? कैसे आया? सवेरा हो गया, और शेखर तब भी अपनी आँखों से उसे वहाँ स्थापित किये हुए, छत पर टँगे अपने प्रतिरूप से वही प्रश्न पूछ रहा था। सरस्वती ने झूठ नहीं कहा था, नहीं तो वह इतनी लज्जित न होती। इतने दुःख और कष्ट जलन के बाद, एक बात शेखर के हाथ आयी है जो सच है; जो है, और बस है, बदल नहीं सकती। लेकिन इससे आगे? शेखर चोरी करने लगा। अब तक शेखर के लिए यह सम्भव नहीं था कि वह छिपाकर कोई बुरा काम करे। क्योंकि जब वह अकेला होता था, तभी उसके कर्मों पर उसकी अपनी आत्मा का नियन्त्रण सबसे अधिक होता था। पर अब-वह ऊपर की दृष्टि से शरीफ, संस्कृत और भला-मानस होने लगा-जिसे कहते हैं 'हमारा बेटा तो बेटियों-जैसा है?'-और भीतर-ही-भीतर कहीं गिरने लगा। उसे उत्तरदायित्व के काम मिलने लगे। पहले जहाँ एक छोटा-सा काम पाकर वह इतना प्रसन्न होता था और इतनी लगन से उसे करता था कि वह बहुधा बिगड़ भी जाता था, वहाँ अब वह प्रत्येक अवसर पर यही सोचता था कि मैं कैसे छिपे-छिपे नुकसान कर सकता हूँ। उसे कभी सन्दूकची की चाभी दी जाती, तो कुछ एक पैसे निकाल लेता। इसलिए नहीं कि वे उसे चाहिए, केवल इसलिए कि चाभी उसके पास है और वह उसका दुरुपयोग कर सकता है। रात को उसे कहा जाता था कि ईश्वर और प्रभुदत्त के मास्टर को (वे उन दिनों परीक्षा की तैयारी कर रहे थे) दूध दे आये, तो वह रास्ते में एक-दो घूँट पी लेता था। इसलिए नहीं कि घर में उसे दूध नहीं मिलता, बल्कि इसलिए कि वह बिना किसी के देखे कुछ बुरा काम कर सकता है। यहाँ तक कि वह कभी रसद के कमरे में जाता, तो किसी बक्स के पीछे थोड़ा घी गिरा आता। ऐसी हरएक हरकत में मानो उसका मन कह रहा होता था, 'तुम मुझे अच्छा मत समझो, मैं अब भी बुरा हूँ। तुम बेवकूफ हो, जो मुझे अच्छा कहते हो,' इससे मानो उसके अभिमान की पुष्टि होती थी। उसे उस आलमारी की चाभी दी गयी, जिसमें किताबें बन्द थीं। बादाम या कुछ ऐसी चीज निकालने के लिए उसे कहा गया था। उसने आलमारी खोली, दो-तीन किताबें निकालकर आलमारी के नीचे ढकेल दीं, बादाम निकाले और चाभी दे आया। बाद में मौका पाकर उसने वे किताबें उठायीं और छिपकर पढ़ने लगा। रद्दी गुलाबी या पीले कागज पर, बड़े-बड़े लखनऊ टाइप में छपे हुए उन किस्सों को पढ़कर, शेखर सोचने लगा कि क्या है इनमें, जो ये इतने सुरक्षित रखे जाते हैं? शेखर चुगलखोर हो गया। जब कभी किसी भाई से कोई छोटी-सी गलती हो जाती, तो शेखर भागा हुआ माँ के पास जाता और कहता, "माँ, माँ,-ने यह कर दिया है, देखो-तो!" कभी अकारण भी किसी की शिकायत कर देता और तब उसे फटकार खाते या पिटते देखकर मन-ही-मन कहता, ठीक है। अच्छा, पिटना ही चाहिए। मैं बुरा हूँ, मुझे सब मानते हैं, मेरा आदर होता है। तुम अच्छे क्यों हो? एक सीढ़ी और। अच्छे या बुरे होने का, शेखर के लिए कोई महत्त्व नहीं रह गया था। उसके लिए बड़ी बात यह थी कि वह कुछ हो सही-और वह अनुभव करे कि वह कुछ है। इस विश्वास का सहारा उसके लिए बहुत जरूरी हो गया था। चन्द्र ने कहाँ, "माँ, मैं पहले कह चुका हूँ कि मैंने नहीं तोड़े।" मानो पहले कही जाने के कारण उसकी बात अधिक मान्य हो। शेखर मुड़कर बाहर जाने लगा, कुछ ऐसे भाव से कि मैंने अपना कर्तव्य कर दिया है, मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं है। और उसका हाथ पकड़कर घसीटती हुई बाहर चलीं। बच्चे क्रुद्ध माता-पिता से पिटते हैं, तब पिट लेते हैं, उनकी आत्मा पर आघात नहीं पहुँचता। लेकिन बिना क्रोध के, निर्मम, दूरस्थ-भाव से पिटकर उनके मानसिक क्षेत्र में सदा के लिए एक दरार-सी फट जाती है। यह बात तब शेखर भी नहीं जानता था, उसकी माँ भी नहीं जानती थी, पर इससे उसकी सच्चाई कम नहीं हो गयी थी। सरस्वती ले आयी। सरस्वती खड़ी थी, यद्यपि उधर नहीं देख रही थी। और अंगारा चन्द्र के इतना पास था कि उसका ताप उसे लग रहा था और उसका सिर ऐसे हिल रहा था, जैसे मिरगी के रोगी का कभी-कभी हिला करता है। माँ उसका जबड़ा दबाए हुए थी, और मुँह खुला था, अंगारे की प्रतीक्षा में था। और उसके मन में हुआ, चन्द्र शाबाश? डूब मर, शेखर? शायद माँ को कुछ हुआ। वह कुछ बोली नहीं, शेखर को भी कुछ नहीं कहा, भीतर चली गयीं। बात खत्म हो गयी। आधे घंटे बाद। सरस्वती पढ़ रही थी। उसने बिना किताब से दृष्टि हटाए ही कहा, शेखर दे दे कलम! पर सरस्वती पढ़ने में लग गयी थी और चन्द्र माँ के पास शिकायत करने चला गया था; उसकी बात किसी ने नहीं सुनी। शेखर को मन-ही-मन लगा कि यह बात उसका पक्ष दृढ़ करती है, लेकिन वहाँ सुनता कौन था? माँ उसकी मुट्ठी खोलने की कोशिश करने लगीं। असफल होकर उन्होंने शेखर कागज मेज पर रखा, और उसे पहले घूँसे से, फिर पट्टी के सिरे से मारने लगीं। वह नहीं बुला। शेखर ने निष्प्राण स्वर में कहा, "हाँ, है।" और आगे चला गया। पिता देखते रह गये। उसके सिरहाने की ओर कहीं से अनिश्चित-सा स्वर आया, 'शेखर?' और सरस्वती उसकी चारपाई के सिरे पर बैठ गयी। शेखर ने उसकी गोद में सिर रख दिया! सरस्वती ने उसका सिर उठाकर बहुत धीरे से तकिये पर रखा। वह सो गया। रात को शेखर ने एक स्वप्न देखा। एक विस्तीर्ण मरुस्थल। दुपहर की कड़कड़ाती हुई धूप। शेखर एक ऊँट पर सवार उस मरुस्थल को चीरता हुआ भागा जा रहा है, भागा जा रहा है...सवेरे से, या कि पिछली रात से, वह वैसे ही भागा जा रहा है। तीसरा पहर। धूप कम नहीं हुई, और भी तीखी हो गयी जान पड़ती है। और शेखर भागता जा रहा है; और पीछे वह 'कुछ' भी बढ़ा आ रहा है। एकाएक सामने सेब के वृक्षों का बाग, जिसके चारों ओर मिट्टी की ऊँची बाड़ लगी हुई है, जिसमें कहीं-कहीं बिलें हैं, और कहीं-कहीं आयरिस जैसा कोई पौधा है। शेखर ऊँट पर से उतरकर, बाड़ पार करके बाग में घुस जाता है। शेखर उठकर एक ओर को भागता है, बाग में से निकल जाता है। एक चट्टान के ऊपर चढ़कर शेखर आगे देखता है, और एकाएक रुक जाता है। शेखर देखता है, पानी के मध्य में प्रवाह से किसी प्रकार भी प्रभावित न होता हुआ, पतले-से नाल पर एक अकेला फूल खड़ा है। बहुत बड़ा-लिपटी हुई-सी एक ही बड़ी सफेद पत्ती, जिसके बीचोंगीच में एक तपे सोने-से वर्ण की एक डंडी है। वह जाग पड़ा। स्वप्न इतना सजीव, इतना यथार्थ था, कि शेखर ने हाथ बढ़ाया कि सरस्वती का हाथ पकड़े। वह उसने नहीं पाया। तब वह चारपाई पर उठ बैठा। इधर-उधर देखा। उठकर सरस्वती की चारपाई के पास गया। वह सोई हुई थी। शेखर ने उसका मुख देखने की चेष्टा की पर देख नहीं सका। लौट आया, एक सन्तुष्ट-सी साँस लेकर लेट गया, और फौरन निःस्वप्न नींद में अचेत हो गया।
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एक बच्चा सुंदर होता है, क्योंकि उसके पास अहंकार नहीं है। एक बूढ़ा व्यक्ति कुरूप होता है, इसलिए नहीं कि वह वृद्ध हो गया है बल्कि इसलिए कि उसके पास बहुत अधिक अतीत होता है, बहुत अधिक अहंकार होता है। एक वृद्ध व्यक्ति फिर से सुंदर हो सकता है, वह एक बच्चे की तुलना में कहीं अधिक सुंदर हो सकता है, यदि वह अपना अहंकार छोड़ सके, तब यह वृद्धावस्था उसका दूसरा बचपन होगी, यह एक पुनर्जन्म होगा। जीसस के पुनर्जीवित होने का यही अर्थ है। यह कोई एक ऐतिहासिक सत्य नहीं है, यह एक नीति-कथा है। जीसस को क्रॉस पर चढ़ाया जाता है और तब वे पुनर्जीवित होते हैं। जो व्यक्ति क्रॉस पर चढ़ाया गया था, वह अब मृत है, वह एक बढ़ई का बेटा था- जीसस, जो अब नहीं रहा। जीसस को सूली दे दी, वह मर चुके। अब उस घटना से एक नए तथ्य का जन्म होता है। उनकी मृत्यु से ही एक नए जीवन का जन्म होता है। अब वे क्राइस्ट हैं, बेथलेहेम के किसी बढ़ई के बेटे नहीं हैं, वे एक यहूदी नहीं हैं, यहां तक कि एक मनुष्य भी नहीं हैं। वे क्राइस्ट हैं, नूतन और अहंकारहीन हैं। तुम्हारे साथ भी ऐसा ही होगा, जब कभी तुम्हारा अहंकार सूली पर होगा। जब कभी तुम्हारे अहंकार को सलीब पर लटकाया जाएगा तब वहां एक पुनर्जीवन अथवा पुनर्जन्म होगा। तुम फिर से जन्म लोगे और यह बचपन शाश्वत है, क्योंकि यह शरीर का नहीं, आत्मा का पुनर्जन्म है। अब तुम कभी भी बूढ़े नहीं होगे। तुम हमेशा-हमेशा के लिए नूतन और युवा बने रहोगे जैसे सुबह की ओंस की एक बूंद होती है, जैसा रात में उदित होने वाला पहला सितारा होता है। तुम हमेशा नूतन, युवा और एक बच्चे जैसे निर्दोष बने रहोगेक्योंकि यह आत्मा का पुनर्जीवन है और यह हमेशा एक क्षण में ही घटित होता है। अहंकार समय में होता है। जितना अधिक समय, उतना अधिक अहंकार। अहंकार को समय की आवश्यकता होती है। यदि तुम गहराई में प्रवेश करते हो तो तुम यह जानने में समर्थ हो सकते हो कि समय का अस्तित्व केवल अहंकार के ही कारण है। समय तुम्हारे चारों ओर के भौतिक संसार का भाग नहीं है। समय तुम्हारे अंदर के मनोमय संसार का एक भाग है : मन का संसार । समय, अहंकार को आगे बढ़ने, फैलने और विकसित होने के लिए भूमि प्रदान करता है। समय, वह स्थान देता है जिसकी अहंकार को जरूरत होती है। यदि तुमसे यह कहा जाए कि यह तुम्हारे जीवन का अंतिम क्षण है और अगले ही क्षण तुम्हारी मृत्यु होने वाली है तो अचानक समय विलुप्त हो जाता है। तुम बहुत बेचैनी का अनुभव करते हो। तुम अभी भी जीवित हो, लेकिन अचानक तुम अनुभव करते हो कि जैसे मानो तुम मर रहे हो और तुम नहीं सोच पाते कि क्या किया जाए? यहां तक कि सोचना भी कठिन हो जाता है, क्योंकि सोचने के लिए भी समय की आवश्यकता होती है, भविष्य आवश्यक है। जब कल ही नहीं बचा, तब कैसे सोचा जाए, कैसे कामना की जाए और कैसे आशा की जाए? वहां कोई भी समय नहीं है। समय समाप्त हो गया है। एक मनुष्य के साथ सबसे बड़ी वेदना तब घटित होती है, जब उसकी मृत्यु नियत हो, उससे बचा न जा सके, मृत्यु का पल निश्चित ही हो । एक व्यक्ति जिसे उम्रकैद की सजा दी गई है, वह अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। मृत्यु तो निश्चित है और वह इस बारे में कुछ भी नहीं कर सकता है। एक निश्चित समय के बाद वह मर जाएगा। उस निश्चित समय के पार उसके लिए कोई भी भविष्य नहीं होता इसलिए उसके आगे अब वह कोई कामना नहीं कर सकता, वह कोई सोच विचार नहीं कर सकता, वह कोई योजना नहीं बना सकता और वह सपने भी नहीं देख सकता। वह अवरोध, वह बाधा हमेशा वहां है। ऐसे में वह अत्याधिक वेदना से गुजरता है। यह वेदना अहंकार के लिए है, क्योंकि समय के बिना अहंकार भी अस्तित्व में नहीं रह सकता। अहंकार समय में ही श्वास लेता है और समय ही अहंकार के प्राण हैं। जितना अधिक समय होता है, अहंकार के लिए उतनी ही अधिक संभावना होती है। पूरब में अहंकार को समझने का बहुत अधिक प्रयास किया गया, बहुत परीक्षण और बहुत गहरी जांच की गई। उनमें से एक निष्कर्ष यह है कि जब तक तुमसे समय नहीं छूटता है, अहंकार नहीं छूटेगा। यदि कल का अर्थात भविष्य का अस्तित्व बना रहता है तो अहंकार भी अस्तित्व में बना रहेगा। यदि कोई कल न हो तो तुम अहंकार को आगे कैसे खींच सकते हो? यह ठीक ऐसा ही होगा जैसे बिना नदी के किसी नाव को खींचने का प्रयास किया जाए। वह एक बोझ बन जाएगा। एक नदी की नितांत आवश्यकता है तभी एक नाव कार्य कर सकती है। अहंकार के लिए समय की एक नदी की आवश्यकता होती है। इसी कारण अहंकार हमेशा धीमी प्रक्रिया और अंशों या घटकों के बाबत सोचता है। अहंकार कहता है :"ठीक है, बुद्धत्व का घटना संभव है, लेकिन इसके लिए समय की आवश्यकता है", क्योंकि इसके लिए तैयारी करनी होगी और तब ही उस दिशा में कार्य हो सकेगा। यह बहुत तर्कपूर्ण बात है क्योंकि यह सच है कि प्रत्येक कार्य के लिए समय की आवश्यकता होती है। यदि तुम एक बीज बोते हो तो उसे वृक्ष बनने में समय लगता है। यदि एक बच्चे का जन्म होता है, यदि एक नया शरीर सृजित होता है तो समय लगता है, बच्चे के विकास के लिए गर्भ भी समय लेगा। तुम्हारे चारों ओर प्रत्येक वस्तु विकसित हो रही है, इस विकास के लिए समय की आवश्यकता होती है, इसीलिए यह तर्कपूर्ण प्रतीत होता है कि बाहर के संसार की तरह, भीतर के संसार यानि आत्मिक विकास में भी समय आवश्यक होगा। लेकिन यह बात महत्त्वपूर्ण है और समझ लेने जैसी है कि वास्तव में आत्मिक विकास ऐसा नहीं है जैसा कि एक बीज का विकास है। बीज को वृक्ष बनना है और बीज से लेकर वृक्ष तक की यात्रा में एक अंतराल है। इस अंतराल को पार करना होता है, वह दूरी तय करनी पड़ती है। परंतु आत्मिक तल पर तुम किसी बीज की भांति विकसित नहीं होते हो, बल्कि तुम स्वयं ही "विकास" हो औरसंसार में केवल उसकाप्रकटीकरण है, एक रहस्योद्घाटन है। जो तुम वास्तव में हो, जो तुम्हारा स्वरूप है और जैसे तुम रूपांतरण के बाद बनोगे, इन दोनों के मध्य बिल्कुल भी दूरी नहीं है, वहां लेशमात्र भी फासला नहीं है। वहां सदैव एक पूर्णता बनी हुई है, वह समग्र ही है। इसलिए यह प्रश्न विकसित होने का नहीं है, बल्कि प्रश्न केवल अनावरण का है, एक पर्दा उठाने का है। यह केवल एक खोज है। कुछ जो पर्दे के पीछे छिपा हुआ था, वह वहां पहले से ही था, पर छुपा हुआ था, तुमने उस पर से पर्दा हटा दिया और वह वहां प्रकट हो गया। यह ठीक ऐसा ही है जैसे मानो तुम आंखें बंद करके बैठे हुए हो, सूरज वहां क्षितिज पर है पर तुम्हारी बंद आंखो के कारण तुम अंधकार में हो। अचानक तुम आंखें खोलते हो और उसी क्षण वहां प्रकाश हो जाता है, वहां दिन है ही। आत्मिक विकास वास्तव में एक विकास नहीं होता, यह शब्द ही ठीक नहीं है, यह शब्द-भ्रम है। आत्मिक विकास, वास्तव में एक अनावरण है, कुछ ऐसा जो छिपा हुआ था और प्रकट हो गया। जो वहां पहले से ही था पर अब तुमने उसे अनुभव कर लिया है। "वह" वास्तव में कभी खोया ही नहीं था, केवल विस्मृत हो गया था, तुम उसे भूल गए थे, अबतुम्हें याद आ गया है। यही मुख्य कारण है कि रहस्यदर्शी सदैव ही "याद" शब्द का प्रयोग करते हैं :नानक ने कहा "सिमरन" यानि स्मृति, बुद्ध ने कहा "सम्यक स्मृति", कबीर ने कहा "सुरति".. संत कहते हैं :दिव्य सत्ता कोई उपलब्धि नहीं है, वह तो बस अपने वास्तविक स्वरूप का एक सहज स्मरण है, कोई वस्तु जिसे तुम भूल गए थे, तुम्हें उसका स्मरण आ गया है। अतः वास्तविकता यही है कि समय की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन मन कहता है, अहंकार कहता है कि प्रत्येक वस्तु के विकास के लिए समय की आवश्यकता होती है। यदि तुम इस तर्कपूर्ण विचार से ग्रस्त हो जाते हो, तुम इस विचार के शिकार हो जाते हो तो तुम कभी भी आत्मिक विकास न कर सकोगे। तुम उसे स्थगित करते चले जाओगे। तुम कहोगे कल, परसों और आगे ही आगे, परंतु वह कल कभी नहीं आएगा, क्योंकि कल कभी नहीं आता है। जो कुछ भी मैं कह रहा हूं, यदि तुम उसे समझ सकते हो तो अहंकार को ठीक इसी क्षण छोड़ा जा सकता है और यदि यह सत्य है तब प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह क्यों नहीं छूट रहा है? तुम क्यों इसे नहीं छोड़ पाते हो? यदि क्रमिक विकास का कोई प्रश्न ही नहीं है, तब तुम उसे क्यों नहीं छोड़ रहे हो? क्योंकि तुम उसे छोड़ना ही नहीं चाहते। इससे तुम्हें आघात लगेगा, क्योंकि तुम यह सोचते हो कि तुम अहंकार छोड़ना चाहते हो। पुनः विचार करो, फिर से सोचो, तुम छोड़ना ही नहीं चाह रहे हो और इसलिए वह लगातार मौजूद रहता है। यह प्रश्न समय का नहीं है, क्योंकि तुम खुद उसे छोड़ना ही नहीं चाहते, इसलिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है। मन के ढंग बड़े अजीब हैं, रहस्यमयी हैं, तुम सोचते हो कि तुम उसे छोड़ना चाहते हो और अपनी गहराई में तुम भलीभांति जानते हो कि तुम उसे छोड़ना नहीं चाहते हो। हां, हो सकता है कि तुम अपने मन के इस बर्ताव को थोड़ा रंग-रोगन पोतकर, थोड़ा चमका कर, पॉलिश करना पसंद करोगे, तुम उसे परिष्कृत ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास करोगे। लेकिन तुम वास्तव में उसे छोड़ना नहीं चाहते हो । यदि तुम उसे छोड़ना चाहते हो तो वहां ऐसा कोई भी नहीं है, जो तुम्हें रोक रहा हो। कोई भी बाधा मौजूद नहीं है। केवल चाहने भर से ही उसे छोड़ा जा सकता है। यदि तुम छोड़ना ही न चाहो तो कुछ भी नहीं किया जा सकता है, यहां तक कि हजार बुद्ध भी तुम पर कार्य कर करें, तुम्हें मार्गदर्शन दें, तो तुम उन्हें भी असफल कर दोगे, क्योंकि बाहर से कुछ भी नहीं किया जा सकता है। क्या सच में तुमने इसके बारे में सोचा है? क्या कभी तुमने इस पर ध्यान दिया है? क्या सचमुच तुम इसे छोड़ना चाहते हो? क्या तुम वास्तव में अस्तित्वहीन और नाकुछ होना चाहते हो? यहां तक कि अपने धार्मिक कृत्यों में भी तुम कुछ विशेष होना चाहते हो, तुम कुछ प्राप्त करना चाहते हो और तुम कहीं पहुंचना चाहते हो । जब तुम विनम्र होते हो, तब तुम्हारी विनम्रता भी अपने अहंकार को छिपाने का केवल एक गुप्त स्थान मात्र है और कुछ भी नहीं है। तथाकथित विनम्र लोगों की ओर देखो। वे कहते हैं कि वे विनम्र हैं और वे अपने कस्बे में, अपने शहर में और अपने आसपास के स्थानों में यह सिद्ध करने का प्रयास भी करते हैं कि वे सबसे अधिक विनम्र हैं। पर यदि तुम उनसे तर्क करो और कहो-"नहीं, कोई अन्य व्यक्ति आपसे भी अधिक विनम्र है", तो यह सुनकर उन्हें चोट लगेगी। यह चोट लगने का अनुभव किसे हो रहा है? मैं एक ईसाई संत के बारे में पढ़ रहा था। वह रोज़ अपनी प्रार्थना में परमात्मा से कहता था-"मैं इस पृथ्वी पर सबसे बड़ा दुष्ट और पापी हूं।" देखने में, प्रकट रूप में वह बहुत विनम्र मालूम होगा, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। वह कहता है कि पृथ्वी पर सबसे बड़ा पापी है और यदि इस बात पर परमात्मा विवाद करने लगे तो वह जरूर तर्क-वितर्क करेगा। उसकी गहरी दिलचस्पी, उसकी आंतरिक रूचि पापी बनने में नहीं है बल्कि सबसे बड़ा पापी बनने में है। यदि तुम्हें सबसे बड़ा पापी बनने की अनुमति दी जाती है, तो तुम एक पापी भी बन सकते हो। तुम इसमें प्रसन्नता का अनुभव करोगे- एक महानतम पापी । तब तुम एक शिखर बन जाते हो। सदाचार या पाप दोनों ही महत्त्वहीन है, बस तुम्हें कुछ विशेष बनना है। अतः कारण कोई भी हो, खूंटी कोई भी हो, तुम्हारा अहंकार शीर्ष पर बना रहना चाहिए। जॉर्ज बर्नाड शॉकहते थे-"मैं स्वर्ग में द्वितीय स्थान पर रहने की अपेक्षा नर्क में प्रथम बने रहना पसंद करूंगा।" इसका मतलब यही निकलता है कि नर्क कोई बुरा स्थान नहीं हो सकता, यदि तुम वहां प्रथम हो, यदि तुम सबसे आगे हो तो नर्क भी स्वीकार्य है। स्वर्ग भी तुम्हें उदासीन लगेगा, यदि तुम बहुत भीड़ में कहीं किसी कोने में, एक पंक्ति में अनजान की भांति खड़े हो। और बर्नाड शॉ ठीक कहते हैं। मनुष्य का मन इसी तरह से कार्य करता है। कोई भी व्यक्ति अहंकार को छोड़ना नहीं चाहता अन्यथा कोई समस्या ही नहीं है। तुम बहुत सहजता सेठीक अभी और इसी क्षण उसे छोड़ सकते हो । यदि तुम्हें ऐसा लगता है कि अहंकार छोड़ने के लिए समय की आवश्यकता है, तब यह समय केवल तुम्हारी समझ बढ़ने के लिए चाहिए ताकि तुम जान सको कि तुम ही उसके साथ लिपटे हुए हो, तुम ही उसे पकड़े हुए हो और जिस क्षण तुम यह समझ सको कि यह तुम्हारा ही लगाव है, तुम ही चिपके हो तो बस घटना घट जाएगी। तुम इस सामान्य सच्चाई को समझने में अनेक जन्म लगा सकते हो। तुमने पहले ही से अनेक जन्म ले लिए हैं और तुम अभी तक नहीं समझे हो। यह बहुत ही विचित्रप्रतीत होता हैकि जो तुम पर एक बोझ है, जो तुम्हें निरंतर एक नर्क में धकेलता है... इस सब के बावजूद भी, तुम उस अहंकार को पकड़े रहते हो। इसके पीछे जरूर कोई गहरा कारण होना चाहिए। कोई ऐसा कारण, जिसकी जड़ें बहुत गहराई तक जम गई हैं। मैं इस बारे में थोड़ी सी बात कहना चाहूंगा । तुम उससे सचेत हो सकते हो। मनुष्य के मन का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अक्रिया की अपेक्षा सदैव ही क्रिया या व्यस्तता का ही चुनाव करता है। यदि क्रिया पीड़ादायक है, यदि क्रिया में दुख है, तब भी वह वस्तुतः अव्यस्त होने की अपेक्षा व्यस्तता ही चुनाव करता है क्योंकि बिना किसी कार्य में व्यस्त हुए तुम स्वयं के मिटने का अनुभव करने लगते हो। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब लोग अपनी नौकरी, काम-काज और व्यापार आदि से रिटायर होते हैं तो वे बहुत शीघ्र मर जाते हैं। उनकी आयु तुरंत ही लगभग दस वर्ष कम हो जाती है। वे अपनी मृत्यु से पहले ही मरना शुरू हो जाते हैं। उनके पास अब कोई कार्य नहीं है, वे व्यस्त नहीं हैं। जब तुम व्यस्त नहीं हो, जब तुम खाली होते हो तो तुम व्यर्थ और अर्थहीन अनुभव करने लगते हो। तुम यह अनुभव करते हो कि अब तुम्हारी जरूरत नहीं है। अब तुम अन्य लोगों के लिए आवश्यक नहीं हो और तुम्हारे बिना भी संसार सुगमता से चलता रहेगा। जब तक तुम व्यस्त बने रहते हो तो तुम्हें अनुभव होता है कि संसार तुम्हारे बिना एक कदम भी नहीं चल सकता है। तुम इस संसार के एक मुख्य हिस्से हो, महत्त्वपूर्ण भाग हो और तुम्हारे बिना यह दुनिया रूक जाएगी। यदि तुम अव्यस्त हो, खाली हो जाते हो तो अचानक तुम सचेत होते हो कि बिना तुम्हारे भी संसार बहुत सुंदरता से आगे बढ़ रहा है। कुछ भी नहीं बदल रहा है और तुम तिरस्कृत कर दिए गए हो, तुम कहीं कचड़े के ढेर पर फेंक दिए गए हो और तुम्हारी कोई भी आवश्यकता नही है। जिस क्षण भी तुम यह अनुभव करते हो कि तुम्हारी कोई भी आवश्यकता नहीं है तो अहंकार बेचैन हो जाता है, क्योंकि वह केवल तभी अस्तित्व में रह सकता है जब तक तुम्हारी जरूरत होती है। इसलिए चारों तरफ यह अहंकार अपने इसी दृष्टिकोण कोप्रत्येक व्यक्ति पर थोपता चला जाता है कि तुमको होना ही चाहिए, तुम बहुत आवश्यक हो और बिना तुम्हारे कुछ भी नहीं हो सकता है, तुम्हारे बिना यह संसार मिट जाएगा। खाली होने पर तुम्हें यह अनुभव होता है कि तुम्हारे बिना भी दुनिया का खेल जारी है। तुम इसके महत्त्वपूर्ण भाग नहीं हो, तुम्हें सरलता से फेंका जा सकता है, कोई भी व्यक्ति तुम्हारी फिक्र नहीं करेगा और न ही कोई तुम्हारे बारे में सोचेगा। वस्तुतः ऐसा भी संभव है कि तुम्हारे न होने पर लोग मुक्ति का अनुभव करें। यह व्यवहार अहंकार को खंड-खंड कर देता है। इसलिए लोग व्यस्त बने रहना चाहते हैं, बल्कि उन्हें व्यस्त बने रहना होगा। उन्हें अपनी इस भ्रांति को बनाए रखना होगा कि वे समाज का अति आवश्यक हिस्सा हैं। ध्यान, मन के खाली होने की स्थिति है। बहुत गहराई में यह सभी कार्यों से मुक्त होने जैसा है। यह मुक्ति हिमालय पर भाग जाने जैसी कोई नकली मुक्ति नहीं है। ऐसी मुक्ति किसी भी कीमत पर मुक्ति हो ही नहीं सकती क्योंकि तुम हिमालय पर जाकर भी एक छोटा संसार बसा लोगे, तुम वहां भी व्यस्तता ढूंढ ही लोगे। तुम हिमालय पर भी अपनी नई-नई कल्पनाएं सृजित कर सकते हो कि तुम अपनी तपस्या से संसार को नष्ट होने से बचा रहे हो । हिमालय में बैठकर तुम ध्यान कर रहे हो और इसी कारण संसार तृतीय विश्व युद्ध से बच रहा है। चूंकि तुम विधायक तरंगें फैला रहे हो इसी कारण यह संसार "आदर्श समाज" और "शांति प्रिय" समाजबन रहा है। इन सब तरह की कल्पनाओं से तुम अपने आप को हिमालय में भी व्यस्त कर सकते हो। वहां कोई भी तुमसे तर्क नहीं करेगा क्योंकि तुम वहां अकेले हो। कोई भी तुमसे तुम्हारी कल्पना की सत्यता के संदर्भ में विवाद नहीं करेगा और कोई इसकी चिंता नहीं करेगा कि तुम एक विभ्रम अथवा एक भ्रांतिजनक स्थिति में हो। वहां तुम इन कल्पनाओं में पूरी तरह से डूबे रह सकते हो, और एक बार फिर से तुम्हारा अहंकार एक नए और सूक्ष्म रूप में अपने होने का दावा करेगा। ध्यान एक नकली मुक्ति नहीं है। यह एक गहन, अंतरंग और वास्तविक मिक्त है, यह एक प्रत्याहार है। ऐसा नहीं है कि ध्यान करने के बाद तुम जीवन में कोई काम ही नहीं करोगे, तुम अपने जीवन के क्रियाकलाप पहले जैसे ही जारी रख सकते हो, लेकिन ध्यान के बाद तुम अपने "अहं" को और अपने वर्चस्व कायम करने की प्रवृत्ति को हटा लेते हो। प्रत्येक जगह तुम्हारी जरूरत है, तुम्हारे बिना संसार नहीं चल सकता, ऐसे भ्रमों से तुम मुक्त होने लगते हो। तुम्हें यह अनुभव होने लगता है कि तुम्हारी ऐसी भ्रांतियां केवल तुम्हारी मूर्खता थी। तुम्हारे बिना भी संसार भलीभांति चल सकता है और इसमें निराश होने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। बल्कि यह अच्छा है, यहां तक कि बहुत अच्छा है कि संसार तुम्हारे बिना भी चल सकता है। यदि तुम सही ढंग से समझ सको तो यह एक स्वतंत्रता बन सकता है । यदि तुम नहीं समझते हो, तभी तुम टूटने का, मिटने का, बिखरने का और खंड-खंड होने का अनुभव करते हो। इसलिए लोग किसी भी कार्य में व्यस्त बने रहना चाहते हैं और उनका अहंकार उन्हें महानतम तथा संभव व्यस्तताएं दे भी देता है। चौबीस घंटे अहंकार व्यक्ति को व्यस्त रखता है। वे लगातार सोच रहे हैं कि कैसे संसद सदस्य बना जाए? वे सोच रहे हैं कि कैसे एक मंत्री अथवा उपमंत्री बना जाए? कैसे राष्ट्रपति बना जाए? अहंकार सदैव सोचता ही रहता है और योजनाएं बनाता चला जाता है। वह तुम्हें निरंतर व्यस्त रखता है कि कैसे अधिक समृद्धिप्राप्त की जाए और कैसे अपना साम्राज्य निर्मित किया जाए। अहंकार तुम्हें निरंतर सपने देता है, वह इन सपनों के माध्यम से तुम्हें भीतर भी व्यस्त बनाए रखता है और तुम अनुभव करते हो कि तुम्हारे द्वारा बहुत कुछ हो रहा है और आगे भी होना है। व्यस्तता न मिलने पर अथवा खाली होने पर तुम अचानक अपनी आंतरिक रिक्तता के प्रति सचेत होते हो। तुम्हारे सपनों के कारण वह आंतरिक रिक्तता अनुभव नहीं हो पा रही थी। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि एक व्यक्ति बिना भोजन के भी लगभग नब्बे दिनों तक जीवित रह सकता है, लेकिन नब्बे दिन तक वह बिना सपने देखे नहीं रह सकता। वह पागल हो जाएगा। यदि स्वप्न देखने की अनुमति न हो तो तुम तीन सप्ताह में ही पागल हो जाओगे। बिना भोजन के, तीन सप्ताह तक तुम्हें कोई भी हानि नहीं होगी और यहां तक कि ऐसा करना तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा हो सकता है। बिना भोजन किए तीन सप्ताह का उपवास तुम्हारी पूरी शारीरिक व्यवस्था को एक नई स्फूर्ति देगा। तुम अधिक जीवंत तथा युवा हो जाओगे, लेकिन तीन सप्ताहों तक बिना सपनों के तुम पागल हो जाओगे। सपने निश्चित ही मन की किसी गहरी जरूरत को पूरा करते हैं। यह गहरी जरूरत है कि बिना किसी व्यस्तता के भी यह सपने तुम्हें व्यस्त बनाए रखते हैं। तुम अपनी इच्छानुसार सपने देख सकते हो, तुम जो चाहो वह कर सकते हो और कम से कम अपने सपनों में तो जो चाहो कर सकते हो। तुम्हारे सपनों में पूरा संसार तुम्हारे अनुसार ही गतिशील होता है। कोई भी वहां समस्या उत्पन्न नहीं करता है। तुम किसी को भी मार सकते हो, तुम किसी की भी हत्या कर सकते हो, तुम जैसा चाहो परिवर्तन कर सकते हो, तुम अपने सपने के मालिक होते हो। सपनों के दौरान अहंकार अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि वहां कोई दूसरा नहीं होता, जो तुम्हारा विरोध कर सके और तुमसे यह कह सके-"नहीं, यह गलत है।" तब तुम सर्वेसर्वा होते हो। तुम जो भी चाहते हो, तुम उसे अपने सपने में निर्मित कर लेते हो। जो तुम नहीं चाहते हो उसे तुम नष्ट कर देते हो। स्वप्न में तुम पूर्ण रूप से शक्तिशाली होते हो। तुम अपने सपनों में सर्वशक्तिमान होते हो। सपने केवल तभी बंद होते हैं जब अहंकार मिट जाता है। इसलिए यह एक संकेत है। वास्तव में ऐसा संकेत पुराने योग शास्त्रों में भी मिलता है कि जो व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया हो, वह स्वप्न नहीं देख सकता। उसका स्वप्न देखना बंद हो जाता है, क्योंकि उसे अब सपनों की कोई आवश्यकता ही नहीं है। वह तो अहंकार की आवश्यकता थी। अहंकार को पोषित करने के लिए ही तुम व्यस्त बने रहना चाहते थे। इसी कारण तुम अहंकार कोछोड़ नहीं सके। जब तक तुम खाली होने को तैयार नहीं हो, जब तक तुम नाकुछ होने को तैयार नहीं हो, जब तक तुम समाज के लिए अनुपयोगी होते हुए भी जीवन में आनंद और उत्सव मनाने के लिए तैयार नहीं हो, तब तक अहंकार को नहीं छोड़ा जा सकता है। समाज में उपयोगी बने रहना, महत्त्वपूर्ण बने रहना ही तुम्हारी गहरी जरूरत है। जब तक कोई तुम्हें महत्त्वपूर्ण समझता है, जब तक तुम किसी के लिए बहुत मूल्यवान होते हो, तब तुम बहुत भराव महसूस करते हो। यदि ज्यादा लोगों के लिए तुम ही एक मात्र केंद्र बन जाओ तो तुम अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव करते हो। यही कारण है कि नेतृत्व करने में इतनी प्रसन्नता मिलती है, क्योंकि इतने अधिक लोगों को तुम्हारी आवश्यकता होती है। एक नेता बहुत अधिक विनम्र हो सकता है। उसे अपने अहंकार को स्थापित करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि बहुत अधिक लोगों के लिए वह महत्त्वपूर्ण है, बहुत लोग उस पर निर्भर हैं, इसलिए उसके अहंकार की अत्यंत सहजता और गहनता से प्रतिपूर्ति हो जाती है। वह इतने अधिक लोगों का जीवन-स्रोत बन जाता है कि वह प्रसन्न अनुभव करता है, और विनम्र बना रहता है, बल्कि वह विनम्र बने रहने में समर्थ हो जाता है। तुम्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग अपने अहंकार को बहुत अधिक दृढ़ करते हैं, वे हमेशा ऐसे लोग होते हैं, जो दूसरों कोप्रभावित नहीं कर सकते। तब वे अपने अहंकार को दृढ़तापूर्वक स्थापित करते हैं, क्योंकि उनके पास अपनी बात कहने का केवल यह ही एक रास्ता बचता है। इसी तरह से वे सिद्ध कर पाते हैं कि वे भी कुछ हैं। यदि वे लोगों कोप्रभावित कर पाते, यदि वे लोगों को अपनी बात पर राजी कर ही पाते, तो उन्हें अहंकार के इस दावे की जरूरत ही नहीं पड़ती। अतः ऐसे लोग केवल दिखावे के लिए ही सही, परंतु बहुत विनम्र होंगे। वे अहंकार को प्रदर्शित नहीं करेंगे, क्योंकि वे सूक्ष्म रूप से जानते हैं कि बहुत लोग उन पर आश्रित हैं, वे जानते हैं कि अब वे उन लोगों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और इस महत्त्व के कारण ही उन्हें अपना जीवन उन लोगों के प्रति अर्थपूर्ण प्रतीत होता है। यदि इस तरह से किसी और के लिए अर्थपूर्ण होना ही तुम्हारा लक्ष्य है, यदि तुम्हारे अहंकार को पोषित करना ही तुम्हारे जीवन का अर्थ है, तब तुम उस अहंकार को कैसे छोड़ सकते हो? मुझे सुनते हुए तुम इस अहंकार को छोड़ने के बारे में सोचना शुरू कर देते हो, लेकिन केवल सोचने से ही तुम उसे नहीं छोड़ सकते हो। इस अहंकार को समझने के लिए उसकी जड़ों तक जाना होगा, जहां वह गहरा जमा हुआ है, जहां से उसका वजूद है, और यह भी जानना होगा कि वह वहां क्यों मौजूद है? यह अचेतन शक्तियों का एक प्रवाह है जो तुम्हारी आज्ञा के बिना, तुम्हारी जानकारी के बिना ही तुम पर कार्य करता है। इस प्रवाह को चेतन बनाना होगा। तुम्हें अपने अवचेतन की भूमि से, उस की गहरी पर्तों में जमी अहंकार की सभी जड़ों को उखाड़कर बाहर लाना होगा, जिससे तुम उन्हें देख सको और समझ सको। यदि तुम खाली बने रह सकते हो, यदि तुम संसार के लिए अनावश्यक होते हुए भी संतुष्ट रह सकते हो तो अहंकार इसी क्षण छूट सकता है, लेकिन यह "यदि "... बहुत बड़ा यक्ष- प्रश्न हैं और ध्यान तुम्हें इसी यक्ष- प्रश्न के उत्तर हेतु तैयार करता है। अहंकार के गिरने की घटना एक क्षण में ही घटती है परंतु समझ को गहरा होने में समय लग जाता है । यह लगभग ऐसा है, जैसेजब तुम पानी गर्म करते हो, तो वह धीमे धीमे गर्म होता जाता है, मध्यम गर्म और फिर तेज गर्म हो जाता है तथा सौ डिग्री के विशिष्ट तापक्रम पर आते ही वह भाप बनना शुरू हो जाता है। यह पानी का भाप बन जाना... एक क्षण में ही घटित होता है, यह धीमे-धीमे नहीं होता बल्कि अचानक एक क्षण में होता है। पानी से भाप बनने की प्रक्रिया एक छलांग है। इस प्रक्रिया में अचानक पानी विलुप्त हो जाता है, परंतु पानी से भाप बनने के लिए समय लगता है, पानी धीरे-धीरे गर्म होते हुए उबाल के बिंदु तक पंहुचता है। भाप अचानक एक क्षण में बनती है पर भाप बनने के लिए सही तापमान तक आने में समय लगता है। समझ का गहरे होना, पानी के गर्म होने की तरह है, वह समय लेती है। अहंकार का छूटना भाप बनने की तरह है, वह अचानक घटित होता है। इसलिए अहंकार को छोड़ने का प्रयास मत करो। वस्तुतः अपनी समझ को गहरा बनाने का प्रयास करो। पानी को भाप में बदलने का प्रयास मत करो। केवल पानी को गर्म करो। एक घटना के घटित होते ही दूसरी वस्तुतः स्वयं ही घटित हो जाएगी, वह अनुसरण करेगी। वह निश्चित रूप से घटित होगी ही। इसलिए समझ को विकसित करो, अपनी समझ को और अधिक सघन करो, इसे केंद्रित करो। अपनी समस्त उर्जा का प्रयोग अपने अहंकार का मूल समझने हेतु करो। अपनी सारी शक्ति अपने अहंकार, अपने मन और अपने अचेतन को समझने में लगा दो। अधिक से अधिक सजग बनो और जो कुछ भी होता है, उसे हर हाल में समझने का प्रत्येक संभव प्रयास करो। कोई व्यक्ति तुम्हारा अपमान करता है और तुम क्रोध से भर जाते हो। इस अवसर से मत चूको, समझने का प्रयास करो कि क्यों? आखिर यह क्रोध क्यों आता है? इस क्रोध को एक दार्शनिक तथ्य मत बनाओ और पुस्तकालयों में जाकर क्रोध के संबंध में छानबीन मत करो। यह क्रोध तुम्हें घट रहा है, यह तुम्हारा अनुभव है, एक जीवंत अनुभव है। अपनी समस्त ऊर्जा, अपना पूरा ध्यान इस पर केंद्रित कर दो और समझने का प्रयास करो कि यह तुम्हें क्यों घट रहा है? यह कोई दार्शनिक अथवा मनोवैज्ञानिक समस्या नहीं है और इसके बारे में फ्रायड जैसे किसी प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक से परामर्श लेने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। यह बहुत मूर्खतापूर्ण कृत्य है कि क्रोध तुम्हें घट रहा है और तुम दूसरे लोगों से इसका निदान पूछते हो। यह केवल एक मूढ़ता है। तुम क्रोध के इस अनुभव को महसूस कर सकते हो, तुम क्रोध में छुपे हुए अहंकार का रस ले सकते हो। तुम ही क्रोध के क्षणों के बाद बोझिल और अपमानित भी महसूस करोगे। अतः समझने का प्रयास करो कि यह क्यों हो रहा है? यह क्रोध कहां से आ रहा है? इसकी जड़ें कहां हैं? यह उत्पन्न कैसे होता है? यह कार्य कैसे करता है? यह कैसे तुम पर हावी हो जाता है? और कैसे तुम क्रोध में पागल हो जाते हो? यह क्रोध तुमसे पहले भी हो चुका है और अब भी हो रहा है, लेकिन अब तुम एक नया तत्त्व, एक नया आयाम इसमें जोड़ दो... और वह आयाम है समझ का आयाम, समझ के जुड़ते ही क्रोध के गुण और लक्षण बदल जाएंगे। तब धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जितना अधिक तुम क्रोध को समझते हो, उतना ही वह कम होता जाता है और जब तुम उसे पूर्ण रूप से समझ लेते हो तो एक दिन वह विलुप्त हो जाता है। समझ को बढ़ाना तापमान को बढ़ाने के समान है। तापमान जैसे ही सौ डिग्री के विशिष्ट बिंदु तक पहुंचता है, तो पानी विलुप्त हो जाता है और भाप बन जाता है। इसी तरह, क्रोध की ही भांति सेक्स है :उसे भी समझने का प्रयास करो। जितनी गहरी समझ होगी, तुम्हारी कामुकता, तुम्हारी वासना उतनी ही क्षीण होती जाएगी। तुम्हारी समझ जैसे ही शिखर पर पंहुचेगी अथवा पूर्णतम होगी वैसे ही उसी क्षण कामुकता पूर्ण रूपेण विलुप्त हो जाएगी। यही मेरी कसौटी है कि आंतरिक ऊर्जा का कोई भी आयाम यदि उथली और बाहरी समझ से दमित होता है और नकारात्मक ढंग से प्रकट होता है, तो वह पाप है, अपराध है। परंतु गहरी समझ के द्वारा यदि वह आयाम रूपांतरित होता है, तो वही सदाचार है। तुम्हारी समझ की मात्रा जितनी गहरी होती जाएगी, उतना ही मात्रा में तुम्हारे भीतर से व्यर्थ विसर्जित हो जाएगा, नकारात्मकता विदा होती जाएगी और सकारात्मकता या सार्थकता सघन होगी। कामुकता और वासना विलुप्त हो जाएगी और प्रेम गहन होगा। क्रोध विलुप्त होगा और करुणा गहनतम होगी। लोभ मिटेगा और बांटने का भाव गहन होगा। इसलिए गहरी समझ के द्वारा जो कुछ भी विसर्जित होने लगे, जान लेना कि वह व्यर्थ है, नकारात्मक है और जो कुछ भी तुम्हारे भीतर गहरी जड़ें जमाने लगे, जान लेना कि वही सार्थक है। मैं इसी तरह से अच्छे और बुरे, सदाचार और व्याभिचार तथा पुण्य और पाप की व्याख्या करता हूं। एक धार्मिक व्यक्ति या पुण्यवान व्यक्ति और कुछ नहीं बल्कि एक गहरी समझ का मालिक होता है। अधार्मिक व्यक्ति या पापी व्यक्ति वही है जिसकी समझ का स्तर बहुत ही उथला है, छिछला है। एक धार्मिक और एक अधार्मिक व्यक्ति में मुख्य अंतर पाप या पुण्य का नहीं होता है अपितु एक गहरे तल की समझ का होता है । यही गहरी समझ, पानी को गर्म करने की प्रक्रिया की भांति कार्य करती है। जब वह क्षण आता है, जब तापमान उबलने के बिंदु तक पंहुच जाता है तो अचानक जैसे भाप बनती है वैसे ही अचानक अहंकार छूट जाता है। तुम प्रत्यक्ष रूप से, बिल्कुल सीधे ही अहंकार पर प्रहार नहीं कर सकते, हां! तुम उस स्थिति को अवश्य तैयार कर सकते हो, जिसमें अहंकार स्वतः ही नष्ट हो जाता है। वह स्थिति निर्मित होने में समय लगेगा। इस संदर्भ में सदैव से ही दो विचारधाराएं रहीं हैं पहली यह कि बुद्धत्व अचानक घटित होता है, यह समय के पार है। दूसरी यह है कि बुद्धत्व अचानक नहीं बल्कि धीरे-धीरे क्रमिक रूप से घटित होता है। यह दोनों विचारधाराएं परस्पर विपरीत हैं। एक के अनुसार बुद्धत्व अचानक ही, अनायास ही घटता है और दूसरी के अनुसार बुद्धत्व अचानक नहीं बल्कि धीमी प्रक्रिया में घटता है और दोनों ही सही हैं क्योंकि दोनों ने सिक्के के एक-एक पहलू को `चुन लिया है, धीमी प्रक्रिया वाली विचारधारा ने गहरी समझ को विकसित करने वाला भाग चुन लिया और उनके अनुसार इसमें समय लगेगा, गहरी समझ समय के साथ ही विकसित होगी। और वे सही हैं, उनके अनुसार अचानक होने वाली घटना के बारे में चिंतित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह धीमी प्रक्रिया है। वे कहते हैं कि तुम केवल प्रक्रिया का अनुसरण करो और इस प्रक्रिया में जब पानी ठीक बिंदु तक गर्म हो जाएगा तो वह स्वतः ही वाष्प बन जाएगा। तुम्हें वाष्प के बारे में फिक्र करने की आवश्यकता ही नहीं है। तुम वाष्प से संबंधित सभी विचार अपने दिमाग से निकाल दो और तुम अपना पूरा ध्यान केवल और केवल पानी के गर्म करने पर लगा दो। इसके विपरीत, दूसरी विचारधारा जो कहती है कि बुद्धत्व अचानक घटता है, उसने अंत वाला भाग चुन लिया है। वह कहते हैं कि प्रक्रिया इतनी सारभूत नहीं है, मुख्य बात यह है कि बिना किसी समय-अंतराल के ही घटना घट जाती है, बस एक क्षण में ही विस्फोट होता है। पहली जोधीमी प्रक्रिया है, वह केवल परिधि है, परंतु दूसरी तरफ जो अचानक विस्फोट है, वही वास्तविक बिंदु है, वह केंद्र है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि दोनों ही ठीक हैं। बुद्धत्व अचानक घटता है और हमेशा अचानक ही घटित हुआ है। लेकिन समझ समय लेती है। दोनों ही सही हैं परंतु दोनों की व्याख्या गलत ढंग से की जा सकती है। तुम मन की चाल में फंस सकते हो, तुम स्वयं को ही धोखा दे सकते हो । यदि तुम कुछ भी नहीं करना चाहते हो, कोई भी प्रयास नहीं करना चाहते हो तो अचानक घटने वाले बुद्धत्व पर विश्वास करना एक आकर्षण होगा, क्योंकि तब तुम कहोगे कि यदि यह अचानक ही घटता है तो कुछ करने की आवश्यकता नहीं है, यह अचानक घट ही जाएगा और मैं इसमें कर ही क्या सकता हूं? मैं तो बस उस क्षण की प्रतीक्षा कर सकता हूं। यह स्वयं के प्रति धोखा हो सकता है। इसी कारण, विशेषतः जापान में धर्म पूरी तरह विलुप्त हो गया। जापान में अचानक बुद्धत्व घटने की एक प्राचीन परंपरा है। झेन कहता है कि बुद्धत्व अचानक घटता है। इसी कारण से पूरा देश गैर-धार्मिक बन गया। लोगों में यह विश्वास प्रचलित हो गया कि अकस्मात बुद्धत्व ही एक मात्र संभावना है। इसके अलावा कुछ भी नहीं किया जा सकता है और वह जब भी घटना होगा... तब ही घटेगा। यदि वह होना है तो होगा ही और यदि नहीं होना है तो नहीं होगा। हम इसके लिए कुछ भी नहीं कर सकते हैं, इसलिए कुछ किया ही क्यों जाए? कुछ करने की चिंता ही क्यों की जाए? पूरब में जापान सबसे अधिक भौतिकवादी देश है। पूरब में जापान, पश्चिम के एक भाग की भांति अस्तित्व में है। यह बड़ी अजीब बात है कि जापान की ध्यान और झाझेन जैसी अत्यंत सुंदर परंपराएं विलुप्त हो गईं? ऐसा क्यों हुआ? इस अचानक बुद्धत्व घटने की धारणा के कारण ऐसा हुआ । इसी धारणा के फलस्वरूप वह सुंदर परंपराएं विलुप्त हुईं। लोगों ने स्वयं को धोखा देना शुरू कर दिया। भारत में एक दूसरी चीज़ घटित हुई... और इसीलिए मैं बार-बार यह कहता रहता हूं कि मनुष्य का मन बहुत अधिक धोखेबाज और चालबाज है। तुम्हें निरंतर सजग बने रहना होगा अन्यथा तुम धोखा खाओगे। भारत में हमारे पास एक अन्य परंपरा है :क्रमिक बुद्धत्व की। भारत का योग-विज्ञान वही धीमी प्रक्रिया है। तुम्हें योग की इस प्रक्रिया के अंतर्गत कार्य करना पड़ता है, यहां तक कि अनेक जन्मों तक कठोर श्रम करना पड़ सकता है। अनुशासन की आवश्यकता होती है, अभ्यास की आवश्यकता होती है। जब तक तुम कठोर श्रम नहीं करते, तब तक तुम योग में कुशलता प्राप्त नहीं करोगे। इसलिए यह एक अत्यंत लंबी प्रक्रिया है, इतनी अधिक लंबी है कि भारत में माना जाता है कि इसके लिए एक जन्म पर्याप्त नहीं है और तुम्हें अनेक जन्मों की आवश्यकता होगी। अत्यंत सूक्ष्म और जटिल योग साधना के संबंध में यह बात गलत भी नहीं है। जहां तक समझ का संबंध है, यह सत्य है, लेकिन तब भारत ने माना कि यदि यह प्रक्रिया इतनी अधिक लंबी है तो फिर जल्दी क्या है? इतनी शीघ्रता क्यों? तब संसार का भरपूर आनंद लो क्योंकि कोई जल्दबाजी नहीं है और पर्याप्त समय है। यह इतनी अधिक लंबी प्रक्रिया है कि तुरंत ही, आज ही इसका परिणाम मिल पाना संभव नहीं है। यदि परिणाम शीघ्रता से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, तब क्रिया के प्रति रूचि ही समाप्त हो जाती है। कोई भी व्यक्ति इतनी गहन अभीप्सा नहींरखता है कि वह कई जन्मों तक प्रतीक्षा कर सके और इसलिए वह बुद्धत्व की बात ही भूल जाता है। अतः क्रमिक बुद्धत्व की धारणा ने भारत को नष्ट किया और अचानक बुद्धत्व की धारणा ने जापान को नष्ट कर दिया। मेरे लिए दोनों ही सत्य हैं, क्योंकि दोनों ही एक संपूर्ण प्रक्रिया के आधे-आधे भाग हैं। तुम्हें निरंतर सजग बने रहना होगा कि तुम स्वयं को धोखा न दे सको। यह विरोधाभासी दिखाई देगा, परंतु मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि यह ऐसा है जोअभी "इसी क्षण" घटित हो सकता है, लेकिन इसी क्षण" को आने में कई जन्म लग सकते हैं। इसलिए कठोर श्रम करो, प्रयास ऐसे करो जैसे यह ठीक इसी क्षण घटित होने जा रहा हो और धैर्य से प्रतीक्षा भी करो, क्योंकि इस संबंध में कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। यह कोई नहीं बता सकता है कि वह कब घटित होगा? हो सकता है कि वह अनेक जन्मों तक घटित ही न हो। इसलिए धैर्य से प्रतीक्षा करो, ऐसी प्रतीक्षा जैसे कि संपूर्ण प्रक्रिया स्वयं में एक लंबा और धीमा विकास हो और जितना संभव हो सके उतना कठोर श्रम भी करते रहो, जैसे कि बुद्धत्व अभी इसी क्षण घटित हो सकता है। ओशो! काम-ऊर्जा के प्रयोग द्वारा हमारे विकास के संबंध में कुछ कहने की कृपा करें, क्योंकि पश्चिमी देशों की अनेक समस्याओं में से यह भी एक मुख्यचिंता का विषय है। सेक्स या काम, ऊर्जा है। इसलिए मैं इसे काम-ऊर्जा नहीं कहूंगा, क्योंकि कोई दूसरी ऊर्जा है ही नहीं। केवल सेक्स ही वह मूलभूत ऊर्जा है, जो तुम्हें प्राप्त हुई है। ऊर्जा का रूपांतरण किया जा सकता है, यह एक उच्चतम और श्रेष्ठतम ऊर्जा बन सकती है। यह जितनी अधिक ऊंचाई पर गतिशील होती है, उतनी ही कामवासना निम्नतर हो जाती है और अंत में जब यह अपने चरम शिखर पर पंहुचती है तोप्रेम और करुणा में रूपांतरित हो जाती है। यह इसकी सर्वोच्च खिलावट है, हम इसे दिव्य अथवा आलौकिक ऊर्जा भी कह सकते हैं, परंतु इसका आधार, इसका मूल और इसका गढ़ सेक्स ही है। इसलिए सेक्स प्रथम है, सेक्स इस ऊर्जा की सबसे निचली परत है और दिव्यता या भगवत्ता इसकी सबसे ऊंची परत है। इन दोनों परतों के बीच यह एक ही ऊर्जा गतिशील होती है, केवल ध्रुवों पर इसका गुण बदल जाता है। पहली बात जो समझनी होगी, वह यह है कि मैं ऊर्जा को विभाजित नहीं करता हूं। एक बार यदि विभाजन हो जाए तो द्वैत निर्मित हो जाता है, इस विभाजन से तनाव और संघर्ष उत्पन्न होता है। यदि तुम इस ऊर्जा को विभाजित करते हो, तो तुम भी विभाजित हो जाते हो, ऐसे में या तो तुम सेक्स के पक्ष में हो जाओगे या सेक्स के विरोध में हो जाओगे। मैं न तो पक्ष में हूं और न ही विपक्ष में हूं, क्योंकि मैं उसे विभाजित नहीं करता हूं। मैं कहता हूं कि सेक्स एक ऊर्जा है, सेक्स या काम केवल इस ऊर्जा का एक नाम है। तुम उस ऊर्जा को कोई भी नाम दे सकते हो, तुम इसे "एक्स" या "वाई" या "ए" या "बी" कुछ भी कह सकते हो। जब तुम इस ऊर्जा का उपयोग जैव-वैज्ञानिक ढंग से, एक प्रजनन-शक्ति के रूप में करते हो, तब इस "एक्स" ऊर्जा का, इस अज्ञात ऊर्जा का नाम सेक्स या कामुकता है। यही "एक्स" ऊर्जा जब वह जैव-वैज्ञानिक बंधन से मुक्त होती है तब यह दिव्यता में रूपांतरित हो जाती है। एक बार यदि यह ऊर्जा शारीरिक बंध से, वासना से और उन्माद से मुक्त हो जाए तो यही ऊर्जा जीसस का प्रेम है और बुद्ध की करुणा है। आज ईसाईयत के कारण पूरा पश्चिम एक तरह के सनकीपन से पीड़ित है, मनोग्रसित है। दो हजार वर्षों से ईसाईयत द्वारा दमित की गई काम-ऊर्जा ने पश्चिमी मन को सेक्स के प्रति विक्षिप्त बना दिया है। पहली बातदो हजार वर्षों से यह प्रयास किया जा रहा था कि इस ऊर्जा को कैसे नष्ट किया जाए? तुम इसे नष्ट नहीं कर सकते। कोई भी ऊर्जा नष्ट नहीं की जा सकती, वह केवल रूपांतरित की जा सकती है। ऊर्जा को आमूल रूप से नष्ट करने का कोई उपाय ही नहीं है, इस संसार में किसी भी चीज़ को नष्ट नहीं किया जा सकता है, उसे केवल बदला जा सकता है, रूपांतरित किया जा सकता है और एक नई सत्ता में या एक नूतन आयाम में परिवर्तित किया जा सकता है। ऊर्जा का पूर्ण विनाश असंभव है। तुम एक नई ऊर्जा को निर्मित नहीं कर सकते हो, और न ही तुम किसी पुरानी ऊर्जा को नष्ट कर सकते हो । सृजन और विनाश दोनों ही तुम्हारे हाथ में नहीं है, यह तुम्हारी प्रत्येक संभव सीमा के बाहर की बात है। इसलिए निर्माण और विनाश असंभव है। अब वैज्ञानिक भी इस बात से सहमत हैं कि एक छोटे से छोटा अणु भी नष्ट नहीं किया जा सकता है। ईसाईयत दो हजार वर्षों से सेक्स ऊर्जा को नष्ट करने का प्रयास कर रही है। वह धर्म-पूर्ण ढंग से सेक्स के बिना अपना अस्तित्व बनाए रखना चाहती है। इससे एक पागलपन उत्पन्न हो गया। तुम इस सेक्स ऊर्जा से जितना अधिक लड़ते हो, तुम उतना ही अधिक इसका दमन करते हो और इसी दमन के कारण तुम और अधिक कामुक बन जाते हो। तब सेक्स तुम्हारे अवचेतन में गहरे तक प्रवेश कर जाता है और वह तुम्हारे पूरे अस्तित्व को विषैला बना देता है। इसलिए यदि तुम ईसाई संतों के जीवन चरित्र को पढ़ो तो तुम पाओगे कि वे सेक्स के प्रति मनोग्रसित हैं। वे प्रार्थना नहीं कर सकते हैं, वे ध्यान नहीं कर सकते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें सेक्स प्रवेश कर जाता है। तब वे सोचते हैं कि कोईशैतान उनके साथ छल-कपट कर रहा है, शैतान उनसे धूर्तता कर रहा है। कोईशैतान नहीं है, कोई छल-कपट नहीं कर रहा है। यदि तुम सेक्स ऊर्जा का दमन कर रहे हो तो तुम ही वह शैतान हो । निरंतर दो हजार वर्षों तक सेक्स का दमन करने के बाद, पश्चिम इससे दुखी हो गया, थककर चूर हो गया। सेक्स की अति हो गई। तब अचानक सबकुछ पलट गया। अब दमन के स्थान पर सेक्स के प्रति आसक्ति पैदा हो गई और इसके भोग का एक नया उन्माद उत्पन्न हुआ। मन एक छोर से दूसरे छोर पर, एक अति से दूसरी अति पर गतिशील हो गया। परंतु बीमारी ज्यों की त्यों बनी रही। एक बार वह दमन के रूप में थी, अब उसी बीमारी ने अतिशय भोग का रूप ले लिया। यह दोनों ही रुग्ण दृष्टिकोण हैं। न तो सेक्स का दमन करना है और न ही विक्षिप्त की तरह उसका भोग करना है, बल्कि सेक्स का तो रूपांतरण करना है। सेक्स को कामुकता से दिव्यता की ओर रूपांतरित करने का एकमात्र संभव उपाय यह है कि काम-क्रीड़ा में गहन ध्यानमयी सजगता के साथ उतरा जाए। यह ठीक वैसे ही है, जैसा मैं क्रोध के बारे में कह रहा था । सेक्स में उतरो परंतु एक जागरूक, होशपूर्ण और सचेतन ढंग से इसका उपभोग करो। इसे एक अचेतन शक्ति के रूप में हावी होने की आज्ञा मत दो। इसके प्रभाव में मत आओ, इसके द्वारा संचालित मत होवो। समग्र जागरूकता के साथ, जानतेसमझते हुए, प्रेमपूर्ण ढंग से इसमें सहभागी बनो। अपने सेक्स के अनुभव को ध्यान का एक गहन अनुभव बनाओ। इसमें ध्यानपूर्ण बने रहो। ध्यानपूर्ण ढंग से और सजगता से सेक्स में उतरने की प्रक्रिया को ही पूरब ने तंत्रयोग कहा है। यदि एक बार सेक्स के अनुभव में तुम ध्यानपूर्ण हो सको तो तुम पाओगे कि उसकी गुणवत्ता ही बदल गई है। वह ऊर्जा जो काम वासना के अनुभव में गतिशील हो रही थी, अब वही ऊर्जा चेतना की ओर गतिशील होना प्रारंभ कर देती है। तुम कामोन्माद के सर्वोच्च शिखर पर पूर्ण जागरूक और पूर्ण सजग रह सकते हो, जो किसी अन्य प्रकार से कभी भी संभव नहीं है, क्योंकि कोई दूसरा अनुभव इतना अधिक गहन, इतना अधिक तल्लीन करने वाला और इतना अधिक समग्र नहीं होता। संभोग के सर्वोच्च शिखर पर तुम पूर्ण रूप से ऊर्जा द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हो, तुम्हारी समस्त जड़ें उस ऊर्जा को पी लेती हैं, तुम्हारा पूरा अस्तित्व इस ऊर्जा से आविष्ट हो जाता है और उस ऊर्जा में तरंगायित होने लगता है। तुम्हारा शरीर और मन दोनों ही तल्लीन हो जाते हैं। इस क्षण में विचार की प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाती है। जब तुम संभोग के आनंद-शिखर पर पहुंचते हो तो चाहे एक क्षण के लिए ही सही, तुम्हारी पूरी विचार प्रक्रिया रूक जाती है, क्योंकि इस क्षण में तुम समग्र होते हो, इसलिए तुम विचार कर ही नहीं सकते। संभोग के सर्वोच्च शिखर तुम विशुद्ध चेतन सत्ता के रूप में होते हो। वहां तुम चेतनता के रूप में, ऊर्जा के रूप में होते हो और तुम्हारा अस्तित्व विचार रहित होता है। इस क्षण में यदि तुम सजग और सचेत हो सको, तो यही सेक्स एक द्वार बन सकता है, दिव्यता के जगत में प्रवेश करने के लिए। यदि इस क्षण में तुम सजग बने रह सकते हो तो अन्य क्षणों में भी और जीवन के अन्य अनुभवों में भी वह सजगता आ सकती है। यह सजगता तुम्हारा एक मुख्य अंग बन सकती है। तब भोजन करते हुए, टहलते हुए और कोई भी कार्य करते हुए, तुम सजग बने रह सकते हो। सेक्स के माध्यम से सजगता ने तुम्हारे अंतरतम और गहनतम केंद्र को अथवा आत्मा को स्पर्श किया है। सजगता ने तुम्हारी समस्त परतों को भेदकर, अंदर गहराई तक प्रवेश किया है। अब तुम सजगता ही हो। यदि तुम ध्यानपूर्ण हो जाते हो तो तुम एक नवीन तथ्य को अनुभव करोगेकि सेक्स तुम्हें परम आनंद नहीं देता है, सेक्स तुम्हें परम उन्माद नहीं देता है, वस्तुतः मन की निर्विचार स्थिति और काम-कृत्य में तुम्हारा समग्र रूप से तल्लीन हो जाना ही तुम्हें परमानंद का पूर्ण अनुभव देता है। एक बार यदि तुम इस रहस्य को समझ जाते हो तब सेक्स की आवश्यकता निम्नतम हो जाती है, क्योंकि मन की वह निर्विचार स्थिति सेक्स के बिना भी निर्मित की जा सकती है। और ध्यान करने का ठीक यही अर्थ होता है कि निर्विचार स्थिति को उपलब्ध हुआ जा सके। अस्तित्व के साथ समग्र रूपेण एक होने की स्थिति, बिना सेक्स के भी सृजित की जा सकती है। एक बार तुम जान जाते हो कि यह अनुभव सेक्स के बिना भी हो सकता है, तब सेक्स की आवश्यकता कम हो जाएगी। एक क्षण ऐसा आएगा जब सेक्स की आवश्यकता बिल्कुल भी महसूस नहीं होगी। स्मरण रहे, सेक्स हमेशा दूसरे पर आश्रित है, इसलिए सेक्स में एक बंधन और एक गुलामी बनी रहती है। तुम किसी अन्य व्यक्ति पर आश्रित हुए बिना, यदि एक बार भी संभोग के सर्वोच्च शिखर-आनंद को या समग्रता की उस स्थिति को निर्मित कर पाते हो, तो वह ऊर्जा तुम्हारे लिए अंतरस्रोत बन गई। अब तुम स्वतंत्र हो और मुक्त हो। इसी स्वतंत्रता को, इसी मुक्ति को, भीतरी ऊर्जा और ब्रह्माण्डीय उर्जा के इस निराश्रित संयोग को ही भारत में ब्रह्मचर्य कहा गया है। ब्रह्मचर्य अर्थात पूर्ण रूप से कुंवारा... ऐसा व्यक्ति जो मुक्त रह सकता है क्योंकि अब वह किसी अन्य व्यक्ति पर आश्रित नहीं है, उसका परमानंद केवल उसी के भीतर से उपजता है। ध्यान के द्वारा सेक्स विलुप्त हो जाता है, लेकिन यह ऊर्जा का विनाश नहीं है। ऊर्जा कभी भी नष्ट नहीं होती है, केवल ऊर्जा का रूप बदल जाता है। ध्यान के द्वारा, अब वह ऊर्जा काम-वासना नहीं है और जब उसका रूप कामुक नहीं है, वासनामय नहीं है, तब तुम एकदम प्रेमपूर्ण हो जाते हो। वास्तव में, जो व्यक्ति कामुक होता है, वह प्रेमल नहीं हो सकता। उसका प्रेम केवल एक दिखावा हो सकता है, उसका प्रेम केवल एक छल-कपट हो सकता है। उसका प्रेम केवल और केवल सेक्स की ओर जाने का एक साधन है। कामातुर व्यक्तिप्रेम का उपयोग सेक्स के लिए एक तकनीक की भांति करता है। उसके लिए प्रेम एक मार्ग है, सेक्स तक जाने का। एक कामातुर व्यक्ति सचमुच प्रेम कर ही नहीं सकता है। वह केवल दूसरे का शोषण कर सकता है। उसके लिए प्रेम केवल दूसरे तक पंहुचने का और दूसरे को पाने का या दूसरे पर कब्ज़ा करने का एक साधन मात्र है। एक व्यक्ति जो वासना से मुक्त हो गया है और उसकी काम ऊर्जा उसके ही भीतर, उसकी चेतना की ओर गतिशील हो रही है, तो वह स्वतः ही परम आनंद बन जाता है। उसका परमानंद कुंवारा है, निराश्रित है, वह स्वयं से ही जन्मा है। ऐसा व्यक्ति ही वास्तव में प्रेमल होगा। उसका प्रेम निरंतर बरसेगा, उसका प्रेम निरंतर बंटेगा और निरंतर उसका प्रेम दूसरों में वितरित होता रहेगा। लेकिन इस स्थिति कोप्राप्त करने के लिए तुम्हें सेक्स-विरोधी बनने की आवश्यकता नहीं है। इस स्थिति कोप्राप्त करने के लिए तुम्हें सेक्स को जीवन के एक अभिन्न अंग की भांति स्वीकार करना होगा। सेक्स को एक स्वाभाविक और प्राकृतिक जीवन शैली की भांति स्वीकार करना होगा। सेक्स में अत्यंत सहजता और सचेतनता से गतिशील होना होगा। चेतन तत्व एक पुल की तरह है, एक स्वर्ण-सेतु की तरह है जो इस लौकिक संसार और उस आलौकिक संसार; स्वर्ग एवं नरक तथा अहंकार एवं दिव्यता के जगत को आपस में जोड़ता है।
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तुम्हें क्या मिला? पुरानी भाषा की एक भविष्यवाणी। लैनफियर। फिर हमारी दुनिया में आ गई। लैन पर भरोसा कर सकते हैं? महारत के लिए मशहूर थी। स्वप्न लोक। आख़िरकार। मैं फ़िदाबक्ष से प्यार करने का नाटक करूँ? कि वह क्या चाहता है। मैट को चोट नहीं आने दूँगी। तुम्हारे श्राप से मुक्ति दिलाऊँ? उसे सियारहीन लेकर आओ। जिसे तुमने अगवा किया। काल संघ सच में है। कुछ करो! नहीं कर सकती। इग्वीन कहाँ है? पश्चिमी तट पर हमला हुआ है। मीनार ने बहनों को जाँच के लिए भेजा है। जाँच करने पश्चिम जाना पड़ेगा। तुम कौन हो? रायमा, पीतांबर संघ से। क्या हश्र करते हैं? इसे बाँधो। इसे काबू करना होगा। तुमने कैसे चोट नहीं पहुँचा सकती। उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। मौत तक। पहली सीख। दूसरी सीख। जंजीर को हटा नहीं सकते। तुम तो कतई नहीं। मैं रेना हूँ। तुम्हारा नाम? कई योगनारी इससे सहमत नहीं होतीं दोस्ती बनाने में यकीन रखती हूँ। तुम्हारा नाम क्या है? तो बेहतर होगा कि मुझे बता दो। इग्वीन। इग्वीन। न रखने देने की कोई वजह नहीं दिखती। यह क्या जगह है? तुम्हारा घर। आराम करो, इग्वीन। जल्द तुम्हारा प्रशिक्षण शुरू होगा। तो? क्या तुम चिल्लाकर अपनी जान की भीख माँगोगे? रिझाने की कोशिश करोगे? तो क्या चाल है? क्या चाहती हो, लैनफियर? अब सेलिन नहीं बुलाओगे? लुईस थेरिन। यकीन नहीं होता तुम पर भरोसा किया। मुझ पर भरोसा क्यों नहीं कर सकते? तुम्हारी हिफ़ाज़त करती आई। इश्माएल को तुम्हारे सपनों से दूर रखा। मुझे विश्वास नहीं होता। तुमने पिछले जन्म में भी यही किया था। तारीफ़ की बात है? मेरे बारे में कुछ नहीं जानती। तुम्हारे दोस्त कहाँ हैं, रैंड? पेरिन, मैट, न्यानेव इग्वीन? उन सबको बताया कि तुम मर गए। क्या इससे उनकी हिफ़ाज़त होगी? और आसान हो जाएगा। ताकि तुम्हें काबू कर सके। वे पक्ष नहीं बदलेंगे। मुझे भी एक समय पर यही लगा था। और तुम्हें किस पर भरोसा है? मोइराने पर? बस तुम्हें छला है और लगाम कसी है? ऐसी एक जगह जहाँ पर आज भी उसकी साख है? यह इत्तेफ़ाक है कि लोगैन वहाँ है? अपने इशारों पर नचा रही थी। पता है क्या? तो उसे कमाना पड़ेगा। मुझे बताओ कि इश्माएल कहाँ है। बताओ कि उसका क्या इरादा है। अरे वाह, ज़रा देखो। अभी तुम्हारे अंदर थोड़ा सा लुईस बचा है। तो मेरी एक शर्त है। उसने क्या कहा? मुझे जाना है। कहाँ? उसने बताया कि कहाँ? नहीं। तुमसे दूर। उसकी यही शर्त थी। तुम्हें मार डालेगी। लोगैन। तुम उसे सियारहीन लाई, है न? ताकि मैं यहाँ आऊँ। हाँ, बेशक। जहाँ वह तुम्हें कभी न सिखा पाता। पहले ही बहुत देर तक रुक गया। वह एक फ़िदाबक्ष है, रैंड। उसकी बात मत सुनो। सियारहीन। अब समझा कि तुम यहाँ क्यों आना चाहती थी। मैट। रुको, मैट। मेरे ख़्याल से यह एक भूल है। हमें जाना चाहिए। किसी और मधुबाला का जादू चल जाएगा। वह तुम्हारे जितनी दिलचस्प नहीं होगी। उससे फ़र्क नहीं पड़ता। चलो। कहाँ जा रहे हो? चलो, मिन। चलो भी! तुम चलना बंद करोगी? वे हमें सुन लेंगे। मैं चल नहीं रही। छानबीन कर रही हूँ। हमें किसी अनजान ने अटारी में बंद किया है। रायमा सेडाई, जो रक्षा कर रही हैं। हमें आइ सेडाई पर भरोसा करना चाहिए? हम इस स्थिति में मेरी वजह से नहीं फँसे। बात तक नहीं की थी। तुम ही थी जिसने कि आइ सेडाई और उसका रक्षक नहीं तुम दोनों की बहस सुन सकता हूँ। कोई बात नहीं, बसन। वे अभी के लिए जा चुके हैं। इसे भाषण देने की आदत है। एल्डरबेरी और अस्ट्रैगैलस। मेरा पसंदीदा शक्तिवर्धक पेय था। वह कमरबंद। तुम एक विदुषी हो। हाँ। तो जानती हो कि यह पेय मन शांत करता है। श्वेत मीनार से क्यों भागीं? मुझ पर भरोसा कर सकती हो। इसका आश्वासन देता है। यह बात लियांड्रिन से कहो। लियांड्रिन सेडाई? वह इसका हिस्सा कैसे है? वह निशाचर की दास है। और उसी ने हमें सैंचन के हवाले किया। उसने तीन वचन तोड़े? हर एक वचन। पर इसका मतलब है काल संघ। यह सच नहीं हो सकता। अगर तुम्हारी बात सच हुई तो हमारी सारी बहनें गंभीर ख़तरे में हैं। माफ़ करना कि इतनी देर छोड़कर गई। पहला वाला जाने दूँगी। तुम्हारे बेटे को खिला दूँगी। तुमने कैसे मैं तुम्हारे सपनों में गई। ज़्यादातर अपने मनोरंजन के लिए। तुम्हारे काफ़ी दिलचस्प शौक हैं। इश्माएल ने बताया आप आज़ाद हैं, पर क्यों काम करती हो? मर्दों से नफ़रत करती हो। हालाँकि, एक मर्द को छोड़कर। रहम करो। इसका नाम क्या है? एलुड्रैन। मर्द हमें चोट पहुँचाते हैं हमें धोखा देते हैं और फिर भी हम उन्हें चाहते हैं। पर यह कोई ज़िंदगी नहीं है। मुझे पता है। यह तुम्हें पीछे रख रहा है। जो तुम हुआ करती थी। ब्याह करने का ज़ोर डाला गया। मुझे पता है। जो तुम नहीं कर पाओगी। दूसरी औरत को दे सकती है। नहीं। नहीं। वचन लिया था, इश्माएल का नहीं। उन्हें वापस नहीं ले सकती। यह नामुमकिन है। कई रास्ते होते हैं। तो मेरे पास तुरक से ज़्यादा होगी, है न? तुम लोग मेरे अमानुष ख़ादिम से मिले? हमारे लिए गाना गाओ, माली। इन्हें दिखाओ। तरुगायन ऐसे नहीं गाओ! हमारे लिए। मुझे इसे तोहफ़े में तुरक को देना चाहिए। कल्पना कर सकते हो? चलो फ़ैसला करें। मैं उसे यह तोहफ़े में कैसे दूँ? क्या पता चला? कमरा है। बिगुल वहाँ है। वहाँ बहुत कम पहरा है। कि उन्हें उसके चोरी होने का डर तक नहीं है। पर इग्वीन अल'वेर का क्या? बाहरी इलाके में एक जगह है जहाँ जोगनों को रखा जाता है। वहाँ बिगुल से ज़्यादा पहरेदार तैनात हैं। बिगुल ज़्यादा मायने रखता है, सर्जक। हमें हम उस तक पहुँचने का रास्ता ढूँढ लेंगे। लोयाल वह जगह केनेल्स कहलाती है। अंदर से उतनी ही सख्त है। तो वह। इग्वीन। जिसे वह हथियार समझती है। तब तक नहीं जब तक वह जंजीर पहने रहेगी। चाहे ज़िंदगी कितनी भी लंबी हो। कि तुम बस एक जोगन हो। लड़ नहीं सकती, इग्वीन। अब मुझे प्याले में पानी दो। हम अभ्यास जारी रखेंगे। यह कि मुझे कभी चोट नहीं पहुँचाओगी। तब ही तुम उसे छू पाओगी। तुम मज़बूत हो और हिम्मत वाली हो। जंजीर में तुम्हारी ताक़त महसूस हो रही है। सबसे मुश्किल होता है। मैं कल वापस आऊँगी। अच्छे से आराम कर लो, इग्वीन। तुम्हारे सपनों से भी बेतहाशा अमीर। और पियक्कड़ों के बीच सो रही हो? हुक्म के मुताबिक मैट को यहाँ ले आई। अपना वादा निभा दिया। कि चुटकियों में तुम्हारा श्राप मिटा दूँ? इसी को सौदा कहते हैं। ड्रैगन यहाँ सियारहीन में है। रैंड अल'थॉर। उससे मिल चुकी हो। तो पक्का करो कि मैट उसके साथ यहाँ से जाए। तुम जानते हो मैंने क्या देखा। मैट और रैंड की वह झलकी। तुमने कैसे देखा श्राप से मुक्त कर दूँगा। और अगर मैंने न किया तो? यह भी रुकने के लिए ठीक ही जगह है। चाय की तलब लगी है। यह फ़िदाबक्षों का मंदिर है। दिलचस्प जगह चुनी। आश्रय आश्रय होता है। एमिर्लिन की इजाज़त चाहिए होगी। जब तक वह मीनार अभिलेखों से हटा न दिया जाए। वापस नहीं लौटेंगी। वह केमलिन के दौरे से लौट रही हैं। फ़िदाबक्ष। जो आइ सेडाई ने खो दीं? ऐसे कवच जो यह युग भूल गया? वे निशाचर की सेना के सेनापति हुआ करते थे। जो हमारी आइ सेडाई कभी नहीं करेंगी। पर निर्भर करता है जिनका सामना कर रहे हैं। बस करो। यूँ चिढ़ाना बंद करो। छोड़कर जाना बेअदबी होती है। तो और भी बड़ी बेअदबी है। मैं लड़ना नहीं चाहता। ठुकराए जाना लगभग एक नया अनुभव है। यह पूछने के लिए मुझे माफ़ करना, पर तुम कहाँ जा रहे हो, भाई? वह मेरा ज़ाती मामला है। "लहू से लहू पैदा होता है। लहू लहू को पुकारता है। सवाल का जवाब दो, लैन। रहम करके। तुम्हें वाकई लगता है कुछ यकीन से नहीं कह सकते। क्योंकि तुमने हमें कुछ नहीं बताया है। जान जोखिम में डाल रहे हो, क्यों? तो तुम इस जगह से नहीं जाओगे। मैं निशाचर से लड़ा था। रास्ते से हटो। निष्कासित नहीं किया था। तुम जानते हो। तुम्हें उनका ठिकाना बताऊँ। क्यों? मुझे उन्हें ढूँढ़ना है। तुम्हें सिउआन सांचे से क्या चाहिए? यह मोइराने को लेकर है। अ'लैन मैनड्रैगोरैन। तो हम तुम्हें यहीं मार देंगे। हमें पुनर्जीवित ड्रैगन मिला। तुम उन सबको मार डालोगे। आगे जाकर तुम्हारा यही हश्र होगा। यह जानते हो, है न? और उन सबको मार देते हैं जिन्हें चाहते हैं। यह नहीं चाहता कि तुम यहाँ रहो, तो जाओ। कि उससे तुम्हारी रक्षा करूँगी। स्वप्न लोक में सावधान रहना, रैंड। यहाँ मर भी सकते हो। उसके असली रूप में। जिसे चाहो उसे देख सकते हो। ऐसे लगेगा मानो कि तुम दोनों जाग रहे हो। मैंने उस बारे में सोचा, और तुम सही थे। मैंने तुम्हें भरोसे की कोई वजह नहीं दी। तो अब शुरुआत करती हूँ। मैं तुम्हें एक सपने का तोहफ़ा देती हूँ। कोई ऐसा है जिससे मिलना चाहोगे? कोई भी? कोई भी। इग्वीन? इग्वीन? इग्वीन। रैंड? तुम्हें क्या हो गया? रैंड? रैंड क्या यह तुम हो? नहीं। उसे क्या हो गया? श्वेत मीनार में होना चाहिए था। मुझे पता है कि वह कहाँ है। मुझे बताओ। रहम करके बताओ, लैनफियर। मेरी परवाह की है, तो बस रहम करके बता दो कि वह कहाँ है। मुझे बताओ! इश्माएल के कब्ज़े में। मैंने कहा था वह उन्हें ढूँढ़ लेगा। मैं कुछ भी करूँगा। रैंड? ख़ुद को संभालो। मैं पागल हो रही हूँ। चलो भी। ख़ुद को संभालो। उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। मैं तुम्हें सुन नहीं पा रही। कोई है? कोई है? उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। हे दिव्यज्योति। पता है हम कहाँ हैं? जिसे वह हथियार समझती है। नहीं, हम जोगन नहीं हैं। ज़रा बता सकती हो कि हम कहाँ हैं? तुम्हारा नाम क्या है? मैं इग्वीन हूँ। उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। जहाज़ के कप्तान से बात की है। वह तुम्हें मीनार ले जाएगा। जोखिम नहीं ले सकते। लियांड्रिन सेडाई के बारे में बताओ। आप बता देना। मैं इग्वीन के बिना नहीं जाऊँगी। बचाने की पूरी कोशिश करेंगे। मैं नहीं जाऊँगी। और हम दोनों को कम आँका है। न्यानेव या मैं यहाँ से नहीं जाएँगे। उसे यहाँ रखो। तो हमें इसे खोलने का तरीका ढूँढ़ना होगा। मेरे साथ कुछ हुआ है तुम्हें बहुत पहले बता देना चाहिए था मैं तंग तो नहीं कर रहा? सोचा कि आपके लिए कुछ खाने को ले आऊँ। रैंड चला गया? उसके लिए भी बनाया। वह आज शाम बाहर रहेगा और मुझे भूख नहीं है। बस छोटा सा टुकड़ा है। देखिए। एक बेहद ख़ास गाय के मक्खन से बने हैं। ज़ाहिर है, यह सच नहीं था। तो यकीनन अब तक मर चुकी होगी। मैं बस दोनों तरफ़ मक्खन लगाता था। इसे यहीं रख दो। मैं तंग देने के लिए माफ़ी चाहूँगा। आपने सही कहा था। हमेशा की तरह। कोशिश करके देख ली। बहन, मैं सोई नहीं हूँ। कि हम उल्लू कैसे बन गए। मेरा बेटा तुम्हारी पूजा करता है। जैसा मैं करती थी। जैसे पिताजी चुप। उन्होंने तुम्हें याद किया था। पर वह बारबार तुम्हें ही याद करते रहे। और बस तुमसे मिलना चाहते थे। तुम्हें पता था। आख़िरी समय में उनका हाथ नहीं पकड़ पाई? पर उन्हें चाहती थी। हमेशा से उनसे प्यार करती थी। ऐसी क्या आफ़त आ गई थी, मोइराने? इस घर और इस शहर से चली जाओ। उतना ही मेरा है जितना कि तुम्हारा। मेरी कृपा से यहाँ हैं। अच्छा गुण नहीं है, मोइराने। एक भी नहीं। तुम पूरी तरह से माँ पर गई हो। प्यारी सिउआन। मेरे साथ कुछ हुआ है रुको! तुम कौन हो? गति धीमी करो। ठहरो! ठहरो! ठहरो! लैन। एकांत दो। माता। क्या हुआ? क्या बात है? मोइराने को लेकर है। जानता था तुम वापस आओगे। तुम्हें मुझे सिखाना होगा। जिनसे तुम आइ सेडाई से लड़े थे। बारबार अभ्यास किया। क्यों सोचते हो कि मैं यूँ ही बता दूँगा? क्योंकि तुम अपनी छाप छोड़ना चाहते हो। दुनिया को बचाओगे, या उसे बिखेरोगे। अपनी छाप छोड़ सकते हो। स्रोत को गले लगाओ। कम से कम इतना तो कर लेते होगे? उसे जकड़ लो। उसके आगे घुटने मत टेको, लड़के। इसी तरह। उसे अपना बनाओ। अब न दिखावा, न ही छिपनाछिपाना। अगर शक्ति चाहिए, तो उसे लो। हाँ। ज़्यादा ले ली तो संभाल नहीं पाओगे। हाँ। ज़्यादा होने से पहले छोड़ देना। रुक जाओ! रुको! इतना वक़्त नहीं है। किसके लिए? लड़ने के लिए इसका इस्तेमाल सीखने के लिए। इतनी शक्ति के साथ किसी से भी लड़ सकते हो। सब्र रखने के लिए बहुतबहुत शुक्रिया। सारा पैसा देना आसान बात रही होगी। हमें दोनों पासों में चार चाहिए, ठीक? मेज़ के बीचोबीच रख दीजिए। चलिए। पैसे डालिए, हाँ। प्लीज़। अच्छा, बहुत ख़ूब। क्या बात है। कोई और? शुक्रिया। पासे फेंक रहे हैं, हाँ? मैट? जल्दी! तुम सियारहीन में क्या कर रहे हो? और तुम्हारे बाल कहाँ गए? यार, बड़े भद्दे लग रहे हो। बाकी सब कहाँ हैं? क्या वे यहाँ हैं? पेरिन कहाँ है? इग्वीन? मैं मैट, बड़ी लंबी कहानी है। वह तो अच्छी चीज़ है। मेरे पास वक़्त ही वक़्त है। मेरी बाज़ी को बिगाड़ने के लिए। कभी ध्यान मत करना। आगे बढ़ो, पर बस थोड़ी देर। कोई ताला नहीं है। कोई जोड़ नहीं है। मैंने आज तक ऐसा कुछ नहीं देखा। यह एक तिलिस्मी द्वार है? कसौटी की तरह। एक मिनट के लिए दो। तुमने नहीं बताया कि ये कहाँ से मिले। पहले, केवल अफ़वाहें थीं। गुलाम बनाने की फुसफुसाहट। इन दावों की पुष्टि करने के लिए भेजा। ख़तरे को कितना कम आँका था। हुकूमत में लाना चाहते हैं। दो मारी गईं, अपनेअपने रक्षकों के साथ। एक को क़ैद कर लिया गया। आइ सेडाई को क़ैद कर लिया? मामूली आइ सेडाई नहीं। नील संघ की दूत। तुम बालबाल बची थी। पर हमारी वफ़ादारी पर कोई शक़ नहीं था। एकदूसरे और हमारे मकसद की ओर। अपनी जान से इसकी कीमत चुकाई। तुम उसे उतार नहीं सकती। बिना असहनीय दर्द सहे उसे छू भी नहीं सकती। तुम यह जानती हो। जानना चाहोगी कि जंजीर किसने बनाई? किसी राक्षस ने। वह तुम्हारी श्वेत मीनार की बहन थी। आइ सेडाई के गुलाम नहीं होते। तुम एक शिष्या के तौर पर क्या करती थी? वे तुम्हारी शक्ति पर लगाम लगाना चाहती हैं। करतब करके सबका मनोरंजन करो। जिसके लिए तुम पैदा हुई। कोई औरत शक्तिशाली नहीं हो सकती। अरे, इग्वीन तुम कोई आम औरत नहीं हो। तुम एक जोगन हो, एक बहुत ताक़तवर जोगन। बताया गया होगा कि तुम कितनी ख़ास हो। मेरे साथ चलो। देखा? तो बेहतर महसूस होता है, है न? पेड़ को देखो, इग्वीन। पता है तुम्हें सुकून मिलता है। उसकी ओर हाथ बढ़ाओ। उसकी जड़ें खोजो। तुमने वे ढूँढ़ लीं। शाबाश। उसके तने में जाओ। उसके रस को बहते हुए महसूस करो। उसे अपने मन में और गर्म होने दो। इतना गर्म कर दो कि भाप निकलने लगे। अब उस भाप को आग में बदल दो। ऐसा ही महसूस होना चाहिए। हम ऐसी शक्ति के लिए बने हैं, इग्वीन। महसूस हो रहा है? हमारा नाता? यह लो। अपने लिए पानी डालो। तुम इसकी हक़दार हो। पानी डालो, इग्वीन। तो तुम चली जाना। लियांड्रिन के बारे में बताना होगा। और हम तीनों उन्हें बताएँगे। तुम्हारी कुछ जिम्मेदारियाँ हैं। तुम ऐनडोर की राजपुत्री हो। तो मैं राजपुत्री बन गई? सब कुछ जोखिम में क्यों डाल रही हो? वह मेरी सहेली है। और आज तक मेरी कोई सहेली नहीं थी। कि बाकी कहाँ हैं, या नहीं? कि मैंने निशाचर को हरा दिया तो मुझे बहुत अजीब लगता है मैं चला गया। उन्हें पीछे छोड़ गया। इग्वीन, पेरिन, न्यानेव, उन सबको। मैट, उन्हें लगता है मैं मर गया। मैंने सोचा इससे वह सलामत रहेंगे। मैंने सोचा पता नहीं, मुझे लगा सब मेरे बिना ही बेहतर रहेंगे। ज़्यादा सुरक्षित भी। नहीं। हम तुम्हारे बिना बेहतर नहीं हैं, रैंड। कसम से। हम तुम्हारे बिना भी अधूरे हैं, मैट। पर अब वह उसके कब्ज़े में है। इश्माएल के। इग्वीन फ़ाल्मे में क़ैद है। मुझे पता है कि वे चाहते हैं मैं वहाँ जाऊँ। पर अगर मैं नहीं गया तो उसके साथ क्या होगा? तो, हम चलते हैं। मुझे उससे पहले बस एक काम करना होगा। दरअसल, एक लड़की का दिल तोड़ना होगा। मैं एक घंटे में तुमसे फाटक पर मिलता हूँ। मैट मेरे साथ जाने की ज़रूरत नहीं है। सच में। हाँ, ज़रूरत है। और कौन तुम्हें घमंडी बनने से रोकेगा? पुनर्जीवित ड्रैगन। एक घंटे में। मैं पहुँच जाऊँगा। मिनी मिन मिन? मिन? तुम्हारे साथ कोई है? क्या मुझे जलना चाहिए? मिल? अंदर आ जाओ। तुम्हें किसने शराब के बदले पानी दे दिया? मैं केवल बढ़िया शराब ही पीती हूँ। और मैं तुम्हें इसी तरह याद रखूँगा। तुम्हें शराब अच्छी चाहिए। पता है मैं किससे टकराया? मेरे दोस्त से। जिसने बारे में तुम्हें बताया था। वह यहाँ है। तुम नहीं जा सकते। बताया भी नहीं कि मैं जा रहा हूँ। मैंने देखा। नहीं। मैं कह चुका हूँ, मुझे नहीं तुम रैंड को मार डालोगे। क्या? नहीं। नहीं। हाँ, उस खंजर से। सुनहरे मूठ पर माणिक वाली? नहीं। फ़ाल्मे। वह तुम्हें वहीं ले जा रहा है? नहीं। तुम रैंड को कैसे जानती हो? तुमने मुझे फँसाया। नहीं। हाँ? इसीलिए हम यहाँ आए। नहीं। उसकी वजह से? वह मेरा वह इरादा नहीं था, मुझे पता न था कब से? जबसे हम बाहर निकले? नहीं। हमारे मिलने से पहले से। मुझे माफ़ कर दो। मुझे मुझे सच में लगा कि तुम मेरी दोस्त हो। मैं हूँ भी। मैं हूँ। तभी यह बता रही हूँ। नहीं जानते इसकी क्या कीमत चुकानी होगी। तुम उसे मार डालोगे, मैट। अगर उसे चाहते हो, तो दूर रहो। नील संघ की अनाया सेडाई तक पहुँचाना है। वह उसे इसकी मंज़िल तक ले जाएँगी। जैसा आप कहें, हुकुम। मोइराने मौसी। बर्थेनेस, मुझे माफ़ करना। और उससे भी बदतर मौसी थी। मुझे याद है। तुम्हारे सैंडविच पहले और अब भी बेहद स्वादिष्ट हैं। तुम एक लाजवाब राजा बनोगे, बर्थेनेस। दरियादिल और दयालु। हमारे राजघराने का गौरव बनोगे। एमिर्लिन सीट यहाँ आई हैं और उन्होंने तुमसे मिलने का आदेश दिया है। नए राजा को बिठाया था। यह सभा तुम्हें थोड़ी तुच्छ लगे, बेटी। हमें इंतज़ार करना होगा। तो अकेले ही जाता हूँ। लैन! मुझे माफ़ कर दो। तुम नहीं जा सकते। न्यानेव, तुम मदद कर सकती हो? ज़्यादा ध्यान किया, वे जान जाएँगी। मैं उसे यूँ काबू में नहीं कर सकती। उस बारे में ज़्यादा मत सोचो। जैसे जब तुम्हारे पास कोई मरीज़ आता है। सोचती नहीं, मदद कर देती हो। मैं इतना नहीं करना चाहती थी, माफ़ करना। कोई बात नहीं। क्या महसूस कर रही हो? इसे उपचार चाहिए। इसका उपचार हो सकता है। यह उसी तरह पूरा होगा। इसे तोड़ा नहीं जा सकता। कि उनकी जोगनों ने हमें ढूँढ़ किया। माफ़ करना, मैं ऐसा नहीं जो मैं कहूँ, वही करना। अपनी पहचान का खुलासा मत करना। ढूँढ़ने आए हैं, वह मैं हूँ। रायमा सेडाई, नहीं। हमारी बहनों को आज़ाद करना। वादा करोगी, विदुषी? मशाल के पास मेरी मुद्रिका ले जाओगी? तुम ऐसा नहीं कर सकती। तुम पर भरोसा कर सकती हूँ? बहन? हाँ। पानी डालो, इग्वीन। तुम्हें प्यास नहीं लगी? पानी डालो, इग्वीन। पानी डालो। पानी डालो। हमें मदद करनी चाहिए। ऐसे इग्वीन को नहीं बचा पाएँगे। तुम्हारे लिए कुछ नहीं है, इग्वीन। न ही इस दरवाज़े और इन पत्थरों के बाहर। प्याले के अलावा कुछ नहीं। तीरंदाज़ो, तीर खींचो! करो। मैं नहीं कर सकता। उन्हें मुझे ले जाने मत देना। मुझे मारो! बसन! मेरा प्याला। तुम्हारी दुनिया इसी तक सीमित है। बस यहीं तक। नहीं। पानी डालो। तुम्हारी दुनिया इसी तक सीमित है, इग्वीन। मेरा प्याला। पानी डालो, इग्वीन। यह कभी हथियार नहीं बन पाएगा। तुम मुझे कभी चोट नहीं पहुँचा सकती। तुम मुझे कभी छोड़कर नहीं जा सकती। डालो। अच्छी बच्ची। रोओ मत। तुम मुझसे ज़्यादा समय तक अड़ी रही, बेटी। और मैं तो नील संघ की दूत थी। तुम्हें क्या मिला? पुरानी भाषा की एक भविष्यवाणी। लैनफियर। फिर हमारी दुनिया में आ गई। लैन पर भरोसा कर सकते हैं? लैनफियर कल्पनामंडल पर महारत के लिए मशहूर थी। स्वप्न लोक। आख़िरकार। मैं फ़िदाबक्ष से प्यार करने का नाटक करूँ? यह जानने का इकलौता मौका है कि वह क्या चाहता है। मैट को चोट नहीं आने दूँगी। तुम्हारे श्राप से मुक्ति दिलाऊँ? उसे सियारहीन लेकर आओ। तुम्हारा बेटा मर रहा है, अपनी बहनों को दगा दिया, और उस औरत को सफ़ाई दे रही हो जिसे तुमने अगवा किया। काल संघ सच में है। कुछ करो! नहीं कर सकती। इग्वीन कहाँ है? पश्चिमी तट पर हमला हुआ है। मीनार ने बहनों को जाँच के लिए भेजा है। जहाज़ों के लापता होने की जाँच करने पश्चिम जाना पड़ेगा। तुम कौन हो? रायमा, पीतांबर संघ से। अंदाज़ा भी है कि सैंचन ध्यान लगाने वाली का क्या हश्र करते हैं? इसे बाँधो। इसे काबू करना होगा। तुमने कैसे... चोट नहीं पहुँचा सकती। योगनारी को पहुँचने वाला दर्द उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। मौत तक। पहली सीख। दूसरी सीख। जंजीर को हटा नहीं सकते। तुम तो कतई नहीं। मैं रेना हूँ। तुम्हारा नाम? पता है, कई योगनारी इससे सहमत नहीं होतीं... पर मैं योगनारी और जोगन के बीच दोस्ती बनाने में यकीन रखती हूँ। तुम्हारा नाम क्या है? जब तक बताती नहीं तब तक तुम्हें दर्द दूँगी, तो बेहतर होगा कि मुझे बता दो। इग्वीन। इग्वीन। ठीकठाक नाम है। मुझे तुम्हें इस नाम को न रखने देने की कोई वजह नहीं दिखती। यह क्या जगह है? तुम्हारा घर। आराम करो, इग्वीन। जल्द तुम्हारा प्रशिक्षण शुरू होगा। द व्हील ऑफ़ टाइम तो? क्या तुम चिल्लाकर अपनी जान की भीख माँगोगे? रिझाने की कोशिश करोगे? तुम जानते थे यह पल आने वाला है, तो क्या चाल है? क्या चाहती हो, लैनफियर? अब सेलिन नहीं बुलाओगे? तुम्हें तो सबसे ज़्यादा चुने गए नाम की अहमियत पता होनी चाहिए, लुईस थेरिन। यकीन नहीं होता तुम पर भरोसा किया। मुझ पर भरोसा क्यों नहीं कर सकते? मैं पिछले कुछ महीनों से तुम्हारी हिफ़ाज़त करती आई। इश्माएल को तुम्हारे सपनों से दूर रखा। मुझे विश्वास नहीं होता। तुमने पिछले जन्म में भी यही किया था। सोचते हो लोगों को दूर रखना तारीफ़ की बात है? "प्रियजनों की रक्षा करना?" मेरे बारे में कुछ नहीं जानती। तुम्हारे दोस्त कहाँ हैं, रैंड? पेरिन, मैट, न्यानेव... इग्वीन? उन सबको बताया कि तुम मर गए। क्या इससे उनकी हिफ़ाज़त होगी? इससे इश्माएल का उन तक पहुँचना और आसान हो जाएगा। अब उन्हें बुराई की ओर कर देगा, ताकि तुम्हें काबू कर सके। वे पक्ष नहीं बदलेंगे। मुझे भी एक समय पर यही लगा था। और तुम्हें किस पर भरोसा है? मोइराने पर? वह आइ सेडाई जिसने तुमसे मिलने के बाद से बस तुम्हें छला है और लगाम कसी है? तुम्हें लगता है यह इत्तेफ़ाक है कि तुम सियारहीन आए, ऐसी एक जगह जहाँ पर आज भी उसकी साख है? यह इत्तेफ़ाक है कि लोगैन वहाँ है? वह तुम्हें शुरुआत से ही अपने इशारों पर नचा रही थी। पता है क्या? अगर चाहती हो कि मैं तुम पर भरोसा करूँ, तो उसे कमाना पड़ेगा। मुझे बताओ कि इश्माएल कहाँ है। बताओ कि उसका क्या इरादा है। अरे वाह, ज़रा देखो। अभी तुम्हारे अंदर थोड़ा सा लुईस बचा है। पर अगर सच में मेरे साथ काम करना चाहते हो, तो मेरी एक शर्त है। उसने क्या कहा? मुझे जाना है। कहाँ? उसने बताया कि कहाँ? नहीं। तुमसे दूर। उसकी यही शर्त थी। उसने दोबारा हमें साथ देखा, तुम्हें मार डालेगी। लोगैन। तुम उसे सियारहीन लाई, है न? ताकि मैं यहाँ आऊँ। हाँ, बेशक। श्वेत मीनार से दूर, जहाँ तुम उससे कभी न मिल पाते, जहाँ वह तुम्हें कभी न सिखा पाता। पहले ही बहुत देर तक रुक गया। वह एक फ़िदाबक्ष है, रैंड। उसकी बात मत सुनो। सियारहीन। अब समझा कि तुम यहाँ क्यों आना चाहती थी। मैट। रुको, मैट। मेरे ख़्याल से यह एक भूल है। हमें जाना चाहिए। तुम्हें चिंता है कि मुझ पर किसी और मधुबाला का जादू चल जाएगा। वह तुम्हारे जितनी दिलचस्प नहीं होगी। उससे फ़र्क नहीं पड़ता। चलो। कहाँ जा रहे हो? चलो, मिन। चलो भी! तुम चलना बंद करोगी? वे हमें सुन लेंगे। मैं चल नहीं रही। छानबीन कर रही हूँ। हमें किसी अनजान ने अटारी में बंद किया है। रायमा सेडाई, जो रक्षा कर रही हैं। हमें आइ सेडाई पर भरोसा करना चाहिए? हम इस स्थिति में मेरी वजह से नहीं फँसे। मैंने लियांड्रिन सेडाई से बात तक नहीं की थी। तुम ही थी जिसने... मुझे पता है मैंने क्या किया, राजकुमारी, इसीलिए मैं यह पक्का करूँगी कि आइ सेडाई और उसका रक्षक नहीं... फल बाज़ार से तुम दोनों की बहस सुन सकता हूँ। कोई बात नहीं, बसन। वे अभी के लिए जा चुके हैं। इसे भाषण देने की आदत है। एल्डरबेरी और अस्ट्रैगैलस। यह टियर में बहुत उगता है और बचपन में मेरा पसंदीदा शक्तिवर्धक पेय था। वह कमरबंद। तुम एक विदुषी हो। हाँ। तो जानती हो कि यह पेय मन शांत करता है। उम्मीद है कि हम सोचसमझकर बातचीत कर सकते हैं, विदुषी, कि दो नौजवान लडकियाँ श्वेत मीनार से क्यों भागीं? मुझ पर भरोसा कर सकती हो। आइ सेडाई बहन संघ का आश्रय इसका आश्वासन देता है। यह बात लियांड्रिन से कहो। लियांड्रिन सेडाई? वह इसका हिस्सा कैसे है? वह निशाचर की दास है। वही हमें यहाँ लेकर आई थी और उसी ने हमें सैंचन के हवाले किया। उसने तीन वचन तोड़े? हर एक वचन। पर इसका मतलब है... काल संघ। यह सच नहीं हो सकता। अगर तुम्हारी बात सच हुई... तो हमारी सारी बहनें गंभीर ख़तरे में हैं। माफ़ करना कि इतनी देर छोड़कर गई। पहला वाला जाने दूँगी। यह फिर से किया, तो खाल उधेड़कर तुम्हारे बेटे को खिला दूँगी। तुमने कैसे... मैं तुम्हारे सपनों में गई। ज़्यादातर अपने मनोरंजन के लिए। तुम्हारे काफ़ी दिलचस्प शौक हैं। मोहतरमा लैनफियर, इश्माएल ने बताया आप आज़ाद हैं, पर... बताओ, तुम इश्माएल के लिए क्यों काम करती हो? मर्दों से नफ़रत करती हो। हालाँकि, एक मर्द को छोड़कर। रहम करो। इसका नाम क्या है? एलुड्रैन। मर्द हमें चोट पहुँचाते हैं... हमें धोखा देते हैं... और फिर भी हम उन्हें चाहते हैं। तुम इसे ज़िंदा रखने के लिए वे वचन लिए, पर यह कोई ज़िंदगी नहीं है। मुझे पता है। यह तुम्हें पीछे रख रहा है। उस लड़की से आख़िरी कड़ी, जो तुम हुआ करती थी। जिसे पीटा गया और भूखा रखा गया, जिस पर सयानी होने से पहले ब्याह करने का ज़ोर डाला गया। मुझे पता है। और इसलिए मैं यहाँ वह करने आई जो तुम नहीं कर पाओगी। ऐसी तोहफ़ा जो एक औरत ही दूसरी औरत को दे सकती है। नहीं। नहीं। तुमने निशाचर की सेवक बनने का वचन लिया था, इश्माएल का नहीं। उन्हें वापस नहीं ले सकती। यह नामुमकिन है। पर अंधेरे से गुज़रने के कई रास्ते होते हैं। अगर हम अपनी दौलत को जोगन की संख्या में गिनें, तो मेरे पास तुरक से ज़्यादा होगी, है न? तुम लोग मेरे अमानुष ख़ादिम से मिले? हमारे लिए गाना गाओ, माली। इन्हें दिखाओ। तरुगायन ऐसे नहीं... गाओ! हमारे लिए। मुझे इसे तोहफ़े में तुरक को देना चाहिए। कल्पना कर सकते हो? चलो फ़ैसला करें। मैं उसे यह तोहफ़े में कैसे दूँ? क्या पता चला? तुरक का एक अनोखी वस्तुओं का कमरा है। बिगुल वहाँ है। वहाँ बहुत कम पहरा है। ये सैंचन अपने तथाकथित गौरव से इतने बँधे हुए हैं, कि उन्हें उसके चोरी होने का डर तक नहीं है। पर इग्वीन अल'वेर का क्या? बाहरी इलाके में एक जगह है... महल परिसर की बाहरी सीमा पर एक जगह है जहाँ जोगनों को रखा जाता है। वहाँ बिगुल से ज़्यादा पहरेदार तैनात हैं। बिगुल ज़्यादा मायने रखता है, सर्जक। हमें... हम उस तक पहुँचने का रास्ता ढूँढ लेंगे। लोयाल... वह जगह केनेल्स कहलाती है। वह बाहर से जितनी कोमल दिखती है, अंदर से उतनी ही सख्त है। अगर कोई उस जगह में ज़िंदा बच सकती है, तो वह। इग्वीन। एक जोगन किसी ऐसी चीज़ को छू नहीं पाती जिसे वह हथियार समझती है। तब तक नहीं जब तक वह जंजीर पहने रहेगी। तुम यह जंजीर अपनी पूरी ज़िंदगी पहनोगी, चाहे ज़िंदगी कितनी भी लंबी हो। यह यकीनन मुश्किल होगा, यह सोचकर बड़ा होना कि तुम एक इंसान हो, पर अंत में यह पता चलना कि तुम बस एक जोगन हो। तुम अपनी असली पहचान से लड़ नहीं सकती, इग्वीन। अब... मुझे प्याले में पानी दो। जब तक तुम यह आसान सा काम नहीं कर लेती, हम अभ्यास जारी रखेंगे। तुम्हें उस सुराही को देखकर मानना होगा कि वह मुझ पर नहीं मार सकती, यह कि मुझे कभी चोट नहीं पहुँचाओगी। तब ही तुम उसे छू पाओगी। तुम मज़बूत हो... और हिम्मत वाली हो। जंजीर में तुम्हारी ताक़त महसूस हो रही है। सबसे मज़बूत जोगन को तोड़ना सबसे मुश्किल होता है। मैं कल वापस आऊँगी। अच्छे से आराम कर लो, इग्वीन। तुम्हारा हुनर तुम्हें एक पैगंबर बना सकता था, तुम्हारे सपनों से भी बेतहाशा अमीर। उसके बजाय तुम मक्खियों और पियक्कड़ों के बीच सो रही हो? हुक्म के मुताबिक मैट को यहाँ ले आई। अपना वादा निभा दिया। अब चाहती हो कि चुटकियों में तुम्हारा श्राप मिटा दूँ? इसी को सौदा कहते हैं। ड्रैगन यहाँ सियारहीन में है। रैंड अल'थॉर। उससे मिल चुकी हो। अगर आज़ाद होना चाहती हो, तो पक्का करो कि मैट उसके साथ यहाँ से जाए। तुम जानते हो मैंने क्या देखा। मैट और रैंड की वह झलकी। तुमने कैसे देखा... यह आखिरी काम कर दो और मैं वादा करता हूँ, श्राप से मुक्त कर दूँगा। और अगर मैंने न किया तो? यह भी रुकने के लिए ठीक ही जगह है। चाय की तलब लगी है। यह फ़िदाबक्षों का मंदिर है। दिलचस्प जगह चुनी। आश्रय आश्रय होता है। मुझे मीनार लौटने के लिए एमिर्लिन की इजाज़त चाहिए होगी। मोइराने का निष्कासन मुझ पर लागू है, जब तक वह मीनार अभिलेखों से हटा न दिया जाए। एमिर्लिन अभी कुछ और दिनों तक वापस नहीं लौटेंगी। वह केमलिन के दौरे से लौट रही हैं। फ़िदाबक्ष। क्या उनके पास ऐसी शक्तियाँ थीं जो आइ सेडाई ने खो दीं? ऐसे कवच जो यह युग भूल गया? वे निशाचर की सेना के सेनापति हुआ करते थे। उन्होंने ऐसे सितम किए जो हमारी आइ सेडाई कभी नहीं करेंगी। हम जो करने को तैयार हैं, वह उन हालातों पर निर्भर करता है जिनका सामना कर रहे हैं। बस करो। यूँ चिढ़ाना बंद करो। दोस्तों को सोते हुए छोड़कर जाना बेअदबी होती है। उनके खिलाफ़ अपना हथियार उठाना तो और भी बड़ी बेअदबी है। मैं लड़ना नहीं चाहता। ठुकराए जाना लगभग एक नया अनुभव है। यह पूछने के लिए मुझे माफ़ करना, पर... तुम कहाँ जा रहे हो, भाई? वह मेरा ज़ाती मामला है। "लहू से लहू पैदा होता है। लहू लहू को पुकारता है। लहू है, लहू था और लहू सदा रहेगा।" सवाल का जवाब दो, लैन। रहम करके। तुम्हें वाकई लगता है... कुछ यकीन से नहीं कह सकते। क्योंकि तुमने हमें कुछ नहीं बताया है। तुम हमारी और अलन्ना की जान जोखिम में डाल रहे हो, क्यों? हमने हमेशा तुम्हारा साथ दिया, पर अगर तुम लैनफियर के वफ़ादार निशाचर के दास हो, तो तुम इस जगह से नहीं जाओगे। मैं निशाचर से लड़ा था। रास्ते से हटो। एमिर्लिन ने तुम्हें टार वैलॉन से निष्कासित नहीं किया था। तुम जानते हो। तुम चाहते थे कि मैं तुम्हें उनका ठिकाना बताऊँ। क्यों? मुझे उन्हें ढूँढ़ना है। तुम्हें सिउआन सांचे से क्या चाहिए? यह मोइराने को लेकर है। तुम हमें सच तो बताकर रहोगे, अ'लैन मैनड्रैगोरैन। अगर न बताया तो हम तुम्हें यहीं मार देंगे। हमें पुनर्जीवित ड्रैगन मिला। तुम उन सबको मार डालोगे। आगे जाकर तुम्हारा यही हश्र होगा। यह जानते हो, है न? ध्यान करने वाले पुरुष आख़िरकार पागल हो जाते हैं और उन सबको मार देते हैं जिन्हें चाहते हैं। इशी, जान, यह नहीं चाहता कि तुम यहाँ रहो, तो जाओ। मैंने कहा था कि उससे तुम्हारी रक्षा करूँगी। स्वप्न लोक में सावधान रहना, रैंड। यहाँ मर भी सकते हो। और तुम दुनिया भी देख सकते हो, उसके असली रूप में। जिसे चाहो उसे देख सकते हो। उससे बात भी कर सकते हो, ऐसे लगेगा मानो कि तुम दोनों जाग रहे हो। मेरे झूठ के बारे में जो कहा था, मैंने उस बारे में सोचा, और तुम सही थे। मैंने तुम्हें भरोसे की कोई वजह नहीं दी। तो अब शुरुआत करती हूँ। मैं तुम्हें एक सपने का तोहफ़ा देती हूँ। कोई ऐसा है जिससे मिलना चाहोगे? कोई भी? कोई भी। इग्वीन? इग्वीन? इग्वीन। रैंड? तुम्हें क्या हो गया? रैंड? रैंड... क्या यह तुम हो? नहीं। उसे क्या हो गया? वह कहाँ है? उसे तो श्वेत मीनार में होना चाहिए था। मुझे पता है कि वह कहाँ है। मुझे बताओ। रहम करके बताओ, लैनफियर। सेलिन, अगर तुमने कभी भी मेरी परवाह की है, तो बस... रहम करके बता दो कि वह कहाँ है। मुझे बताओ! इश्माएल के कब्ज़े में। मैंने कहा था वह उन्हें ढूँढ़ लेगा। मैं कुछ भी करूँगा। रैंड? ख़ुद को संभालो। मैं पागल हो रही हूँ। चलो भी। ख़ुद को संभालो। योगनारी को पहुँचने वाला दर्द उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। मैं तुम्हें सुन नहीं पा रही। कोई है? कोई है? योगनारी को पहुँचने वाला दर्द उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। हे दिव्यज्योति। पता है हम कहाँ हैं? एक जोगन किसी ऐसी चीज़ को छू नहीं पाती जिसे वह हथियार समझती है। नहीं, हम जोगन नहीं हैं। ज़रा बता सकती हो कि हम कहाँ हैं? तुम्हारा नाम क्या है? मैं इग्वीन हूँ। योगनारी को पहुँचने वाला दर्द उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। लड़कियो, मैंने एक भरोसेमंद जहाज़ के कप्तान से बात की है। वह तुम्हें मीनार ले जाएगा। ऐसी ख़बर को पत्र द्वारा भेजने का जोखिम नहीं ले सकते। ख़ुद जाकर एमिर्लिन सीट को लियांड्रिन सेडाई के बारे में बताओ। आप बता देना। मैं इग्वीन के बिना नहीं जाऊँगी। बसन और मैं यहाँ रहकर तुम्हारी सहेली को बचाने की पूरी कोशिश करेंगे। मैं नहीं जाऊँगी। रायमा सेडाई, मैं माफ़ी चाहूँगी, पर शायद आपने इस परिस्थिति और हम दोनों को कम आँका है। इग्वीन के हमारे साथ होने तक न्यानेव या मैं यहाँ से नहीं जाएँगे। उसे यहाँ रखो। अगर अपनी सहेली को बचाना है, तो हमें इसे खोलने का तरीका ढूँढ़ना होगा। मेरे साथ कुछ हुआ है... कुछ ऐसा जिसके बारे में मुझे तुम्हें बहुत पहले बता देना चाहिए था... ...मुझे निषेध कर दिया गया है मैं तंग तो नहीं कर रहा? सोचा कि आपके लिए कुछ खाने को ले आऊँ। रैंड चला गया? उसके लिए भी बनाया। वह आज शाम बाहर रहेगा और मुझे भूख नहीं है। बस छोटा सा टुकड़ा है। देखिए। आपको याद नहीं, जब मैं छोटा था तो आप मेरे सैंडविच की कितनी तारीफ़ करती थीं और मैं कहता था कि वे एक बेहद ख़ास गाय के मक्खन से बने हैं। ज़ाहिर है, यह सच नहीं था। किस्मत अच्छी थी, क्योंकि वह गाय तो यकीनन अब तक मर चुकी होगी। मैं बस दोनों तरफ़ मक्खन लगाता था। इसे यहीं रख दो। बेशक, मो मौसी, मैं तंग देने के लिए माफ़ी चाहूँगा। आपने सही कहा था। हमेशा की तरह। कोशिश करके देख ली। बहन, मैं सोई नहीं हूँ। मैं कभीकभी सोचती हूँ कि हम उल्लू कैसे बन गए। मेरा बेटा तुम्हारी पूजा करता है। जैसा मैं करती थी। जैसे पिताजी... चुप। उन्होंने तुम्हें याद किया था। वह मरने की कगार पर थे और मैंने उनका हाथ पकड़ा था, पर वह बारबार तुम्हें ही याद करते रहे। हमने श्वेत मीनार में संदेश भेजा और तुम जानती थी वह मरने वाले थे और बस तुमसे मिलना चाहते थे। तुम्हें पता था। ऐसी क्या आफ़त आ गई थी कि तुम घर आकर अपने पिता के आख़िरी समय में उनका हाथ नहीं पकड़ पाई? तुम मेरी परवाह नहीं करती, पर उन्हें चाहती थी। हमेशा से उनसे प्यार करती थी। ऐसी क्या आफ़त आ गई थी, मोइराने? मैं चाहती हूँ कि तुम कल तक इस घर और इस शहर से चली जाओ। मैं बड़ी बहन हूँ, दामोड्रेड घराने की वारिस हूँ और यह घर उतना ही मेरा है जितना कि तुम्हारा। तुम और तुम्हारा बेटा मेरी कृपा से यहाँ हैं। तुम में उनका एक भी अच्छा गुण नहीं है, मोइराने। एक भी नहीं। तुम पूरी तरह से माँ पर गई हो। प्यारी सिउआन। मेरे साथ कुछ हुआ है... रुको! तुम कौन हो? गति धीमी करो। ठहरो! ठहरो! ठहरो! लैन। एकांत दो। माता। क्या हुआ? क्या बात है? मोइराने को लेकर है। जानता था तुम वापस आओगे। तुम्हें मुझे सिखाना होगा। युद्ध के वे सारे कवच जिनसे तुम आइ सेडाई से लड़े थे। मैंने वे कवच बुनने में सालों की मेहनत की, बारबार अभ्यास किया। क्यों सोचते हो कि मैं यूँ ही बता दूँगा? क्योंकि तुम अपनी छाप छोड़ना चाहते हो। तुमने सोचा था कि तुम दुनिया को बचाओगे, या उसे बिखेरोगे। पर फिर आइ सेडाई ने तुम्हें मिटा दिया, और अब तुम केवल मेरे ज़रिए अपनी छाप छोड़ सकते हो। स्रोत को गले लगाओ। कम से कम इतना तो कर लेते होगे? उसे जकड़ लो। उसके आगे घुटने मत टेको, लड़के। इसी तरह। उसे अपना बनाओ। अब न दिखावा, न ही छिपनाछिपाना। अगर शक्ति चाहिए, तो उसे लो। हाँ। ध्यान से, लड़के, ज़्यादा ले ली तो संभाल नहीं पाओगे। हाँ। ज़्यादा होने से पहले छोड़ देना। रुक जाओ! रुको! इतना वक़्त नहीं है। किसके लिए? लड़ने के लिए इसका इस्तेमाल सीखने के लिए। इतनी शक्ति के साथ... तुम कुछ भी कर सकते हो, किसी से भी लड़ सकते हो। देवियो और सज्जनो, सब्र रखने के लिए बहुतबहुत शुक्रिया। मुझे नहीं लगता कि अपना सारा पैसा देना आसान बात रही होगी। तो इस बार, हमें दोनों पासों में चार चाहिए, ठीक? मतलब आठ। तो अगर आपको नहीं लगता कि दोनो में चार आएगा, तो अपने पैसों को मेज़ के बीचोबीच रख दीजिए। चलिए। पैसे डालिए, हाँ। प्लीज़। अच्छा, बहुत ख़ूब। क्या बात है। कोई और? शुक्रिया। तो, हम दो चार के लिए पासे फेंक रहे हैं, हाँ? मैट? जल्दी! तुम सियारहीन में क्या कर रहे हो? और तुम्हारे बाल कहाँ गए? यार, बड़े भद्दे लग रहे हो। बाकी सब कहाँ हैं? क्या वे यहाँ हैं? पेरिन कहाँ है? इग्वीन? मैं... मैट, बड़ी लंबी कहानी है। वह तो अच्छी चीज़ है। मेरे पास वक़्त ही वक़्त है। पहला जाम तुम पिलाओगे, मेरी बाज़ी को बिगाड़ने के लिए। उनकी कुछ जोगन जान जाती हैं जब कोई औरत ध्यान करती है, तो सावधान रहना और उनके करीब रहते कभी ध्यान मत करना। आगे बढ़ो, पर बस थोड़ी देर। कोई ताला नहीं है। कोई जोड़ नहीं है। मैंने आज तक ऐसा कुछ नहीं देखा। यह एक तिलिस्मी द्वार है? कसौटी की तरह। एक मिनट के लिए दो। तुमने नहीं बताया कि ये कहाँ से मिले। पहले, केवल अफ़वाहें थीं। अजीब जानवरों और ध्यान करने वालों को गुलाम बनाने की फुसफुसाहट। एमिर्लिन सीट ने हमें श्वेत मीनार से इन दावों की पुष्टि करने के लिए भेजा। फ़ाल्मे आने के बाद ही हमें एहसास हुआ कि हमने ख़तरे को कितना कम आँका था। ये लोग पूरी दुनिया को अपनी मल्लिका की हुकूमत में लाना चाहते हैं। दो मारी गईं, अपनेअपने रक्षकों के साथ। एक को क़ैद कर लिया गया। आइ सेडाई को क़ैद कर लिया? मामूली आइ सेडाई नहीं। नील संघ की दूत। तुम बालबाल बची थी। मेरी बहनें और मैं हमेशा सहमत नहीं थे, पर हमारी वफ़ादारी पर कोई शक़ नहीं था। एकदूसरे और हमारे मकसद की ओर। मेरे पास यह इसलिए है क्योंकि मेरी बहनों ने अपनी जान से इसकी कीमत चुकाई। तुम उसे उतार नहीं सकती। बिना असहनीय दर्द सहे उसे छू भी नहीं सकती। तुम यह जानती हो। जानना चाहोगी कि जंजीर किसने बनाई? किसी राक्षस ने। वह तुम्हारी श्वेत मीनार की बहन थी। आइ सेडाई के गुलाम नहीं होते। तुम एक शिष्या के तौर पर क्या करती थी? वे तुम्हारी शक्ति पर लगाम लगाना चाहती हैं। ताकि तुम ज़िंदगी भर करतब करके सबका मनोरंजन करो। हम सैंचन चाहते हैं कि तुम अपनी शक्ति का पूरा इस्तेमाल करो, जिसके लिए तुम पैदा हुई। गले में जंजीर डालकर कोई औरत शक्तिशाली नहीं हो सकती। अरे, इग्वीन... तुम कोई आम औरत नहीं हो। तुम एक जोगन हो, एक बहुत ताक़तवर जोगन। उम्मीद है तुम्हें श्वेत मीनार में बताया गया होगा कि तुम कितनी ख़ास हो। मेरे साथ चलो। देखा? जब हम पूरे होते हैं तो बेहतर महसूस होता है, है न? पेड़ को देखो, इग्वीन। पता है तुम्हें सुकून मिलता है। उसकी ओर हाथ बढ़ाओ। उसकी जड़ें खोजो। तुमने वे ढूँढ़ लीं। शाबाश। अब आगे बढ़ती रहो, जड़ों से होकर उसके तने में जाओ। उसकी शाखाओं से उसके रस को बहते हुए महसूस करो। उसे अपने मन में और गर्म होने दो। इतना गर्म कर दो कि भाप निकलने लगे। अब उस भाप को आग में बदल दो। ऐसा ही महसूस होना चाहिए। हम ऐसी शक्ति के लिए बने हैं, इग्वीन। महसूस हो रहा है? हमारा नाता? यह लो। अपने लिए पानी डालो। तुम इसकी हक़दार हो। पानी डालो, इग्वीन। जहाज़ के कप्तान के जाने से पहले इग्वीन न मिली, तो तुम चली जाना। रायमा सही थी। एमिर्लिन को लियांड्रिन के बारे में बताना होगा। और हम तीनों उन्हें बताएँगे। तुम्हारी कुछ जिम्मेदारियाँ हैं। तुम ऐनडोर की राजपुत्री हो। पीछा छुड़ाने का मौका मिला, तो मैं राजपुत्री बन गई? एक अजनबी के लिए सब कुछ जोखिम में क्यों डाल रही हो? वह मेरी सहेली है। और आज तक मेरी कोई सहेली नहीं थी। चलो भी, तुम मुझे बताओगे कि बाकी कहाँ हैं, या नहीं? पिछले साल, जब मुझे लगा कि मैंने निशाचर को हरा दिया... माफ़ करना। हाँ, जब तुम ऐसी बातें कहते हो, तो मुझे बहुत अजीब लगता है... मैं चला गया। उन्हें पीछे छोड़ गया। इग्वीन, पेरिन, न्यानेव, उन सबको। मैट, उन्हें लगता है मैं मर गया। मैंने सोचा इससे वह सलामत रहेंगे। मैंने सोचा... पता नहीं, मुझे लगा... सब मेरे बिना ही बेहतर रहेंगे। ज़्यादा सुरक्षित भी। नहीं। हम तुम्हारे बिना बेहतर नहीं हैं, रैंड। कसम से। हम तुम्हारे बिना भी अधूरे हैं, मैट। पर अब वह उसके कब्ज़े में है। इश्माएल के। इग्वीन फ़ाल्मे में क़ैद है। मुझे पता है कि वे चाहते हैं मैं वहाँ जाऊँ। पर अगर मैं नहीं गया... तो उसके साथ क्या होगा? तो, हम चलते हैं। मुझे उससे पहले बस एक काम करना होगा। दरअसल, एक लड़की का दिल तोड़ना होगा। मैं एक घंटे में तुमसे फाटक पर मिलता हूँ। मैट... मेरे साथ जाने की ज़रूरत नहीं है। सच में। हाँ, ज़रूरत है। और कौन तुम्हें घमंडी बनने से रोकेगा? पुनर्जीवित ड्रैगन। एक घंटे में। मैं पहुँच जाऊँगा। मिनी मिन मिन? मिन? तुम्हारे साथ कोई है? क्या मुझे जलना चाहिए? मिल? अंदर आ जाओ। तुम्हें किसने शराब के बदले पानी दे दिया? मैं केवल बढ़िया शराब ही पीती हूँ। और मैं तुम्हें इसी तरह याद रखूँगा। बाकी सब अच्छा हो या न हो, तुम्हें शराब अच्छी चाहिए। पता है मैं किससे टकराया? मेरे दोस्त से। जिसने बारे में तुम्हें बताया था। वह यहाँ है। तुम नहीं जा सकते। बताया भी नहीं कि मैं जा रहा हूँ। मैंने देखा। नहीं। मैं कह चुका हूँ, मुझे नहीं... तुम रैंड को मार डालोगे। क्या? नहीं। नहीं। हाँ, उस खंजर से। सुनहरे मूठ पर माणिक वाली? नहीं। फ़ाल्मे। वह तुम्हें वहीं ले जा रहा है? नहीं। तुम रैंड को कैसे जानती हो? तुमने मुझे फँसाया। नहीं। हाँ? इसीलिए हम यहाँ आए। नहीं। उसकी वजह से? वह... मेरा वह इरादा नहीं था, मुझे पता न था... कब से? जबसे हम बाहर निकले? नहीं। हमारे मिलने से पहले से। मुझे माफ़ कर दो। मुझे... मुझे सच में लगा कि तुम मेरी दोस्त हो। मैं हूँ भी। मैं हूँ। तभी यह बता रही हूँ। नहीं जानते इसकी क्या कीमत चुकानी होगी। तुम उसे मार डालोगे, मैट। अगर उसे चाहते हो, तो दूर रहो। जोनास, इस पत्र को नील संघ की अनाया सेडाई तक पहुँचाना है। वह उसे इसकी मंज़िल तक ले जाएँगी। जैसा आप कहें, हुकुम। मोइराने मौसी। बर्थेनेस, मुझे माफ़ करना। मैं एक बुरी मेहमान और उससे भी बदतर मौसी थी। मुझे याद है। तुम्हारे सैंडविच... पहले और अब भी बेहद स्वादिष्ट हैं। तुम एक लाजवाब राजा बनोगे, बर्थेनेस। दरियादिल और दयालु। हमारे राजघराने का गौरव बनोगे। एमिर्लिन सीट यहाँ आई हैं... सियारहीन में, चौदह आइ सेडाई के साथ और उन्होंने तुमसे मिलने का आदेश दिया है। आख़िरी बार जब एमिर्लिन सीट ने यहाँ सियारहीन में चौदह बहनों को मिलने के लिए बुलाया था, हमने स्वर्ण सिंहासन पर नए राजा को बिठाया था। यह सभा तुम्हें थोड़ी तुच्छ लगे, बेटी। हमें इंतज़ार करना होगा। तो अकेले ही जाता हूँ। लैन! मुझे माफ़ कर दो। तुम नहीं जा सकते। न्यानेव, तुम मदद कर सकती हो? हमें थोड़ी और शक्ति चाहिए, पर हममें से एक ने ज़्यादा ध्यान किया, वे जान जाएँगी। मैं उसे यूँ काबू में नहीं कर सकती। उस बारे में ज़्यादा मत सोचो। जैसे जब तुम्हारे पास कोई मरीज़ आता है। तुम उनकी मदद करने के बारे में सोचती नहीं, मदद कर देती हो। मैं इतना नहीं करना चाहती थी, माफ़ करना। कोई बात नहीं। क्या महसूस कर रही हो? इसे उपचार चाहिए। इसे किसी औरत को पहनाकर ही इसका उपचार हो सकता है। यह उसी तरह पूरा होगा। इसे तोड़ा नहीं जा सकता। सुनो, इसका मतलब है कि उनकी जोगनों ने हमें ढूँढ़ किया। माफ़ करना, मैं ऐसा नहीं... जो मैं कहूँ, वही करना। अपनी पहचान का खुलासा मत करना। वे ध्यान करने वाली को ढूँढ़ने आए हैं, वह मैं हूँ। रायमा सेडाई, नहीं। हमारी बहनों को आज़ाद करना। वादा करोगी, विदुषी? मशाल के पास मेरी मुद्रिका ले जाओगी? तुम ऐसा नहीं कर सकती। तुम पर भरोसा कर सकती हूँ? बहन? हाँ। पानी डालो, इग्वीन। तुम्हें प्यास नहीं लगी? पानी डालो, इग्वीन। पानी डालो। पानी डालो। हमें मदद करनी चाहिए। ऐसे इग्वीन को नहीं बचा पाएँगे। इस कोठरी के बाहर तुम्हारे लिए कुछ नहीं है, इग्वीन। न ही इस दरवाज़े और इन पत्थरों के बाहर। इस सुराही और मेरे खाली प्याले के अलावा कुछ नहीं। तीरंदाज़ो, तीर खींचो! करो। मैं नहीं कर सकता। उन्हें मुझे ले जाने मत देना। मुझे मारो! बसन! मेरा प्याला। तुम्हारी दुनिया इसी तक सीमित है। बस यहीं तक। नहीं। पानी डालो। तुम्हारी दुनिया इसी तक सीमित है, इग्वीन। मेरा प्याला। पानी डालो, इग्वीन। यह कभी हथियार नहीं बन पाएगा। तुम मुझे कभी चोट नहीं पहुँचा सकती। तुम मुझे कभी छोड़कर नहीं जा सकती। डालो। अच्छी बच्ची। रोओ मत। तुम मुझसे ज़्यादा समय तक अड़ी रही, बेटी। और मैं तो नील संघ की दूत थी। संवाद अनुवादक श्रुति शुक्ला रचनात्मक पर्यवेक्षक अशोक बक्षी
speech
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मैं अपनी ज़िंदगी की बैलेंसशीट बना रहा हूँ। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि क्लोजिंग बैलेंस पर आकर मैं बार बार क्यों गलती कर जाता हूँ। 'हानि' वाले कॉलम भरते हुए मेरे मन में आता है कि मैं अपने आप को गालियाँ बकूँ। कमीना, घटिया और अन्य अपशब्दों से अपने आप को संबोधित करूँ। मॉर्क्स के चित्र के सामने हाथ जोड़कर सिर निवा कर कहूँ, "सर्वोत्तम पुरुष, मुझे माफ़ कर दो। मुझे किस तरफ जाना था। मेरी मंज़िल क्या थी। मैं किसी तरफ चल पड़ा हूँ। अब तुम ही बताओ, क्या मेरे पास कोई और विकल्प नहीं रहा? क्या यही एकमात्र रास्ता बचा है?" पता नहीं, किस तरफ से बार बार एक आवाज़ आती है, 'आदमी के अंदर से उसकी जात नहीं जाती। संस्कार नहीं मरते।' अब मैं इस आवाज़ को क्या जवाब दूँ। यही कि मैंने तो कभी अपनी जाति के बारे में सोचा ही नहीं था। मेरा इस तरफ कभी ध्यान ही नहीं गया था। मेरे दोस्तों के घेरे में अपरकास्ट वाले भी थे और दलित भाई भी। मेरे लिए सभी साथी थे। मेरे अपने। पचास वर्ष की उम्र तक मैं वर्ग-चेतना, संघर्ष, बुर्जुआ, पैटी बुर्जुआ, सर्वहारा व्यवहार में उलझा रहा हूँ। अब मुझे वर्ण चेतना, दलित चेतना, चिंतन, दलित जातियाँ तंग करने लगी हैं। मैं यह बात मानता हूँ कि अंदरखाते मैं दूसरी जातियों को कुछ कुछ नफ़रत करने लगा हूँ। क्या यह रूप लाल का असर है जो मुझे नित्य समझाता रहता है, "ब्राह्मणों, क्षत्रियों, अरोड़ों, जट्टों ने हमारे साथ बहुत भेदभाव किया। बहुत ही ज्यादा। तू अपना पास्ट देख। भविष्य की ओर झाँक। गाँव में जाकर देख, हमारी वैल्यू कितनी है। हम आज भी उन लोगों के लिए चूहड़े-चमार हैं। मेरा एक कुलीग है। जसवंत। गोहीरां गाँव का। उनके गाँव का एक विलैतिया बीस सालों बाद गाँव आया था। उसने आते ही कोठी बनानी आरंभ कर दी। जसवंत ने उससे कहा, 'तेरे तीनों बेटों में से किसी ने आकर यहाँ नहीं रहना। यूँ ही व्यर्थ में चालीस-पचास लाख खर्च करने की क्या तुक है। कोई अस्पताल या कोई यादगार बना जा।' विलैतिये ने जसवंत की ओर घूर कर देखा और बोला, 'तेरी तो बातें उल्टी ही रहीं। गाँव में तो चूहड़े-चमार कोठियाँ बनाए जा रही हैं, हम गाँव के मालिक हैं। ज़मीन-जायदादों वाले।' देख ले, इन लोगों की नफ़रत की हद...।" मेरा बेटा सतीश मेरा गुरू बन जाता है, "यह कंप्यूटर का युग है जहाँ हर संबंध और हर आदमी की कीमत महज मुनाफ़ा है। जिसने इस बात को समझ लिया, वही कामयाब होगा। अब हमारा फ़ायदा मायावती जी के साथ जुड़ने में है। दूसरी बात, हमें अपनी जाति के बारे में और अपने लोगों के बारे में भी सचेत होने की ज़रूरत है। डैडी जी, बी प्रैक्टीकल। पंजाब में हमारी कितनी आबादी है, बताओ कभी हमारी जाति का सी.एम. बना। आप पहले अपने पास्ट को देखो, फिर भविष्य को जानना। आप अपने डिपार्टमेंट में बैलेंसशीट बनाने में माहिर हो, अब अपनी ज़िंदगी की बैलेंसशीट बनाकर देखो। कामरेडों के साथ जुड़कर क्या कमाया और क्या गँवाया।" सीबो कहती है, "मुझे तो अब समझ में आया है। अपने अपने ही होते हैं। कल मुझे सैर करते हुए सत्या मिली थी। वह कहती थी कि हम महीने में एक बार किट्टी पार्टी रखा करें जिसमें अपनी बिरादरी की ही औरतें शामिल हों।" भापा जी अपना ज्ञान झाड़ते हैं, "तूने कामरेड बनकर क्या कर लिया। अब बहुजन समाज पार्टी में आ जा। महिंदर मुझे कह रहा था कि प्यारे को मना लो। वह रिटायरमेंट पर बैठा है। हम उसे काउंसलर की सीट पर खड़ा कर देंगे। उसकी जीत निश्चित है। अपनी बिरादरी की वोटें तो लोहे जैसी पक्की है। अब तू सयाना बन। अपने मूल को पहचान। मुझे खुद अब समझ में आया है कि यहाँ आदमी का मूल्य उसकी जाति की बदौलत पड़ता है।" मेरे अंदर अपने मूल को जानने की जिज्ञासा पैदा हुई है। यह कभी बहुत ही तीव्र हो जाती है, कभी मद्धम पड़ जाती है। मैं उस समय परेशान होता हूँ जब मेरे अंदर बैठा कामरेड मेरे होंठों पर अपना खुरदरा हाथ रखकर चीखता है, "ओए मूर्ख, अक्ल कर। तू किस तरफ चल पड़ा। कोई ढंग का काम कर। इतना निराश नहीं होते। कोई भी पार्टी एक या दो व्यक्तियों की मिल्कियत नहीं हुआ करती। चल उठ, शेर बन जा। नहीं तो देख ले, सुरजन संधू जैसे लोग कहेंगे - कर दी न चमारों वाली बात।" इसकी कहे हुए पिछले वाक्य पर मैं परेशान हो जाता हूँ। जी करता है कि अपने अंदर बैठे कामरेड का गला घोंट दूँ। अभी तक मैं इसका गला नहीं घोंट पाया। लेकिन घोंटने की ख्वाहिश बरकरार है। मैं इसे मारकर सुखी हो सकता हूँ। इससे डरता भी हूँ कि कहीं यह ही मुझे न मार दे। अचानक मेरे सामने बाबा हरनाम सिंह कालासंघिया का चेहरा प्रगट होता है। बाबा हरनाम सिंह वल्द सुंदर सिंह, गाँव-कालासंघिया। देशभक्त। वह कहता है, "तू क्यों किसी की परवाह करता है? जो तेरे मन को अच्छा लगता है, वही कर। पार्टी की ज्यादा परवाह नहीं किया करते। मेरी तरफ देख, मुझे भी सोहन सिंह भकना और रूड़ सिंह चूहड़चक ने पार्टी में से निकाल दिया था। इस कारण कि मैंने पार्टी का हुक्म नहीं माना था। मेरी कुर्बानी देख, मैं पिंजरे में डाल दिया गया। मैंने सवा मन अनाज पीसा, चींटियों और सुंडियों वाला आटा खाया, गोरों की अंधी सख्ताई झेली। मैंने अपनी जवानी बर्बाद की। दोनों बेटे मर गए। पर मैंने हार नहीं मानी। तू अच्छे काम कर। समय तेरा साथ देगा। समझा, मेरी बात?" समझता तो मैं सब कुछ हूँ परंतु आत्मा और मन के बीच का द्वंद्व-युद्ध मेरा कोई वश नहीं चलने देता। ज़िंदगी में कुछ पूरी तरह मरता क्यों नहीं? मेरे मन पर ये विचार भारी होने लगे हैं। जब मैं अकेला होता हूँ, उस समय मैं बहुत ज्यादा सोचता हूँ। जैसे अब की मेरी अवस्था है। सतीश ने मुझसे कल पूछा था, "आपकी ज़िंदगी की बैलेंसशीट कहाँ तक पहुँची है?" अब मैंने एक और बैलेंसशीट बनानी आरंभ की है। इसबार एडजस्टमेंट अकाउंट का सहारा लेता हूँ। यहाँ मुझे छूट होती थी कि मैं जैसे चाहूँ, रकमों को इधर-उधर कर सकता था। मुझे पता होता था कि मुझे इसे कैसे फाइनल टच देना था। लेकिन मुझसे अपनी बैलेंसशीट बनाते हुए गड़बड़ हो गई है। 'लाभ' वाले हिस्से पर कामरेड भारी है। मैं अपने फायदे को लेकर कुछ अधिक ही सोच रहा हूँ। मुझे यह बैलेंसशीट भी अधूरी लगती है। मैं कागज दूर फेंक देता हूँ। दिमाग का नाड़ी तंत्र पीछे की ओर दौड़ता है। कभी आगे ही भागता जाता है। एक और बैलेंसशीट बनानी आरंभ करता हूँ। इस बार लिखता हूँ - हानि। कामरेड। लाभ। दलित। 'लाभ' वाले हिस्से में मुझसे बार बार दलित लिखा जाता है। मैं अकाउंटिंग विधि त्यागकर डैरीएटिव विधि का प्रयोग करता हूँ। सोचता हूँ कि मैं अपना ध्यान 'हानि' पर क्यों केंद्रित कर रहा हूँ। हानि पार्टी के संग जुड़ जाती है। क्या मेरे साथ भेदभाव सिर्फ़ मेरी जाति के कारण ही हुआ है। बहुत कुछ और है जिसकी तरफ मेरा ध्यान नहीं जाता। मुझे अपने कुलीग जसविंदर जिससे मैंने बैलेंसशीट बनानी सीखी थी, का कहा याद आतेा है, "बैलेंसशीट में कुछ फिगरें अपनी ओर से भी डालनी पड़ती हैं। इसे एडजस्टमेंट अकाउंट कहते हैं। इसके बग़ैर बैलेंसशीट नहीं बन सकती।" मुझे लगता है कि यही कुछ ज़िंदगी में भी घटित होता है। एक बार फिर मैं एडजस्टमेंट अकाउंट का सहारा लेता हूँ। शायद यहीं मेरे अंदर की नफ़रत विराट रूप धारण करने लगी है। 'वियाना कांड' के कारण पिछले दो दिनों से भिन्न भिन्न चैनलों से दलितों से संबंधित कई विशेष प्रोग्राम दिखाए जा रहे हैं। 'स्टार न्यूज़' ने दलितों के विषय में एक पुरानी रिकार्डिंग दिखाई थी। चंद्रभान प्रसाद ने बताया था, "मायावती द्वारा उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेना आज़ादी के बाद भारत के इतिहास की अहम घटना है। यह दलितों के लिखित इतिहास में दर्ज़ तीसरी अहम घटना है जब एक दलित को इतने ऊँचे ओहदे पर पहुँचने और अगुवाई करने का गर्व हासिल हुआ। पहली घटना यह थी कि संत रविदास ने तर्क के आधार पर बनारस के ब्राह्मणों को हरा दिया था। यह बात शास्त्रों में दर्ज़ है। दूसरी अहम घटना डॉ. अंबेडकर का भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने वाली कमेटी का चेयरमैन बनना था। इसी तरह जब मायावती भाजपा की मदद से मुख्यमंत्री बनी तो उसने दिखा दिया कि एक दलित भी लीडर की भूमिका निभा सकता है। इसने भारतीयों की अंतरात्मा को भी झिंझोड़ा। उसने आख़िर यह दर्शा दिया कि एक दलित पर पूरा भरोसा किया जा सकता है और एक दलित, दलितों और ग़ैर-दलितों दोनों की अगुवाई कर सकता है।" फिर टी.वी. स्क्रीन पर के.आर. नारायण की बहन के.आर. गोवरी का चेहरा प्रगट हुआ था। उन्होंने के.आर. नारायण के विषय में बताना आरंभ किया था, "हमारे भाईचारे का कोई व्यक्ति तो यहाँ तक पहुँचने के बारे में सोच भी नहीं सकता। वह बहुत पढ़ाकू था। अंग्रेजी सरकार के समय दलित विद्यार्थियों को वजीफा नहीं मिलता था। हम सख़्त मेहनत करके पढ़े। जब लोग मेरे भाई द्वारा भिन्न भिन्न पदों जैसे कि सफीर, केंद्रीय राज्य मंत्री, उप-राष्ट्रपति और राष्ट्रपति के पद हासिल करने के बारे में बात करते हैं तो ऐसा लगता है कि लोग सोचते हैं कि एक दलित होने के कारण ही शायद उन्हें कोई लाभ मिला और वे इन पदों तक पहुँचे, पर यह सच नहीं है। उन्होंने जो भी पद हासिल किया, वह अपनी योग्यता के बलबूते पर हासिल किया।" ...तभी रमन आया था। अपना होमवर्क करने। वह ज्यादा झुककर लिखता। मैं उसे पकड़कर सीधा बिठाता। वह पुनः पहली वाली स्थिति में बैठ जाता। उसे अंग्रेजी के 'जी' अक्षर को घुमाव देना नहीं आता था। मैं समझाता। वह फिर गलती कर जाता। पाँच-सात बार ऐसा हुआ। फिर उसे घुमाव देना आ गया। करीब आधे घंटे बाद वह मेरी टाँग पर सिर रखकर लेट गया। थक गया होगा। मैंने उसकी ओर से फुर्सत पाकर सामने रैक में पड़ी काशीराम की किताबों, कैसेटों, वीडियों कैसेटों जो कि पिछले महीने सतीश दिल्ली से खरीदकर लाया था, की ओर ऊपरी नज़र दौड़ाई। लेनिन की मूर्ति की ओर श्रद्धा भाव से देखा। मैं रुक-रुक कर वॉल क्लॉक की ओर देखता हूँ। सीबो अभी तक लौटी नहीं। मैंने उसे बाहर जाने से रोका था। पिछले दो दिनों से हमारी ओर के हिस्से में कर्फ्यू लगा हुआ है। शहर में तनाव है। लूटपाट और आगजनी की अनेक वारदातें हुई हैं। पर उसने मेरी बात नहीं मानी थी। यह कह गई थी, "मुझ बूढ़ी ठेरी को किसी ने क्या कहना है।" क्या मालूम वह वीना की ओर चली गई हो। उसके मूड का भी कोई पता नहीं चलता। मैं 'हानि' वाले पन्ने पर लिखना आरंभ करता हूँ। मेरे पास तेरी पार्टी का कोई कार्ड न सही। मेरे पास तो पार्टी का कार्ड था। मेरा विरोध सुरजन संघू ने किया था। उसने मुझे गाली देकर कहा था, "तुम चमारों को पार्टी की क्या समझ है।" रोकते रोकते मेरे अंदर से गाली निकल जाती है, "..." मैंने तो पार्टी की ख़ातिर ससुराल वालों से भी बिगाड़ ली थी। मेरे ससुर ने जगदीश को दुकान किराए पर दे दी थी। वह खुद इंग्लैंड रहता था। यह दुकान भी मैंने स्वयं जगदीश को लेकर दी थी। करीब दो साल बाद जगदीश ने चौबारे पर एक तरह से कब्ज़ा ही कर लिया था। मेरा जगदीश के पास रोज़ का आना-जाना था। मेरे ससुर का फोन आया तो मैंने जगदीश को इस बारे में बताया था। जगदीश ने मेरी बात को अनसुना कर दिया था। दो वर्ष बाद मेरा ससुर आया तो उसने पाँच-सात प्रतिष्ठित व्यक्तियों को संग लेकर जगदीश को चौबारा खाली करने के लिए कहा था। बात न बनती देख कर वह थाने चला गया था। मैं अपनी पार्टी वालों के संग थाने गया था। मैं ससुराल वालों के संग नहीं, अपनी पार्टी के संग खड़ा था। मुझे ससुराल से अधिक पार्टी प्यारी थी। मेरे ससुर ने कोर्ट में केस कर दिया था। इस केस से जगदीश और पार्टी मेंबर परेशान थे। उनका मेरे प्रति व्यवहार बदल गया था। उन्हें लगा था कि मैं उनके साथ नहीं हूँ। उधर ससुर अलग गुस्से में था कि मैंने उसका साथ नहीं दिया। जगदीश और अन्य पार्टी मेंबरों ने मेरे से मुँह मोड़ लिया था। मैंने जगदीश के सामने अपना गिला जाहिर किया था, "मैं इतनी जल्दी पार्टी नहीं छोड़ने वाला।" जगदीश के पास बैठे सुरजन संधू ने कहा था, "तेरे जैसे वर्करों की पार्टी को ज़रूरत नहीं। तू जानता नहीं यह दुकान पार्टी के लिए कितनी फायदेमंद है। बता, कोई दूसरी दुकान हो सकती है। तू अपने ससुर को समझा नहीं सकता, लोगों को क्या समझाएगा।" लॉबी में से आवाज़ आती है। सतीश और राजविंदर सैर करके लौट आए हैं। अब सतीश भापा जी के पास बैठेगा। राजविंदर रोटी-पानी का प्रबंध करेगी। सतीश भापा जी के पास बैठ कोई एक बात छेड़ लेगा या उन्हें याद करवाएगा। उसने भापा जी को अपने पीछे लगा लिया है। भापा जी ने रविदास भगत की बड़ी-सी फोटो ड्राइंग रूम में लगवाई है। इसे वे बूटा मंडी के मेले में से खरीदकर लाए थे। उन्होंने तो गुरू रविदास जी के जन्म दिवस पर पूरी कोठी में बिजली वाली लड़ियाँ लगवाई थीं। पिछले हफ़्ते सतीश ने भापा जी को बताया था, "हम कुछ दोस्तों ने प्लैनिंग की है कि एक ऐसा चैनल शुरू किया जाए जहाँ चौबीस घंटे गुरु रविदास जी की बाणी का प्रसारण हो। अगर हिंदू या सिक्खों के चैनल शुरू हो सकते हैं तो हमारे गुरु के क्यों नहीं। बस, अब फाइनेंनशियल प्रॉब्लम्स हैं, जिस दिन ये सोल्व हो गईं, फिर देखना हमारी शक्ति।" मुझे इनकी कई बातें अजीब लगती हैं। पर फिर भी मैं उनमें शामिल होना चाहता हूँ। कई बार गया था। आधा घंटा बैठा था। इन्हें मेरी मौजूदगी चुभी थी। मैं उठकर आ गया था। किसी ने मुझे बैठने के लिए नहीं कहा था। अब जब ये दोनों इकट्ठे बैठे हों, मैं उनके पास नहीं जाता। इन्होंने कभी नहीं कहा कि तू भी हमारे पास आकर बैठ जाया कर। अपनी अच्छी-बुरी राय दे दिया कर। मन हल्का हो जाएगा। शाम को मैं लॉन में चटाई बिछाकर बैठा होऊँ तो सतीश मेरे पास आ खड़ा होता है। दो घड़ी के लिए। खड़े-खड़े ही बातें करता है। जैसे इन पलों में मैं उसका बाप होऊँ। आगे-पीछे आँख बचाकर निकल जाता है। सवेरे मैं सबसे पहले उठता हूँ। दो कप चाय के बनाता हूँ। अपने लिए फीकी चाय। भापा जी के लिए तेज़ मीठे वाली। तब तक वह पाठ कर चुके होते हैं। वह बैड से पीठ टिका लेते हैं। लिफाफे में से दो रस निकालते हैं। एक मुझे देते हैं, दूसरा स्वयं चाय में डुबो डुबो कर खाने लगते हैं। वह कहते हैं, "कामरेड, जा लॉन में ही सैर कर आ। दो घड़ी ताज़ी हवा मिल जाएगी। फिर फ्रंट वालों के अख़बार पढ़ लेना। इसके बग़ैर तुझे खुलकर टट्टी नहीं उतरेगी।" वह अभी भी मुझे कामरेड कहकर बुलाते हैं। शायद वह मुझे पसंद नहीं करते। उन्हें मेरा कामरेड वाला रूप कतई पसंद नहीं था। कह देते थे, "कामरेड बनकर तूने क्या खट लिया? हमारी पार्टी में शामिल हो जा। इसी बात में तेरा फायदा है। सतीश की बातें ध्यान से सुना कर।" जब सुरजन संधू ने मुझे इग्नोर करना शुरू कर दिया तो मुझे बहुत कुछ भूला-बिसरा याद आने लगा था। मैं गाँव जाता तो मुझे कई बातें तंग करती थीं। विशेष कर यह बात... बीबी को ज्वाले के बूढ़े ने मेंढ़ पर से घास खोदने से हटाया था और चाँटा मारकर बोला था, "ले, रामू ने भैंसें तो दो दो रख लीं, अब हमारी मेंढ़ें सफाचट करने के लिए हैं। ज्यादा ही शौक है तो मोल के पट्ठे डाले।" उसने बीबी द्वारा खोदा हुआ घास भी रखवा लिया था। बीबी घर आकर बहुत कलपी थी। मैंने उसे इतनी ऊँची आवाज़ में बोलते हुए पहली बार सुना था। उसके अंदर इतना गुस्सा समाया हुआ था। पता नहीं लग रहा था कि वह ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए क्या से क्या बोले जा रही थी। मैंने तो यही समझा था कि अब वह घास खोदने नहीं जाएगी। आगे से भापा जी ने चुप्पी साध रखी थी। वह गर्दन झुका कर ज़मीन पर लकीरें खींचने लगे थे। मैं उन्हें गरीब और असहाय देख रहा था। उस रात मुझे नींद नहीं आई थी। मैंने यह घटना अपने साथी गुरमेल को बताई थी। उसने मुझे समझाने के लिए कहा था, "हमें छोटी-छोटी बातों के पीछे नहीं जाना है। हमारे लिए पार्टी पहले है। व्यक्ति बाद में।" फिर उसने मुझे एक पेपर पढ़ने के लिए दिया था। इसमें गढ़शंकर के निकट गाँव खेड़ा में रहते बाबू राम चंद की आपबीती छपी थी। उसने लिखा था, "एक बार मैं जंगल-पानी गया। वहाँ बाहर कुएँ पर हाथ धोने लगा तो मेरे पीछे से आकर फुम्मण सिंह ने जो जाति से महतो थो, मेरे पाँच-सात थप्पड़ जड़ दिए। गालियाँ बकीं। कहा - साले, हमारा कुआँ भ्रष्ट कर दिया। मैं तब दूसरी कक्षा में पढ़ता था। उस समय इंस्पेक्टर परीक्षा लेने के लिए आए। उन्होंने प्रश्न किया कि एक व्यापारी ने उन्नीस टोपियाँ खरीदीं। सवा-सवा आने की। उसने दुकानदार को डेढ़ रुपया दिया। दुकानदार उसे क्या लौटाये, क्या नहीं। उस वक्त पहाड़े हुआ करते थे - आधा, पौना, सवाया, डेढ़ा। उन दिनों हमारे पास स्लेटें, तख्तियाँ हुआ करती थीं। मैंने सवाल करके स्लेट एक तरफ उल्टी करके रख दी। शेष लड़कों ने भी अपनी अपनी स्लेटें उल्टाकर रख दीं। इंस्पेक्टर ने उनकी स्लेटें देखीं। काटे मारकर वैसे ही ढेर लगा दिया। फिर उसने मेरी स्लेट उठाई। उसने पूछा कि यह किसकी स्लेट है? मैं खड़ा हो गया। उसने मुझे अपने पास बुलाया और शाबाशी दी। उसी समय फुम्मण सिंह जिसने मुझे थप्पड़ मारे थे, वह भी वहीं आ गया। कहने लगा कि हट परे, यह तो चमार है। इंस्पेक्टर ने कहा कि ये जो स्लेटों का ढेर पड़ा है, इसे ईंट मारकर तोड़ दो। जिसे तुम चमार कहते हो, उस चमार की समझ के आगे तुम सब राजपूत बौने हो। उसने मुझे ईनाम के तौर पर पाँच रुपये दिए। फिर मैंने उन्हें बताया कि ये हमें पोखर में अपनी तख्तियाँ भी धोने नहीं देते तो डविडे रिहाणे के एक मुंशी राधेश्याम ने कहा कि इस बारे में रिपोर्ट दो। रिपोर्ट दी। थानेदार आ गया। सारा गाँव एकत्र हुआ। फिर राजपूतों ने हमसे भरी सभा में माफ़ी माँगी। गुरमेल द्वारा समझाने पर मैं पार्टी की मीटिंग में शामिल होने लगा था। मुझे इस बात का नहीं पता कि उन्होंने अपनी कथा कहाँ से शुरू की थी। जब मैंने उठकर खिड़की से कान लगाए तो भापा जी कह रहे थे, "गाँव के स्कूल में एक मास्टर हुआ करता था। उसका नाम लालचंद था। गुणी ज्ञानी बंदा। दो वक्त रब का नाम लेने वाला। फारसी पढ़ाता था। न शराब पीता, न शराब पीने वाले के करीब बैठता। न मीट को हाथ लगाता। छिपकर चोरी से सिगरेट पीता। एक बार सोहण वलैतिये ने स्कूल में दो कमरे बनवाने शुरू किए। मैं वहाँ दिहाड़ियाँ किया करता था। मेरी लालचंद के साथ सिगरेट पीने की लत पड़ गई। वह बहुत समझदार बातें किया करता। कई गहरी बातें बताता। एक दिन मुझे बताने लगा, "रामू तुम पूशा की औलाद हो।" मुझे उसकी इस नई घुंडी का पता न लगा। यह कौन से पूशे की बात कर रहा है। मैंने यह नाम पहले कभी नहीं सुना था। लेकिन मुझे उस पर इतना यकीन अवश्य था कि वह मेरे आगे कोई झूठी बात नहीं करता। वह बेधड़क किस्म का व्यक्ति था। सच बात कहते समय आगा-पीछा नहीं देखता था। ले, अब जो घुंडी उसने मेरे सामने खोली थी, तुझे उसके बारे में बताता हूँ। पहले ब्रह्म अकेला था। कोई जात पात नहीं थी। कोई वर्ण-अवर्ण नहीं था। कोई ऊँच नहीं था, कोई नीच नहीं था। उस हालत में उस अलौकिक शक्ति ने अपना रूप फैलाया। क्षत्रियपन विकसित किया। इंदर, वरुण, सोम, रुद्र, मेघ, यम, मृत्यु और सूरज आदि आदि क्षत्रीय देवता पैदा किए। अब बहुत कुछ और भी चाहिए था। व्यापार की आवश्यकता था। फिर उसने वैश्य जाति के वशू, आदित्य और मारुत देवताओं की सृजना की। लेकिन इससे भी संपूर्णता नहीं मिली। मेहनतकशों की फौजें भी चाहिए थीं। इनके बग़ैर संसार कैसे चलता। आख़िर में उसने शूद्र वर्ण के देवता पूशे का सृजन किया।..." भापा जी की सारी उम्र तो 'सार जी' 'सार जी' कहते हुए गुजरी थी। अब पिछली उम्र में आकर अपनी जाति का पता लगा है। वह कांशी राम और मायावती के भाषणों को उसी एकाग्रता से सुनते हैं जैसे कोई गुरबाणी या भजन सुनता है। सतीश ने बताया था, "बाबा जी, ये सब मनगढ़ंत बातें हैं। मिथ हैं। इसमें कोई भी बात सच नहीं। ब्राह्मणों ने कूड़ा फैलाया हुआ है। इन्होंने हमें इतनी बुरी तरह जकड़ रखा है कि इनमें से निकलने के लिए कई दशक लग जाएँगे। पुराने समय में कई शूद्र मंत्री हुए हैं। इतिहासकारों ने कभी उनका जिक्र तक नहीं किया। कभी समानता का दर्जा नहीं दिया। यह बहुत लंबी कथा है। ...हमारे लोगों को सचेत करने के लिए अंबेडकर के बाद कांशीराम और बहन मायावती का बहुत बड़ा रोल है। यह जो परिवर्तन आया है, यह हमारी राजनीतिक शक्ति, वोटों के कारण आया है। जिसने बता दिया है कि दलित वोटों के बग़ैर कोई भी पार्टी कामयाब नहीं हो सकती। ...आपके समय में हमारे लोगों को कमजात, कुत्ती जात, जूठ, कम्मी, कुतीड़ कहा जाता था। अब हमारे वक्त में भी चमार, डी.एस. फोर, कोटे वाले, दलित आदि कई नाम दिए गए हैं। इन दिनों दलित शब्द ज्यादा चल रहा है।" राजविंदर की आवाज़ आई है, "डैडी जी, डैडी जी तुम्हारा फोन है।" करीब आधे मिनट के लिए मैं सुन्न हुआ ज्यों का त्यों बैठा रहा मानो मुझे राजविंदर की आवाज़ सुनाई ही न दी हो। राजविंदर की आवाज़ पुनः आई है, "डैडी जी, तुम कहाँ हो? तुम्हारा फोन है।" मुझे जाना ही होगा। फोन पर दिलबाग पूछता है, "कैसे हो दलित भाई?" मुझे खिझाने के लिए ही वह रहा है। "बता, शैतान की टूटी।" "कहीं सीबो तेरे पास तो नहीं बैठी? तूने सारी उम्र जनानी से डरते हुए गुजार दी। उसने तुझे घुटनों के नीचे से निकलने नहीं दिया। सुन रहा है, मैं क्या कह रहा हूँ?" "चल चल पंडित, कह जो कहना है।" "मेरे बताए नुस्खे का क्या हुआ?" "यह उसी से आकर पूछ लेना।" "देख ले, मैं पूछ भी लूँगा। फिर न चड्डियों में पूँछ दबाकर दौड़ते रहना।" "तूने कुछ और बकना है।" "दलित भाई, गुस्से में क्यों बोलता है। मुझे पता चला कि अब तू भी मायावाती का पक्का चेला बन जाएगा।" इसे कैसे पता चला कि मैं बहुजन समाज पार्टी में शामिल हो रहा हूँ। ज़रूर सतीश ने बताया होगा या भापा जी ने बात की होगी। इसे पूरे घर की हर बात का पता होता है। पर मैंने तो अपने मन की बात किसी से साझा नहीं की। मन की गाँठें नहीं खोलीं। "शहर में इतना इतना नुकसान करवा कर खुश हो?" वह गुस्से से कहता है। मैं टेलीफोन काट देता हूँ। अरे! यह क्या? बुक एडजस्टमेंट वाली सारी जगह पर उस बुज़ुर्ग का चेहरा फैलता जा रहा है। हाँ, यही बुज़ुर्ग है। मेरी नज़रें धोखा नहीं खा सकतीं। मैंने उसे पहचान लिया है। भापा जी को भी अवश्य दर्शन देता होगा। इसलिए उन्होंने कोठी के पिछवाड़े दीवार में एक आला बनवाया था। बिलकुल एक कोने में। मुझसे डरते हुए उनका साहस अंदर बनाने का नहीं हुआ था। वह इतवार वाले दिन इसे धोते, सुच्चे कपड़े से साफ करते। फूल रखते। नतमस्तक होते। चिराग जलाते। काफ़ी पुरानी बात थी। एक दिन वह दिल्ली चले तो मुझे उन्होंने कहा था, "तू चिराग ज़रूर करना।" मुझसे इनकार न हो सका, पर मेरा मन बिलकुल भी इस तरफ नहीं गया। दूसरे दिन इतवार आ गया। घड़ी ने छह बजाये। मैं तेल की शीशी लेकर आले की तरफ जाता हुआ बहुत परेशानी महसूस कर रहा था। मन बार बार कह रहा था कि दो ईंटें उठाकर इसे बंद कर दूँ। असमंजस की स्थिति में मैंने दीया तेल से भर दिया। तीली जलाने के समय मेरे हाथ काँपे। उसी समय मुझे लगा मानो किसी ने कहा हो, "बड़े कामरेड! दरख़्त भी जड़ों बग़ैर नहीं होते। तू अपने बड़े-बुज़ुर्गों को ही भूल गया। कभी देखना, सोचना। मैं किन हालातों में जीता रहा हूँ।" अर्द्ध-चेतनावस्था की हालत में मैंने चिराग जलाया था। उसी रात वह बुज़ुर्ग पहली बार मुझे सपने में दिखाई दिया था। हाँ, यही बुजुर्ग है। मेरा पूर्वज़। मैं उसके अंश में से हूँ। मेरी नज़रें धोखा नहीं खा सकतीं। मैंने उसे पहचान लिया है। मैं देख रहा हूँ... धुंध तो पहले पहर की पड़नी शुरू हो गई थी। आगे चला जा रहा आदमी दिखाई नहीं देता। चुपचाप। जैसे सारी कायनात सोई पड़ी हो। गाँव की तरफ से कुम्हार की आवाज़ आई, "जवान, दौड़कर गधों के आगे हो जा। कहीं कोई ससुरा कुएँ में ही न गिर पड़े। इतनी ठंड में बाहर कौन निकालेगा।" सुनते ही बुज़ुर्ग खुलकर हँसा। वह मन में सोचने लगा, मैंने अपने होश में कभी गधा कुएँ में गिरता नहीं देखा। न ही सुना। इसके जानवर पेशावर से आए लगते हैं। "ले, अब सो गया सैब बहादुर, ओए करमे, भैण के लक्कड़। सुस्त पड़ गया। ज़रा भरपूर झौका लगा तो।" जोगिंदर ने कड़ाहे में से पौनी से मैल निकालते हुए कहा, "पत्त उठने वाली समझ।" करमे ने शहतूत के पेड़ की गुलेल से गन्ने के छिलके का बड़ा सा ढेर खींचा। आग को तेज कर दिया। लपटें बाहर को आईं। वह राम राम करता मुँह पर हाथ फेरने लगा। दिन बीतते पता ही नहीं चला था। यह आज की पाँचवी और अंतिम पत्त (शीरा)थी। "अब ऐसा करो। पहले ये टोकरे घर छोड़ आओ। भेलियाँ मैं खुद बना लूँगा।" जोगिंदर ने कहा तो करमे ने लँगोटी का घुटनों के बीच लटकता सिरा खोंसा, उबासी ली, खेस को लपेटा और कीकर पर से बींडी उतारकर टोकरे को आ हाथ डाला। छिंदर करमे से काफ़ी आगे निकल गया था। जोगिंदर ने भारी टोकरा उसे उठवाया था। इस लालच में कि एक चक्कर बच जाएगा। वह चरागाह में पड़ती ईंखों में से निकलने लगा तो उसे भ्रम हुआ जैसे किसी के बोझ से ईंख का पूला टूटा हो। कड़क-सी आवाज़ आई थी। उसके सिर पर इतना भारी टोकरा था कि उसके लिए सिर घुमा कर ईंख की तरफ देखना भी बहुत कठिन था। उसके मन में आया कि उसे कोई टोकरा उतरवाने वाला मिल जाए तो वह देखे कि कौन-सा जानवर है। वह कुछ पल खड़ा रहा। अब आवाज़ नहीं आ रही थी। उसने एक हाथ की ओट करके आगे की ओर देखा, उसे आगे से छिंदर लौटता हुआ दिखाई दिया। दुविधा में ही वह आगे चल पड़ा। उसका साँस उखड़ा-उखड़ा रहा। वह अपने आप को परेशान सा महसूस करने लगा। अगले पल ही उतरती आती रात का ख़याल आते ही उसने अपनी चाल तेज़ कर दी। दूसरे चक्कर पर मुड़ा तो उसे ईंख के कोने से आवाज़ आई। वह खड़ा हो गया। आवाज़ फिर आई, "बापू, मुझे यह गट्ठर उठवाना।" वह आवाज़ की दिशा में चल दिया। बोझ ने उसकी हालत बुरी कर रखी थी। जगीरो ने खोरी का गट्ठर अपने बूते से बाहर बाँध रखा था। "तू थी मरजाणी।" करमे ने शक भरी नज़रों से उसे घूरा। जगीरो की आवाज़ में घबराहट थी। उससे जगीरो की ओर अधिक देर देखा न गया। उसने गट्ठर को हाथ लगवाने की की। बेध्यानी में गट्ठर एक तरफ से खुल गई। जगीरो बोली, "दिन खराब होता जाता था। मैंने सोचा, दो गट्ठर लेती जाऊँ। एक तो मैं घर में फेंक आई हूँ।" करमा आगे से कुछ न बोला, पर उसके मन में यह ज़रूर आया था कि वह जगह देखकर आए जहाँ पूला टूटने की आवाज़ आई थी। उसके पैर उधर जाने की बजाय छिंदर की तीखी आवाज़ के पीछे बढ़े, "ओए बहनचोदे चमार... तूने खुद तो देर करनी ही होती है, मुझे भी संग टाँग लेता है।" वापस आते हुए ईंख के पास आकर उसके पैर मन मन भारी होने लगे। उसके मन में तेज़ी से यह विचार आया, कहीं जगीरो तो नहीं थी? पीछे आते छिंदर की फट फट करती जूती की आवाज़ ने उसके पैरों में भी तेजी ला दी। उसे पता ही नहीं चला कि कब घर का आँगन पार कर आया। जगीरो ने फुर्ती से उसकी ओर बढ़ते हुए मैल के टोकरे को हाथ डाला। उसने उसकी तरफ अजीब नज़रों से देखा। मुँह से कुछ न बोला। वह डर गई। उसने अपनी घबराहट दबाकर कहा, "बापू, तू यूँ ही क्यों परेशान हुआ। मुझे बुला लेता।" प्रत्युत्तर में वह चुप रहा और सीधा दालान पार कर गया। चिंती रजाई में मुँह-सिर छिपाए पड़ी थी। वह उसके पैताने बैठ गया। वह कहना तो यह चाहता था कि सोने से पहले जगीरो से ईंख वाली बात पूछना, पर उसकी हिम्मत न पड़ी। वह पूछने लगा, "कैसी है अब तेरी तबीयत?" चिंती ने रजाई में से मुँह बाहर निकाला। उसे कँपकँपी के साथ ज़ोरों की खाँसी भी छिड़ी। "पड़ी रह, पड़ी रह।" कहते हुए उसने चिंती की रजाई चारों तरफ से अच्छी प्रकार खोंस दी। पूछने लगा, "मैं केहरू से दोशांदा बनवा लाऊँ? उसी से तुझे आराम आएगा।" "मैं कहीं नहीं मर चली। तू आराम से बैठ।" चिंती ने अपना आप सँभाला। हिम्मत की और दीवार से पीठ टिकाकर बैठ गई। जगीरो अंदर आई और पूछने लगी, "बेबे, मैल का क्या करना है?" चिंती ने कहा, "पड़ी रहने दे।" इन दिनों में चिंती का दमा कुछ अधिक ही बिगड़ गया था। वह खाट से लग गई थी। वैसे वह कहाँ टिककर बैठने वाली थी। तीनों घरों का गोबर-कूड़ा करती। भैंस के चारे के लिए भी बाहर अंदर आती-जाती। "सवेर का कुछ खाया-पिया भी है कि नहीं?" जगीरो के जाने के बाद उसने पूछा। चिंती ने उसकी ओर मोह भरी नज़रों से देखा। बताने लगी, "मुझे दोपहर के समय बेचैनी सी हुई थी। जगीरो तो लंबरदारों के गई थी। मैंने कहा - चल मन उठ। रात की रोटी पड़ी थी। मैंने रोटी को भूरा। लस्सी में नमक-मिर्चें डालीं। मुझे बड़ी स्वाद लगी।" "तूने अब क्या खाना है?" वह कहना तो कुछ और ही चाहती थी पर बोली, "जगीरो ने छोलों की दाल चढ़ा रखी है। उसके साथ दो रोटियाँ खा लो।" उससे चिंती की तरफ देखा न गया। रोटी खाकर उसने चारपाई पर लेटने की की। जगीरो वाली घटना ने कुछ समय तक उसे परेशान किया। फिर उसे अपने बुजुर्गों की नसीहत याद आ गई, "यह हमारी होनी है। पंचायत और पुलिस के पास शिकायत करके कुछ नहीं होगा।" "डैडी जी, डैडी जी, डैडी जी," राजविंदर ने लगातार आवाज़े दीं थी पर मुझे कुछ भी नहीं सुनाई दिया था। "डैडी जी... डैडी जी..." उसने मुझे झकझोरते हुए कहा है, "आप कहाँ खो गए?" "कहीं भी नहीं।" "सो तो नहीं गए थे?" "सॉरी बेटे, आय एम रीयली सॉरी।" "चलो, खाना खा लो।" "मुझे तो अभी भूख ही नहीं।" "जितनी है, उतना खा लो। चलो चलो उठो।" "बेटा, तू मुझे यहीं दो फुलके ला दे।" सीबो अभी तक नहीं लौटी। उसका कोई फोन भी नहीं आया। कहीं पुलिस ने न पकड़ लिया हो। पर पुलिस औरतों को तो कुछ नहीं कहती। लड़के भी नहीं कहते। क्या पता वह वीना के पास ही सो जाए। सवेर को सैर करती हुई लौट आएगी। इतनी जल्दी तो मुझे नींद नहीं आने वाली। क्यों न दिलबाग को छेड़ूँ। पर यदि आगे से उसने कोई और घुंडी खोल दी तो मुझे गोली खाने के बाद भी नींद नहीं आएगी। मैं दीवार से कान लगाकर भापा जी के कमरे का सुराग लेता हूँ। वे सो गए हैं। मैं एक के बाद एक चैनल बदलता हूँ। चवालीस नंबर पर 'आज तक' वाला प्रभु चावला मायावती से पूछ रहा है, "आपके यू.पी. के चुनाव जीतने के क्या कारण हैं?" "मैंने ब्राह्मणों और मुसलमानों को संग लेकर चुनाव लड़ा। एस.सी. मिश्रा की ब्राह्मण वोटों को अपने साथ जोड़ने की जिम्मेदारी सौंपी। नसीमुद्दीन सिद्दीकी को मुस्लिम वोटों की। मैंने छयासी ब्राह्मणों और स्वर्णों को कुल एक सौ चवालीस सीटों पर खड़ा किया था। मेरा नारा था - हाथी नहीं, गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है। जै भीम, जै गणेश...।" "आपका सपना क्या था?" "मेरा सपना है बहुजन समाज, जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के अलावा बहुजन समाज से जुड़े सिक्ख, मुसलमान, बौद्ध, पारसी और ईसाई भी शामिल हैं। ऊँची जाति के वे लोग भी शामिल हैं जिनकी सोच मनुवादी नहीं है। मैं आरंभ से मानवता में विश्वास करती हूँ। मैं गरीब, दबे-कुचले और शोषित वर्ग को समर्थ बनाना चाहती हूँ ताकि उनकी सुरक्षित सीटें पूरी तरह भरी जा सकें।" मुझे गुस्सा आने लगा है। मायावती भी कांग्रेस वाली बोली बोलने लग पड़ी है। इसने गरीबों का क्या भला करना है। मैं सिर को ज़ोर देकर झटके देता हूँ। मेरे मुँह से निकलता है - दुनियाभर के मेहनतकशो, एक हो जाओ। मैं अपनी ज़िंदगी की बैलेंसशीट पर मोटे मोट अक्षरों में लिखता हूँ : 'नहीं, मैं दलित नहीं हूँ।' यह कागज थामे सतीश के कमरे की ओर चल पड़ता हूँ, यह जानते हुए भी कि वह अब सो गया होगा।
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नहीं। तुम धोखा दे सकते हो, बेईमानी कर सकते हो, सिर्फ इसलिए कि प्रेम का अभाव है। समस्त पाप प्रेम की गैर-मौजूदगी में पैदा होते हैं। जैसे प्रकाश न हो तो अंधेरे घर में सांप, बिच्छू, चोर, बेईमान, लुटेरे सभी का आगमन हो जाता है। मकड़ियां जाले बुन लेती हैं। सांप अपने घर बना लेते हैं। चमगादड़ निवास कर लेते हैं । रोशनी आ जाए, सब धीरे-धीरे विदा होने लगते हैं। प्रेम रोशनी है। और तुम्हारे जीवन में प्रेम का कोई भी दीया नहीं जलता, इसलिए पाप है। पाप के पास कोई विधायक ऊर्जा नहीं है। कोई पाजिटिव एनर्जी नहीं है। पाप सिर्फ नकारात्मक है। वह सिर्फ अभाव है। तुम कर पाते हो, क्योंकि जो तुम्हारे भीतर होना था वह नहीं हो पाया। थोड़ा समझें। तुम क्रोध करते हो, और सारे धर्म-शास्त्र कहते हैं क्रोध मत करो। लेकिन अगर तुम्हारी जीवन-ऊर्जा का बहाव प्रेम की तरफ न हो तो तुम करोगे भी क्या? क्रोध करना ही पड़ेगा। क्योंकि क्रोध, ठीक से समझो तो वही प्रेम है, जो मार्ग नहीं खोज पाया। वही ऊर्जा जो फूल नहीं बन पायी, कांटा बन गयी है। प्रेम है सृजन। और अगर तुम्हारे जीवन में सृजनात्मकता, क्रिएटीविटी न हो पाए, तो तुम पाओगे कि तुम्हारी जीवनऊर्जा विध्वंसात्मक हो गयी, डिस्ट्रक्टिव हो गयी। तुम्हारे संतों में और तुम्हारे शैतानों में जो फर्क है, वह इतना ही है कि एक की जीवन-ऊर्जा विध्वंस बन गयी है और एक की जीवन-ऊर्जा सृजन बन गयी है। तो जो आदमी भी सृजन कर सकता है, वह शैतान नहीं हो सकता। और जो आदमी भी सृजन नहीं करता, वह लाख अपने को समझाए कि संत है, वह संत नहीं हो सकता। क्योंकि ऊर्जा का क्या होगा? जीवन-शक्ति है, उस शक्ति का तुम क्या करोगे? कुछ होना चाहिए। अगर तुम प्रेम करने लगो तो तुमने उसी शक्ति के लिए नयी नहरें खोद दीं। अगर तुम्हारे जीवन में कहीं प्रेम न हो तो तुम्हारी सारी जीवन-शक्ति क्या करेगी? तोड़ेगी, फोड़ेगी, मिटाएगी। अगर तुम बनाने में न लगा सके तो मिटाने में लगोगे। पुण्य जीवन-ऊर्जा की विधायक स्थिति है, पाप नकारात्मक। पाप से सीधा संघर्ष करने की कोई भी जरूरत नहीं है। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, क्रोध बहुत है, क्या करें? मैं उनसे कहता हूं, क्रोध का तो तुम विचार ही मत करो। क्योंकि तुम जितना विचार करोगे क्रोध का, क्रोध को उतनी ही ऊर्जा मिलेगी। जिस चीज का हम विचार करते हैं, उसी तरफ शक्ति बहने लगती है। शक्ति के बहने का ढंग विचार है । विचार नहर की तरह है। तुम जिस तरफ ध्यान देते हो, उसी तरफ तुम्हारा जीवन बहने लगता है। जैसे हमने एक तालाब के पास एक नहर खोद दी, उस नहर से तालाब का पानी हम खेत में ले जाने लगे। जीवन की जो ऊर्जा है, ध्यान उसके लिए नहर है। तुम जिस तरफ ध्यान देते हो, उसी तरफ जीवन की धारा बहने लगती है। गलत ध्यान हुआ, गलत तरफ बहने लगेगी। ठीक ध्यान हुआ, ठीक तरफ बहने लगेगी। प्रेम, ठीक ध्यान का नाम है। और नानक कहते हैं, जिस दिन तुम्हारा प्रेम परमात्मा के नाम की तरफ बहेगा, रंग गए तुम! फिर धुल जाओगे। और फिर अतीत के पाप से ही नहीं धुल जाओगे, भविष्य की संभावना से भी धुल जाओगे। इसके पहले कि गंदे होओ, धुले रहोगे। तुम सद्यस्त्रात हो जाओगे। तुम प्रतिपल नहाए हुए होओगे। इसलिए जब तुम कभी किसी ज्ञानी के पास जाओगे तो एक सद्यस्त्रात प्रतीति तुम्हें होगी। जैसे वह प्रतिपल नहाया हुआ है। जैसे अभी-अभी नहा कर निकला हुआ है । एक वैसी ताजगी, जो सुबह की ओस के पास प्रतीत होती है, तुम्हें संत के पास होगी। और उसका कारण सिर्फ इतना है कि धूल इकट्ठी ही नहीं होती। प्रेम के अभाव में धूल इकट्ठी होती है। और प्रेम से उसे धोया जा सकता है। तो प्रेम के संबंध में पहली बात कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा विध्वंस न बने। क्योंकि विध्वंस ही पाप है। क्या है पाप? जब तुम कुछ तोड़ते हो, भविष्य में कुछ बनाने के ख्याल से नहीं, सिर्फ तोड़ने में ही रस लेने के लिए। क्योंकि तोड़ना दो तरह का हो सकता है। एक आदमी मकान गिराता है, ताकि नया बनाया जा सके। वह तोड़ना नहीं है। वह तो बनाने की प्रक्रिया का अंग है। जब तुम कुछ तोड़ते हो, सिर्फ तोड़ने के लिए, तब पाप हो जाता है। समझो, तुम्हारा छोटा लड़का है। तुम उसे कभी चांटा भी मारते हो, लेकिन वह चांटा पाप नहीं है। अगर वह प्रेम से मारा गया है, तो सृजनात्मक है। वह उस बच्चे को मिटाने के लिए नहीं है, वह उस बच्चे को बनाने के लिए है। तुमने भरपूर प्रेम से मारा है। तुमने मारा ही इसलिए है कि तुम प्रेम करते हो। और अगर प्रेम न होता तो तुम फिक्र ही नहीं करते। भाड़ में जाओ! जो करना हो, करो । एक उपेक्षा होती है कि ठीक है! जहां जाना हो, जाओ। जो करना हो, करो । एक उदासी होती है। लेकिन तुम प्रेमपूर्ण हो, इसलिए तुम बच्चे को हर कहीं नहीं जाने दे सकते। वह आग में गिरना चाहे तो आग में नहीं गिरने दोगे। तुम उसे रोकोगे। तुम उसे मार भी सकते हो। लेकिन उस मारने में पाप नहीं है, उस मारने में पुण्य है। क्योंकि सृजन हो रहा है। तुम कुछ बनाना चाहते हो। लेकिन तुम एक दुश्मन को मारते हो। चांटा वही है, हाथ वही है, ऊर्जा वही है। लेकिन जब तुम दुश्मन के भाव से मारते हो, तो तुम कुछ बनाने को नहीं मारते, तुम कुछ मिटाने को मारते हो। पाप हो गया! कृत्य पाप नहीं होते। तुम्हारे भीतर की दृष्टि अगर विधायक है, तो कोई कृत्य पाप नहीं है। अगर तुम्हारी दृष्टि विध्वंसात्मक है, तो सभी कृत्य पाप हैं। सूफी कहानी है। एक गांव में एक सूफी आया । उसे किसी यात्रा पर जाना था। पहाड़ों में छिपा हुआ एक छोटा सा मंदिर था, जिसकी वह तलाश कर रहा था। तो उस सूफी फकीर ने गांव के लोगों से पूछा एक चाय घर के सामने जा कर कि इस गांव में सबसे सच्चा आदमी कौन है? और सबसे झूठा आदमी कौन है? गांव के लोगों ने बता दिया। छोटे गांव में सभी को सभी का पता होता है कि सबसे झूठा आदमी कौन है, सबसे सच्चा आदमी कौन है। वह सूफी सबसे सच्चे आदमी के पास गया पहले । और उसने पूछा कि मैं उस छिपे हुए मंदिर की तरफ जाना चाहता हूं, जिसकी चर्चा शास्त्रों में सुनी है। अगर तुम्हें मार्ग पता हो तो सबसे सुगम मार्ग क्या है, वह मुझे बता दो। तो उसने कहा, सबसे सुगम मार्ग पहाड़ों से ही हो कर जाता है। और इस-इस विधि से तुम चलो, लेकिन पहाड़ों से गुजरना होगा। वह आदमी फिर सब से झूठे आदमी के पास गया । और बड़ा हैरान हुआ। क्योंकि उस झूठे आदमी से भी उसने पूछा, तो उसने कहा कि सबसे सुगम मार्ग पहाड़ों से गुजरता है। और यह यह मार्ग है और तुम्हें इस-इस भांति जाना होगा। दोनों के उत्तर समान थे। तब वह बड़ा हैरान हुआ। तब उसने गांव में जा कर तलाश की कि यहां कोई सूफी तो नहीं है! कोई फकीर तो नहीं है! ध्यान रखना, सच्चा आदमी, झूठा आदमी दो छोर हैं। और जब कोई आदमी संतत्व को उपलब्ध होता है तो दोनों के पार होता है। अब यह बड़ी मुश्किल में पड़ गया कि किसकी मानूं? और उसने सोचा था कि झूठा आदमी विपरीत बात कहेगा। लेकिन पापी, पुण्यात्मा दोनों ने एक ही उत्तर दिया, अब कौन सही है? तो वह एक सूफी फकीर का पता लगा कर उसके पास गया। उस फकीर ने कहा, दोनों ने एक सा उत्तर दिया है, लेकिन दोनों की नजर अलग-अलग है। सच्चे आदमी ने इसलिए तुम्हें कहा कि तुम पहाड़ से हो कर जाओ... । एक मार्ग नदी से हो कर भी जाता है, वह उसे पता है। लेकिन न तो तुम्हारे पास नाव है जिससे तुम यात्रा कर सको, और न नाव से यात्रा करने के अन्य साधन और सामग्री तुम्हारे पास है। फिर तुम्हारे पास यह गधा भी है जिस पर तुम सवार हो । यह पहाड़ पर तो सहयोगी होगा, नाव में उपद्रव होगा। इसलिए तुम्हारी पूरी स्थिति को सोच कर उसने कहा कि तुम पहाड़ से जाओ। सुगम मार्ग तो नाव से है। लेकिन तुम्हारी स्थिति देख कर सुगम मार्ग पहाड़ से बताया गया। और झूठे आदमी ने इसलिए पहाड़ से कहा, ताकि तुम मुसीबत में पड़ो। सुगम मार्ग तो नाव से है, नदी से है, और झूठे आदमी ने इसलिए कहा है कि पहाड़ से जाओ, ताकि तुम मुसीबत में पड़ो। वह तुम्हें सताना चाहता है। उत्तर एक से हैं, दृष्टि भिन्न है। कृत्य भी एक से हो सकते हैं। इसलिए कृत्यों से कुछ तय नहीं होता। अंतर्भाव से तय होता है। इसलिए तो बेटे को बाप मार देता है, इसका कोई हिसाब नहीं रखा जाता। मां बेटे को मार देती है, इसका कोई हिसाब नहीं रखा जाता। सच तो यह है कि मनस्विद कहते हैं, जिस मां ने अपने बेटे को कभी नहीं मारा, उस मां और बेटे के बीच कभी कोई गहरा संबंध न बन सकेगा। क्योंकि आत्मीयता ही नहीं बन सकी। अगर तुम बेटे को मारने से डरते हो, तो तुम उसे अपना ही नहीं मानते। फासला है। जो बाप बेटे की हर इच्छा पर झुक जाएगा, बेटा उसे कभी माफ नहीं कर सकेगा। क्योंकि जिंदगी में वह पाएगा कि बाप ने उसे बरबाद कर दिया। क्योंकि बेटा तो अनुभवी नहीं है। इसलिए उसकी मांगों का कोई बहुत अर्थ नहीं है। बाप को सोचना ही पड़ेगा कि कौन सी मांग ठीक है और कौन सी गलत। वह ज्यादा अनुभवी है और अगर प्रेम करता है बेटे को तो वह अपने अनुभव से तय करेगा, बेटे की मांग से नहीं। और अगर किसी बाप ने बेटे को पूरी स्वतंत्रता दे दी, तो बेटा कभी क्षमा नहीं कर पाएगा। इसलिए तो पश्चिम में बेटे बाप को क्षमा नहीं कर पा रहे हैं। और पश्चिम में बाप ने जितनी स्वतंत्रता बेटे को दी है, दुनिया में कभी नहीं दी गयी थी। पिछले सौ वर्षों के विचारकों ने यही समझाया कि बेटों को पूरी स्वतंत्रता दो। और उसका परिणाम यह हुआ कि बेटे और बाप के बीच इतनी बड़ी खाई पैदा हो गयी है कि उसे पाटना मुश्किल है। पुराने जमाने में बेटे बाप से डरते थे, पश्चिम में बाप बेटों से डर रहे हैं। और पुराने जमाने में बेटे बाप को अंत तक श्रद्धा देते थे। और नए पश्चिम में रत्तीभर श्रद्धा का भाव नहीं है, प्रेम का भाव नहीं है। और कारण क्या है? कारण यह है कि बेटा एक न एक दिन पाएगा कि बाप ने मुझे बरबाद किया। उसे रोकना था। अगर मैं गलत कर रहा था तो उसे रोकना था। अगर मैं भटक रहा था तो उसे रोकना था। क्योंकि वह अनुभवी था, मैं गैर-अनुभवी था। मेरी बात क्यों सुनी? उसे झुकना ही नहीं था। यह बेटा अनुभव करेगा। इसे ध्यान रखना। क्योंकि प्रेम चिंता करेगा। दूसरे का जीवन शुभ हो, सुंदर हो, सत्य हो, महिमा को उपलब्ध हो । उपेक्षा का अर्थ ही है कि कोई आत्मीयता नहीं। जो भी होना हो, हो । हमारा कोई प्रयोजन नहीं है। संयोग की बात है कि तुम बेटे हो । संयोग की बात है कि मैं पिता हूं। अन्यथा कुछ लेना-देना नहीं है। तो पश्चिम में अंतःसंबंध गिर गए हैं। प्रेम भी मार सकता है, क्योंकि प्रेम इतना सबल है। और प्रेम इतना आस्थावान है कि विध्वंस से भी सृजन को ला सकता है। लेकिन एक बात ध्यान रखनी जरूरी है। सृजन हमेशा लक्ष्य होगा। विध्वंस अगर जरूरी है, तो हमेशा विधि होगी। गुरु तो शिष्य को बिल्कुल ही मारता है। मार ही डालता है। कोई बाप इतना नहीं मार सकता। क्योंकि बाप की चोटें तो ऊपर-ऊपर होंगी, शरीर पर होंगी। जैसे पानी शरीर का मैल धोता है, वैसे बाप शरीर को, जीवन को ठीक करेगा। उसकी चोट ऊपर-ऊपर होगी। गुरु तो भीतर मारेगा। गहरी चोट करेगा। जहां तक तुम्हें पाएगा, वहां तक छेदेगा। वह तुम्हारे अहंकार को गला कर ही रहेगा। और जब तक तुम ऐसा गुरु न पा लो, तक समझना कि जिसे तुमने पा लिया है, उसे तुम माफ न कर सकोगे। आज नहीं कल तुम पाओगे, उसने तुम्हारा जीवन, तुम्हारा समय नष्ट किया है। प्रेम का लक्ष्य है सृजन - - एक बात । और जब तुम सृजनात्मक होते हो जीवन-संबंधों में, तुम पाप नहीं कर सकते। और जब मैं प्रेम करता हूं तो पाप कैसे संभव है? प्रेम धीरे-धीरे फैलता जाएगा तो तुम पाओगे, मैं ही हूं सभी के भीतर छिपा हुआ। किसकी चोरी करूं? किसको धोखा दूं? किसकी जेब काटूं! क्योंकि जितना तुम्हारा प्रेम बढ़ेगा उतना ही तुम पाओगे कि ये सारी जेबें अपनी ही हैं। और इधर मैं किसी को नुकसान पहुंचाता हूं, वह नुकसान अंततः मुझे ही पहुंच जाता है । जीवन एक प्रतिध्वनि है। प्रेम करने वाले को पता चलता है कि जीवन एक प्रतिध्वनि है। तुम जो करते हो वह तुम पर ही बरस जाता है। जितना तुम्हारा प्रेम बढ़ता है, उतना तुम्हें यह साफ होने लगता है कि यहां पराया कोई भी नहीं है। जिस व्यक्ति से तुम्हारा प्रेम हो जाता है, उससे परायापन मिट जाता है। तुम अपनी पत्नी को दुख न पहुंचाना चाहोगे। क्योंकि उसे पहुंचाया गया दुख अंततः तुम्हें ही पहुंचाया गया दुख सिद्ध होता है। वह दुखी होती है तो तुम दुखी होते हो। तुम चाहोगे, वह सुखी रहे। क्योंकि वह जितनी सुखी होती है उतनी तुम्हारे सुख की संभावना बढ़ जाती है। तब तुम पाओगे कि दूसरे को दिया गया दुख तुम्हें भी दुखी करता है। दूसरे को दिया गया सुख तुम्हें भी सुखी करता है। हालांकि हम बिल्कुल उलटी भाषा में सोचते हैं। हम सोचते हैं, अपने को सुख दो और दूसरे को दुख दो। शायद इससे हमारा सुख बढ़ेगा। तुम आखिर में पाओगे कि तुम दुख ही दुख से भर गए। क्योंकि जो तुम दूसरे को देते हो वही लौटता है। तुमने अगर सबके लिए कांटे बोए हैं, तो तुम आखिर में पाओगे कि तुम्हारा पूरा जीवन कांटों से भर गया है। और तुमने अगर फिक्र ही नहीं की कि दूसरे क्या कर रहे हैं, तुम फूल बोते गए, तो आखिर में तुम पाओगे कि जो तुमने बोया है वही तुम काटोगे। जो दूसरों ने बोया है, उनकी फसलें उनके लिए। लेकिन हम उलटा चलते हैं। एक महिला मुझसे पूछने आयी थी। वह पति को तलाक देना चाहती है। उसने जो बात पूछी वह मुझे भूलती नहीं। उसने मुझसे पूछा कि क्या तलाक देने की ऐसी भी कोई तरकीब है कि मेरे पति को इससे खुशी न मिले? वह जानती है भलीभांति कि तलाक देने से खुशी मिलेगी। क्योंकि उसने काफी सताया है पति को। अब वह यह भी इंतजाम करना चाहती है कि तलाक भी हो, तो भी इंतजाम ऐसा हो कि पति को खुशी न मिल पाए। हम साथ हो कर भी दुख देना चाहते हैं, दूर हो कर भी दुख देना चाहते हैं। ज. ुडे हों तो भी दुख देना चाहते हैं, अलग हो जाएं तो भी दुख देना चाहते हैं। लेकिन ध्यान रखें, जब तुम इतना दुख देना चाहोगे तो तुम्हारी दुख के प्रति जो इतनी आतुरता है, तुम्हारा दुख पर जो इतना ध्यान है, वह धीरे-धीरे तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर दुख का घाव इसी ध्यान से निर्मित होता जाएगा। इसको ही तो हमने कर्म की जीवन पद्धति कहा है, जीवन का नियम कहा है। कर्म का कुल इतना ही अर्थ है कि तुम जो करते हो, अंततः तुम्हीं को मिल जाता है। देर अबेर हो सकती है। इसलिए तुम वही करना, जो तुम चाहते हो कि तुम्हें मिले। तुम अगर इतने नर्क में खड़े हो तो किसी और के कारण नहीं। जन्मों-जन्मों में जो तुमने किया है, उसका फल है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, आशीर्वाद दे दें कि जीवन में सुख हो जाए। अगर आशीर्वादों से सुख होता होता, तो एक आदमी सभी को सुखी कर देता। क्योंकि आशीर्वाद देने में क्या कंजूसी? इतना आसान नहीं है। तुमने दुख बोया है, मेरे आशीर्वाद से कैसे कटेगा ? तुम मुझसे समझ लो । आशीर्वाद मत मांगो। क्योंकि आशीर्वाद तो बेईमानी का ढंग है। दुख तुमने दिया है न मालूम कितने लोगों को। तुमने दुख बोया है सब तरफ । अब तुम उसकी फसल काटने के वक्त आशीर्वाद मांगने आ गए! और तुम्हारे ढंग से ऐसा लगता है कि जैसे अगर तुम्हें दुख मिल रहा है, तो मैं आशीर्वाद नहीं दे रहा हूं इसलिए दुख मिल रहा है। किसी के आशीर्वाद से तुम्हारा दुख न कटेगा। किसी के आशीर्वाद से तुम्हारी समझ बढ़ जाए तो काफी। किसी के आशीर्वाद से तुम में प्रेम का बीज आ जाए तो काफी। पाप तो प्रेम से कटेगा। और दुख तो तुम जब दूसरों के लिए सुख बोने लगोगे तब कटेगा। नानक कहते हैं, बुद्धि पापों से भरी हो तो वह नाम के प्रेम से ही शुद्ध की जा सकती है । और जब एक व्यक्ति से तुम प्रेम करते हो, तो उसे दुख देना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि उसका सुख तुम्हारा सुख, उसका दुख तुम्हारा दुख। उसके जीवन और तुम्हारे बीच की सीमा टूट गयी। तुम एक-दूसरे में बहते हो। जब ऐसी ही घटना किसी व्यक्ति के और परमात्मा के बीच घटती है, तो उसका नाम प्रार्थना, आराधना, पूजा, भक्ति। वह प्रेम का अंतिम स्वरूप है। और जब तुम एक व्यक्ति को सुख दे कर इतने सुखी हो जाते हो, और जब तुम एक व्यक्ति को दुख दे कर इतने दुखी हो जाते हो, तो परमात्मा से भी तुम्हारे दो संबंध हो सकते हैं। एक तो प्रेम का, तब तुम स्वर्ग में हो जाओगे। और एक अप्रेम का, तब तुम नर्क में गिर जाओगे। परमात्मा का अर्थ है, समस्त, दि टोटैलिटी। यह जो सारा विस्तार है, इस सारे विस्तार के साथ इस भांति प्रेम, जैसे यह एक व्यक्ति हो। और इस प्रेम में तो तुम्हारे सारे पाप बह जाएंगे। क्योंकि यह प्रेम तो तुम्हें सबके ही प्रेम में गिरा देगा। तुम किसे धोखा दोगे? तुम जहां भी धोखा देने जाओगे, उसी को पाओगे झांकता हुआ। तुम जिस आंख में भी झांकोगे, वहीं परमात्मा को बैठा हुआ पाओगे। भक्ति बड़ी क्रांतिकारी प्रक्रिया है। भक्ति का अर्थ है, अब उसके सिवाय कोई भी नहीं। और तब तुम्हारा जीवन अनायास सरल हो जाएगा। क्योंकि अब पाप करने को न बचा। मिटाना किसको है? धोखा किसे देना है ? छीनना किससे है? तो भक्ति से तुम यह अर्थ मत समझना कि मंदिर में तुम पूजा कर आते हो; कि गुरुद्वारे में जा कर तुम जपुजी का पाठ कर लेते हो; कि तुम यह मत समझना कि रोज उठ कर तुम जोर से जपुजी यांत्रिक रूप से दोहरा लेते हो; कि नमाज पढ़ लेते हो। इन सबसे कुछ भी न होगा। क्योंकि फिर तुमने झूठी चाबी बना ली। असली चाबी का तो अर्थ ही यह है कि अब मैं अनंत के प्रेम में गिर गया। अब इस जगत की रत्ती-रत्ती मेरा प्रेम-पात्र है। इंच-इंच मेरी प्रेयसी है या मेरा प्रेमी है। पत्ते पत्ते पर उसी का नाम है और आंख - आंख में उसी की झलक है। सभी कुछ उसका है। सभी तरफ उसे मैं पाता हूं। अब तुम जिस ढंग से जीओगे--अगर परमात्मा सब तरफ तुम पाते हो--उस ढंग का नाम भक्ति है। वह तुम्हारे जीवन की पूरी शैली बदल देगी। तुम उठोगे और ढंग से। तुम बैठोगे और ढंग से। क्योंकि वह सब जगह मौजूद है। तुम बोलोगे और ढंग से, क्योंकि तुम जिससे भी बोलोगे वही वह है। तुम कैसे गाली दे सकोगे? तुम कैसे निंदा कर सकोगे? तुम कैसे किसी का अपमान कर सकोगे? तुम कैसे अपने को दूसरे की सेवा से बचा सकोगे? क्योंकि सभी चरणों में वही छिपा है। और अगर यह बोध तुम में गहरा हो जाए, इसको नानक कहते हैं, नाम का रंग चढ़ जाना। तुम पर एक मस्ती छा जाएगी। तुम्हारे पास कुछ भी न होगा और सब कुछ मालूम पड़ेगा। तुम बिल्कुल अकेले होओगे और सारा जगत तुम्हारे साथ होगा। अस्तित्व और तुम्हारे बीच तालमेल आ गया। अस्तित्व और तुम्हारे बीच तारी लग गयी। अस्तित्व और तुम्हारे बीच संबंध जुड़ गया। नानक कहते हैं, ऐसा प्रेम ही पापों को काट सकता है। अन्यथा तुम कुछ भी करो --पूजा करो, पाठ करो, यज्ञ करो, मंदिर बनाओ, मस्जिद बनाओ - तुम कुछ भी करो, तुम्हारे भीतर मूल-सूत्र नहीं है। एक ट्रेन में मैं सफर कर रहा था। और एक औरत कोई नौ-दस बच्चों को लिए हुए सफर कर रही थी। वे बच्चे बड़ा उपद्रव मचा रहे थे। इधर से उधर दौड़ रहे थे, लोगों का सामान गिरा रहे थे। पूरे कमरे को उन्होंने अराजकता बना रखा था। आखिर एक आदमी से नहीं रहा गया। क्योंकि पहले उन बच्चों ने उसकी पेटी गिरा दी, फिर उसका अखबार फाड़ डाला। तो उसने उससे कहा कि बहन जी, इतने बच्चों को साथ ले कर सफर न किया करें तो अच्छा। आधों को घर छोड़ आया करें। उस स्त्री ने बड़े क्रोध से उस आदमी की तरफ देखा और कहा, क्या समझा है? क्या तुम मुझे बेवकूफ समझते हो? आधों को घर ही छोड़ आयी हूं। समझ का सूत्र न हो, तो तुम कितने ही घर छोड़ आओ, क्या फर्क पड़ने का है? और जब बीस बच्चों को पैदा करते वक्त समझ काम नहीं आयी, तब छोड़ते वक्त कहां से आ जाएगी? हजार पाप हैं। पुण्य तो एक ही है। हजार पुण्य नहीं हैं, पुण्य तो एक ही है। हजार तरह की बीमारियां हैं, स्वास्थ्य तो एक ही है। स्वास्थ्य थोड़े ही हजार तरह का होता है। कि तुम अपने ढंग से स्वस्थ, मैं अपने ढंग से स्वस्थ। बीमार हम अलग-अलग हो सकते हैं, कि तुम टी.बी. के बीमार, कि कोई कैंसर का बीमार, कि कोई कुछ और का बीमार। बीमारियों में भेद हो सकता है, बीमारियों में मौलिकता हो सकती है, निजीपन हो सकता है। बीमारियों पर तुम्हारे हस्ताक्षर हो सकते हैं। क्योंकि बीमारियां अहंकारों का हिस्सा हैं। अहंकार अलग-अलग, उनकी बीमारियां अलग-अलग। लेकिन पुण्य तो एक है। स्वास्थ्य तो एक है। क्योंकि परमात्मा एक है। उस संबंध में तुम अलग-अलग नहीं हो सकते। वह क्या है स्वास्थ्य, जो एक है? वह है प्रेम का भाव। और धीरे-धीरे उसमें रमते जाना है। उठो ऐसे जैसे प्रेमी मौजूद है। अकेले कमरे में भी तुम ऐसे ही प्रवेश करो जैसे परमात्मा मौजूद है। एक सूफी फकीर हुआ जुन्नैद। वह अपने शिष्यों को कहता था, भीड़ में जाओ तो ऐसे जाना जैसे तुम अकेले हो। और जब अकेले में जाओ तो ऐसे जाना जैसे कि परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। ठीक कहता है। क्योंकि भीड़ में अगर तुम अपना अकेलापन याद रख सको तो परमात्मा की याद रहेगी; नहीं तो भीड़ छा जाएगी। तुम भीड़ में भटक जाओगे। और एकांत में अगर तुम परमात्मा की याद न रख सको, तो अपने में भटक जाओगे। दो खतरे हैं। या तो दूसरे में भटक जाओ या अपने में भटक जाओ। या तो भीड़ में, या खुद में। और परमात्मा दोनों के पार है। और अगर तुम यह याद रख सको कि भीड़ में मैं अकेला हूं और अकेले में वह मौजूद है, तो तुम कभी भी न खोओगे। नानक कहते हैं कि नाम के प्रेम में जो रंग गया, वह भीतर से शुद्ध हो गया। उसने अंतरंग स्नान कर लिया। "कहने से न तो कोई पुण्यात्मा होता है न पापी।" तुम कितना ही सोचते रहो और तुम कितना ही विचार करते रहो और तुम कितना ही कहते रहो कि मैं कोशिश कर रहा हूं पुण्यात्मा होने की। कहने से कुछ भी नहीं होता। "जो-जो कर्म हम करते हैं वे लिख लिए जाते हैं। मनुष्य स्वयं ही बोता है और स्वयं ही खाता है । " सिर्फ कहने से कुछ न होगा, सोचने से कुछ न होगा। क्योंकि बड़े मजे की बात है कि पुण्य के संबंध में तुम सदा सोचते हो और पाप के संबंध में तुम क्षणभर नहीं सोचते; करते हो। अगर कोई तुमसे कहे कि जब क्रोध आए, तो आधा घड़ी रुक जाना, फिर करना । तो तुम कहोगे, यह कैसे हो सकता है? जब क्रोध आता है तो रुकने का सवाल ही नहीं रह जाता। रुकने वाले का पता ही नहीं रह जाता, रोकने की बुद्धि खो जाती है। जब क्रोध होता है तब हम होते ही कहां? क्रोध तो उसी वक्त करते हैं हम, कभी पोस्टपोन नहीं करते। लेकिन अगर कोई कहे कि ध्यान । तो तुम कहते हो, आज समय नहीं, कल। फिर अभी जल्दी भी क्या है? जीवन इतना पड़ा है। और ध्यान इत्यादि तो जीवन के अंत में करने की बातें हैं, जब मौत करीब आने लगती है। और मौत तुम्हें कभी भी नहीं लगती कि करीब आएगी, मरते हुए आदमी को भी नहीं लगती। एक नेता मर गए। तो मुल्ला नसरुद्दीन व्याख्यान करने गया, उनकी मृत्यु पर, शोक-समारंभ में। उसने बड़ी काम की बात कही। उसने कहा कि देखो, भगवान की कैसी कृपा है! कि हम जब भी मरते हैं, जीवन के अंत में मरते हैं। सोचो, अगर मौत कहीं जीवन के प्रारंभ में या मध्य में आ जाती, तो कैसी मुसीबत होती! सोचो कि मौत अगर जीवन के प्रारंभ में या मध्य में आ जाती, तो कैसा दुख आता! अंत में आती है। बड़ी उसकी कृपा है। और अंत को हम दूर टालते रहते हैं। अंत कभी आता हुआ मालूम नहीं पड़ता--जब तक आ ही न जाए। और जब आ जाता है तब दूसरों को पता चलता है, तुम्हें तो पता ही नहीं चलता। तुम तो गए ! तो अगर ठीक से समझो तो तुम कभी मरते ही नहीं। तुम अपनी धारणा में तो जिंदा ही रहते हो। मरने की घटना भी दूसरों को पता चलती है। तुम तो मरते क्षण में भी योजना बनाते रहते हो जीवन की। और कल पर टालते रहते हो। शुभ को हम टालते हैं। अशुभ को हम तत्क्षण करते हैं। जिस दिन इससे विपरीत हो जाओगे तुम, उसी दिन नाम का रंग लग जाएगा। जिस दिन तुम अशुभ को टालोगे और शुभ को प्रतिक्षण कर लोगे... । जब देने का भाव उठे तो देर मत करना, उसी वक्त दे डालना। क्योंकि तुम अपने पर ज्यादा भरोसा मत करना । क्षण भर बाद तुम्हारा मन हजार तरकीबें खड़ी कर देगा। मार्क ट्वेन ने लिखा है कि एक सभा में मैं गया। और जो पुरोहित बोल रहा था, बड़ा अदभुत बोल रहा था। पांच मिनिट सुन कर मुझे हुआ कि मेरे पास जो सौ डालर हैं, आज दान कर जाऊंगा। दस मिनट के बाद -- मार्क ट्वेन लिखता है कि -- मुझे भीतर विचार उठने लगा कि सौ डालर जरा ज्यादा हैं, पचास से भी काम चल सकता है। अब सौ के ख्याल करने से सारा संबंध ही टूट गया। क्योंकि अब भीतर एक अंतरंग वार्तालाप चलने लगा, उसके भीतर। आधा घंटा बीतते-बीतते वह पांच डालर पर आ चुका था। और जब करीब-करीब व्याख्यान तीन चौथाई पूरा हो गया था, तब उसने सोचा कि किसी से कहा थोड़े ही है, किसी को पता थोड़े ही है कि मैं सौ देने की सोचा था! और कौन देता है सौ? एक डालर भी लोग नहीं देते हैं, लोग पैसे देते हैं। एक डालर से काम चल जाएगा। और जब थाली उसके पास आयी भेंट मांगने के लिए, तो उसने लिखा है कि वह एक डालर तो मेरे खीसे से न निकला, मैंने एक डालर उठा कर अपने खीसे में डाल लिया... कि कौन देखता है? किसको पता चलेगा? तुम अपने पर ज्यादा भरोसा मत करना ! क्योंकि शुभ कठिन है। कभी-कभी किन्हीं क्षणों में तुम उन चोटियों पर होते हो जब शुभ करने की भावना जगती है। तुमने अगर वह मौका खो दिया तो शायद दुबारा न जगे। शुभ के लिए सोचना ही मत। क्योंकि शुभ का अर्थ ही यह है कि जिसमें सोचने जैसा कुछ भी नहीं है, जैसा है। जब तुम देना चाहो, दे देना। जब बांटना चाहो, तब बांट देना। जब त्यागना चाहो, त्याग देना। जब संन्यस्त होना चाहो, हो जाना। क्षणभर मत खोना । क्योंकि कोई भी नहीं जानता वह क्षण दुबारा तुम्हारे जीवन में कब आएगा। आएगा, न आएगा। और जब बुरा तुम्हारे मन में उठे, तो स्थगित करना । चौबीस घंटे का नियम बना लेना कि किसी को नुकसान पहुंचाना हो, चौबीस घंटे बाद पहुंचाएंगे। जल्दी क्या है? अभी कोई मौत नहीं आयी जा रही है। और आ भी गयी तो कुछ हर्जा नहीं होगा। नुकसान नहीं पहुंचेगा, और क्या होगा? अगर तुम चौबीस घंटे भी रुक जाओ बुरा करने से, तो तुम बुरा न कर पाओगे। क्योंकि बुरा करने की मूर्च्छा भी क्षण में ही आती है। जिस तरह शुभ करने की जागृति क्षण में आती है, वैसे ही बुरा करने की मूर्च्छा भी क्षण में आती है। अगर तुम थोड़ी देर रुक गए, तो तुम खुद ही पाओगे कि क्या हत्या करनी? हत्यारे को अगर दो क्षण रोक लिया जाए, तो हत्या नहीं होगी। नदी में कोई डूब कर मरने जा रहा है, आत्महत्या करने जा रहा है, तुम जरा हाथ पकड़ कर उसको एक मिनिट रोक लो, बात गयी! क्योंकि कृत्य किन्हीं क्षणों में संभव होता है। और तुम्हारे भीतर मूर्च्छा के क्षण होते हैं, सघन मूर्च्छा के, और सघन जागृति के क्षण भी होते हैं। जब सघन जागृति का क्षण होता है, तब तुम प्रेम से भरे होते हो, सृजन से। और जब मूर्च्छा का क्षण होता है, तब तुम बेहोशी से भरे होते हो, विध्वंस से। तब तुम तोड़ डालना चाहोगे, फिर पीछे पछताओगे। पछताने से कोई सार नहीं। अगर पछताना ही हो तो पुण्य करके पछताना। पाप कर के क्या पछताना? लेकिन तुम हमेशा पाप करके पछताते हो। और पुण्य तो तुम करते ही नहीं, इसलिए पछताने का सवाल ही नहीं उठता। नानक कहते हैं कि सोचने से कुछ भी न होगा। कहने से कुछ भी न होगा। शब्दों से पाप और पुण्य का कोई लेना-देना नहीं है। पाप और पुण्य का लेना-देना कृत्यों से है। और परमात्मा के समक्ष तुम्हारा जो हिसाब है, वह तुम्हारे शब्दों का नहीं, तुम्हारे कृत्यों का है। उसके सामने तुम्हारा जो निर्णय है, वह तुमने क्या किया है, तुम क्या हो, उस पर आधारित होगा। तुमने क्या कहा था, क्या पढ़ा था, क्या सोचा था, उससे कोई संबंध नहीं है । तुम्हारे विचार मूल्यवान नहीं हैं। अंतिम निर्णायक बात तुम्हारे कृत्य तो नानक कहते हैं, "मनुष्य स्वयं ही बोता है और स्वयं ही खाता है।" आपे बीजि आपे ही खा साधारणतः हमारा मन कहता है कि दुख हमें दूसरे दे रहे हैं। साधारणतः हमारा मन कहता है, सफलता तो मैं पाता हूं, असफलता दूसरों की अड़चन की वजह से आती है। शुभ तो मेरे जीवन में मेरी उपलब्धि है और अशुभ दूसरों के द्वारा मेरे जीवन पर आरोपण है। यह बात बिल्कुल ही गलत है। तुम्हारे जीवन में जो भी है, वह तुम्हारे ही कृत्यों कीशृंखला है। शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा, फूल लगें, कांटे लगें, सभी का संपूर्ण दायित्व तुम्हारे ऊपर है। जिस दिन कोई व्यक्ति इसका अनुभव करता है, टोटल रिस्पांसिबिलिटी, समग्र दायित्व मेरा है, उसी दिन से जीवन में क्रांति शुरू हो जाती है। जब तक तुम दूसरों पर टालते हो, तब तक क्रांति न होगी। क्योंकि अगर दूसरे दुख दे रहे हैं तो तुम क्या करोगे? जब तक सभी दूसरे न बदले जाएं तब तक दुख जारी रहेगा। और सभी दूसरे कब बदले जाएंगे? तो फिर दुख को झेलने के सिवा कोई उपाय नहीं है । इसलिए धर्म के अतिरिक्त दुख के रूपांतरण की कोई कीमिया नहीं है। जिस दिन तुम जानोगे, मैं अपने ही बोए हुए बीजों की फसल काटता हूं। और जो दुख मैं पा रहा हूं, वह मैंने ही दिया है, फैलाया है, वही अब लौट रहा है... । निश्चित ही, बीज बोने में और फल आने में वक्त लगता है। वक्त लगने के कारण तुम भूल ही जाते हो कि तुमने ये बीज बोए थे, और अब ये फल आने शुरू हो गए। जब फल आते हैं तब तुम बीज बोए थे, यह ख्याल विस्मरण हो गया है। उस विस्मरण के कारण तुम सदा सोचते हो, दूसरे कुछ कर रहे हैं। ध्यान रखना, यहां कोई दूसरा तुममें चिंतित नहीं है। दूसरे अपने लिए चिंतित हैं। दूसरे अपने कारण परेशान हैं। तुम अपने कारण परेशान हो। और हर आदमी अपने ही कृत्यों की खोल में रहता है। इस बात को जितना तुम ठीक से पहचान लो, उतनी ही गहरी क्रांति संभव हो जाएगी। क्योंकि जैसे ही यह समझ में आता है कि मैं ही जिम्मेवार हूं, कुछ किया जा सकता है। दो कामः एक कि जो मैंने किया है पीछे, उसे मैं शांति से भोग लूं, उसके भोगने में और नयी अशांति खड़ी न करूं, तो अतीत की निर्जरा हो जाएगी। लेन-देन साफ हो जाएगा। बुद्ध के ऊपर एक आदमी थूक गया, तो बुद्ध ने थूक पोंछ लिया अपनी चादर से। वह आदमी बहुत नाराज था। बुद्ध के ऊपर थूका तो बुद्ध के शिष्य भी बहुत नाराज हो गए। लेकिन जब वह आदमी चला गया, तो आनंद ने पूछा कि यह बहुत सीमा के बाहर हो गयी बात। और सहिष्णुता का यह अर्थ नहीं है। और इस तरह तो लोगों को प्रोत्साहन मिलेगा। और हमारे हृदय में आग जल रही है। आपका अपमान हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। बुद्ध ने कहा, तुम व्यर्थ ही उत्तेजित मत होओ। यह तुम्हारा उत्तेजित होना, तुम्हारे कर्म कीशृंखला बन जाएगी। मैंने इसे कभी दुख दिया था, वह निपटारा हो गया। मैंने कभी इसका अपमान किया था, वह लेना-देना चुक गया। इस आदमी के लिए ही मैं इस गांव में आया था। यह न थूकता तो मेरी मुसीबत थी। अब सुलझाव हो गया। इससे मेरा खाता बंद हो गया। अब मैं मुक्त हो गया। यह आदमी मुझे मुक्त कर गया है, मेरे ही किसी कृत्य से। इसलिए मैं धन्यवाद करता हूं उसका। और तुम नाहक उत्तेजित मत हो। क्योंकि तुम्हारा तो कुछ लेना-देना नहीं है इसमें। लेकिन अगर तुम उत्तेजित होते हो और तुम उस आदमी के खिलाफ कुछ करते हो, तो तुम एक नयीशृंखला बना रहे हो। मेरीशृंखला तो टूटी और तुम्हारी व्यर्थ बन गयी। तुम बीच में क्यों आते हो? जिन्हें मैंने दुख दिया है, उनसे मुझे उत्तर लेना ही पड़ेगा। और मेरी परिपूर्ण समाप्ति के पूर्व-- जिसको वे महापरिनिर्वाण कहते हैं--इसके पहले कि मैं अनंत में पूरी तरह लीन हो जाऊं; व्यक्तियों से, वस्तुओं से, संबंधों में, क्रोध में, अपमान में, घृणा में, मोह में, लोभ में, जो भी नाते-रिश्ते बने हैं, उन सबकी निर्जरा हो जानी जरूरी है। उसको ही हम परममुक्त पुरुष कहते हैं, जिसके सारे कर्मों की निर्जरा हो गयी। तो एक तो ध्यान रखना कि अतीत में जो किया है, उसे शांत भाव से, संतोष से, परम तृप्ति से, निपटारा समझ कर, प्रसन्नता से पूरा हो जाने देना। नयीशृंखला खड़ी मत करना । तो अतीत से संबंध धीरे-धीरे शांत हो जाता है। और दूसरी बात है कि नया कुछ मत करना दूसरे को दुख देने के लिए। अन्यथा फिर तुम बंधे हुए चले आओगे। हम अपने ही भीतर अपनी जंजीरों को ढालते हैं। तो पुरानी जंजीरों को तोड़ना है और नयी बनानी नहीं। ये दो बातें ख्याल रखना। महावीर के दो शब्द बड़े प्रिय हैं। एक शब्द है आस्रव, और एक है निर्जरा। आस्रव का अर्थ है, नए को आने मत देना। और निर्जरा का अर्थ है, पुराने को गिर जाने देना। धीरे-धीरे एक ऐसी घड़ी आएगी कि पुराना कुछ
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बहुत ही खुश हुये। पास में बिठाकर बड़े ही प्यार से बातें करते हुये मुझे खूब तरक्की करने को प्रोत्साहित करने लगे। बाद में मुझे मालूम हुआ कि प्रधान शिक्षक से मेरे बारे में वे बहुत सी बातें पूछ रहे थे । हाँ, तो मिडिल फर्स्ट डिविजन में मैंने पास किया। कुछ ही दिनों बाद मेरे हेड मास्टर साहब के यहाँ उनका पत्र थाया कि मुझे अंग्रेजी स्कूल में जरूर ही दाखिल कराया जाय । बस क्या था ? सफलता तो चेरी बनकर मेरे आगे-पीछे घूमने लग गयी। इण्टर तक पूरी फील माफ रही। ट्यूशन करके अपनी पढ़ाई का खर्च निकाल लेता रहा। हाँ, युनिवर्सिटी के जमाने में खर्च चलाने के लिये कुछ नया काम करना पड़ा। बस उपन्यास लिखने लग गया। पैसे मिलते गये। फिर युनिवसिटी में भो 'मेरिट' के कारण मेरी फीस बराबर माफ रही। पढ़ता चला गया । बढ़ता चला गया । हमेशा अव्वल आता रहा लेकिन इससे यह न समझना कि चौबीस घण्टे में किताबी कीड़ा बनकर पढ़ता ही रहता था। पढ़ता भी था, खेलता भी था, सामाजिक जीवन में होने वाले समारोहों, उत्सवों, खेल-तमाशों, आन्दोलनों - सभी में बराबर भाग लेता रहा । किताबों तक ही मेरी दुनियाँ सीमित नहीं रह गयी थी। फिर कोर्स की किताबें कम, बाहरी किताबें ज्यादा पड़ता था । अपने क्लास के लड़कों से कम, बल्कि अपने से ऊँचे क्लास के लड़कों से ज्यादा सम्पर्क रखता था। छात्र जीवन की हलचल, जागृति, जोश से भी दूर नहीं रहता था। कभी-कभी साथियों के सङ्गसाथ के कारण उच्छृङ्खल अवश्य हो जाता था किन्तु सदैव अनुशासनप्रिय होने का अभ्यास करने की चेष्टा में लगा रहता था । वैसे इस दौरान में कोई बहुत खास बात तो नहीं हुयी । बस यही कि बहुत पढ़ा, बहुत देखा, बहुत सुना, बहुत जाना । मेरा निर्माण इसी काल में हुआ और इस काल में सीखी हुथी तत्व की बातों पर फिर कभी विवेचना होगी लेकिन जिस घटना ने मेरे जीवन में महान उपस्थित कर दिया उसका सम्बन्ध है मेरी पैदायश व मेरे माँ बाप से " श्रव सेठजी बोलेइसी हिस्से को सुनने के लिये इतनी देर से बैठा हूँ क्योंकि अभी-अभी मुझे ख्याल आया कि मुझे ज़रूरी कामों से कुछ सरकारी अधिकारियों से आज मिलने जाना था। ठीक है, वह सब होता ही रहेगा लेकिन तुम्हारे जैसा श्रादमी कहाँ रोज़ किसी को मिलता है ।" "बाबूजी ! आपको थादेश देना चाहिये था। शुरू में ही मैं वही पहले सुना दिये होता । अच्छी बात है।" कहकर क्षण भर मौन रहकर मैं पुनः कहने लगा"कहानी के इस हिस्से में भी दो ही बात मेरे समझ से ज्यादा महत्वपूर्ण है। दो क्यों तीन । अपनी माँ के पेट में आने के पहले मेरे पिताजी के जीवन की झाँकी, गर्भावस्था काल में मेरी और मेरी माँ की जिन्दगी, और तीसरी बात यह कि इन बातों की मुझे कैसे जानकारी हुयी और उस जानकारी का मुझपर क्या असर हुआ ? मामा के घर मेरी परवरिश ही नहीं पैदायश भी हुयी क्योंकि मेरी माँ ने अपनी ससुराल छोड़ दी थी, या यह कहिये कि मेरे पिता के जन्मस्थान में उस गाँव वालों ने मेरी गर्भवती माँ को रहने ही नहीं दिया। माँ के सर पर कोई नहीं था । अबला के लिये और कौन सा दूसरा रास्ता ही बचा था । मेरी माँ महान है और सचमुच उसी की शालीनता, सुबुद्धि एवं साहस का परिणाम है कि मैं जिन्दगी में निडर होकर छाज भी बढ़ता चला जा रहा हूँ। मेरी माँ क्या है बस लक्ष्मी समझो । समाज के हाथों बुरी तरह सतायी हुयी है । उफू कमी-कमी जी में थाता है कि ऐसे समाज के सीने पर चढ़कर, उसका खून पी डालूँ किन्तु मेरे प्रति अध्ययन ने मुझे शेर से बकरी बना दिया है । मन में जब कोई विचार सिद्धान्त बनकर मन की बुनियाद में जमकर बैठ जाता है तो उसके प्रभाव को मिटाना मुश्किल हो जाता है। मैं नहीं मानता कि इन्सान अपने स्वभाव से जानवर होता है । मिट्टी में मूर्ति बनने की प्रतिभा छिपी हुयी है । शिल्पी जड़ में प्राण डालता अपने कलात्मक स्पर्शो से जड़ को चैतन्थ बनाता है। मिट्टी के लोंदे सुन्दर खिलौने में बदल देता है। इन्सान में तमाम सद्गुण किन्तु उसका दर्शन हमें नहीं हो पाता। सच है, सामाजिक परिस्थितियाँ मानव का निर्माण करती हैं। विद्वान के समाज में रहते-रहते श्रादमी कहाँ कहाँ नहीं पहुँच जाता । सामाजिक परिस्थितियाँ मानव मन में निहित प्रतिभा के अंकुर को सींच कर उसे पौधे की शकल देती हैं। और वही पौधा एक दिन बढ़कर कल्पवृक्ष हो मानव मंगल में करत हो जाता है। भला आदमी भी चोर डाकुओं की सोहबत में पड़कर बुरा बन जाता है। इसलिये मैंने तै कर लिया है कि मुझे उन सभी सामाजिक परिस्थितियों से लड़ना है जो मानवमात्र को आगे बढ़ने से रोकती हैं। और आजकल सारी बुराइयों की बुनियाद में दुबका हुआ मिलेगा आपको यर्थं वैषम्य हो । यही वर्तमान युग की भयकर बुराई है। इसी को दूर करना है। लेकिन कैसे ? बुराई को बुराई से या बुराई को भलाई से ? यही प्रश्न आाज अखिल विश्व के समक्ष है। खैर, छोड़िये इन बातों को । अब जरा आँसुओं से भींगी हुयी एक कहानी सुनिये। उसी का श्राशय मैं सुना रहा हूँ । इसे - मुझे मेरी माँ ने सुनाया था । और सीधे-सीधे तो उन्होंने सुनाया नहीं ? " "रूठना पड़ा होगा।" सुधीर ने कहा । "सुनो भी, उपद्रव मचा कर रख दिया न बचपन में मैं माटी का • माधो मात्र नहीं था। काफी शरीर था । कभी-कभी उलाहने सुनते-सुनते माँ रो पड़ती थी लेकिन पढ़ने-लिखने में -भान्जा था ही, सभी लोग मुझे बहुत करीब है साल का था। यही कक्षा एक या दो की बात है। मैं दजें का मानीटर भी था । बात-बात पर बच्चों का आपस में झगड़ जाना कोई नयी बात नहीं है । एक दिन की बात है कि छुट्टी हुयी, हम सभी घर लौट रहे थे कि एक बहुत ही छोटे बच्चे को अनायास ही कोई दूसरा हट्टा-कट्टा श्राट नौ साल का लड़का पीटने लग गया। मैंने उस छोटे बच्चे की मदद की। और भी लड़कों ने मेरी सहायता की। दोनों को अलग किया। लड़ाई बन्द हो गयी किन्तु बड़ा लड़का मुझे घंटमट बकता ही रहा । इसी वक्फ उस शरारती लड़के के पिता जी वहाँ ग्रा पहुँचे। वह रोकर उनसे मेरी मुठ की शिकायतें करने लगा । उसने अपने बाप से इतना तक कह डाला कि मैं उसे माँ-बाप की गालियाँ दे रहा था । बाप ने उससे कहा- जाने दो बेटा, इसके बाप नहीं हैं। फिर यह बाप की क्या कदर जानें, चलो, आपस में झगड़ा नहीं किया जाता । खैर भगढ़ा तो खतम ही हो चुका था लेकिन एक और ही भयङ्कर किस्म के झगड़े की बुनियाद मेरे मन में नहीं पड़ गयी । घर पहुँचते ही माँ से मैं रूठ गया । बोलाजब तक मेरे पिताजी के बारे में सारी बातें बता दोगी तब तक में खाना न खाऊँगा। माँ ने कहा- बेटा, मुझी को अपना सब कुछ समझ । तेरे पिताजी तेरे पैदा होने के पहले ही चल बसे थे। इतना तो मैं कई बार बता चुकी हूँ। मैंने पूछा- लेकिन भाँ तुमने गाँव क्यों छोड़ा ? यह पिताजी का जन्म स्थान था। उसे छोड़ना नहीं चाहिये था।" भेरी इतनी सी बात सुनकर मेरी माँ की आँखों में आँसू उमद आये । मैंने फिर कहा- माँ क्यों रोती हो । जाने दो, वहाँ में थोड़े ही तुमसे चलने को कहता हूँ। यहीं रहो लेकिन रोना बन्द करो। माँ ने कहाबेटा, रो रही हूँ अपने समय पर । मेरे भी घर-द्वार, खेती-बारी, सब कुछ था । तेरे पिता खेती के पूरे परिडत थे। गाँव में सबसे ज्यादा गला पैदा करते थे। वह आज होते तो क्या यहाँ भाई के दरवाजे बैठकर रोटी तोड़नी पड़ती। मैंने कहा- माँ, इसमें क्या है ? मामा अपने घर में तुम्हें सिर्फ एक कोठरी दिये हैं न ? चरखे कर सूच बनाती हो, हाथ से कपड़े सिजती हो, इसी से कपड़े सिजती हो, इसोसे हम दोनों के वास्ते काफी मजूरी मिल जाती है। कोई मामा का थोड़े ही खाते हैं । माँ ने कहा-बेटा सब कुछ सही है लेकिन तेरी मामी को नहीं विश्वास पड़ता । वह समझती है कि तेरे मामा ही चोरी-चोरी हमलोगों की परवरिश करते हैं। यों वह कुछ खुलकर नहीं कहती लेकिन उसके व्यवहार से इसका संकेत तो मिल ही जाता है। मैंने कहा- माँ क हो अपने गाँव ही लौट चलें। बस गाँव का नाम सुनते ही उसकी आँखों के आँसू सूखने लगे। माँ का घेहरा जाल हो आया किन्तु व मौन रही। मैंने पुनः पूछा- माँ क्यों नहीं गाँव लौट चलती ? माँ ने कहा- बेटा, वहाँ क्या रक्खा है ? फिर जो कुछ था उसे मैंने तेरे चाचा को तेरे जन्म की खुशी में भेंट कर दिया। "तब मैं अपने चाचा से मिलूँगा तो वह मुझे देखकर बहुत खुश होंगे। क्यों माँ ?" माँ चुप रही। मैंने रूठते हुये कहा- माँ क्या बात है कि तुम कमी रोने लगत हो, कभी हँसने लगती हो, कभी उदास हो जाती हो। और गाँव लौट चढ़ने को क्यों नहीं राजी होती ? क्या हमलोगों ने किसी का कुछ चुराया है ? अच्छा धबड़ाओ नहीं। जरा बड़ा होने दो, और बड़ा क्या, कभी भी मैं पूछते-पूछते वहाँ अपने से चला जाऊँगा तब नाराज न होना माँ । क्यों सुधीर ? सुन रहे हो न ?" "जी हाँ, बखूबी। आपने माँ को धमकी दी ?" " यह भी कह सकते हो पर माँ की ममता तो जानते ही हो । फिर में ही उसका सर्वस्व था । वह चौबीस घण्टा मेरे पीछे पागल गनी रहती थी। बारी-बगीचा, ताल तलैया, नारे-खोरे बस मेरे पीछे-पीछे छाया बनकर घूमती रहती थी। किसी भी पेड़ पर ज्योंही चढ़ने को मैं तैयार होता कि बगल में माँ खड़ी हुग्री मिल जाती। वैसा करने [ गाँधो चबूतरा को मना करती। जब मैं ज़िद करने लगता तो वह आँसुओं के प्रमोघ अस्त्र से मेरी बाल सुलभ चञ्चलता और शैतानी पर विजय प्राप्त कर बेती। पड़ोस में एक पोखरी थी मेरे घर से निकलते ही । बस वह जाकर उसी पोखरी के किनारे बैठ जाती क्योंकि पढ़ी-लिखी समझदार होते हुये भी अपनेपन के मोहवश उसने गाँवों में घूमने-फिरने वाले मँगता टाइप के किसी योगी से कभी यह सुन रक्खा था कि मुझे ग्रह है तथा दस वर्ष की उमर तक पानी से दूर ही रक्खा जाय। इसलिये मेरी माँ, दीवानी मीराँ बनकर मेरी बाट जोहती उस पोखरी के भीटे पर जा बैठती और मुझे वहाँ श्राते देखकर दूर से ही छाती पीटती दौड़ती मेरे पास या जाती और मुझे पकड़कर घर लौटा ले जाती । सोचो, ऐसी माँ मेरे जैसे सात साल के बालक को अकेले मला है गाँव से बाहर कैसे जाने देना गवारा कर सकती थी । मेरी बातें सुनकर वह जैसे डर गयी। सोचा होगा, कौन जाने में चला ही जाऊँ. तब बहुत ही बुरा होगा ? गाँव की सीमा के बाहर जो कभी नहीं गया वह कैसे बिना जाने अकेले ही इतनी लम्बी-चौड़ी यात्रा ते कर सकेगा। बस उसकी आँखों में शनैः शनैः आँसू... आवाज भी उसकी भारी हो गयी। उसने कहा- बेटा, मैं दुनियाँ में सबसे बड़ी दुखिया हूँ । तुम्हीं मेरे एक आधार हो । ऐसी बातें कहकर मुझे दुखित न. किया करो । बेटा, गरीब की कमजोरी ही अमीर की ताकत है। इस दुनियाँ में गरीब और कमजोर होने से बढ़कर और कोई भी दूसरी खराब बात नहीं है। मुझे कमजोरी, गरीबी और बहुत सी बातों से इतना लड़ना पड़ा है और आज भी लड़ना पड़ रहा है कि शायद मेरी जगह कोई और दूसरी नारी होती तो उस बेचारी की बुरी गत हो गयी होती । लेकिन तुम्हें इन बातों की फिकर नहीं करनी है। अभी मैं हूँ । खूब खाओ, खेलो और अच्छे लड़कों की तरह जी लगाकर पढ़ी-लिखो और एक दिन इस काबिल बन जाओ कि मैं इतना आँख भर देख सकूँ कि तुम दुनिया के सुयोग्य लोगों में से एक हो । तब मरूँ । बस मैं ऊँ ऊँ करके रोने का बहाने करने लगा। माँ ने कहा - अच्छा मैं नहीं मरूंगी लेकिन वादा करो कि मुझे छोड़कर अकेले कहीं नहीं जाओगे। मैंने कहा- नहीं जाऊँगा । माँ मुझे दुलराने लगी, चूमने लगी, बहुत बहुत तरह से प्यार करने लगी। वह मुझे अब भी गोदी का शिशु ही समझती थी। माँ को बहुत ही खुश देखकर मैंने उससे पूछा- क्या पिता जी ने मेरा मुँह देखा था ? उसने कहा - बेटा, तुम पेट में ही थे, उसी समय उन्हें समाज की बुराइयों से लड़ते-लड़ते शहीद हो जाना पड़ा था। मैंने कहा - माँ, यह शहीद क्या होता है ? माँ ने कहा -- दूसरों के लिये, अपने को मिटा देना, मर जाना, समझता था सब कुछ शहीद आदि लेकिन माँ से मुझे बहुत सारी बातें पूछनी थी । इसीलिये ऐसा सवाल कर बैठा ।" "वही तो मैं सोच रहा था कि मला आप... "हाँ, तो मैंने माँ से फिर कहा- इसीलिये उस दिन मामी पड़ोस की पण्डिताइन से कह रही थी - यह सोच कर कि मैं उन बातों को क्या समझ सकूँगा - कि "जन्मतै खाये, बाप महतारी" और सब मामा मामी की बारी है। माँ ने कहा - बेटा, इन छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जाता। एक दिन तुम देश के बहुत बड़े लोगों में से एक होगे। और जब बड़ा बनना है तो अभी से बड़ों जैसी आदत डालो । बड़े लोग छोटी बातों पर कहाँ ख्याल करते हैं। वैसे उनकी नजरों से कोई भी बात छूट नहीं सकती। छोटी बातों से मतलब यह है कि गन्दी बातें, तुच्छ बातें । मैंने कहा- अच्छा माँ पिता जी के सम्बन्ध में सारी बातें सुना जाओ । वह कैसे थे ? माँ वह होते तो कल बहुत ही खुश हो जाते । दर्ज में अव्वल आया हूँ । इसी से कल डिप्टी साहब ने मुझे तस्वीरों की कई किताबें इनाम में दी हैं। तुम तो उन्हें देख चुकी हो... बस इतना सुनना था कि माँ फुका फाड़कर रोने लग गयीं । घरे माँ रोने लग गयी... इस वाक्य के पूरा होते होते तक मेरी भी आँखें भर आयीं। सामने देखा, थरे सभी के कपोल तर हो रहे हैं ! सेठ जी तो बिना कुछ कहें सुने ही आँसू पोंछते हुये यहाँ से उठकर चले ही गये। मैं भी अपने को रोक न पाया । इसी समय अपने आँसू पोछते हुये सुधीर ने कहा"प्रसंगान्तर की आवश्यकता है ।" "ठीक कहते हो, सचमुच 'मूड' बिगाड़ दिया लेकिन क्या कहूँ ?" "कुछ नहीं ! यह जीवन है। फिर आपको क्या बताना ? अच्छा, आप वहाँ से सुनाइये - जब श्राप पेट में नहीं थाये थे, उसके पूर्व अपने पिताजी की जीवन गाथा और पेट में आने के बाद आप माँ को किन परिस्थितियों के कारण अपनी ससुराल छोड़नी पड़ी क्योंकि श्रब काणिक प्रसंग सुनते-सुनते जी भर गया है। आखिकार बाबूजी से बर्दाश्त नहीं ही हुआ और वह चले गये । " "अच्छी बात है, तो सुनो, मेरे मामा का गाँव शहर से कोई छेः सात भील उत्तर गङ्गाजी के किनारे पर बसा है। वहाँ से कोई पचाससाठ मील दक्षिण राबर्ट सगञ्ज तहसील में 'पलाशपुर' नाम का एक गाँव है । वही मेरा असली स्थान है। वहाँ मेरा जन्म नहीं हुआ तो इससे क्या ? माँ के पेट में तो वहीं थाया। पिताजी गाँव के एक अच्छे खासे खेतिहर किसान थे । पिताजी के दो छोटे भाई भी थे। मेरे दोनों चाचा अब भी हैं बल्कि अब तो मेरी खूब खातिरदारी करते हैं। हमेशा हर पसल पर तरह-तरह का सामान माँ के पास पहुँचाते रहते हैं और पहले यह हालत थी कि माँ उन लोगों का मुँह भी देखना नहीं चाहती थीं किन्तु मैंने ही उनको बहुत समझाया । मान गयीं लेकिन इसके लिये राजी नहीं ही कर सका कि एक बार वह पलाश पुर चलकर, वहाँ घण्टे सर ही रहकर चल झावें ! सभी लोगों ने बहुत समझाया, दोनों चाचा उनके पैरों पड़े मगर माँ नहीं हो गयीं वहाँ। मैंने भी उन लोगों से कह दिया कि ज्यादा जिद न करें। मैं हर काम-काज में शामिल होता रहूँगा । जब कभी मुझे मौक मिलता तो मैं वहाँ यजा भी जाता रहा हूँ किन्तु पचास बोधा के ऊपर खेत, बारी, बगीचा, घर-द्वार जो माँ ने छोड़ा तो फिर उनकी तरफ फूटी थाँखों से भी नहीं देखा। जब शहर में रहकर मैं पढ़ने लगा तब से चाचा लोगों का मुझप्ले मिलने-जुलने का सिलसिला चालू हुआ। मुझे भी वे बाज़ौकात सहायता करते ही रहे किन्तु ये बातें माँ की चोरी-चोरी ही कुछ दिनों तक चल पायीं ।" इसी समय सुधीर ने प्रश्न किया"लेकिन इन्हीं लोगों के कारण शायद माँ को अपना घर-द्वार छोड़ना बड़ा रहा हो ? ऐसी सूरत में भला वह कैले इन लोगों से खुश रह सकतीं थीं ? अपनी माँ की इच्छा के विरुद्ध अपने चाचा लोगों से सम्बन्ध स्थापित करके क्या आपने उचित किया ?" " सुधीर ! क्यों भूल जाते हो कि मैं आदमी को मूलतः स्वभाव से दुष्ट नहीं मानता । शैतान मी आदमी बनना चाहता है, जानवर भी आदमी बनना चाहता है, और तो और, देवता तक आदमी बनने की ख्वाहिश रखता है। यह मानव महान है न ? पिता जी की मृत्यु के समय मेरे दोनों चौचा काफो नौजवान हो चुके थे। उनकी बहुयें या चुकी थीं । कई बाल-बच्चे तक उन्हें हो चुके थे । वे कायदे से चले होते तो न घर गृहस्थी ही मेरी बिगड़ती और न माँ पर मुसीबतों का पहाड़ ही टूटता पिता की मृत्यु से माँ जर्जर हो ही चलीं थीं, अनाथ हो गयी थीं कि तत्काल उनपर दूसरा साङ्घातिक प्रहार हो गया । एक घाव भरा नहीं था कि दूसरा फोड़ा निकल आया । हमारे देश की विधवाथों की कहानी न पूछो । हाँ, तो बात यह है कि पिता जी की जिन्दगी में उनके साथ-साथ घर और परिवार के सभी लोग उस जमीदार का डटकर मुकाबिला करते रहे किन्तु उनके मरते ही जमीदार [ गाँधी चबूतर ने मेरे चाचा लोगों को अपने पक्ष में कर लिया। उन लोगों को बहूकाया कि भौजाई को मारो ज्ञात और बस कोई ऐसा फसाद पैदा करो कि वह ऊबकर या तो आत्महत्या ही कर डाले या घर ही छोड़कर भाग जाय । उस वक्त तक मेरी माँ को कोई भी सन्तान नहीं हुयी थी । और दोनों चाचा के कई बच्चे कच्चे हो गये थे। घर की बहुथों ने भी सुर में सुर मिलाया । कितना फायदा था । जमीदार से चलनेवाली रञ्जिश खतम हो जाती, भाई की सारी जायदाद दोनों मिलकर बाँट लेते । फिर बात इतनी ही तो थी नहीं और इतनी ही होती तो शायद माँ को घर न छोड़ना पड़ता मगर वहाँ तो एक तीसरी और बहुत ही भयङ्कर किस्म की बात पैदा हो गयी थी। " इतना कहकर मैं चुप होकर कुछ सोचने लगा । " माँ और दोनों चाचियों में झगड़ा होना भी रहा होगा ।" सुधीर ने कहाशुरू ही हो गया "यह तो मामूली बात है। यह जानते ही मृत्यु के समय मेरी माँ को तीन महीने का गर्भ पैदा हुआ । माँ खद्दर, सुत, चर्खा, तकली श्रादि की प्रेमी शुरू से ही रही हैं। गरीबों के लिये अपने हृदय का दरवाजा हमेशा खुला रखती. थीं। गाँव के हरिजन चमार जब कभी उनसे किसी प्रकार की आर्थिक सहायता के लिये कहते तो वह खुले श्राम या छिपाकर उन सबों की मदद गल्ले से, रुपये से कर देतीं थीं। उन्हीं की प्रेरणा से गाँव के सारे गरीब, विशेषतः हरिजन समाज, पिताजी की पूजा पीर की तरह करते थे। गाँव के जमींदार को यह सब कत्तई पसन्द नहीं था। उन दोनों के बीच रञ्जिस की यही वजह थी। उनकी मृत्यु के छः महीने पूर्व की बात है कि गाँव के पूरब तरफ, हरिजन बस्ती से सटकर, एक तालाब था, जो काफी छिछला था किन्तु पानी उसमें फिर भी बरसात का जमा हो ही जाता था । आसपास के मवेशियों के पानी पीने की यही एक जगह रही हो, ऐसी बात बिलकुल नहीं थी । वहाँ और भी कई तालाब थे। हाँ, हरिजनों को इस तालाब से ज्यादा फायदा था। इसी लिये इस तालाब को जुतवा कर फसल बोने की योजना जो जमींदार ने हरिजनों से नाराज होकर बनायी कि बेचारे सभी के सभी हैरान हो गये। हरिजनों के बीच युग की चेतना एवं जागृति की लहर पहुँच चुकी थी । वे पहले की अपेक्षा अब अधिक सङ्गठित थे। जमींदार द्वारा मुफ्त में उनसे पुरवट वाला मोट, कच्चे चमड़े का जूता, हरी-बेगारी आदि की वसूली अरसे से चली आ रही थी किन्तु जन-जागृति के परिणाम स्वरूप ये चीजें धीरे-धीरे बन्द होने लग गयी थीं। इतना तो यहाँ भी हो चुका था कि जहाँ एक चमार को चार जोड़ा जूता जमींदार को साल में देना पड़ता था मुफ्त में, वहाँ जमींदार को अब एक ही जोड़ा पाकर सन्तोष कर लेना पड़ता था । पुराना रोब-दाब भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा था। उनकी जागृति एवं सङ्गठन को कुचलने के ख्याल से जमींदार ने यह कुचक्र चलाया था । बस यहीं से महाभारत का श्रीगणेश हुना समझो । " सुधीर ने कहा"कांग्रेस के हाथ में ताकत थायी नहीं कि जमींदारी प्रथा का पहले ही विनाश करेंगे ।" "कोई एहसान थोड़े ही करेंगे। यह युग की माँग है। युग के. साथ कदम में कदम मिलाकर चलेंगे, तभी वे लोग भी कुछ दिनों तक. टिक सकेंगे। लेकिन अभी तो हमें गोरे जमींदारों को भगाना है। बाद में कालों से निबट लिया जायगा ।" "सही कहा आपने। हाँ, तो पिताजी ने हरिजनों के नेतृत्व की बागडोर निश्चय ही सम्भाल ली होगी । "उस 'कुर्गजवार' में और कौन था ही उन बे-ज़बानों की तरफ.. * पास-पड़ोस । से बोलने वाला। शव धीरे-धीरे जमींदार के यादमियों के द्वारा हरिजनों को सताया जाना शुरू हो गया। वे सर पटक कर रह गये । बाख प्रयत्न किया किन्तु उस तालाब में जमींदार का हल नहीं ही चल पाया । -हरिजनों के सङ्गठित विरोध ने व्यापक रूप धारण कर लिया। शास-पास के लोगों ने इस संक्रामक बीमारी को समझौते की दवा के द्वारा बढ़ने से रोका । बन्दूक की गोलियाँ, लठैतों का बल, पुलिस, सरकार समी का नैतिक समर्थन प्राप्त किये रहने पर तथा सभी साधनों से सम्पन होने पर भी स्थिति की गम्भीरता ने जमींदार को हरिजनों से समझौता करने को विवश किया। इस अल्पकालीन संघर्ष में जमींदार की जो छीछालेदर हुयी कि उसका सारा जमींदारी का रङ्ग ही हवा हो गया । लेकिन वह टुटपुँजिया सामन्त इतनी बेइज्जती बर्दाश्त करके कभी चुप बैठा रह सकता था ? पिताजी उसकी आँखों में गड़ गये। वह जरा रोज शाम को भाँग की दो पत्ती सिलबट्टे पर रखकर शिवजी की परसादी' के रूप में उसे ग्रहण कर लेने के शादी से हो गये थे । षड्यन्त्र रचकर उन्हें भाँग में जहर दिलवा दिया और वह श्रानन-फानन की बीमारी में चल बसे । लेकिन उनकी मौत जहर खोरी ही से हुयी, इस बात की खबर, उस वक्त, किसी को भी कानों-कान नहीं लग सकी। उन दिनों पास-पड़ोस के गाँवों में हैजे की बीमारी का प्रकोप फैला हुआ था। उन्हें भी कै-दस्त होने लगी थी और चटपट दो-तीन घन्टे में खून का के करते हुये वे चल बसे । इस थाक्समिक मृत्यु से कुछ लोगों को उस समय अवश्य थोड़ा शक हुआा किन्तु जमींदार के सधे हुये गोइन्दे जैसे पटवारी, पुरोहित, मुखिया मेरे चाचा-द्वय को तुरन्त ही दाह-क्रिया कर डालने को जोर देने लगे। शायद उन्हें डराया-धमकाया भी कि कहीं जमींदार ने पुलिस को उकसा दिया और पुलिस थाकर कहने लगी कि पंडितजी ने शात्महत्या की है तब तो एक दूसरा ही बावेला मचा जायगा । मुसीबत अकेले नहीं आती। बस चाचा-द्वय ने तुरन्त ही पास ही नदी के किनारे उनका दाह संस्कार सम्पन्न कर डाला। सच तो यह है कि वे कोई 'कॉलरा' से मरे नहीं थे। साफ जहर खोरी का मामला था । बेचारे चाचा-द्वय विपत्ति में पड़ गये थे। वे दोनों उसी मुसीबत से औौर-तौर हुये जा रहे थे और यहाँ यार लोगों ने एक नयो मुसीबत का नकशा लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया । इसलिये अपनी से चे काम ले नहीं पाये। अव गाँव के वे ही गुर्गे लग गये दोनों चाचा का कान भरने और उनको इस बात का यकीन दिलाने कि पंडितजी को जहर देकर मार डाला गया है। ऐसे ही गुर्गों का एक दूसरा 'सेट' था जो बाग्वा द्वय एवं जमींदार में छाब समझौता कराने को प्रयत्नशील हो गया था। चाचा-द्वय जमींदार के उन गोइन्दों को बातों में आ गये और इस तरह ब्राह्मण ठाकुर की बहुत पुरानी लड़ाई खतम हुयी । देखते-देखते जमींदार और चाचा-द्वय में इतनी सुहब्बत गयी कि पिताजी की 'तेरही' में ब्राह्मण भोजन की सारी व्यवस्था को जमींदार ने अपने हाथों में ले लिया तथा अपनी निजी देख-रेख में वह सारा कार्य सम्पादन करता रहा। जमींदार कहने लग गया था. माई, शान की लड़ाई थी हमारी और पंडितजी की। मेरे लिये उनके भाई वैसे ही हैं जैसे मेरे अपने भाई । अब वह उनकी तारीफ करते नहीं था। उधर उनका काम-काज बीता और इधर मेरे चाचाद्वय अपने विश्वासीजनों के साथ जहर देने वालों की तलाश में पड़े। सुधीर, जरा यहीं से गौर करना । इसी जगह से एक अन्य भयकर कोटि के काण्ड की भूमिका तुम्हारे सामने आ रही है। वहीं तीसरी भयकर बात...।" "यही न कि जमींदार ने जहर दिलवाया लेकिन अपने चाचा-द्रय को विश्वास न हुआ होगा ।" "क्या तमाशा करते हो ! चाचा-द्वय के सामने जहरखोरी कीं चर्चा के सिलसिले में ठाकुर का नाम तक नहीं आया। आश्चर्य है कि उस गाँव में चिड़िया का कोई पूत भी उन दोनों को यह सुझाव देने वाला नहीं रह गया था कि इस सारे कुकृत्य के पीछे जमींदार का ही हाथ है। बेचारे हरिजनों की बात कौन सुनने ही जाता। फिर जब उनका नेता ही इस दुनियाँ में नहीं रहा तो वे किस बिरते पर सिर उठाते । जनाब ! वहाँ बिलकुल ही नयी 'थियरी' की बुनियाद डाली गयी ?" "आखिर वह क्या ?" "सुनकर ताज्जुब होगा। स्थिति यहाँ तक बिगड़ गयी कि पिता जी के गत होने के एक महीना बीतते-बीतते माँ को वह गाँव छोड़कर डूब मरने की नौबत श्री गयी । वह कहीं मुँह नहीं दिखा सकती थीं । जो स्त्री गाँव में नमूने की नारी थी, वही अब घीर दुश्चरित्रा घोषित की जाने लगी थी और उसे ऐसा कहने वाले थे उसके दोनों देवर और ये दोनों जमींदार और गाँव के गुर्गों की बातों में था गये थे। गाँव के एक चमार के साथ लगाकर माँ के शरीर की हवा उड़ाने लग गये उनके दोनों देवर। इतना ही नहीं, दोनों लाठी लेकर उस चमार को जान से मार डालने के लिये घूमने लग गये । " सुधीर के चेहरे पर चिह्नित हैरानी की भावनाओं को देखकर में जरा चुप हो गया। बस सुधीर मेरा मुँह ही ताकते ताकते, जैसे मुझे चुप देखकर यकायक बोल उठा - "अरे मास्टरजी ! भला यह आप क्या कह रहे हैं ? माँ के सम्बन्ध में ऐसी बातें कहने की मला उन दोनों को कैसे हिम्मत पड़ी ? माँ क्या उनकी इज्जत नहीं थीं ?" " सुधीर ! गँवारों की खोपड़ी की बनावट कुछ और ही किस्म की होती है। उनके दिमाग में जहाँ कोई चीज बैठा दी गयी तो उसपर वे अन्त तक कायम रहेंगे, चाहे जान निकल जाय, चाहे आय बर्बाद हो जाय किन्तु अक्क से काम लेंगे नहीं। उन दोनों का कान इस तरह भर दिया गया था कि उन दोनों को वैसा ही कुछ यकीन हो गया था । बे
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।इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव" आज मैं अकेला जाकर मोदी के यहाँ खड़ा हो गया। परिचय पाकर मोदी ने एक छोटा-सा पुराना चिथड़ा बाहर निकाला और गाँठ खोलकर उसमें से दो सोने की बालियाँ और पाँच रुपये निकाले। उन्हें मेरे हाथ में देकर वह बोला, "बहू ये दो बालियाँ मुझे इकतीस रुपये में बेचकर शाहजी का समस्त ऋण चुकाकर, चली गयी हैं। किन्तु कहाँ गयी हैं सो नहीं मालूम।" इतना कहकर वह किसका कितना ऋण था इसका हिसाब बतलाकर बोला, "जाते समय बहू के हाथ में कुल साढ़े पाँच आने पैसे थे।" अर्थात् बाईस पैसे लेकर उस निरुपाय निराश्रय स्त्री ने संसार के सुदुर्गम पथ में अकेले यात्रा कर दी है! पीछे से, उसके ये दोनों प्यारे बालक, कहीं उसे आश्रय देने के व्यर्थ प्रयास में, उपायहीन वेदना से व्यथित न हों, इस भय से बिना कुछ कहे ही वे बिना किसी लक्ष्य के घर से बाहर चली गयी हैं- कहाँ, सो भी किसी को उन्होंने जानने नहीं दिया। नहीं दिया-इतना ही नहीं, किन्तु मेरे पाँच रुपये भी नहीं स्वीकार किये। फिर भी, मन में यह समझकर कि वे उन्होंने ले लिये हैं, मैं आनन्द और गर्व से, न जाने कितने दिनों तक, न जाने कितने आकाश-कुसुमों की सृष्टि करता रहा था। पर वे मेरे सब कुसुम शून्य में मिल गये। अभिमान के मारे ऑंखों में जल छल छला आया जिसे उस बूढ़े से छिपाने के लिए मैं तेज़ीसे बाहर चल दिया। बार-बार मन ही मन कहने लगा कि इन्द्र से तो उन्होंने कितने ही रुपये लिये, किन्तु, मुझसे कुछ भी नहीं लिया- जाते समय 'नहीं' कहकर वापिस करके चली गयीं! किन्तु अब मेरे मन में वह अभिमान नहीं है। सयाना होने पर, अब मैंने समझा है कि मैंने ऐसा कौन-सा पुण्य किया था जो उन्हें दान दे सकता! उस जलती अग्नि-शिखा में जो भी मैं देता वह जलकर खाक हो जाता- इसीलिए जीजी ने मेरा दान वापिस कर दिया! किन्तु इन्द्र? इन्द्र और मैं क्या एक ही धातु के बने हुए हैं जो जहाँ वह दान करे वहाँ ढीठता से मैं भी अपना हाथ बढ़ा दूँ? इसके सिवा, यह भी तो मैं समझ सकता हूँ कि आखिर किसका मुँह देखकर उन्होंने इन्द्र के आगे हाथ फैलाया था- खैर जाने दो इन बातों को। इसके बाद अनेकों जगह मैं घूमा-फिरा हूँ; किन्तु इन जली ऑंखों से मैं कहीं भी उन्हें नहीं देख पाया। मुझे वे फिर नहीं दिखाई दीं, किन्तु हृदय में वह हँसता हुआ मुँह हमेशा वैसा ही दीख पड़ता है। उनके चरित्र की कहानी का स्मरण करके जब कभी, मैं मस्तक झुकाकर मन ही मन उन्हें प्रणाम करता हूँ, तब केवल यही बात मेरे मन में आती है कि भगवान, यह तुम्हारा कैसा न्याय है? हमारे इस सती-सावित्री के देश में, तुमने पति के कारण सहधर्मिणी को अपरिसीम दुःख देकर, सती के माहात्म्य को उज्ज्वल से उज्ज्वलतर करके संसार को दिखाया है, यह मैं जानता हूँ। उनके समस्त दुःख दैन्य को चिर-स्मरणीय कीर्ति के रूप में रूपान्तरित करके, जगत की सम्पूर्ण नारी जाति को कर्तव्य के ध्रुव-पथ पर आकर्षित करने की तुम्हारी इच्छा है, इसको भी मैं अच्छी तरह समझ सकता हूँ; किन्तु हमारी ऐसी जीजी के भाग्य में इतनी बड़ी विडम्बना और अपयश क्यों लिख दिया? किसलिए तुमने ऐसी सती के मुँह पर असती की गहरी काली छाप मारकर उसे हमेशा के लिए संसार से निर्वासित कर दिया? उनको तुमने क्यों नहीं छुड़ा लिया? उनकी जाति छुड़ाई, धर्म छुड़ाया- समाज, संसार, प्रतिष्ठा, सभी कुछ तो छुड़ा लिया। और जो अपरिमित, दुःख तुमने दिया है, उसका तो मैं आज भी साक्षी हूँ। इसका भी मुझे दुःख नहीं है जगदीश्वर! किन्तु जिनका आसन, सीता, सावित्री आदि सतियों के समीप है, उन्हें उनके माँ-बाप, कुटुम्बी, शत्रु-मित्र आदि ने किस रूप में जाना? कुलटा रूप में, वेश्या रूप में! इससे तुम्हें, क्या लाभ हुआ? और संसार को भी क्या मिला? हाय रे, कहाँ हैं उनके वे सब आत्मीय स्वजन और भाई-बन्धु? यदि एक दफे भी मैं जान सकता, वह देश फिर कितनी ही दूर क्यों न होता, इस देश से बाहर ही क्यों न होता, तो भी, मैंने वहाँ जाकर अवश्य कहा होता- यही हैं तुम्हारी अन्नदा और यही उनकी अक्षय कहानी! तुमने अपनी जिस लड़की को कुल-कंलकिनी मान लिया है, उसका नाम यदि सुबह एक दफे भी ले लिया करोगे तो अनेक पापों से छुट्टी पा जाओगे? इस घटना से मैंने एक सत्य को प्राप्त किया है। पहले भी मैं एक दफे कह चुका हूँ कि नारी के कलंक की बात पर मैं सहज ही विश्वास नहीं कर सकता; क्योंकि मुझे जीजी याद आ जाती हैं। यदि उनके भाग्य में भी इतनी बड़ी बदनामी हो सकती है, तो फिर संसार में और क्या नहीं हो सकता? एक मैं हूँ, और एक वे हैं जो सर्व काल के सर्व पाप-पुण्य के साक्षी हैं- इनको छोड़कर दुनिया में ऐसा और कौन है, जो अन्नदा को जरा से स्नेह के साथ भी स्मरण करे। इसीलिए, सोचता हूँ कि न जानते हुए नारी के कलंक की बात पर अविश्वास करके संसार में ठगा जाना भला है, किन्तु विश्वास करके पाप का भागी होना अच्छा नहीं! उसके बाद बहुत दिनों तक इन्द्र को नहीं देखा। गंगा के तीर घूमने जाता था तो देखता था कि उसकी नाव किनारे बँधी हुई है। वह पानी में भीग रही है और धूप में फट रही है। सिर्फ एक दफे और हम दोनों उस नाव पर बैठे थे। उस नौका पर वही हमारी अन्तिम यात्रा थी। इसके बाद न वही उस नाव पर चढ़ा और न मैं ही। वह दिन मुझे खूब याद है। सिर्फ इसीलिए नहीं कि वह हमारी नौका-यात्रा का समाप्ति-दिवस था, किन्तु इसलिए कि उस दिन अखण्ड-स्वार्थपरता का जो उत्कृष्ट दृष्टान्त देखा था, उसे मैं सहज में नहीं भूल सका। वह कथा भी कहे देता हूँ। वह कड़ाके की शीत-काल की संध्याख थी। पिछले दिन पानी का एक अच्छा झला पड़ चुका था, इसलिए जाड़ा सूई की तरह शरीर में चुभता था। आकाश में पूरा चन्द्रमा उगा था। चारों तरफ चाँदनी मानो तैर रही थी। एकाएक इन्द्र आ टपका; बोला, "थियेटर देखने चलेगा?" थियेटर के नाम से मैं एकबारगी उछल पड़ा। इन्द्र बोला, "तो फिर कपड़े पहिनकर शीघ्र हमारे घर आ जा।" पाँच मिनट में एक रैपर लेकर बाहर निकल पड़ा। उस स्थान को ट्रेन से जाना होता था। सोचा, घर से गाड़ी करके स्टेशन पर जाना होगा- इसलिए इतनी जल्दी है। इन्द्र बोला, "ऐसा नहीं, हम लोग नाव पर चलेंगे। मैं निरुत्साहित हो गया, क्योंकि, गंगा में नाव को उस ओर खेकर ले जाना पड़ेगा, और इसलिए बहुत देर हो जाने की सम्भावना थी। शायद समय पर पहुँचा न जा सके। इन्द्र बोला, "हवा तेज है, देर न होगी। हमारे नवीन भइया कलकत्ते से आए हैं, वे गंगा से ही जाना चाहते हैं।" खैर, दाँड लेकर, पाल तानकर ठीक तरह से हम लोग नाव में बैठ गये- बहुत देर करके नवीन भइया घाट पर पहुँचे। चन्द्रमा के आलोक में उन्हें देखकर मैं तो डर गया। कलकत्ते के भयंकर बाबू! रेशम के मोजे, चमचमाते पम्प शू, ऊपर से नीचे तक ओवरकोट में लिपटे हुए, गले में गुलूबन्द, हाथ में दस्ताने, सिर पर टोपी- शीत के विरुद्ध उनकी सावधानी का अन्त नहीं था। हमारी उस साधाकी डोंगी को उन्होंने अत्यन्त 'रद्दी' कहकर अपना कठोर मत ज़ाहिर कर दिया; और इन्द्र के कन्धों पर भार देकर तथा मेरा हाथ पकड़कर, बड़ी मुश्किल से, बड़ी सावधानी से, वे नाव के बीच में जाकर सुशोभित हो गये। "तेरा नाम क्या है रे?" डरते-डरते मैंने कहा, "श्रीकान्त।" उन्होंने आक्षेप के साथ मुँह बनाकर कहा, "श्रीकान्त- सिर्फ 'कान्त' ही काफ़ी है। जा हुक़्क़ा तो भर ला। अरे इन्द्र, हुक्का-चिलम कहाँ है? इस छोकरे को दे, तमाखू भर दे!" अरे बाप रे! कोई अपने नौकर को भी इस तरह की विकट भाव-भंगी से आदेश नहीं देता। इन्द्र अप्रतिभ होकर बोला, "श्रीकान्त, तू आकर कुछ देर डाँड़ पकड़ रख। मैं हुक़्क़ा भरे देता हूँ।" उसका जवाब न देकर मैं खुद ही हुक़्क़ा भरने लगा। क्योंकि वे इन्द्र के मौसेरे भाई थे, कलकत्ते के रहने वाले थे और हाल ही में उन्होंने एल.ए. पास किया था। परन्तु मन मेरा बिगड़ उठा। तमाखू भरकर हुक़्क़ा हाथ में देते ही उन्होंने प्रसन्न मुख से पीते-पीते पूछा, "तू कहाँ रहता है रे कान्त? तेरे शरीर पर वह काला-काला सा क्या है रे? रैपर है? आह! रैपर की क्या ही शोभा है। इसके तेल की बास से तो भूत भी भाग जावें! छोकरे-फैलाकर बिछा तो दे यहाँ उसे, बैठें उस पर।" "मैं देता हूँ, नवीन भइया, मुझे ठण्ड नहीं लगती। यह लो" कहकर इन्द्र ने अपने शरीर पर की अलवान चट से उतारकर फेंक दी। वह उसे मजे से बिछाकर बैठ गया और आराम से तमाखू पीने लगा। शीत ऋतु की गंगा अधिक चौड़ी नहीं थी- आधा घण्टे में ही डोंगी उस किनारे से जा भिड़ी। साथ ही साथ हवा बन्द हो गयी। इन्द्र व्याकुल हो बोला, "नूतन भइया, यह तो बड़ी मुश्किल हुई- हवा बन्द हो गयी। अब तो पाल चलेगा नहीं।" नूतन भइया बोले, "इस छोकरे के हाथ में दे न, डाँड़ खींचे।" कलकत्तावासी नूतन भइया की जानकारी पर कुछ मलिन हँसी हँसकर इन्द्र बोला, "डाँड़! कोई नहीं ले जा सकता। नूतन भइया, इस रेत को ठेलकर जाना किसी के किये भी सम्भव नहीं। हमें लौटना पड़ेगा।" प्रस्ताव सुनकर नूतन भइया मुहूर्त भर के लिए अग्निशर्मा हो उठे, "तो फिर ले क्यों आया हतभागे? जैसे हो, तुझे वहाँ तक पहुँचाना ही होगा। मुझे थियेटर में हारमोनियम बजाना ही होगा- उनका विशेष आग्रह है।" इन्द्र बोला, "उनके पास बजाने वाले आदमी हैं नूतन भइया, तुम्हारे न जाने से वे अटके न रहेंगे।" "अटके न रहेंगे? इस गँवार देश के छोकरे बजावेंगे हारमोनियम! चल, जैसे बने वैसे ले चल।" इतना कहकर उन्होंने जिस तरह का मुँह बनाया, उससे मेरा सारा शरीर जल उठा। उसका हारमोनियम बजाना भी हमने बाद में सुना, किन्तु वह कैसा था सो बताने की ज़रूरत नहीं। इन्द्र का संकट अनुभव करके मैं धीरे से बोला, "इन्द्र, क्या रस्सी से खींचकर ले चलने से काम न चलेगा?" बात पूरी होते न होते मैं चौंक उठा। वे इस तरह दाँत किटकिटा उठे, कि उनका वह मुँह आज भी मुझे याद आ जाता है। बोले, "तो फिर जा न, खींचता क्यों नहीं? जानवर की तरह बैठा क्यों है?" इसके बाद एक दफे इन्द्र और एक दफे मैं रस्सी खींचते हुए आगे बढ़ने लगे। कहीं ऊँचे किनारे के ऊपर से, कहीं नीचे उतर कर, और बीच-बीच में उस बरफ सरीखे ठण्डे जल की धारा में घुसकर, हमें अत्यन्त कष्ट से नाव ले चलना पड़ा। और फिर बीच-बीच में बाबू के हुक्के को भरने के लिए भी नाव को रोकना पड़ा। परन्तु बाबू वैसे ही जमकर बैठे रहे- जरा भी सहायता उन्होंने नहीं की। इन्द्र ने एक बार उनसे 'कर्ण' पकड़ने को कहा तो जवाब दिया, कि "मैं दस्ताने खोलकर ऐसी ठण्ड में निमोनिया बुलाने को तैयार नहीं हूँ।" इन्द्र ने कहना चाहा, "उन्हें खोले बगैर ही..." "हाँ, कीमती दस्तानों को मिट्टी कर डालूँ, यही न! ले, जा जो करना हो कर।" वास्तव में मैंने ऐसे स्वार्थ पर असज्जन व्यक्ति जीवन में थोड़े ही देखे हैं। उनके एक वाहियात शौक़ को चरितार्थ करने के लिए हम लोगों को- जो उनसे उम्र में बहुत छोटे थे- इतना सब क्लेश सहते हुए अपनी ऑंखों देखकर वे जरा भी विचलित न हुए। कहीं से जरा-सी ठण्ड लगाकर उन्हें बीमार न कर दें, एक छींटा जल पड़ जाने से कहीं उनका कीमती ओवरकोट ख़राब न हो जाय, हिलने-चलने में किसी तरह का व्याघात न हो- इसी भय से वे जड़ होकर बैठे रहे और चिल्ला-चिल्लाकर हुक्मों की झड़ी लगाते रहे। और भी एक आफत आ गयी- गंगा की रुचिकर हवा में बाबू साहब की भूख भड़क उठी और, देखते-ही-देखते, अविश्राम बक-झक की चोटों से, और भी भीषण हो उठी। इधर चलते-चलते रात के दस बज गये हैं-थियेटर पहुँचते-पहुँचते रात के दो बज जाँयगे, यह सुनकर बाबू साहब प्रायः पागल हो उठे। रात के जब ग्यारह बजे तब, कलकत्ते के बाबू बेकाबू होकर बोले, "हाँ रे इन्द्र, पास में कहीं हिन्दुस्तानियों की कोई बस्ती-अस्ती है कि नहीं? चिउड़ा-इउड़ा कुछ मिलेगा?" इन्द्र बोला, "सामने ही एक खूब बड़ी बस्ती है नूतन भइया, सब चीज़ें मिलती हैं।" "तो फिर चला चल- अरे छोकरे, जरा खींच न ज़ोर से- क्या खाने को नहीं पाता? इन्द्र, बोल न तेरे इस साथी से, थोड़ा और ज़ोर करके खींच ले चले?" इन्द्र ने अथवा मैंने किसी ने इसका जवाब नहीं दिया। जिस तरह चल रहे थे उसी तरह चलते हुए हम थोड़ी देर में एक गाँव के पास जा पहुँचे। यहाँ पर किनारा ढालू और विस्तृत होता हुआ जल में मिल गया था। नाव को बलपूर्वक धक्का देकर, उथले पानी में करके, हम दोनों ने एक आराम की साँस ली। बाबू साहब बोले, "हाथ-पैर कुछ सीधे करना होगा। उतरना चाहता हूँ।" अतएव इन्द्र ने उन्हें कन्धों पर उठाकर नीचे उतार दिया। वे ज्योत्स्ना के आलोक में गंगा की शुभ्र रेती पर चहलकदमी करने लगे। हम दोनों जनें उनकी क्षुधा-शान्ति के उद्देश्य से गाँव के भीतर घुसे। यद्यपि हम लोग जानते थे कि इतनी रात को इस दरिद्र खेड़े में आहार-संग्रह करना सहज काम नहीं है तथापि चेष्टा किये बगैर भी निस्तार नहीं था। इस पर, अकेले रहने की भी उनकी इच्छा नहीं थी। इस इच्छा के प्रकाशित होते ही इन्द्र उसी दम आह्नान करके बोला, "नवीन भइया, अकेले तुम्हें डर लगेगा- हमारे साथ थोड़ा घूमना भी हो जायेगा। यहाँ कोई चोर-ओर नहीं है, नाव कोई नहीं ले जायेगा। चले न चलो।" नवीन भइया अपने मुँह को कुछ विकृत करके बोले, "डर! हम लोग दर्जी पाड़े के लड़के हैं- यमराज से भी नहीं डरते- यह जानते हो? फिर भी नीच लोगों की डर्टी (गन्दी) बस्ती में हम नहीं जाते। सालों के शरीर की बू यदि नाक में चली जाय तो हमारी तबियत ख़राब हो जाए।" वास्तव में उनका मनोगत अभिप्राय यह था कि मैं उनके पहरे पर नियुक्तर होकर उनका हुक़्क़ा भरता रहूँ। किन्तु उनके व्यवहार से मन ही मन में इतना नाराज हो गया था कि इन्द्र के इशारा करने पर भी मैं किसी तरह, इस आदमी के संसर्ग में, अकेले रहने को राजी नहीं हुआ। इन्द्र के साथ ही चल दिया। दर्जीपाड़े के बाबू साहब ने हाथ-ताली देते हुए गाना शुरू कर दिया। हम लोगों को बहुत दूर तक नाक के स्वर की उनकी जनानी तान सुनाई देती रही। इन्द्र खुद भी मन ही मन अपने भाई के व्यवहार से अतिशय लज्जित और क्षुब्ध हो गया था। धीरे से बोला, "ये कलकत्ते के आदमी ठहरे, हमारी तरह हवा-पानी सहन नहीं कर सकते- समझे न श्रीकान्त?" मैं बोला, "हूँ।" तब इन्द्र उनकी असाधारण विद्या बुद्धि का परिचय, शायद श्रद्धा आकर्षित करने के लिए देते हुए चलने लगा। बातचीत में यह भी उसने कहा कि वे थोड़े ही दिनों में बी.ए. पास करके डिप्टी हो जाँयगे। जो हो, अब इतने दिनों के बाद भी इस समय वे कहाँ के डिप्टी हैं अथवा उन्हें वह पद प्राप्त हुआ या नहीं, मुझे नहीं मालूम। परन्तु, जान पड़ता है कि वे डिप्टी अवश्य हो गये होंगे, नहीं तो बीच-बीच में बंगाली डिप्टियों की इतनी सुख्याति कैसे सुन पड़ती? उस समय उनका प्रथम यौवन था। सुनते हैं, जीवन के इस काल में हृदय की प्रशस्सता, संवेदना की व्यापकता, जितनी बढ़ती है उतनी और किसी समय नहीं। लेकिन, इन कुछ घण्टों के संसर्ग में ही जो नमूना उन्होंने दिखाया इतने समय के अन्तर के बाद भी वह भुलाया नहीं जा सका। फिर भी, भाग्य से ऐसे नमूने कभी-कभी दिखाई पड़ जाते हैं- नहीं तो, बहुत पहले ही यह संसार बाकायदा पुलिस थाने के रूप में परिणत हो जाता। पर रहने दो अब इस बात को। परन्तु, पाठकों को यह खबर देना आवश्यक है कि भगवान भी उन पर क्रुद्ध हो गये थे। इस तरफ के राह-घाट, दुकान-हाट, सब इन्द्र के जाने हुए थे। वह जाकर एक मोदी की दुकान पर उपस्थित हो गया। परन्तु दुकान बन्द थी और दुकानदार ठण्ड के भय से दरवाज़े-खिड़कियाँ बन्द करके गहरी निद्रा में मग्न था। नींद की वह गहराई कितनी अथाह होती है, सो उन लोगों को लिखकर नहीं बताई जा सकती, जिन्हें खुद इसका अनुभव न हो। ये लोग न तो अम्ल-रोगी निष्कर्मा ज़मींदार हैं और न बहुत भार से दबे हुए, कन्या के दहेज की फ़िक्र से ग्रस्त बंगाली गृहस्थ। इसलिए सोना जानते हैं। दिन भर घोर परिश्रम करने के उपरान्त, रात को ज्यों ही उन्होंने चारपाई ग्रहण की कि फिर, घर में आग लगाए बगैर, सिर्फ चिल्लाकर या दरवाज़ा खटखटाकर उन्हें जगा दूँगा- ऐसी प्रतिज्ञा यदि स्वयं सत्यवादी अर्जुन भी, जयद्रथ-वध की प्रतिज्ञा के बदले कर बैठते तो, यह बात कसम खाकर कही जा सकती है कि उन्हें भी मिथ्या प्रतिज्ञा के पाप से दग्ध होकर मर जाना पड़ता। हम दोनों जनें बाहर खड़े होकर तीव्र कण्ठ से चीत्कार करके तथा जितने भी कूट-कौशल मनुष्य के दिमाग में आ सकते हैं, उन सबको एक-एक करके आजमा करके, आधा घण्टे बाद ख़ाली हाथ लौट आए। परन्तु घाट पर आकर देखा तो वह जन-शून्य है। चाँदनी में जहाँ तक नजर दौड़ती थी वहाँ तक कोई भी नहीं दिखता। 'दर्जीपाड़े' का कहीं कोई निशान भी नहीं। नाव जैसी थी वैसी ही पड़ी हुई है- फिर बाबू साहब गये कहाँ? हम दोनों प्राणपण से चीत्कार कर उठे-'नवीन भइया' किन्तु कहीं कोई नहीं। हम लोगों की व्याकुल पुकार, बाईं और दाहिनी बाजू के खूब ऊँचे कगारों से टकराकर, अस्पष्ट होती हुई, बार-बार लौटने लगी। आस-पास के उस प्रदेश में, शीतकाल में, बीच बीच में बाघों के आने की बात भी सुनी जाती थी। गृहस्थ किसान इन दलबद्ध बाघों की विपत्ति से व्यस्त रहते थे। सहसा इन्द्र इसी बात को कह बैठा, "कहीं बाघ तो नहीं उठा ले गया रे!" भय के मारे मेरे रोंगटे खड़े हो गये। यह क्या कहते हो? इसके पहले उनके निरतिशय अभद्र व्यवहार से मैं नाराज तो सचमुच ही हो उठा था परन्तु, इतना बड़ा अभिशाप तो मैंने उन्हीं नहीं दिया था! सहसा दोनों जनों की नजर पड़ी कि कुछ दूर बालू के ऊपर कोई वस्तु चाँदनी में चमचमा रही है। पास जाकर देखा तो उन्हीं के बहुमूल्य पम्प-शू की एक फर्द है? इन्द्र भीगी बालू पर लेट गया- "हाय श्रीकान्त! साथ में मेरी मौसी भी तो आई हैं। अब मैं घर लौटकर न जाऊँगा!" तब धीरे-धीरे सब बातें स्पष्ट होने लगीं। जिस समय हम लोग मोदी की दुकान पर जाकर उसे जगाने का व्यर्थ प्रयास कर रहे थे, उसी समय, इस तरफ कुत्तों का झुण्ड इकट्ठा होकर आर्त्त चीत्कार करके इस दुर्घटना की खबर हमारे कर्णगोचर करने के लिए व्यर्थ मेहनत उठा रहा था, यह बात अब जल की तरह हमारी ऑंखों के आगे स्पष्ट हो गयी। अब भी हमें दूर पर कुत्तों का भूँकना सुन पड़ता था। अतएव जरा भी संशय नहीं रहा कि बाघ उन्हें खींच ले जाकर जिस जगह भोजन कर रहे हैं, वहीं आस-पास खड़े हो ये कुत्ते भी अब भौंक रहेहैं। अकस्मात् इन्द्र सीधा होकर खड़ा हो गया और बोला, "मैं वहाँ जाऊँगा।" मैंने डरकर उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, "पागल हो गये हो भइया!" इन्द्र ने इसका कुछ जवाब नहीं दिया। नाव पर जाकर उसने कन्धों पर लग्गी रख ली, एक बड़ी लम्बी छुरी खीसे में से निकालकर बाएँ हाथ में ले ली और कहा, "तू यहीं रह श्रीकान्त, मैं न आऊँ तो लौटकर मेरे घर खबर दे देना- मैं चलता हूँ।" उसका मुँह बिल्कुतल सफेद पड़ गया था, किन्तु दोनों ऑंखें जल रही थीं। मैं उसे अच्छी तरह चीन्हता था। यह उसकी निरर्थक, ख़ाली उछल-कूद नहीं थी कि हाथ पकड़ कर दो-चार भय की बातें कहने से ही, मिथ्या दम्भ मिथ्या में मिल जायेगा। मैं निश्चय से जानता था कि किसी तरह भी वह रोका नहीं जा सकता- वह ज़रूर जायेगा। भय से जो चिर अपरिचित हो, उसे किस तरह और क्या कहकर रोका जाता? जब वह बिल्कुसल जाने ही लगा तो मैं भी न ठहर न सका; मैं भी, जो कुछ मिला, हाथ में लेकर उसके पीछे-पीछे चल दिया। इस बार इन्द्र ने मुख फेरकर मेरा एक हाथ पकड़ लिया और कहा, "तू पागल हो गया है श्रीकान्त! तेरा क्या दोष है? तू क्यों जायेगा?" उसका कण्ठ-स्वर सुनकर मेरी ऑंखों में एक मुहूर्त में ही जल भर आया। किसी तरह उसे छिपाकर बोला, "तुम्हारा ही भला, क्या दोष है इन्द्र? तुम ही क्यों जाते हो?" जवाब में इन्द्र ने मेरे हाथ से बाँस छीनकर नाव में फेंक दिया और कहा, "मेरा भी कुछ दोष नहीं है भाई, मैं भी नवीन भइया को लाना नहीं चाहता था। परन्तु, अब अकेले लौटा भी नहीं जा सकता, मुझे तो जाना होगा।" परन्तु मुझे भी तो जाना चाहिए। क्योंकि, पहले ही एक दफे कह चुका हूँ कि मैं स्वयं भी बिल्कुतल डरपोक न था। अतएव बाँस को फिर उठाकर मैं खड़ा हो गया और वाद-विवाद किये बगैर ही हम दोनों आगे चल दिए। इन्द्र बोला, "बालू पर दौड़ा नहीं जा सकता-खबरदार, दौड़ने की कोशिश न करना। नहीं तो, पानी में जा गिरेगा।" सामने ही एक बालू का टीला था। उसे पार करते ही दीख पड़ा, बहुत दूर पर पानी के किनारे छह-सात कुत्ते खड़े भौंक रहे हैं। जहाँ तक नजर गयी वहाँ तक थोड़े से कुत्तों को छोड़कर, बाघ तो क्या, कोई शृंगाल भी नहीं दिखाई दिया। सावधानी से कुछ देर और अग्रसर होते ही जान पड़ा कि कोई एक काली-सी वस्तु पानी में पड़ी है और वे उसका पहरा दे रहे हैं। इन्द्र चिल्ला उठा, "नूतन भइया!" नूतन भइया गले तक पानी में खड़े हुए अस्पष्ट स्वर से रो पड़े, "यहाँ हूँ मैं!" हम दोनों प्राणपण से दौड़ पड़े, कुत्ते हटकर खड़े हो गये, और इन्द्र झप से कूद कर गले तक डूबे हुए मूर्च्छित प्रायः अपने दर्जीपाड़े के मौसेरे भाई को खींचकर किनारे पर उठा लाया। उस समय भी उनके एक पैर में बहुमूल्य पम्प-शू, शरीर पर ओवरकोट, हाथ में दस्ताने, गले में गुलूबन्द और सिर पर टोपी थी। भागने के कारण फूलकर वे ढोल हो गये थे! हमारे जाने पर उन्होंने हाथ-ताली देकर जो बढ़िया तान छेड़ दी थी, बहुत सम्भव है, उसी संगीत की तान से आकृष्ट होकर, गाँव के कुत्ते दल बाँधकर वहाँ आ उपस्थित हुए थे! और उस अभूतपूर्व गीत और आदरपूर्ण पोशाक की छटा से विभ्रान्त होकर इस महामान्य व्यक्ति के पीछे पड़ गये थे। पीछा छुड़ाने के लिए इतनी दूर भागने पर भी आत्मरक्षा का और कोई उपाय न खोज सकने के कारण अन्त में झप से पानी में कूद पड़े; और इस दुर्दान्त शीत की रात में, तुषार-शीतल जल में आधे घण्टे गले तक डूबे रहकर अपने पूर्वकृत् पापों का प्रायश्चित करते रहे। किन्तु, प्रायश्चित के संकट को दूर करके उन्हें फिर से चंगा करने में भी हमें कम मेहनत नहीं उठानी पड़ी। परन्तु सबसे बढ़कर अचरज की बात यह हुई की बाबू साहब ने सूखे मैं पैर रखते ही पहली बात यही पूछी, "हमारा एक पम्प-शू कहाँ गया?" "वह वहाँ पड़ा हुआ है।" यह सुनते ही वे सारे दुःख-क्लेश भूलकर उसे शीघ्र ही उठा लेने के लिए सीधे खड़े हो गये। इसके बाद, कोट के लिए गुलूबन्द के लिए, मोजों के लिए, दस्तानों के लिए, पारी-पारी से एक-एक के लिए शोक प्रकाशित करने लगे और उस रात को जब तक हम लोग लौटकर अपने घाट पर नहीं पहुँच गये, तब तक यही कहकर हमारा तिरस्कार करते रहे कि क्यों हमने मूर्खों की तरह उनके शरीर से उन सब चीजों को जल्दी-जल्दी उतार डाला था। न उतारा होता तो इस तरह धूल लगकर वे मिट्टी न हो जाते। हम दोनों असभ्य लोगों में रहने वाले ग्रामीण किसान हैं, हम लोगों ने इन चीजों को पहले कभी ऑंख से देखा तक नहीं होगा- यह सब वे बराबर कहते रहे। जिस देह पर, इसके पहले, एक छींटा भी जल गिरने से वे व्याकुल हो उठते थे, कपड़े-लत्तों के शोक में वे उस देह को भी भूल गये। उपलक्ष्य वस्तु असल वस्तु से भी किस तरह कई गुनी अधिक होकर उसे पार कर जाती है, यह बात, यदि इन जैसे लोगों के संसर्ग में न आया जाए, तो इस तरह प्रत्यक्ष नहीं हो सकती। रात को दो बजे बाद हमारी डोंगी घाट पर आ लगी। मेरे जिस रैपर की विकट बूसे कलकत्ते के बाबू साहब, इसके पहले, बेहोश हुए जाते थे, उसी को अपने शरीर पर डालकर- उसी की अविश्रान्त निन्दा करते हुए तथा पैर पोंछने में भी घृणा होती है, यह बार-बार सुनाते हुए भी- और इन्द्र की अलवान ओढ़कर, उस यात्रा में आत्म रक्षा करते हुए घर गये। कुछ भी हो, हम लोंगों पर दया करके जो वे व्याघ्र-कवलित हुए बगैर सशरीर वापिस लौट आए, उनके उसी अनुग्रह के आनन्द से हम परिपूर्ण हो रहे थे। इतने उपद्रव-अत्याचार को हँसते हुए सहन करके और आज नाव पर चढ़ने के शौक़ की परिसमाप्ति करके, उस दुर्जय शीत की रात में, केवल एक धोती-भर का सहारा लिये हुए, काँपते-काँपते, हम लोग घर में लौट आए। लिखने बैठते ही बहुत दफा मैं आश्चर्य से सोचता हूँ कि इस तरह की बेसिलसिले घटनाएँ मेरे मन में निपुणता से किसने सज़ा रक्खी हैं? जिस ढंग से मैं लिख रहा हूँ इस ढंग से वे एक-के बाद एक श्रृंखलाबद्ध तो घटित हुई नहीं। और फिर साँकल की क्या सभी कड़ियाँ साबुत बनी हुई हैं? सो भी नहीं। मुझे मालूम है कि कितनी ही घटनाएँ तो विस्मृत हो चुकी हैं, किन्तु फिर भी तो श्रृंखला नहीं टूटती। तो कौन फिर उन्हें नूतन करके जोड़ रखता है? और भी एक अचरज की बात है। पण्डित लोग कहा करते हैं कि बड़ों के बोझ से छोटे पिस जाते हैं। परन्तु यदि ऐसा ही होता तो फिर जीवन की प्रधन और मुख्य घटनाएँ तो अवश्य ही याद रहने की चीज़ें होतीं। परन्तु सो भी तो नहीं देखता हूँ। बचपन की बातें कहते समय एकाएक मैंने देखा कि स्मृति-मन्दिर में बहुत-सी तुच्छ क्षुद्र घटनाएँ भी, न जाने कैसे, बहुत बड़ी होकर ठाठ से बैठ गयी हैं और बड़ी घटनाएँ छोटी बनकर न जाने कब कहाँ झड़कर गिर गयी हैं। इसलिए बोलते समय भी यही बात चरितार्थ होती है। तुच्छ बातें बड़ी हो कर दिखाई देती हैं, और बड़ी याद भी नहीं आतीं। और फिर ऐसा क्यों होता है इसकी कैफियत भी पाठकों को मैं नहीं दे सकता। जो होता है, सिर्फ उसे ही मैंने बता दिया है। इसी प्रकार की एक तुच्छ-सी बात है जो मन के भीतर इतने दिनों तक चुपचाप छिपी रहकर, इतनी बड़ी हो उठी है कि आज उसका पता पाकर मैं स्वयं भी बहुत विस्मित हो रहा हूँ। उसी बात को आज मैं पाठकों को सुनाऊँगा। किन्तु, बात ठीक-ठीक क्या है सो, जब तक कि मैं उसका पूरा परिचय न दे दूँ तब तक, उसका रूप किसी तरह भी स्पष्ट न होगा! क्योंकि, यदि मैं प्रारम्भ में ही कह दूँ कि वह एक 'प्रेम का इतिहास' है- तो उससे यद्यपि मिथ्या भाषण का पाप न होगा, किन्तु वह व्यापार अपनी चेष्टा से जितना बड़ा हो उठा है, मेरी भाषा शायद उसको भी उल्लंघन कर जायेगी। इसलिए बहुत ही सावधन होकर कहने की ज़रूरत है। वह बहुत बाद की बात है। जीजी की स्मृति भी उस समय धुँधली हो गयी थी। जिनके मुख की याद मन में लाते ही, न मालूम कैसे, प्रथम यौवन की उच्छृंखलता अपने आप अपना सिर झुका लेती है, उन जीजी की याद उस समय उस तरह नहीं आती थी। यह उसी समय की कहानी है। एक राजा के लड़के के द्वारा निमन्त्रित होकर मैं उसकी शिकार-पार्टी में जाकर शामिल हुआ था। उसके साथ बहुत समय तक स्कूल में पढ़ा था, गुपचुप अनेक बार उसके गणित के सवाल हल कर दिए थे- इसीलिए वह मुझे खूब चाहता था। इसके बाद एन्ट्रेंस क्लास से हम दोनों अलग हो गये। मैं जानता हूँ कि राजाओं के लड़कों की स्मरण-शक्ति कम हुआ करती है, किन्तु यह नहीं सोचा था कि वह मेरा स्मरण करके पत्र-व्यवहार करना शुरू कर देगा। बीच में एक दिन उससे एकाएक मुलाकात हो गयी। उसी समय वह बालिग हुआ था। बहुत-से जमा किये हुए रुपये उसके हाथ लगे और उसके बा... इत्यादि इत्यादि। राजा के कानों में बात पहुँची- अतिरंजित होकर ही पहुँची, कि राइफल चलाने में मैं बेजोड़ हूँ, तथा और भी कितने ही तरह के गुणों से मैं, इस बीच में ही, मण्डित हो गया हूँ कि जिनसे मैं एकमात्र बालिग राजपूत्र का अन्तरंग मित्र होने के लिए सर्वथा योग्य हूँ। आत्मीय बन्धु-बान्धव तो अपने आदमी की प्रशंसा कुछ बढ़ा-चढ़ाकर ही करते हैं, नहीं तो सचमुच ही, इतनी विद्याएँ इतने अधिक परिमाण में मैं उस छोटी-सी उम्र में ही अर्जित करने में समर्थ हो गया था; यह अहंकार मुझे शोभा नहीं देता। कम से कम कुछ विनय रखना अच्छा है खैर, जाने दो इस बात को। शास्त्रकारों ने कहा है कि राजे-रजवाड़ों के सादर आह्नान की कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। हिन्दू का लड़का ठहरा, शास्त्र अमान्य तो कर नहीं सकता था, इसलिए मैं चला गया। स्टेशन से दस-बारह कोस हाथी पर बैठकर गया। देखा, बेशक राजपूत्र के बालिग होने के सब लक्षण मौजूद हैं! कोई पाँच तम्बू गड़े हुए हैं, एक स्वयं उनका, एक मित्रों का, एक नौकरों का और एक रसोई का। इनके सिवाय और एक तम्बू कुछ फासले पर था- उसके दो हिस्से करके उनमें दो वेश्याएँ और उनके साजिन्दे अवजमाए हैं। संध्यार हो चुकी है। प्रवेश करते ही मैं जान गया कि राजकुमार के ख़ास कमरे में बहुत देर से संगीत की बैठक जमी हुई है। राजकुमार ने बड़े आदर से मेरा स्वागत किया यहाँ तक कि आदर के अतिरेक से खड़े होने को तैयार होकर वे तकिये के सहारे लेट गये! मित्र दोस्त, विह्वल-कण्ठ से आइए, आइए, पधारिए, कहकर संवर्धन करने लगे। मैं सर्वथा अपरिचित था। किन्तु वह, उन लोगों की जो अवस्था थी उससे, अपरिचय के कारण रुकने वाली नहीं थी। ये 'बाईजी' पटने से, बहुत-सा रुपया पाने की शर्त पर, दो सप्ताह के लिए आई थीं। इस काम में राजकुमार ने जिस विवेचना और विलक्षणता का परिचय दिया था उसकी तारीफ तो करनी ही होगी। बाईजी, खूब सुन्दर, सुकण्ठ और गाने में निपुण थीं। मेरे प्रवेश करते ही गाना थम गया। इसके बाद समयोचित वार्तालाप और अदब-कायदे का कार्य समाप्त होने में भी कुछ समय चला गया। राजकुमार ने अनुग्रह करके मुझसे गाने की फरमाइश करने का अनुरोध किया। राजाज्ञा पाकर पहले तो मैं अत्यन्त कुण्ठित हो उठा, किन्तु थोड़ी ही देर में मालूम हो गया कि संगीत की उस मजलिस में, सिर्फ मैं ही कुछ धुँधला-सा देख सकता हूँ और सब ही छछूँदर के माफिक अन्धे हैं। बाईजी खिल उठीं। पैसे के लोभ से बहुत-से काम किये जा सकते हैं, सो मैं जानता था; किन्तु, इन निराट मूर्खों के दरबार में वीणा बजाना वास्तव में ही इतनी देर तक, उसे बड़ा कठिन मालूम हो रहा था। इस दफे एक समझदार व्यक्ति पाकर मानो वे बच गयीं। इसके बाद, रात को देर तक, मानो केवल मेरे लिए ही, उन्होंने अपनी समस्त विद्या, समस्त सौन्दर्य और कण्ठ के समस्त माधुर्य में हमारे चारों तरफ की उस समस्त कदर्न्य मदोन्मत्ता को डुबा दिया और अन्त में वे स्तब्ध हो गयीं। बाईजी पटने की रहने वाली थीं। नाम था 'प्यारी'। उस रात्रि को उन्होंने जिस तरह अपनी सारी शक्ति लगाकर गाना सुनाया उस तरह शायद पहले कभी नहीं सुनाया होगा॥ मैं तो मुग्ध हो गया था। गाना बन्द होते ही मेरे मुँह से यही निकला- "वाह, खूब!" प्यारी ने मुँह नीचा करके हँस दिया। इसके बाद दोनों हाथों को मस्तक पर लगाकर प्रणाम किया- सलाम नहीं। मजलिस उस रात के लिए खत्म हो गयी। उस समय दर्शकों में कोई सो रहा था, कोई तन्द्रा में था और अधिकांश बेहोश थे। अपने तम्बू में जाने के लिए बाईजी सब सदलबल बाहर निकल रही थीं, तब मैं आनन्द के अतिरेक से हिन्दी में बोल उठा-"बाईजी मेरा, बड़ा सौभाग्य है कि तुम्हारा गाना रोज दो सप्ताह तक सुनने को मिलेगा।" बाईजी पहले तो ठिठककर खड़ी हो रहीं, पर दूसरे ही क्षण कुछ नजदीक आकर अत्यन्त कोमल कण्ठ से परिष्कृत बंगला में बोलीं, "रुपये लिये हैं, सो मुझे तो गाना ही पड़ेगा; परन्तु क्या आप भी इन पन्द्रह सोलह दिनों तक इनकी मुसाहबी करते रहेंगे? जाइए, कल ही आप अपने घर चले जाइए।" यह बात सुनकर हतबुद्धि-सा होकर मैं मानो काठ हो गया और क्या जवाब दूँ, यह ठीक कर सकने के पहले ही देखा कि बाईजी तम्बू के बाहर हो गयी हैं। सुबह शोर गुल मचाकर कुमार साहब शिकार के लिए बाहर निकले। मद्य-मांस की तैयारी ही सबसे अधिक थी। साथ में दस-बारह शिकारी नौकर थे। पन्द्रह बन्दूकें थीं- जिसमें छः राइफलें थीं। स्थान था एक अधसूखी नदी के दोनों किनारे। इस पार गाँव था और उस पार रेत का टीला। इस पार कोस भर तक बड़े-बड़े सेमर के वृक्ष थे और उस पार रेती के ऊपर जगह-जगह काँस और कुशों के झुरमुट। यहाँ ही उन पन्द्रह बन्दूकों को लेकर शिकार किया जायेगा। सेमर के वृक्षों पर मुझे कबूतर की जाति के पक्षी दीख पड़े और अधसूखी नदी के मोड़ के पास ऐसा जान पड़ा कि दो पक्षी, चकवा-चकई, तैर रहे हैं। कौन-किस ओर जाय, इस बात पर अत्यन्त उत्साह से परामर्श करते-करते सब ही ने दो-दो प्याले चढ़ाकर देह और मन को वीरों की तरह कर लिया। मैंने बन्दूक नीचे रख दी। एक तो बाईजी के व्यंग्य की चोट खाकर रात से ही मन विकल हो रहा था, उस पर यह शिकार का क्षेत्र देखकर तो सारा शरीर जल उठा। कुमार ने पूछा, "क्यों जी कान्त, तुम तो बड़े गुमसुम हो रहे हो? अरे यह क्या! बन्दूक ही रख दी!" "मैं पक्षियों को नहीं मारता।" "यह क्या जी? क्यों, क्यों?" "मुँह पर रेख निकलने के बाद से मैंने छर्रेवाली बन्दूक नहीं चलाई- मैं उसे चलाना भी भूल गया हूँ।" कुमार साहब हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये। किन्तु उस हँसी का द्रव्य-गुण से कितना सम्बन्ध था, यह बात अवश्य दूसरी है। सूरज के ऑंख-मुँह लाल हो उठे। वे इस दल के प्रधन शिकारी और राजपूत्र के प्रिय पार्श्वचर थे। उनके अचूक निशाने की ख्याति मैंने आते ही सुन ली थी। वे रुष्ट होकर बोले, "चिड़ियों का शिकार क्या कुछ शर्म की बात है?" मेरा मिज़ाज भी ठिकाने पर नहीं था, इसलिए जवाब दिया, "सबके लिए नहीं, परन्तु मेरे लिए तो है! खैर! कुमार साहब, मेरी तबियत ठीक नहीं है।" कहकर मैं तम्बू में लौट आया। इस पर कौन हँसा, किसने ऑंखें मिचकाईं। किसने मुँह बनाया, सो मैंने नजर उठाकर भी नहीं देखा। तम्बू में लौटकर मैं फर्श पर चित्त लेटा ही था और एक प्याला चाय तैयार करने का आदेश देकर एक सिगरेट पी ही रहा था कि बैरे ने आकर अदब के साथ कहा, "बाईजी आपसे मिलना चाहती हैं।" ठीक इसी बात की मैं आशा कर रहा था और आशंका भी। पूछा, "क्यों मिलना चाहती हैं?" "सो तो मैं नहीं जानता।" "तुम कौन हो?" "मैं बाईजी का खानसामा हूँ।" "बंगाली हो?" "जी हाँ, जाति का नाई हूँ। नाम मेरा रतन है।" "बाईजी हिन्दू हैं?" रतन हँसकर बोला, "न होतीं तो मैं कैसे रहता बाबू?" मुझे साथ ले जाकर और तम्बू का दरवाज़ा दिखाकर रतन चला गया। पर्दा उठाकर भीतर देखा कि बाईजी अकेली बैठी हुई प्रतीक्षा कर रही हैं। कल रात को पेशवाज और ओढ़नी के कारण मैं ठीक तौर से पहिचान न सका था, परन्तु आज देखते ही पहिचान लिया कि हो कोई; पर बाईजी हैं बंगाली की ही लड़की। बाईजी गरद की साड़ी पहने हुए मूल्यवान कार्पेट के ऊपर बैठी थीं। भीगे हुए बिखरे बाल पीठ के ऊपर फैल रहे थे। हाथों के पास पान-दान रक्खा था और सामने हुक्का। मुझे देखकर उठ खड़ी हुयीं और हँसकर सामने का आसन दिखाते हुए बोलीं, "बैठिए। आपके सामने अब और तमाखू नहीं पीऊँगी- अरे रतन, हुक़्क़ा उठा ले जा। यह क्या खड़े क्यों हैं! बैठ जाइए न!" रतन आकर हुक़्क़ा ले गया। बाईजी बोलीं, "आप तमाखू पीते हैं, यह मैं जानती हूँ; किन्तु दूँ किस तरह? और जगह आप चाहे जो करें, किन्तु मैं जान-बूझकर तो आपको अपना हुक़्क़ा दे न सकूँगी। अच्छा, चुरुट लाए देती हूँ। अरे ओ..." "ठहरो, ठहरो, ज़रूरत नहीं। मेरी जेब में चुरुट हैं।" "हैं? अच्छा तो ठण्डे होकर जरा बैठ जाइए, बहुत-सी बातें करनी हैं। भगवान कब किससे मिला देते हैं, सो कोई नहीं कह सकता, यह स्वप्न में भी अगोचर है। शिकार के लिए गये थे, एकाएक लौट क्यों आए?" "तबीयत न लगी।" "न लगने की ही बात है। कैसी निष्ठुर है यह पुरुषों की जात। निरर्थक जीव-हत्या करने में इन्हें क्या मजा आता है सो ये ही जानें। बाबूजी तो अच्छे हैं न?" "बाबूजी का स्वर्गवास हो गया।" "हैं, स्वर्गवास हो गया! और माँ?" "वे तो उनसे भी पहले चल बसी थीं।" "ओह-तभी तो!" कहकर बाईजी एक दीर्घ निःश्वास छोड़कर मेरी ओर देखती रह गयीं। एक दफा तो जान पड़ा मानो उनकी ऑंखें छलछला आयीं हैं, किन्तु, शायद वह मेरी भूल हो। परन्तु, दूसरे ही क्षण जब वे बोलीं तब भूल के लिए कोई जगह न रही। उस मुखरा नारी का चंचल और परिहास लघु कण्ठस्वर सचमुच ही मृदु और आर्द्र हो उठा था। बोलीं, "तो फिर यों कहो कि अब तुम्हारा जतन करने वाला कोई न रहा। बुआजी के पास ही रहते हो न? नहीं तो, और फिर कहाँ रहोगे? ब्याह हुआ नहीं, यह तो मैं देख ही रही हूँ। पढ़ते-लिखते हो? या वह भी इसके साथ ही समाप्त कर दिया?" अब तक तो मैं उसके कुतूहल और प्रश्नमाला को भरसक बरदाश्त करता रहा। किन्तु न जाने क्यों पिछली बात मानो मुझे एकाएक असह्य हो उठी। मैं खीझकर रूखे स्वर में बोल उठा, "अच्छा, कौन हो तुम? तुम्हें जीवन में कहाँ देखा है, यह तो याद आता नहीं। मेरे सम्बन्ध में इतनी बातें तुम जानना ही क्यों चाहती हो और जानने से तुम्हें लाभ क्या है?" बाईजी को गुस्सा न आया, वे हँसकर बोलीं, "लाभ-हानि ही क्या संसार में सब कुछ है? माया, ममता, प्यार-मुहब्बत कुछ नहीं? मेरा नाम है प्यारी, किन्तु जब मेरा मुख देखकर भी न पहिचान सके, तब लड़कपन का नाम सुनकर भी मुझे कैसे पहिचान सकोगे? इसके सिवाय मैं तुम्हारे उस गाँव की लड़की भी तो नहीं हूँ।" "अच्छा तुम्हारा घर कहाँ है?" "नहीं, सो मैं नहीं बताऊँगी।" "तो फिर, अपने बाप का नाम ही बताओ?" बाईजी जीभ काटकर बोलीं, "वे स्वर्ग चले गये हैं-राम-राम, क्या उनका नाम इस मुँह से उच्चारण कर सकती हूँ?" मैं अधीर हो उठा। बोला, "यदि नहीं कर सकतीं तो फिर मुझे तुमने पहिचाना किस तरह, यही बताओ? शायद यह बतलाने में कोई दोष न होगा।" प्यारी ने मेरे मन के भाव को लक्ष्य करके मुसकरा दिया। कहा, "नहीं, इसमें कुछ दोष नहीं है, परन्तु क्या तुम विश्वास कर सकोगे?" "कह देखो न।" प्यारी ने कहा, "तुम्हें पहिचाना या महाराज, दुर्बुद्धि की मार से- और किस तरह? तुमने मेरी ऑंखों से जितना पानी बहवाया है, सौभाग्य से सूर्यदेव ने उसे सुखा दिया है। नहीं तो ऑंखों के उस जल से एक तालाब भर गया होता। पूछती हूँ, क्या इस पर विश्वास कर सकते हो?" सचमुच ही मैं विश्वास न कर सका। परन्तु वह मेरी भूल थी। उस समय यह किसी तरह खयाल भी न आया कि प्यारी के होठों की गठन कुछ इस किस्म की है कि मानो हर बात वह मजाक में ही कहती है और मन ही मन हँसती हैं। मैं चुप रह गया। वह भी कुछ देर तक चुप रहकर इस बार सचमुच ही हँस पड़ी। परन्तु, इतनी देर में न जाने किस तरह मुझे जान पड़ा कि उसने अपनी लज्जित अवस्था को मानो सँभाल लिया है। हँसकर कहा, "नहीं महाराज, तुम्हें जितना भोला समझा था उतने भोले तुम नहीं हो। यह जो मेरा कहने का ढंग है, इसे तुमने बराबर समझ लिया है। किन्तु, यह भी कहती हूँ कि तुम्हारी अपेक्षा अधिक बुद्धिमान भी इस बात पर अविश्वास नहीं कर सकते। सो यदि आप इतने अधिक बुद्धिमान हैं तो यह मुसाहबी का व्यवसाय आपने किसलिए ग्रहण किया है? यह नौकरी तो तुम्हारे जैसे आदमी से होने की नहीं। जाओ, यहाँ से चटपट खिसक जाओ!" क्रोध के मारे मेरा सर्वांग जल उठा, किन्तु मैंने उसे प्रकट नहीं होने दिया। सहज भाव से कहा, "नौकरी जितने दिन हो, उतने ही दिन अच्छी। बैठे से बेगार भली- समझीं न! अच्छा, अब मैं जाता हूँ। बाहर के लोग शायद और ही कुछ समझ बैठें।" प्यारी बोली, "समझ बैठें, तो यह तुम्हारे लिए सौभाग्य की बात है महाराज, यह क्या कोई अफ़सोस की बात है?" उत्तर दिये बिना ही जब मैं द्वारपर आ खड़ा हुआ तब वह अकस्मात् हँसी की फुहार छोड़कर कह उठी, "किन्तु देखो बाबू, मेरी वह ऑंखों के ऑंसुओं की बात मत भूल जाना। दोस्तों में, कुमार साहब के दरबार में, प्रकट कर दोगे तो सम्भव है तुम्हारी तकदीर खुल जाय।" मैं उत्तर दिये बिना ही बाहर हो गया, परन्तु उस निर्लज्जा की वह हँसी और यह कदर्य परिहास मेरे सर्वांग में व्याप्त होकर बिच्छू के काँटे की तरह जलने लगा। अपने स्थान पर आकर, एक प्याला चाय पीकर और चुरुट मुँह में दबाकर अपने को भरसक ठण्डा करके मैं सोचने लगा- यह कौन है? मैं अपनी पाँच-छः वर्ष की उम्र तक की सब घटनाएँ स्पष्ट तौर से याद कर सकता हूँ। किन्तु अतीत में जितनी भी दूर तक दृष्टि जा सकती थी, उतनी दूर तक मैंने खूब छान-बीन कर देखा, कहीं भी इस प्यारी को नहीं खोज पाया। फिर भी, यह मुझे खूब पहचानती है। बुआ तक की बात जानती है। मैं दरिद्र हूँ, सो भी इससे अज्ञात नहीं है। इसीलिए, और तो कोई गहरी चाल इसमें हो नहीं सकती; फिर भी, जिस तरह हो, मुझे यहाँ से भगा देना चाहती है। परन्तु यह किसलिए? मेरे यहाँ रहने न रहने से इसे क्या? बातों ही बातों में उस समय इसने कहा था- संसार में लाभ-हानि ही क्या सब कुछ है? प्यार-मुहब्बत कुछ नहीं है? मैंने जिसे पहले कभी ऑंख से भी नहीं देखा, उसके मुँह की यह बात याद करके भी मुझे हँसी आ गयी। किन्तु सारी बातचीत को दबाकर, उसका आखिरी व्यंग्य ही मानो मुझे लगातार छेदने लगा। संध्याय के समय शिकारियों का दल लौट आया। नौकरों के मुँह से सुना कि आठ पक्षी मारकर लाय गये हैं। कुमार ने मुझे बुला भेजा। तबीयत ठीक न होने का बहाना करके बिस्तरों पर ही मैं पड़ रहा; और इसी तरह पड़े-पड़े रात को देर तक प्यारी का गाना और शराबियों की वाह-वाह सुनता रहा। इसके बाद तीन-चार दिन प्रायः एक ही तरह से कट गये। 'प्रायः' कहता हूँ, क्योंकि, सिर्फ शिकार को छोड़कर और सब बातें रोज एक-सी ही होती थीं। प्यारी का अभिशाप मानो फल गया हो- प्राणी-हत्या के प्रति किसी में कुछ भी उत्साह मैंने नहीं देखा। मानो कोई तम्बू के बाहर भी न निकलना चाहता हो। फिर भी मुझे उन्होंने नहीं छोड़ा। मेरे वहाँ से भाग जाने के लिए कोई विशेष कारण हो, सो बात न थी; किन्तु इस बाईजी के प्रति मुझे मानो घोर अरुचि हो गयी। वह जब हाजिर होती, तब मानो मुझे कोई मार रहा हो ऐसा लगता- उठकर वहाँ से जब चला जाता तभी कुछ शान्ति मिलती। उठ न सकता, तो फिर और किसी ओर मुँह फिराकर, किसी के भी साथ, बातचीत करते हुए अन्यमनस्क होने की चेष्टा किया करता। इस पर भी वह हर समय मुझसे ऑंखें मिलाने की हज़ार तरह से चेष्टा किया करती, यह भी मैं अच्छी तरह अनुभव करता। शुरू में दो-तीन दिन उसने मुझे लक्ष्य करके परिहास करने की चेष्टा भी की; किन्तु, फिर मेरे भाव को देखकर वह बिल्कुरल सन्न हो रही। शनिवार का दिन था। अब किसी तरह भी मैं ठहर नहीं सकता। खा-पी चुकने के बाद ही आज रवाना हो जाऊँगा, यह स्थिर हो जाने से आज सुबह से ही गाने-बजाने की बैठक जम गयी थी। थककर बाईजी ने गाना बन्द किया ही था कि हठात् सारी कहानियों से श्रेष्ठ भूतों की कहानी शुरू हो गयी। पल-भर में जो जहाँ था उसने वहीं से आग्रह के साथ वक्ता को घेर लिया। पहले तो मैं लापरवाही से सुनता रहा। परन्तु अन्त में उद्विग्नज होकर बैठ गया। वक्ता थे गाँव के ही एक वृद्ध हिन्दुस्तानी महाशय। कहानी कैसे कहनी चाहिए सो वे जानते थे। वे कह रहे थे कि "प्रेत-योनि के विषय में यदि किसी को सन्देह हो-तो वह आज, इस शनिवार की अमावस्या तिथि को, इस गाँव में आकर, अपने चक्षु-कर्णों का विवाद भंजन कर डाले। वह चाहे जिस जाति का, चाहे जैसा, आदमी हो और चाहे जितने आदमियों को साथ लेकर जाए, आज की रात उसका महाश्मशान को जाना निष्फल नहीं होगा। आज की घोर रात्रि में उग्र श्मशानचारी प्रेतात्मा को सिर्फ ऑंख से ही देखा जा सकता हो सो बात नहीं- उसका कण्ठस्वर भी सुना जा सकता है और इच्छा करने पर उससे बातचीत भी की जा सकती है।" मैंने अपने बचपन की बातें याद करके हँस दिया। वृद्ध महाशय उसे लक्ष्य करके बोले, "आप मेरे पास आइए।" मैं उनके निकट खिसक गया। उन्होंने पूछा, "आप विश्वास नहीं करते?" "क्यों नहीं करते? नहीं करने का क्या कोई विशेष हेतु है?" "तो फिर? इस गाँव में ही दो-एक ऐसे सिद्ध पुरुष हैं जिन्होंने अपनी ऑंखों देखा है। फिर भी जो आप विश्वास नहीं करते, मुँह पर हँसते हैं सो यह केवल दो पन्ने अंगरेजी पढ़ने का फल है। बंगाली लोग तो विशेष करके नास्तिक म्लेच्छ हो गये हैं।" कहाँ की बात कहाँ आ पड़ी, देखकर मैं अवाक् हो गया। बोला, "देखिए, इस सम्बन्ध में मैं तर्क नहीं करना चाहता। मेरा विश्वास मेरे पास है। मैं भले ही नास्तिक होऊँ, म्लेच्छ होऊँ- पर भूत नहीं मानता। जो कहते हैं कि हमने ऑंखों से देखा है वे या तो ठगे गये हैं, अथवा झूठे हैं, यही मेरा धारणा है।" उस भले आदमी ने चट से मेरे दाहिने हाथ को पकड़कर कहा, "क्या आप आज रात को श्मशान जा सकते है?" मैं हँसकर बोला, "जा सकता हूँ, बचपन से ही मैं अनेक रात्रियों में अनेक श्मशानों में गया हूँ।" वृद्ध चिढ़कर बोल उठे, "आप शेखी मत बघारिए बाबू।" इतना कहकर उन्होंने उस श्मशान का, सारे श्रोताओं को स्तम्भित कर देने वाला, महाभयावह विवरण विगतवार कहना शुरू कर दिया। "यह श्मशान कुछ ऐसा-वैसा स्थान नहीं है। यह महाश्मशान है। यहाँ पर हजारों नर-मुण्ड गिने जा सकते हैं। इस श्मशान में, हर रात को, महाभैरवी अपने साथियों सहित नर-मुण्डों से गेंद खेलती हैं और नृत्य करती हुई घूमती हैं। उनके खिलखिला कर हँसने के विकट शब्द से कितनी ही दफे, कितनी ही अविश्वासी अंगरेज जजों, मजिस्ट्रेटों के भी हृदय की धड़कन बन्द हो गयी है।" इस किस्म की लोमहर्षक कहानी वे इस तरह से कहने लगे कि इतने लोगों के बीच, दिन के समय, तम्बू के भीतर बैठे रहने पर भी, बहुत से लोगों के सिर के बाल तक खड़े हो गये। तिरछी नजर से मैंने देखा कि प्यारी न जाने कब पास आकर बैठ गयी है और उन बातों को मानो सारे शरीर से निगल रही है। इस तरह जब वह महाश्मशान का इतिहास समाप्त हुआ तब वक्ता ने अभिमान के साथ मेरी ओर कटाक्ष फेंककर प्रश्न किया, "क्यों बाबू साहब, आप जाँयगे?" "जाऊँगा क्यों नहीं?" "जाओगे! अच्छा, आपकी मरजी। प्राण जाने पर-" मैं हँसकर बोला, "नहीं महाशय, नहीं। प्राण जाने पर भी तुम्हें दोष न दिया जायेगा, तुम इससे मत डरो। किन्तु बेजानी जगह में मैं भी तो ख़ाली हाथ नहीं जाऊँगा- बन्दूक साथ जायेगी!" आलोचना अत्यधिक तेज हो उठी है, यह देखकर मैं वहाँ से उठ गया। "पक्षी मारने की तो हिम्मत नहीं पड़ती, बन्दूक की गोली से भूत मारेंगे साहब! बंगाली लोग अंगरेजी पढ़कर हिन्दू-शास्त्र थोड़े ही मानते हैं- ये मुर्गी तक तो खा जाते हैं- मुँह से ये लोग कितनी ही शेखी क्यों न मारें, काम के समय भाग खड़े होते हैं-एक धौंस पड़ते ही इनके दन्त कपाट लग जाते हैं!" इस तरह की समालोचना शुरू हुई। अर्थात्, जिन सब सूक्ष्म युक्ति-तर्कों की अवधारणा करने से हमारे राजा रईसों को आनन्द मिलता है, और जो उनके मस्तिष्क को अतिक्रम नहीं कर जाते- अर्थात् वे स्वयं भी जिनमें घुसकर दो शब्द कह सकते हैं- ऐसे ही वे सब युक्तितर्क थे। इन लोगों के दल में सिर्फ एक आदमी ऐसा था जिसने स्वीकार किया कि मैं शिकार करना नहीं जानता और जो साधारणतः बातचीत भी कम करता था, शराब भी कम पीता था। नाम था उसका पुरुषोत्तम। शाम को आकर उसने मुझे पकड़ लिया और कहा, "मैं भी साथ चलूँगा- क्योंकि इसके पहले मैंने भी कभी भूत नहीं देखा। इसलिए, आज अब ऐसा अच्छा मौक़ा मिला है, तब मैं उसे छोड़ना नहीं चाहता।"- ऐसा कहकर वह खूब हँसने लगा। मैंने पूछा, "तुम क्या भूत नहीं मानते?" "बिल्कुील नहीं।" "क्यों नहीं मानते?" "भूत नहीं है, इसलिए नहीं मानता।" इतना कहकर वह प्रचलित तर्क उठा-उठाकर बारम्बार अस्वीकार करने लगा। किन्तु, मैंने इतने सहज में उसे साथ ले जाना स्वीकार नहीं किया। क्योंकि, बहुत दिनों की जानकारी से मैंने जाना था कि, यह सब युक्ति-तर्क का व्यापार नहीं- यह तो संस्कार है। बुद्धि के द्वारा जो बिल्कुकल ही नहीं मानते, वे भी भय के स्थान पर आ पड़ने पर भय के मारे मूर्च्छित हो जाते हैं। पुरुषोत्तम किन्तु इस तरह सहज में छोड़ने वाला नहीं था। वह लाँग कसकर एक पक्के बाँस की लकड़ी कन्धों पर रखकर बोला, "श्रीकान्त बाबू, आपकी इच्छा हो तो भले ही आप बन्दूक ले चलें; किन्तु अपने हाथ में लाठी रहते, भूत हो चाहे प्रेम- मैं किसी को भी पास न फटकने दूँगा।" "किन्तु वक्त पर हाथ में लाठी रहेगी भी?" "ठीक इसी तरह रहेगी बाबू, आप उस समय देख लेना। कोस-भर का रास्ता है, रात को ग्यारह के भीतर ही रवाना हो जाना चाहिए।" मैंने देखा, उसका आग्रह मानो कुछ अतिरिक्त-सा है। जाने के लिए उस समय भी क़रीब घण्टे-भर की देर थी। मैं तम्बू के बाहर टहलकर इस विषय पर मन ही मन आन्दोलन करके, देख रहा था कि वस्तु वास्तव में क्या हो सकती है। इन सब विषयों में मैं जिसका शिष्य था, उसे भूत का भय बिल्कुसल नहीं था। लड़कपन की बातें याद आ रही थीं- उस रात्रि को जब इन्द्र ने कहा था, "श्रीकान्त, मन ही मन राम-नाम लेता रह; वह लड़का मेरे पीछे बैठा हुआ है।" केवल उसी दिन भय के मारे मैं बेहोश हो गया था, और किसी दिन नहीं। फिर डरने का मौक़ा ही नहीं आया। किन्तु आज की बात सच हो, तो वह वस्तु है क्या? इन्द्र स्वयं भूत में विश्वास करता था। किन्तु उसने भी कभी ऑंखों से नहीं देखा। मैं भी अपने मन ही मन चाहे जितना अविश्वास क्यों न करूँ, स्थान और काल के प्रभाव से मेरे शरीर में उस समय सनसनी न पैदा हो, यह बात नहीं। सहसा सामने के उस दुर्भेद्य अमावस्या के अन्धकार की ओर देखकर मुझे एक और अमावस्या की रात की बात याद आ गयी। वह दिन भी ऐसा ही एक शनिवार था। पाँच-छह वर्ष पहले, हमारी पड़ोसिन, हतभागिनी नीरू जीजी बाल विधवा होकर भी जब प्रसूति रोग से पीड़ित होकर और छह महीने तक दुःख भोग भोगकर मरीं, तब उनकी मृत्यु-शय्या के पार्श्व में मेरे सिवा और कोई नहीं था। बाग के बीच एक मिट्टी के घर में वे अकेली रहती थीं। सब लोगों की सब तरह से रोग-शोक में, सम्पत्ति-विपत्ति में इतनी अधिक सेवा करने वाली, निःस्वार्थ परोपकारिणी स्त्री मुहल्ले-भर में और कोई नहीं थी। कितनी स्त्रियों को लिखा-पढ़ाकर, सूई का काम सिखाकर और गृहस्थी के सब किस्म के दुरूह कार्य समझाकर, उन्होंने मनुष्य बना दिया था, इसकी कोई गिनती नहीं थी। अत्यन्त स्निग्धा शान्त-स्वभाव और चरित्र के कारण मुहल्ले के लोग भी उन्हें कुछ कम नहीं चाहते थे। किन्तु उन्हीं नीरू जीजी का जब तीस वर्ष की उम्र में हठात् पाँव फिसल गया और भगवान ने इस अत्यन्त कठिन व्याधि के आघात से उनका जीवनभर का ऊँचा मस्तक बिल्कुछल मिट्टी में मिला दिया, तब इस मुहल्ले के किसी भी आदमी ने उस दुर्भागिनी का उद्धार करने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया। पाप-स्पर्श लेशहीन निर्मल हिन्दू समाज ने उस हतभागिनी के मुख के सामने ही अपने सब खिड़की-दरवाज़े बन्द कर लिये, और जिस मुहल्ले में शायद एक भी आदमी ऐसा नहीं था जिसने कि किसी न किसी तरह नीरू जीजी के हाथ की प्रेमपूर्ण सेवा का उपयोग न किया हो, उसी मुहल्ले के एक कोने में, अपनी अन्तिम शय्या डालकर वह दुर्भागिनी, घृणा और लज्जा के मारे सिर नीचा किये हुये अकेली, एक-एक दिन गिनती हुई, सुदीर्घ छः महीने तक बिना चिकित्सा के पड़ी-पड़ी अपने पैर फिसलने का प्रायश्चित करके, श्रावण महीने की एक आधी रात के समय, इस लोक को त्याग कर जिस लोक को चली गयी उसका ठीक-ठीक ब्यौरा चाहे जिस स्मार्ट पण्डित से पूछते ही जाना जा सकता है। मेरी बुआ अत्यन्त गुप्त रीति से उनकी सहायता करती थीं, यह बात मैं और मेरे घर की एक बड़ी दासी के सिवा इस दुनिया में और कोई नहीं जानता था। बुआ एक दिन मुझे अकेले में बुलाकर बोलीं, "भइया श्रीकान्त, तू तो इस तरह रोग-शोक में जाकर अनेकों की खबर लिया करता है; उस छोकरी को भी एकाध दफे क्यों नहीं देख आया करता?" तब से मैं बराबर बीच-बीच में जाकर उन्हें देखा करता और बुआ के पैसों से यह चीज- वह चीज- ख़रीद कर दे आया करता। उनकी मृत्यु के समय केवल मैं ही अकेला उनके पास था। मरण-समय में ऐसा परिपूर्ण विकास और परिपूर्ण ज्ञान मैंने और किसी के नहीं देखा। विश्वास न करने पर भी, भय के मारे शरीर में जो सनसनी फैल जाती है, उसी के उदाहरण स्वरूप मैं यह घटना लिख रहा हूँ। वह श्रावण की अमावस्या का दिन था। रात्रि के बारह बजने के बाद ऑंधी और पानी के प्रकोप से पृथ्वी मानो अपने स्थान से च्युत होने की तैयारी कर रही थी। सब खिड़की-दरवाज़े बन्द थे- मैं खाट के पास ही एक बहुत पुरानी आधी टूटी हुई आराम-कुर्सी पर लेटा हुआ था। नीरू जीजी ने अपने स्वाभाविक मुक्त स्वर से मुझे अपने पास बुलाकर, हाथ उठाकर, मेरा कान अपने मुख के पास ले जाकर, धीरे से कहा, "श्रीकान्त, तू अपने घर जा।" "सो क्यों नीरू जीजी, ऐसे ऑंधी-पानी में?" "रहने दे ऑंधी-पानी। प्राण तो पहले हैं।" वे भ्रम में प्रलाप कर रही हैं, ऐसा समझकर मैं बोला, "अच्छा जाता हूँ, पानी जरा थम जाने दो।" नीरू जीजी अत्यन्त चिन्तित होकर बोल उठीं, "नहीं, श्रीकान्त, तू जा, जा भाई, जा- अब थोड़ी भी देर मत ठहर- जल्दी भाग जा।" इस दफा उनके कण्ठस्वर के भाव से मेरी छाती का भीतरी भाग काँप उठा। मैं बोला, "मुझसे जाने के लिए क्यों कहती हो?" प्रत्युत्तर में मेरा हाथ खींचकर और बन्द खिड़की की ओर लक्ष्य करके, वे चिल्ला उठीं, "जायेगा नहीं, तो क्या जान दे देगा? देखता नहीं है, मुझे ले जाने के लिए वे काले-काले सिपाही आए हैं। तू यहाँ पर मौजूद है, इसीलिए वे खिड़की में से ही मुझे डरा रहे हैं।" इसके बाद उन्होंने कहना शुरू किया, "वे इस खाट के नीचे हैं, वे सिर के ऊपर हैं। वे मारने आ रहे हैं! यह लिया! वह पकड़ लिया!" यह चीत्कार रात के अन्तिम समय में तब समाप्त हुआ जब कि उनके प्राण भी प्रायः शेष हो चुके थे। चौंककर मैं घूमा, देखा, रतन है। "क्या है रे?" "बाईजी ने प्रणाम कहा है।" जितना मैं विस्मित हुआ उतना ही खीझा भी। इतनी रात को अकस्मात् बुला भेजना केवल अत्यन्त अपमानकारक स्पर्धा ही मालूम हो, सो बात नहीं, गत तीन-चार दिनों के दोनों तरफ के व्यवहारों को याद करके भी यह प्रणाम कहला भेजना मानो मुझे बिल्कुील बेहूदा मालूम हुआ। किन्तु, इसके फलस्वरूप नौकर के सामने किसी तरह की उत्तेजना प्रकट न हो जाय; इस आशंका से अपने प्राणपण से सँभालकर मैंने कहा, "आज मेरे पास समय नहीं है रतन, मुझे बाहर जाना है, कल मिल सकूँगा।" रतन सिखाया-पढ़ाया नौकर था- अदब-कायदे में पक्का। अत्यन्त आदर भरे मृदु स्वर से बोला, "बड़ी ज़रूरत है बाबूजी, एक दफे अपने कदमों की धूल देनी ही होगी। नहीं तो, बाईजी ने कहा है, वे स्वयं ही आ जाँयगी।"- सर्वनाश! इस तम्बू में इतनी रात को, इतने लोगों के सामने! मैं बोला, "तू समझाकर कहना रतन, आज नहीं, कल सवेरे ही मिल लूँगा। आज तो मैं किसी भी तरह नहीं जा सकता।" रतन बोला, "तो फिर वे ही आएँगी बाबूजी, मैं गत पाँच वर्षों से देख रहा हूँ कि बाईजी की बात में कभी जरा भी फ़र्क़ नहीं पड़ता। आप नहीं चलेंगे तो वे निश्चय ही आवेंगी।" इस अन्याय असंगत ज़िद को देखकर मैं एड़ी से चोटी तक जल उठा। बोला, "अच्छा ठहरो, मैं आता हूँ।" तम्बू भीतर देखा, वारुणी की कृपा से जागता कोई नहीं है। पुरुषोत्तम भी गम्भीर निद्रा में मग्न है। नौकरों के तम्बू में सिर्फ दो-चार आदमी जाग रहे हैं। झटपट बूट पहिनकर एक कोट शरीर पर डाल लिया। राइफल ठीक रखी ही थी। उसे हाथ में लेकर रतन के साथ-साथ बाईजी के तम्बू में पहुँचा। प्यारी सामने ही खड़ी थी। मुझे आपादमस्तक बार-बार देखती हुई, किसी तरह की भूमिका बाँधो बगैर ही, क्रुद्धस्वर में बोल उठी, "मसान-वसान में तुम्हारा जाना न हो सकेगा-किसी तरह भी नहीं।" बहुत ही आश्चर्यचकित होकर मैं बोला, "क्यों?" "क्यों और क्या? भूत-प्रेत क्या हैं नहीं, जो इस शनिवार की अमावस्या को तुम श्मशान जाओगे? क्या तुम अपने प्राणों को लेकर फिर लौट आ सकोगे वहाँ से?" इतना कहकर प्यारी अकस्मात् रोने लगी और ऑंसुओं की अविरल धारा बहाने लगी। मैं विह्वल-सा होकर चुपचाप उसकी ओर देखता रह गया। क्या करूँ, क्या जवाब दूँ, कुछ सोच ही न सका। सोच न सकने में अचरज की बात ही क्या थी? जिससे जान नहीं, पहिचान नहीं, वह यदि हिताकांक्षा से आधी रात को बुलाकर ख़ामख्वाह रोना शुरू कर दे, तो कौन है ऐसा जो हत-बुद्धि न हो जाय! मेरा जवाब न पाकर प्यारी ने ऑंखें पोंछते हुए कहा, "तुम क्या किसी दिन भी शान्त-शिष्ट नहीं होओगे? ऐसे हठी बने रहकर ही जीवन बिता दोगे? जाओ, देखूँ तुम कैसे जाते हो? मैं भी फिर तुम्हारे साथ चलूँगी।" इतना कहकर उसने शाल उठाकर अपने शरीर पर डालने की तैयारी कर दी। मैंने संक्षेप में कहा, "अच्छा है चलो!" मेरे इस छिपे हुए ताने से जल-भुनकर प्यारी बोली, "आहा! देश-विदेश में तब तो तुम्हारी सुख्याति की सीमा-परिसीमा न रहेगी! बाबू शिकार खेलने के लिए आकर, एक नाचने वाली को साथ लेकर, आधी रात को भूत देखने गये थे! वाह! मैं पूछती हूँ, घर से क्या बिल्कुरल ही 'आउट' होकर आए हो? घृणा, विरिक्त, लाज-शरम आदि क्या कुछ भी नहीं रह गयी?" यह कहते-कहते उसका तीव्र कण्ठ मानो आर्द्र होकर भारी हो गया। बोली, "कभी तो तुम ऐसे नहीं थे। तुम्हारा इतना अधःपतन होगा, यह तो किसी ने भी कभी सोचा-समझा न था।" उसकी पिछली बात पर और कोई समय होता तो मैं इतना खीझ उठता कि जिसका पार न रहता; परन्तु इस समय क्रोध नहीं आया। मन ही मन मुझे लगा कि प्यारी को मानो मैंने पहिचान लिया है। ऐसा क्यों मन में आया सो फिर कहूँगा। उस समय मैं बोला, "लोगों के सोचने-समझने का मूल्य कितना है, सो तो तुम खुद भी जानती हो। तुम भी इतने अधःपतन के रास्ते जाओगी, क्या कभी किसी ने सोचा था?" क्षण-भर के लिए प्यारी के मुख के ऊपर शरद ऋतु की बदली वाली चाँदनी के समान हँसी की एक सहज आभा दिखाई दे गयी। किन्तु वह क्षण-भर के लिए ही। दूसरे ही क्षण उसने डरती हुई आवाज़ से कहा, "मेरे विषय में तुम क्या जानते हो? कौन हूँ मैं, बताओ?" "तुम हो प्यारी।" "सो तो सभी जानते हैं।" "सब जो नहीं जानते, सो भी मैं जानता हूँ- उसे सुनकर क्या तुम खुश होओगी? यदि होती तो खुद ही अपना परिचय दे देतीं। किन्तु जब नहीं दिया है, तब मेरे मुँह से भी कोई बात नहीं सुन पाओगी। इस बीच सोचकर देखो, अपने आपको प्रकट करोगी कि नहीं? किन्तु अब और समय नहीं है- मैं जाता हूँ।" प्यारी ने बिजली की सी तेज़ीके साथ मेरा रास्ता रोककर कहा, "यदि न जाने दूँ, तो क्या जबरन चले जाओगे?" "किन्तु, जाने ही क्यों न दोगी?" प्यारी बोली, "जाने दूँ? सचमुच क्या भूत नहीं होते जो तुम्हारे 'जाने दो' कहने से ही जाने दूँगी? मैं कहे देती हूँ कि मैं बात की बात में 'मैया री मैया' चिल्लाकर हाट लगा दूँगी।" यह कहकर उसने बन्दूक छीन लेने की चेष्टा की। मैं एक क़दम पीछे हट गया। कुछ क्षणों से मेरी खीझ हँसी के रूप में परिवर्तित हो रही थी। इस दफे खूब हँसकर कह दिया, "सचमुच के भूत होते हैं कि नहीं, सो तो मैं नहीं जानता; परन्तु झूठ-मूठ के भूत हैं, यह ज़रूर जानता हूँ। वे सामने खड़े होकर बातचीत करते हैं, रास्ता रोकते हैं- ऐसे न जाने कितनी तरह के कीर्ति के काम करते हैं- और ज़रूरत पड़ने पर गर्दन दबोचकर खा भी जाते हैं!" प्यारी मलिन हो गयी और क्षण-भर के लिए शायद सोच न सकी कि क्या कहे। इसके बाद बोली, "यदि ऐसी बात है, तो जो तुम यह कहते हो कि तुमने मुझे पहिचान लिया, सो तुम्हारी भूल है। वे अनेक कीर्ति के काम करते हैं, यह सच है, किन्तु दबोचने के लिए रास्ता रोककर नहीं खड़े होते। उन्हें अपने पराए का बोध होता है।" मैंने फिर भी हँसकर प्रश्न किया, "यह तो हुई तुम्हारी खुद की बात, किन्तु तुम क्या भूत हो?" प्यारी बोली, "भूत ही तो हूँ, और नहीं तो क्या? जो लोग मरकर भी नहीं मरते, वे ही तो भूत हैं; यही तो कहने का मतलब है?" थोड़ी देर ठहरकर वह स्वयं ही फिर कहने लगी, "एक हिसाब से तो, जो मैं मर चुकी हूँ सो सत्य है। किन्तु सच हो चाहे झूठ, अपने मरने की बात मैंने प्रसिद्ध नहीं की, मामा के जरिए माँ ने फैलाई थी। सुनना चाहते हो सब हाल?" मरने की यह बात सुनते ही मेरा संशय दूर हो गया। मैंने ठीक पहिचान लिया कि यह राजलक्ष्मी है। बहुत दिन पहले यह अपनी माता के संग तीर्थ-यात्रा करने गयी थी और फिर लौटकर नहीं आई। माँ ने गाँव में आकर यह बात प्रसिद्ध कर दी कि काशी में हैजे की बीमारी से वह मर गयी। उसे मैंने कभी देखा है, यह बात अवश्य ही मुझे याद न आ रही थी किन्तु उसकी एक आदत पर, मैं जबसे यहाँ आया था तभी से, ध्याहन दे रहा था। जब वह गुस्से में होती थी तब दाँतों के नीचे अधर दबा लिया करती थी। कभी कहीं किसी को मानो ठीक इसी तरह करते अनेक बार देखा है, केवल यही बात बार-बार मन में आने लगी। किन्तु वह कौन था, कहाँ देखा था; कब देखा था- सो कुछ भी याद नहीं आता था। वही राजलक्ष्मी ऐसी हो गयी है, यह देखकर मैं क्षण-भर के लिए अचरज से अभिभूत हो गया। मैं जब अपने गाँव के मनसा पण्डित की पाठशाला में सब छात्रों का सरदार था, तब इसके दो पुश्त के कुलीन बाप ने अपना एक और ब्याह करके इसको घर से निकाल दिया। पति के द्वारा परित्यक्ता माता, सुरलक्ष्मी और राजलक्ष्मी नामक दोनों कन्याओं को लेकर अपने बाप के घर चली आई। उम्र इसकी उस समय आठ-नौ की होगी और सुरलक्ष्मी की बारह-तेरह की। इसका रंग अवश्य ही खूब उजला था किन्तु मलेरिया और प्लीहा के मारे पेट मटके जैसा, हाथ पैर लकड़ी की तरह, सिर के बाल ताँबे के समान थे और कितने थे सो भी गिने जा सकते थे। मेरी मार के डर से यह लड़की करोंदों की झाड़ी में घुसकर करोंदों की माला गूँथ लाकर मुझे दिया करती थी। यदि वह माला किसी दिन छोटी होती तो, मैं पुराना पाठ पूछकर इसे जी भरकर चपतियाता था। मार खाकर यह लड़की होठ चबाती हुई गुमसुम होकर बैठ रहती, किन्तु किसी तरह भी यह नहीं कहती कि रोज करोंदे संग्रह करना उसके लिए कितना कठिन है। जो कुछ भी हो, इतने दिनों तक तो मैं यही समझता था कि वह मेरे भय से इतना क्लेश स्वीकार करती है; किन्तु आज मानो हठात् कुछ संशय उत्पन्न हुआ। खैर जाने दो। उसके बाद इसका विवाह हो गया। वह विवाह भी एक विचित्र व्यापार था। बेचारा मामा भानजियों के ब्याह की चिन्ता के मारे मरा जा रहा था। दैवात् कहीं से यह खबर आई कि विरंचि दत्त का रसोइया कुलीन की सन्तान है। इस कुलीन की सन्तान को दत्त महाशय बाँकुड़े से अपनी बदली होते समय साथ ही लिवा लाए थे। विरंचि दत्त के द्वार पर मामा धरना देकर पड़ गये- ब्राह्मण की जाति-रक्षा करनी ही होगी! इतने दिन तक तो सब यही जानते थे कि दत्त महाशय का रसोइया भोला भाला भला आदमी है परन्तु मतलब के समय देखा गया कि रसोइया महाराज की सांसारिक बुद्धि किसी से भी कम नहीं है। सिर्फ इक्यावन रुपये दहेज की बात सुनकर वह ज़ोर से सिर हिलाकर बोला, "इतने सस्ते में नहीं हो सकता महाशय- बाज़ार जाँच देखिए। पचास और एक रुपये में तो एक जोड़ी बड़े बकरे भी नहीं मिलते- और इतने में आप जमाई खोजते हैं! एक सौ और एक रुपये दो, तो एक बार इस पाटे पर और एक बार उस पाटे पर बैठकर दो फूल छोड़ दूँगा। दोनों ही बहिनें एक ही साथ 'पार' हो जाँयगी। क्या एक सौ रुपये- दो साँड़ ख़रीदने का खर्च-भी आप न देंगे?" बात कुछ असंगत नहीं थी। फिर भी अनेक मोल-तोल और बड़ी सही सिफारिश के बाद सत्तर रुपये में तय होकर एक ही रात में एक साथ सुरलक्ष्मी और राजलक्ष्मी का विवाह हो गया। दो दिन बाद सत्तर रुपये नकद लेकर वह दो पुश्त का कुलीन जमाई बाँकुड़ा चल दिया। इसके बाद फिर किसी ने उसे नहीं देखा। डेढ़ेक वर्ष बाद प्लिहा के ज्वर से सुरलक्ष्मी मर गयी और उसके भी वर्ष-डेढ़ वर्ष पीछे इस राजलक्ष्मी ने काशी में मरकर शिवत्व प्राप्त किया। यही है प्यारी बाईजी का संक्षिप्त इतिहास। बाईजी ने कहा, "तुम क्या सोच रहे हो, बताऊँ?" "क्या सोच रहा हूँ?" "तुम सोच रहे हो- आहा! लड़कपन में मैंने इसे कितना कष्ट दिया है। काँटों के बन में भेजकर रोज-रोज करौंदे मँगवाया किया हूँ, और उसके बदले केवल मार-पीट ही करता रहा हूँ। मार खाकर यह गुपचुप हमेशा रोया ही की है, परन्तु चाहा कभी कुछ नहीं। आज यदि यह कुछ बात कहती है तो सुन ही न लूँ। न सही, न गया आज श्मशान को। यही न?" मैं हँस पड़ा। प्यारी ने भी हँसकर कहा, "यह तो होना ही चाहिए। बचपन में जिससे एक दफा प्यार हो जाता है, क्या वह कभी भूलता है? वह यदि अनुरोध करे तो फिर क्या उसे पैर से ठोकर मारकर टाला जा सकता है? संसार में ऐसा निष्ठुर कौन है? चलो, थोड़ा बैठ लो, बहुत-सी बातें करनी हैं। रतन, बाबूजी के जूते तो खोल दे। अरे हँसते हो?" "हँसता हूँ यह देखकर, कि तुम लोग मनुष्य को भुलाकर किस तरह वश में कर लिया करती हो।" प्यारी ने भी हँस दिया बोली, "यह देखकर हँसते हो! दूसरों को तो बातों में भुलाकर वश में किया जा सकता है; किन्तु, होश सँभालते ही स्वयं जिसके वश में रही हूँ, उसे भी क्या बातों में भुलाया जा सकता है? अच्छा आज तो वैसे मैं बात कर लेती हूँ, किन्तु उस समय हर रोज जब काँटों में क्षत-विक्षत होकर माला गूँथ देती थी; तब कितनी बात किया करती थी, कहो न? वह क्या तुम्हारी मार के डर से? यह बात भूलकर भी मन में मत लाना। राजलक्ष्मी ऐसी नहीं है। किन्तु राम! राम! तुम तो मुझे बिल्कुेल ही भूल गये थे, देखकर पहिचान भी न सके!" यों कहकर हँसते ही, सिर हिलाने से उसके दोनों कानों के हीरे तक हिलकर हँस उठे। मैंने कहा, "मैंने तुम्हें मन में स्थान ही कब दिया था, जो भूलता नहीं? वरन् आज मैंने तुम्हें पहिचान लिया, यह देखकर मुझे खुद ही अचरज हो रहा है। अच्छा, बारह बज चुके- जाता हूँ।" प्यारी का हँसता हुआ चेहरा पल-भर में बिल्कुनल फीका पड़ गया। तनिक सँभलकर उसने कहा, "अच्छा, भूत-प्रेत मत मानों, किन्तु साँप-बिच्छू, बाघ-भालू, जंगली सूअर आदि भी तो वन-जंगल में अंधेरी रात में फिरते रहते हैं, उन्हें तो मानना चाहिए?" मैंने कहा, "इनको तो मैं मानता ही हूँ, और इनसे खूब सावधन रहकर चलता हूँ।" मुझे जाने को उद्यत देखकर वह धीरे से बोली, "तुम जिस धातु के बने आदमी हो, उससे मैं जानती थी कि तुम्हें अटका न सकूँगी। यह भय मुझे खूब ही हो रहा था, फिर भी मैंने सोचा कि रो-धोकर, हाथ-पैर जोड़कर, अन्त तक शायद तुम्हें रोक सकूँ। किन्तु देखती हूँ रोना ही सार रहा।" मुझे जवाब देते न देख वह फिर बोली, "अच्छा जाओ, पीछे लौटाकर अब और असगुन न करूँगी। किन्तु, यदि कुछ हो जायेगा तो इस विदेश में, पराई जगह, राजे-रजवाड़े या मित्र-दोस्त, कोई काम नहीं आवेंगे, तब मुझे ही भुगतना पड़ेगा। मुझे पहिचान नहीं सकते, यह मेरे मुँह पर ही कहकर तुम अपने पौरुष की डींग हाँककर चल दिए, किन्तु हमारा तो स्त्रियों का मन है! विपत्ति के समय मैं तो यह कह न सकूँगी कि "मैं तुम्हें पहिचानती ही नहीं।" यह कहकर उसने एक दीर्घ निःश्वास दबा लिया। जाते-जाते मैंने लौटकर, खड़े होकर हँस दिया। न जाने क्यों मानो मुझे कुछ कष्ट का अनुभव हुआ। मैं बोला, "अच्छा तो है बाईजी, यह तो मुझे एक बड़ा लाभ होगा। मेरा तो कोई कहीं नहीं है, तब ही तो मैं जान सकूँगा कि हाँ, मेरा भी कहीं कोई है- जो मुझे छोड़कर नहीं जा सकता!" प्यारी बोली, "सो क्या तुम जानते नहीं हो? एक सौ बार 'बाईजी' कहकर तुम मेरा चाहे जितना अपमान क्यों न करो, राजलक्ष्मी तुम्हें छोड़कर न जा सकेगी-यह बात क्या तुम मन ही मन नहीं समझ रहे हो? किन्तु यदि मैं छोड़कर जा सकती, तो अच्छा होता। तुम्हें एक सीख मिल जाती। किन्तु, कितनी बुरी है यह स्त्रियों की जाति। एक दफा भी किसी को प्यार किया कि मरी!" मैं बोला, "प्यारी, भले संन्यासी को भी भीख नहीं मिलती, जानती हो, क्यों?" प्यारी बोली, "जानती हूँ, किन्तु तुम्हारे इस व्यंग्य में इतनी धार नहीं रही है कि इससे तुम मुझे वेध सको। यह मेरा ईश्वरदत्त धन है। और, जब कि मुझे संसार में भले-बुरे तक का ज्ञान नहीं था; उस समय का यह है। आज का नहीं।" मैं कुछ नरम होकर बोला, "अच्छी बात है, चाहता हूँ कि आज मुझ पर कोई आफत आवे और तब तुम्हारे इस ईश्वर-दत्त धन की हाथों-हाथ जाँच हो जाये।" प्यारी बोली, "राम-राम! ऐसी बात मत कहो। अच्छे-भले लौट आओ- इस सच्चाई की जाँच करने की ज़रूरत नहीं है। मेरे ऐसे भाग कहाँ कि वक्त-मौके पर अपने हाथ हिला-डुलाकर तुम्हें स्वस्थ सबल कर सकूँ। यदि ऐसा हो तो समझूँगी कि इस जन्म के एक कर्त्तव्य को पूरा कर डाला।" इतना कहकर उसने अपना मुँह फेरकर अपने ऑंसू छिपा लिये, यह हरीकेन के क्षीण प्रकाश में भी मैं अच्छी तरह जान गया। "अच्छा, भगवान तुम्हारी इस साध को कभी किसी दिन पूरा करें," कहकर और अधिक देर न करके मैं तम्बू के बाहर आ खड़ा हुआ। कौन जानता था कि हँसी-हँसी में ही मुँह से एक प्रचण्ड सत्य बाहर निकल जायेगी। तम्बू के भीतर से ऑंसुओं से रुँधे हुए कण्ठ से निकली हुई 'दुर्गा! दुर्गा!' की कातर पुकार कानों में आई और मैं तेज चाल से चल दिया। मेरा सारा मन प्यारी की ही बातों से ढँक गया। कब मैं आम के बगीचे के बड़े अंधियारे मार्ग को पार कर गया, और कब नदी के किनारे के सरकारी बाँध के ऊपर आ खड़ा हुआ, यह मैं जान ही न सका। सारी राह सिर्फ यही एक बात सोचता-सोचता आया कि स्त्री-जाति का मन भी कैसा विराट अचिन्तनीय व्यापार है। इस पिलही के रोगवाली लड़की ने अपने मटके जैसे पेट और लकड़ी जैसे हाथ-पाँव लेकर, सबसे पहले किस समय मुझे चाहा था और करोंदों की माला से अपनी दरिद्र-पूजा को सम्पन्न किया था, सो मैं बिल्कुहल ही न जान सका। और आज जब मैं जान सका, तब मेरे अचरज का पार नहीं रहा। अचरज कुछ इसलिए भी नहीं था- उपन्यास नाटकों में बाल्य-प्रणय की अनेकों कथाएँ पढ़ी हैं- किन्तु जिस वस्तु को गर्व के साथ, अपनी ईश्वर दत्त सम्पत्ति कहकर प्रकट करते हुए भी वह कुण्ठित नहीं हुई, उसे उसने, इतने दिनों तक, अपने इस घृणित जीवन के सैकड़ों मिथ्या प्रणयाभिनयों के बीच, किस कोने में जीवित रख छोड़ा था? कहाँ से इसके लिए वह खुराक जुटाती रही? किस रास्ते से प्रवेश करके वह उसका लालन-पालन करती रही? मैं एकदम चौंक पड़ा। सामने ऑंख उठाकर देखा, भूरे रंग की बालू का विस्तीर्ण मैदान है और उसे चीरती हुई एक शीर्ण नदी की वक्र रेखा टेढ़ी-मेढ़ी होती हुई सुदूर में अन्तर्हित हो गयी है। समस्त मैदान में जगह-जगह काँस के पेड़ों के झुण्ड उग रहे हैं। अन्धकार में एकाएक जान पड़ा कि मानो ये सब एक-एक आदमी हैं, जो आज की इस भयंकर अमावस्या की रात्रि को प्रेतात्मा का नृत्य देखने के लिए आमन्त्रित होकर आए हैं और बालू के बिछे हुए फर्श पर मानो अपना अपना आसन ग्रहण करके सन्नाटे में प्रतीक्षा कर रहे हैं। सिर के ऊपर, घने काले आकाश में, संख्यातीत गृह-तारे भी, उत्सुकता के साथ अपनी ऑंखों को एक साथ खोले हुए ताक रहे हैं। वायु नहीं, शब्द नहीं, अपनी छाती के भीतर छोड़कर, जितनी दूर दृष्टि जाती थी वहाँ तक कहीं भी, प्राणों की जरा-सी भी आहट अनुभव करने की गुंजाइश नहीं। जो रात्रि-चर पक्षी 'बाप' कहकर थम गया, वह भी और कुछ नहीं बोला। मैं पश्चिम की ओर धीरे-धीरे चला। उसी ओर वह महाश्मशान था। एक दिन शिकार के लिए आकर, जिस सेमर के झाड़ों के झाड़ को देख गया था, कुछ दूर चलने पर उनके काले-काले डाल-पत्र दिखाई दिए। यही थे उस महाश्मशान के द्वारपाल। इन्हीं को पार करके आगे बढ़ना होगा। इसी समय से प्राणों की अस्पष्ट आहट मिलने लगी, परन्तु वह ऐसी नहीं थी जिससे कि चित्त कुछ प्रसन्न हो। कुछ और दूर चलने पर वह कुछ और साफ़ हुई। किसी माँ के 'कुम्भकर्णी निद्रा' में सो जाने पर उसका छोटा बच्चा, रोते-रोते अन्त में बिल्कुील निर्जीव-सा होकर, जिस प्रकार रह-रहकर रिरियाना शुरू कर देता है, ऐसा मालूम हुआ कि ठीक उसी तरह श्मशान के एकान्त में कोई रिरिया रहा है। मैं बाज़ी लगाकर कह सकता हूँ कि, जिसने उस रोने का इतिहास पहले कभी जाना-सुना न हो, वह ऐसी गहरी अंधेरी अमावस्या की रात्रि में अकेला उस ओर एक पैर भी आगे बढ़ाना नहीं चाहेगा। वह मनुष्य का बच्चा नहीं चमगीदड़ का बच्चा था, जो अंधेरे में अपनी माँ को न देख सकने के कारण रो रहा था- यह बात, पहले से जाने बिना, सम्भव नहीं है कि कोई अपने आप निश्चयपूर्वक कह सके कि यह आवाज़ मनुष्य के बच्चे की है। और भी नजदीक जाकर देखा, ठीक यही बात थी। झोलों की तरह सेमर की डाल-डाल में लटके हुए, असंख्य चमगीदड़ रात्रि-वास कर रहे हैं और उन्हीं में का कोई शैतान बच्चा इस तरह आर्त्त कण्ठ से रो रहा है। झाड़ के ऊपर वह रोता ही रहा और उसके नीचे से आगे बढ़ता हुआ मैं उस महाश्मशान के एक हिस्से में जा खड़ा हुआ। सुबह उस वृद्ध ने जो यह कहा था कि यहाँ लाखों नर-मुण्ड गिने जा सकते हैं- मैंने देखा, कि उसके कथन में जरा भी अत्युक्ति नहीं है- कपाल तो वहाँ असंख्य पड़े हुए थे; फिर भी, खिलाड़ी उस समय तक भी आकर नहीं जुट पाए थे। मेरे सिवाय कोई और अशरीरी दर्शक वहाँ उपस्थित था या नहीं, सो भी मैं इन दो नश्वर चक्षुओं से आविष्कृत नहीं कर सका। उस समय घोर अमावास्या थी। इसलिए, खेल शुरू होने में और अधिक देरी नहीं है, यह सोच करके मैं एक रेत के टीले पर जाकर बैठ गया। बन्दूक खोलकर, उसके टोंटे की और एक बार जाँच करके तथा फिर उसे यथास्थान लगाकर, मैंने उसे गोद में रख लिया और तैयार हो रहा। पर हाय रे टोंटे! विपत्ति के समय, उसने जरा भी सहायता नहीं की। प्यारी की बात याद आ गयी। उसने कहा था, "यदि निष्कपट भाव से सचमुच ही तुम्हें भूत पर विश्वास नहीं है, तो फिर, वहाँ कर्म-भोग करने जाते ही क्यों हो? और यदि विश्वास में ज़ोर नहीं है, तो फिर मैं, भूत-प्रेत चाहे हों चाहे न हों, तुम्हें किसी तरह जाने न दूँगी।" सच तो है, यहाँ आया आखिर क्या देखने हूँ? पाप मन से अगोचर तो है नहीं। मैं वास्तव में कुछ भी देखने नहीं आया हूँ। केवल यही दिखाने आया हूँ कि मुझमें कितना साहस है। सुबह जिन लोगों ने कहा था, "कायर बंगाली काम के समय भाग जाते हैं," मुझे तो उनके निकट प्रमाण सहित सिर्फ यही बताना है कि बंगाली लोग बड़े वीर होते हैं। मेरा यह बहुत दिनों का दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य के मरने पर फिर उसका अस्तित्व नहीं रहता। और यदि रहता भी हो, तो भी जिस श्मशान में उसकी पार्थिव देह को पीड़ा पहुँचाने में कुछ भी कसर नहीं रखी जाती वहाँ, उसी जगह लौटकर अपनी ही खोपड़ी में लातें मार मारकर उसे लुढ़काते फिरने की इच्छा होना उसके लिए न तो स्वाभाविक ही है और न उचित ही। कम-से-कम मैं अपने लिए तो ऐसा ही समझता हूँ। यह बात दूसरी है कि मनुष्य की रुचि भिन्न-भिन्न होती है। यदि किसी की होती हो तो, इस बढ़िया रात को रात्रि-जागरण करके, मेरा इतनी दूर तक का आना निष्फल नहीं होगा। और फिर, आज उस वृद्ध व्यक्ति ने इसकी बड़ी भारी आशा भी तो दिलाई है। एकाएक हवा का एक झोंका कितनी ही रेत उड़ाता हुआ मेरे शरीर पर से होकर निकल गया; और वह खत्म भी होने नहीं पाया कि दूसरा और फिर तीसरा भी, ऊपर से होकर निकल गया। मन में सोचने लगा कि भला यह क्या है। इतनी देर तक तो लेश-भर भी हवा न थी। अपने आप चाहे कितना ही क्यों न समझूँ और समझाऊँ, फिर भी यह संस्कार, कि मरने के बाद भी कुछ अज्ञात सरीखा रहता है, हमारे हाड़-मांस में ही भिदा हुआ है, और जब तक हाड़-मांस हैं तब तक वह भी है, फिर चाहे मैं उसे स्वीकार करूँ चाहे न करूँ। इसलिए उस हवा के झोंके ने केवल रेत और धूल ही नहीं उड़ाई, किन्तु मेरे उस मज्जागत गुप्त संस्कार पर भी चोट पहुँचाई। क्रमशः धीरे-धीरे कुछ और ज़ोर से हवा चलने लगी। बहुत से आदमी शायद यह नहीं जानते कि मृत मनुष्य की खोपड़ी में से हवा के गुजरने से ठीक दीर्घ श्वास छोड़ने का-सा शब्द होता है। देखते ही देखते आसपास, सामने पीछे, चारों ओर से दीर्घ उसासों की झड़ी-सी लग गयी। ठीक ऐसा लगने लगा कि मानो कितने ही आदमी मुझे घेरकर बैठे हैं और लगातार जोर-जोर से हाय-हाय करके उसासें ले रहे हैं; और अंगरेजी में जिसे 'अन्कैनी फीलिंग' (अनमना-सा लगना) कहते हैं, ठीक उसी किस्म की एक आस्वस्ति या बेचैनी सारे शरीर को झकझोर गयी। चमगीदड़ का वह बच्चा तब भी चुप नहीं हुआ था। पीछे-पीछे मानो वह और भी अधिक रिरियाने लगा। मुझे अब मालूम होने लगा कि मैं भयभीत हो रहा हूँ। बहुत जानकारी के फलस्वरूप यह खूब जानता था कि जिस स्थान में आया हूँ वहाँ, समय रहते, यदि भय को दबा न सका, तो मृत्यु तक हो जाना असम्भव नहीं है। वास्तव में इस तरह की भयानक जगह में, इसके पहले, मैं कभी अकेला नहीं आया था। स्वच्छन्दता से जो यहाँ अकेला आ सकता था, वह था इन्द्र- मैं नहीं। अनेकों बार उसके साथ अनेकों भयानक स्थानों में जा-आने के कारण मेरी यह धारणा हो गयी थी कि इच्छा करने पर मैं स्वयं भी उसी के समान ऐसे सभी स्थानों में अकेला जा सकता हूँ। किन्तु, वह कितना बड़ा भ्रम था! और मैं केवल उसी झोंक में उसका अनुकरण करने चला था। एक ही क्षण में आज सब बातें सुस्पष्ट हो उठीं। मेरी इतनी चौड़ी छाती कहाँ? मेरे पास वह रामनाम का अभेद कवच कहाँ? मैं इन्द्र नहीं हूँ जो इस प्रेत-भूमि में अकेला खड़ा रहूँ, और ऑंखें गड़ाकर प्रेतात्माओं का गेंद खेलना देखूँ। मन में लगा कि कोई एकाध जीवित बाघ या भालू ही दिखाई पड़ जाय, तो मैं शायद जीवित बच जाऊँ! एकाएक किसी ने मानो पीछे खड़े होकर मेरे दाहिने कान पर निःश्वास डाला। वह इतनी ठण्डी थी कि हिम के कणों की तरह मानो उसी जगह जम गयी। गर्दन उठाए बगैर ही मुझे साफ-साफ दिखाई पड़ा कि वह निःश्वास जिस नाक के बृहदाकार नकुओं में से होकर बाहर आ गयी है, उसमें न चमड़ा है न मांस- एक बूँद रुधिर भी नहीं है। केवल हाड़ और छिद्र ही उसमें हैं। आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ अन्धकार था। सन्नाटे की आधी रात साँय साँय करने लगी। आसपास की हाय-हाय क्रम-क्रम से मानो, हाथों के पास से छूती हुई जाने लगी। कानों के ऊपर वैसी ही अत्यन्त ठण्डी उसासें लगातार आने लगीं और यही मुझे सबसे अधिक परिवश, करने लगीं। मन ही मन ऐसा मालूम होने लगा कि मानो सारे प्रेत-लोक की ठण्डी हवा उस गढ़े में से बाहर आकर मेरे शरीर को लग रही है। किन्तु, इस हालत में भी मुझे यह बात नहीं भूली कि किसी भी तरह अपने होश-हवास गुम कर देने से काम न चलेगा। यदि ऐसा हुआ, तो मृत्यु अनिवार्य है। मैंने देखा कि मेरा दाहिना पैर थर-थर काँप रहा है। उसे रोकने की चेष्टा की, परन्तु वह रुका नहीं, मानो वह मेरा पैर ही न हो। ठीक इसी समय बहुत दूर से बहुत से कण्ठों की मिली हुई पुकार कानों में पहुँची, "बाबूजी! बाबू साहब!" सारे शरीर में काँटे उठ आय। कौन लोग पुकार रहे हैं? फिर आवाज़ आई, "कहीं गोली मत छोड़ दीजिएगा!" आवाज़ क्रमशः आगे आने लगी, तिरछे देखने से प्रकाश की दो क्षीण रेखाएँ आती हुई नजर पड़ीं। एक दफे जान पड़ा मानो उस चिल्लाहट के भीतर रतन के स्वर का आभास है। कुछ देर ठहरकर और भी साफ़ मालूम हुआ कि ज़रूर वही है। और भी कुछ दूर अग्रसर होकर, एक सेमर के वृक्ष के नीचे आड़ में होकर वह चिल्लाया "बाबूजी, आप जहाँ भी हों गोली-ओली मत छोड़िए, मैं हूँ रतन।" रतन सचमुच ही जात का नाई है, इसमें मुझे जरा भी सन्देह नहीं रहा। मैंने उल्लास से चिल्लाकर उत्तर देना चाहा, किन्तु कण्ठ से आवाज़ नहीं निकली। प्रवाद है कि भूत-प्रेत जाते समय कुछ-न-कुछ नष्ट कर जाते हैं। जो मेरे पीछे था, वह मेरा कण्ठ स्वर नष्ट करके ही बिदा हुआ था। रतन तथा और भी तीन आदमी हाथ में लालटेनें और लट्ठ लिये हुए समीप आ उपस्थित हुए। उनमें एक तो था छट्टूलाल जो तबला बजाया करता था, दूसरा था प्यारी का दरबान, और तीसरा गाँव का चौकीदार। रतन बोला, "चलिए, तीन बजते हैं।" "चलो" कहकर मैं आगे हो लिया। रास्ता चलते-चलते रतन कहने लगा, "बाबू, धन्य है आपके साहस को। हम चार जने हैं फिर भी जिस तरह डरते-डरते यहाँ आए हैं, उसका वर्णन नहीं हो सकता।" "तुम आए क्यों?" रतन बोला, "रुपयों के लोभ से। हम सबको एक-एक महीने की तनख्वाह जो नकद मिली है!" इतना कहकर वह मेरे पास आया और गला धीमा करके बोला, "आपके चले आने पर देखा, माँ बैठी रो रही हैं। मुझसे बोली, "रतन, न जाने का होनहार है भइया, तुम लोग पीछे-पीछे जाओ। मैं तुम सबको एक-एक महीने की तनख्वाह इनाम दूँगी।" मैं बोला, "छट्टूलाल और गणेश को साथ लेकर मैं जा सकता हूँ माँ, परन्तु रास्ता तो मैंने देखा ही नहीं है।" इसी समय चौकीदार ने हाँक दी। माँ बोली, "उसे बुला ले रतन, वह ज़रूर रास्ता जानता होगा।" बाहर जाकर मैं उसे बुला लाया। चौकीदार जब नकद छः रुपये पा गया, तब रास्ता दिखाता हुआ ले आया। अच्छा बाबूजी, "आपने छोटे बच्चे का रोना सुना है?" इतना कहकर काँपते हुए रतन ने मेरे कोट के पीछे का छोर पकड़ लिया। कहने लगा, "हमारे गणेश पाण्डे ब्राह्मण हैं, इसी से हम लोग आज बच गये, नहीं तो..." मैंने कुछ कहा नहीं। प्रतिवाद करके किसी के भ्रम को भंग करने जैसी अवस्था मेरी नहीं थी। आछन्न-अभिभूत की तरह चुपचाप चलने लगा। कुछ दूर चलने के बाद रतन ने पूछा, "आज कुछ देखा बाबूजी?" मैं बोला, "नहीं।" मेरे इस संक्षिप्त उत्तर से रतन क्षुब्ध होकर बोला, "हमारे आने से आप क्या नाराज हो गये, बाबूजी? किन्तु यदि आप माँ का रोना देखते..." मैं चटपट बोल उठा, "नहीं रतन, मैं जरा भी नाराज नहीं हुआ।" तम्बू के पास आ जाने पर चौकीदार अपने घर चला गया, गणेश और छट्टूलाल नौकरों के तम्बू में चले गये। रतन ने कहा, "माँ ने कहा था कि जाते समय एक बार दर्शन दे जाइएगा।" मैं ठिठक कर खड़ा हो गया, ऑंखों के आगे साफ-साफ दिखाई पड़ा कि प्यारी दिए के सामने अधीर उत्सुकता और सजल नेत्रों से बैठी-बैठी प्रतीक्षा कर रही है और मेरा सारा मन उन्मत्त उर्ध्वन श्वासें भरता हुआ उस ओर दौड़ा जा रहा है। रतन ने विनय के साथ बुलाया, "आइए।" क्षण-भर के लिए ऑंखें मींचकर अपने अन्तर में डूबकर देखा, वहाँ होश-हवास में कोई नहीं है, सब गले तक शराब पीकर मस्त हो रहे हैं। राम, राम, इन मतवालों के दल को लेकर मैं उससे मिलने जाऊँ? यह मुझसे किसी तरह न होगा। देर होती देखकर रतन विस्मय से बोला, "उस जगह अंधेरे में क्यों खड़े हो रहे हैं बाबूजी- आइए न?" मैं चटपट बोल उठा, "नहीं रतन, इस समय नहीं-मैं चलता हूँ।" रतन कुण्ठित होकर बोला, "माँ, किन्तु, राह देखती बैठी हैं..." "राह देखती हैं तो देखने दे। उन्हें मेरा असंख्य नमस्कार जताकर कहना, कल जाने के पहले मुलाकात होगी- इस समय नहीं। मुझे बड़ी नींद आ रही है रतन, मैं चलता हूँ।" इतना कहकर विस्मित, क्षुब्ध रतन को जवाब देने का अवसर दिए बगैर ही मैं, जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाता हुआ, उस तरफ से तम्बू की ओर चल दिया।
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तो वह भी वहाँ सो जाता था और हम भी सो जाते थे। अब जंगल में वह बेचारा कहाँ जाए ? उसे जहाँ जगह मिल जाए, वहीं पर उसका घर । उसका कोई ससुराल नहीं है न ! हम तो दो- एक दिन ससुराल भी जा आते हैं ! इसलिए हमने 'व्यवस्थित' कहा है न, 'एक्ज़ेक्टनेस' है। उसमें नाम मात्र भी गलती नहीं है । प्रत्येक पर्याय में से गुज़रकर ये सब तो मेरी पृथक्करण की हुई चीजें हैं और ये सभी एक जन्म की चीज़ें नहीं हैं। एक जन्म में क्या इतने सारे पृथक्करण हो सकते हैं ? अस्सी सालों में कितने पृथक्करण हो सकते हैं ?! यह तो कितने ही जन्मों का पृथक्करण है, वह सब आज हाज़िर हो रहा है । प्रश्नकर्ता : इतने सारे जन्मों का पृथक्करण, वह इकट्ठा होकर आज किस तरह हाज़िर होता है ? दादाश्री : आवरण टूट गया इसलिए । अंदर ज्ञान तो है ही सारा । आवरण टूटना चाहिए न ? ज्ञान की पूँजी तो है ही, लेकिन आवरण टूटने पर प्रकट होता है! सभी फेज़िज़ का ज्ञान मैंने ढूंढ निकाला है । हर एक फेज़ में से मैं गुज़र चुका हूँ और हर एक फेज़ का मैं एन्ड ला चुका हूँ। उसके बाद यह ज्ञान हुआ है । चंद्र के कितने फेज़ ? पूरे पंद्रह फेज़िज़ । उन पंद्रह फेज़िज़ में तो अनंत काल से वह पूरे जगत् को नचा रहा है । फेज़िज़ पूरे पंद्रह, और उसमें तो वह पूरे जगत् को अनंतकाल से नचा रहा है । वही का वही चंद्रमा आज तीज का चंद्रमा कहलाता है, इतना ही है । जगत् के लोग उसे तीज कहते हैं लेकिन चंद्रमा वही का वही है । और फिर चंद्रमा क्या कहेगा? 'मैं तीज हूँ, मैं तीज हूँ।' तब जगत् के लोग बाहर निकलकर कहेंगे, 'क्या बक-बक कर रहा है? कल चौथ नहीं हो जाएगी? कल बीज थी । क्यों बोलता ही रहता है ?' चंद्रमा वही का वही है । यह बीज, तीज, चौथ, पाँचम होती ही रहेगी ! और उस पर भी ये लोग शंका करते हैं। 'नहीं, यह तीज नहीं है, यह तो बीज है' कहेंगे । तब दूसरा क्या कहेगा, 'तीज है । इस पर भी शंका करते हैं कि यह बीज है ? ' ले ! शंका को क्या ढूँढने जाना पड़ता है ? इसीलिए तो दुःखी हैं सभी । लोग दुःखी हैं, उसका कारण शंका ही है। निरा दुःख, दुःख और दुःख ही है इसलिए मैं इस बात को समझने का कह रहा हूँ न, कि 'समझो, समझो, समझो !' सभी फेज़िज़ समझने जैसे हैं । जगत् के तमाम फेज़िज़ मेरे पास आ चुके हैं। ऐसा एक भी फेज़ बाकी नहीं है कि जिसमें से मैं गुज़रा नहीं हूँ। हर एक जन्म के फेज़िज़ मेरे ध्यान में हैं और यह बात हर एक फेज़ के अनुभव सहित है। 'वह' 'सेटल' करे, व्यवहार 'जो' व्यवहार से बाहर है, वह 'सेटल' कर सकता है ! वर्ना तब तक व्यवहार में सेटल नहीं हो सकता । जो व्यवहार में ही है, उसे तो व्यवहार का भान ही नहीं होता न ! व्यवहार का आग्रह होता है । वह व्यवहार में ही रहता है, इसलिए व्यवहार का उसे पता ही नहीं होता है न! 'ज्ञानीपुरुष' व्यवहार से बाहर होते हैं इसलिए उनकी वाणी ही ऐसी निकलती है कि सामने वाले का सबकुछ एक्ज़ेक्ट हो जाता है । शंका निकालने से नहीं जाती है, ज्ञानीपुरुष के कहने से शंका चली जाती है। वर्ना शंका निकालने से नहीं जाती, बल्कि बढ़ जाती है । शंका नुकसान ही करवाती है बाहर तो दूसरे लोग उल्टा कहते हैं, जिसे पूछने जाएँ वह कहेगा, 'भाई, सही बात हो तब भी शंका होती है न ! शंका नहीं होगी तो हम मनुष्य कैसे? क्या जानवरों को शंका होती है ? हम मनुष्य हैं इसलिए इन बेटियों पर शंका तो होगी ही न ?' ऐसा सिखाते हैं। मैं क्यों शंका खत्म कर देता हूँ? क्योंकि शंका तो कुछ भी हेल्प नहीं करेगी। एक बाल बराबर भी हेल्प नहीं करेगी और बेहद नुकसान करेगी इसलिए मैं शंका को खत्म कर देता हूँ । शंका यदि हेल्प करती तो मैं ऐसा नहीं कह सकता था । शंका से अगर दस प्रतिशत भी हेल्प होती और नब्बे प्रतिशत नुकसान होता, तब भी मैं ऐसा नहीं कह सकता था । यह तो एक बाल बराबर भी हेल्प नहीं करती और नुकसान बेहद है । शंका तो ठेठ मरण करवाए यह शंका ही विनाश का कारण है । शंका ने ही मार दिया है लोगों को । शंका होने लगे तो शंका का एन्ड नहीं आता। शंका का एन्ड नहीं आता, इसलिए मनुष्य खत्म हो जाता है । स्त्रियों को शंका होती है, तब भी लगभग वे भूल जाती हैं लेकिन यदि याद रह गई तो शंका ही उसे मार डालती है और पुरुष तो शंका नहीं हो रही हो, फिर भी उत्पन्न करते हैं । स्त्री शंका रखे, तब फिर वह डाकन कहलाती है। यानी भूत और डाकन दोनों चिपट गए। वे फिर मार ही डालते हैं इंसान को । मैं तो पूछ लेता हूँ कि किस किस पर शंका होती है ? घर में भी शंका होती है सब पर ? अड़ोसी - पड़ोसी, भाई, पत्नी पर, सभी पर शंका होती है ? तो फिर कहाँ पर होती है? आप मुझे बताओ तो मैं आपका ठीक कर दूँ । बाकी, यह शंका तो, संक्रामक रोग फैला हुआ है । शंका करनेवाला बहुत दुःखी होता है न! मुश्किल है न ! ये तो शंकाशील हुए इसलिए फिर सभी पर शंका होती है और इस दुनिया में शंकाशील और मृत, दोनों एक सरीखे ही हैं । जिस व्यक्ति को सब पर शंका होती है वह शंकाशील। शंकाशील और मृत व्यक्ति, दोनों में फर्क नहीं है । वह मृत समान ही जीवन जीता है। सुंदर संचालन, वहाँ शंका कैसी ? शंका किसी भी चीज़ पर नहीं रखनी चाहिए । शंका तो महादुःख है। उसके जैसा कोई दुःख है ही नहीं । रात को कभी आपने हांडवा ( एक गुजराती व्यंजन) खाया है ? और फिर वह हांडवा खाकर और थोड़ा दूध पीकर सो जाते हो या नहीं सो जाते ? तो फिर अंदर जाँच नहीं की कि अंदर पाचक रस डले या पित्त डला या नहीं डला, वह सब ? बाइल कितना डला, कितने पाचकरस डले, वह सब जाँच नहीं किया ? प्रश्नकर्ता : वह सब तो हो ही जाता है न! वह ऑटोमेटिकली होगा ही। उसके लिए जाँच करने की क्या ज़रूरत ? दादाश्री : तो क्या बाहर ऑटोमेटिक नहीं होता होगा? यह अंदर तो इतना बड़ा तंत्र अच्छी तरह से चलता है। बाहर तो कुछ करना ही नहीं है । अंदर तो खून, यूरिन, संडास सबकुछ अलग कर देता है, कितना सुंदर कर देता है ! फिर, छोटे बच्चे की माँ हो तो उस तरफ दूध भी भेज देता है। कितनी तैयारी है सारी ! और आप तो चैन से गहरी नींद सो जाते हो ! और अंदर तो सब अच्छा चलता रहता है। कौन चलाता है यह ? अंदर का कौन चलाता है ? और उस पर शंका नहीं होती ? दादाश्री : तो बाहर की भी शंका नहीं करनी चाहिए। अंतःकरण में जो कुछ हो रहा है वही बाहर होता है, तो किसलिए हाय-हाय करता है ? बीच में हाथ किसलिए डालते हो फिर ? यह परेशानी क्यों मोल लेते हो ? बिना बात की परेशानी ! शंका सर्वकाल जोखिमी ही ये बेटियाँ बाहर जाती हैं, पढ़ने जाती हैं, तब भी शंका । वाइफ पर भी शंका । इतना अधिक दगा ! घर में भी दगा ही है न, आजकल ! इस कलियुग में खुद के घर में ही दगा होता है । कलियुग अर्थात् दगेवाला काल । कपट और दगा, कपट और दगा, कपट और दगा ! ऐसे में कौन से सुख के लिए करता है ? वह भी बगैर भान के, बेभान रूप से ! बुद्धिशाली व्यक्ति में दगा और कपट नहीं होता है। निर्मल बुद्धि वाले में कपट और दगा नहीं होता । आजकल तो फूलिश इंसान में कपट और दगा होता है। कलियुग यानी सब फूलिश ही इकट्ठे हुए हैं न! प्रश्नकर्ता : लेकिन यह जो दगा और कपट होता है, उसमें राग और द्वेष काम करते हैं न ? दादाश्री : वह राग और द्वेष हैं, तभी ऐसा सब काम होता है न! वर्ना जिसे राग-द्वेष नहीं है, उसे तो कुछ भी है ही नहीं न ! जिसमें रागद्वेष नहीं हैं तो वह जो कुछ भी करे, वह कपट करे तो भी हर्ज नहीं और अच्छा करे तब भी हर्ज नहीं क्योंकि वह धूल में खेलता ज़रूर लेकिन तेल नहीं चुपड़ा है जबकि राग-द्वेष वाले तो तेल चुपड़कर धूल में खेलते हैं । प्रश्नकर्ता : लेकिन यह दगा और कपट करने में बुद्धि का योगदान है न ? दादाश्री : नहीं, अच्छी बुद्धि कपट और दगे को निकाल देती है । बुद्धि सेफसाइड रखती है। एक तो शंका मार डालती है, और फिर यह कपट और दगा तो हैं ही, और फिर सभी अपने खुद के सुख में ही डूबे रहते हैं । प्रश्नकर्ता : लेकिन खुद अपने सुख में रहने के लिए बुद्धि के उपयोग से दगा और कपट कर सकता है न ? दादाश्री : जहाँ खुद अपने आपके लिए सुख ढूँढते हैं वहाँ पर अच्छी बुद्धि है ही नहीं न ? अच्छी बुद्धि तो सामुदायिक सुख खोजती है कि 'मेरा पूरा परिवार सुखी हो जाए ।' लेकिन यहाँ तो बेटा अपना सुख ढूँढता है, पत्नी अपना सुख ढूँढती है, बेटी अपना सुख ढूँढती है, बाप अपना सुख ढूँढता है, हर कोई अपना-अपना सुख ढूँढता है । इसे यदि खोलकर बता दें न, तो घर के लोग एक साथ नहीं रह सकेंगे, लेकिन ये सब तो इकट्ठे रहते हैं और खाते-पीते हैं ! ढँका हुआ है वही अच्छा है। वर्ना शंका रखने योग्य चीज़ है ही नहीं, किसी भी प्रकार से । वह शंका ही इंसान को मार डालती है। ये सब लोग शंका के कारण ही मर रहे हैं न! यानी इस दुनिया में सब से बड़ा भूत यदि कोई हो तो वह शंका का है ! सब से बड़ा भूत ! जगत् के कई लोगों को खा चुकी है, निगल चुकी है ! इसलिए शंका होने ही मत देना । शंका का जन्म होते ही मार देना । चाहे कैसी भी शंका हो तो जन्म होते ही उसे मार देना, उसकी बेल को बढ़ने मत देना । नहीं तो चैन से बैठने नहीं देगी शंका, वह किसी को चैन से नहीं बैठने देती । शंका ने तो लोगों को मार डाला है। बड़े-बड़े राजाओं को, चक्रवर्तियों को भी शंका ने मार डाला था। उसके जोखिम तो भारी यदि लोगों ने कहा हो कि 'यह नालायक इंसान है ' तब भी हमें उसे लायक कहना चाहिए क्योंकि शायद वह नालायक न भी हो । यदि उसे नालायक कहोगे तो बहुत दोष लगेगा। सती को यदि वेश्या कह दिया तो भयंकर गुनाह है । उसका फल कितने ही जन्मों तक भुगतते रहना पड़ेगा इसलिए किसी के भी चारित्र के संबंध में बोलना ही मत क्योंकि यदि वह गलत निकला तो? लोगों के कहने से यदि हम भी कहने लगे तो फिर हमारी क्या कीमत रही ? हम तो किसी को ऐसा कभी भी नहीं कहते और किसी को कहा भी नहीं है। मैं तो हाथ ही नहीं डालता न ! उसकी ज़िम्मेदारी कौन ले ? किसी के चारित्र संबंधी शंका नहीं करनी चाहिए। बहुत बड़ा जोखिम है । शंका तो हम कभी भी करते ही नहीं हैं। हम किसलिए जोखिम मोल लें ? अंधेरे में, आँखों पर कितना ज़ोर दें ? प्रश्नकर्ता : लेकिन मन में शंका सहित देखने की ग्रंथि पड़ गई हो तो वहाँ पर कैसा 'एडजस्टमेन्ट' लेना चाहिए ? दादाश्री : यह जो आपको दिखाई देता है कि इसका चारित्र खराब है, तो क्या पहले ऐसा नहीं था? यह क्या अचानक उत्पन्न हो गया है ? यानी कि यह जगत् समझ लेने जैसा है, कि यह तो ऐसा ही है । इस काल में चारित्र संबंधी किसी का देखना ही नहीं चाहिए । इस काल में तो सभी जगह ऐसा ही होता है। खुले तौर पर नहीं होता, लेकिन मन तो बिगड़ता ही है। उसमें भी स्त्री चारित्र तो निरा कपट और मोह का ही संग्रहस्थान है, इसीलिए तो स्त्री - जन्म मिलता है । इन सब के बीच सब से अच्छी बात यही है कि विषय से मुक्त हो जाएँ । प्रश्नकर्ता : चारित्र में तो ऐसा ही होता है, वह जानते हैं फिर भी जब मन शंका करता है तब तन्मयाकार हो जाते हैं । वहाँ पर कौन सा 'एडजस्टमेन्ट' लेना चाहिए ? दादाश्री : आत्मा हो जाने के बाद और किसी चीज़ में पड़ना ही मत। यह सब 'फॉरेन डिपार्टमेन्ट' का है । हमें 'होम' में रहना है । आत्मा में रहो न ! ऐसा 'ज्ञान' बार-बार नहीं मिलेगा, इसलिए काम निकाल लो । एक व्यक्ति को खुद की पत्नी पर शंका होती रहती थी । उसे मैंने कहा कि शंका किसलिए होती है ? तूने देख लिया इसलिए शंका होती है ? जब तक नहीं देखा था, तब तक क्या ऐसा नहीं हो रहा था? लोग तो जो पकड़ा जाता है, उसी को चोर कहते हैं। लेकिन जो पकड़े नहीं गए, वे सब भी अंदर से चोर ही हैं लेकिन ये तो, जो पकड़ा गया, उसी को चोर कहते हैं। अरे, उसे किसलिए चोर कहता है ? वह तो सीधा था । कम चोरियाँ करता है इसलिए पकड़ा गया । क्या ज़्यादा चोरी करने वाले पकड़े जाते होंगे ? प्रश्नकर्ता : लेकिन पकड़े जाते हैं तब चोर कहलाते हैं न ? दादाश्री : नहीं, क्योंकि जो कम चोरियाँ करते हैं, वे पकड़े जाते हैं, और क्योंकि वे पकड़े जाते हैं इसलिए लोग उन्हें चोर कहते हैं। अरे, चोर तो वे हैं जो पकड़ में नहीं आते हैं लेकिन जगत् तो ऐसा ही है । तब फिर वह व्यक्ति मेरा विज्ञान पूरी तरह से समझ गया । फिर उसने मुझसे कहा कि, 'मेरी वाइफ को अब कोई दूसरा हाथ लगाए, तब भी मैं गुस्सा नहीं करूँगा ।' हाँ, ऐसा होना चाहिए । मोक्ष में जाना हो तो ऐसा है। वर्ना झगड़े करते रहो । आपकी 'वाइफ' या आपकी स्त्री इस दुषमकाल में आपकी हो ही नहीं सकती और ऐसी गलत आशा रखना ही बेकार है । यह दुषमकाल है, इसलिए इस दुषमकाल में तो जितने दिन हमें रोटियाँ खिलाती है, उतने दिन तक अपनी । वर्ना अगर किसी और को खिलाए तो उसकी । सभी महात्माओं से कह दिया है कि शंका मत रखना। फिर भी मेरा कहना है कि, जब तक नहीं देखा हो, तब तक उसे सत्य मानते ही क्यों हो, इस कलियुग में ? यह सब घोटालेवाला है। जो मैंने देखा है उसका यदि मैं आपको वर्णन करूँ तो कोई भी जीवित ही नहीं रहेगा । अब ऐसे काल में अकेले पड़े रहो मस्ती में और ऐसा 'ज्ञान' साथ में हो तो उसके जैसा तो कुछ भी नहीं । यानी कि काम निकाल लेने जैसा है अभी । इसलिए हम कहते हैं न, कि काम निकाल लो, काम निकाल लो, काम निकाल लो ! यह कहने का भावार्थ इतना ही है कि ऐसा किसी काल में मिलता नहीं है और मिला है तो सिर पर कफन बाँधकर निकल पड़ो ! यानी आपको समझ में आ गया न ? कि जब तक नहीं देखा, तब तक कुछ नहीं होता है, यह तो देखा उसका ज़हर है ! प्रश्नकर्ताः हाँ, दिख गया इसीलिए ऐसा होता है । दादाश्री : इस पूरे जगत् में अंधेरे में घोटाला ही चल रहा है। हमें यह सब 'ज्ञान' में दिखाई दिया था लेकिन आपको नहीं दिखाई दिया इसलिए आप इसे देखते हो और भड़क जाते हो ! अरे, भड़कते क्यों हो? इसमें तो सब, यह तो ऐसा ही चल रहा है, लेकिन आपको दिखाई नहीं देता है। इसमें भड़कने जैसा है ही क्या? आप आत्मा हो, तो भड़कने जैसा क्या रहा ? यह तो सब जो चार्ज हो चुका है, उसी का डिस्चार्ज है! जगत् शुद्ध (पूर्णरूप से) डिस्चार्जमय ही है । यह जगत् 'डिस्चार्ज' से बाहर नहीं है। तभी तो हम कहते हैं न कि डिस्चार्जमय है इसलिए कोई गुनहगार नहीं है । प्रश्नकर्ता : तो इसमें भी कर्म का सिद्धांत काम करता है न ? दादाश्री : हाँ, कर्म का सिद्धांत ही काम कर रहा है और कुछ भी नहीं । मनुष्य का दोष नहीं है, ये कर्म ही घुमाते हैं बेचारे को । लेकिन उसमें शंका रखे न, तो वह मर जाएगा बिना बात के । मोक्ष में जानेवालों को देहाध्यास छूटे तो समझना कि मोक्ष में जाने की तैयारी हुई । देहाध्यास मतलब देह में आत्मबुद्धि ! वह सब देहाध्यास कहलाता है । कोई गालियाँ दे, मारे, अपनी 'वाइफ' को अपने सामने ही उठाकर ले जाए, तब भी अंदर राग-द्वेष नहीं हों तो समझना कि वीतरागों का मार्ग पकड़ा है ! लोग तो फिर खुद की कमजोरी के कारण उठाकर ले जाने देते हैं न! उठानेवाला बलवान हो तो 'वाइफ' को उठाकर ले जाने देते हैं न ! यानी इनमें से कुछ भी खुद का है ही नहीं । यह सब पराया है । इसलिए अगर व्यवहार में रहना हो तो व्यवहार में मज़बूत बनो और मोक्ष में जाना हो तो मोक्ष के लायक बनो ! जहाँ पर यह देह भी खुद का नहीं है वहाँ पर स्त्री अपनी कैसे हो सकती है? बेटी अपनी कैसे हो सकती है? यानी आपको तो हर प्रकार से सोच लेना चाहिए कि 'स्त्री को उठाकर ले जाएँ तो क्या करूँगा?' जो होना है, उसमें कोई बदलाव नहीं हो सकता, 'व्यवस्थित' ऐसा ही है। इसलिए डरना मत । इसी वजह से ऐसा कहा है कि 'व्यवस्थित' है! यदि नहीं देखा हो तो तब कहेगा, 'मेरी पत्नी' और देख लिया तो छटपटाहट ! अरे, पहले से ऐसा ही था । इसमें नया ढूँढना ही मत। प्रश्नकर्ता : लेकिन 'दादा' ने बहुत ढील दे दी है। दादाश्री : मेरा कहना यह है कि दुषमकाल में अगर हम झूठी आशा रखें तो उसका कोई अर्थ ही नहीं है न ! और इस सरकार ने भी 'डाइवोर्स' का नियम बनाया है। सरकार पहले से ही जानती थी कि ऐसा होगा, इसलिए पहले नियम बनता है । अर्थात् हमेशा दवाई का पौधा पहले उगकर तैयार होता है, उसके बाद फिर रोग उत्पन्न होता है । उसी तरह पहले ये नियम बनते हैं, उसके बाद लोगों में ऐसी घटनाएँ होती हैं ! चारित्र संबंधी 'सेफसाइड' अतः जिसे पत्नी के चारित्र संबंधी शांति चाहिए, उसे एकदम काली रंग की दाग़ वाली स्त्री लानी चाहिए ताकि उसका कोई ग्राहक ही न हो कोई, और उसे संभाले ही नहीं। और वही आपसे कहे कि, 'मुझे संभालनेवाला और कोई नहीं है । ये एक पति मिले हैं, वही संभालते हैं ।' तब वह आपके प्रति 'सिन्सियर' रहेगी, बहुत 'सिन्सियर' रहेगी । वर्ना, सुंदर होगी तो उसे तो लोग भोगेंगे ही। सुंदर होगी तो लोगों की दृष्टि बिगड़ेगी ही! कोई सुंदर पत्नी लाए तो मुझे यही विचार आता है कि 'इसकी क्या दशा होगी!' काली दाग़ वाली हो, तभी 'सेफसाइड' रहती है । पत्नी बहुत सुंदर हो, तब पति भगवान को भूल जाएगा न ! और पति बहुत सुंदर हो तो पत्नी भी भगवान को भूल जाएगी ! इसलिए सबकुछ संतुलित हो तो अच्छा है। अपने बड़े बूढ़े तो ऐसा कहते थे कि 'खेत राखवुं चोपाट और बैरुं राखवुं कोबाड' ('खेत रखना समतल और पत्नी रखना बदसूरत ) ऐसा किसलिए कहते थे ? कि यदि पत्नी बहुत सुंदर होगी तो कोई नज़र बिगाड़ेगा । इसके बजाय तो पत्नी ज़रा सी बदसूरत ही अच्छी, ताकि कोई नज़र तो नहीं बिगाड़ेगा न! ये बूढ़े लोग अलग तरह से कहते थे, वे धर्म की दृष्टि से नहीं कहते थे । मैं धर्म की दृष्टि से कहना चाहता हूँ । बहू बदसूरत होगी, तो हमें कोई भय ही नहीं रहेगा न ! घर से बाहर जाए फिर भी कोई नज़र बिगाड़ेगा ही नहीं न! अपने बड़े-बूढ़े तो बहुत पक्के थे लेकिन मैं जो कहना चाहता हूँ वह ऐसा नहीं है, वह अलग है । वह बदसूरत होगी न, तो आपके मन को बहुत परेशान नहीं करेगी, भूत बनकर चिपटेगी नहीं । कैसी दगाखोरी यह ये लोग तो कैसे हैं ? कि जहाँ 'होटल' देखें वहाँ 'खा' लेते हैं । इसलिए यह जगत् शंका रखने योग्य नहीं है । शंका ही दुःखदाई है । अब जहाँ होटल देखे, वहीं पर खा लेते हैं, इसमें पुरुष भी ऐसा करते हैं और स्त्रियाँ भी ऐसा करती हैं। फिर उस पुरुष को ऐसा नहीं होता कि 'मेरी स्त्री क्या करती होगी?' वह तो ऐसा ही समझता है कि 'मेरी स्त्री तो अच्छी है।' लेकिन उसकी स्त्री तो उसे पाठ पढ़ाती है ! पुरुष भी स्त्रियों को पाठ पढ़ाते हैं और स्त्रियाँ भी पुरुषों को पाठ पढ़ाती हैं ! फिर भी स्त्रियाँ जीत जाती हैं क्योंकि इन पुरुषों में कपट नहीं है न ! इसलिए पुरुष स्त्रियों द्वारा ठगे जाते हैं ! अतः जब तक 'सिन्सियारिटी-मॉरेलिटी' थी, तभी तक संसार भोगने लायक था। अभी तो भयंकर दगाखोरी है । हर एक को उसकी 'वाइफ' की बात बता दूँ तो कोई अपनी 'वाइफ' के पास नहीं जाएगा। मैं सब का जानता हूँ, फिर भी कुछ भी कहता नहीं हूँ । हालांकि पुरुष भी दगाखोरी में कम नहीं है लेकिन स्त्री तो निरा कपट का ही कारखाना है ! कपट का संग्रहस्थान और कहीं पर भी नहीं होता, सिर्फ स्त्री में ही होता है । ऐसे दगे में मोह क्या ? यह जो संडास है, उसमें हर कोई व्यक्ति जाता है या एक ही व्यक्ति जाता है ? प्रश्नकर्ता : सभी जाते हैं । दादाश्री : तो जिसमें सभी जाते हैं, वह संडास कहलाती है। जहाँ पर कई लोग जाते हैं न, वह संडास ! जब तक एक पत्नीव्रत और एक पतिव्रत रहे, तब तक वह बहुत उच्च चीज़ कहलाती है । तब तक चारित्र कहलाता है, नहीं तो फिर संडास कहलाता है। आपके यहाँ संडास में कितने लोग जाते होंगे ? प्रश्नकर्ता : घर के सभी लोग जाते हैं । दादाश्री : एक ही व्यक्ति नहीं जाता है न ? अतः फिर दो जाएँ या सभी जाएँ, लेकिन वह संडास कहलाएगा । यह तो जहाँ होटल आई, वहाँ पर खा लेता है । अरे, खाता- पीता भी है ! इसलिए शंका निकाल देना । शंका से तो हाथ में आया हुआ मोक्ष भी चला जाएगा। अतः आपको ऐसा ही समझ लेना है कि इससे मैंने विवाह किया है और यह मेरी किराएदार है! बस, इतना मन में समझकर रखना। फिर वह चाहे अन्य किसी के भी साथ घूमती रहे, फिर भी आपको शंका नहीं करनी चाहिए। आपको काम से काम है न ? आपको संडास की ज़रूरत पड़े तो संडास में जाना ! जहाँ गए बगैर नहीं चलता, वह कहलाती है संडास । इसीलिए तो ज्ञानियों ने साफ-साफ कहा न कि संसार दगा है। प्रश्नकर्ता : दगा नहीं लगता है । वह किस कारण से ? दादाश्री : मोह के कारण ! और कोई बतानेवाला भी नहीं मिला न! लेकिन लाल झंडी दिखाएँगे, तो गाड़ी खड़ी रहेगी, वर्ना गाड़ी नीचे गिर पड़ेगी । शंका की पराकाष्ठा पर समाधान यानी कि शंका से ही यह जगत् खड़ा है । जिस पेड़ को सुखाना है, शंका करके उसी में पानी छिड़कते हैं तो उससे वह और अधिक मज़बूत बनता है। अतः यह जगत् किसी भी प्रकार की शंका करने जैसा नहीं है । अब आपको संसार से संबंधित और कोई शंका होती है? आपकी 'वाइफ' किसी और के साथ बैंच पर बैठी हो और दूर से आपको दिखाई दे तो आपको क्या होगा ? प्रश्नकर्ता : अब कुछ भी नहीं होगा। यों थोड़ा 'इफेक्ट' होगा, फिर कुछ नहीं होगा। फिर तो 'व्यवस्थित ' है और यह ऋणानुबंध है, ऐसा ध्यान आ जाएगा। दादाश्री : कैसे पक्के हैं ! कैसा हिसाब लगाया है ! फिर शंका तो नहीं होगी न ? प्रश्नकर्ता : नहीं होगी, दादा । दादाश्री : जबकि ये लोग तो, 'वाइफ' ज़रा सी भी देर से आई तो भी शंका करते हैं । शंका नहीं करनी चाहिए । ऋणानुबंध से बाहर कुछ भी नहीं होगा । वह घर पर आए तो उसे समझाना, लेकिन शंका मत करना। शंका तो बल्कि उसे और अधिक पानी छिड़केगी । हाँ, सावधान ज़रूर करना लेकिन कोई भी शंका मत रखना । शंका रखनेवाला मोक्ष खो देता है । यदि आपको मुक्त होना है, मोक्ष में जाना है तो आपको शंका नहीं करनी चाहिए। कोई दूसरा व्यक्ति आपकी पत्नी के गले में हाथ डालकर घूम रहा हो और आपने देख लिया, तो क्या आपको ज़हर खा लेना चाहिए ? प्रश्नकर्ता : नहीं, ऐसा किसलिए करूँ ? दादाश्री : तो फिर क्या करना चाहिए ? प्रश्नकर्ता : थोड़ा नाटक करना पड़ेगा, फिर समझाऊँगा । फिर तो जो करे वह 'व्यवस्थित' । दादाश्री : हाँ, ठीक है। अब आपको 'वाइफ' पर या घर में किसी पर भी ज़रा सी भी शंका नहीं होगी न ? ! क्योंकि ये सब फाइलें हैं । इसमें शंका करने जैसा क्या है ? जो भी हिसाब होगा, जो ऋणानुबंध होगा, उस हिसाब से ये फाइलें भटकेंगी जबकि आपको तो मोक्ष में जाना है । वह तो भयंकर रोग अब अगर वहाँ पर हमें वहम हो गया, तो वह वहम बहुत सुख देगा? नहीं क्या ? प्रश्नकर्ता : अंदर कीड़े की तरह काम करेगा, कुतरता रहेगा । दादाश्री : हाँ, पूरा जागृतकाल उसे खा जाएगा। टी.बी. का रोग ! टी.बी. तो अच्छी है कि कुछ समय तक ही असर डालती है, फिर नहीं करती । यानी कि यह शंका तो टी.बी. का रोग है । जिसे वह शंका उत्पन्न हो गई उसमें टी. बी. की शुरुआत हो गई। यानी शंका किसी भी प्रकार से 'हेल्प' नहीं करती, शंका नुकसान ही करती है इसलिए शंका को मूल में से, वह उगे तभी से बंद कर देनी चाहिए, पर्दा गिरा देना चाहिए । वर्ना पेड़ बन जाएगा उसका तो ! शंका का असर शंका का अर्थ क्या है ? जो खीर लोगों को खिलानी है उस खीर में एक सेर नमक डालना, वह शंका है । फिर क्या होगा? खीर फट जाएगी। इतनी सी ज़िम्मेदारी का तो लोगों को ध्यान नहीं है। हम तो शंका से बहुत दूर रहते हैं। हमें सभी प्रकार के विचार आते हैं। मन है तो विचार तो आएँगे, लेकिन शंका नहीं होती। मैं शंका की दृष्टि से किसी को देखूँ तो दूसरे दिन उसका मन मुझसे अलग ही पड़ जाएगा ! यानी कि किसी भी वस्तु में शंका हो, तो वह शंका नहीं रखनी चाहिए। हमें जागृत रहना चाहिए, लेकिन सामने वाले पर शंका नहीं रखनी चाहिए। शंका हमें मार डालती है। सामने वाले का जो होना होगा, वह होगा लेकिन हमें तो वह शंका मार ही डालेगी। क्योंकि वह शंका तो मरते दम तक इंसान को नहीं छोड़ती। शंका होती है, तब इंसान का वज़न बढ़ता है क्या? इंसान जैसे मुर्दे की तरह जी रहा हो, ऐसा हो जाता है। अतः किसी भी बात में अगर शंका नहीं करे तो उत्तम है । शंका तो जड़मूल से निकाल देनी चाहिए । व्यवहार में भी शंका निकाल देनी है। शंका 'हेल्प' नहीं करती, नुकसान ही करती है । रूठने से भी फायदा नहीं होता, नुकसान ही होता है। कितने ही शब्द एकांतिक रूप से नुकसान पहुँचाते हैं। एकांतिक रूप का मतलब क्या है ? लाभालाभ हों तब तो बात ठीक है लेकिन इससे तो सिर्फ अलाभ (नुकसान) ही है। ऐसे गुण ! हटा दें तो अच्छा । बुद्धि बिगाड़े संसार प्रश्नकर्ता : लेकिन अधिक बुद्धिशाली लोगों को क्यों अधिक शंका होती है ? दादाश्री : उसे बुद्धि से सभी पर्याय दिखाई देते हैं । ऐसा दिखता है कि शायद ऐसा होगा, ऐसे हाथ रख दिया होगा । किसी व्यक्ति ने उसकी 'वाइफ' पर हाथ रख दिया, तब फिर सारे पर्याय खड़े हो जाते हैं, कि क्या होगा ? ! और फिर सिलसिला शुरू हो जाता है ! अबुध को तो कोई झंझट ही नहीं है, और वे भी वास्तव में अबुध नहीं होते हैं, उनका खुद का संसार चले उतनी उनमें बुद्धि होती है। उसे बाकी कोई झंझट नहीं होती । थोड़ा बहुत होकर फिर बंद हो जाता है । प्रश्नकर्ता : मतलब आप ऐसा कहना चाहते हो कि जो सांसारिक अबुध हैं, जो अभी बुद्धि में डेवेलप नहीं हुए हैं ? ? दादाश्री : नहीं, ऐसे लोग तो बहुत कम होते हैं, मज़दूर वगैरह ! प्रश्नकर्ता : लेकिन वे लोग बुद्धिशाली होने के बाद फिर अबुध दशा प्राप्त करेंगे न ? दादाश्री : उसकी तो बात ही अलग है न ! वह तो परमात्मापद कहलाता है। बुद्धिशाली होने के बाद अबुध होते हैं, वह तो परमात्मापद है ! लेकिन बुद्धिशाली लोगों को यह संसार बहुत तंग करता है । अरे, पाँच बेटियाँ हों और वह मनुष्य बुद्धिशाली हो तो, 'ये बेटियाँ बड़ी हो गई हैं।' अब वे सब जब बाहर जाती हैं, तब सभी पर्याय उसे याद आते हैं । बुद्धि से सबकुछ समझ में आता है, इसलिए उसे सबकुछ दिखाई देता है और फिर वह परेशान होता रहता है । फिर बेटियों को 'कॉलेज' तो भेजना ही पड़ता है और अगर ऐसा हो जाए तो वह भी देखना पड़ता है । और वास्तव में कुछ हुआ या नहीं हुआ, वह बात भगवान जाने, लेकिन वह तो शंका से मारा जाता है ! जहाँ हो जाता है, वहाँ उसे पता भी नहीं चलता, इसलिए वहाँ शंका नहीं है उसे और जहाँ नहीं होता है, वहाँ बेहद शंका है। अतः निरा शंका में ही जलता रहता है, और उसे भय ही लगता रहता है। यानी कि शंका हुई कि इंसान मारा जाता है। शंका, कुशंका, आशंका प्रश्नकर्ता : शंका, कुशंका, आशंका के बारे में समझाइए । दादाश्री : बेटी बड़ी हो जाए, तब बाप यदि बुद्धिशाली हो और मोही कम हो न, तो उसे समझ में आ जाता है कि इसके प्रति शंका रखनी ही पड़ेगी, अब शंका की नज़र से देखना पड़ेगा । वास्तव में जागृत इंसान तो जागृत ही रहेगा न ! अब अगर शंका की नज़र से देखना हो तो एक दिन शंका की नज़र से देखे, लेकिन क्या रोज़ शंका से देखना है ? और दूसरे दिन शंका की नज़र से देखे, तो वह सब आशंका कहलाती है। कोई 'एन्ड' है या नहीं है? तूने जिस दृष्टि से देखा, उसका 'एन्ड' तो होना चाहिए न ? उसे फिर आशंका कहते हैं । अब कुशंका कब होती है ? किसी लड़के के साथ घूम रही हो, तब मन में तरह-तरह की कुशंकाएँ करता है। अब ऐसा हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता । इंसान ऐसी सब शंकाएँ करता रहता है और दुःखी होता है । शंका करने लायक यह जगत् है ही नहीं, जागृति रखने लायक जगत् है। शंका अर्थात् तो खुद ही दुःख मोल लेना । वह कीड़ा फिर खाता ही रहता है उसे, रात-दिन खाता ही रहता है । जागृति रखने की ज़रूरत है। अपने हाथ में कुछ है नहीं और हाय-हाय करते रहते हैं, उसका क्या अर्थ है? यदि तुझे समझ में आता है तो बेटियों का पढ़ना बंद किया जा सकता है। तब फिर कहेगा, 'पढ़ाऊँगा नहीं तो कौन स्वीकार करेगा उसे?' अरे, तब यह भी नहीं करता और वह भी नहीं करता, एक तरफ रह न! नहीं तो उस लड़की के साथ घूमता रह रात दिन ! वह 'कॉलेज' में जाए तो साथ - साथ जा, और बैठ वहाँ पर । वहाँ पर 'सर' पूछें कि, 'साथ में क्यों आए हो ?' तब कहना, 'भाई, इसलिए कि मुझे शंका रहती है न, साथ रहूँगा तो शंका नहीं रहेगी न!' तब लोग तो उसे घनचक्कर कहेंगे। अरे, उसकी बेटियाँ भी कहेगी न, कि 'पागल हैं ज़रा ।' इसलिए बेटियों पर शंका करने को मना करता हूँ और लोग बेटी पर शंका करें, ऐसे हैं भी नहीं । उन्हें ऐसी शंका नहीं रहती । उन्हें तो, सात बेटियाँ हों, तब भी कुछ नहीं । राम तेरी माया ! उन्हें तो दूसरी प्रकार की शंका होती है कि, 'हमारे पार्टनर रोज़ लगभग पाँच-दस रुपये घर ले जाते हैं।' उसे ऐसी शंका रहती है । पैसों के प्रति उसे प्रियता है न! यानी हमारे पार्टनर पैसे ले जाते हैं, उसे ऐसी शंका रहती है । एक ही दिन वैसी शंका की, तो वह शंका कहलाती है और बार-बार शंका करे, तो वह आशंका कहलाती है । मोह से मूर्छित दशा लड़कियों पर शंका नहीं होती क्योंकि लड़कियों पर मोह है न ! जहाँ पर मोह होता है, वहाँ उसकी भूल का पता नहीं चलता । मोह से मार खाता है न जगत् । सभी माँ - बाप ऐसा कहते हैं कि, 'हमारी बेटियाँ अच्छी हैं।' यदि ऐसा है तब तो सतयुग ही चल रहा है ऐसा कहा जाएगा न? सब माँ-बाप ऐसा ही कहते हैं न ? जिन्हें पूछें वे ऐसा ही कहते हैं तो फिर सत्युग ही चल रहा है न बाहर ! तब वे वापस कहते हैं, 'नहीं, लोगों की लड़कियाँ बिगड़ गई हैं ।' ऐसा भी कहते हैं । प्रश्नकर्ता : अभी तो उसकी बेटी के बारे में कुछ कहने जाएँ तो हमें दबोच लेंगे। दादाश्री : ऐसा तो कहना ही नहीं चाहिए । दबोच लेंगे और गालियाँ भी देंगे। किसी को कुछ कह ही नहीं सकते। इतना अच्छा है कि हर एक माँ-बाप को उनके बेटे-बेटियों पर राग होता है अतः राग के कारण उनके दोष दिखाई ही नहीं देते जबकि दूसरे की बेटियों के सारे दोष देख सकते हैं। अपनी बेटी के दोष नहीं दिखाई देते इतना अच्छा है न, उससे तो शांति रहती है और फिर आगे की बात बाद में देख लेंगे । ऐसी टीका नहीं करनी चाहिए एक व्यक्ति ने मुझसे कहा, 'मेरी बेटियाँ तो बहुत समझदार हैं ।' मैंने कहा, 'हाँ, अच्छा है।' फिर वह भाई दूसरी लड़कियों की टीका (टीका-टिप्पणी) करने लगे । तब मैंने उनसे कहा, 'टीका किसलिए करते हो लोगों की? आप लोगों की टीका करोगे तो लोग आपकी भी टीका करेंगे।' तब उसने कहा, 'मुझमें टीका करने जैसा है ही क्या ?' तब मैंने कहा, 'दिखाता हूँ, चुप रहना ।' फिर उसकी बेटियों की किताबें लाकर दिखाईं सब । 'देखो यह, ' कहा । तब उसने कहा, 'हें!' मैंने कहा, 'चुप हो जाओ। किसी की टीका मत करना । मैं जानता हूँ, फिर भी मैं आपके सामने क्यों चुप रहा हूँ ? इतना सब आप रौब मारते हो, तब भी मैं चुप क्यों रहा हूँ?' मैं जातना हूँ कि भले ही रौब मारे, लेकिन संतोष रहता है न, उन्हें! लेकिन जब टीका करने लगे तब कहा कि, 'मत करना टीका ।' क्योंकि बेटियों के माँ-बाप होकर हम किसी की बेटी पर टीकाटीप्पणी करें तो वह भूल है । जो बेटियों के बाप नहीं होते, जिनकी बेटियाँ नहीं होतीं, वे ऐसी टीका ही नहीं करता बेचारा । ये बेटी वाले बहुत टीका करते हैं। जबकि तू बेटियों का बाप होकर टीका कर रहा है ? तुम्हें शर्म नहीं आती ? ऐसा संशय रखने से कब अंत आएगा ? आजकल की लड़कियाँ भी बेचारी इतनी भोली होती हैं कि ऐसा मान लेती हैं कि मेरे पिता जी कभी भी मेरी डायरी नहीं पढ़ेंगे । उसके स्कूल की डायरी में पत्र रखती हैं और बाप भी भोले होते हैं, उन्हें बेटी पर विश्वास ही रहता है। पर मैं तो यह सब जानता हूँ कि ये बेटियाँ बड़ी हो चुकी हैं। मैं उसके फादर को इतना ही कहता हूँ कि इसकी शादी करवा देना जल्दी । हाँ, और क्या कहूँ फिर ? सावधान, बेटियों के माँ बाप एक हमारा खास रिश्तेदार था, उसकी चार बेटियाँ थीं । वह बहुत जागृत था। उसने मुझसे कहा, 'ये लड़कियाँ बड़ी हो गई हैं, कॉलेज में जाती हैं, तो मुझे विश्वास नहीं रहता ।' तब मैंने कहा, 'साथ में जाना । साथ में कॉलेज जाना और कॉलेज में से निकले तब वापस आना । वह तो एक दिन जाएगा, लेकिन दूसरे दिन क्या करेगा ? पत्नी को भेजना।' अरे, विश्वास कहाँ रखना है और कहाँ नहीं रखना उतना भी नहीं समझता ?! हमें यहीं से उसे कह देना चाहिए, 'देख बेटी, हम अच्छे लोग हैं, हम खानदानी हैं, कुलवान हैं।' इस तरह उसे सावधान कर देना । फिर जो हुआ वह करेक्ट । शंका नहीं करनी है। कितने लोग शंका करते होंगे? जो जागृत होते हैं, वे शंका करते रहते हैं । कमअक्ल को तो शंका ही नहीं होती न ! इसलिए किसी भी प्रकार की शंका उत्पन्न होने से पहले ही उसे उखाड़कर फेंक देना चाहिए। यह तो, ये लड़कियाँ बाहर घूमने जाएँ, खेलने जाएँ, उन पर शंका करता है और शंका उत्पन्न हुई तो वहाँ हमें सुख रहता है क्या ? प्रश्नकर्ता : नहीं, लेकिन फिर शंका करने का अर्थ नहीं है । दादाश्री : हाँ, बस! इसलिए चाहे कुछ भी कारण हो फिर भी शंका उत्पन्न नहीं होने देनी चाहिए। सावधानी रखनी चाहिए, लेकिन शंका नहीं करनी चाहिए। शंका हुई कि 'मृत्यु' आई समझो । प्रश्नकर्ता : लेकिन शंका तो अपने आप ही उत्पन्न होती है न ? दादाश्री : हाँ, लेकिन वह भयंकर अज्ञानता है । उससे बहुत दुःख पड़ते हैं। बेटियाँ बाहर जाएँ और कोई कहे कि 'उसे उसका फ्रेन्ड मिल गया है ।' तब फिर लड़कियों पर शंका होती है, तो क्या स्वाद आएगा ? प्रश्नकर्ता : बस, फिर अशांति रहा करती है । दादाश्री : अशांति रखने से क्या बाहर सब ठीक हो जाएगा ? फ्रेन्ड के साथ घूमती है, क्या उसमें कुछ बदलाव आ जाएगा? बदलाव कुछ होगा नहीं और वह शंका से ही मर जाएगा! इसलिए शंका उत्पन्न हो कि तुरंत ही 'दादाजी ने मना किया है' इतना याद करके बंद कर देना चाहिए। बाकी सावधानी पूरी रखनी है । लोगों की अपनी लड़कियाँ तो होती हैं न ? तब क्या वे कॉलेज में नहीं जाएँगी ? ज़माना ऐसा है, इसलिए कॉलेज में तो जाएँगी न ? यह क्या पहले का ज़माना है कि बेटियों को घर में बिठाकर रखेंगे? इसलिए जैसा ज़माना है, उसके अनुसार चलना पड़ेगा न ! यदि दूसरी लड़कियाँ अपने फ्रेन्ड के साथ बात करती हैं, तब वैसे ही ये लड़कियाँ क्या अपने फ्रेन्ड के साथ बात नहीं करेंगी ? अब बेटियों की जब ऐसी कोई बात सुनने में या देखने में आए और शंका हो तब असल मज़ा आता है। अगर आकर मुझसे पूछे तो मैं तुरंत कह दूँगा कि 'शंका निकाल दे ।' यह तो तूने देखा इसलिए शंका हुई और नहीं देखा होता तो ? देखने से ही शंका हुई है तो, 'नहीं देखा, ' ऐसा कहकर करेक्ट कर ले न ! अन्डरग्राउन्ड में तो यह सब है ही लेकिन उसके मन में ऐसा होता है कि, 'ऐसा होगा तो ?' तब फिर वह पकड़ लेता है उसे । फिर भूत छोड़ता नहीं है उसे, पूरी रात नहीं छोड़ता । रात को भी नहीं छोड़ता, एक - एक महीने तक नहीं छोड़ता। इसलिए शंका रखना गलत है शंका ? नहीं, संभाल रखो अब चार बेटियों का बाप सलाह लेने आया था, वह कह रहा था, 'मेरी ये चारों बेटियाँ कॉलेज में पढ़ने जाती हैं, तो उन पर शंका तो होगी ही न ! तो मुझे क्या करना चाहिए उन चारों लड़कियों का ? लड़कियाँ बिगड़ जाएँगी तो मैं क्या करूँगा?' मैंने कहा, 'लेकिन सिर्फ शंका करने से नहीं सुधरेंगी।' अरे, शंका मत करना । घर आएँ, तब घर पर बैठे-बैठे उनके साथ कुछ अच्छी बातचीत करना, फ्रेन्डशिप करना । उनसे आनंद हो ऐसी बातें करनी चाहिए और ऐसा मत करना कि तू सिर्फ धंधे में, पैसे में ही पड़ा रहे। पहले बेटियों को संभाल । उनके साथ फ्रेन्डशिप कर। उनके साथ नाश्ता कर, ज़रा चाय पी, वह प्रेम जैसा है। यह तो, ऊपर-ऊपर से प्रेम रखते हो, इसलिए फिर वह बाहर प्रेम ढूँढती हैं । फिर मैंने कहा कि, और फिर भी आपकी बेटियों को किसी से प्रेम हो जाए, और वह फिर रात को साढ़े ग्यारह बजे घर लौटे तो क्या आप उसे निकाल दोगे? तब उसने कहा, 'हाँ, मैं तो गेटआउट कर दूँगा । उसे घर में घुसने ही नहीं दूंगा ।' मैंने कहा, 'ऐसा मत करना । वह किसके पास जाएगी रात को? वह किसके यहाँ आसरा लेगी ?' उससे कहना, आ, बैठ ! सो जा ।' वह नियम है न कि नुकसान तो हुआ लेकिन अब इससे अधिक नुकसान न हो, उसके लिए संभाल लेना चाहिए । बेटी कुछ नुकसान करके आई और हम वापस उसे बाहर निकाल दें तो हो चुका न! लाखों रुपये का नुकसान तो होने लगा है, लेकिन तब नुकसान कम हो, ऐसा करना चाहिए या बढ़ जाए ऐसा करना चाहिए ? नुकसान होने ही लगा है तो उसका उपाय तो होना ही चाहिए न ? इसलिए बहुत ज्यादा नुकसान मत उठाना। तू खुद ही उसे घर पर सुला देना, और फिर दूसरे दिन समझाना कि 'समय पर घर आना । मुझे बहुत दुःख होता है और इससे फिर मेरा हार्ट फेल हो जाएगा' कहना । 'ऐसे-वैसे करके समझा देना।' फिर वह समझ गया । रात को निकाल देगा तो वापस कौन रखेगा ? लोग कुछ न कुछ कर देंगे। फिर खत्म हो जाएगा सबकुछ। रात को एक बजे निकाल देंगे तो लड़की कैसी लाचारी अनुभव करेगी बेचारी । यह तो कलियुग का मामला है। ज़रा सोचना तो चाहिए न ? यानी कभी रात को अगर बेटी देर से घर आए, तब भी शंका मत करना, शंका निकाल देना, तो कितना फायदा होगा? बेकार का डर रखने का अर्थ क्या है? एक जन्म में कुछ भी नहीं बदलेगा । उन बेटियों को बिना बात के दुःख मत देना । बेटों को दुःख मत देना । सिर्फ इतना ज़रूर कहना कि, 'बेटी, तू बाहर जाती है तो देर नहीं होनी चाहिए। हम खानदानी हैं। हमें यह शोभा नहीं देता इसलिए इतनी देर मत करना । ' इस तरह सारी बातचीत करना, समझाना लेकिन शंका करने से कुछ नहीं होगा कि 'किसके साथ घूम रही होगी, क्या कर रही होगी ?' और फिर रात को बारह बजे आए तब भी फिर दूसरे दिन कहना कि, 'बेटी, ऐसा नहीं होना चाहिए।' उसे यदि निकाल देंगे तो वह किसके यहाँ जाएगी उसका ठिकाना नहीं है। आपको समझ में आया न ? फायदा किसमें है ? कम से कम नुकसान होने में फायदा है न ? इसलिए मैंने सभी से कहा है कि 'बेटियाँ देर से घर में आएँ, तब भी उन्हें घर में आने देना, उन्हें निकाल मत देना ।' वर्ना बाहर से ही निकाल दें, ये सख्त मिज़ाज वाले लोग ऐसे ही हैं न ? काल कितना विचित्र है ! कितनी दुःख और जलनवाला काल है ! और फिर यह कलियुग है, इसलिए घर में बिठाकर फिर समझाना । मोक्षमार्गीय संयम अतः हमने क्या कहा है कि फाइलों का समभाव से निकाल करो । ये सभी फाइलें हैं। ये कहीं आपकी बेटियाँ नहीं हैं, या आपकी बहुएँ नहीं हैं। ये बहुएँ-बेटियाँ, सभी 'फाइलें' हैं। फाइलों का समभाव से निकाल करो। अगर लकवा हो जाए न, तब कोई आपका सगा नहीं रहेगा। बल्कि कई दिन हो जाएँगे न, तो लोग सब चिढ़ने लगेंगे । वह लकवेवाला भी मन में समझ जाता है कि सभी चिढ़ रहे हैं। क्या करे फिर ?! इन 'दादा' द्वारा दिखाया हुआ मोक्ष सीधा है, एक अवतारी है इसलिए संयम में रहो और फाइलों का समभाव से निकाल करो । बेटी हो या पत्नी हो या कोई और हो, लेकिन सब का समभाव से निकाल करो । कोई किसी की बेटी नहीं होती दुनिया में । यह सब कर्म के उदय के अधीन है। जिसे ज्ञान नहीं मिला है, उसे हम ऐसा कुछ कह नहीं सकते। ऐसा कहेंगे तब तो वह लड़ने को तैयार हो जाएगा । अब मोक्ष कब बिगड़ेगा ? भीतर असंयम हो जाएगा तब ! असंयम हो, अपना 'ज्ञान' ऐसा है ही नहीं । निरंतर संयमवाला ज्ञान है । सिर्फ, शंका की कि दुःख आएगा ! इसलिए, एक तो शंका करनी किसी भी प्रकार से शंकाशील बनना वह सब से बड़ा गुनाह है। नौ बेटियों के बाप को निःशंक घूमते हुए मैंने देखा है और वह भी भयंकर कलियुग में ! और नौ की नौ लड़कियों की शादी हुई । यदि वह शंका में रहा होता तो कितना जी सकता था? इसलिए कभी भी शंका मत करना । शंका करने से खुद को ही नुकसान होता है । प्रश्नकर्ता : शंका में किस तरह का नुकसान होता है ? वह ज़रा समझाइए न! दादाश्री : शंका, वह दुःख ही है न ! प्रत्यक्ष दुःख ! वह क्या कम नुकसान है? शंका में गहरा उतरे तो मरणतुल्य दुःख होता है । प्रश्नकर्ताः वह शूल की तरह रहता है ? दादाश्री : शूल तो अच्छा है लेकिन शंका में तो उससे भी अधिक दुःख होता है। शूल तो बस इतना ही है कि, यदि कोई दूसरी चीज़ शरीर में घुस जाए तो यों चुभता रहता है जबकि शंका तो मार ही डालती है इंसान को, संताप उत्पन्न करती है । इसलिए शंका नहीं करनी चाहिए । शंका का उपाय बाकी, मनुष्य शंका के बगैर तो होते ही नहीं है न ! और, मुझे तो पहले, बा जीवित थे न, तब गाड़ी में से उतरते ही, बड़ौदा के स्टेशन पर ऐसा विचार आता था कि, 'बा यदि आज अचानक मर गए होंगे, तो मुहल्ले में कैसे प्रवेश करूँगा ? " ऐसी शंकाएँ उत्पन्न होती थीं । अरे, तरह-तरह की शंकाएँ होती हैं मनुष्य को लेकिन खोज करके मैंने पता लगा लिया था कि इन सब पर ध्यान मत दो ! शंका करने योग्य यह जगत् है ही नहीं । प्रश्नकर्ता : वह तो, मुझे भी घर से फोन आए तो मुझे अभी भी शंका होती है कि, 'बा को कुछ हो गया होगा तो ?' दादाश्री : लेकिन वह शंका कुछ हेल्प नहीं करती, दुःख देती है । यह बूढ़ा इंसान कब गिर जाए, उसके लिए क्या कह सकते हैं ! क्योंकि हम थोड़े ही उसे बचा सकते हैं ? और ऐसी शंका होने लगे, तब उनके आत्मा से हमें उनके लिए विधि करते रहना कि, 'हे नामधारी बा, उनके द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से भिन्न ऐसे प्रकट शुद्धात्मा, उनकी आत्मा को शांति दीजिए ।' यानी शंका होने से पहले हमें ऐसे विधि रख देनी चाहिए। शंका हो तब हमें ऐसे पलट लेना है । 'व्यवस्थित' से निःशंकता जगत् अधिक तो शंका से ही दुःखी है । शंका तो मनुष्य को अधोगति में ले जाती है । शंका से कुछ नहीं होता है क्योंकि व्यवस्थित के नियम को तोड़नेवाला कोई है ही नहीं । व्यवस्थित के नियम को कोई नहीं तोड़ सकता, इसलिए शंका करके क्यों बेकार में परेशान होता है ? व्यवस्थित का अर्थ क्या है कि जो 'है' वह है, जो 'नहीं है वह नहीं है । जो 'है' वह है, वह 'नहीं है' नहीं होगा और जो 'नहीं' है वह नहीं है, वह 'है' नहीं बन सकता। इसलिए जो 'है' वह है, उसमें तू तू कुछ इधर-उधर करने जाएगा तो भी 'है' ही और जो 'नहीं है' उसमें इधर-उधर करने जाएगा तो भी 'नहीं' ही है इसलिए निःशंक हो जाओ। इस 'ज्ञान' के बाद अब आप आत्मा में निःशंक हो गए कि हमें जो यह लक्ष्य बैठा है, वही आत्मा है और बाकी सबकुछ निकाली बातें हैं ! इस प्रकार 'व्यवस्थित' का उपयोग करेंगे न, तो कोई भी भाव उत्पन्न ही नहीं होंगे। 'जैसा होना होगा वैसा होगा' ऐसा नहीं बोलना चाहिए। जो 'है' वह है और जो 'नहीं है' वह नहीं है । ऐसा यदि समझ जाए न तो शंका नहीं रहेगी और शंका हो तो मिटा देना वापस, कि भाई, जो 'है' वह है, इसमें शंका किसलिए? जो 'नहीं है' वह नहीं है, उसमें शंका किसलिए? सोचता है कि 'आएगा या नहीं आएगा आएगा या नहीं आएगा? नुकसान रुकेगा या नहीं रुकेगा ? ' अरे, जो 'नहीं है' वह नहीं है। जो रुकना नहीं है, तो 'नहीं है' वह रुकेगा ही नहीं और रुकना है तो रुक जाएगा। तो उसके लिए क्या झंझट करनी ? इसलिए जो 'नहीं वह नहीं है और जो 'है' वह है, इसलिए शंका रखने का कोई कारण ही नहीं है । 'व्यवस्थित' के अर्थ में ऐसा नहीं कह सकते कि 'जो होना होगा वह होगा, कोई हर्ज नहीं है । जैसा होना होगा वैसा ही होगा, ' ऐसा नहीं कह सकते । वह तो एकांतिक वाक्य कहलाएगा । उसे दुरुपयोग करना कहा जाएगा। ये मन, बुद्धि वगैरह अज्ञ स्वभाव के हैं और जब तक विरोधी हैं, तब तक हमें जागृत रहना पड़ेगा न ! प्रश्नकर्ताः हमें भविष्यकाल की चिंता होने लगे कि 'यह ऐसा हो जाएगा, उससे तो ऐसा हो तो अच्छा ।' तो फिर ऐसे समय में ऐसा नहीं कह सकते कि 'व्यवस्थित में होना होगा वैसा होगा, तू किसलिए चिंता करता है ?' दादाश्री : 'व्यवस्थित' में जो होना होगा वैसा ही होगा, ऐसा कहने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन जो 'है' वह है और 'नहीं है' वह नहीं है कहा तो उसके संबंध में सोचने का रहा ही नहीं न! जो 'नहीं है' वह 'है' होगा नहीं, और जो 'है' वह 'नहीं है' होगा नहीं, फिर सोचने को रहा ही नहीं न ! उस संबंध में निःशंक हो गया न ! और भविष्यकाल 'व्यवस्थित' के ताबे में है। अपने ताबे में है ही क्या ? ! 'व्यवस्थित में होगा वैसा हो जाएगा, ' ऐसा कहने की ज़रूरत नहीं है लेकिन हमें ऐसा कहना चाहिए कि जो 'है' वह है और 'नहीं है' वह नहीं है। उँगली में थोड़ी सी भी चोट लगनी होगी तो अगर ' है ' तो होगा और 'नहीं है' तो नहीं होगा इसलिए जो 'नहीं है' वह नहीं है और जो होगा उसमें हमें आपत्ति नहीं है। यह संसार भी इसमें आपत्ति उठाकर कहाँ जाएगा?! सोचने से या कोई ऐसा पुरुषार्थ नहीं है कि जिससे यह बदल सके इसलिए जो 'है' वह है और जो 'नहीं है' वह नहीं है। लेकिन अज्ञानी यदि इसका उल्टा अर्थ निकाले तो नुकसान कर बैठेगा । ये बातें तो जिनके पास 'ज्ञान' है, उनके लिए हैं ! जिस प्रकार भगवान के बताए हुए तत्व हैं वे जो 'हैं' उतने ही तय कर रखे हैं न और जो 'नहीं है' उन्हें नहीं कहा है । वैसे ही इसमें भी जो 'है' वह है। हम यदि अभी से ऐसा सोचने लगें कि 'नाई नहीं मिलेगा तो अब क्या करेंगे? शायद दो-तीन महीने नहीं भी मिला, तब पूरी जिंदगी नहीं मिले तो अब क्या उपाय करें ?" ऐसा कुछ सोचने की ज़रूरत है क्या हमें ? क्या ऐसा सोचते हैं कि बाल इतने इतने लंबे हो जाएँगे तो क्या करेंगे ? अतः यदि शंका नहीं होगी तो कोई दुःख आएगा ही नहीं । शंका ही नहीं रहे तो फिर क्या बचा ? ! और शंका होगी तब भी हमें उसे हटा देना है, 'आप क्यों आए हो? हम हैं न ? आपको सलाह देने को किसने कहा है ? अब हम किसी वकील की सलाह नहीं लेते हैं और अन्य किसी की भी हम सलाह नहीं लेते हैं । हम तो दादा की सलाह लेते हैं, बस! जब जो रोग होता है तब दादा को दिखा देते हैं हम । हमें किसी को भी सलाह और नोटिस नहीं देना है। लोग भले ही हमें दें।' उसमें भी, व्यवस्थित से बाहर कोई कुछ कर सकता है क्या? तो अब विश्वास हो गया है न, कि व्यवस्थित से बाहर कोई कुछ नहीं कर सकता ? मोक्ष में जाना हो, तो... इसलिए शंका तो किसी पर भी नहीं करनी चाहिए। आप घर पहुँचो तब आपकी बहन से कोई दूसरा व्यक्ति बात कर रहा हो, तब भी शंका नहीं करनी चाहिए । शंका तो सब से अधिक दुःख देती है और वह पूरे ज्ञान को ही खत्म कर देती है, फेंक देती है । व्यवस्थित से बाहर कुछ भी नहीं होनेवाला और उस घड़ी आप बहन से कहो, 'यहाँ आ बहन, मुझे खाना दे दे।' इस तरह दोनों को अलग किया जा सकता है लेकिन शंका तो कभी भी नहीं करनी चाहिए । शंका से दुःख ही खड़ा होता है । व्यवस्थित में जो होना है वह होगा, लेकिन शंका नहीं रखनी है । प्रश्नकर्ता : लेकिन शंका भी उदयकर्म के कारण ही होती होगी न ? दादाश्री : शंका करना उदयकर्म नहीं कहलाता । शंका रखने से तो तेरा भाव बिगड़ जाता है, तूने उसमें हाथ डाला, इसलिए वह दुःख ही देगी । शंका कभी भी नहीं करनी चाहिए । आपकी बहन के साथ कोई बात कर रहा हो, लेकिन अब आपको तो मोक्ष में जाना है तो आपको शंका में नहीं पड़ना चाहिए। यदि आपको मोक्ष में जाना है तो ! क्योंकि एक जन्म में तो! क्योंकि एक जन्म में तो व्यवस्थित से बाहर कुछ भी नहीं होगा, आप जागृत रहोगे तब भी नहीं होगा और अजागृत रहोगे तब भी नहीं होगा। अगर आप ज्ञानी हो तब भी बदलाव नहीं होगा और अज्ञानी हो तब भी बदलाव नहीं होगा । इसलिए शंका रखने का कोई कारण नहीं है । में तो । प्रश्नकर्ता : क्योंकि कोई फर्क पड़ेगा ही नहीं । दादाश्री : हाँ, फर्क नहीं पड़ेगा और बहुत नुकसान है इस शंका प्रश्नकर्ता : लेकिन इस 'ज्ञान' के बाद तो 'चार्ज' होगा ही नहीं न ? दादाश्री : चार्ज नहीं होता, लेकिन इस तरह शंका रखेंगे तो चार्ज होगा। यदि मोक्ष चाहिए तो शंका नहीं करनी चाहिए । वर्ना फिर भी, अज्ञानता में तो वैसा होगा ही। जबकि यह तो 'ज्ञान' का लाभ मिल रहा है, मुक्ति का लाभ मिल रहा है और जो 'है' वही हो रहा है । इसलिए शंका रखने का कोई कारण नहीं है । शंका बिल्कुल छोड़ देना । 'दादा' ने शंका करने को मना किया है । यह तो खुद की ही निर्बलता प्रश्नकर्ता : इस शंका से, पहले तो खुद का ही आत्मघात होता दादाश्री : हाँ, शंका से तो खुद का ही, करने वाले का ही नुकसान हैं! सामने वाले को क्या लेना-देना? सामने वाले का क्या नुकसान है ? सामने वाले को तो कुछ पड़ी ही नहीं है । सामनेवाला तो कहेगा कि 'मेरा तो जो होनेवाला होगा, वह होगा । आप क्यों शंका कर रहे हो ?' अब आप शंका करते हो तो वह आपकी निर्बलता है। मनुष्य में निर्बलता तो होती ही है, सहज रूप से होती ही है । निर्बलता नहीं हो तब तो बात ही अलग है । वर्ना, निर्बलता थोड़ी-बहुत तो होती ही है मनुष्य मात्र में! और निर्बलता गई कि भगवान बन गया ! एक ही वस्तु है, निर्बलता गई - वही भगवान ! शंका सुनते गैबी जादू से हम पर किसी को शंका हो न, तो फिर क्या वह उसे छोड़ेगी ? नींद में भी उसे परेशान करती रहेगी । हमारा शुद्ध बहीखाता है इसलिए सभी का शुद्ध कर देता है । हम पर शंका हो, तब भी हमें उसमें कोई आपत्ति नहीं है। शंका होती है तो वह उसकी खुद की कमज़ोरियाँ हैं। इसलिए कविराज ने लिखा है न, कि विपरीत बुद्धिनी शंका, ते सूणता गैबी जादूथी, छतां अमने नथी दंड्या, न करिया भेद 'हु' 'तुं' थी । क्या कहना चाहते हैं कविराज ? 'दादा' पर शंका होना, ऐसा कब होता है ? विपरीत बुद्धि हो, तभी शंका होती है। एक बार ऐसा हुआ था कि यहाँ पर तो सभी के सिर पर ऐसे हाथ रखते हैं न, ऐसे एक स्त्री के सिर पर हाथ रखा था। उसके पति के मन में वहम हो गया । फिर कभी उस स्त्री के कंधे पर हाथ रख दिया होगा, तो उसे फिर से वहम हुआ । 'दादा' की दृष्टि बिगड़ गई लगती है, ऐसा उसके मन में घुस गया । मैं तो समझ गया कि इस भले आदमी को वहम हो गया है, उस वहम का उपाय तो, अब क्या हो सकता था?! तो मैंने ऐसा माना कि दुःखी हो रहा होगा। फिर उसने मुझे पत्र लिखा कि, 'दादाजी, मुझे ऐसा दुःख हो रहा है । ऐसा नहीं करो तो अच्छा । आपसे, ज्ञानीपुरुष से ऐसा नहीं हो तो अच्छा ।' उसके बाद मुझे मिलता, मेरे सामने देखता, तब उसके मन में ऐसा होता था कि दादाजी पर कोई असर ही नहीं दिखाई दे रहा है । फिर दो-तीन दिनों बाद फिर से मिला । तब हमें तो ऐसा था कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो, उस तरह से हमने तो 'सच्चिदानंद' किया। ऐसा पाँचसात बार हुआ । उसे कोई असर नहीं दिखा, तब वह मन में थक गया । उसे भीतर घबराहट हो गई, कि 'यह क्या ? पत्र लिखने के बाद पहुँचा, फिर पढ़कर आ रहे हैं, फिर भी कोई असर तो नहीं दिखाई दे रहा । अरे, गुनहगार पर असर दिखाई देता है । गुनहगार को इफेक्ट होता है। हमें इफेक्ट होगा ही क्यों ? जब हम गुनहगार ही नहीं हैं, तब फिर ! तू चाहे जितने पत्र लिखे या चाहे जो भी करे फिर भी मुझे आपत्ति नहीं है। पत्र का जवाब ही नहीं है मेरे पास । मेरे पास वीतरागता है । यह तो तू अपने मन में ऐसा समझ बैठा है। उसने फिर मुझसे कहा, 'आपको कुछ नहीं हुआ ?' मैंने कहा, "मुझे क्या होता ? तुझे शंका हुई है, लेकिन 'मैं' उसमें हूँ ही नहीं न ! इसलिए मुझे आपत्ति ही नहीं है न !" इसलिए गैबी जादू लिखा है । अब ऐसे में लोगों को असर हो जाता है ? यदि वह पत्र लिखे तो ? प्रश्नकर्ता : हाँ, दूसरा कोई होता तो वह हिल जाता । दादाश्री : फिर उस शिष्य का क्या होगा? और यहाँ तो असर भी नहीं हुआ और उसकी वाइफ पर भी असर नहीं हुआ, किसी पर कुछ भी असर नहीं हुआ और समय बीत गया । शंका का समय तो चला जाएगा न, एक दिन ? शंका क्या हमेशा के लिए रहती होगी ? कवि ने बहुत भारी वाक्य लिखा है न, कि शंका कैसी है ? सच्ची शंका नहीं है यह, लेकिन विपरीत बुद्धि की शंका है यह ! और हम 'ज्ञानीपुरुष' हैं, तूने हम पर भी शंका की ? जहाँ हर प्रकार से निःशंक होना है, जिस पुरुष ने हमें निःशंक बनाया, उन पर भी शंका ? ! लेकिन यह तो जगत् है, क्या नहीं कह सकता ? ! और फिर उस शंका को मैं सुनता हूँ, वह भी गैबी जादू से और फिर बाद में वीतरागता से देखता हूँ ! फिर भी दंडित नहीं किया 'मैं' 'तू' से फिर कवि क्या कहते हैं ? छतां अमने नथी दंड्या, न करिया भेद हुं तू थी । हाँ, बिल्कुल भी दंड नहीं दिया और 'मैं-तू' नहीं किया कि 'तू ऐसा है, तू ऐसा क्यों करता है, मुझ पर ऐसी शंका क्यों करता है !' ऐसा कुछ भी नहीं । मैं समझता हूँ कि ऐसा ही होता है यह तो, उसे गलतफहमी हुई है। अपने यहाँ सत्संग में 'मैं- तू' नहीं हुआ है, 'मैं-तू' का भेद नहीं पड़ा है। 'मैं- तू' का भेद तो कितने ही सालों से नहीं पड़ा है, यहाँ किसी भी जगह पर । अधिकतर तो स्वाभाविक रूप से मनुष्य में दोष आते ही हैं । वह दोषों से भरा हुआ हो तो कहाँ जाए बेचारा ?! लेकिन उस वजह से हमने ऐसा नहीं कहा कि 'तू ऐसा है'। 'मैं और तू' कहा तो भेद पड़ जाएगा। हो चुका फिर ! और यहाँ तो सबकुछ अभेद ! आपको लगा न, ऐसा अभेद ? ! यानी कि 'तूने ऐसा क्यों किया' ऐसा- वैसा कुछ भी नहीं । मुझमें ऐसी जुदाई है ही नहीं । वर्ना यदि शंका करे न, तो भेद पड़ जाता है और इससे संबंधित शंका, वह तो बहुत भारी चीज़ है ! यानी कि यह वाक्य बहुत बड़ा है तू 'ऐसा क्यों है ? तूने ऐसा क्यों किया ?' इस तरह 'मैं - तू', अलग नहीं करते। 'मैं- तू' अपने यहाँ कहा ही नहीं है। अपने इन पचास हज़ार लोगों में 'मैं- तू' कहा ही नहीं है । प्रश्नकर्ता : लेकिन सभी धर्मस्थानकों में 'मैं- तू' के भेद ही देखने को मिलते हैं न ? दादाश्री : वही होता है न ! और क्या होता है ? ! जब तक 'मैं- तू' के भेद हैं, तब तक जीवात्मा हैं। जिसमें 'मैं-तू' अभेद हो गए, वह परमात्मा बन गया। परमात्मा, भला उसमें और कुछ कहाँ से लाते ? लेकिन जब तक उसे परमात्मा नहीं बनना होता है, तब तक 'मैं - तू' करता रहता है । अर्थात् जब विपरीत बुद्धि से शंका की होगी, तब भी 'मैं- तू' के भेद नहीं डाले । वर्ना पूरा जगत् तो लड़ाई कर-करके तेल निकाल देता है कि 'तू नालायक है, ऐसा है, वैसा है ।' और वैसा सभी जगह पर है ही, 'एवरीव्हेर!' यहाँ के अलावा सब जगह पर है ही ! यह अपवाद मार्ग है, हर प्रकार से अपवाद मार्ग है। अन्य सभी जगह तो 'मैं - तू' के भेद डल जाते हैं । प्रश्नकर्ता : हम आप पर शंका करें उसका आपको पता चल जाता है, फिर भी आप भेद क्यों नहीं रखते ? दादाश्री : हम जानते हैं कि यह मूली है तो ऐसी ही गंध देगी, यह प्याज़ है, वह ऐसी गंध देगी। ऐसा सब नहीं समझते ? फिर अगर वह दुर्गंध दे और उसमें उसे डाँटे तो बुरा नहीं दिखेगा ? ! वह है ही प्याज़, उसमें डाँटने जैसा क्या है ? ! मूली में मूली के स्वभाव वाली सुगंधी होती ही है। प्याज़ अगर उस कोने में रखी हो तो वहाँ पर शोर मचाती रहती है तो यहाँ तक गंध आती है वह उसका स्वभाव है । हम समझते हैं कि यह ऐसे स्वभाव का है। हम यदि उल्टा करने जाएँगे तो उस पर से कृपा चली जाएगी जिससे उसका अहित हो जाएगा। जिसका हित करने बैठे हैं, उसी का अहित हो जाएगा, इसलिए हमने तो... हमारी जिंदगी का परिश्रम ही ऐसा है कि हमने जो पेड़ लगाया, फिर प्लानिंग करते समय वह पेड़ अगर रोड के बीच में आ रहा हो, तब भी हम उस पेड़ को नहीं काटते, तब फिर रोड को ही घुमाना बाकी रहा! हमारा बोया हुआ, हमने पानी दिया हो और हमारे द्वारा पाले-पोसे गए उस पेड़ को हम उखाड़ते नहीं हैं लेकिन सिर्फ उस रोड को ही घुमाना रहा । पहले से हमारी पद्धति ही इस प्रकार की रही है कि हमारे हाथ से बोया गया हमारे हाथ से उखड़ना नहीं चाहिए । बाकी, जीव तो बहुत प्रकार के मिलेंगे ही न ! ये तो अपार शंकाएँ हैं ! शंका, शंका, चलते-फिरते शंकावाला जगत् । और किसी के द्वारा भूलचूक से किसी व्यक्ति की पत्नी पर हाथ रख दिया, तो उससे शंका हुई ! उससे तो घर पर बेहिसाब लड़ाईयाँ शुरू हो जाती हैं। अब उस स्त्री का इसमें कोई दोष नहीं है, फिर भी बेहिसाब लड़ाईयाँ चलती हैं। अब इन लोगों का क्या करें ?! यानी कि यदि भूल से अपना हाथ रख दिया गया हो तो निःशंकता से उस शंका को खत्म कर देना चाहिए। शंका किससे खत्म करनी है ? निःशंकता से ! वह 'दादा' की निःशंकता से शंका गई ऐसा कहना । शंका करने के बजाय... बाकी, जगत् में सब से बड़ा रोग हो तो वह है शंका ! प्रश्नकर्ता : लेकिन आपका यह वाक्य बहुत ज़बरदस्त है । 'यह जगत् शंका करने योग्य नहीं है!' दादाश्री : शंका से ही यह जगत् उत्पन्न हुआ है । शंका से, बैर से, कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनके आधार पर जगत् टिका है। किसी पर शंका करने के बजाय उसे दो थप्पड़ मार देना अच्छा है, लेकिन शंका मत करना । थप्पड़ मारोगे तो परिणाम आएगा न झट से ! सामनेवाला चार लगा देगा न? लेकिन शंका का परिणाम तो उसे खुद को ही, अकेले को ही ! खुद गड्ढा खोदकर और अंदर उतर जाता है, वापस बाहर नहीं निकल पाता। ये सभी पीड़ाएँ शंका में से उत्पन्न हुई हैं। आपको इस भाई पर शंका हो कि 'इस भाई ने ऐसा किया ।' वह शंका ही आपको काट खाएगी। अब यदि कभी ऐसा किया भी हो और शंका हो जाए, तब भी हमें शंका से कहना है, 'हे शंका, तू चली जा अब । यह तो मेरा भाई है ।' रकम जमा करवाने के बाद शंका ? प्रश्नकर्ता : एक व्यक्ति ने मुझे गाली दी अब ऐसा तो मैं कैसे मान सकता हूँ कि उसने मुझे गाली नहीं दी ? मेरा मन कैसे मानेगा ? दादाश्री : ऐसा कह ही नहीं सकते न ! गाली दी है, वह तो दी ही है न ! उसका सवाल नहीं है लेकिन हम क्या कहते हैं कि उस पर शंका नहीं होनी चाहिए। हमने गाड़ी में किसी को पचास हज़ार रुपये रखने को दिए और कहा कि, 'ज़रा मैं संडास जा रहा हूँ ।' और फिर संडास में शंका हो तो ? अरे, पाँच लाख रुपये दिए हों और शंका होने लगे न, तब भी शंका से कहना कि, 'अब तू चली जा । मैंने दे दिए, वे दे दिए। वे जाने होंगे तो जाएँगे और रहने होंगे तो रहेंगे!' सामने वाले पर शंका तो बिना बात के दोष बंधवाती है और यदि कभी मुझ जैसे को रुपये दिए हों और वह शंका करे तो उसकी क्या दशा होगी? यानी कि यह जगत् किसी भी जगह पर शंका करने योग्य है ही नहीं । उधार दिया हुआ याद आया और... रात को सोने जाए, ग्यारह बजे हों और ओढ़कर सो जाए और तुरंत विचार आए कि 'अरे वह लाख रुपये लिखवाना तो रह गया । वह लिखकर नहीं देगा तो क्या होगा ?' तो हो चुका ! हो चुका काम ! भाई का ! फिर मुरदा जी रहा हो न, उस तरह रहता है बाद में ! अब किसी को लाख रुपये उधार दिए हों और वह हर महीने हज़ार रुपये ब्याज दे रहा हो, उसको अब दो-तीन लाख रुपयों का नुकसान हो गया, लेकिन उसने ब्याज तो भेजा, इसलिए हमने जाना कि ब्याज तो भेजा है लेकिन जब से हमें शंका पड़ी कि 'इसे नुकसान हुआ है तो शायद कभी यह मूल रकम नहीं देगा, तो क्या करूँगा ? अब लाख रुपये वापस आएँगे या नहीं ?' उस विचार को पकड़ लिया तो फिर उसका कब अंत आएगा ? शंका रहे, तब तक अंत आएगा ही नहीं, यानी कि उस व्यक्ति का मरण होनेवाला है । फिर रात को कभी भी आपको इस बारे में शंका हो कि लाख रुपये नहीं आएँगे तो क्या होगा ? पूरे दिन आपको शंका नहीं हुई और रात को जब शंका हुई तब दुःख होता है और पूरे दिन शंका नहीं हुई थी तब क्या उस घड़ी दुःख नहीं था ? रुपये दे दिए हों, उसके बाद 'वापस देगा या नहीं? " ऐसी शंका उत्पन्न होगी, तो आपको दुःख होगा न? तो शंका इस घड़ी क्यों हुई और पहले क्यों नहीं हुई ? प्रश्नकर्ता : उसका क्या कारण है ? दादाश्री : यह अपनी मूर्खता । यदि शंका करनी हो तो हमेशा शंका करो, इतनी अधिक जागृतिपूर्वक शंका करो, उसे रुपये दो तभी से शंका करो । जहाँ लाख रुपये दिए हों, उस समय ऐसा लगे कि 'पार्टी ठीक नहीं है, ' तब भी शंका उत्पन्न नहीं होने देनी चाहिए । 'अब क्या होगा ?' इसी को कहते हैं वापस शंका होना । क्या होना है आखिर ? यह शरीर भी जाने वाला है और रुपये भी जाने वाले हैं। सभी कुछ चला जाने वाला है न ? ! रोना ही है न अंत में ?! अंत में इसे जला ही देना है न ? ! तो भला पहले से ही मरने का क्या मतलब है ? ! जी न, चैन से ! जब ऐसा होता है तब उस दिन मैं क्या करता हूँ ? 'अंबालालभाई, जमा कर लो, रुपये आ गए !' कह देता हूँ। ऐसा नुकसान उठाने के बजाय चुपचाप रकम जमा कर लेना अच्छा है, सामनेवाला जाने नहीं उस तरह से ! नहीं तो लोगों को तो अगर ज्योतिषी कहे न, तो भी मान लेते हैं । ज्योतिषी कहते हैं, 'देखो, कितने अच्छे ग्रह हैं सभी । आपको कुछ होनेवाला नहीं है । रुपये वापस आ जाएँगे ।' तब फिर वैसा मान लेता है । उसकी खुद की भी स्टेबिलिटी नहीं है । वह ज्योतिषी हमारे बारे में क्या बता सकेगा? उसे उसका खुद का ही देखना नहीं आता, फिर वह हमारा क्या बताएगा?! उसके पैरों में आधे चप्पल हैं, पीछे से थोड़े घिस चुके हैं। फिर भी ऐसे चप्पल पहनता है तो हम नहीं समझ जाएँ कि 'अरे, तुझे तेरा ही ज्योतिष देखना नहीं आता, तो तू मेरा क्या देखनेवाला था?' लेकिन ये तो लालची लोगों को सभी फँसाते हैं । यहाँ के ज्योतिषी तो कहाँ तक पहुँच गए हैं ?! बड़े साहब वगैरह सभी मानते हैं। अरे, मानना चाहिए क्या? ज्योतिषियों को घर में घुसने देना चाहिए ? घर में घुसने दिया तो घर में रोना-धोना मच जाएगा इसलिए उन्हें घुसने ही नहीं देना चाहिए। हाँ, उन्हें कहना कि 'ज्योतिष देखने के लिए नहीं, यों ही आना । मेरे यहाँ आकर ज्योतिष मत देखना किसी का, कपाल मत देखना कि इसकी रेखाएँ ऐसी हैं, जैसा है वैसा रहने देना । हमें इतने दूध की खीर बनानी है उसमें छींटे मत डालना । हाँ, यह तो किसी को पता नहीं चलता कि क्या होना है, तो तुझे किस तरह पता चला ?!' निःशंकता, वहाँ कार्य सिद्धि अतः वहम होने से दुःख पड़ता है। अगर बहीखाते देखने नहीं आएँ तो, होता है साठ लाख का फायदा और दिखाई देता है चालीस लाख का नुकसान। फिर उसे दुःख ही होता रहेगा न, ऐसा है यह जगत् । देखना नहीं आया उसी का यह दुःख है । नहीं तो दुःख है ही नहीं इस जगत् में । यह तो निरी शंका के ही वातावरण में जी रहा है पूरा जगत्, कि 'ऐसा हो जाएगा या वैसा हो जाएगा ।' कुछ भी नहीं होनेवाला । बेकार ही क्यों घबराता है ? सोया रह न, सीधी तरह से । बिना काम के इधरउधर चक्कर लगाता रहता है । तूने खुद अपने आप पर श्रद्धा रखी है वह गलत है सारी, 'हंड्रेड परसेन्ट' ! यानी कि कुछ भी नहीं होनेवाला । लेकिन देखो न घबराहट, घबराहट, तड़फड़ाहट, तरफड़ाहट ! जैसे साथ में ले जानेवाला है न थोड़ा बहुत ? ! यह तो, पूरे दिन 'क्या होगा, क्या होगा ?' इस तरह घबराता रहता है। अरे, क्या होना है ? यह दुनिया कभी भी गिर नहीं गई है । यह दुनिया जब नीचे गिर जाएगी न, तब भगवान भी नीचे गिर जाएँगे ! दुनिया कभी भी गिरेगी ही नहीं । हम नेपाल की यात्रा में बस लेकर गए थे। तब रास्ते में यू.पी. में रात को बारह बजे एक शहर आया था । कौन सा था वह शहर ? महात्मा : बरेली था वह । दादाश्री : हाँ । तो बरेली वाले सारे फौज़दार, और कहने लगे कि, 'बस रोको ।' मैंने पूछा कि, 'क्या है ?' तब उन्होंने कहा कि, 'अभी आगे नहीं जा सकते। रात को यहीं पर रहो, आगे रास्ते में लुट लेते हैं । पचास मील के एरिया में इस तरफ से, उस तरफ से सभी को रोकते हैं।' तब मैंने कहा कि, 'भले ही लुट जाएँ, हमें तो जाना है।' तब अंत में उन लोगों ने कहा कि, 'तो साथ में दो पुलिसवालों को लेते जाओ।' तब मैंने कहा कि, 'पुलिसवालों को भले ही बैठा दो ।' तब फिर दो पुलिस वाले बंदूक लेकर बैठ गए, लेकिन कुछ भी नहीं हुआ । ऐसा योग बैठना, वह तो अति - अति मुश्किल है ! और अगर वैसा योग होना होगा तो हज़ारों प्रयत्न करोगे, तब भी तुम्हारे प्रयत्न बेकार हो जाएँगे ! अतः डरना मत, शंका मत करना । जब तक शंका नहीं जाएगी, तब तक कभी भी काम नहीं हो पाएगा । जब तक निः शंकता नहीं आएगी, तब तक इंसान निर्भय नहीं हो सकेगा । जहाँ शंका है, वहाँ भय होता ही है । ऐसी शंका कोई नहीं करता इस मुंबई शहर के हर एक इंसान से पूछकर आओ कि भाई, आपको मरने की शंका होती है क्या ? तब कहेगा, 'नहीं होती ।' क्योंकि उस सोच को ही निकाल दिया होता है, जड़मूल के साथ निकाल दिया होता है। वह जानता है कि 'यों शंका करेंगे तो अभी के अभी मर जाएँगे।' तो उसी प्रकार दूसरी शंकाएँ भी करने जैसी नहीं हैं। दूसरी शंकाएँ अंदर उठें न, तो उन्हें खोदकर निकाल दे न ! निःशंक हो जा न! लेकिन ये लोग तो दूसरी सभी शंकाओं को अंदर सहेजकर रखते हैं लेकिन मरने की शंका को उठने ही नहीं देते, उठ जाए तब भी उसे खोदकर निकाल देते हैं । समाधान ज्ञानी के पास से और धंधा बैठ जाएगा, ऐसा लगे तो उसकी चिंता करता है, उसके लिए शंका होती रहती है कि, 'धंधा बैठ जाएगा तो क्या होगा ? धंधा बैठ जाएगा तो क्या होगा ?" अरे, शंका मत करना । यह तो कहेगा कि, 'तेज़ी वाले लोग तो हमेशा तेज़ी में ही रहेंगे और मंदी वाले लोग तो हमेशा मंदी में ही रहेंगे। मंदीवाला, कभी भी तेज़ी में नहीं आता और तेज़ीवाला, कभी भी मंदी में नहीं आता। देखो न, 'कैसा आश्चर्य है !' लेकिन नहीं, पॉज़िटिवनेगेटिव दोनों रहते ही हैं, नहीं तो इलेक्ट्रिसिटी उत्पन्न ही नहीं होगी। मोक्ष में जाने का ज्ञान मिला है, इसलिए अब मोक्ष में जाने की सभी तैयारियाँ रखना। शंका-कुशंका हो तो आकर हमें बता देना कि, 'दादाजी, मुझे इस तरह से शंकाएँ होती हैं । ' मैं समाधान कर दूंगा । वर्ना, शंका तो सब से भयंकर चीज़ है । वह भूत जैसी है, डाकण जैसी है। शंका के बजाय तो डाकण का चिपकना अच्छा है, उसे तो कोई उतार देगा लेकिन अगर शंका चिपक गई तो जाएगी ही नहीं । तो शंका ठेठ तक रखो अपना तो यह आत्मज्ञान है ! कोई ऐसी-वैसी चीज़ नहीं है । यह तो आपको ग़ज़ब की चीज़ प्राप्त हुई है ! और ये जो सारे भाव आते हैं न, मन के भाव, बुद्धि के भाव, वे सभी भाव सिर्फ भयभीत ही करवाने वाले हैं। एकबार समझ जाना है कि ये सिर्फ भयभीत करने वाले लोग हैं और जब तक बुद्धि का उपयोग होता रहेगा, तब तक वह दखल करती ही रहेगी। आपकी बुद्धि दखल करती है क्या ? प्रश्नकर्ता : कभी-कभी खड़ी हो जाती है, उल्टी खड़ी हो जाती है । दादाश्री : लेकिन वह गलत चीज़ है, उतना तो आप समझ गए हो न ? प्रश्नकर्ताः हाँ, उतना तो समझ में आता है । दादाश्री : वह गलत चीज़ है और ये जो नखरे करती है, वे सब गलत हैं, वह सब समझ में आ गया है न ? वह सही चीज़ नहीं है, ऐसा समझ में आ गया है न ? हाँ, यह सब समझ ले तो आत्मा की तरफ जाने के प्रयत्न होते ही हैं। फिर भी बुद्धि का बहुत ज़ोर हो तो हिल जाते हैं। कभी व्यापार में बड़ा नुकसान हो जाए, तब भी आप घंटों तक बैठे नहीं रहते हैं न? जब वे पर्याय आएँ तब छह-छह घंटों तक बैठे नहीं रहते न ? प्रश्नकर्ता : बैठे रहते हैं न ! कोई ठिकाना नहीं । दादाश्री : बाद में बंद हो जाता है न ? प्रश्नकर्ता : बाद में तो बंद हो जाता है । दादाश्री : जब बंद हो जाता है, उस घड़ी वह नुकसान वसूल हो जाने के बाद वे पर्याय बंद होते हैं या फिर नुकसान अपनी जगह पर वे रहने के बावजूद भी बंद हो जाते हैं ? मान लो हमारा पाँच सौ रुपये का नुकसान हो गया, उसके आधार पर यह शुरू हुआ तो बारह घंटे चला या दो दिन चला, लेकिन कभी न कभी यह बंद होता ही है । तब वह पाँच सौ रुपये जमा होने के बाद बंद होता है या वह नुकसान वैसे का वैसा रहे, तब भी यह बंद हो जाता है ? प्रश्नकर्ता : वह नुकसान तो वैसे का वैसा ही रहता है । दादाश्री : तो हमारा उसे बंद करने का अर्थ क्या है ? जब तक नुकसान की भरपाई नहीं हो जाती, हमें तब तक चलने देना था न ? प्रश्नकर्ता : लेकिन वह तो अपने आप ही शुरू हो जाता है और अपने आप ही बंद हो जाता है । दादाश्री : जब वह बंद हो जाए तो फिर कहना कि 'अभी तक निकाल नहीं हुआ है तो क्यों बंद हो गया है ? वापस आ ।' ऐसा कहना ! ऐसा है, नुकसान के प्रश्न के बारे में सोचने में हर्ज नहीं है लेकिन जब तक नुकसान की भरपाई नहीं होती, तभी तक सोचते रहें तो काम का है। नहीं तो लट्टू की तरह, नुकसान की भरपाई हुए बगैर यों ही बंद हो जाए तब उसका तो अर्थ ही नहीं है न ! वर्ना पहले से ही बंद रखना अच्छा। वर्ना, लोग तो सभी पर्याय भूल जाते हैं। आगे लिखता जाता और पीछे का भूलता जाता है । हम एक सेकन्ड के लिए भी नहीं भूलते, आज से चालीस साल पहले जो हुआ था, वह भी लेकिन लोग तो भूल जाते हैं न ! कुदरत जबरन भुलवा देती है तब भूलें, इसके बजाय पहले से ही भूल जाना अच्छा । यह तो, याद भी उदयकर्म करवाते हैं और भुलवाते भी वे ही हैं । तब फिर 'हमें ' ज़रा 'उनका' कंधा थपथपाकर कहना चाहिए, "जो 'है' वह है और 'नहीं है' वह नहीं है, यह 'व्यवस्थित' में कोई भी बदलाव नहीं होनेवाला । " ' इसलिए यदि नुकसान की चिंता करनी है तो पूरी जिंदगी करना, नहीं तो मत करना । नुकसान की चिंता करनी है तो जब तक फायदा 'एडजस्ट' न हो जाए, तब तक करना लेकिन फिर यदि लट्टू की तरह आप किसी के अधीन रहे और चिंता अपने आप बंद हो जाए, वह कैसा?! फायदा 'एडजस्ट' हुए बगैर ही यदि अपने आप बंद हो जाए और नुकसान की भरपाई हुए बगैर अपने आप ही बंद हो जाए तो फिर आपको पहले से ही बंद नहीं कर देना चाहिए? यह तो नुकसान खत्म हुए बगैर ही बंद हो जाता है न ? ? दादाश्री : तो आप उससे कह देना कि, 'क्यों बंद हो गया? तो फिर तू शुरू ही किसलिए हुआ था ? और शुरू हुआ तो ठेठ तक, नुकसान पूरा होने तक चलने दो।' नहीं तो शंका मत रखना हम 'ज्ञान' होने के पहले से ही एक बात समझ गए थे । हमें एक जगह पर शंका हुई थी कि, 'यह व्यक्ति ऐसा करेगा, धोखाधड़ी करेगा ।' इसलिए फिर हमने तय किया कि शंका करनी हो तो पूरी जिंदगी करनी है, वर्ना शंका करनी ही नहीं है । शंका करनी है तो ठेठ तक करनी है क्योंकि उसे भगवान ने जागृति कहा है । यदि करने के बाद शंका बंद हो जानी है तो करना ही मत । हम काशी जाने के लिए निकले और मथुरा से वापस आ जाएँ, उसके बजाय निकले ही नहीं होते तो अच्छा था। यानी हमें उस व्यक्ति पर शंका हुई थी कि यह व्यक्ति ऐसा है । उसके बाद से, हमें शंका होने के बाद से, हम शंका रखते ही नहीं हैं । वर्ना उसके बाद से उसके साथ व्यवहार ही नहीं रखते। बाद में फिर धोखा नहीं खाते। यदि शंका रखनी हो तो पूरी जिंदगी व्यवहार ही नहीं करते । सावधान रहो, लेकिन शंका नहीं प्रश्नकर्ता : जिस प्रकार, जब गाड़ी चलाते हैं न, उस समय हमें सामने जागृति तो रखनी ही पड़ती है न ? इसी प्रकार हमारा जीवन व्यवहार चलाते समय हमें हमेशा जागृति तो रखनी ही पड़ेगी न, कि 'ऐसा करूँगा तो यह आदमी खा जाएगा ?' ऐसा तो हमें ध्यान में रखना ही पड़ेगा न ? दादाश्री : वह तो रखना पड़ेगा लेकिन शंका नहीं करनी है और ऐसी जागृति रखने की भी ज़रूरत नहीं है कि 'यह खा जाएगा' । सिर्फ हमें सावधान रहना चाहिए । इसे जागृति कह सकते हो, लेकिन शंका नहीं करनी है । 'ऐसा होगा तो क्या होगा, शायद अगर ऐसा होगा तो क्या होगा?' ऐसी शंकाएँ नहीं करनी चाहिए । शंकाएँ तो बहुत नुकसानदायक ! शंका तो उत्पन्न होते ही दुःख देती है ! प्रश्नकर्ता : कई बार ऐसा होता है कि किसी काम में ऐसे 'प्रोब्लम्स' आने लगें तब सामने वाले व्यक्ति पर हमें शंका होती है, और उस वजह से हमें दुःख रहा करता है । दादाश्री : हाँ, वह निराधार शंकाएँ हैं । शंका में दो चीजें होती हैं । एक तो, प्रत्यक्ष दुःख होता है। दूसरा, उस पर शंका की, उसके बदले में गुनाह लागू होता है, कलम चार सौ अड़तीस लागू हो गई । प्रश्नकर्ताः लेकिन हमें कोई भी काम करना हो या रास्ते पर पुल बनाना हो तो उसके 'सेफ्टी फैक्टर' तो ध्यान में लेने पड़ेंगे न ? नहीं लेंगे तो पुल गिर जाएगा । वहाँ पर अगर अजागृति रखकर पुल बना दें, तो ऐसा तो चलेगा ही नहीं न ! दादाश्री : वह ठीक है। सभी 'सेफ्टी फैक्टर' रखने चाहिए, लेकिन उसके बाद सेटिंग करते समय फिर से शंका नहीं होनी चाहिए । शंका खड़ी हुई कि दुःख खड़ा होगा । प्रश्नकर्ता : लेकिन कोई भी काम करते हुए कोई व्यक्ति उसमें गलत नहीं करे, उसके बारे में सोचना तो पड़ेगा न ? दादाश्री : हाँ, सोचने की सारी छूट है ही ! शंका करने की छूट नहीं है। जितना सोचना हो उतना सोच, पूरी रात सोचना हो तब भी सोच, लेकिन शंका मत करना क्योंकि उसका 'एन्ड' ही नहीं आएगा । शंका 'एन्डलेस' चीज़ है । विचारों का 'एन्ड' (अंत) आएगा। मन थक जाता है न! क्योंकि बहुत सोचने से मन हमेशा थक जाता है इसलिए फिर वह अपने आप ही बंद हो जाता है । लेकिन शंका नहीं थकती । शंका तो ऐसी आती है, वैसी आती है इसलिए तू शंका मत रखना । इस जगत् में शंका करने जैसा अन्य कोई दुःख है ही नहीं। शंका करने से तो पहले खुद का ही बिगड़ता है, उसके बाद सामने वाले का बिगड़ता है। हमने तो पहले से ही ये खोज कर ली है कि शंका से अपना खुद का ही बिगड़ता है। सबकुछ जाने, फिर भी शंका नहीं इसलिए हमने कभी भी किसी पर शंका नहीं की है। हम बारीकी से जाँच करते हैं, लेकिन शंका नहीं रखते । जो शंका रखता है, वह मार खाता है। जानते ज़रूर हैं, लेकिन शंका नहीं रखते । ज़रा सी भी शंका नहीं रखते! एक ज़रा सी भी शंका, किसी के लिए मुझे नहीं हुई है । जानते सभी कुछ है, एक अक्षर भी हमारी जानकारी से बाहर नहीं होता । यह इतने पानी में है, यह इतने पानी में, कोई इतने पानी में है, कोई इतने पानी में है, सबकुछ जानते हैं। किसी ने नीचे से पैर ऊँचे किए हैं, कोई मुँह बिगाड़ रहा है। अंदर पैर ऊपर किए हैं, वह भी दिखाई देता है मुझे लेकिन शंका नहीं करते हम । शंका से क्या फायदा होता है ? प्रश्नकर्ता : नुकसान होता है । दादाश्री : क्या नुकसान होता है ? प्रश्नकर्ता : खुद को ही नुकसान होता है न! दादाश्री : नहीं, लेकिन सुख कितना देती है ? शंका पैठी तब से जैसे भूत लिपटा । 'ये ही ले गया या इसी ने ऐसा किया ।' उससे पैठी शंका ! उसका भूत लग गया आपको । सामने वाले का तो जो होना होगा वह होगा, लेकिन आपको भूत लग गया। ये 'दादा' इतने सतर्क हैं कि किसी पर ज़रा सी भी शंका नहीं करते। जानते सभी कुछ हैं, लेकिन फिर शंका नहीं करते । 'कहने वाला' और 'करने वाला, ' दोनों अलग संसार में किसी भी प्रकार की शंका करना गुनाह है। शंका करने से काम नहीं होता। ये 'ज्ञान' प्राप्त हुआ है, तो अब निःशंक मन से काम करते जाओ न! खुद की अक्ल लगाने गए तो बिगड़ेगा और सहज छोड़ दोगे तो काम हो जाएगा। इसी तरह काम करते रहने के बजाय अगर सहज छोड़ दोगे तो काम अच्छा होगा । जहाँ थोड़ी सी भी शंका रहे वहाँ किसी भी प्रकार का कार्य नहीं हो पाता । प्रश्नकर्ता : फिर भी कोई भी कार्य करने में शंका-कुशंका होती रहती है, तो क्या करना चाहिए ? दादाश्री : वह झंझट वाला ही है न ! वह ज़रा मुश्किल में डाल प्रश्नकर्ता : तब क्या करूँ फिर ? दादाश्री : करना क्या है ? 'आपको' 'चंदूभाई' से कहना है कि, 'शंका-कुशंका मत करना । जो आए वह करना है ।' बस, इतना ही । 'वह' शंका-कुशंका करे तो उसे कहने वाले 'आप' हैं न, साथ के साथ । पहले तो कोई कहने वाला था ही नहीं, इसलिए उलझन में रहते थे। अब तो वह, कहने वाला है न! वहाँ शूरवीरता होनी चाहिए जहाँ शंका हो वह काम ही शुरू मत करना । जहाँ हमें शंका हो न, वह काम करना ही नहीं चाहिए या फिर वह काम हमें छोड़ देना चाहिए। जहाँ शंका उत्पन्न हो, ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए । संघ यहाँ से अहमदाबाद जाने के लिए निकला, चलने लगा । अंदर कुछ लोग कहेंगे, 'अरे, शायद बरसात हो जाए तो वापस पहुँच पाएँगे या नहीं, इसके बजाय वापस लौट चलो न !' ऐसी शंका वाले हों तो क्या करना पड़ेगा? ऐसे दो-तीन लोग हों तो वहाँ से निकाल देने पड़ेंगे। वर्ना पूरी टोली बिगड़ जाएगी । अतः जब तक शंका होती रहे न, तब तक कुछ भी ठीक से नहीं हो सकता। उससे कोई भी काम नहीं हो सकता । बहुत प्रयत्न करे, बहुत पुरुषार्थ करने से अगर वह बदल जाए तो सुधर सकता है। बदल जाए तो अच्छा । सभी खुश होंगे न ! जिसमें शूरवीरता हो, वह अगर कभी फेंकने लगे तो सबकुछ फेंककर चलता बनता है और वह जैसा चाहे वैसा काम कर सकता है । इसलिए शूरवीरता रखनी चाहिए कि 'मुझे कुछ भी नहीं होगा।' अपने को ज़हर खाना होगा तभी खाएँगे और अगर नहीं खाना हो तो कौन खिला सकता है ? हमें कहे, 'अभी गाड़ी टकरा जाएगी तो ?' ड्राइवर यदि ऐसा कहे तो हमें कहना चाहिए, 'रहने दे, तेरी ड्राइविंग बंद कर । उतर जा । बहुत हो चुका।' यानी ऐसे व्यक्ति को छूने भी नहीं देना चाहिए ? शंका वाले के साथ तो खड़े भी नहीं रहना चाहिए । अपना मन बिगड़ जाता है। शंका क्यों आनी चाहिए ? साफ-साफ होना चाहिए । विचार तो कैसे भी आएँ लेकिन हम 'पुरुष' हुए हैं न ? 'पुरुष' नहीं हुआ तो इंसान मर जाएगा। पुरुष हो जाने के बाद कहीं पुरुषार्थ में शंका होती होगी ? पुरुष होने के बाद फिर भय कैसा ? स्वपुरुषार्थ और स्वपराक्रम उत्पन्न हुए हैं । फिर भय कैसा ? प्रश्नकर्ता : शूरवीरता रखनी पड़ती है या अपने आप रहती है ? दादाश्री : रखनी पड़ती है। हम यदि ऐसा नहीं सोचें कि 'गाड़ी का एक्सिडन्ट होगा' तब भी यदि वह होना होगा तो छोड़ेगा क्या? और जो सोचता है, उसे? उसका भी होगा। लेकिन जो सोचे बगैर बैठता है, वह शूरवीर कहलाता है। उसे लगती भी कम है, बिल्कुल कम चोट लगती है और बच जाता है। गाड़ी में बैठने के बाद ऐसी शंका होती है 'परसों ट्रेन टकरा गई थी, तो आज भी टकरा जाएगी तो क्या होगा ? ' ऐसी शंका क्यों नहीं होती ? अतः जो काम करना है, उसमें शंका मत रखना और अगर आपको शंका हो तो वह काम मत करना। 'आइदर दिस ऑर देट !' ऐसा तो कहीं होता होगा? जो ऐसी बात करे उसे तो उठाकर कहना कि, 'घर जा । यहाँ पर नहीं ।' शूरवीरता की बात होनी चाहिए। हमें घर जाना हो और कोई एक व्यक्ति ऐसा कहता रहे, 'घर जाते हुए कहीं टक्कर हो जाएगी तो क्या होगा? या फिर एक्सिडन्ट हो जाएगा तो क्या होगा ?' तो सब के मन कैसे हो जाएँगे ? ! ऐसी बातों को घुसने ही नहीं देना चाहिए । शंका तो होती होगी ? समुद्र किनारे घूम रहे हों और कोई कहे, 'अभी लहर आए और खींचकर ले जाए तो क्या होगा ? " किसी ने बात की हो कि, 'ऐसे लहर आई और खींचकर ले गई ।' तब हमें शंका होने लगे तो क्या होगा ? यानी ये 'फूलिशनेस' की बातें हैं । 'फूल्स पेरेडाइज़ !' यानी जो काम करना हो उसमें शंका नहीं और शंका होने लगे तो करना मत । 'मुझसे यह काम हो पाएगा या नहीं होगा' ऐसी शंका हो तभी से काम नहीं हो पाता । शंका रहती है, वह तो बुद्धि का तूफान है। और ऐसा कुछ भी होता नहीं है। जिसे शंका होती है न, उसे सभी झंझट खड़े होते हैं । कर्म राजा का नियम ऐसा है कि जिसे शंका होती है, वहीं पर वे जाते हैं ! और जो ध्यान नहीं देते, उनके वहाँ तो वे खड़े भी नहीं रहते। इसलिए मन मज़बूत रखना चाहिए । यह प्रिकॉशन है या दखल ? शंका तो दुःख भी बहुत देती है, भयंकर दुःख देती है । वह शंका कब निकलेगी ?! कई बार हज़ार - दो हज़ार के ज़ेवर, घड़ी वगैरह किसी ने रास्ते में मारकर सब लूट लिया हो, तब फिर यदि कपड़े, घड़ी, ज़ेवर वगैरह पहनकर फिर से बाहर जाना हो तो उस घड़ी शंका उत्पन्न होती है कि अगर आज (लुटेरा) मिल जाएगा तो ? अब न्याय क्या कहता है ? यदि उसे मिलना होगा तो उससे बच नहीं पाएगा, फिर तू क्यों बिना बात के शंका करता है ?! प्रश्नकर्ताः वह शंका उत्पन्न हुई, अब वहाँ पर उसके लिए कोई 'प्रिकॉशन' वगैरह लेने की कोई ज़रूरत नहीं रहती ? दादाश्री : 'प्रिकॉशन' लेने से ही बिगड़ता है न ! अज्ञानी के लिए ठीक है। यदि इस किनारे पर आना हो तो इस किनारे का सबकुछ एक्ज़ेक्ट करो । उस किनारे पर रहना हो तो उस किनारे का एक्ज़ेक्ट रखो। यदि शंका करनी हो तो उस किनारे पर रहो । बीच रास्ते में रहने का कोई अर्थ ही नहीं है न ! प्रश्नकर्ता : लेकिन कोई 'डेन्जर सिग्नल' आए तब उसमें शंका न रखें, लेकिन उसके लिए सहज भाव से 'प्रिकॉशन' लेने चाहिए न ? दादाश्री : 'प्रिकॉशन' आपसे लिया ही नहीं जा सकता । 'प्रिकॉशन' लेने की शक्ति ही नहीं है । वह शक्ति है ही नहीं, उसे 'एडोप्ट' करने का क्या अर्थ है ? प्रश्नकर्ता : हमारे में 'प्रिकॉशन' लेने की शक्ति है ही नहीं ? दादाश्री : बिल्कुल भी शक्ति नहीं है । जो शक्ति नहीं है, उसे यों ही मान लेना, वह काम का नहीं है न ! यह तो, 'प्रिकॉशन' लेने की शक्ति नहीं है और करने की भी शक्ति नहीं है और 'प्रिकॉशन' 'चंदूभाई' ले ही लेते हैं। आप बिना बात के दख़ल करते हो । करता है कोई दूसरा और आप सिर पर ले लेते हो और इसीलिए बिगड़ता है । प्रश्नकर्ता : यानी चंदूभाई 'प्रिकॉशन' ले, तो उसमें हर्ज नहीं दादाश्री : वह लेता ही है । वह तो लेता ही है, हमेशा ही लेता है । बातें करते-करते कोई व्यक्ति चल रहा हो, यानी कि वह असावधानी से चल रहा होता है लेकिन यदि एकदम से ऐसे साँप जाता हुआ दिख जाए, तो एकदम से कूद जाता है वह। वह कौन सी शक्ति से कूदता है? कौन कुदाता होगा? ऐसा होता है या नहीं होता ? इतनी अधिक साहजिकता है इस देह में । इन 'चंदूभाई' में इतनी अधिक साहजिकता है कि ऐसे देखते ही कूद पड़ते हैं । प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसी साहजिकता हमारे काम-धंधे में और व्यवहार में नहीं आती। दादाश्री : वह तो इसलिए कि दखल करते हो । और यदि शंका करो तो हर प्रकार से करनी चाहिए, कि 'भाई, कल मर जाएँगे तो क्या होगा ?' कोई मरता नहीं है ? प्रश्नकर्ता : मरते हैं न ! दादाश्री : तब फिर ! इसलिए यदि शंका करो तो हर प्रकार की करना । यह एक ही प्रकार की क्यों करनी ? वर्ना कौन सी शंका नहीं होगी, ऐसा है यह जगत् ! किस बारे में शंका नहीं होगी ?! यहाँ से घर पहुँच गए तभी सही है। उसमें क्यों शंका नहीं होती ? शंका होनी ही नहीं चाहिए । यानी शंका से कहना चाहिए, 'चली जा । मैं निःशंक आत्मा हूँ ।' आत्मा को क्या शंका भला ? ! बीज में से.... जंगल मैं क्या कह रहा हूँ कि शंका, वह तो भूत है । उस डायन को चिपटाना हो तो चिपटाना, अपने को डायन पसंद हो तो चिपटाना लेकिन यदि शंका होने लगे तो उसे क्या कहना चाहिए ? कि 'दादा के फॉलोअर बने हो और अब किस चीज़ की शंका रखते हो? आपको शर्म नहीं आती ? दादा किसी पर शंका नहीं रखते, तो आप क्यों शंका रखते हो ? वह बंद कर दो । दादा इस उम्र में शंका नहीं रखते हैं, फिर आप तो जवान हो।' ऐसा कहेंगे तो शंका बंद हो जाएगी । हमने जिंदगी में शंका का नाम तक निकाल दिया है। हमें किसी पर भी शंका आती ही नहीं । वह सेफसाइड है या नहीं ? प्रश्नकर्ता : बहुत बड़ी 'सेफसाइड ।' दादाश्री : शंका का नाम तक नहीं । जेब में से रुपये निकालते हुए देख लिया हो तो भी उस पर शंका नहीं और दूसरे भयंकर गुनाह किए हों तो भी शंका - वंका, राम तेरी माया ! जानते ज़रूर हैं, जानकारी में होता है। हमारे ज्ञान में होता है कि 'दिस इज़ दिस, दिस इज़ देट । ' लेकिन शंका नहीं । शंका वह तो भयंकर दुःखदाई है और उससे नये प्रकार का संसार उत्पन्न हो जाता है, ऐसा है । बबूल का बीज हो न, तब तो सिर्फ बबूल ही उगता है और एक बड़ का बीज हो न, तो उसमें से सिर्फ बड़ ही उगता है लेकिन शंका नाम का बीज ऐसा है कि इस बीज से तो सत्रह सौ तरह की वनस्पतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं । एक ही बीज में से सत्रह सौ तरह की वनस्पतियाँ उग जाती हैं, उस बीज को रखा ही कैसे जाए ? यह शंका नाम का बीज, उसे सिर्फ हम निकाल चुके हैं लेकिन आपको तो सहज रूप से कभी शंका हो जाती है । नहीं ? इसलिए हमारे जैसा रखना । शंका निकाल देना । चाहे किसी भी बारे में हो, नज़रों से देखी हुई बात हो न, तब भी शंका नहीं । जान लेना है, जान ज़रूर लेना। जानने में पाप नहीं है । आँखों से देखा हुआ भी गलत निकलता है। मेरे साथ कितनी ही ऐसी घटनाएँ हुई हैं ! इन आँखों से देखता हूँ, फिर भी गलत निकलता है। ऐसे उदाहरण 'एक्ज़ेक्ट' मेरे अनुभव में आए हैं तो और कौन सी चीज़ को सही मानें हम लोग ? अतः देखने के बाद भी शंका नहीं करनी चाहिए। जानकारी में रखना । हमारी यह खोज बहुत गहरी है । यह तो जब बात निकलती है तब खुद है। के अनुभव में पता चलता है और दुनिया में कहीं ये सारी शंकाएँ निकल नहीं चुकी हैं । शंका निकलना, वह तो 'ज्ञानीपुरुष' खुद, खुद की ही शंकाएँ निकालने के बाद दूसरों की भी सारी शंकाएँ निकाल देते हैं । वर्ना और कोई निकाल नहीं सकता । इंसान से खुद से शंका नहीं निकाली जा सकती । वह तो बड़े से बड़ा भूत है । वह तो डायन कहलाती है। आप इस तरफ गए हों और वहाँ से कोई व्यक्ति आ रहा हो, वह व्यक्ति किसी स्त्री के कंधे पर हाथ रखकर चल रहा हो और आपकी नज़र पड़े तो क्या होगा आपको? उसने हाथ किसलिए रखा वह तो वही बेचारा जाने, लेकिन आपको क्या होगा? और वह शंका घुसने के बाद, कितने सारे बीज उग जाते हैं फिर ! बबूल, नीम, आम, अंदर तूफान ! यह शंका तो डायन से भी अधिक खराब चीज़ है। डायन का चिपटना तो अच्छा है कि ओझा निकाल देता है लेकिन इस शंका को कौन निकाले? हम निकाल देते हैं आपकी शंकाएँ ! बाकी, शंका कोई नहीं निकाल सकता। प्रश्नकर्ता : पिछला याद करने से शंका होती है । दादाश्री : उसे याद ही नहीं करना है। बीता हुआ भूल जाना। बीती हुई तिथि तो ब्राह्मण भी नहीं देखते । ब्राह्मण से कहे, 'हमारी बेटी पंद्रह दिन पहले विधवा हो गई थी या नहीं?' तो ब्राह्मण कहेगा, 'ऐसा कोई पूछता होगा क्या? जिस दिन वह विधवा हुई थी, वह तिथी तो गई । ' प्रश्नकर्ता : लेकिन कभी-कभी शंका हो जाती है । दादाश्री : भले ही हो, लेकिन कितने सारे पेड़ उग निकलते हैं फिर ! बीज एक और सत्रह सौ तरह की वनस्पतियाँ उग निकलती हैं ! प्रश्नकर्ता : पूरा वन बन जाता है । दादाश्री : हाँ, पूरा वन बन जाता है। बाग में से जंगल बन जाता है । इन 'दादा' ने महामुश्किल से बगीचा बनाया होता है, उसमें फिर जंगल बन जाता है । इतना बड़ा बगीचा, वापस जंगल बन जाता है ? अरे, उस गुलाब को रोपते- रोपते तो 'दादा' का दम निकल गया । देखो, जंगल मत बना देना ! जंगल मत बनने देना । अब नहीं बनने दोगे न ? ! प्रश्नकर्ता : शंका तो बिल्कुल पसंद ही नहीं है, दादा लेकिन निकाल नहीं होता, इसलिए फिर 'पेन्डिंग' रहा करता है । दादाश्री : वापस 'पेन्डिंग' पड़ा रहता है ? ! हल नहीं कर देते ?! 'ए स्क्वेर, बी स्क्वेर, ' ऐसा वह 'एलजेब्रा' में केन्सल कर देते हो न, उस तरह से ? जिसे 'एलजेब्रा' आता है न, उसे यह सब आता है । शंका से आपको सभी परेशानियाँ खड़ी होती हैं, तब फिर नींद में विघ्न डालती है कभी ? प्रश्नकर्ता : ऐसा नहीं है लेकिन अगर निकाल नहीं होता है तो वापस आती है । दादाश्री : अब क्या करोगे? सेक दो न! तो फिर उगे नहीं। जो बीज सेककर रख दिए, वे फिर उगेंगे नहीं । उगेंगे तब परेशानी है न ? ! इसलिए आपको ऐसा कहना चाहिए कि, 'दादा' के 'फॉलोअर्स' होकर भी ऐसा करने में आपको शर्म नहीं आती? वर्ना कहना, 'दो तमाचे मार दूँगा । शंका क्या कर रहा है ?' ऐसे डाँटना । दूसरे डाँटें उसके बजाय 'आप' डाँटो तो क्या बुरा है ? कौन डाँटे तो अच्छा? अपने आपको ही डाँटे तो अच्छा, लोगों की मार खाने के बजाय ! प्रश्नकर्ता : यह तो, मार खाता है तब भी नहीं जाती । दादाश्री : हाँ, मार खाने पर भी नहीं जाती इसलिए यह बात निकली । शंका जाने वाली हो, तब बात निकलती है । नहीं तो बात नहीं निकलती। काम सारा पद्धतिपूर्वक करो, लेकिन शंका मत करना । इस 'रेल्वे' के सामने ज़रा सी भी भूल करे, निमंत्रण दें, तो क्या होगा ? प्रश्नकर्ता : कट जाएगा। दादाश्री : वहाँ कितना समझकर रहता है ?! किसलिए समझदारी से रहते हैं लोग? क्योंकि वह तुरंत फल देता है इसलिए जबकि इस शंका का फल देर से मिलता है। उसका फल क्या आएगा, वह आज दिखाई नहीं देता इसलिए इस प्रकार निमंत्रित करते हैं । शंका को निमंत्रण देना, वह क्या कोई ऐसी-वैसी बात है ? ! प्रश्नकर्ता : आगे के लिए फिर से बीज डलता है न, दादा ? दादाश्री : अरे, बीज की कहाँ बात कर रहे हो ? ! आज की शंका के निमंत्रण से तो, पूरे जगत् की बस्ती खड़ी हो जाती है ! शंका तो ठेठ 'ज्ञानीपुरुष' तक का उल्टा दिखा देती है । यह शंका, डायन घुस गई तो फिर क्या नहीं दिखाएगी ? प्रश्नकर्ता : सबकुछ दिखाएगी । दादाश्री : 'दादा' का भी उल्टा दिखाएगी । इन 'दादा' पर तो एक भी शंका की न, तो अधोगति में चला जाएगा । एक भी शंका करने जैसे नहीं हैं ये 'दादा!' 'वर्ल्ड' में ऐसा निःशंक पुरुष कहीं होता ही नहीं है । प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं कि शंका हो जाती है, कोई करता नहीं दादाश्री : वह चीज़ अलग है । किसलिए होती है, वह बात अलग है लेकिन इन 'दादा' पर शंका नहीं करनी चाहिए । हो जाए तो उसका उपाय करना चहिए। उपाय दिया हुआ है मैंने । मैं यह कहता हूँ न, कि शंका तो हो सकती है लेकिन उसका उपाय करना चाहिए कि 'दादा से
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डॉक्टर जयपाल ने प्रथम श्रेणी की सनद पायी थी, पर इसे भाग्य ही कहिए या व्यावसायिक सिद्धान्तों का अज्ञान कि उन्हें अपने व्यवसाय में कभी उन्नत अवस्था न मिली। उनका घर सँकरी गली में था; पर उनके जी में खुली जगह में घर लेने का विचार तक न उठा। औषधालय की आलमारियाँ, शीशियाँ और डाक्टरी यंत्र आदि भी साफ-सुथरे न थे। मितव्ययिता के सिद्धांत का वह अपनी घरेलू बातों में भी बहुत ध्यान रखते थे। लड़का जवान हो गया था, पर अभी उसकी शिक्षा का प्रश्न सामने न आया था। सोचते थे कि इतने दिनों तक पुस्तकों से सर मार कर मैंने ऐसी कौन-सी बड़ी सम्पत्ति पा ली, जो उसके पढ़ाने-लिखाने में हजारों रुपये बर्बाद करूँ। उनकी पत्नी अहल्या धैर्यवान महिला थी, पर डॉक्टर साहब ने उसके इन गुणों पर इतना बोझ रख दिया था कि उसकी कमर भी झुक गयी थी। माँ भी जीवित थी, पर गंगास्नान के लिए तरस-तरस कर रह जाती थी; दूसरे पवित्र स्थानों की यात्र की चर्चा ही क्या ! इस क्रूर मितव्ययिता का परिणाम यह था कि इस घर में सुख और शांति का नाम न था। अगर कोई मद फुटकल थी तो वह बुढ़िया महरी जगिया थी। उसने डॉक्टर साहब को गोद में खिलाया था और उसे इस घर से ऐसा प्रेम हो गया था कि सब प्रकार की कठिनाइयाँ झेलती थी, पर टलने का नाम न लेती थी। डॉक्टर साहब डाक्टरी आय की कमी को कपड़े और शक्कर के कारखानों में हिस्से लेकर पूरा करते थे। आज संयोगवश बम्बई के कारखाने ने उनके पास वार्षिक लाभ के साढ़े सात सौ रुपये भेजे। डॉक्टर साहब ने बीमा खोला, नोट गिने, डाकिये को विदा किया, पर डाकिये के पास रुपये अधिक थे, बोझ से दबा जाता था। बोला हुजूर रुपये ले लें और मुझे नोट दे दें तो बड़ा अहसान हो, बोझ हलका हो जाय। डॉक्टर साहब डाकियों को प्रसन्न रखा करते थे, उन्हें मुफ्त दवाइयाँ दिया करते थे। सोचा कि हाँ, मुझे बैंक जाने के लिए ताँगा मँगाना ही पड़ेगा, क्यों न बिन कौड़ी के उपकार वाले सिद्धांत से काम लूँ। रुपये गिन कर एक थैली में रख दिये और सोच ही रहे थे कि चलूँ उन्हें बैंक में रखता आऊँ कि एक रोगी ने बुला भेजा। ऐसे अवसर यहाँ कदाचित् ही आते थे। यद्यपि डॉक्टर साहब को बक्स पर भरोसा न था, पर विवश हो कर थैली बक्स में रखी और रोगी को देखने चले गये। वहाँ से लौटे तो तीन बज चुके थे, बैंक बंद हो चुका था। आज रुपये किसी तरह जमा न हो सकते थे। प्रतिदिन की भाँति औषधालय में बैठ गये। आठ बजे रात को जब घर के भीतर जाने लगे, तो थैली को घर ले जाने के लिए बक्स से निकाला, थैली कुछ हलकी जान पड़ी, तत्काल उसे दवाइयों के तराजू पर तौला, होश उड़ गये। पूरे पाँच सौ रुपये कम थे। विश्वास न हुआ। थैली खोल कर रुपये गिने। पाँच सौ रुपये कम निकले। विक्षिप्त अधीरता के साथ बक्स के दूसरे खानों को टटोला परंतु व्यर्थ। निराश होकर एक कुरसी पर बैठ गये और स्मरण-शक्ति को एकत्र करने के लिए आँखें बँद कर दीं और सोचने लगे, मैंने रुपये कहीं अलग तो नहीं रखे, डाकिये ने रुपये कम तो नहीं दिये, मैंने गिनने में भूल तो नहीं की, मैंने पचीस-पचीस रुपये की गड्डियाँ लगायी थीं, पूरी तीस गड्डियाँ थीं, खूब याद है। मैंने एक-एक गड्डी गिन कर थैली में रखी, स्मरण-शक्ति मुझे धोखा नहीं दे रही है। सब मुझे ठीक-ठीक याद है। बक्स का ताला भी बंद कर दिया था, किंतु ओह, अब समझ में आ गया, कुंजी मेज पर ही छोड़ दी, जल्दी के मारे उसे जेब में रखना भूल गया, वह अभी तक मेज पर पड़ी है। बस यही बात है, कुंजी जेब में डालने की याद नहीं रही, परंतु ले कौन गया, बाहर दरवाजे बंद थे। घर में धरे रुपये-पैसे कोई छूता नहीं, आज तक कभी ऐसा अवसर नहीं आया। अवश्य यह किसी बाहरी आदमी का काम है। हो सकता है कि कोई दरवाजा खुला रह गया हो, कोई दवा लेने आया हो, कुंजी मेज पर पड़ी देखी हो और बक्स खोल कर रुपये निकाल लिये हों। इसी से मैं रुपये नहीं लिया करता, कौन ठिकाना डाकिये की ही करतूत हो, बहुत सम्भव है, उसने मुझे बक्स में थैली रखते देखा था। रुपये जमा हो जाते तो मेरे पास पूरे ... हजार रुपये हो जाते, ब्याज जोड़ने में सरलता होती। क्या करूँ। पुलिस को खबर दूँ ? व्यर्थ बैठे-बिठाये उलझन मोल लेनी है। टोले भर के आदमियों की दरवाजे पर भीड़ होगी। दस-पाँच आदमियों को गालियाँ खानी पड़ेंगी और फल कुछ नहीं ! तो क्या धीरज धर कर बैठ रहूँ ? कैसे धीरज धरूँ ! यह कोई सेंतमेंत मिला धन तो था नहीं, हराम की कौड़ी होती तो समझता कि जैसे आयी, वैसे गयी। यहाँ एक-एक पैसा अपने पसीने का है। मैं जो इतनी मितव्ययिता से रहता हूँ, इतने कष्ट से रहता हूँ, कंजूस प्रसिद्ध हूँ, घर के आवश्यक व्यय में भी काट-छाँट करता हूँ, क्या इसीलिए कि किसी उचक्के के लिए मनोरंजन का सामान जुटाऊँ ? मुझे रेशम से घृणा नहीं, न मेवे ही अरुचिकर हैं, न अजीर्ण का रोग है कि मलाई खाऊँ और अपच हो जाय, न आँखों में दृष्टि कम है कि थियेटर और सिनेमा का आनन्द न उठा सकूँ। मैं सब ओर से अपने मन को मारे रहता हूँ, इसीलिए तो कि मेरे पास चार पैसे हो जायँ, काम पड़ने पर किसी के आगे हाथ फैलाना न पड़े। कुछ जायदाद ले सकूँ, और नहीं तो अच्छा घर ही बनवा लूँ। पर इस मन मारने का यह फल ! गाढ़े परिश्रम के रुपये लुट जायँ। अन्याय है कि मैं यों दिनदहाड़े लुट जाऊँ और उस दुष्ट का बाल भी टेढ़ा न हो। उसके घर दीवाली हो रही होगी, आनंद मनाया जा रहा होगा, सब-के-सब बगलें बजा रहे होंगे। डॉक्टर साहब बदला लेने के लिए व्याकुल हो गये। मैंने कभी किसी फकीर को, किसी साधु को, दरवाजे पर खड़ा होने नहीं दिया। अनेक बार चाहने पर भी मैंने कभी मित्रों को अपने यहाँ निमंत्रित नहीं किया, कुटुम्बियों और संबंधियों से सदा बचता रहा, क्या इसीलिए ? उसका पता लग जाता तो मैं एक विषैली सुई से उसके जीवन का अंत कर देता। किन्तु कोई उपाय नहीं है। जुलाहे का गुस्सा दाढ़ी पर। गुप्त पुलिसवाले भी बस नाम ही के हैं, पता लगाने की योग्यता नहीं। इनकी सारी अक्ल राजनीतिक व्याख्यानों और झूठी रिपोर्टों के लिखने में समाप्त हो जाती है। किसी मेस्मेरिजम जानने वाले के पास चलूँ, वह इस उलझन को सुलझा सकता है। सुनता हूँ, यूरोप और अमेरिका में बहुधा चोरियों का पता इसी उपाय से लग जाता है। पर यहाँ ऐसा मेस्मेरिजम का पंडित कौन है और फिर मेस्मेरिजम के उत्तर सदा विश्वसनीय नहीं होते। ज्योतिषियों के समान वे भी अनुमान और अटकल के अनंत सागर में डुबकियाँ लगाने लगते हैं। कुछ लोग नाम भी तो निकालते हैं। मैंने कभी उन कहानियों पर विश्वास नहीं किया, परन्तु कुछ न कुछ इसमें तत्त्व है अवश्य, नहीं तो इस प्रकृति-उपासना के युग में इनका अस्तित्व ही न रहता। आजकल के विद्वान् भी तो आत्मिक बल का लोहा मानते जाते हैं, पर मान लो किसी ने नाम बतला ही दिया तो मेरे हाथ में बदला चुकाने का कौन-सा उपाय है, अंतर्ज्ञान साक्षी का काम नहीं दे सकता। एक क्षण के लिए मेरे जी को शांति मिल जाने के सिवाय और इनसे क्या लाभ है ? हाँ, खूब याद आया। नदी की ओर जाते हुए वह जो एक ओझा बैठता है, उसके करतब की कहानियाँ प्रायः सुनने में आती हैं। सुनता हूँ, गये हुए धन का पता बतला देता है, रोगियों को बात की बात में चंगा कर देता है, चोरी के माल का पता लगा देता है, मूठ चलाता है। मूठ की बड़ी बड़ाई सुनी है, मूठ चली और चोर के मुँह से रक्त जारी हुआ, जब तक वह माल न लौटा दे रक्त बन्द नहीं होता। यह निशाना बैठ जाय तो मेरी हार्दिक इच्छा पूरी हो जाय ! मुँहमाँगा फल पाऊँगा। रुपये भी मिल जायँ, चोर को शिक्षा भी मिल जाय ! उसके यहाँ सदा लोगों की भीड़ लगी रहती है। इसमें कुछ करतब न होता तो इतने लोग क्यों जमा होते ? उसकी मुखाकृति से एक प्रतिभा बरसती है। आजकल के शिक्षित लोगों को तो इन बातों पर विश्वास नहीं है, पर नीच और मूर्ख-मंडली में उसकी बहुत चर्चा है। भूत-प्रेत आदि की कहानियाँ प्रतिदिन ही सुना करता हूँ। क्यों न उसी ओझे के पास चलूँ ? मान लो कोई लाभ न हुआ तो हानि ही क्या हो जायगी। जहाँ पाँच सौ गये हैं, दो-चार रुपये का खून और सही। यह समय भी अच्छा है। भीड़ कम होगी, चलना चाहिए। जी में यह निश्चय करके डॉक्टर साहब उस ओझे के घर की ओर चले, जाड़े की रात थी। नौ बज गये थे। रास्ता लगभग बन्द हो गया था। कभी-कभी घरों से रामायण की ध्वनि कानों में आ जाती थी। कुछ देर के बाद बिलकुल सन्नाटा हो गया। रास्ते के दोनों ओर हरे-भरे खेत थे। सियारों का हुँआना सुन पड़ने लगा। जान पड़ता है इनका दल कहीं पास ही है। डॉक्टर साहब को प्रायः दूर से इनका सुरीला स्वर सुनने का सौभाग्य हुआ था। पास से सुनने का नहीं। इस समय इस सन्नाटे में और इतने पास से उनका चीखना सुन कर उन्हें डर लगा। कई बार अपनी छड़ी धरती पर पटकी, पैर धमधमाये। सियार बड़े डरपोक होते हैं, आदमी के पास नहीं आते; पर फिर संदेह हुआ, कहीं इनमें कोई पागल हो तो उसका काटा तो बचता ही नहीं। यह संदेह होते ही कीटाणु, बैक्टिरिया, पास्टयार इन्स्टिच्यूट और कसौली की याद उनके मस्तिष्क में चक्कर काटने लगी। वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाये चले जाते थे। एकाएक जी में विचार उठा कहीं मेरे ही घर में किसी ने रुपये उठा लिये हों तो। वे तत्काल ठिठक गये, पर एक ही क्षण में उन्होंने इसका भी निर्णय कर लिया, क्या हर्ज है घरवालों को तो और भी कड़ा दंड मिलना चाहिए। चोर की मेरे साथ सहानुभूति नहीं हो सकती, पर घरवालों की सहानुभूति का मैं अधिकारी हूँ। उन्हें जानना चाहिए कि मैं जो कुछ करता हूँ उन्हीं के लिए करता हूँ। रात-दिन मरता हूँ तो उन्हीं के लिए मरता हूँ। यदि इस पर भी वे मुझे यों धोखा देने के लिए तैयार हों तो उनसे अधिक कृतघ्न, उनसे अधिक अकृतज्ञ, उनसे अधिक निर्दय और कौन होगा ? उन्हें और भी कड़ा दंड मिलना चाहिए। इतना कड़ा, इतना शिक्षाप्रद कि फिर कभी किसी को ऐसा करने का साहस न हो। अंत में वे ओझे के घर के पास जा पहुँचे। लोगों की भीड़ न थी। उन्हें बड़ा संतोष हुआ। हाँ, उनकी चाल कुछ धीमी पड़ गयी। फिर जी में सोचा, कहीं यह सब ढकोसला ही ढकोसला हो तो व्यर्थ लज्जित होना पड़े। जो सुने, मूर्ख बनाये। कदाचित् ओझा ही मुझे तुच्छबुद्धि समझे। पर अब तो आ गया, यह तजरबा भी हो जाय। और कुछ न होगा तो जाँच ही सही। ओझा का नाम बुद्धू था। लोग चौधरी कहते थे। जाति का चमार था। छोटा-सा घर और वह भी गन्दा। छप्पर इतनी नीची थी कि झुकने पर भी सिर में टक्कर लगने का डर लगता था। दरवाजे पर एक नीम का पेड़ था। उसके नीचे एक चौरा। नीम के पेड़ पर एक झंडी लहराती थी। चौरा पर मिट्टी के सैकड़ों हाथी सिंदूर से रँगे हुए खड़े थे। कई लोहे के नोकदार त्रिशूल भी गड़े थे, जो मानो इन मंदगति हाथियों के लिए अंकुश का काम दे रहे थे। दस बजे थे। बुद्धू चौधरी जो एक काले रंग का तोंदीला और रोबदार आदमी था, एक फटे हुए टाट पर बैठा नारियल पी रहा था। बोतल और गिलास भी सामने रखे हुए। बुद्धू ने डॉक्टर साहब को देख कर तुरंत बोतल छिपा दी और नीचे उतर कर सलाम किया। घर से एक बुढ़िया ने मोढ़ा ला कर उनके लिए रख दिया। डॉक्टर साहब ने कुछ झेंपते हुए सारी घटना कह सुनायी। बुद्धू ने कहा हुजूर, यह कौन बड़ा काम है। अभी इसी इतवार को दारोगाजी की घड़ी चोरी गयी थी, बहुत कुछ तहकीकात की, पता न चला। मुझे बुलाया। मैंने बात की बात में पता लगा दिया। पाँच रुपये इनाम दिये। कल की बात है, जमादार साहब की घोड़ी खो गयी थी। चारों तरफ दौड़ते फिरते थे। मैंने ऐसा पता बता दिया कि घोड़ी चरती हुई मिल गयी। इसी विद्या की बदौलत हुजूर हुक्काम सभी मानते हैं। डॉक्टर को दारोगा और जमादार की चर्चा न रुची। इन सब गँवारों की आँखों में जो कुछ है, वह दारोगा और जमादार ही हैं। बोले मैं केवल चोरी का पता लगाना नहीं चाहता, मैं चोर को सजा देना चाहता हूँ। बुद्धू ने एक क्षण के लिए आँखें बंद कीं, जमुहाइयाँ लीं, चुटकियाँ बजायीं और फिर कहा यह घर ही के किसी आदमी का काम है। डॉक्टर कुछ परवाह नहीं, कोई हो। बुढ़िया पीछे से कोई बात बने या बिगड़ेगी तो हजूर हमीं को बुरा कहेंगे। डॉक्टर इसकी तुम कुछ चिंता न करो, मैंने खूब सोच-विचार लिया है ! बल्कि अगर घर के किसी आदमी की शरारत है तो मैं उसके साथ और भी कड़ाई करना चाहता हूँ। बाहर का आदमी मेरे साथ छल करे तो क्षमा के योग्य है, पर घर के आदमी को मैं किसी प्रकार क्षमा नहीं कर सकता। बुद्धू तो हुजूर क्या चाहते हैं ? डॉक्टर बस यही कि मेरे रुपये मिल जायँ और चोर किसी बड़े कष्ट में पड़ जाय। बुद्धू मूठ चला दूँ ? बुढ़िया ना बेटा, मूठ के पास न जाना। न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े। डॉक्टर तुम मूठ चला दो, इसका जो कुछ मेहनताना और इनाम हो, मैं देने को तैयार हूँ। बुढ़िया बेटा, मैं फिर कहती हूँ, मूठ के फेर में मत पड़। कोई जोखम की बात आ पड़ेगी तो वही बाबूजी फिर तेरे सिर होंगे और तेरे बनाये कुछ न बनेगी। क्या जानता नहीं, मूठ का उतार कितना कठिन है ? बुद्धू हाँ बाबू जी ! फिर एक बार अच्छी तरह सोच लीजिए। मूठ तो मैं चला दूँगा, लेकिन उसको उतारने का जिम्मा मैं नहीं ले सकता। डॉक्टर अभी कह तो दिया, मैं तुमसे उतारने को न कहूँगा, चलाओ भी तो। बुद्धू ने आवश्यक सामान की एक लम्बी तालिका बनायी। डॉक्टर साहब ने सामान की अपेक्षा रुपये देना अधिक उचित समझा। बुद्धू राजी हो गया। डॉक्टर साहब चलते-चलते बोले ऐसा मंतर चलाओ के सबेरा होते-होते चोर मेरे सामने माल लिये हुए आ जाय। बुद्धू ने कहा आप निसाखातिर रहें। डॉक्टर साहब वहाँ से चले तो ग्यारह बजे थे। जाड़े की रात, कड़ाके की ठंड थी। उनकी माँ और स्त्री दोनों बैठी हुई उनकी राह देख रही थीं। उन्होंने जी को बहलाने के लिए बीच में एक अँगीठी रख ली थी, जिसका प्रभाव शरीर की अपेक्षा विचार पर अधिक पड़ता था। यहाँ कोयला विलास्य पदार्थ समझा जाता था। बुढ़िया महरी जगिया वहीं फटा टाट का टुकड़ा ओढ़े पड़ी थी। वह बार-बार उठ कर अपनी अँधेरी कोठरी में जाती, आले पर कुछ टटोल कर देखती और फिर अपनी जगह पर आ कर पड़ रहती। बार-बार पूछती, कितनी रात गयी होगी। जरा भी खटका होता तो चौंक पड़ती और चिंतित दृष्टि से इधर-उधर देखने लगती। आज डॉक्टर साहब ने नियम के प्रतिकूल क्यों इतनी देर लगायी, इसका सबको आश्चर्य था। ऐसे अवसर बहुत कम आते थे कि उन्हें रोगियों को देखने के लिए रात को जाना पड़ता हो। यदि कुछ लोग उनकी डाक्टरी के कायल भी थे, तो वे रात को उस गली में आने का साहस न करते थे। सभा-सोसाइटियों में जाने को उन्हें रुचि न थी। मित्रों से भी उनका मेल-जोल न था। माँ ने कहा जाने कहाँ चला गया, खाना बिलकुल पानी हो गया। अहल्या आदमी जाता है तो कह कर जाता है, आधी रात से ऊपर हो गयी। माँ कोई ऐसी ही अटक हो गयी होगी, नहीं तो वह कब घर से बाहर निकलता है ? अहल्या मैं तो अब सोने जाती हूँ, उनका जब जी चाहे आयें। कोई सारी रात बैठा पहरा देगा। यही बातें हो रही थीं कि डॉक्टर साहब घर आ पहुँचे। अहल्या सँभल बैठी; जगिया उठकर खड़ी हो गयी और उनकी ओर सहमी हुई आँखों से ताकने लगी। माँ ने पूछा आज कहाँ इतनी देर लगा दी ? डॉक्टर तुम लोग तो सुख से बैठी हो न ! हमें देर हो गयी, इसकी तुम्हें क्या चिंता ! जाओ, सुख से सोओ, इन ऊपरी दिखावटी बातों से मैं धोखे में नहीं आता। अवसर पाओ तो गला काट लो, इस पर चली हो बात बनाने ! माँ ने दुःखी हो कर कहा बेटा ! ऐसी जी दुखाने वाली बातें क्यों करते हो ? घर में तुम्हारा कौन बैरी है जो तुम्हारा बुरा चेतेगा ? डॉक्टर मैं किसी को अपना मित्र नहीं समझता, सभी मेरे बैरी हैं, मेरे प्राणों के ग्राहक हैं ! नहीं तो क्या आँख ओझल होते ही मेरी मेज से पाँच सौ रुपये उड़ जायँ, दरवाजे बाहर से बंद थे, कोई ग़ैर आया नहीं, रुपये रखते ही उड़ गये। जो लोग इस तरह मेरा गला काटने पर उतारू हों, उन्हें क्योंकर अपना समझूँ। मैंने खूब पता लगा लिया है, अभी एक ओझे के पास से चला आ रहा हूँ। उसने साफ कह दिया कि घर के ही किसी आदमी का काम है। अच्छी बात है, जैसी करनी वैसी भरनी। मैं भी बता दूँगा कि मैं अपने बैरियों का शुभचिंतक नहीं हूँ। यदि बाहर का आदमी होता तो कदाचित् मैं जाने भी देता। पर जब घर के आदमी जिनके लिए रात-दिन चक्की पीसता हूँ, मेरे साथ ऐसा छल करें तो वे इसी योग्य हैं कि उनके साथ जरा भी रिआयत न की जाय। देखना सबेरे तक चोर की क्या दशा होती है। मैंने ओझे से मूठ चलाने को कह दिया है। मूठ चली और उधर चोर के प्राण संकट में पड़े। जगिया घबड़ा कर बोली भइया, मूठ में जान जोखम है। डॉक्टर चोर की यही सजा है। जगिया किस ओझे ने चलाया है ? डॉक्टर बुद्धू चौधरी ने। जगिया अरे राम, उसकी मूठ का तो उतार ही नहीं। डॉक्टर अपने कमरे में चले गये, तो माँ ने कहा सूम का धन शैतान खाता है। पाँच सौ रुपया कोई मुँह मार कर ले गया। इतने में तो मेरे सातों धाम हो जाते। अहल्या बोली कंगन के लिए बरसों से झींक रही हूँ, अच्छा हुआ, मेरी आह पड़ी है। माँ भला घर में उसके रुपये कौन लेगा ? अहिल्या किवाड़ खुले होंगे, कोई बाहरी आदमी उड़ा ले गया होगा। माँ उसको विश्वास क्योंकर आ गया कि घर ही के किसी आदमी ने रुपये चुराये हैं। अहल्या रुपये का लोभ आदमी को शक्की बना देता है। रात को एक बजा था। डॉक्टर जयपाल भयानक स्वप्न देख रहे थे। एकाएक अहल्या ने आ कर कहा जरा चल कर देखिए, जगिया का क्या हाल हो रहा है। जान पड़ता है, जीभ ऐंठ गयी। कुछ बोलती ही नहीं, आँखें पथरा गयी हैं। डॉक्टर चौंक कर उठ बैठे। एक क्षण तक इधर-उधर ताकते रहे; मानो सोच रहे थे, यह भी स्वप्न तो नहीं है। तब बोले क्या कहा ! जगिया को क्या हो गया ? अहल्या ने फिर जगिया का हाल कहा। डॉक्टर के मुख पर हलकी-सी मुस्कराहट दौड़ गयी। बोले चोर पकड़ा गया ! मूठ ने अपना काम किया। अहल्या और जो घर ही के किसी आदमी ने ले लिये होते ? डॉक्टर तो उसकी भी यही दशा होती, सदा के लिए सीख जाता। अहल्या पाँच सौ रुपये के पीछे प्राण ले लेते ? डॉक्टर पाँच सौ रुपये के लिए नहीं, आवश्यकता पड़े तो पाँच हजार खर्च कर सकता हूँ, केवल छल-कपट का दंड देने के लिए। अहल्या बड़े निर्दयी हो। डॉक्टर तुम्हें सिर से पैर तक सोने से लाद दूँ तो मुझे भलाई का पुतला समझने लगो, क्यों ? खेद है कि मैं तुमसे यह सनद नहीं ले सकता। यह कहते हुए वह जगिया की कोठरी में गये। उनकी हालत उससे कहीं अधिक खराब थी जो अहल्या ने बतायी थी। मुख पर मुर्दनी छायी हुई थी, हाथ-पैर अकड़ गये थे, नाड़ी का पता न था। उसकी माँ उसे होश में लाने के लिए बार-बार उसके मुँह पर पानी के छींटे दे रही थी। डॉक्टर ने यह हालत देखी तो होश उड़ गये। उन्हें अपने उपाय की सफलता पर प्रसन्न होना चाहिए था। जगिया ने रुपये चुराये इसके लिए अब अधिक प्रमाण की आवश्यकता न थी; परंतु मूठ इतनी जल्दी प्रभाव डालने वाली और घातक वस्तु है, इसका उन्हें अनुमान भी न था। वे चोर को एड़ियाँ रगड़ते, पीड़ा से कराहते और तड़पते देखना चाहते थे। बदला लेने की इच्छा आशातीत सफल हो रही थी; परंतु वहाँ नमक की अधिकता थी, जो कौर को मुँह के भीतर धँसने नहीं देती। यह दुःखमय दृश्य देख कर प्रसन्न होने के बदले उनके हृदय पर चोट लगी। रोब में हम अपनी निर्दयता और कठोरता का भ्रममूलक अनुमान कर लिया करते हैं। प्रत्यक्ष घटना विचार से कहीं अधिक प्रभावशालिनी होती है। रणस्थल का विचार कितना कवित्वमय है। युद्धावेश का काव्य कितनी गर्मी उत्पन्न करने वाला है। परंतु कुचले हुए शव के कटे हुए अंग-प्रत्यंग देख कर कौन मनुष्य है, जिसे रोमांच न हो आवे। दया मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। इसके अतिरिक्त इसका उन्हें अनुमान न था कि जगिया जैसी दुर्बल आत्मा मेरे रोष पर बलिदान होगी। वह समझते थे, मेरे बदले का वार किसी सजीव मनुष्य पर होगा; यहाँ तक कि वे अपनी स्त्री और लड़के को भी इस वार के योग्य समझते थे। पर मरे को मारना, कुचले को कुचलना, उन्हें अपना प्रतिघात मर्यादा के विपरीत जान पड़ा। जगिया का यह काम क्षमा के योग्य था। जिसे रोटियों के लाले हों, कपड़ों को तरसे, जिसकी आकांक्षा का भवन सदा अंधकारमय रहा हो, जिसकी इच्छाएँ कभी पूरी न हुई हों, उसकी नीयत बिगड़ जाय तो आश्चर्य की बात नहीं। वे तत्काल औषधालय में गये, होश में लाने की जो अच्छी-अच्छी औषधियाँ थीं, उनको मिला कर एक मिश्रित नयी औषधि बना लाये, जगिया के गले में उतार दी। कुछ लाभ न हुआ। तब विद्युत यंत्र ले आये और उसकी सहायता से जगिया को होश में लाने का यत्न करने लगे। थोड़ी ही देर में जगिया की आँखें खुल गयीं। उसने सहमी हुई दृष्टि से डॉक्टर को देखा, जैसे लड़का अपने अध्यापक की छड़ी की ओर देखता है, और उखड़े हुए स्वर में बोली हाय राम, कलेजा फुँका जाता है, अपने रुपये ले ले, आले पर एक हाँड़ी है, उसी में रखे हुए हैं। मुझे अंगारों से मत जला। मैंने तो यह रुपये तीरथ करने के लिए चुराये थे। क्या तुझे तरस नहीं आता, मुट्ठी भर रुपयों के लिए मुझे आग में जला रहा है, मैं तुझे ऐसा काला न समझती थी, हाय राम ! यह कहते-कहते वह फिर मूर्छित हो गयी, नाड़ी बंद हो गयी, ओठ नीले पड़ गये, शरीर के अंगों में खिंचाव होने लगा। डॉक्टर ने दीन भाव से अहल्या की ओर देखा और बोले मैं तो अपने सारे उपाय कर चुका, अब इसे होश में लाना मेरी सामर्थ्य के बाहर है। मैं क्या जानता था कि यह अभागी मूठ इतनी घातक होती है। कहीं इसकी जान पर बन गयी तो जीवन भर पछताना पड़ेगा। आत्मा की ठोकरों से कभी छुटकारा न मिलेगा। क्या करूँ, बुद्धि कुछ काम नहीं करती। अहल्या सिविल सर्जन को बुलाओ, कदाचित् वह कोई अच्छी दवा दे दे। किसी को जान-बूझ कर आग में ढकेलना न चाहिए। डॉक्टर सिविल सर्जन इससे अधिक और कुछ नहीं कर सकता, जो मैं कर चुका। हर घड़ी इसकी दशा और गिरती जाती है, न जाने हत्यारे ने कौन-सा मंत्र चला दिया। उसकी माँ मुझे बहुत समझाती रही, पर मैंने क्रोध में उसकी बातों की जरा भी परवाह न की। माँ बेटा, तुम उसी को बुलाओ जिसने मंत्र चलाया है; पर क्या किया जायगा। कहीं मर गयी तो हत्या सिर पर पड़ेगी। कुटुम्ब को सदा सतायेगी। दो बज रहे थे, ठंडी हवा हड्डियों में चुभी जाती थी। डॉक्टर लम्बे पाँवों बुद्धू चौधरी के घर की ओर चले जाते थे। इधर-उधर व्यर्थ आँखें दौड़ाते थे कि कोई इक्का या ताँगा मिल जाय। उन्हें मालूम होता था कि बुद्धू का घर बहुत दूर हो गया। कई बार धोखा हुआ, कहीं रास्ता तो नहीं भूल गया। कई बार इधर आया हूँ, यह बाग तो कभी नहीं मिला, लेटर-बक्स भी सड़क पर कभी नहीं देखा, यह पुल तो कदापि न था, अवश्य राह भूल गया। किससे पूछूँ। वे अपनी स्मरण-शक्ति पर झुँझलाये और उसी ओर थोड़ी दूर तक दौड़े। पता नहीं, दुष्ट इस समय मिलेगा भी या नहीं, शराब में मस्त पड़ा होगा। कहीं इधर बेचारी चल न बसी हो। कई बार इधर-उधर घूम जाने का विचार हुआ पर अंतःप्रेरणा ने सीधी राह से हटने न दिया। यहाँ तक कि बुद्धू का घर दिखाई पड़ा। डॉक्टर जयपाल की जान में जान आयी। बुद्धू के दरवाजे पर जा कर जोर से कुण्डी खटखटायी। भीतर से कुत्ते ने असभ्यतापूर्ण उत्तर दिया, पर किसी आदमी का शब्द न सुनायी दिया। फिर ज़ोर-ज़ोर से किवाड़ खटखटाये, कुत्ता और भी तेज पड़ा, बुढ़िया की नींद टूटी। बोली यह कौन इतनी रात गये किवाड़ तोड़े डालता है ? डॉक्टर मैं हूँ, जो कुछ देर हुई तुम्हारे पास आया था। बुढ़िया ने बोली पहचानी, समझ गयी इनके घर के किसी आदमी पर बिपत पड़ी, नहीं तो इतनी रात गये क्यों आते; पर अभी तो बुद्धू ने मूठ चलाई नहीं। उसका असर क्योंकर हुआ, समझाती थी तब न माने। खूब फँसे। उठकर कुप्पी जलायी और उसे लिये बाहर निकली। डॉक्टर साहब ने पूछा बुद्धू चौधरी सो रहे हैं। जरा उन्हें जगा दो। बुढ़िया न बाबू जी, इस बखत मैं न जगाऊँगी, मुझे कच्चा ही खा जायगा, रात को लाट साहब भी आवें तो नहीं उठता। डॉक्टर साहब ने थोड़े शब्दों में पूरी घटना कह सुनायी और बड़ी नम्रता के साथ कहा कि बुद्धू को जगा दे। इतने में बुद्धू अपने ही आप बाहर निकल आया और आँखें मलता हुआ बोला कहिए बाबू जी, क्या हुकुम है। बुढ़िया ने चिढ़ कर कहा तेरी नींद आज कैसे खुल गयी, मैं जगाने गयी होती तो मारने उठता। डॉक्टर मैंने सब माजरा बुढ़िया से कह दिया है, इसी से पूछो। बुढ़िया कुछ नहीं, तूने मूठ चलायी थी, रुपये इनके घर की महरी ने लिये हैं, अब उसका अब-तब हो रहा है। डॉक्टर बेचारी मर रही है, कुछ ऐसा उपाय करो कि उसके प्राण बच जायँ ! बुद्धू यह तो आपने बुरी सुनायी, मूठ को फेरना सहज नहीं है। बुढ़िया बेटा, जान जोखिम है, क्या तू जानता नहीं। कहीं उल्टे फेरनेवाले पर ही पड़े तो जान बचना ही कठिन हो जाय। डॉक्टर अब उसकी जान तुम्हारे ही बचाये बचेगी, इतना धर्म करो। बुढ़िया दूसरे की जान की खातिर कोई अपनी जान गढ़े में डालेगा ? डॉक्टर तुम रात-दिन यही काम करते हो, तुम उसके दाँव-घात सब जानते हो। मार भी सकते हो, जिला भी सकते हो। मेरा तो इन बातों पर बिलकुल विश्वास ही न था, लेकिन तुम्हारा कमाल देख कर दंग रह गया। तुम्हारे हाथों कितने ही आदमियों का भला होता है, उस गरीब बुढ़िया पर दया करो। बुद्धू कुछ पसीजा, पर उसकी माँ मामलेदारी में उससे कहीं अधिक चतुर थी। डरी, कहीं यह नरम हो कर मामला बिगाड़ न दे। उसने बुद्धू को कुछ कहने का अवसर न दिया। बोली यह तो सब ठीक है, पर हमारे भी बाल-बच्चे हैं ! न जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े। वह हमारे सिर आवेगी न ? आप तो अपना काम निकाल कर अलग हो जायेंगे। मूठ फेरना हँसी नहीं है। बुद्धू हाँ बाबू जी, काम बड़े जोखिम का है। डॉक्टर काम जोखिम का है जो मुफ्त तो नहीं करवाना चाहता। बुढ़िया आप बहुत देंगे, सौ-पचास रुपये देंगे। इतने में हम कै दिन तक खायेंगे। मूठ फेरना साँप के बिल में हाथ डालना है, आग में कूदना है। भगवान् की ऐसी ही निगाह हो तो जान बचती है। डॉक्टर तो माता जी, मैं तुमसे बाहर तो नहीं होता हूँ। जो कुछ तुम्हारी मरजी हो वह कहो। मुझे तो उस गरीब की जान बचानी है। यहाँ बातों में देर हो रही है, वहाँ मालूम नहीं, उसका क्या हाल होगा। बुढ़िया देर तो आप ही कर रहे हैं, आप बात पक्की कर दें तो यह आपके साथ चला जाय। आपकी खातिर यह जोखिम अपने सिर ले रही हूँ दूसरा होता तो झट इनकार कर जाती। आपके मुलाहजे में पड़ कर जान-बूझ कर जहर पी रही हूँ। डॉक्टर साहब को एक क्षण एक वर्ष जान पड़ रहा था। बुद्धू को उसी समय अपने साथ ले जाना चाहते थे। कहीं उसका दम निकल गया तो यह जा कर क्या बनायेगा। उस समय उनकी आँखों में रुपये का कोई मूल्य न था। केवल यही चिन्ता थी कि जगिया मौत के मुँह से निकल आये। जिस रुपये पर वह अपनी आवश्यकताएँ और घरवालों की आकांक्षाएँ निछावर करते उसे दया के आवेश ने बिलकुल तुच्छ बना दिया था। बोले तुम्हीं बतलाओ, अब मैं क्या कहूँ, पर जो कुछ कहना हो झटपट कह दो। बुढ़िया अच्छा तो पाँच सौ रुपये दीजिए, इससे कम में काम न होगा। बुद्धू ने माँ की ओर आश्चर्य से देखा, और डॉक्टर साहब मूर्छित से हो गये, निराशा से बोले इतना मेरे बूते के बाहर है, जान पड़ता है उसके भाग्य में मरना ही बदा है। बुढ़िया तो जाने दीजिए, हमें अपनी जान भार थोड़े ही है। हमने तो आपके मुलाहिजे से इस काम का बीड़ा उठाया था। जाओ बुद्धू, सोओ। डॉक्टर बूढ़ी माता, इतनी निर्दयता न करो, आदमी का काम आदमी से निकलता है। बुद्धू नहीं बाबूजी, मैं हर तरह से आपका काम करने को तैयार हूँ, इसने पाँच सौ कहे, आप कुछ कम कर दीजिए। हाँ, जोखिम का ध्यान रखिएगा। बुढ़िया तू जा के सोता क्यों नहीं ? इन्हें रुपये प्यारे हैं तो क्या तुझे अपनी जान प्यारी नहीं है। कल को लहू थूकने लगेगा तो कुछ बनाये न बनेगी, बाल-बच्चों को किस पर छोड़ेगा ? है घर में कुछ ? डॉक्टर साहब ने संकोच करते हुए ढाई सौ रुपये कहे। बुद्धू राजी हो गया, मामला तय हुआ, डॉक्टर साहब उसे साथ लेकर घर की ओर चले। उन्हें ऐसी आत्मिक प्रसन्नता कभी न मिली थी। हारा हुआ मुकदमा जीत कर अदालत से लौटने वाला मुकदमेबाज भी इतना प्रसन्न न होगा। लपके चले जाते थे। बुद्धू से बार-बार तेज चलने को कहते। घर पहुँचे तो जगिया को बिलकुल मरने के निकट पाया। जान पड़ता था यही साँस अंतिम साँस है। उनकी माँ और स्त्री दोनों आँसू भरे निराश बैठी थीं। बुद्धू को दोनों ने विनम्र दृष्टि से देखा। डॉक्टर साहब के आँसू भी न रुक सके। जगिया की ओर झुके तो आँसू की बूँदें उसके मुरझाये हुए पीले मुँह पर टपक पड़ीं। स्थिति ने बुद्धू को सजग कर दिया, बुढ़िया के देह पर हाथ रखते हुए बोला बाबू जी, अब मेरा किया कुछ नहीं हो सकता, यह दम तोड़ रही है। डॉक्टर साहब ने गिड़गिडा कर कहा नहीं चौधरी, ईश्वर के नाम पर अपना मंत्र चलाओ, इसकी जान बच गयी तो सदा के लिए मैं तुम्हारा गुलाम बना रहूँगा। बुद्धू आप मुझे जान-बूझ कर जहर खाने को कहते हैं। मुझे मालूम न था कि मूठ के देवता इस बखत इतने गरम हैं। वह मेरे मन में बैठे कह रहे हैं, तुमने हमारा शिकार छीना तो हम तुम्हें निगल जायेंगे। डॉक्टर देवता को किसी तरह राजी कर लो। बुद्धू राजी करना बड़ा कठिन है, पाँच सौ रुपये दीजिए तो इसकी जान बचे। उतारने के लिए बड़े-बड़े जतन करने पड़ेंगे। डॉक्टर पाँच सौ रुपये दे दूँ तो इसकी जान बचा दोगे ? बुद्धू हाँ, शर्त बद कर। डॉक्टर साहब बिजली की तरह लपक कर अपने कमरे में आ गये और पाँच सौ रुपयों की थैली लाकर बुद्धू के सामने रख दी। बुद्धू ने विजय की दृष्टि से थैली को देखा। फिर जगिया का सर अपनी गोद में रखकर उस पर हाथ फेरने लगा। कुछ बुदबुदा कर छू-छू करता जाता था। एक क्षण में उसकी सूरत डरावनी हो गयी, लपटें-सी निकलने लगीं। बार-बार अँगड़ाइयाँ लेने लगा। इसी दशा में एक बेसुरा गाना आरम्भ किया, पर हाथ जगिया के सर पर ही था। अंत में कोई आध घंटा बीतने पर जगिया ने आँखें खोल दीं, जैसे बुझते हुए दीये में तेल पड़ जाय। धीरे-धीरे उसकी अवस्था सुधरने लगी। उधर कौवे की बोली सुनाई दी, जगिया एक अँगड़ाई ले कर उठ बैठी। सात बजे थे जगिया मीठी नींद सो रही थी; उसकी आकृति निरोग थी, बुद्धू रुपयों की थैली ले कर अभी गया था। डॉक्टर साहब की माँ ने कहा बात-की-बात में पाँच सौ रुपये मार ले गया। डॉक्टर यह क्यों नहीं कहती कि एक मुरदे को जिला गया। क्या उसके प्राण का मूल्य इतना भी नहीं है। माँ देखो, आले पर पाँच सौ रुपये हैं या नहीं ? डॉक्टर नहीं, उन रुपयों में हाथ मत लगाना, उन्हें वहीं पड़े रहने दो। उसने तीरथ करने के वास्ते लिये थे, वह उसी काम में लगेंगे। माँ यह सब रुपये उसी के भाग के थे। डॉक्टर उसके भाग के तो पाँच सौ ही थे, बाकी मेरे भाग के थे। उनकी बदौलत मुझे ऐसी शिक्षा मिली, जो उम्र भर न भूलेगी। तुम मुझे अब आवश्यक कामों में मुट्ठी बंद करते हुए न पाओगी।
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